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सोनगढ
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आधारे प्रो० ए. एन. उपाध्ये अने प्रो० हीरालाल जैने आ ग्रन्थनुं संपादन करेल अने तेनो
हिंदी भाषामां अनुवाद पं. बालचंद्र सिद्धान्तशास्त्रीए करेल, जे ‘जीवराज ग्रंथमाला’मां प्रकाशित
थयेल तेना उपरथी आ गुजराती भाषांतर ब्र० व्रजलाल गिरधरलाल शाहे (वढवाण शहेर)
करी आपेल छे. ब्रह्मचारी भाई श्री वजुभाईए आ उपरांत बीजां अनेक शास्त्रोनां भाषांतर
निस्पृहपणे करेल छे. ते बदल तेओ धन्यवादने पात्र छे.
वर्तमानमां पण आ शास्त्रना अनेक श्लोको विद्वद्वर्गमां अतिशय प्रचलित छे.
रसास्वाद स्वाध्यायपूर्वक करवा वाचकवर्गने भलामण छे. प्रतिपादननी शैली घणी ज सरळ अने
रुचिकर छे. बे स्तुति (१३-१४) प्राकृत भाषामां रचेली छे. बाकीनी तमाम रचना संस्कृत
श्लोकोमां छे. कुल ९३९ पदोनो संग्रह आ ग्रंथमां छे.
ग्रंथमालाना अधिकारीवर्गनो तथा हिंदी अनुवादकनो आभार मानवामां आवे छे. गुजराती
भाषांतर सहित आ शास्त्र प्रथमवार आ पहेलां श्री वीतराग सत्साहित्य प्रसारक ट्रस्ट,
भावनगरथी प्रकाशित थयेल छे.
रुचिना पोषण अर्थे आ ट्रस्ट द्वारा अध्यात्मप्रधान शास्त्रोनां प्रकाशननुं कार्य अविरतपणे प्रवर्ती
रह्युं छे. ते अंतर्गत श्री ‘पद्मनंदि
पूज्य गुरुदेव अने पूज्य भगवती माता (बहेनश्री चंपाबेन)ना धर्मोपकारने ज आभारी छे.
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वि. सं. २०५५
छे.
कारतक सुद एकम
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शान्तिनाथनुं स्मरण ......................................................................... ५ .........................४
धर्मोपदेष्टा जिनदेवनुं स्मरण.............................................................. ६..........................४
धर्मनुं स्वरूप अने तेना भेद ............................................................ ७ .........................४
धर्मना मूळभूत दया धारणानी प्रेरणा................................................. ८ ...................... ५
प्राणीओना वधमां पितृ आदिना वधनो दोष संभवे छे ......................... ९ ......................... ६
जीवननुं दान सर्वश्रेष्ठ दान छे........................................................... १० ....................... ६
दया विना दान, तप अने ध्यानादि निरर्थक छे .................................... ११ ....................... ७
मुनिधर्मनुं आलंबन सद्गृहस्थ छे. ..................................................... १२ ....................... ७
गृहस्थाश्रमनुं स्वरूप ........................................................................ १३ ....................... ८
गृहस्थधर्मना अगियार स्थानोनो निर्देश .............................................. १४ ....................... ८
समस्त व्रतविधान व्यसनोना परित्याग उपर निर्भर छे.......................... १५ ....................... ९
महापापस्वरूप सात व्यसनोनो नाम निर्देश ......................................... १६ .................... १०
द्यूत (जुगार) सर्व व्यसनोमां मुख्य छे .............................................. १७-१८.......... १०-११
मांसनुं स्वरूप अने तेना भक्षणमां निर्दयता ......................................... १९-२०.......... ११-१२
मद्यनुं स्वरूप अने मद्यपानथी थती हानि ........................................... २१-२२.......... १२-१३
धोबीनी शिला समान वेश्याओ नरकनुं द्वार छे .................................... २३-२४.......... १३-१४
शिकारमां निर्दयताथी दीन हीन प्राणीओनो व्यर्थ वध
करवामां आवे छे. ................................................................... २५-२६ .......... १४-१५
परस्त्री अने परधनना अनुरागथी थती हानि ...................................... २९-३०................ १६
उक्त द्यूतादि सात व्यसनोने कारणे कष्ट प्राप्त थयेल
व्यसनोथी थती हानि बतावीने तेमनाथी विमुख रहेवानी प्रेरणा ............. ३३ .................... २२
मिथ्याद्रष्टि आदिनो संग छोडीने सत्पुरुषोना संगनी प्रेरणा .................... ३४-३५............... २३
कळिकाळमां दुष्टोनी वच्चे साधुजनोनुं (सज्जनोनुं) जीवित रहेवुं मुश्केल छे. ३६ .................... २४
दुर्जननी संगतिनी अपेक्षाए तो मरवुं सारुं छे ..................................... ३७ .................... २४
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चेतन आत्माने छोडी परमां अनुराग कर्मबंधनुं कारण छे. ..................... ३९ .................... २५
मूळगुणो विना उत्तरगुणोना पालननो प्रयत्न घातक छे. ......................... ४० .................... २५
वस्त्रना दोष देखाडीने दिगंबरत्वनी प्रशंसा ........................................... ४१ ..................... २६
केशलोच वैराग्यादिने वधारनार छे. ..................................................... ४२ ..................... २६
स्थितिभोजननी प्रतिज्ञा .................................................................... ४३ .................... २७
समताभाव..................................................................................... ४४-४५.......... २७-२८
प्रमाद रहित थईने एकान्तवासनी प्रतिज्ञा ........................................... ४६ .................... २८
संसारनुं स्वरूप जोईने हर्ष-विषादनी व्यर्थता ........................................ ४७ .................... २८
राग-द्वेषना परित्याग विना संवर अने निर्जरा संभवित नथी ................. ४८ .................... २९
संसारसमुद्रथी पार थवानी सामग्री .................................................... ४९ .................... २९
मोहने कृश कर्या विना तप आदिनो क्लेश सहेवो व्यर्थ छे .................... ५० .................... ३०
जे कषायोनो निग्रह करतो नथी तेना परिषह सहवा मायाचार छे .......... ५१ .................... ३०
समस्त अनर्थोनुं कारण अर्थ (धन) ज छे........................................... ५२ .................... ३१
शय्या माटे घास आदिनी पण अपेक्षा राखवाथी निर्ग्रन्थपणुं
नाश पामे छे......................................................................... ५३ .................... ३१
मोक्षनी पण अभिलाषा तेनी प्राप्तिमां बाधक छे ................................. ५५ .................... ३२
परिग्रहादिनी निंदा .......................................................................... ५६ .................... ३२
साधु प्रशंसा .................................................................................. ५७-५८............... ३३
आचार्यनुं स्वरूप ............................................................................. ५९-६० .......... ३३-३४
उपाध्यायनुं स्वरूप ........................................................................... ६१ .................... ३४
साधुओनुं स्वरूप अने तेमनी सहनशीलता .......................................... ६२-६६ .......... ३५-३६
आत्मज्ञान विना करवामां आवेल कायक्लेश धान्यरहित खेतरनी
रक्षा करवा समान व्यर्थ छे ....................................................... ६७ .................... ३७
तीर्थनुं स्वरूप ................................................................................. ६९ .................... ३८
रत्नत्रयधारक मुनिनो तिरस्कार करनार नरकना पात्र थाय छे .................. ७० .................... ३८
मुनिओनी स्तुति असंभव छे ............................................................ ७१ .................... ३८
व्यवहारसम्यग्दर्शनादिनुं स्वरूप अने ते त्रणे विना मुक्तिनी असंभवना ..... ७२-७६ .......... ३९-४१
सम्यग्दर्शन विना ज्ञान अने चारित्र मिथ्या कहेवाय छे ......................... ७७ .................... ४१
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उक्त सम्यग्दर्शनादि आत्मस्वरूप छे ............................................... ७९ ........................ ४२
शुद्धनयनुं आत्मतत्त्व अखंड छे ...................................................... ८० ........................ ४२
निश्चय सम्यग्दर्शनादिनुं स्वरूप ....................................................... ८१ ........................ ४३
उत्तम क्षमानुं स्वरूप .................................................................... ८२ ........................ ४३
क्रोध मुनिधर्मनो विघातक छे ......................................................... ८३ ........................ ४४
क्रोधना कारणो उपस्थित थतां मुनिजन शुं विचार करे छे ................... ८४-८६ .............. ४४-४५
मार्दव धर्मनुं स्वरूप..................................................................... ८७-८८ ............. ४५-४६
आर्जव धर्मनुं स्वरूप ................................................................... ८९-९० ................... ४६
सत्य वचननुं स्वरूप अने तेनी उपादेयता ....................................... ९१-९३ .................. ४७
शौच धर्मनुं स्वरूप अने बाह्य शौचनुं अकिंचित्करपणुं ........................ ९४-९५ .................. ४८
संयमनुं स्वरूप अने तेनी उपादेयता ............................................... ९६-९७ .............. ४८-४९
तपनुं स्वरूप अने तेनी उपादेयता .................................................. ९८-१०० ........... ४९-५१
त्याग अने आकिंचन्यनुं स्वरूप ...................................................... १०१ ...................... ५१
मुनिओनी दुर्लभता ..................................................................... १०२ ...................... ५२
ममत्वना अभावमां शरीर अने शास्त्र आदिने परिग्रह कही शकातो नथी १०३ .................. ५२
ब्रह्मचर्यनुं स्वरूप अने तेना धारकोनी प्रशंसा ................................... १०४-५ .................. ५३
आ दस धर्म मोक्षमहेलमां जवा माटे नीसरणीना पगथिया समान छे. १०६ ...................... ५४
स्वास्थ्यनुं स्वरूप ......................................................................... १०७ ...................... ५४
चिद्रूपनुं स्वरूप ........................................................................... १०८ ...................... ५५
मुक्तिनुं स्वरूप ........................................................................... १०९ ...................... ५५
अतीन्द्रिय आत्मा संबंधी कांईक कहेवानी प्रतिज्ञा .............................. ११० ...................... ५५
शृंगारादि प्रधान काव्य अने तेमनी रचना करनार कविओनी निन्दा...... १११-१३ ........... ५६-५७
स्त्री शरीरनुं स्वरूप ..................................................................... ११४-१५ ................ ५७
स्त्रीनी भयंकरता.......................................................................... ११६-१८................. ५८
मोहनो महिमा देखाडी तेना त्यागनो उपदेश ................................... ११९-२३ ........... ५९-६०
वीतराग अने सर्वज्ञ आप्तनुं ज वचन प्रमाण होई शके छे,
तेमना वचनमां संदेह करवो ए मूर्खाई छे .............................. १२४-२५ ................. ६१
परोक्ष पदार्थना विषयमां जिनवचनने प्रमाण मानवुं जोईए ............... १२८ ....................... ६३
ज्ञाननो महिमा .......................................................................... १२९-३१ ........... ६३-६४
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आत्मानुं ज नाम धर्म छे ............................................................ १३३ ....................... ६५
माध्यमिक आदि अन्य वादीओ द्वारा कल्पित आत्माना स्वरूपनो
अन्य वादीओ द्वारा परिकल्पित आत्माना व्यापकत्व आदिनुं निराकरण .. १३७ ....................... ६८
आत्मानुं कर्तृत्व अने भोक्तृत्व ....................................................... १३८ ...................... ७०
ते आत्मानुं स्वरूप नय-प्रमाणादिनो आश्रयथी ग्रहण करवुं जोईए ...... १३९ ...................... ७१
राग-द्वेषना परित्यागनो उपदेश ...................................................... १४०-१४५ ......... ७३-७५
परमात्मा आ ज शरीरनी अंदर स्थित छे ...................................... १४६ ...................... ७५
पर पदार्थोमां इष्टानिष्ट कल्पनानो निषेध ........................................ १४७-४९ ................. ७६
तत्त्ववित् कोण छे? ...................................................................... १५० ...................... ७७
सुख-दुःखनो अविवेक ................................................................... १५१ ...................... ७७
आत्माने परथी भिन्न समजवो ए ज समस्त उपदेशनुं रहस्य छे ...... १५२ ...................... ७७
योगीनुं स्वरूप ............................................................................ १५३ ...................... ७८
परथी भिन्न आत्मतत्त्वनो विचार अने तेनुं फळ .............................. १५४-६१............ ७८-८२
गुरुनो उपदेश दिव्य अमृत समान छे ............................................ १६२ ...................... ८२
योगी-पथिकोनुं स्वरूप अने तेमने नमस्कार ...................................... १६३ ...................... ८३
ते धर्मनुं वर्णन केवळी ज करी शके छे ........................................... १६४ ...................... ८३
आ धर्म-रसायण मिथ्यात्वादि बंधकारणोनो परित्याग करतां
ज प्राप्त थई शके छे .......................................................... १६५ ...................... ८३
परीवर्तनशील संसारमां जीवन अने धनादिनी नश्वरता ....................... १७३-७६............ ८७-८८
मृत्यु अनिवार्य होवाथी विवेकीजनो तेने माटे शोक करता नथी ............ १७७ ...................... ८८
धर्मनुं फळ ................................................................................. १७८-८१ ........... ८९-९०
धर्मनी रक्षाथी ज आत्मरक्षा संभवे छे ........................................... १८२-८३ ........... ९०-९१
धर्मनो महिमा ........................................................................... १८४-९६............ ९१-९६
प्रकरणना अंते ग्रन्थकारनी गुरु पासे वर याचना ............................. १९७ ...................... ९७
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लोभी जीवोना उद्धार अर्थे दानोपदेशनी प्रतिज्ञा ................................... ४ .................... १०१
सत्पात्रदान मोहनो नाश करीने मनुष्यने सद्गृहस्थ बनावे छे ................ ५-६ ................. १०१
धननी सफळता दानमां छे ................................................................ ७ .................... १०२
सत्पात्रदानथी द्रव्य वडना बीज समान वधे ज छे ................................ ८ .................... १०३
भक्तिथी आपवामां आवेलुं दान दाता अने पात्र बन्नेने
माटे हितकर थाय छे............................................................... ९ .................... १०३
सत्पात्रदान विना गृहस्थ जीवन निष्फळ छे ......................................... १७ ...................१०६
दान विना वैभवनी निष्फळतानां उदाहरण ........................................... १८ .................. १०७
दान वशीकरण मंत्र समान छे .......................................................... १९ .................. १०७
दानजनित पुण्यनी राज्य लक्ष्मी साथे तुलना ....................................... २० .................. १०७
दान विना मनुष्यभवनी विफळता ....................................................... २१-२२............. १०८
दान रहित वैभवनी अपेक्षाए तो निर्धनता ज श्रेष्ठ छे ......................... २३ .................. १०९
दान विना गृहस्थाश्रमनी व्यर्थता ....................................................... २४-२५............. १०९
सत्पात्रदान परलोकयात्रामां नाश्ता समान छे ....................................... २६ .................. ११०
दाननो संकल्प मात्र पण पुण्यवर्धक छे ............................................... २७ .................. ११०
पात्र आवतां दानादिथी तेनुं सन्मान न करवुं ए अशिष्टता छे ............... २८ .................. ११०
दान विनानो दिवस पुत्रना मृत्युदिनथी पण खराब छे .......................... २९ .................. १११
धर्मना निमित्ते थता सर्व विकल्पो दानथी ज सफळ थाय छे................... ३० .................. १११
दान विना पण पोताने दानी तरीके प्रगट करनार महान
दुःखनुं पात्र थाय छे ............................................................... ३१ .................. ११२
दाननी अनुमोदनाथी मिथ्याद्रष्टि पशु पण उत्तम भोगभूमि प्राप्त करे छे . ३३ .................. ११३
दानरहित मनुष्यना अविवेकनुं उदाहरण .............................................. ३४-३६ ......११३-११४
जे धन दानना उपयोगमां आवे छे ते ज धन वास्तवमां पोतानुं छे ....... ३७ .................. ११५
धननो क्षय पुण्यना क्षयथी थाय छे, नहि के दानथी ............................. ३८ .................. ११५
लोभ बधा ज उत्तम गुणोनो घातक छे .............................................. ३९ .................. ११५
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मनुष्यभवनी सफळता दानमां छे, अन्यथा उदरपूर्ति तो कूतरा पण करे छे .. ४१ .................११६
दान सिवाय अन्य प्रकारे करवामां आवतो धननो उपयोग कष्टदायक छे ...... ४२ ................ ११७
प्राणी साथे परलोकमां धर्म ज जाय छे, नहि के धन ............................. ४३ ................ ११७
सर्व अभिष्ट सामग्री पात्रदानथी ज प्राप्त थाय छे ................................ ४४ ................ ११८
जे व्यक्ति धननो संचय अने पुत्रविवाहादि लक्ष्यमां राखीने भविष्यमां
दाननी भावना राखे छे तेना जेवो मूर्ख बीजो नथी ....................... ४५ ................ ११८
कृपणना धननी स्थिरता उपर ग्रन्थकारनी कल्पना.................................... ४७ ................ ११९
उत्तम पात्र आदिनुं स्वरूप अने तेमने आपेला दाननुं फळ ...................... ४८-४९ ....११९-१२०
दानना चार भेद .............................................................................. ५० ................ १२०
जिनालय माटे करवामां आवेलुं भूमिदान संस्कृतिनी स्थिरतानुं कारण छे ..... ५१ ................ १२०
कृपणने दाननो उपदेश रुचतो नथी, ते तो आसन्नभव्यने ज प्रीति
उत्पन्न करे छे .......................................................................... ५२-५३ ........... १२१
११
१
शरीरनुं स्वरूप अने तेनी अस्थिरता ..................................................... २-३ ........१२३-१२४
शरीरादि स्वभावथी अस्थिर होवाथी तेमनो हर्ष-शोक मानवो योग्य नथी ... ४-३० ......१२४-१३५
यम सर्वत्र विद्यमान छे. .................................................................... ३१ .................१३६
उदय प्राप्त कर्मनुं फळ बधाने भोगववुं पडे छे ...................................... ३२ .................१३६
दैवनी प्रबळतानुं उदाहरण .................................................................. ३३ ................ १३७
मृत्युनो ग्रास थवा छतां पण अज्ञानी जीवो स्थिरतानो
अनुभव करे छे. ....................................................................... ३४-४१ ....१३७-१४०
मनुष्य सम्पत्ति माटे केवा अनर्थ करे छे ............................................... ४४ ................ १४२
शोकथी थनारी हानिनुं दिग्दर्शन........................................................... ४५ ................ १४२
आपत्तिस्वरूप संसारमां विषाद करवो उचित नथी ................................... ४६ ................ १४३
जीवनादिने नश्वर देखीने पण आत्महित न करवुं ए पागलपणानुं
सूचक छे ................................................................................. ४७ ................ १४३
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बीजानी तो शी वात? इन्द्र अने चन्द्र पण मृत्यना ग्रास बने छे ......... ५१ .................. १४५
संयोग-वियोग अने जन्म-मरणादि अविनाभावी छे ............................... ५२ .................. १४५
दैवनी प्रबळता जोईने धर्ममां रत थवुं जोईए .................................... ५३-५४..............१४६
अनित्य पंचाशत् जयवंत हो ............................................................. ५५ .................. १४७
चित्तत्व प्रत्येक प्राणीमां छे, पण अज्ञानी तेने जाणता नथी.................... ४ .................. १४९
अनेक शास्त्रोने जाणनार पण तेने काष्टमां स्थित
केटलाक अनेकान्तात्मक वस्तुस्वरूपनुं एकान्तरूपे ग्रहण करीने जन्मांध
लोकोए धर्मनुं स्वरूप विकृत करी नाख्युं छे.......................................... ९ .................... १५१
क्यो धर्म यथार्थ छे ........................................................................ १० .................. १५१
चैतन्यनुं ज्ञान अने तेनो संयोग दुर्लभ छे .......................................... ११ .................. १५१
भव्य जीव पांच लब्धिओ पामीने मोक्षमार्गमां स्थित थाय छे ............... १२ .................. १५१
मुक्तिना कारणभूत सम्यग्दर्शनादिनुं स्वरूप ........................................... १३-१४............. १५३
शुद्ध निश्चयनयनी अपेक्षाए ते सम्यग्दर्शनादि भिन्न न होतां
अखंड आत्मस्वरूप छे.............................................................. १५ .................. १५३
निश्चय अने व्यवहार द्रष्टिमां आत्मावलोकन......................................... १७ .................. १५४
जे एक अखंड आत्माने जाणे छे ते ज मुक्ति पामे छे ........................ १८-१९............. १५४
केवळज्ञान-दर्शनस्वरूप आत्मा ज जाणवा देखवा योग्य छे ....................... २०-२१......१५४-१५५
योगी गुरु उपदेशथी आत्माने जाणीने कृतकृत्य थई जाय छे .................. २२ .................. १५५
जे प्रेमथी ते परम ज्योतिनी वात पण सांभळे छे ते मुक्तिनुं
भाजन भव्य छे एम समजवुं जोईए. ....................................... २३ .................. १५५
परनो संबंध बंधनुं कारण छे ........................................................... २५ ...................१५६
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ते ज आत्मज्योति ज्ञान-दर्शनादिरूप सर्वस्व छे .................................... ३९-५२...... १६०-१६३
मोक्षनी पण इच्छा मोक्षप्राप्तिमां बाधक छे ......................................... ५३ ...................१६३
भव्य जीवे चैतन्यस्वरूप आत्मानो विचार करी जन्मपरंपरा
नष्ट करवी जोईए. .................................................................. ५४-५७...... १६३-१६४
जे जीव ते आत्मतत्त्वनो विचार ज करे छे ते देवो द्वारा पूजाय छे ......... ६२ ................... १६६
सर्वज्ञदेवे ते परमज्योतिनी प्राप्तिनो उपाय साम्यभाव बताव्यो छे........... ६३ ................... १६६
साम्यना समानार्थक नाम अने तेनुं स्वरूप .......................................... ६४-६९ ...... १६६-१६७
समता-सरोवरना आराधक आत्म-हंसने नमस्कार ................................... ७० ...................१६७
ज्ञानी जीवने तापकारी मृत्यु पण अमृत (मोक्ष)ना संगनुं कारण छे ......... ७१ ...................१६८
विवेक विना मनुष्य पर्याय आदिनी व्यर्थता ......................................... ७२ ................ १६८
विवेकनुं स्वरूप ................................................................................ ७३ ...................१६८
विवेकी जीवने संसारमां बधुं ज दुःखरूप प्रतिभासे छे........................... ७४ ...................१६८
विवेकी जीवने हेय शुं छे अने उपादेय शुं छे? .................................... ७५ ...................१६९
हुं क्या स्वरूपे छुं ........................................................................... ७६ ...................१६९
एकत्व सप्ततिने गंगा नदीनी उपमा .................................................. ७७ ...................१६९
ते एकत्व सप्तति संसार-समुद्रथी पार थवामां पुल समान छे ................ ७८ ...................१६९
मने कर्म अने तत्कृत विकृति आदि सर्व आत्माथी भिन्न पि्रतभासे छे ..... ७९ .................. १७०
एकत्व सप्ततिना अभ्यास आदिनुं फळ ............................................... ८० .................. १७०
११
१
९९
९
मुनि शुं विचार करे छे .................................................................... २-४ ..........१७१-१७२
कृति कोण कहेवाय छे....................................................................... ५ .................... १७२
ॠतु विशेष अनुसार कष्ट सहन करनार शान्त मुनिओना
मार्गे जवानी अभिलाषा .......................................................... ६..................... १७३
अंतस्तत्त्वना ज्ञाता ते मुनि आपणने शान्तिनुं निमित्त थाव .................... ८ .................... १७४
यतिभावनाष्टकना अभ्यासनुं फल ........................................................ ९ .................... १७४
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धर्मनुं स्वरूप .................................................................................. २ .................... १७५
दीर्घतर संसार कोनो छे? ................................................................. ३ .................... १७५
धर्मना बे भेद अने तेना स्वामी....................................................... ४ .....................१७६
गृहस्थ धर्मना हेतु केम मनाय छे? ................................................... ५ .....................१७६
कळिकाळमां, जिनालय, मुनिओनी स्थिति अने दानधर्मनुं
मूळ कारण श्रावक छे ............................................................... ६......................१७६
सामायिक व्रतनुं स्वरूप ..................................................................... ८ .....................१७६
सामायिक माटे सात व्यसनोनो त्याग आवश्यक .................................... ९-१० ............... १७७
व्यसनीने धर्मान्वेषणनी योग्यता होती नथी ......................................... ११ .................. १७७
सात नरकोए जाणे पोतानी समृद्धि माटे एक एक
व्यसननी निमणूंक करी छे......................................................... १२ .................. १७७
जिनदर्शनादि न करनाराओनुं जीववुं व्यर्थ छे........................................ १५ .................. १७८
उपासकोए प्रातःकाळे अने त्यारपछी शुं करवुं जोईए ............................ १६-१७ ......१७८-१७९
ज्ञान-लोचननी प्राप्तिना कारणभूत गुरुओनी उपासना ........................... १८-१९............. १७९
चक्षु अने कान सहित होवा छतां पण आंधळा अने बहेरा कोण छे ....... २०-२१......१७९-१८०
देशव्रत सफळ क्यारे थाय छे ............................................................. २२ .................. १८०
आठ मूळगुणो अने बार उत्तर गुणोनो निर्देश .................................... २३-२४......१८०-१८१
पर्वोमां शुं करवुं जोईए ................................................................... २५ .................. १८२
श्रावके एवा देशादिनो आश्रय न करवो जोईए के ज्यां सम्यक्त्व
अने व्रत सुरक्षित न रही शके .................................................. २६ .................. १८२
रत्नत्रयनुं पालन एवी रीते करवुं के जेथी जन्मान्तरमां
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दान विना गृहस्थ जीवन केवुं छे ....................................................... ३२-३५......१८४-१८५
साधर्मीओमां वात्सल्य विना धर्म संभवतो नथी ................................... ३६ .................. १८५
दया विना धर्म संभवतो नथी ............................................................. ३७ ............... १८५
दयानो महिमा .................................................................................. ३८-३९ ... १८५-१८६
मुनि अने श्रावकोना व्रत एक मात्र अहिंसानी सिद्धि माटे छे ................... ४० ................१८६
केवळ प्राणी पीडन ज पाप नथी, परंतु तेनो संकल्पे य पाप छे ............... ४१ ................१८६
बार अनुप्रेक्षाओनुं स्वरूप अने तेमना चिंतननी प्रेरणा............................. ४२-५८ ... १८६-१९१
दस भेदरूप धर्मना सेवननी प्रेरणा ....................................................... ५९ ............... १९१
मोक्षप्राप्ति माटे अंतस्तत्त्व अने बहिस्तत्त्व बन्नेनो ज आश्रय लेवो जोईए . ६० ............... १९१
आत्मानुं स्वरूप अने तेना चिंतननी प्रेरणा ............................................ ६१ ............... १९१
उपासक संस्कारना अनुष्ठानथी अतिशय निर्मळ धर्मनी प्राप्ति थाय छे ........ ६२ ............... १९२
सम्यग्द्रष्टि एक होय तोपण प्रशंसनीय छे, मिथ्याद्रष्टि घणा
देशव्रत कई अवस्थामां ग्रहण करवुं योग्य छे .......................................... ४ ................. १९४
उपासक द्वारा अनुष्ठेय समस्त व्रतविधान ................................................ ५ ................. १९५
व्रती गृहस्थनुं स्वरूप .......................................................................... ६.................. १९५
देशव्रतीना देवाराधनादि कार्योमां दान प्रमुख छे ....................................... ७ ................. १९५
आहारादि चतुर्विध दाननुं स्वरूप अने तेनी आवश्यकता............................ ८-११ ..... १९६-१९७
सर्व दानोमां अभयदान मुख्य केम छे ................................................... ११-१२ ...१९७-१९८
पापथी उपार्जित धननो सदुपयोग दान छे ............................................. १३-१४ .......... १९८
पात्रोना उपयोगमां आवनारुं धन ज सुखप्रद छे .................................... १५ ............... १९९
दान परंपराए मोक्षनुं पण कारण छे .................................................... १६-१७ ...१९९-२००
जिनदर्शनादि विना गृहस्थाश्रम पथ्थरनी नाव जेवो छे ............................. १८ ............... २००
दाता गृहस्थ चिन्तामणि आदिथी श्रेष्ठ छे .............................................. १९ ............... २००
धर्मस्थितिनी कारणभूत जिनप्रतिमा अने जिनभवनना निर्माणनी
आवश्यकता ............................................................................... २०-२३ ...२०१-२०२
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अणुव्रतो अने महाव्रतोथी एक मात्र मोक्ष ज साध्य छे............................ २६ ............... २०४
देशव्रतोद्योतन जयवंत हो ..................................................................... २७ ............... २०४
नमस्कारपूर्वक सिद्धो पासे मंगळ याचना ............................................. २-४ ........ २०५-२०६
आत्माने सर्वव्यापक केम कहेवामां आवे छे .......................................... ५ .................... २०७
आठ कर्मोना क्षयथी प्रगट थनार गुणोनो निर्देश .................................. ६..................... २०७
कर्मोनी दुःखप्रदता ........................................................................... ७ .................... २०८
ज्यारे एकेन्द्रियादि जीव पण उत्तरोत्तर हीन कर्मावरणथी
रहित सिद्ध पूर्ण सुख अने ज्ञान संयुक्त केम न होय? ................ ८-१० ........२०८-२०९
सिद्धज्योतिना आराधनथी योगी स्वयं पण सिद्ध थई जाय छे ............... १२ .................. २१०
सिद्धज्योतिनी विविधरूपता ................................................................ १३ .................. २११
अनेकान्त सिद्धान्तनुं अवगाहन करनार ज सिद्धात्मानुं रहस्य
सांगोपांग श्रुतना अभ्यासनुं फळ सिद्धत्वनी प्राप्ति छे ........................... १८ .................. २१३
आ सिद्धोनुं वर्णन मारे माटे मोक्षमहेल उपर चडवा माटे
नय-निक्षेपादिना आश्रित विवरण रहित सिद्ध जयवंत हो ....................... २१ .................. २१४
सिद्धस्वरूपना जाणकार साम्राज्यने पण तृण समान तुच्छ समजे छे ......... २२ .................. २१५
सिद्धोनुं स्मरण करनार पण वंदनीय छे .............................................. २३ .................. २१५
बुद्धिमानोमां अग्रणी कोण छे, ए माटे बाणनुं उदाहरण ....................... २४ ...................२१६
सिद्धात्मज्ञानथी शून्य शास्त्रान्तरोनुं ज्ञान व्यर्थ छे .................................. २५ ................ २१६
अनंत ज्ञान-दर्शनथी सम्पन्न सिद्धो पासे शिवसुखनी याचना .................. २६ .................. २१७
आत्माने गृहनी उपमा .................................................................... २७ .................. २१७
सिद्धोनी ज गति आदि अभीष्ट छे .................................................... २८ .................. २१८
सिद्धोनी आ स्तुति केवळ भक्तिवश करवामां आवी छे .......................... २९ .................. २१८
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जिनसेवाथी संसार-शत्रुनो भय रहेतो नथी .......................................... ३ .................... २२०
त्रणे लोकोमां सारभूत एक परमात्मा ज छे ........................................ ४ .................... २२०
अनन्त चतुष्टय स्वरूप परमात्माने जाणी लीधा पछी कांई
मन, वचन, काया अने कृत, कारित, अनुमोदनारूप नव स्थानो
जे निस्पृहतापूर्वक भगवानने देखे छे ते भगवाननी निकट
मन भगवान सिवाय बाह्य पदार्थो तरफ केम जाय छे .......................... १५ .................. २२५
सर्व कर्मोमां मोह ज अतिशय बळवान छे.......................................... १६ .................. २२५
जगतने क्षणभंगुर जोईने मन परमात्मा तरफ लगाडवुं जोईए ............... १७ ...................२२६
अशुभ, शुभ अने शुद्ध उपयोगनुं कार्य .............................................. १८ ...................२२६
हुं जे ज्योतिस्वरूप छुं ते केवी छे? ................................................... १९ .................. २२७
जीव अने परमात्मा वच्चे भेद करनार कर्म छे .................................... २० .................. २२७
शरीर अने तेनाथी संबंद्ध इन्द्रियो तथा रोग आदि पुद्गलस्वरूप
वास्तवमां द्वैतबुद्धि ज संसार अने अद्वैत ज मोक्ष छे ............................ २९ .................. २३१
आ कळिकाळमां चारित्रनुं परिपालन न थई शकवाथी आपनी
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वीरनन्दी गुरुना सदुपदेशथी मने त्रण लोकनुं राज्य पण अभीष्ट नथी .... ३२ .................. २३२
आलोचनाना अभ्यासनुं फळ ............................................................. ३३ .................. २३२
मुक्ति-हंसीना अभिलाषी हंसने नमस्कार ............................................ ३ .................... २३५
चित्स्वरूपनो महिमा ........................................................................ ४-७ .......... २३५-२३६
मन पोताना मरणना भयथी परमात्मामां स्थित थतुं नथी .................... ८ .....................२३६
अज्ञानी आत्मगत तत्त्वने अन्यत्र देखे छे ........................................... ९-१० ............... २३७
प्रतीति रहित तपस्वी नाटकना पात्र जेवा छे ....................................... ११ .................. २३७
भवभ्रमणनुं कारण अनेक धर्मात्मक चित्तत्त्वने अंध-हस्ति-न्यायथी
स्वाभाविक चेतनाना आश्रये जीव निज स्वरूप प्राप्त करी ले छे ............. १५ .................. २३९
आत्मस्वरूपनी प्राप्तिनो उपाय .......................................................... १६-२० ......२३९-२४०
योगीने सुख-दुःखनी कल्पना केम नथी थती ........................................ २१ .................. २४०
मननी गति निरालंब थतां अज्ञान बाधक थतुं नथी ............................. २२ .................. २४०
रोग अने जरा आदि शरीराश्रित छे, आत्माश्रित नथी .......................... २३-२५............. २४१
योगनो महिमा .............................................................................. २६ .................. २४१
आत्मानुं रमणीय पद शुद्ध बोध छे ................................................... २७ .................. २४२
आत्मबोधरूप तीर्थमां स्नान करवाथी अभ्यंतर मळ नष्ट थाय छे ........... २८ .................. २४२
चित् समुद्रना तटना आराधनथी रत्नोनो संचय अवश्य थाय छे ............. २९ .................. २४२
सम्यग्दर्शनादिरूप रत्नत्रय निश्चयथी एक ज छे .................................... ३० .................. २४३
सम्यग्दर्शनादिरूप बाणोनुं फळ ........................................................... ३१ .................. २४३
मुनिनी वृत्ति केवी होय छे ............................................................... ३२ .................. २४४
समीचीन समाधिनुं फळ ................................................................... ३३-३४............. २४४
योगनी कल्पवृक्ष साथे समानता ......................................................... ३५ .................. २४४
ज्यां सुधी परमात्मबोध थतो नथी त्यां सुधी ज श्रुतनुं परिशीलन होय छे ... ३६ .................. २४५
चित्प्रदीप मोहान्धकारनो क्यारे नाश करे छे......................................... ३७ .................. २४५
बाह्य शास्त्रोमां विचरनारी बुद्धि दुराचारिणी स्त्री जेवी छे ...................... ३८ .................. २४५
गुरुना उपदेशनो प्रभाव ................................................................... ३९-४०..............२४६
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परमात्मानुं केवळ नामस्मरण पण अनेक जन्मोना पाप नष्ट करे छे ........ ४२ ...................२४६
योगीनायक कोण? ........................................................................... ४३ .................. २४७
योगीए स्व-परने समान देखवा जोईए .............................................. ४४ .................. २४७
अज्ञानीना विकारो देखीने योगी क्षुब्ध थता नथी .................................. ४५ .................. २४७
आ शास्त्र भणवाथी प्रबोध प्राप्त थाय छे .......................................... ४६ .................. २४७
पद्मनन्दीरूप चन्द्रथी करवामां आवेली रमणीयता जयवंत हो................... ४७ .................. २४८
योगीनुं स्वरूप ................................................................................ ४८ .................. २४८
गुरुद्वारा उपदिष्ट तत्त्व हृदयस्थ थतां मने कोईनो भय नथी ................... ४९ .................. २४८
सद्बोधचन्द्रोदय जयवंत हो .............................................................. ५० .................. २४९
मोहान्धकारना नाशक गुरु जयवंत हो................................................. ४ .................... २५१
साचुं सुख दुःसाध्य मुक्तिमां छे ........................................................ ५ .................... २५१
शुद्ध आत्मज्योतिनी उपलब्धि सुलभ नथी .......................................... ६..................... २५१
आत्मबोधनी अपेक्षाए तेनो अनुभव विशेष दुर्लभ छे .......................... ७ .................... २५१
व्यवहार अने शुद्धनयनुं स्वरूप अने तेमनुं प्रयोजन .............................. ८-१० ............... २५२
मुख्य अने उपचार विवरणोने जाणवाना उपायभूत होवाथी ज
सम्यग्दर्शनादिरूप बाणोनी सफळता ..................................................... १५ .................. २५३
सम्यग्ज्ञान विना साधु वनमां स्थित वृक्षनी जेम सिद्ध थई शकता नथी ... १६ .................. २५४
शुद्धनयनिष्ठ कोण होय छे ................................................................ १७ .................. २५४
शुद्ध अने अशुद्ध नयोनुं कार्य ............................................................ १८ .................. २५४
रत्नत्रयनी पूर्णता थतां जन्मपरंपरा चालु रही शकती नथी .................... १९ .................. २५५
चित्ततरुना नाशनो उपाय ................................................................. २० .................. २५५
कर्मरूप कीचड भेदज्ञानरूप कतकफळथी नष्ट थाय छे ............................... २१ .................. २५५
शरीर, तदाश्रित रोगादि अने कर्मकृत क्रोधादि विकारोनी आत्माथी भिन्नता २२-३४......२५५-२५९
सर्व चिन्ता त्याज्य छे, आ बुद्धि द्वारा आविष्कृत तत्त्व
बन्धना कारणभूत मनना नियंत्रणथी ते, ते बंधनथी मुक्त करी देशे ........ ३७ .................. २५९