ૐ
नमः सद्गुरुवे
उपोद्घात
[गुजराती उपोद्घातका हिन्दी रूपान्तर]
भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत यह ‘नियमसार’ नामक शास्त्र ‘द्वितीय श्रुतस्कंध’ के
सर्वोत्कृष्ट आगमोंमेंसे एक है ।
‘द्वितीय श्रुतस्कंध’की उत्पत्ति किस प्रकार हुई उसे हम पट्टावलियोंके आधार पर प्रथम
संक्षेपमें देखें : —
आजसे २४७७ वर्ष पूर्व इस भरतक्षेत्रको पुण्यभूमिमें जगत्पूज्य परमभट्टारक भगवान
श्री महावीरस्वामी मोक्षमार्गका प्रकाश करनेके लिए समस्त पदार्थोंका स्वरूप अपनी सातिशय
दिव्यध्वनि द्वारा प्रगट कर रहे थे । उनके निर्वाणके पश्चात् पाँच श्रुतकेवली हुए, जिनमें अन्तिम
श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी थे । वहाँ तक तो द्वादशांगशास्त्रकी प्ररूपणासे निश्चयव्यवहारात्मक
मोक्षमार्ग यथार्थ प्रवर्तमान रहा । तत्पश्चात् कालदोषके कारण क्रमशः अंगोंके ज्ञानकी व्युच्छित्ति
होती गई । इसप्रकार अपार ज्ञानसिन्धुका अधिकांश विच्छिन्न होनेके पश्चात् द्वितीय
भद्रबाहुस्वामी आचार्यकी परिपाटीमें दो समर्थ मुनि हुए — एकका नाम श्री धरसेन आचार्य और
दूसरेका नाम श्री गुणधर आचार्य । उनसे प्राप्त हुए ज्ञानके द्वारा उनकी परम्परामें होनेवाले
आचार्योंने शास्त्रोंकी रचना की और वीर भगवानके उपदेशका प्रवाह अच्छिन्न रखा ।
श्री धरसेन आचार्यको आग्रायणीपूर्वके पंचम वस्तु-अधिकारके महाकर्मप्रकृति नामक
चतुर्थ प्राभृतका ज्ञान था । उस ज्ञानामृतमेंसे क्रमानुसार आगे होनेवाले आचार्यों द्वारा
षट्खंडागम, धवल, महाधवल, जयधवल, गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि शास्त्रोंकी
रचना हुई । इसप्रकार प्रथम श्रुतस्कंधकी उत्पत्ति है । उसमें जीव और कर्मके संयोगसे हुई
आत्माकी संसारपर्यायका — गुणस्थान, मार्गणा आदिका — वर्णन है; पर्यायार्थिकनयको प्रधान
रखकर कथन किया गया है । इस नयको अशुद्ध-द्रव्यार्थिक भी कहते हैं और अध्यात्मभाषामें
अशुद्धनिश्चयनय अथवा व्यवहार कहा जाता है ।