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योगीओनुं निर्दोष मन अज्ञानांधकारने नष्ट करे छे ............................... ३९ ...................२६०
योगी क्यारे सिद्ध थाय छे ............................................................... ४० ...................२६१
आत्मस्वरूपनो विचार ...................................................................... ४१-६० ...... २६१-२६६
निश्चय पंचाशत् रचवानो उल्लेख ....................................................... ६१ ................ २६७
चित्तमां आत्मतत्त्व स्थित होतां इन्द्रनी संपदानुं प्रयोजन रहेतुं नथी ........ ६२ ...................२६७
ब्रह्मचर्य अने ब्रह्मचारीओनुं स्वरूप .................................................... २ .....................२६८
जो ब्रह्मचर्यनी बाबतमां स्वप्नमां कोई दोष उत्पन्न होय तो पण
बाह्य अने अभ्यंतर ब्रह्मचर्यनुं स्वरूप अने तेमनुं कार्य ......................... ५ .................... २७०
पोताना व्रतोनी विधिना रक्षण माटे मुनिए स्त्री मात्रनो
रागपूर्वक स्त्रीमुखनुं अवलोकन अने स्मरण प्रतिष्ठा, यश अने
स्त्रीनुं शरीर घृणास्पद छे.................................................................. १५ .................. २७४
स्त्रीना विषयमां अनुरागवर्धक काव्य रचनार कवि केवी रीते
स्त्रीनो परित्याग करनार साधुओने पुण्यात्मा मनुष्यो पण नमस्कार करे छे २० ...................२७६
तपनुं अनुष्ठान मनुष्य पर्यायमां ज संभव छे ..................................... २१ ...................२७६
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ॠषभ जिनेन्द्रना दर्शनादि पुण्यात्मा जीवो द्वारा ज करवामां आवे छे ...... २ .................... २७८
जिनदर्शननुं माहात्म्य ....................................................................... ३ .................... २७८
जिनेन्द्रनी स्तुति करवी असंभव छे ..................................................... ४ .................... २७९
जिनना नामस्मरणथी पण अभीष्ट लक्ष्मी प्राप्त थाय छे ....................... ५ .................... २७९
ॠषभ जिनेन्द्र सर्वार्थसिद्धिमांथी अवतीर्ण थतां तेनुं
सौभाग्य नष्ट थई गयुं हतुं ..................................................... ६..................... २७९
पुत्रवती स्त्रीओमां मरुदेवीनी श्रेष्ठता ................................................... ८ .................... २८०
इन्द्रना निर्निमेष सहस्र नेत्रोनी सफळता ............................................. ९ .................... २८०
सूर्य आदि ज्योतिषी मेरुनी प्रदक्षिणा कर्या करे छे................................ १० .................. २८१
मेरु उपर जन्माभिषेक ..................................................................... ११-१२............. २८१
कल्पवृक्षो नष्ट थई जतां तेमनुं कार्य एक ॠषभजिनेन्द्रे ज पूर्ण कर्युं ........ १३ .................. २८१
पृथ्वीनी रोमांचकता ......................................................................... १४ .................. २८२
ॠषभजिनेन्द्रनी विरक्तता अने पृथ्वीनो परित्याग ................................. १५-१६ ......२८२-२८३
ध्यानमां अवस्थित ॠषभ जिनेन्द्रनी शोभा ......................................... १७-१८............. २८३
घातिचतुष्कनो क्षय अने केवळज्ञाननी उत्पत्ति ........................................ १९ .................. २८४
घातिचतुष्कना अभावमां अघाति चतुष्कनी अवस्था ................................ २० .................. २८४
समवसरण अने त्यां स्थित जिनेन्द्रनी शोभा ....................................... २१-२२............. २८४
आठ प्रातिहार्योनी शोभा.................................................................. २३-३०......२८५-२८७
जिनवाणीनो महिमा ........................................................................ ३१-३४......२८८-२८९
नयोनो प्रभाव................................................................................ ३५ .................. २८९
जिनेन्द्रनी स्तुतिमां बृहस्पति आदि पण असमर्थ छे ............................. ३६ .................. २८९
प्रभु द्वारा प्रकाशित पथना पथिक निरुपद्रव मोक्षनो लाभ करे छे............ ३७ .................. २८९
मोक्षनिधि सामे अन्य सर्व निधिओ तुच्छ छे ...................................... ३८ .................. २९०
जिनेन्द्रोक्त धर्मनी अन्य धर्म करतां विशेषता ....................................... ३९-४०............. २९०
जिनना नख-केश न वधवामां ग्रन्थकारनी कल्पना .................................. ४१ .................. २९१
त्रणे लोकना जनो अने इन्द्रनुं नेत्र द्वारा जिनेन्द्रदर्शन ............................ ४२-४३............. २९१
देवो द्वारा प्रभुचरणोनी नीचे सुवर्णकमळोनी रचना ............................... ४४ .................. २९२
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कमळा कमळमां नहि पण जिनचरणोमां रहे छे ................................... ४६ .................. २९२
जिनेन्द्रना द्वेषीओनो अपराध पोतानो छे ............................................ ४७ .................. २९२
जिनेन्द्रनी स्तुति अने नमस्कारनो प्रभाव ............................................. ४८-५०............. २९३
ब्रह्मा विष्णु आदि नाम आपना ज छे .............................................. ५१ .................. २९३
जिनेन्द्रनो महिमा ........................................................................... ५२-५७......२९४-२९५
जिनेन्द्रनी स्तुति शक्य नथी .............................................................. ५८-५९.... २९५-२९६
स्तुतिना अंते जिनचरणोना प्रसादनी प्रार्थना ........................................ ६० ...................२९६
सरस्वतीना प्रसादथी तेना स्तवननी प्रतिज्ञा अने पोतानी असमर्थता ........ २-४ .......... ३०६-३०७
सरस्वतीनी दीपकथी विशेषता ............................................................ ५ .................... ३०७
सरस्वतीना मार्गनी विशेषता ............................................................. ६..................... ३०८
सरस्वतीना प्रभावथी मोक्षपद पण शीघ्र प्राप्त थई जाय छे .................. ७ .................... ३०८
सरस्वती विना ज्ञाननी प्राप्ति संभव नथी .......................................... ८-९ ............... ३०९
सरस्वती विना प्राप्त मनुष्य पर्याय एमने एम ज नाश पामे छे ......... १० .................. ३०९
सरस्वतीनी प्रसन्नता विना तत्त्वनिश्चय थतो नथी ................................. ११ ................ ३०९
मोक्षपद सरस्वतीना आश्रयथी ज प्राप्त थाय छे .................................. १२-१३............. ३१०
सरस्वतीनो अन्य पण महिमा .......................................................... १४-२८......३१०-३१५
काव्य रचनामां सरस्वतीनो प्रसाद ज काम करे छे ................................ २९ ...................३१६
सरस्वतीनुं आ स्तोत्र भणवानुं फळ .................................................... ३० ...................३१६
सरस्वतीना स्तवनमां असमर्थ होवाथी क्षमा याचना ............................. ३१ ...................३१६
जिनेन्द्रना सुप्रभातना स्तवननी प्रतिज्ञा ............................................... २ .................... ३२५
अर्हंत् परमेष्ठीना सुप्रभातनुं स्वरूप अने तेनी स्तुति ............................ ३-८ .......... ३२६-३२९
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पुप्पांजलि आपवी ........................................................................... ९ .................... ३३८
वीतरागजिननी पूजा केवळ आत्मकल्याण माटे करवामां आवे छे .............. १० .................. ३३८
स्तुति करवानी असमर्थता प्रगट करीने भक्तिनी प्रमुखता अने तेनुं फळ ... २-७ ..........३४३-३४५
रत्नत्रयनी याचना ........................................................................... ८ .....................३४६
आपना चरण-कमळ पामीने हुं कृतार्थ थई गयो .................................. ९ .....................३४६
अभिमान के प्रमादवश थईने जे रत्नत्रय आदि विषयमां
अपराध थयो छे ते मिथ्या हो ................................................. १० .................. ३४७
मन, वचन अने कायानी विकळताथी जे स्तुतिमां न्यूनता
क्रियाकांड संबंधी आ चूलिका भणवाथी अपूर्ण क्रिया पूर्ण थाय छे ........... १६ .................. ३४९
जिन भगवानना शरणमां जवाथी संसार नष्ट थाय छे.......................... १७ .................. ३४९
में आपनी पासे आ वाचाळता केवळ भक्तिवश करी छे ....................... १८ .................. ३५०
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एकत्वना ज्ञाता अनेक कर्मोथी पण डरता नथी ..................................... ३ .................... ३५१
चैतन्यनी एकतानुं ज्ञान दुर्लभ छे, पण मुक्तिदाता ते ज छे .................. ४ .................... ३५२
जे यथार्थ सुख मोक्षमां छे ते संसारमां असंभव छे ............................. ५ .................... ३५२
गुरुना उपदेशथी अमने मोक्षपद ज प्रिय छे ....................................... ६..................... ३५२
अस्थिर स्वर्गसुख मोहोदयरूप विषथी व्याप्य छे................................... ७ .................... ३५२
आ लोकमां जे आत्मोन्मुख रहे छे ते परलोकमां पण तेवा रहे छे ......... ८ .................... ३५२
वीतराग मार्गे प्रवृत्त योगीने मोक्षसुखनी प्राप्तिमां कोई पण
बाधक थई शकतुं नथी ............................................................. ९ .................... ३५३
धर्म रहेतां मृत्युनो भय रहेतो नथी .................................................. ११ .................. ३५३
अनन्तचतुष्टयरूप स्वस्थतानी वंदना ..................................................... २ .................... ३५४
एकत्वनी स्थिति माटे थनारी बुद्धि पण आनंदजनक होय छे.................. ३ .................... ३५५
अद्वैत तरफ झुकाव थतां इष्टानिष्ट बुद्धि नष्ट थई जाय छे ..................... ४ .................... ३५५
हुं चैतन्यस्वरूप छुं, कर्मजनित क्रोधादि भिन्न छे................................... ५ .................. ३५६
जो एकत्वमां मन संलग्न होय तो तीव्र तप न होवा छतां
पण अभीष्टसिद्ध थाय छे ......................................................... ६......................३५६
लक्ष्मीना मदथी उन्मत्त राजाओनो संग मृत्युथी पण भयानक होय छे .... ८ .................... ३५७
हृदयमां गुरुवचने जागृत रहेतां आपत्तिमां खेद थतो नथी..................... ९ .................... ३५८
गुरु द्वारा प्रकाशित पथ पर चालवाथी निर्वाणपुर प्राप्त थाय छे ............ १० .................. ३५८
कर्मने आत्माथी भिन्न समजनाराओने सुखदुःखनो विकल्प ज थतो नथी.. ११ .................. ३५८
देव अने जिनप्रतिमा आदिनुं आराधन व्यवहारमार्गमां ज थाय छे ......... १२ .................. ३५९
जो मुक्ति तरफ बुद्धि लागी गई तो पछी कोई गमे एटलुं कष्ट
दे, तेनो तेने भय रहेतो नथी................................................... १३ ...................३६०
गुरुना पादप्रसादथी निर्ग्रन्थता प्राप्त करी लीधा पछी इन्द्रियसुख
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मोहना निमित्ते थनारी मोक्षनी पण अभिलाषा सिद्धिमां बाधक थाय छे . १८ ...................३६२
चिद्रूपना चिन्तनमां बीजी तो शुं, शरीर साथे पण प्रीति रहेली नथी...... १९ ...................३६२
शुद्धनयथी तत्त्व अनिर्वचनीय छे ........................................................ २० ...................३६३
समीचीन परमात्मारूप तीर्थोमां स्नान करवुं ते ज श्रेष्ठ छे .................... ४ .................... ३७२
जेमणे ज्ञानरूप समुद्र जोयो नथी तेओ ज गंगा आदि
कपूरादिनो लेप करवा छतां पण शरीर स्वभावथी दुर्गन्ध ज छोडे छे ....... ७ .................... ३७३
भव्य जीव आ स्नानाष्टक सांभळीने सुखी थाव ................................... ८ .................... ३७३
मैथुनकर्ममां पशुओ रत रहेवाथी तेने पशुकर्म कहेवामां आवे छे ............. २ .................... ३७५
जो मैथुन पोतानी स्त्री साथे पण सारुं होय तो तेनो
अपवित्र मैथुन अनुरागनुं कारण मोह छे ........................................... ५ .....................३७६
मैथुन संयमनो घातक छे.................................................................. ६..................... ३७७
मैथुनमां प्रवृत्ति पापना कारणे थाय छे............................................... ७ .................... ३७७
विषयसुख विष सद्रश छे ................................................................. ८ .................... ३७७
आ ब्रह्मचर्याष्टकनुं निरूपण मुमुक्षु जीवो माटे करवामां आव्युं छे ............. ९ .................... ३७८
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मध्याह्ने यस्य भास्वानुपरि परिगतो राजति स्मोग्रमूर्तिः
मध्याह्ननो तेजस्वी सूर्य एवो शोभे छे जाणे कर्मरूपी इन्धनना समूहने अतिशयपणे
बाळनार अने उदासीनतारूप वायुना निमित्ते प्रगट थयेल समीचीन ध्यानरूपी
अग्निनी तेजस्वी चिनगारी ज उत्पन्न थई होय.
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आदिनाथ जिनेन्द्र द्वारा करवामां आवेल ध्यानरूपी अग्निनो तणखो ज उत्पन्न थयो हतो. १.
कार्य न रहेवाथी जे गमनरहित थई गया हता. आंखो वडे जोवा योग्य कोई पण
वस्तु न रहेवाथी जेओ पोतानी द्रष्टि नाकनी अणी उपर ठेरवता हता, तथा कानने
सांभळवा योग्य कांई पण बाकी न रहेवाथी जे आकुळता रहित थईने एकान्त
स्थानमां रह्या हता; एवा ते ध्यानमां एकाग्रचित्त थयेला जिन भगवान जयवंत हो.
जो उक्त ध्यान कायोत्सर्गवडे करवामां आवे तो तेमां बन्ने हाथ नीचे लटकता राखी द्रष्टि नाकनी
अणी उपर राखवामां आवे छे. आ ध्याननी अवस्था लक्षमां राखीने ज अहीं एम कहेवामां आव्युं
छे के ते वखते जिन भगवानने न हाथ वडे करवा योग्य कांई कार्य बाकी कह्युं हतुं, न गमन वडे
प्राप्त करवा योग्य धनादिनी अभिलाषा शेष हती न कोई पण द्रश्य तेमनी आंखोने रुचिकर बाकी
रह्युं हतुं अने न कोई गीत आदि पण तेमना कानने मुग्ध करे एवुं बाकी रह्युं हतुं. २.
अस्त्रादेः परिवर्जनान्न च बुधैर्द्वैषोऽपि संभाव्यते
मानन्दादिगुणाश्रयस्तु नियतं सोऽर्हन्सदा पातु वः
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लीधे उक्त अरिहंत परमेष्ठीने विद्वानो द्वारा द्वेषनी पण संभावना करी शकाती नथी.
तेथी राग-द्वेष रहित थई जवाने लीधे तेमने समताभाव प्रगट्यो छे, अने आ
समताभाव प्रगटवाथी तेमने आत्मज्ञान तथा तेनाथी तेमने कर्मोनो वियोग थयो छे.
माटे कर्मोना क्षयथी जे अरिहंत परमेष्ठी अनंत सुख आदि गुणोनो आश्रय पाम्या
छे. ते अरिहंत परमेष्ठी सर्वदा तमारी रक्षा करो. ३.
श्रेणीतेक्षणबिम्बशुम्भदलिभृद्दूरोल्लसत्पाटलम्
स्त्यक्तं जाड्यहरं परं भवतु नश्चेतोऽर्पितं शर्मणे
सहित लाल वर्णना छे तथा जे नखोमां पडता इन्द्रना नेत्रोना प्रतिबिंबरूप भ्रमरोने
धारण करे छे, जे शोभाना स्थानरूप छे तेथी जे कमळनी उपमा धारण करवा छतां
पण धूळना संसर्ग विनाना होईने जडताने (अज्ञानने) हरनार छे; ते बन्ने चरणो
अमारा चित्तमां स्थिर थइने सुखना कारण थाव.
ज्यारे इन्द्र नमस्कार करता हता त्यारे तेना मुकुटमां जडेला रत्ननी छाया तेना उपर पडती हती
तेथी ते पण कमळनी जेम पाटल वर्णना थई जता हता. जो कमळमां भमरा रहे छे तो जिन
भगवानना पगना नखोमां पण नमस्कार करता इन्द्रना नेत्र प्रतिबिंबरूप भमरा विद्यमान हता.
कमळ जो श्री (लक्ष्मी)नुं स्थान मनाय छे तो ते जिन चरण पण श्री (शोभा)नुं स्थान हता. आम
कमळनी उपमा धारण करवा छतां पण जिनचरणोमां तेनाथी कांईक अधिक विशेषता हती. जेम
के
जडता(अज्ञान)ने नष्ट करनार हता. ४.
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स्मृतमपि हि जनानां पापतापोपशान्त्यै
द्युतिचलमधुपालीचुम्बितं पादपद्मम्
करवा मात्रथी ज लोकोना पापरूप संतापने दूर करे छे ते लोकना अधिनायक भगवान
शान्तिनाथ जिनेन्द्र जयवंत हो. ५.
वितथवचनहेतुक्रोधलोभाद्विमुक्त :
र्जनितपरमशर्मा येन धर्मोऽभ्यधायि
ज उत्तम सुख उत्पन्न करनार एवा धर्मनो उपदेश आप्यो छे ते समस्त पदार्थोने
जाणनार त्रण लोकना अधिपति जिनदेव जयवंत हो. ६.
रत्नानां परमं तथा दशविधोत्कृष्टक्षमादिस्ततः
शुद्धानन्दमयात्मनः परिणतिर्धर्माख्यया गीयते
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सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्ररूप उत्कृष्ट रत्नत्रयना भेदथी त्रण प्रकारनो तथा उत्तम
क्षमा, उत्तम मार्दव आदिना भेदथी दस प्रकारनो पण छे. परंतु निश्चयथी तो मोहना
निमित्ते उत्पन्न थतां मानसिक विकल्पोथी तथा वचन अने शरीरना संसर्गथी पण
रहित जे शुद्ध आनंदरूप आत्मानी परिणति थाय छे तेने ज ‘धर्म’ नामे कहेवामां
आवे छे.
आत्मानी परिणतिने ज कहेवामां आवे छे. ७.
मूलं धर्मंतरोरनश्वरपदारोहैकनिःश्रेणिका
धिङ्नामाप्यपदयस्य तस्य च परं सर्वत्र शून्या दिशः
संपदाओनी मुख्य जननी अर्थात् उत्पादक छे; धर्मरूपी वृक्षनुं मूळ छे, तथा अविनश्वर
पद अर्थात् मोक्ष महेलमां चडवानी अपूर्व निसरणीनुं काम करे छे. निर्दय पुरुषनुं
नाम लेवुं पण निन्द्य छे, तेना माटे बधे दिशाओ शून्य जेवी छे.
प्राणीदया थतां ज उत्तम व्रत, सुख अने समीचीन संपदाओ तथा अंते मोक्ष पण प्राप्त थाय छे;
माटे ज धर्मात्माओनुं ए प्रथम कर्तव्य छे के ते समस्त प्राणीधारीओ प्रत्ये दयाभाव राखे. जे
प्राणी निर्दयताथी जीवघातनी प्रवृत्ति करे छे तेनुं नाम लेवुं पण खराब समजवामां आवे छे. तेने
क्यांय पण सुख सामग्री प्राप्त थवानी नथी. तेथी सत्पुरुषोने आ पहेलो उपदेश छे के तेमणे समस्त
प्राणीओ प्रत्ये दयायुक्त आचरण करवुं. ८.
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जातास्तद्वधमाश्रितेन खलु ते सर्वें भवन्त्याहताः
हन्तारं प्रतिहन्ति हन्त बहुशः संस्कारतो नु क्रुधः
निश्चयथी ते बधाने मारे छे. आश्चर्य तो ए छे के ते पोते पोतानो पण घात करे
छे. आ भवमां जे बीजा द्वारा मरायो छे ते निश्चयथी अन्य भवमां क्रोधनी वासनाथी
पोताना ते घातकनो अनेकवार घात करे छे, ए खेदनी वात छे.
थईने ते जीवोनो घात करे छे ते पोताना माता-पिता आदिनो ज घात करे छे. बीजुं तो शुं कहीए,
क्रोधी जीव आत्मघात पण करी बेसे छे. आ क्रोधनी वासनाथी आ जन्ममां कोई अन्य प्राणी द्वारा
मरायेलो जीव पोताना ते घातकनो जन्मान्तरोमां अनेकवार घात करे छे. तेथी अहीं एम उपदेश
आपवामां आव्यो छे के जे क्रोध अनेक पापोनो जनक छे तेनो परित्याग करीने जीवदयामां प्रवृत्त
थवुं जोईए. ९.
प्रेयस्तेन बिना स कस्य भवितेत्याकांक्षतः प्राणिनः
जन्तोर्जीवितदानतस्त्रिभुवने सर्वप्रदानं लघु
थई गया पछी ते त्रणे लोकोनी प्रभुता भला कोने प्राप्त थवानी? निश्चयथी ते
जीवनदान समस्त व्रत, शील अने अन्य अन्य निर्मळ गुणोना आधारभूत छे तेथी
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तुच्छ मनाय छे.
छे के जीवननो घात थया पछी छेवटे तेने भोगवशे कोण? ते सिवाय व्रत, शील, संयम अने
तप आदिनो आधार उक्त जीवनदान ज छे तेथी बीजा बधा दानोनी अपेक्षाए जीवनदान ने
ज श्रेष्ठ गणवामां आव्युं छे. १०.
सर्वप्राणिदया तया तु रहितः पापस्तपस्थोऽपि वा
ध्यानं वा क्रियतां जना न सफलं किंचिद्दयावर्जितम्
एनाथी उल्टुं उक्त प्राणीदयाथी रहित प्राणी तपमां स्थित होवा छतां पण पापिष्ठ
मनाय छे. तेथी हे भव्य प्राणीओ! भले तमे घणुं दान द्यो, भले लांबो समय
चित्तने तपमां लगाडो अथवा भले ध्यान पण करो, परंतु दया विना ते बधुं निष्फळ
जशे. ११.
रत्नानां दधति त्रयं त्रिभुवनप्रद्योति काये सति
तेषां सद्गृहमेधिनां गुणवतां धर्मो न कस्य प्रियः
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स्थिति उत्कृष्ट भक्तिथी आपवामां आवेल जे सद्गृहस्थोना अन्नथी रहे छे ते
गुणवान सद्गृहस्थो (श्रावको)नो धर्म भला कोने प्रिय न लागे? अर्थात् सर्वने प्रिय
लागे. १२.
पात्रेभ्यो दानमापन्निहतजनकृते तच्च कारुण्यबुद्धया
तद्गार्हस्थ्यं बुधानामितरदिह पुनर्दुःखदो मोहपाशः
वात्सल्य भाव राखवामां आवे छे, पात्रोने दान आपवामां आवे छे, ते दान
आपत्तिथी पीडित प्राणीओने पण दयाबुद्धिथी आपवामां आवे छे, तत्त्वोनुं परिशीलन
करवामां आवे छे, पोताना व्रतो प्रत्ये अर्थात् गृहस्थ धर्म प्रत्ये प्रेम राखवामां आवे
छे, तथा निर्मळ सम्यग्दर्शन धारण करवामां आवे छे ते गृहस्थ अवस्था विद्वानोने
पूज्य छे. अने तेनाथी विपरीत गृहस्थ अवस्था अहीं लोकमां दुःखदायक मोहजाळ
ज छे. १३.
अर्थात् रात्रिभोजनननो त्याग, त्यार पछी ब्रह्मचर्य धारण करवुं, आरंभ न करवो,
परिग्रह न राखवो, गृहस्थना कार्योमां संमति न आपवी, उद्दिष्ट भोजन ग्रहण न
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शरूआतमां जूगार वगेरे व्यसनोनो त्याग कहेवामां आव्यो छे.
अगियार श्रेणीओ (प्रतिमाओ) छे. दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रौषधोपवास, सचित्तत्याग,
दिवाभुक्ति, ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग, अने उद्दिष्ट त्याग. (१)
विशुद्ध सम्यग्दर्शन साथे संसार, शरीर अने इन्द्रियना विषयभोगोथी विरक्त थईने पाक्षिक
श्रावकना आचार सन्मुख थवुं तेनुं नाम दर्शन प्रतिमा छे. (२) माया, मिथ्यात्व अने निदानरूप
त्रण शल्यथी रहित थईने अतिचार रहित पांच अणुव्रत अने सात शीलव्रतोने धारण करवा ते
व्रत प्रतिमा कहेवाय छे. (३) नियमित समय सुधी हिंसादि पांचे पापोनो पूर्णरीते त्याग करीने
अनित्य, अशरण आदि भावनाओनो तथा संसार अने मोक्षना स्वरूप आदिनो विचार करवो, तेने
सामायिक कहे छे. त्रीजी प्रतिमाधारी श्रावक ते सवारे, बपोरे अने सांजे नियमित रूपे करे छे.
(४) प्रत्येक आठम अने चौदशे सोळ पहोर सुधी चार प्रकारना भोजन (अशन, पान, खाद्य अने
लेह)ना परित्यागनुं नाम प्रौषधोपवास छे. अहीं प्रोषध शब्दनो अर्थ एकाशन अने उपवासनो
अर्थ सर्व प्रकारना भोजननो परित्याग छे. जेम के - जो आठमने दिवसे प्रोषधोपवास करवानो होय
एकाशन ज करवुं जोईए. प्रोषधोपवासना समये हिंसादि पाप सहित शरीरश्रृंगारादिनो पण त्याग
करवो अनिवार्य होय छे. (५) जे वनस्पतिओ निगोदना जीवथी व्याप्त होय तेना त्यागने
सचित्तत्याग कहेवामां आवे छे. (६) रात्रे भोजननो परित्याग करीने दिवसे ज भोजन करवानो
नियम करवो, ए दिवाभुक्तिप्रतिमा कहेवाय छे. केटलाक आचार्योना अभिप्राय प्रमाणे दिवसे
मैथुनना परित्यागने दिवाभुक्ति (छठी प्रतिमा) कहे छे. (७) शरीरना स्वभावनो विचार करीने
कामभोगथी विरकत थवानुं नाम ब्रह्मचर्य प्रतिमा छे. (८) कृषि अने वेपार आदि आरंभना
परित्यागने आरंभत्याग प्रतिमा कहे छे. (९) धन - धान्यादिरूप दस प्रकारना बाह्य परिग्रहमां
परिग्रह अने आ लोक संबंधी अन्य कार्योना विषयमां संमति न देवानुं नाम अनुमतित्याग छे.
(११) गृहवास छोडीने भिक्षावृत्तिथी भोजन करतां उद्दिष्ट भोजननो त्याग करवो तेने उद्दिष्टत्याग
कहेवामां आवे छे. आ प्रतिमाओमां पूर्वनी प्रतिमाओनो निर्वाह थतां ज आगळनी प्रतिमामां
परिपूर्णता थाय छे, अन्यथा नहीं. १४.
ज्ञातव्यं तदुपासकाध्ययनतो गेहिव्रतं विस्तरात्
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तन्मूलः सकलः सतां व्रतविधिर्याति प्रतिष्ठां पराम्
उपासकाध्ययन अंगमांथी जाणवुं जोईए. त्यां पण जे व्यसननो परित्याग बताववामां
आव्यो छे तेनो निर्देश अहीं पण करी देवामां आव्यो छे. एनुं कारण ए छे के
साधुओना समस्त व्रत विधानादिनी उत्कृष्ट प्रतिष्ठा व्यसनोना परित्याग उपर ज
आधार राखे छे. १५.
वगेरे पशुओना घातमां आनंद मानवो), ६ चोरी करवी अने ७ अन्यनी स्त्री प्रत्ये अनुराग राखवो.
आ साते व्यसन महापाप उत्पन्न करनार छे, तेथी विवेकी जीवे एनो परित्याग अवश्य करवो
जोईए. १६.
व्यसनपतिरशेषापन्निधिः पापबीजम्
क इह विशदबुद्धिर्द्यूतमङ्गीकरोति
नरकना मार्गोमां अग्रगामी छे; आ रीते जाणीने अहीं लोकमां क्यो निर्मळ बुद्धिनो
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मनुष्य छे ते ज आ अनेक आपत्तिओना उत्पादक जुगारने अपनावे छे, विवेकी
मनुष्य नहि. १७.
चौर्यादिव्यसनं क्व च क्व नरके दुःखं मृतानां नृणाम्
लोभ आदि कषायो क्यांथी उत्पन्न थाय? चोरी आदि अन्य अन्य व्यसन क्यां रहे?
तथा मरीने नरकोमां उत्पन्न थयेल मनुष्योने दुःख क्यांथी प्राप्त थई शके? (अर्थात्
जुगारथी विरक्त थयेल मनुष्यने उपर्युक्त आपत्तिओमांथी कोई पण आपत्ति प्राप्त थती
नथी.) आम उन्नत बुद्धिवाळा विद्वानो कहे छे. ते योग्य ज छे केम के समस्त बुरा
व्यसनोमां आ जुगार गाडानी धरी (धोंसरी) समान मुख्य मनाय छे. १८.
हस्तेनाक्ष्णापि शक्यं यदिह न महतां स्प्रष्टुमालोकितुं च
पापं तस्यात्र पुंसो भुवि भवति कियत्का गतिर्वा न विद्मः
तथा महापुरुष जेनो हाथथी स्पर्श करता नथी अने आंखथी जेने देखता पण नथी ‘ते
मांस खावा योग्य छे’ एवुं कहेवुं पण सज्जनोने माटे निंदा जनक छे. तो पछी एवुं
अपवित्र मांस जे पुरुष साक्षात् खाय छे तेने अहीं लोकमां केटलुं पाप थाय छे तथा तेनी
केवी हालत थाय छे, ए वात अमे जाणता नथी.
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तेना भक्षणमां हिंसा जनित पापनुं थवुं अवश्यंभावी छे. माटे सज्जन मनुष्य तेनो केवळ परित्याग
ज नथी करता, पण तेनो तेओ हाथथी स्पर्श करवो अने आंखे देखवुं पण खराब समजे छे.
मांसभक्षक जीवोनी दुर्गति अनिवार्य छे. १९.
शिरो हत्वा हत्वा कलुषितमना रोदिति जनः
कले रे निर्विण्णा वयमिह भवच्चित्रचरितैः
अन्य मृग आदि प्राणीओनुं मांस कापीने पोतानुं मुख पहोळुं करीने खाय छे. हे कळि
काळ! अहीं अमे तारी आ विचित्र प्रवृत्तिओथी निर्वेद पाम्या छीए.
दीवाल वगेरे साथे पछाडीने रुदन करे छे. पाछो ते ज माणस जे अन्य पशु-पक्षीओने मारीने
तेमनी माता आदिथी सदा माटे वियोग करावीने मांसभक्षणमां अनुरक्त थाय छे, ए आ
कळिकाळनो ज प्रभाव छे. काळनी आवी प्रवृत्तिओथी विवेकी जनोनुं चित्त विरक्त थाय ते
स्वाभाविक छे. २०
स्वहितमिह किमन्यत्कर्म धर्माय कार्यम्
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काम करवा योग्य छे? कोई नहीं. अर्थात् मद्य पीनार मनुष्य एवुं कोई पण पवित्र
काम करी शकतो नथी जे तेने माटे आत्महितकारी होय.
थाय छे. परभवमां ते मद्यजनित दोषोथी नरकादि दुर्गतिओमां पडीने असह्य दुःख पण भोगवे
छे. आ ज विचारथी बुद्धिमान मनुष्य तेनो सदाने माटे परित्याग करे छे. २१.
निन्द्याश्चेष्टा विदधति जना निस्त्रपाः पीतमद्याः
तो ए छे के मार्गमां पडेला तेमना मुखमां कूतरा मूतरे छे अने तेओ तेने अतिशय
मधुर कहीने पीधा करे छे. २२.
स्निह्यन्ति द्रविणार्थमेव विदधत्यर्थप्रतिष्ठाक्षतिम्
लालापानमहर्निशं न नरकं वेश्या विहायापरम्
स्नेह करे छे. धन अने प्रतिष्ठा ए बन्नेनोय नाश करे छे तथा जे वेश्याओ नीच
पुरुषोनी पण लाळ पीए छे. ते वेश्याओ सिवाय बीजुं कोई नरक नथी. अर्थात्
ते वेश्याओ नरकगतिनी प्राप्तिना कारण छे. २३.
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पछी अहीं परभवनी वातोथी बस थाव.
अने नीच बधी जातना माणसो संबंध राखे छे ते वेश्याओमां अनुरक्त रहेवाथी आ भवमां धन अने
प्रतिष्ठानो नाश थाय छे तथा परभवमां नरकादिनुं महान कष्ट भोगववुं पडे छे. तेथी आ भव अने
परभवमां आत्म
भीतिर्यस्यां स्वभावाद्दशनधृततृणा नापराधं करोति
आखेटेऽस्मिन्रतानामिह किमु न किमन्यत्र नो यद्विरूपम्
स्वभावथी ज भय रहे छे तथा जे दांतोमां घास धारण करती थकी अर्थात् घास
थकी कोईनो अपराध करती नथी; आश्चर्य छे के ते पण मृगनी स्त्री अर्थात् हरणी
मांस पिंडना लोभथी जे मृगयाना व्यसनमां शिकारीओ द्वारा मराय छे ते मृगया
(शिकार)मां आसक्त मनुष्योने आ लोकमां अने परलोकमां क्युं पाप थतुं नथी?
करता नहि. परंतु खेद ए वातनो छे के शिकारीओ एवा निरपराध मृग आदि प्राणीओनो पण
घात करे छे जे घासनुं भक्षण करतां मुखमां तृण दबावी रहे छे. ए ज भाव