Padmanandi Panchvinshati-Gujarati (Devanagari transliteration). Shree Padmanandi-Panchvinshati; 1. Dharmopadeshamrut; Gatha: 1-3 (1. Dharmopadeshamrut); Shlok: 4-25 (1. Dharmopadeshamrut).

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 2 of 21

 

Page -5 of 378
PDF/HTML Page 21 of 404
single page version

background image
मनुष्यरूपी वृक्षने पामीने अमृत-फळ ग्रहण करवुं योग्य छे ..................... ३८ ...................२६०
योगीओनुं निर्दोष मन अज्ञानांधकारने नष्ट करे छे ............................... ३९ ...................२६०
योगी क्यारे सिद्ध थाय छे ............................................................... ४० ...................२६१
आत्मस्वरूपनो विचार ...................................................................... ४१-६० ...... २६१-२६६
निश्चय पंचाशत् रचवानो उल्लेख ....................................................... ६१ ................ २६७
चित्तमां आत्मतत्त्व स्थित होतां इन्द्रनी संपदानुं प्रयोजन रहेतुं नथी ........ ६२ ...................२६७
१२. ब्रÙचर्यरक्षावर्ति
२२
२६८२७७
कामविजेता यतिओने नमस्कार ........................................................... १ .....................२६८
ब्रह्मचर्य अने ब्रह्मचारीओनुं स्वरूप .................................................... २ .....................२६८
जो ब्रह्मचर्यनी बाबतमां स्वप्नमां कोई दोष उत्पन्न होय तो पण
रात्रि विभागानुसार मुनिए तेनुं प्रायश्चित्त करवुं जोईए ................ ३ .....................२६९
ब्रह्मचर्यनी रक्षा मनना संयमथी ज थाय छे ....................................... ४ .....................२६९
बाह्य अने अभ्यंतर ब्रह्मचर्यनुं स्वरूप अने तेमनुं कार्य ......................... ५ .................... २७०
पोताना व्रतोनी विधिना रक्षण माटे मुनिए स्त्री मात्रनो
परित्याग करवो जोईए ............................................................ ६..................... २७०
स्त्रीनी वार्ता पण मुनिधर्मने नष्ट करनार छे ........................................ ७ .................... २७०
रागपूर्वक स्त्रीमुखनुं अवलोकन अने स्मरण प्रतिष्ठा, यश अने
तप आदिने नष्ट करनार छे ...................................................... ८-९ ................. २७१
मुनिने कोई पण स्त्रीनी प्राप्तिनी संभावना न रहेवाथी तद्विषयक
अनुराग छोडवो ज जोईए ....................................................... १० .................. २७२
श्रावक स्त्रीरूप गृहथी गृहस्थ अने मुनि तेना परित्यागथी
ब्रह्मचारी (अणगार) थाय छे .................................................... ११ .................. २७२
स्त्रीनुं अस्थिर सौन्दर्य मूर्ख मनुष्योने ज आनंदजनक थाय छे ................. १२-१४............. २७३
स्त्रीनुं शरीर घृणास्पद छे.................................................................. १५ .................. २७४
स्त्रीना विषयमां अनुरागवर्धक काव्य रचनार कवि केवी रीते
प्रशंसनीय कहेवाय? ................................................................. १६-१७ ......२७४-२७५
जो परधनरूप स्त्रीनी अभिलाषा न करनार गृहस्थ देव कहेवाय छे
तो मुनि केम देवोनो देव न होय? ............................................ १८ .................. २७५
सुख अने सुखाभास ....................................................................... १९ .................. २७५
स्त्रीनो परित्याग करनार साधुओने पुण्यात्मा मनुष्यो पण नमस्कार करे छे २० ...................२७६
तपनुं अनुष्ठान मनुष्य पर्यायमां ज संभव छे ..................................... २१ ...................२७६
विषय
श्लोक
पृष्ठांक

Page -4 of 378
PDF/HTML Page 22 of 404
single page version

background image
ग्रन्थकार द्वारा कामरोगनी नाशकबत्ती (ब्रह्मचर्यरक्षाबत्ती)ना सेवननी प्रेरणा २२ .................. २७७
१३. ´षभ स्तोत्र
६१
२७८२९६
नाभिराजना पुत्र ॠषभ जिनेन्द्र जयवंत हो........................................ १ .................... २७८
ॠषभ जिनेन्द्रना दर्शनादि पुण्यात्मा जीवो द्वारा ज करवामां आवे छे ...... २ .................... २७८
जिनदर्शननुं माहात्म्य ....................................................................... ३ .................... २७८
जिनेन्द्रनी स्तुति करवी असंभव छे ..................................................... ४ .................... २७९
जिनना नामस्मरणथी पण अभीष्ट लक्ष्मी प्राप्त थाय छे ....................... ५ .................... २७९
ॠषभ जिनेन्द्र सर्वार्थसिद्धिमांथी अवतीर्ण थतां तेनुं

सौभाग्य नष्ट थई गयुं हतुं ..................................................... ६..................... २७९
पृथ्वीनी ‘वसुमती’ नामनी सार्थकता .................................................... ७ .................... २८०
पुत्रवती स्त्रीओमां मरुदेवीनी श्रेष्ठता ................................................... ८ .................... २८०
इन्द्रना निर्निमेष सहस्र नेत्रोनी सफळता ............................................. ९ .................... २८०
सूर्य आदि ज्योतिषी मेरुनी प्रदक्षिणा कर्या करे छे................................ १० .................. २८१
मेरु उपर जन्माभिषेक ..................................................................... ११-१२............. २८१
कल्पवृक्षो नष्ट थई जतां तेमनुं कार्य एक ॠषभजिनेन्द्रे ज पूर्ण कर्युं ........ १३ .................. २८१
पृथ्वीनी रोमांचकता ......................................................................... १४ .................. २८२
ॠषभजिनेन्द्रनी विरक्तता अने पृथ्वीनो परित्याग ................................. १५-१६ ......२८२-२८३
ध्यानमां अवस्थित ॠषभ जिनेन्द्रनी शोभा ......................................... १७-१८............. २८३
घातिचतुष्कनो क्षय अने केवळज्ञाननी उत्पत्ति ........................................ १९ .................. २८४
घातिचतुष्कना अभावमां अघाति चतुष्कनी अवस्था ................................ २० .................. २८४
समवसरण अने त्यां स्थित जिनेन्द्रनी शोभा ....................................... २१-२२............. २८४
आठ प्रातिहार्योनी शोभा.................................................................. २३-३०......२८५-२८७
जिनवाणीनो महिमा ........................................................................ ३१-३४......२८८-२८९
नयोनो प्रभाव................................................................................ ३५ .................. २८९
जिनेन्द्रनी स्तुतिमां बृहस्पति आदि पण असमर्थ छे ............................. ३६ .................. २८९
प्रभु द्वारा प्रकाशित पथना पथिक निरुपद्रव मोक्षनो लाभ करे छे............ ३७ .................. २८९
मोक्षनिधि सामे अन्य सर्व निधिओ तुच्छ छे ...................................... ३८ .................. २९०
जिनेन्द्रोक्त धर्मनी अन्य धर्म करतां विशेषता ....................................... ३९-४०............. २९०
जिनना नख-केश न वधवामां ग्रन्थकारनी कल्पना .................................. ४१ .................. २९१
त्रणे लोकना जनो अने इन्द्रनुं नेत्र द्वारा जिनेन्द्रदर्शन ............................ ४२-४३............. २९१
देवो द्वारा प्रभुचरणोनी नीचे सुवर्णकमळोनी रचना ............................... ४४ .................. २९२
विषय
श्लोक
पृष्ठांक

Page -3 of 378
PDF/HTML Page 23 of 404
single page version

background image
मृगे चन्द्र (मृगांक)नो आश्रय केम लीधो? .......................................... ४५ .................. २९२
कमळा कमळमां नहि पण जिनचरणोमां रहे छे ................................... ४६ .................. २९२
जिनेन्द्रना द्वेषीओनो अपराध पोतानो छे ............................................ ४७ .................. २९२
जिनेन्द्रनी स्तुति अने नमस्कारनो प्रभाव ............................................. ४८-५०............. २९३
ब्रह्मा विष्णु आदि नाम आपना ज छे .............................................. ५१ .................. २९३
जिनेन्द्रनो महिमा ........................................................................... ५२-५७......२९४-२९५
जिनेन्द्रनी स्तुति शक्य नथी .............................................................. ५८-५९.... २९५-२९६
स्तुतिना अंते जिनचरणोना प्रसादनी प्रार्थना ........................................ ६० ...................२९६
१४. जिनदर्शनस्तवन
३४
२९७३०५
( जिनदर्शननो महिमा)
१५. श्रुतदेवता स्तुति
३१
३०६३१६
सरस्वतीना चरण कमळ जयवंत हो ................................................... १ .....................३०६
सरस्वतीना प्रसादथी तेना स्तवननी प्रतिज्ञा अने पोतानी असमर्थता ........ २-४ .......... ३०६-३०७
सरस्वतीनी दीपकथी विशेषता ............................................................ ५ .................... ३०७
सरस्वतीना मार्गनी विशेषता ............................................................. ६..................... ३०८
सरस्वतीना प्रभावथी मोक्षपद पण शीघ्र प्राप्त थई जाय छे .................. ७ .................... ३०८
सरस्वती विना ज्ञाननी प्राप्ति संभव नथी .......................................... ८-९ ............... ३०९
सरस्वती विना प्राप्त मनुष्य पर्याय एमने एम ज नाश पामे छे ......... १० .................. ३०९
सरस्वतीनी प्रसन्नता विना तत्त्वनिश्चय थतो नथी ................................. ११ ................ ३०९
मोक्षपद सरस्वतीना आश्रयथी ज प्राप्त थाय छे .................................. १२-१३............. ३१०
सरस्वतीनो अन्य पण महिमा .......................................................... १४-२८......३१०-३१५
काव्य रचनामां सरस्वतीनो प्रसाद ज काम करे छे ................................ २९ ...................३१६
सरस्वतीनुं आ स्तोत्र भणवानुं फळ .................................................... ३० ...................३१६
सरस्वतीना स्तवनमां असमर्थ होवाथी क्षमा याचना ............................. ३१ ...................३१६
१६. स्वयंभूस्तुति
२४
३१७३२४
( ॠषभादि महावीरान्त तीर्थंकरोनुं गुणकीर्तन)
१७. सुप्रभाताष्टक
३२५३२९
घातिकर्मोनो नाश करीने स्थिर सुप्रभातने प्राप्त करनार जिनेन्द्रोने नमस्कार १ .................... ३२५
जिनेन्द्रना सुप्रभातना स्तवननी प्रतिज्ञा ............................................... २ .................... ३२५
अर्हंत् परमेष्ठीना सुप्रभातनुं स्वरूप अने तेनी स्तुति ............................ ३-८ .......... ३२६-३२९
विषय
श्लोक
पृष्ठांक

Page -2 of 378
PDF/HTML Page 24 of 404
single page version

background image
१८. शान्तिनाथ स्तोत्र
३३०३३४
त्रण छत्रादिरूप आठ प्रातिहार्योना आश्रयथी भगवान
( शान्तिनाथ तीर्थंकरनी स्तुति) ................................................... १-८ ..........३३०-३३३
जे स्तुति इन्द्रादि पण करी शकता नथी ते में भक्तिवश करी छे............. ९ .................... ३३४
१९. जिनपूजाष्टक
१०
३३५३३९
जळ, चंदनादि आठ द्रव्यो वडे पूजा अने तेना फळनो उल्लेख ................ १-८ ..........३३५-३३८
पुप्पांजलि आपवी ........................................................................... ९ .................... ३३८
वीतरागजिननी पूजा केवळ आत्मकल्याण माटे करवामां आवे छे .............. १० .................. ३३८
२०. करुणाष्टक
३४०३४२
( पोतानी उपर दया करीने जन्मपरंपराथी मुक्त करवानी प्रार्थना)
२१. क्रियाकांMचूलिका
३४३३५०
दोषोए जिनेन्द्रमां स्थान न पामीने जाणे गर्वथी ज तेमने छोडी दीधा .... १ .................... ३४३
स्तुति करवानी असमर्थता प्रगट करीने भक्तिनी प्रमुखता अने तेनुं फळ ... २-७ ..........३४३-३४५
रत्नत्रयनी याचना ........................................................................... ८ .....................३४६
आपना चरण-कमळ पामीने हुं कृतार्थ थई गयो .................................. ९ .....................३४६
अभिमान के प्रमादवश थईने जे रत्नत्रय आदि विषयमां

अपराध थयो छे ते मिथ्या हो ................................................. १० .................. ३४७
मन, वचन, काया अने कृत, कारित, अनुमोदनाथी जे प्राणीओने
पीडा थई छे ते मिथ्या हो ...................................................... ११ .................. ३४७
मन, वचन अने काया द्वारा उपार्जित मारुं कर्म आपना
पाद स्मरणथी नाशने प्राप्त थाव............................................... १२ .................. ३४७
सर्वज्ञनुं वचन प्रमाण छे .................................................................. १३ .................. ३४८
मन, वचन अने कायानी विकळताथी जे स्तुतिमां न्यूनता
थई छे तेने हे वाणी! तुं क्षमा कर ........................................... १४ .................. ३४८
आ अभीष्ट फळ आपनार क्रियाकांडरूप कल्पवृक्षनुं एक पत्र छे ............... १५ .................. ३४९
क्रियाकांड संबंधी आ चूलिका भणवाथी अपूर्ण क्रिया पूर्ण थाय छे ........... १६ .................. ३४९
जिन भगवानना शरणमां जवाथी संसार नष्ट थाय छे.......................... १७ .................. ३४९
में आपनी पासे आ वाचाळता केवळ भक्तिवश करी छे ....................... १८ .................. ३५०
२२. एकत्वदशक
११
३५१३५३
परमज्योतिना कथननी प्रतिज्ञा .......................................................... १ .................... ३५१
विषय
श्लोक
पृष्ठांक

Page -1 of 378
PDF/HTML Page 25 of 404
single page version

background image
जे आत्मतत्त्वने जाणे छे ते बीजाओना स्वयं आराध्य बनी जाय छे ...... २ .................... ३५१
एकत्वना ज्ञाता अनेक कर्मोथी पण डरता नथी ..................................... ३ .................... ३५१
चैतन्यनी एकतानुं ज्ञान दुर्लभ छे, पण मुक्तिदाता ते ज छे .................. ४ .................... ३५२
जे यथार्थ सुख मोक्षमां छे ते संसारमां असंभव छे ............................. ५ .................... ३५२
गुरुना उपदेशथी अमने मोक्षपद ज प्रिय छे ....................................... ६..................... ३५२
अस्थिर स्वर्गसुख मोहोदयरूप विषथी व्याप्य छे................................... ७ .................... ३५२
आ लोकमां जे आत्मोन्मुख रहे छे ते परलोकमां पण तेवा रहे छे ......... ८ .................... ३५२
वीतराग मार्गे प्रवृत्त योगीने मोक्षसुखनी प्राप्तिमां कोई पण

बाधक थई शकतुं नथी ............................................................. ९ .................... ३५३
आ भावना पदना चिन्तनथी मोक्ष प्राप्त थाय छे................................ १० .................. ३५३
धर्म रहेतां मृत्युनो भय रहेतो नथी .................................................. ११ .................. ३५३
२३. परमार्थविंशति
२०
३५४३६४
आत्मानुं अद्वैत जयवंत हो ............................................................... १ .................... ३५४
अनन्तचतुष्टयरूप स्वस्थतानी वंदना ..................................................... २ .................... ३५४
एकत्वनी स्थिति माटे थनारी बुद्धि पण आनंदजनक होय छे.................. ३ .................... ३५५
अद्वैत तरफ झुकाव थतां इष्टानिष्ट बुद्धि नष्ट थई जाय छे ..................... ४ .................... ३५५
हुं चैतन्यस्वरूप छुं, कर्मजनित क्रोधादि भिन्न छे................................... ५ .................. ३५६
जो एकत्वमां मन संलग्न होय तो तीव्र तप न होवा छतां

पण अभीष्टसिद्ध थाय छे ......................................................... ६......................३५६
कर्मो साथे एकमेक होवा छतां पण हुं ते परमज्योतिस्वरूप ज छुं .......... ७ .....................३५६
लक्ष्मीना मदथी उन्मत्त राजाओनो संग मृत्युथी पण भयानक होय छे .... ८ .................... ३५७
हृदयमां गुरुवचने जागृत रहेतां आपत्तिमां खेद थतो नथी..................... ९ .................... ३५८
गुरु द्वारा प्रकाशित पथ पर चालवाथी निर्वाणपुर प्राप्त थाय छे ............ १० .................. ३५८
कर्मने आत्माथी भिन्न समजनाराओने सुखदुःखनो विकल्प ज थतो नथी.. ११ .................. ३५८
देव अने जिनप्रतिमा आदिनुं आराधन व्यवहारमार्गमां ज थाय छे ......... १२ .................. ३५९
जो मुक्ति तरफ बुद्धि लागी गई तो पछी कोई गमे एटलुं कष्ट

दे, तेनो तेने भय रहेतो नथी................................................... १३ ...................३६०
सर्वशक्तिमान आत्माप्रभु संसारने नष्ट करीने समान देखे छे ............... १४ ...................३६०
आत्मानी एकताने जाणनार पापथी लिप्त थतो नथी ............................ १५ ...................३६१
गुरुना पादप्रसादथी निर्ग्रन्थता प्राप्त करी लीधा पछी इन्द्रियसुख
दुःखरूप ज प्रतीत थाय छे....................................................... १६ ...................३६१
विषय
श्लोक
पृष्ठांक

Page 0 of 378
PDF/HTML Page 26 of 404
single page version

background image
निर्ग्रन्थताजन्य आनंद सामे इन्द्रियसुखनुं स्मरण पण थतुं नथी .............. १७ ...................३६१
मोहना निमित्ते थनारी मोक्षनी पण अभिलाषा सिद्धिमां बाधक थाय छे . १८ ...................३६२
चिद्रूपना चिन्तनमां बीजी तो शुं, शरीर साथे पण प्रीति रहेली नथी...... १९ ...................३६२
शुद्धनयथी तत्त्व अनिर्वचनीय छे ........................................................ २० ...................३६३
२४. शरीराष्टक
३६५-३६९
( शरीरना स्वभावनुं निरूपण)
२५. स्नानाष्टक
३७०३७४
मळ-मूत्रादिथी परिपूर्ण शरीर सदा अशुचि अने आत्मा स्वभावथी
पवित्र छे, माटे बन्ने प्रकारे स्नान व्यर्थ छे................................. १-२ ................. ३७०
सत्पुरुषोनुं स्नान विवेक छे जे मिथ्यात्वादिरूप अभ्यंतर मळने नष्ट करे छे ३ .................. ३७१
समीचीन परमात्मारूप तीर्थोमां स्नान करवुं ते ज श्रेष्ठ छे .................... ४ .................... ३७२
जेमणे ज्ञानरूप समुद्र जोयो नथी तेओ ज गंगा आदि
तीर्थाभासोमां स्नान करे छे....................................................... ५ .................... ३७२
मनुष्य शरीरने शुद्ध करी शकनार कोईपण तीर्थ संभव नथी ................... ६..................... ३७२
कपूरादिनो लेप करवा छतां पण शरीर स्वभावथी दुर्गन्ध ज छोडे छे ....... ७ .................... ३७३
भव्य जीव आ स्नानाष्टक सांभळीने सुखी थाव ................................... ८ .................... ३७३
२६. ब्रÙचर्याष्टक
३७५३७८
मैथुन संसारवृद्धिनुं कारण छे ............................................................. १ .................... ३७५
मैथुनकर्ममां पशुओ रत रहेवाथी तेने पशुकर्म कहेवामां आवे छे ............. २ .................... ३७५
जो मैथुन पोतानी स्त्री साथे पण सारुं होय तो तेनो
पर्वोमां त्याग शा माटे करवामां आवत? .................................... ३ .....................३७६
अपवित्र मैथुनसुखमां विवेकी जीवने अनुराग थतो नथी ........................ ४ .....................३७६
अपवित्र मैथुन अनुरागनुं कारण मोह छे ........................................... ५ .....................३७६
मैथुन संयमनो घातक छे.................................................................. ६..................... ३७७
मैथुनमां प्रवृत्ति पापना कारणे थाय छे............................................... ७ .................... ३७७
विषयसुख विष सद्रश छे ................................................................. ८ .................... ३७७
आ ब्रह्मचर्याष्टकनुं निरूपण मुमुक्षु जीवो माटे करवामां आव्युं छे ............. ९ .................... ३७८
विषय
श्लोक
पृष्ठांक

Page 1 of 378
PDF/HTML Page 27 of 404
single page version

background image
।। नमः सिद्धेभ्योः ।।
श्रीमद् पद्मनन्दि विरचित
पद्मनन्दि-पंचविंशति:
१. धर्मोपदेशामृतम्
(स्रग्धरा)
कायोत्सर्गायताङ्गो जयति जिनपतिर्नाभिसूनुर्महात्मा
मध्याह्ने यस्य भास्वानुपरि परिगतो राजति स्मोग्रमूर्तिः
चक्रं कर्मेन्धनानामतिबहु दहतो दूरमौदास्यवात -
स्फू र्जत्सद्धयानवह्नेरिव रुचिरतरः प्रोद्गतो विस्फु लिङ्गः ।।।।
अनुवाद : कायोत्सर्गना निमित्ते जेमनुं शरीर लंबायेलुं छे एवा
नाभिरायना पुत्र महात्मा आदिनाथ जिनेन्द्र जयवंत हो, जेमना उपर प्राप्त थयेल
मध्याह्ननो तेजस्वी सूर्य एवो शोभे छे जाणे कर्मरूपी इन्धनना समूहने अतिशयपणे
बाळनार अने उदासीनतारूप वायुना निमित्ते प्रगट थयेल समीचीन ध्यानरूपी
अग्निनी तेजस्वी चिनगारी ज उत्पन्न थई होय.
विशेषार्थ : भगवान आदिनाथ जिनेन्द्रनी ध्यानावस्थामां तेमनी उपर जे मध्याह्न
काळनो तेजस्वी सूर्य आवतो हतो ते विषयमां ग्रंथकार उत्प्रेक्षा करे छे के ते सूर्य न हतो



Page 2 of 378
PDF/HTML Page 28 of 404
single page version

background image
पण जाणे के समताभावथी आठ कर्मरूपी इन्धनने जलाववा माटे इच्छुक थईने भगवान
आदिनाथ जिनेन्द्र द्वारा करवामां आवेल ध्यानरूपी अग्निनो तणखो ज उत्पन्न थयो हतो. १.
(शार्दूलविक्रीडित)
नो किंचित्करकार्यमस्ति गमनप्राप्यं न किंचिद् द्रशो-
द्रर्श्यं यस्य न कर्णयोः किमपि हि श्रोतव्यमप्यस्ति न
तेनालम्बितपाणिरुज्झितगतिर्नासाग्रद्रष्टी रहः
संप्राप्तोऽतिनिराकुलो विजयते ध्यानैकतानो जिनः ।।।।
अनुवाद : हाथथी करवा योग्य कोई पण कार्य बाकी न रहेवाथी जेमणे
पोताना बन्ने हाथ नीचे लटकावी दीधा हता, गमन करीने मेळववा योग्य कांई पण
कार्य न रहेवाथी जे गमनरहित थई गया हता. आंखो वडे जोवा योग्य कोई पण
वस्तु न रहेवाथी जेओ पोतानी द्रष्टि नाकनी अणी उपर ठेरवता हता, तथा कानने
सांभळवा योग्य कांई पण बाकी न रहेवाथी जे आकुळता रहित थईने एकान्त
स्थानमां रह्या हता; एवा ते ध्यानमां एकाग्रचित्त थयेला जिन भगवान जयवंत हो.
विशेषार्थ : अन्य समस्त पदार्थो तरफथी चिंता खसेडीने कोई एक ज पदार्थ तरफ तेने
नियमित करवी, तेने ध्यान कहेवामां आवे छे. आ ध्यान क्यांक एकांत स्थानमां ज करी शकाय छे.
जो उक्त ध्यान कायोत्सर्गवडे करवामां आवे तो तेमां बन्ने हाथ नीचे लटकता राखी द्रष्टि नाकनी
अणी उपर राखवामां आवे छे. आ ध्याननी अवस्था लक्षमां राखीने ज अहीं एम कहेवामां आव्युं
छे के ते वखते जिन भगवानने न हाथ वडे करवा योग्य कांई कार्य बाकी कह्युं हतुं, न गमन वडे
प्राप्त करवा योग्य धनादिनी अभिलाषा शेष हती न कोई पण द्रश्य तेमनी आंखोने रुचिकर बाकी
रह्युं हतुं अने न कोई गीत आदि पण तेमना कानने मुग्ध करे एवुं बाकी रह्युं हतुं. २.
(शार्दूलविक्रीडित)
रागो यस्य न विद्यते क्कचिदपि प्रध्वस्तसंगग्रहात्
अस्त्रादेः परिवर्जनान्न च बुधैर्द्वैषोऽपि संभाव्यते
तस्मात्साम्यमथात्मबोधनमतो जातः क्षयः कर्मणा-
मानन्दादिगुणाश्रयस्तु नियतं सोऽर्हन्सदा पातु वः
।।।।
अनुवाद : जे अरिहंत परमेष्ठीने परिग्रहरूपी पिशाच रहित थई जवाने

Page 3 of 378
PDF/HTML Page 29 of 404
single page version

background image
लीधे कोई पण इन्द्रिय विषयमां राग नथी, त्रिशूळ आदि आयुध रहित होवाने
लीधे उक्त अरिहंत परमेष्ठीने विद्वानो द्वारा द्वेषनी पण संभावना करी शकाती नथी.
तेथी राग-द्वेष रहित थई जवाने लीधे तेमने समताभाव प्रगट्यो छे, अने आ
समताभाव प्रगटवाथी तेमने आत्मज्ञान तथा तेनाथी तेमने कर्मोनो वियोग थयो छे.
माटे कर्मोना क्षयथी जे अरिहंत परमेष्ठी अनंत सुख आदि गुणोनो आश्रय पाम्या
छे. ते अरिहंत परमेष्ठी सर्वदा तमारी रक्षा करो. ३.
(शार्दूलविक्रीडित)
इन्द्रस्य प्रणतस्य शेखरशिखारत्नार्कभासा नख-
श्रेणीतेक्षणबिम्बशुम्भदलिभृद्दूरोल्लसत्पाटलम्
श्रीसद्माङ्घ्रियुगं जिनस्य दधदप्यम्भोजसाम्यं रज-
स्त्यक्तं जाड्यहरं परं भवतु नश्चेतोऽर्पितं शर्मणे
।।।।
अनुवाद : जे जिन भगवानना श्रेष्ठ बन्ने चरण नमस्कार करती वखते
नमेला इन्द्रना मुगटनी कलगीमां जडेला रत्नरूपी सूर्यना प्रकाशथी कांईक धवलता
सहित लाल वर्णना छे तथा जे नखोमां पडता इन्द्रना नेत्रोना प्रतिबिंबरूप भ्रमरोने
धारण करे छे, जे शोभाना स्थानरूप छे तेथी जे कमळनी उपमा धारण करवा छतां
पण धूळना संसर्ग विनाना होईने जडताने (अज्ञानने) हरनार छे; ते बन्ने चरणो
अमारा चित्तमां स्थिर थइने सुखना कारण थाव.
विशेषार्थ : अहीं जिनभगवानना चरणोने कमळनी उपमा आपतां एम बताव्युं छे
के जेम कमळ पाटल (कांईक सफेद साथे लाल) वर्णनुं होय छे तेम जिन भगवानना चरणोमां
ज्यारे इन्द्र नमस्कार करता हता त्यारे तेना मुकुटमां जडेला रत्ननी छाया तेना उपर पडती हती
तेथी ते पण कमळनी जेम पाटल वर्णना थई जता हता. जो कमळमां भमरा रहे छे तो जिन
भगवानना पगना नखोमां पण नमस्कार करता इन्द्रना नेत्र प्रतिबिंबरूप भमरा विद्यमान हता.
कमळ जो श्री (लक्ष्मी)नुं स्थान मनाय छे तो ते जिन चरण पण श्री (शोभा)नुं स्थान हता. आम
कमळनी उपमा धारण करवा छतां पण जिनचरणोमां तेनाथी कांईक अधिक विशेषता हती. जेम
के
कमळ तो रज अर्थात् पराग सहित होय छे पण जिनचरण ते रज (धूळ)ना संपर्कथी सदा
रहित हता. एवी ज रीते कमळ जडता (अचेतनपणुं) धारण करे छे परंतु जिनचरण ते
जडता(अज्ञान)ने नष्ट करनार हता. ४.

Page 4 of 378
PDF/HTML Page 30 of 404
single page version

background image
(मालिनी)
जयति जगदधीशः शान्तिनाथो यदीयं
स्मृतमपि हि जनानां पापतापोपशान्त्यै
विबुधकुलकिरीटप्रस्फु रन्नीलरत्न-
द्युतिचलमधुपालीचुम्बितं पादपद्मम्
।।।।
अनुवाद : देवोना समूहोना मुकुटोमां प्रकाशमान नीलरत्नोनी कांतिरूपी
चंचळ भमराओनी पंक्तिथी स्पर्शायेला जे शान्तिनाथ जिनेन्द्रना चरणकमळ स्मरण
करवा मात्रथी ज लोकोना पापरूप संतापने दूर करे छे ते लोकना अधिनायक भगवान
शान्तिनाथ जिनेन्द्र जयवंत हो. ५.
(मालिनी)
स जयति जिनदेवः सर्वविद्विश्वनाथो
वितथवचनहेतुक्रोधलोभाद्विमुक्त :
शिवपुरपथपान्थप्राणिपाथेयमुच्चै-
र्जनितपरमशर्मा येन धर्मोऽभ्यधायि
।।।।
अनुवाद : जे जिन भगवान असत्य भाषणना कारणरूप क्रोध अने लोभ
आदिथी रहित छे अने जेणे मोक्षपुरीना मार्गे चालता मुसाफरोने नास्तारूप तेम
ज उत्तम सुख उत्पन्न करनार एवा धर्मनो उपदेश आप्यो छे ते समस्त पदार्थोने
जाणनार त्रण लोकना अधिपति जिनदेव जयवंत हो. ६.
(शार्दूलविक्रीडित)
धर्मो जीवदया गृहस्थशमिनोर्भेदाद्विधा च त्रयं
रत्नानां परमं तथा दशविधोत्कृष्टक्षमादिस्ततः
मोहोद्भूतविकल्पजालरहिता वागसङ्गोज्झिता
शुद्धानन्दमयात्मनः परिणतिर्धर्माख्यया गीयते
।।।।
अनुवाद : प्राणीओ उपर दयाभाव राखवो ते धर्मनुं स्वरूप छे. ते धर्म

Page 5 of 378
PDF/HTML Page 31 of 404
single page version

background image
गृहस्थ (श्रावक) अने मुनिना भेदथी बे प्रकारनो छे. ते ज धर्म सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्ररूप उत्कृष्ट रत्नत्रयना भेदथी त्रण प्रकारनो तथा उत्तम
क्षमा, उत्तम मार्दव आदिना भेदथी दस प्रकारनो पण छे. परंतु निश्चयथी तो मोहना
निमित्ते उत्पन्न थतां मानसिक विकल्पोथी तथा वचन अने शरीरना संसर्गथी पण
रहित जे शुद्ध आनंदरूप आत्मानी परिणति थाय छे तेने ज ‘धर्म’ नामे कहेवामां
आवे छे.
विशेषार्थ : प्राणीओ उपर दयाभाव राखवो, रत्नत्रय धारण करवा, तथा उत्तम क्षमादि
दश धर्मोनुं परिपालन करवुं; ए बधुं व्यवहारधर्मनुं स्वरूप छे. निश्चयधर्म तो शुद्ध आनंदमय
आत्मानी परिणतिने ज कहेवामां आवे छे. ७.
(शार्दूलविक्रीडित)
आद्या सद्व्रतसंचयस्य जननी सौख्यस्य सत्संपदां
मूलं धर्मंतरोरनश्वरपदारोहैकनिःश्रेणिका
कार्या सद्भिरिहाङ्गिषु प्रथमतो नित्यं दया धार्मिकैः
धिङ्नामाप्यपदयस्य तस्य च परं सर्वत्र शून्या दिशः
।।।।
अनुवाद : अहीं धर्मात्मा सज्जनोए सौथी पहेलां प्राणीओना विषयमां
सदाय दया राखवी जोईए, केमके ते दया समीचीन व्रतो, सुख अने उत्कृष्ट
संपदाओनी मुख्य जननी अर्थात् उत्पादक छे; धर्मरूपी वृक्षनुं मूळ छे, तथा अविनश्वर
पद अर्थात् मोक्ष महेलमां चडवानी अपूर्व निसरणीनुं काम करे छे. निर्दय पुरुषनुं
नाम लेवुं पण निन्द्य छे, तेना माटे बधे दिशाओ शून्य जेवी छे.
विशेषार्थ : जेवी रीते मूळ विना वृक्षनी स्थिति टकती नथी तेवी ज रीते प्राणीदया
विना धर्मनी स्थिति पण रही शकती नथी. तेथी ते धर्मरूपी वृक्षना मूळ समान छे. ए सिवाय
प्राणीदया थतां ज उत्तम व्रत, सुख अने समीचीन संपदाओ तथा अंते मोक्ष पण प्राप्त थाय छे;
माटे ज धर्मात्माओनुं ए प्रथम कर्तव्य छे के ते समस्त प्राणीधारीओ प्रत्ये दयाभाव राखे. जे
प्राणी निर्दयताथी जीवघातनी प्रवृत्ति करे छे तेनुं नाम लेवुं पण खराब समजवामां आवे छे. तेने
क्यांय पण सुख सामग्री प्राप्त थवानी नथी. तेथी सत्पुरुषोने आ पहेलो उपदेश छे के तेमणे समस्त
प्राणीओ प्रत्ये दयायुक्त आचरण करवुं. ८.

Page 6 of 378
PDF/HTML Page 32 of 404
single page version

background image
(शार्दूलविक्रीडित)
संसारे भ्रमतश्चिरं तनुभृतः के के न पित्रादयो
जातास्तद्वधमाश्रितेन खलु ते सर्वें भवन्त्याहताः
पुंसात्मापि हतो यदत्र निहतो जन्मान्तरेषु ध्रुवम्
हन्तारं प्रतिहन्ति हन्त बहुशः संस्कारतो नु क्रुधः
।।।।
अनुवाद : संसारमां चिरकाळथी परिभ्रमण करनार प्राणीने क्या क्या जीव
पिता, माता, भाई आदि नथी थया? तेथी ते जीवोना घातमां प्रवर्ततो प्राणी
निश्चयथी ते बधाने मारे छे. आश्चर्य तो ए छे के ते पोते पोतानो पण घात करे
छे. आ भवमां जे बीजा द्वारा मरायो छे ते निश्चयथी अन्य भवमां क्रोधनी वासनाथी
पोताना ते घातकनो अनेकवार घात करे छे, ए खेदनी वात छे.
विशेषार्थ : जन्म-मरणनुं नाम संसार छे. आ संसारमां परिभ्रमण करतां प्राणीने
भिन्न-भिन्न भवोमां घणाखरा जीवो माता-पिता आदि संबंधो पाम्या छे. तेथी जे प्राणी निर्दय
थईने ते जीवोनो घात करे छे ते पोताना माता-पिता आदिनो ज घात करे छे. बीजुं तो शुं कहीए,
क्रोधी जीव आत्मघात पण करी बेसे छे. आ क्रोधनी वासनाथी आ जन्ममां कोई अन्य प्राणी द्वारा
मरायेलो जीव पोताना ते घातकनो जन्मान्तरोमां अनेकवार घात करे छे. तेथी अहीं एम उपदेश
आपवामां आव्यो छे के जे क्रोध अनेक पापोनो जनक छे तेनो परित्याग करीने जीवदयामां प्रवृत्त
थवुं जोईए. ९.
(शार्दूलविक्रीडित)
त्रैलोक्यप्रभुभावतो ऽपि सरुजो ऽप्येकं निजं जीवितं
प्रेयस्तेन बिना स कस्य भवितेत्याकांक्षतः प्राणिनः
निःशेषव्रतशीलनिर्मलगुणाधारात्ततो निश्चितं
जन्तोर्जीवितदानतस्त्रिभुवने सर्वप्रदानं लघु
।।१०।।
अनुवाद : रोगी प्राणीने पण त्रणे लोकनी प्रभुतानी अपेक्षाए एक मात्र
पोतानुं जीवन ज प्रिय होय छे. कारण ए छे के ते विचारे छे के जीवन नष्ट
थई गया पछी ते त्रणे लोकोनी प्रभुता भला कोने प्राप्त थवानी? निश्चयथी ते
जीवनदान समस्त व्रत, शील अने अन्य अन्य निर्मळ गुणोना आधारभूत छे तेथी

Page 7 of 378
PDF/HTML Page 33 of 404
single page version

background image
ज लोकमां जीवने जीवनदाननी अपेक्षाए अन्य समस्त संपत्ति आदिनुं दान पण
तुच्छ मनाय छे.
विशेषार्थ : प्राणोनो घात करवामां आवतां जो कोईने त्रण लोकनुं प्रभुत्व पण प्राप्त
थतुं होय तो ते तेने नहि चाहे, परंतु पोताना जीवननी ज अपेक्षा करशे. कारण के ते समजे
छे के जीवननो घात थया पछी छेवटे तेने भोगवशे कोण? ते सिवाय व्रत, शील, संयम अने
तप आदिनो आधार उक्त जीवनदान ज छे तेथी बीजा बधा दानोनी अपेक्षाए जीवनदान ने
ज श्रेष्ठ गणवामां आव्युं छे. १०.
(शार्दूलविक्रीडित)
स्वर्गायाव्रतिनाऽपि सार्द्रमनसः श्रेयस्करी केवला
सर्वप्राणिदया तया तु रहितः पापस्तपस्थोऽपि वा
तद्दानं बहु दीयतां तपसि वा चेतश्चिरं धीयतां
ध्यानं वा क्रियतां जना न सफलं किंचिद्दयावर्जितम्
।।११।।
अनुवाद : जेनुं चित्त दयाथी भिंजायेलुं छे ते जो व्रतरहित होय तोपण
तेनी कल्याण कारिणी एक मात्र सर्वप्राणीदया स्वर्गनी प्राप्तिनुं निमित्त थाय छे.
एनाथी उल्टुं उक्त प्राणीदयाथी रहित प्राणी तपमां स्थित होवा छतां पण पापिष्ठ
मनाय छे. तेथी हे भव्य प्राणीओ! भले तमे घणुं दान द्यो, भले लांबो समय
चित्तने तपमां लगाडो अथवा भले ध्यान पण करो, परंतु दया विना ते बधुं निष्फळ
जशे. ११.
(शार्दूलविक्रीडित)
सन्तः सर्वसुरासुरेन्द्रमहितं मुक्तेः परं कारणं
रत्नानां दधति त्रयं त्रिभुवनप्रद्योति काये सति
वृत्तिस्तस्य यदन्नतः परमया भक्त्यार्पिताज्जायते
तेषां सद्गृहमेधिनां गुणवतां धर्मो न कस्य प्रियः
।।१२।।
अनुवाद : जे रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र) सर्व
सुरेन्द्रो अने असुरेन्द्रो द्वारा पूज्य छे, मोक्षनुं अद्वितीय कारण छे अने त्रणे लोकने

Page 8 of 378
PDF/HTML Page 34 of 404
single page version

background image
प्रकाशित करनार छे तेने मुनिओ शरीर होय त्यारे ज धारण करे छे. ते शरीरनी
स्थिति उत्कृष्ट भक्तिथी आपवामां आवेल जे सद्गृहस्थोना अन्नथी रहे छे ते
गुणवान सद्गृहस्थो (श्रावको)नो धर्म भला कोने प्रिय न लागे? अर्थात् सर्वने प्रिय
लागे. १२.
(स्रग्धरा)
आराध्यन्ते जिनेन्द्रा गुरुषु च विनतिर्धार्मिकैः प्रीतिरुच्चैः
पात्रेभ्यो दानमापन्निहतजनकृते तच्च कारुण्यबुद्धया
तत्त्वाभ्यासः स्वकीयव्रतरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यं
तद्गार्हस्थ्यं बुधानामितरदिह पुनर्दुःखदो मोहपाशः
।।१३।।
अनुवाद : जे गृहस्थ अवस्थामां जिनेन्द्रोनी आराधना कराय छे, निर्ग्रंथ
गुरुओना विषयमां विनययुक्त व्यवहार कराय छे, धर्मात्मा पुरुषो प्रत्ये अतिशय
वात्सल्य भाव राखवामां आवे छे, पात्रोने दान आपवामां आवे छे, ते दान
आपत्तिथी पीडित प्राणीओने पण दयाबुद्धिथी आपवामां आवे छे, तत्त्वोनुं परिशीलन
करवामां आवे छे, पोताना व्रतो प्रत्ये अर्थात् गृहस्थ धर्म प्रत्ये प्रेम राखवामां आवे
छे, तथा निर्मळ सम्यग्दर्शन धारण करवामां आवे छे ते गृहस्थ अवस्था विद्वानोने
पूज्य छे. अने तेनाथी विपरीत गृहस्थ अवस्था अहीं लोकमां दुःखदायक मोहजाळ
ज छे. १३.
(शार्दूलविक्रीडित)
आदौ दर्शनमुन्नतं व्रतमितः सामायिकं प्रोषध
स्त्यागश्चैव सचित्तवस्तुनि दिवाभुक्तं तथा ब्रह्म च
नारभ्भो न परिग्रहोऽननुमतिर्नोिद्रष्टमेकादश
स्थानानीति गृहिव्रते व्यसनितात्यागस्तदाद्यः स्मृतः ।।१४।।
अनुवाद : सर्व उन्नतिने प्राप्त थयेलुं सम्यग्दर्शन, त्यार पछी व्रत, त्यार
पछी क्रम प्रमाणे सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्त वस्तुनो त्याग, दिवसे भोजन करवुं
अर्थात् रात्रिभोजनननो त्याग, त्यार पछी ब्रह्मचर्य धारण करवुं, आरंभ न करवो,
परिग्रह न राखवो, गृहस्थना कार्योमां संमति न आपवी, उद्दिष्ट भोजन ग्रहण न

Page 9 of 378
PDF/HTML Page 35 of 404
single page version

background image
करवुं; आ रीते आ श्रावकधर्ममां अगियार प्रतिमाओ कहेवामां आवी छे. ते बधानी
शरूआतमां जूगार वगेरे व्यसनोनो त्याग कहेवामां आव्यो छे.
विशेषार्थ : सकळ चारित्र अने विकळ चारित्रना भेदथी चारित्र बे प्रकारनुं छे. एमां
सकळ चारित्र मुनिओने अने विकळ चारित्र श्रावकोने होय छे. तेमां श्रावकोनी नीचे प्रमाणे
अगियार श्रेणीओ (प्रतिमाओ) छे. दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रौषधोपवास, सचित्तत्याग,
दिवाभुक्ति, ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग, अने उद्दिष्ट त्याग. (१)
विशुद्ध सम्यग्दर्शन साथे संसार, शरीर अने इन्द्रियना विषयभोगोथी विरक्त थईने पाक्षिक
श्रावकना आचार सन्मुख थवुं तेनुं नाम दर्शन प्रतिमा छे. (२) माया, मिथ्यात्व अने निदानरूप
त्रण शल्यथी रहित थईने अतिचार रहित पांच अणुव्रत अने सात शीलव्रतोने धारण करवा ते
व्रत प्रतिमा कहेवाय छे. (३) नियमित समय सुधी हिंसादि पांचे पापोनो पूर्णरीते त्याग करीने
अनित्य, अशरण आदि भावनाओनो तथा संसार अने मोक्षना स्वरूप आदिनो विचार करवो, तेने
सामायिक कहे छे. त्रीजी प्रतिमाधारी श्रावक ते सवारे, बपोरे अने सांजे नियमित रूपे करे छे.
(४) प्रत्येक आठम अने चौदशे सोळ पहोर सुधी चार प्रकारना भोजन (अशन, पान, खाद्य अने
लेह)ना परित्यागनुं नाम प्रौषधोपवास छे. अहीं प्रोषध शब्दनो अर्थ एकाशन अने उपवासनो
अर्थ सर्व प्रकारना भोजननो परित्याग छे. जेम के
- जो आठमने दिवसे प्रोषधोपवास करवानो होय
तो सातमना दिवसे एकाशन करीने आठमे उपवास करवो जोईए अने त्यार पछी नोमे पण
एकाशन ज करवुं जोईए. प्रोषधोपवासना समये हिंसादि पाप सहित शरीरश्रृंगारादिनो पण त्याग
करवो अनिवार्य होय छे. (५) जे वनस्पतिओ निगोदना जीवथी व्याप्त होय तेना त्यागने
सचित्तत्याग कहेवामां आवे छे. (६) रात्रे भोजननो परित्याग करीने दिवसे ज भोजन करवानो
नियम करवो, ए दिवाभुक्तिप्रतिमा कहेवाय छे. केटलाक आचार्योना अभिप्राय प्रमाणे दिवसे
मैथुनना परित्यागने दिवाभुक्ति (छठी प्रतिमा) कहे छे. (७) शरीरना स्वभावनो विचार करीने
कामभोगथी विरकत थवानुं नाम ब्रह्मचर्य प्रतिमा छे. (८) कृषि अने वेपार आदि आरंभना
परित्यागने आरंभत्याग प्रतिमा कहे छे. (९) धन
- धान्यादिरूप दस प्रकारना बाह्य परिग्रहमां
ममत्वबुद्धि छोडीने संतोषनो अनुभव करवो, तेने परिग्रहत्यागप्रतिमा कहे छे. (१०) आरंभ
परिग्रह अने आ लोक संबंधी अन्य कार्योना विषयमां संमति न देवानुं नाम अनुमतित्याग छे.
(११) गृहवास छोडीने भिक्षावृत्तिथी भोजन करतां उद्दिष्ट भोजननो त्याग करवो तेने उद्दिष्टत्याग
कहेवामां आवे छे. आ प्रतिमाओमां पूर्वनी प्रतिमाओनो निर्वाह थतां ज आगळनी प्रतिमामां
परिपूर्णता थाय छे, अन्यथा नहीं. १४.
(शार्दूलविक्रीडित)
यत्प्रोक्तं प्रतिमाभिराभिरभितो विस्तारिभिः सूरिभिः
ज्ञातव्यं तदुपासकाध्ययनतो गेहिव्रतं विस्तरात्

Page 10 of 378
PDF/HTML Page 36 of 404
single page version

background image
तत्रापि व्यसनोज्झनं यदि तदप्यासूत्र्यते ऽत्रैव यत्
तन्मूलः सकलः सतां व्रतविधिर्याति प्रतिष्ठां पराम्
।।१५।।
अनुवाद : आ प्रतिमाओ द्वारा जे गृहस्थ व्रत (विकळ चारित्र)नुं अहीं
आचार्योए विस्तारपूर्वक कथन कर्युं छे तेने जो अधिक विस्तारथी जाणवुं होय तो
उपासकाध्ययन अंगमांथी जाणवुं जोईए. त्यां पण जे व्यसननो परित्याग बताववामां
आव्यो छे तेनो निर्देश अहीं पण करी देवामां आव्यो छे. एनुं कारण ए छे के
साधुओना समस्त व्रत विधानादिनी उत्कृष्ट प्रतिष्ठा व्यसनोना परित्याग उपर ज
आधार राखे छे. १५.
(अनुष्टुप)
द्यूतमांससुरावेश्याखेटचौर्यपराङ्गनाः
महापापानि सप्तेति व्यसनानि त्यजेद्बुधः ।।१६।।
अनुवाद : जुगार, मांस, मद्य, वेश्या, शिकार, चोरी अने परस्त्री; आ रीते
आ सात महापापरूप व्यसन छे. बुद्धिमान पुरुषे आ बधानो त्याग करवो जोईए.
विशेषार्थ : खराब टेवने व्यसन कहेवामां आवे छे. आवा व्यसन सात छे१ जुगार
रमवो, २ मांस भक्षण करवुं, ३ दारू पीवो, ४ वेश्या साथे संबंध राखवो, ५ शिकार करवो (मृग
वगेरे पशुओना घातमां आनंद मानवो), ६ चोरी करवी अने ७ अन्यनी स्त्री प्रत्ये अनुराग राखवो.
आ साते व्यसन महापाप उत्पन्न करनार छे, तेथी विवेकी जीवे एनो परित्याग अवश्य करवो
जोईए. १६.
(मालिनी)
भवनमिदमकीर्तेश्चौर्यवेश्यादिसर्व-
व्यसनपतिरशेषापन्निधिः पापबीजम्
विषमनरकमार्गेष्वग्रयायीति मत्वा
क इह विशदबुद्धिर्द्यूतमङ्गीकरोति
।।१७।।
अनुवाद : आ जुगार निंदानुं स्थान छे, चोरी अने वेश्या आदि अन्य सर्व
व्यसनोमां मुख्य छे, समस्त आपत्तिओनुं स्थान छे, पापनुं कारण छे तथा दुःखदायक
नरकना मार्गोमां अग्रगामी छे; आ रीते जाणीने अहीं लोकमां क्यो निर्मळ बुद्धिनो

Page 11 of 378
PDF/HTML Page 37 of 404
single page version

background image
धारक मनुष्य उपर्युक्त जुगारनो स्वीकार करे छे? अर्थात् नथी करतो. जे दुर्बुद्धि
मनुष्य छे ते ज आ अनेक आपत्तिओना उत्पादक जुगारने अपनावे छे, विवेकी
मनुष्य नहि. १७.
(शार्दूलविक्रीडित)
क्वाकीर्तिः क्व दरिद्रता क्व विपदः क्व क्रोधलोभादयः
चौर्यादिव्यसनं क्व च क्व नरके दुःखं मृतानां नृणाम्
चेतश्चेद्गुरुमोहतो न रमते द्यूते वदन्त्युन्नत
प्रज्ञा यद्भुवि दुर्णयेषु निखिलेष्वेतद्धुरि स्मर्यते ।।१८।।
अनुवाद : जो चित्त महामोहथी जुगारमां रमतुं न होय तो पछी अपयश
अथवा निंदा क्यांथी थई शके? गरीबाई क्यां रहे? विपत्तिओ क्यांथी आवे? क्रोध अने
लोभ आदि कषायो क्यांथी उत्पन्न थाय? चोरी आदि अन्य अन्य व्यसन क्यां रहे?
तथा मरीने नरकोमां उत्पन्न थयेल मनुष्योने दुःख क्यांथी प्राप्त थई शके? (अर्थात्
जुगारथी विरक्त थयेल मनुष्यने उपर्युक्त आपत्तिओमांथी कोई पण आपत्ति प्राप्त थती
नथी.) आम उन्नत बुद्धिवाळा विद्वानो कहे छे. ते योग्य ज छे केम के समस्त बुरा
व्यसनोमां आ जुगार गाडानी धरी (धोंसरी) समान मुख्य मनाय छे. १८.
(स्नग्धरा)
बीभत्सु प्राणिघातोद्भवमशुचि कृमिस्थानमश्लाघ्यमूलं
हस्तेनाक्ष्णापि शक्यं यदिह न महतां स्प्रष्टुमालोकितुं च
तन्मांसं भक्ष्यमेतद्वचनमपि सतां गर्हितं यस्य साक्षात्
पापं तस्यात्र पुंसो भुवि भवति कियत्का गतिर्वा न विद्मः
।।१९।।
अनुवाद : जे मांस घृणा उत्पन्न करे छे, मृग आदि प्राणीओना घातथी उत्पन्न
थाय छे, अपवित्र छे, कृमि आदि क्षुद्र जंतुओनुं स्थान छे, जेनी उत्पत्ति निंदनीय छे,
तथा महापुरुष जेनो हाथथी स्पर्श करता नथी अने आंखथी जेने देखता पण नथी ‘ते
मांस खावा योग्य छे’ एवुं कहेवुं पण सज्जनोने माटे निंदा जनक छे. तो पछी एवुं
अपवित्र मांस जे पुरुष साक्षात् खाय छे तेने अहीं लोकमां केटलुं पाप थाय छे तथा तेनी
केवी हालत थाय छे, ए वात अमे जाणता नथी.

Page 12 of 378
PDF/HTML Page 38 of 404
single page version

background image
विशेषार्थःमांस प्रथम तो मृग आदि मूंगा प्राणीओना वधथी उत्पन्न थाय छे बीजुं
तेमां असंख्य अन्य त्रस जीव पण उत्पन्न थई जाय छे जेनी हिंसा थवी अनिवार्य छे. आ कारणे
तेना भक्षणमां हिंसा जनित पापनुं थवुं अवश्यंभावी छे. माटे सज्जन मनुष्य तेनो केवळ परित्याग
ज नथी करता, पण तेनो तेओ हाथथी स्पर्श करवो अने आंखे देखवुं पण खराब समजे छे.
मांसभक्षक जीवोनी दुर्गति अनिवार्य छे. १९.
(शिखरणी)
गतो ज्ञातिः कश्चिद्वहिरपि न यद्येति सहसा
शिरो हत्वा हत्वा कलुषितमना रोदिति जनः
परेषामुत्कृत्य प्रकटितमुखं खादति पलं
कले रे निर्विण्णा वयमिह भवच्चित्रचरितैः
।।२०।।
अनुवाद : जो कोई पोतानो संबंधी पोताना ठेकाणेथी बहार जईने शीघ्र आवतो
नथी तो मनुष्य मनमां व्याकुळ थतो थको वारंवार माथुं पीटीने रोवे छे. ते ज मनुष्य
अन्य मृग आदि प्राणीओनुं मांस कापीने पोतानुं मुख पहोळुं करीने खाय छे. हे कळि
काळ! अहीं अमे तारी आ विचित्र प्रवृत्तिओथी निर्वेद पाम्या छीए.
विशेषार्थ : ज्यारे पोताना कोई ईष्ट सगा संबंधी कार्यवश क्यांय बहार जाय छे अने
जो ते समयसर घेर पाछा आवता नथी तो आ माणस अनिष्टनी आशंकाथी व्याकुळ थईने माथुं
दीवाल वगेरे साथे पछाडीने रुदन करे छे. पाछो ते ज माणस जे अन्य पशु-पक्षीओने मारीने
तेमनी माता आदिथी सदा माटे वियोग करावीने मांसभक्षणमां अनुरक्त थाय छे, ए आ
कळिकाळनो ज प्रभाव छे. काळनी आवी प्रवृत्तिओथी विवेकी जनोनुं चित्त विरक्त थाय ते
स्वाभाविक छे. २०
(मालिनी)
सकलपुरुषधर्मभ्रंशकार्यत्र जन्म
न्यधिकमधिकमग्रे यत्परं दुःखहेतुः
तदपि न यदि मद्यं त्यज्यते बुद्धिमद्भिः
स्वहितमिह किमन्यत्कर्म धर्माय कार्यम्
।।२१।।
अनुवाद : जे दारू आ जन्ममां समस्त पुरुषार्थो (धर्म, अर्थ अने काम)नो
नाश करनार छे अने पछीना जन्ममां अति दुःखनुं कारण छे ते मद्य जो बुद्धिमान

Page 13 of 378
PDF/HTML Page 39 of 404
single page version

background image
मनुष्य छोडता नथी तो पछी अहीं लोकमां धर्म माटे पोताने हितकारक बीजुं क्युं
काम करवा योग्य छे? कोई नहीं. अर्थात् मद्य पीनार मनुष्य एवुं कोई पण पवित्र
काम करी शकतो नथी जे तेने माटे आत्महितकारी होय.
विशेषार्थ : शराबी मनुष्य न तो धर्मकार्य करी शके छे के न अर्थ उपार्जन करी शके
छे अने न यथेच्छ भोग पण भोगवी शके छे. आवी रीते ते आ भवमां त्रणे पुरुषार्थथी रहित
थाय छे. परभवमां ते मद्यजनित दोषोथी नरकादि दुर्गतिओमां पडीने असह्य दुःख पण भोगवे
छे. आ ज विचारथी बुद्धिमान मनुष्य तेनो सदाने माटे परित्याग करे छे. २१.
(मन्दाक्रान्ता)
आस्तामेतद्यदिह जननीं वल्लभां मन्यमाना
निन्द्याश्चेष्टा विदधति जना निस्त्रपाः पीतमद्याः
तत्राधिक्यं पथि निपतिता यत्किरत्सारमेयाद्
वक्त्रे मूत्रं मधुरमधुरं भाषमाणाः पिबन्ति ।।२२।।
अनुवाद : दारूडियो निर्लज्ज थईने अहीं जे माताने पत्नी समजीने
निन्दनीय चेष्टा (संभोग आदि) करे छे ए तो दूर रहो. पण अधिक खेदनी वात
तो ए छे के मार्गमां पडेला तेमना मुखमां कूतरा मूतरे छे अने तेओ तेने अतिशय
मधुर कहीने पीधा करे छे. २२.
(शार्दूलविक्रीडित)
या खादन्ति पलं पिबन्ति च सुरां जल्पन्ति मिथ्यावचः
स्निह्यन्ति द्रविणार्थमेव विदधत्यर्थप्रतिष्ठाक्षतिम्
नीचानामपि दूरवक्रमनसः पापात्मिकाः कुर्वते
लालापानमहर्निशं न नरकं वेश्या विहायापरम्
।।२३।।
अनुवाद : मनमां अत्यन्त कुटिलता धारण करनारी जे पापिष्ठ वेश्याओ
मांस खाय छे, शराब पीए छे, असत्य वचन बोले छे, केवळ धनप्राप्ति माटे ज
स्नेह करे छे. धन अने प्रतिष्ठा ए बन्नेनोय नाश करे छे तथा जे वेश्याओ नीच
पुरुषोनी पण लाळ पीए छे. ते वेश्याओ सिवाय बीजुं कोई नरक नथी. अर्थात्
ते वेश्याओ नरकगतिनी प्राप्तिना कारण छे. २३.

Page 14 of 378
PDF/HTML Page 40 of 404
single page version

background image
(आर्या )
रजकशिलासद्रशीभिः कुर्कुरकर्परसमानचरिताभिः
गणिकाभिर्यदि संगः कृतमिह परलोकवार्ताभिः ।।२४।।
अनुवाद : जे वेश्याओ धोबीना कपडा धोवानी शिला समान छे तथा जेमनुं
आचरण कुतराना हाडका समान छे एवी वेश्याओनो जो संग करवामां आवे तो
पछी अहीं परभवनी वातोथी बस थाव.
विशेषार्थ : जेवी रीते धोबीना पत्थर उपर सारा खराब बधी जातना कपडा धोवामां
आवे छे तथा जेम एक हाडकाना टूकडाने अनेक कूतरा खेंचे छे तेवी ज रीते जे वेश्याओ साथे ऊंच
अने नीच बधी जातना माणसो संबंध राखे छे ते वेश्याओमां अनुरक्त रहेवाथी आ भवमां धन अने
प्रतिष्ठानो नाश थाय छे तथा परभवमां नरकादिनुं महान कष्ट भोगववुं पडे छे. तेथी आ भव अने
परभवमां आत्म
- कल्याण इच्छनारा सत्पुरुषोए वेश्या व्यसननो परित्याग करवो जोईए. २४.
(स्रग्धरा)
या दुर्दुहैकवित्ता वनमधिवसति त्रातृसंबन्धहीना
भीतिर्यस्यां स्वभावाद्दशनधृततृणा नापराधं करोति
वध्यालं सापि यस्मिन् ननु मृगवनितामांसपिण्डप्रलोभात्
आखेटेऽस्मिन्रतानामिह किमु न किमन्यत्र नो यद्विरूपम्
।।२५।।
अनुवाद : जे हरणी दुःखदायक एक मात्र शरीररूप धनने धारण करती
वनमां रहे छे, रक्षकना संबंध विनानी छे अर्थात् जेने कोई रक्षक नथी, जेने
स्वभावथी ज भय रहे छे तथा जे दांतोमां घास धारण करती थकी अर्थात् घास
थकी कोईनो अपराध करती नथी; आश्चर्य छे के ते पण मृगनी स्त्री अर्थात् हरणी
मांस पिंडना लोभथी जे मृगयाना व्यसनमां शिकारीओ द्वारा मराय छे ते मृगया
(शिकार)मां आसक्त मनुष्योने आ लोकमां अने परलोकमां क्युं पाप थतुं नथी?
विशेषार्थ : ए एक प्राचीन पद्धति छे के जे शत्रु दांततळे घासनुं तणखलुं राखीने सामे
आवे तेने वीर पुरुषो पराजित समजीने छोडी देता हता, पछी तेमनी उपर तेओ शस्त्र प्रहार
करता नहि. परंतु खेद ए वातनो छे के शिकारीओ एवा निरपराध मृग आदि प्राणीओनो पण
घात करे छे जे घासनुं भक्षण करतां मुखमां तृण दबावी रहे छे. ए ज भाव
‘दर्शनधृततृणा’
पदद्वारा ग्रंथकारे अहीं सूचव्यो छे. २५.