Padmanandi Panchvinshati-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 5-27 (7. Deshvratodhyotan),1 (8. Siddh Stuti),2 (8. Siddh Stuti),3 (8. Siddh Stuti),4 (8. Siddh Stuti),5 (8. Siddh Stuti),6 (8. Siddh Stuti),7 (8. Siddh Stuti),8 (8. Siddh Stuti),9 (8. Siddh Stuti),10 (8. Siddh Stuti),11 (8. Siddh Stuti),12 (8. Siddh Stuti),13 (8. Siddh Stuti),14 (8. Siddh Stuti),15 (8. Siddh Stuti),16 (8. Siddh Stuti),17 (8. Siddh Stuti),18 (8. Siddh Stuti),19 (8. Siddh Stuti),20 (8. Siddh Stuti),21 (8. Siddh Stuti); 8. Siddh Stuti.

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(देवपूजा वगेरे) क्रियाओने योग्य व्रतनुं परिपालन तो करवुं ज जोईए. ४.
(शार्दूलविक्रीडित)
द्रङ्मूलव्रतमष्टधा तदनु च स्यात्पञ्चधाणुव्रतं
शीलाख्यं च गुणव्रतत्रयमतः शिक्षाश्चतस्रः पराः
रात्रौ भोजनवर्जनं शुचिपटात् पेयं पयः शक्ति तो
मौनादिव्रतमप्यनुष्ठितमिदं पुण्याय भव्यात्मनाम्
।।।।
अनुवाद : सम्यग्दर्शननी साथे आठ मूळगुण, त्यार पछी पांच अणुव्रत अने
त्रण गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत ए रीते आ सात शीलव्रत, रात्रे भोजननो
परित्याग, पवित्र वस्त्रथी गाळेला पाणीनुं पीवुं, तथा शक्ति अनुसार मौनव्रत आदि;
आ बधुं आचरण भव्य जीवोने पुण्यनुं कारण थाय छे. ५.
(शार्दूलविक्रीडित)
हन्ति स्थावरदेहिनः स्वविषये सर्वांस्त्रसान् रक्षति
ब्रूते सत्यमचौर्यवृत्तिमबलां शुद्धां निजां सेवते
दिग्देशव्रतदण्डवर्जनमतः सामायिकं प्रोषधं
दानं भोगयुगप्रमाणमुररीकुर्याद्गृहीति व्रती
।।।।
अनुवाद : व्रती श्रावक पोताना प्रयोजनना वशे स्थावर प्राणीओनो घात
करतो होवा छतां पण सर्व त्रस जीवोनी रक्षा करे छे, सत्य वचन बोले छे, चौर्यवृत्ति
(चोरी)नो परित्याग करे छे, शुद्ध पोतानी ज स्त्रीनुं सेवन करे छे, दिग्व्रत अने
देशव्रतनुं पालन करे छे; अनर्थदंड (पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति अने
प्रमादचर्या )नो परित्याग करे छे; तथा सामायिक, प्रौषधोपवास, दान (अतिथि
संविभाग) अने भोगोपभोग परिमाणनो स्वीकार करे छे. ६.
(शार्दूलविक्रीडित)
देवाराधनपूजनादिबहुषु व्यापारकार्येषु सत्-
पुण्योपार्जनहेतुषु प्रतिदिनं संजायमानेष्वपि
संसारार्णवतारणे प्रवहणं सत्पात्रमुद्दिश्य यत्
तद्देशव्रतधारिणो धनवतो दानं प्रकृष्टो गुणः
।।।।

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अनुवाद : देशव्रती धनवान श्रावकने प्रतिदिन उत्तम पुण्योपार्जनना
कारणभूत देवाराधना अनेक जिनपूजनादिरूप अनेक कार्यो होवा छतां पण संसाररूपी
समुद्र पार थवामां नौकानुं काम करनार जे सत्पात्रदान छे ते तेनो महान गुण छे.
अभिप्राय ए छे के श्रावकना समस्त कार्योमां मुख्य कार्य सत्पात्रदान छे. ७.
(शार्दूलविक्रीडित)
सर्वो वाञ्छनि सौख्यमेव तनुभृत्तन्मोक्ष एव स्फु टं
द्रष्टयादित्रय एव सिध्यति स तन्निर्ग्रन्थ एव स्थितम्
तद्वृत्तिर्वपुषो ऽस्य वृत्तिरशनात्तद्दीयते श्रावकैः
काले क्लिष्टतरे ऽपि मोक्षपदवी प्रायस्ततो वर्तते
।।।।
अनुवाद : सर्व प्राणी सुखनी ज इच्छा करे छे, ते सुख स्पष्टपणे मोक्षमां
ज छे, ते मोक्ष सम्यग्दर्शनादिस्वरूप रत्नत्रय थतां ज सिद्ध थाय छे, ते रत्नत्रय
दिगंबर साधुने ज होय छे, उक्त साधुनी स्थिति शरीरना निमित्ते होय छे, ते
शरीरनी स्थिति भोजनना निमित्ते होय छे अने ते भोजन श्रावको द्वारा आपवामां
आवे छे. आ रीते आ अतिशय क्लेशयुक्त काळमां पण मोक्षमार्गनी प्रवृत्ति घणुं
करीने ते श्रावकोना निमित्ते ज थई रही छे. ८.
(शार्दूलविक्रीडित)
स्वेच्छाहारविहारजल्पनतया नीरुग्वपुर्जायते
साधूनां तु न सा ततस्तदपटु प्रायेण संभाव्यते
कुर्यादौषधपथ्यवारिभिरिदं चारित्रभारक्षमं
यत्तस्मादिह वर्तते प्रशमिनां धर्मो गृहस्थोत्तमात्
।।।।
अनुवाद : शरीर इच्छानुसार भोजन, गमन अने संभाषणथी नीरोग रहे
छे. परंतु आ प्रकारनी इच्छानुसार प्रवृत्ति साधुओने संभव नथी. तेथी तेमनुं शरीर
घणुं करीने अस्वस्थ थई जाय छे. आवी दशामां श्रावक ते शरीरने औषध, पथ्य
भोजन अने जळ द्वारा व्रत परिपालनने योग्य करे छे तेथी ज अहीं ते मुनिओनो
धर्म उत्तम श्रावकना निमित्ते ज चाले छे. ९.

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(शार्दूलविक्रीडित)
व्याख्या पुस्तकदानमुन्नतधियां पाठाय भव्यात्मनां
भक्त्या यत्क्रियते श्रुताश्रयमिदं दानं तदाहुर्बुधाः
सिद्धे ऽस्मिन् जननान्तरेषु कतिषु त्रैलोक्यलोकोत्सव-
श्रीकारिप्रकटीकृताखिलजगत्कैवल्यभाजो जनाः
।।१०।।
अनुवाद : उन्नत बुद्धिना धारक भव्य जीवोने वांचवा माटे भक्तिथी जे
पुस्तकनुं दान आपवामां आवे छे अथवा तेमने तत्त्वनुं व्याख्यान आपवामां आवे
छे, तेने विद्वानो श्रुतदान (ज्ञानदान) कहे छे. आ ज्ञानदान सिद्ध थतां थोडा ज
भवोमां मनुष्य ते केवळज्ञान प्राप्त करी ले छे जेना वडे समस्त विश्व साक्षात् देखाय
छे अने जे प्रगट थतां त्रणे लोकना प्राणी उत्सवनी शोभा करे छे. १०.
(शार्दूलविक्रीडित)
सर्वेषामभयं प्रवृद्धकरुणैर्यद्दीयते प्राणिनां
दानं स्यादभयादि तेन रहितं दानत्रयं निष्फलम्
आहारौषधशास्त्रदानविधिभिः क्षुद्रोगजाडयाद्भयं
यत्तत्पात्रजने विनश्यति ततो दानं तदेकं परम्
।।११।।
अनुवाद : दयाळु पुरुषो द्वारा जे सर्व प्राणीओने अभय आपवामां
आवे छे अर्थात् तेमनो भय दूर करवामां आवे छे ते अभयदान कहेवाय छे.
तेनाथी रहित बाकीना त्रण प्रकारना दान व्यर्थ जाय छे. आहार, औषध अने
शास्त्रदाननी विधिथी पात्रजीवोनो क्रमे क्षुधानो भय, रोगनो भय अने
अज्ञानपणानो भय नष्ट थाय छे माटे ज ते एक अभयदान ज श्रेष्ठ छे.
विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के उपर्युक्त चार दानोमां आ अभयदान मुख्य
छे. कारण के शेष आहारादि दानोनी सफळता आ अभयदान उपर ज अवलंबे छे. ए
सिवाय जो विचार करवामां आवे तो ते आहारादिना दानस्वरूप बाकीना त्रण पण आ
अभयदाननी ज अंदर आवी जाय छे. एनुं कारण ए छे के अभयदाननो अर्थ छे प्राणीना
सर्व प्रकारना भय दूर करीने तेने निर्भय करवा. आहारदान द्वारा प्राणीनी क्षुधानो भय,
औषधदान द्वारा रोगनो भय अने शास्त्रदान द्वारा तेना अज्ञानपणानो भय ज दूर करवामां
आवे छे. ११.

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(शार्दूलविक्रीडित)
आहारात् सुखितौषधादतितरां नीरोगता जायते
शास्त्रात् पात्रनिवेदितात् परभवे पाण्डित्यमत्यद्भुुतम्
एतत्सर्वगुणप्रभापरिकरः पुंसो ऽभयाद्दानतः
पर्यन्ते पुनरुन्नतोन्नतपदप्राप्तिर्विमुक्तिस्ततः
।।१२।।
अनुवाद : पात्रने आपवामां आवेला आहारना निमित्ते बीजा जन्ममां सुख,
औषधना निमित्ते अतिशय नीरोगता, अने शास्त्रना निमित्ते आश्चर्यजनक विद्वत्ता
प्राप्त थाय छे. अभयदानथी पुरुषने आ बधा ज गुणोनो समूह प्राप्त थाय छे
तथा अंते उन्नत उन्नत पदो (इन्द्र अने चक्रवर्ती आदि)नी प्राप्तिपूर्वक मुक्ति पण
प्राप्त थई जाय छे. १२.
(शार्दूलविक्रीडित)
कृत्वा कार्यशतानि पापबहुलान्याश्रित्य खेदं परं
भ्रान्त्वा वारिधिमेखलां वसुमतीं दुःखेन यच्चार्जितम्
तत्पुत्रादपि जीवितादपि धनं प्रेयोऽस्य पन्थाः शुभो
दानं तेन च दीयतामिदमहो नान्येन तत्संगतिः
।।१३।।
अनुवाद : जे धन अतिशय खेदना अनुभवपूर्वक पापप्रचुर सेंकडो खोटा
कार्यो करीने तथा समुद्ररूप मेखला सहित अर्थात् समुद्रपर्यंत पृथ्वीनुं परिभ्रमण
करीने घणा दुःखथी मेळवाय छे ते धन मनुष्यने पोताना पुत्र अने प्राणोथी पण
अधिक प्यारूं होय छे तेने खरचवानो उत्तम मार्ग दान छे. तेथी कष्टथी मेळवेला
ते धननुं दान करवुं जोईए. एनाथी विपरीत बीजा मार्गे (दुर्व्यसनादि) अपव्यय
करवामां आवे तो तेनो संयोग फरीथी प्राप्त थई शकतो नथी. १३.
(शार्दूलविक्रीडित)
दानेनैव गृहस्थता गुणवती लोकद्वयोद्द्योतिका
सैव स्यान्ननु तद्विना धनवतो लोकद्वयध्वंसकृत्
दुर्व्यापारशतेषु सत्सु गृहिणः पापं यदुत्पद्यते
तन्नाशाय शशाङ्कशुभ्रयशसे दानं च नान्यत्परम्
।।१४।।

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अनुवाद : दान द्वारा ज गुणयुक्त गृहस्थाश्रम बन्ने लोकने प्रकाशित करे
छे अर्थात् जीवने दानना निमित्ते ज आ भव अने परभव बन्नेमां सुख प्राप्त थाय
छे. एनाथी उल्टुं उक्त दान विना धनवान मनुष्यनो ते गृहस्थाश्रम बन्ने लोकने
नष्ट करी नांखे छे. सेंकडो दुष्ट व्यापारोमां प्रवृत्त थतां गृहस्थने जे पाप उत्पन्न थाय
छे तेने नष्ट करवानुं तथा चंद्रमा समान धवळ यशनी प्राप्तिनुं कारण ते दान ज
छे, ते सिवाय पापनाश अने यशनी प्राप्तिनुं बीजुं कोई कारण होई शके नहि. १४.
(शार्दूलविक्रीडित)
पात्राणामुपयोगि यत्किल धनं तद्धीमतां मन्यते
येनानंतगुणं परत्र सुखदं व्यावर्तते तत्पुनः
यद्भोगाय गतं पुनर्धनवतस्तन्नष्टमेव ध्रुवं
सर्वासामिति सम्पदां गृहवतां दाने प्रधानं फलम्
।।१५।।
अनुवाद : जे धन पात्रोना उपयोगमां आवे छे तेने ज बुद्धिमान मनुष्य
श्रेष्ठ माने छे कारण के ते अनंतगुणा सुखनुं आपनार थईने परलोकमां फरीथी पण
प्राप्त थई जाय छे. परंतु एनाथी विपरीत जे धनवाननुं धन भोगना निमित्ते नष्ट
थाय छे ते निश्चयथी नष्ट ज थई जाय छे अर्थात् दानजनित पुण्यना अभावमां
ते फरी कदी प्राप्त थतुं नथी. तेथी ज गृहस्थोने समस्त संपत्तिओना लाभनुं उत्कृष्ट
फळ दानमां ज प्राप्त थाय छे. १५.
(शार्दूलविक्रीडित)
पुत्रे राज्यमशेषमर्थिषु धनं दत्त्वाभयं प्राणिषु
प्राप्ता नित्यसुखास्पदं सुतपसा मोक्षं पुरा पार्थिवाः
मोक्षस्यापि भवेत्ततः प्रथमतो दानं निदानं बुधैः
शक्त्या देयमिदं सदातिचपले द्रव्ये तथा जीविते
।।१६।।
अनुवाद : पूर्वकाळमां अनेक राजाओ पुत्रने समस्त राज्य आपी दईने,
याचक जनोने धन आपीने तथा प्राणीओने अभय आपीने उत्कृष्ट तपश्चरण द्वारा
अविनश्वर सुखना स्थानभूत मोक्षने प्राप्त थया छे. आ रीते ते दान मोक्षनुं पण
प्रधान कारण छे. तेथी संपत्ति अने जीवन अतिशय चपळ अर्थात् नश्वर होवाथी

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विद्वान पुरुषोए शक्ति प्रमाणे सर्वदा ते दान अवश्य आपवुं जोईए. १६.
(शार्दूलविक्रीडित)
ये मोक्ष प्रति नोद्यताः सुनृभवे लब्धेऽपि दुर्बुद्धयः
ते तिष्ठन्ति गृहे न दानमिह चेत्तन्मोहपाशो दृढः
मत्वेदं गृहिणा यथर्द्धि विविधं दानं सदा दीयतां
तत्संसारसरित्पतिप्रतरणे पोतायते निश्चितम्
।।१७।।
अनुवाद : उत्तम मनुष्यभव पामीने पण जे दुर्बुद्धि मनुष्य मोक्षना विषयमां
उद्यम करता नथी तेओ जो घरमां रहेवा छतां पण दान आपता नथी तो तेमना
माटे ते घर मोहद्वारा निर्मित द्रढ जाळ जेवुं ज छे एम समजीने गृहस्थ श्रावके
पोतानी संपत्ति अनुसार सर्वदा अनेक प्रकारनुं दान आपवुं जोईए. कारण ए छे
के ते दान निश्चयथी संसाररूपी समुद्र पार थवामां नावनुं काम करे छे. १७.
(शार्दूलविक्रीडित)
यैर्नित्यं न विलोक्यते जिनपतिर्न स्मर्यते नार्च्यते
न स्तूयेत न दीयते मुनिजने दानं च भक्त्या परम्
सामर्थ्ये सति तद्गृहाश्रमपदं पाषाणनावा समं
तत्रस्था भवसागरे ऽतिविषमे मज्जन्ति नश्यन्ति च
।।१८।।
अनुवाद : जे मनुष्य प्रतिदिन जिनेन्द्रदेवनुं न तो दर्शन करे छे, न स्मरण
करे छे, न पूजन करे छे, न स्तुति करे छे अने समर्थ होवा छतां पण भक्तिथी
मुनिजनोने उत्तम दान पण देता नथी; तेमनुं गृहस्थाश्रम पद पथ्थरनी नाव समान
छे. तेना उपर बेसीने ते मनुष्यो अत्यंत भयानक संसाररूपी समुद्रमां गोथा खाता
थका नाश ज पामवाना छे. १८.
(शार्दूलविक्रीडित)
चिन्तारत्नसुरद्रुकामसुरभिस्पर्शोपलाद्या भुवि
ख्याता एव परोपकारक रणे दृष्टा न ते केनचित्

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तैरत्रोपकृतं न केषुचिदपि प्रायो न संभाव्यते
तत्कार्याणि पुनः सदैव विदधद्दाता परं
द्रश्यते ।।१९।।
अनुवाद : चिन्तामणि, कल्पवृक्ष, कामधेनु अने पारस पथ्थर आदि पृथ्वीपर
परोपकार करवामां केवळ प्रसिद्ध ज छे. तेमने न तो कोईए परोपकार करता जोया
छे अने न तेमणे अहीं कोईनो उपकार कर्यो पण छे तथा एवी संभावना पण घणुं
करीने नथी. परंतु तेमना कार्यो (परोपकारादि) सदाय करता केवळ दाता श्रावक अवश्य
जोवामां आवे छे. तात्पर्य ए छे के दानी मनुष्य ते प्रसिद्ध चिन्तामणि आदिथी
पण अतिशय श्रेष्ठ छे. १९.
(शार्दूलविक्रीडित)
यत्र श्रावकलोक एष वसति स्यात्तत्र चैत्यालयो
यस्मिन् सोऽस्ति च तत्र सन्ति यतयो धर्मश्च तैर्वतते
धर्मे सत्यघसंचयो विघटते स्वर्गापवर्गाश्रयं
सौख्यं भावि नृणां ततो गुणवतां स्युः श्रावकाः संमताः
२०
अनुवाद : जे गाममां आ श्रावको रहे छे त्यां चैत्यालय थाय छे अने
ज्यां चैत्यालय छे त्यां मुनिओ रहे छे, ते मुनिओ द्वारा धर्मनी प्रवृत्ति थाय
छे तथा धर्म थतां पापना समूहनो नाश थईने स्वर्ग
मोक्षनुं सुख प्राप्त थाय
छे. तेथी गुणवान मनुष्योने श्रावको इष्ट छे. २०.
विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के जे जिनमंदिरोमां स्थित थईने मुनिओ स्वर्ग
मोक्षना साधनभूत धर्मनो प्रचार करे छे ते जिनमंदिर श्रावको द्वारा ज बनावाय छे. माटे
जो ते श्रावको ज परंपराए ते सुखना साधन होय तो गुणी जनोए ते श्रावकोनुं यथायोग्य
सन्मान करवुं ज जोईए. २०
(शार्दूलविक्रीडित)
काले दुःखमसंज्ञके जिनपतेधर्मे गते क्षीणतां
तुच्छे सामयिके जने बहुतरे मिथ्यान्धकारे सति
चैत्ये चैत्यगृहे च भक्तिसहितो यः सोऽपि नो द्रश्यते
यस्तत्कारयते यथाविधि पुनर्भव्यः स वंद्यः सताम् ।।२१।।

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अनुवाद : आ दुःखमा नामना पंचम काळमां जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित
धर्म क्षीण थई गयो छे. आमां जैनागम अथवा जैनधर्मनो आश्रय लेनार माणसो
थोडा अने अज्ञानरूप अंधकारनो प्रचार घणो वधारे छे. एवी अवस्थामां जे मनुष्य
जिनप्रतिमा अने जिनगृहना विषयमां भक्ति राखता होय ते पण जोवामां आवता
नथी. छतां पण जे भव्य विधिपूर्वक उक्त जिनप्रतिमा अने जिनगृहनुं निर्माण करावे
छे ते सज्जन पुरुषो द्वारा वंदनीय छे. २१.
(वसंततिलका)
बिम्बादलोन्नतियवोन्नतिमेव भक्त्या
ये कारयन्ति जिनसद्म जिनाकृतिं च
पुण्यं तदीयमिह वागपि नैव शक्ता
स्तोतुं परस्य किमु कारयितुर्द्वयस्य
।।२२।।
अनुवाद : जे भव्य जीव भक्तिथी कुन्दरू वृक्षना पांदडा जेवडा जिनालय
अने जव(दाणा)ना जेवडी जिनप्रतिमानुं निर्माण करावे छे तेमना पुण्यनुं वर्णन करवा
माटे अहीं वाणी (सरस्वती) पण समर्थ नथी. तो पछी जे भव्य जीव ते ( जिनालय
अने जिनप्रतिमा) बन्नेनुंय निर्माण करावे छे तेमना विषयमां शुं कहेवुं? अर्थात् ते
तो अतिशय पुण्यशाळी छे ज. २२.
विशेषार्थ : एनो अभिप्राय ए छे के भव्य प्राणी नानामां नाना जिनमंदिर अथवा
जिनप्रतिमानुं पण निर्माण करावे छे ते घणो ज पुण्यशाळी थाय छे. तो पछी जे भव्य जीव विशाळ
जिनभवननुं निर्माण करावीने तेमां मनोहर जिनप्रतिमाने प्रतिष्ठित करावे छे तेने तो निःसंदेह
अपरिमित पुण्यनो लाभ थवानो छे. २२.
(शार्दूलविक्रीडित)
यात्राभिः स्नपनैर्महोत्सवशतैः पूजाभिरुल्लोचकैः
नैवेद्यैर्बलिभिर्ध्वजश्च कलशैस्तूर्यत्रिकैर्जागरैः
घंटाचामरदर्पणादिभिरपि प्रस्तार्य शोभां परां
भव्याः पुण्यमुपार्जयन्ति सततं सत्यत्र चैत्यालये
।।२३।।

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अनुवाद : संसारमां चैत्यालय थतां अनेक भव्यजीव यात्राओ,
(जळयात्राआदि) अभिषेको, सेंकडो महान उत्सवो अनेक प्रकारना पूजा विधानो,
चंदरवा, नैवेद्य, अन्य भेटो, ध्वजाओ, कळशो, लौर्यत्रिको (गीत, नृत्य, वादित्र),
जागरणो, घंट, चामर, दर्पणादि द्वारा उत्कृष्ट शोभानो विस्तार करीने निरंतर पुण्यनुं
उपार्जन करे छे. २३.
(शार्दूलविक्रीडित)
ते चाणुव्रतधारिणो ऽपि नियतं यान्त्यिेव देवालयं
तिष्ठन्त्येव महर्द्धिकामरपद तत्रैव लब्ध्वा चिरम्
अत्रागत्य पुनः कुले ऽतिमहति प्राप्य प्रकृष्टं शुभा-
न्मानुष्यं च विरागतां च सकलत्यागं च मुक्तास्ततः
।।२४।।
अनुवाद : ते भव्य जीव जो अणुव्रतोना पण धारक होय तोपण मरीने
पछी स्वर्गमां ज जाय छे अने अणिमा आदि ॠद्धि संयुक्त देवपद प्राप्त करीने
दीर्घकाळ सुधी त्यां (स्वर्गमां) ज रहे छे. त्यार पछी महान् पुण्यकर्मना उदयथी
मनुष्यलोकमां आवीने अने अतिशय प्रशंसनीय कुळमां उत्तम मनुष्य थईने वैराग्य
प्राप्त थया थका तेओ समस्त परिग्रह छोडीने मुनि थई जाय छे तथा आ क्रमे
तेओ अंते मुक्ति पण प्राप्त करी ले छे. २४.
(शार्दूलविक्रीडित)
पुंसो ऽर्थेषु चतुर्षु निश्चलतरो मोक्षः परं सत्सुखः
शेषास्तद्विपरीतधर्मकलिता हेया मुमुक्षोरतः
तस्मात्तत्पदसाधनत्वधरणो धर्मोऽपि नो संमतः
यो भोगादिनिमित्तमेव स पुनः पापं बुधैर्मन्यते
।।२५।।
अनुवाद : धर्म, अर्थ, काम अने मोक्ष आ चार पुरुषार्थोमां केवळ मोक्ष
पुरुषार्थ ज समीचीन (बाधा रहित) सुख युक्त होईने सदा स्थिर रहे छे. बाकीना
त्रण पुरुषार्थ तेनाथी विपरीत (अस्थिर) स्वभाववाळा छे. तेथी ते मुमुक्षुजनोए
छोडवा योग्य छे. तेथी जे धर्म पुरुषार्थ उपर्युक्त मोक्ष पुरुषार्थनो साधक थाय छे

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ते पण आपणने इष्ट छे. परंतु जे धर्म केवळ भोगादिनुं ज कारण थाय छे तेने
विद्वानो पाप ज समजे छे. २५.
(शार्दूलविक्रीडित)
भव्यानामणुभिर्व्रतैरनणुभिः साध्योऽत्र मोक्षः परं
नान्यत्किंचिदिहैव निश्चयनयाज्जीवः सुखी जायते
सर्वं तु व्रतजातमीद्रशधिया साफल्यमेत्यन्यथा
संसाराश्रयकारणं भवति यत्तद्दुःखमेव स्फु टम् ।।२६।।
अनुवाद : भव्य जीवोए अणुव्रतो अने महाव्रतो द्वारा अहीं केवळ मोक्ष
ज सिद्ध करवा योग्य छे, अन्य कांई पण सिद्ध करवा योग्य नथी. कारण ए छे
के निश्चयनयथी जीव ते मोक्षमां ज स्थित थईने सुखी थाय छे. तेथी आ जातनी
बुद्धिथी जे सर्वे व्रतोनुं परिपालन करवामां आवे छे ते सफळता पामे छे तथा आनाथी
विपरीत तेने केवळ ते संसारनुं कारण थाय छे जे प्रत्यक्ष ज दुःख स्वरूप छे. २६.
(शार्दूलविक्रीडित)
यत्कल्याणपरंपरार्पणपरं भव्यात्मनां संसृतौ
पर्यन्ते यदनन्तसौख्यसदनं मोक्षं ददाति ध्रुवम्
तज्जीयादतिदुर्लभं सुनरतामुख्यैर्गुणैः प्रापितं
श्रीमत्पङ्कजनन्दिभिर्विरचितं देशव्रतोद्दयोतनम्
।।२७।।
अनुवाद : श्रीमान् पद्मनन्दी मुनि द्वारा रचवामां आवेल जे देशव्रतोद्योतन
नामनुं प्रकरण संसारमां भव्य जीवोने कल्याण परंपरा आपवामां तत्पर छे, अंते
जे निश्चयथी अनंत सुखना स्थानभूत मोक्ष आपे छे तथा जे उत्तम मनुष्य पर्याय
आदि गुणो वडे प्राप्त करावाय छे; एवुं ते दुर्लभ देशव्रतोद्योतन जयवंत हो. २७
.
आ रीते देशव्रतउद्योतन समाप्त थयुं. ७.

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८. सिद्धस्तुति
[८. सिद्धस्तुतिः ]
(शार्दूलविक्रीडित)
सूक्ष्मत्वादणुदर्शिनोऽवधिद्रशः पश्यन्ति नो यान् परे
यत्संविन्महिमस्थितं त्रिभुवनं खस्थं भमेकं यथा
सिद्धानामहमप्रमेयमहसां तेषां लघुर्मानुषो
मूढात्मा किमु वच्मि तत्र यदि वा भक्त्या महत्या वशः
।।।।
अनुवाद : सूक्ष्म होवाथी जे सिद्धोने परमाणुने जोई शकनार बीजा
अवधिज्ञानी पण जोई शकता नथी तथा जेमना ज्ञानमां स्थित त्रणे लोक आकाशमां
स्थित एक नक्षत्र समान स्पष्टपणे प्रतिभासे छे ते अपरिमित तेजना धारक सिद्धोनुं
वर्णन शुं मारा जेवो मूर्ख अने हीन मनुष्य करी शके छे? अर्थात् करी शकतो नथी.
छतां पण जे हुं तेमनुं कांईक वर्णन अहीं करी रह्यो छुं ते अतिशय भक्तिने वश
थईने ज करी रह्यो छुं. १.
(शार्दूलविक्रीडित)
निःशेषामरशेखराश्रितमणिश्रेण्यर्चिताङ्घ्रिद्वया
देवास्ते ऽपि जिना यदुन्नतपदप्राप्त्यै यतन्ते तराम्
सर्वेषामुपरि प्रवृद्धपरमज्ञानादिभिः क्षायिकैः
युक्ता न व्यभिचारिभिः प्रतिदिनं सिद्धान् नमामो वयम्
।।।।
अनुवाद : जेमना बन्ने चरण समस्त देवोना मुकुटोमां लागेल मणिओनी
पंक्तिथी पूजित छे अर्थात् जेमना चरणोमां समस्त देव पण नमस्कार करे छे, एवा
ते तीर्थंकर जिनदेव पण जे सिद्धोना उन्नत पदने प्राप्त करवा माटे अधिक प्रयत्न

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करे छे; जे सर्वनी उपर वृद्धिगत थईने अन्य कोईमां न प्राप्त थनार एवा अतिशय
वृद्धि पामेला केवळज्ञानादिस्वरूप क्षायिक भावोथी संयुक्त छे; ते सिद्धोने अमे प्रतिदिन
नमस्कार करीए छीए. २.
(शार्दूलविक्रीडित)
ये लोकाग्रविलम्बिनस्तदधिकं धर्मास्तिकायं विना
नो याताः सहजस्थिरामललसद्
द्रग्बोधसन्मूर्तयः
संप्राप्ताः कृतकृत्यतामसद्रशाः सिद्धा जगन्मङ्गलं
नित्यानन्दसुधारसस्य च सदा पात्राणि ते पान्तु वः ।।।।
अनुवाद : जे सिद्ध जीवो लोकशिखरने आश्रित छे, आगळ धर्म द्रव्यनो
अभाव होवाथी जे तेनाथी वधारे उपर गया नथी, जे अविनश्वर स्वाभाविक
निर्मळ दर्शन (केवळदर्शन) अने ज्ञान (केवळज्ञान) रूप अनुपम शरीर धारण करे
छे, जे कृतकृत्यस्वरूपने प्राप्त थई चूक्या छे, अनुपम छे, जगतने माटे
मंगळस्वरूप छे, तथा अविनश्वर सुखरूप अमृतरसना पात्र छे; एवा ते सिद्ध
सदा तमारी रक्षा करो. ३.
(शार्दूलविक्रीडित)
ये जित्वा निजकर्मकर्कशरिपून् प्राप्ताः पदं शाश्वतं
येषां जन्मजरामृतिप्रभृतिभिः सीमापि नोल्लङ्घयते
येष्वैश्वर्यमचिन्त्यमेकमसमज्ञानादिसंयोजितं
ते सन्तु त्रिजगच्छिखाग्रमणयः सिद्धा मम श्रेयसे
।।।।
अनुवाद : जे सिद्ध परमेष्ठी पोताना कर्मरूपी कठोर शत्रुओने जीतीने नित्य
(मोक्ष) पदने प्राप्त करी चूक्या छे; जन्म, जरा अने मरण आदि पण जेमनी सीमा
ओळंगी शकता नथी, अर्थात् जे जन्म, जरा अने मरणथी मुक्त थई गया छे; तथा
जेमनामां असाधारण ज्ञानादि द्वारा अचिंत्य अने अद्वितीय अनंतचतुष्टयस्वरूप
ऐश्वर्यनो संयोग कराववामां आव्यो छे; एवा ते त्रणे लोकना चूडामणि समान सिद्ध
परमेष्ठी मारूं कल्याण करो. ४.

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(शार्दूलविक्रीडित)
सिद्धो बोधमितिः स बोध उदितो ज्ञेयप्रमाणो भवेत्
ज्ञेयं लोकमलोकमेव च वदन्त्यात्मेति सर्वस्थितः
मूषायां मदनोज्झिते हि जठरे याद्रग् नभस्ताद्रशः
प्राक्कायात् किमपि प्रहीण इति वा सिद्धः सदानन्दति ।।।।
अनुवाद : सिद्ध जीव पोताना ज्ञानप्रमाण छे अने ते ज्ञान ज्ञेय (ज्ञानना
विषय) प्रमाण कहेवामां आव्युं छे. ते ज्ञेय पण लोक अने अलोकस्वरूप छे. तेथी
ज आत्मा सर्वव्यापक कहेवाय छे. बीबा (जेमां ढाळीने पात्र अने आभूषण वगेरे
बनाववामां आवे छे)मांथी मीण जुदुं पडी जतां तेनी अंदर जेवुं शुद्ध आकाश बाकी
रही जाय छे एवा आकारने धारण करनार तथा पहेलाना शरीरथी कांईक अल्प
एवा ते सिद्ध परमेष्ठी सदा आनंदनो अनुभव करे छे.
विशेषार्थ : सिद्धोनुं ज्ञान अपरिमित छे जे समस्त लोक अने अलोकनो विषय करे
छे. आ रीते लोक अने अलोकरूप अपरिमित ज्ञेयनो विषय करनार ते ज्ञानथी आत्मा अभिन्न
छे
ते स्वरूप छे; आ ज अपेक्षाए आत्माने व्यापक कहेवामां आवे छे. वास्तवमां तो ते पूर्व
शरीरथी कांईक न्यून रहीने पोताना सीमित क्षेत्रमां ज रहे छे. पूर्वना शरीरथी कांईक न्यून कहेवानुं
कारण ए छे के शरीरना उपांगभूत जे नासिका वगेरेना छिद्रादि होय छे त्यां आत्मप्रदेशोनो
अभाव होय छे. शरीरनो संबंध छूटतां अमूर्तिक सिद्धात्मानो आकार केवो रहे छे ते बतावतां
अहीं उदाहरण आपवामां आव्युं छे के जेम माटी वगेरेथी बनावेल पूतळामां मीण भरी देवामां
आव्युं होय, अने त्यार पछी तेने अग्निनां संयोग प्राप्त थतां जेम ते मीण गळी जाय अने त्यां
ते आकारमां शुद्ध आकाश बाकी रही जाय छे तेवी ज रीते शरीरनो संबंध छूटी जतां तेना आकारे
शुद्ध आत्मप्रदेश बाकी रही जाय छे. ५.
(शार्दूलविक्रीडित)
द्रग्बोधौ परमौ तदावृतिहतेः सौख्यं च मोहक्षयात्
वीर्यं विघ्नविघाततो ऽप्रतिहतं मूर्तिर्न नामक्षतेः
आयुर्नाशवशान्न जन्ममरणे गोत्रे न गोत्रं विना
सिद्धानां न च वेदनीयविरहाद्दुःखं सुखं चाक्षजम्
।।।।
अनुवाद : सिद्धोने दर्शनावरणना क्षयथी उत्कृष्ट दर्शन (केवळदर्शन),
ज्ञानावरणना क्षयथी उत्कृष्ट ज्ञान (केवळज्ञान), मोहनीय कर्मना क्षयथी अनंत सुख,

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अंतरायना विनाशथी अनंतवीर्य, नामकर्मना क्षयथी तेमने मूर्तिनो अभाव थईने
अमूर्तपणुं (सूक्ष्मत्व), आयुष्य कर्म नष्ट थई जवाथी जन्म
मरणनो अभाव थई
अवगाहनत्व, गोत्र कर्म क्षीण थई जवाथी उच्च अने नीच गोत्रोनो अभाव थईने
अगुरुलघुत्व, तथा वेदनीय कर्म नष्ट थई जवाथी इन्द्रियजन्य सुख
दुःखनो अभाव
थईने अव्याबाधत्व गुण प्रगट थाय छे. ६.
(शार्दूलविक्रीडित)
यैर्दुःखानि समाप्नुवन्ति विधिवज्जानन्ति पश्यन्ति नो
वीर्यं नैव निजं भजन्त्यसुभृतो नित्यं स्थिताः संसृतौ
कर्माणि प्रहतानि तानि महता योगेन यैस्ते सदा
सिद्धा नित्यचतुष्टयामृतसरिन्नाथा भवेयुर्न किम्
।।।।
अनुवाद : जे कर्मोना निमित्ते निरंतर संसारमां स्थित प्राणी सदा दुःखो पाम्या
करे छे, विधिवत् आत्मस्वरूपने जाणतो नथी, देखतो नथी अने पोताना स्वाभाविक वीर्य
(सामर्थ्य) नो पण अनुभव करतो नथी; ते कर्मोने जे सिद्धोए महान योग अर्थात्
शुक्लध्यान द्वारा नष्ट करी दीधा छे ते सिद्ध भगवान अविनश्वर अनंतचतुष्टयरूप
अमृतनी नदीना अधिपति (समुद्र) शुं नहि थाय? अर्थात् अवश्य थशे. ७.
(शार्दूलविक्रीडित)
एकाक्षाद्बहुकर्मसंवृतमतेर्द्वयक्षादिजीवाः सुख-
ज्ञानाधिक्ययुता भवन्ति किमपि क्लेशोपशान्तेरिह
ये सिद्धास्तु समस्तकर्मविषमध्वान्तप्रबन्धच्युताः
सद्बोधाः सुखिनश्च ते कथमहो न स्युस्त्रिलोकाधिपाः
।।।।
अनुवाद : संसारमां जे एकेन्द्रिय जीवनी बुद्धि कर्मना घणा आवरण सहित
छे तेनी अपेक्षाए द्वीन्द्रिय आदि जीव अधिक सुखी अने अधिक ज्ञानवान् छे कारण
के एमने तेनी अपेक्षाए कर्मनुं आवरण ओछुं छे. तो पछी भाई, जे सिद्ध जीव
समस्त कर्मरूपी घोर अंधकारना विस्तार रहित थई गया छे ते त्रणे लोकना अधिपति
थईने उत्तम ज्ञान (केवळज्ञान) अने अनंत सुख संपन्न केम न होय? अवश्य होय.
विशेषार्थ : एकेन्द्रिय जीवोने जेटली अधिक मात्रामां ज्ञानावरणादि कर्मोनुं आवरण छे
तेनाथी उत्तरोत्तर द्वीन्द्रियादि जीवोने ते कांईक कम छे. तेथी एकेन्द्रियोनी अपेक्षाए द्वीन्द्रिय अने

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तेनी अपेक्षाए त्रीन्द्रियादि जीव उत्तरोत्तर अधिक ज्ञानवान् अने सुखी जोवामां आवे छे. वळी
जो ते ज कर्मोनुं आवरण सिद्धोने पूर्णपणे नष्ट थई गयुं छे तो पछी तेमने अनंतज्ञानी अने
अनंतसुखी थई जवामां कांई पण संदेह रहेतो नथी. ८.
(शार्दूलविक्रीडित)
यः केनाप्यतिगाढगाढमभितो दुःखप्रदैः प्रग्रहैः
बद्धोऽन्यैश्च नरो रुषा घनतरैरापादमामस्तकम्
एकस्मिन् शिथिले ऽपि तत्र मनुते सौख्यं स सिद्धाः पुनः
किं न स्युः सुखिनः सदा विरहिता बाह्यान्तरैर्बन्धनैः
।।।।
अनुवाद : जे मनुष्य कोई बीजा मनुष्यद्वारा क्रोधने वश थईने पगथी मांडीने
मस्तक सुधी चारे तरफ दुःखदायक द्रढतर दोरडाओथी जकडीने बांधी देवायो होय
ते तेमांथी कोई एक पण दोरडुं ढीलुं थतां सुखनो अनुभव करे छे. तो पछी जे
सिद्ध जीव बाह्य अने अभ्यंतर बन्नेय बंधनोथी रहित थई गया छे तेओ शुं सदा
सुखी नहि होय? अर्थात् अवश्य हशे. ९.
(शार्दूलविक्रीडित)
सर्वज्ञः कुरुते परं तनुभृतः प्राचुर्यतः कर्मणां
रेणूनां गणनं किलाधिवसतामेकं प्रदेशं घनम्
इत्याशास्वखिलासु बद्धमहसो दुःखं न कस्मान्मह-
न्मुक्त स्यास्य तु सर्वत्रः किमिति नो जायेत सौख्यं परम्
।।१०।।
अनुवाद : जीवना एक प्रदेशमां सघनरूपे स्थित कर्मोना प्रचुर
परमाणुओनी गणतरी फक्त सर्वज्ञ ज करी शके छे. तो पछी जो बधी
दिशाओमां अर्थात् सर्व तरफथी आ जीवनुं आत्मतेज कर्मोथी संबद्ध (रोकायेलुं)
होय तो तेने महान दुःख केम न थाय? अवश्य थाय. एनाथी विपरीत जे आ
सिद्ध जीव बधी तरफथी ज उक्त कर्मोथी रहित थई गया छे तेमने उत्कृष्ट सुख
न होय शुं? अर्थात् अवश्य होय.
विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के आ संसारी प्राणीने एक ज आत्मप्रदेशे एटला
बधा कर्म परमाणु बंधायेला छे के तेमनी गणतरी केवळ सर्वज्ञ ज करी शके छे, आपणा

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जेवा कोई अल्पज्ञ जीव नहि. एवी रीते आ जीवने बधा ज (असंख्यात) आत्मप्रदेश ते
कर्म परमाणुओथी बंधायेला छे. हवे भला विचार करो के आटला अनंतानंत कर्म
परमाणुओथी बंधायेलो आ संसारी जीव केटलो बधो दुःखी अने ते बधाथी रहित थई
गयेला सिद्ध जीव केटला बधा सुखी हशे. १०.
(शार्दूलविक्रीडित)
येषां कर्मनिदानजन्यविविधक्षुत्तुण्मुखा व्याधयः
तेषामन्नजलादिकौषधगणस्तच्छान्तये युज्यते
सिद्धानां तु न कर्म तत्कृतरुजो नातः किमन्नादिभिः
नित्यात्मोत्थसुखामृताम्बुधिगतास्तृप्तास्त एव ध्रुवम्
।।११।।
अनुवाद : जे जीवोने कर्मना निमित्ते उत्पन्न थयेली अनेक प्रकारनी भूख
तरस वगेरे व्याधिओ थया करे छे तेमने आ व्याधिओनी शांति माटे अन्न, जळ
अने औषध वगेरे लेवुं उचित छे. परंतु जे सिद्ध जीवोने न कर्म छे अने तेथी न
तेनाथी उत्पन्न थती व्याधिओ पण छे तेमने आ अन्नादि वस्तुओथी शुं प्रयोजन
छे? अर्थात् तेमने आनुं कांईपण प्रयोजन रह्युं नथी. तेओ तो निश्चयथी अविनश्वर
आत्ममात्रजन्य (अतीन्द्रिय) सुखरूपी अमृतना समुद्रमां मग्न रहीने सदाय तृप्त रहे
छे. ११.
(शार्दूलविक्रीडित)
सिद्धज्योतिरतीव निर्मलतरज्ञानैकमूर्ति स्फु रद्-
वर्तिर्दीपमिवोपसेव्य लभते योगी स्थिरं तत्पदम्
सद्बुध्याथ विकल्पजालरहितस्तद्रूपतामापतं-
स्ता
द्रग्जायत एव देवविनुतस्त्रैलोक्यचूडामणिः ।।१२।।
अनुवाद : जेवी रीते बत्ती दीपकनी सेवा करीने तेनुं पद प्राप्त करी ले
छे, अर्थात् दीपक स्वरूपे परिणमी जाय छे तेवी ज रीते अत्यंत निर्मळ ज्ञानरूप
असाधारण मूर्तिस्वरूप सिद्धज्योतिनी आराधना करीने योगी पण स्वयं तेना स्थिर
पद (सिद्धपद) ने प्राप्त करी ले छे. अथवा ते सम्यग्ज्ञान द्वारा विकल्पोथी रहित
थया थका सिद्धस्वरूपने प्राप्त थईने एवा थई जाय छे के त्रणे लोकना चूडामणि
रत्न समान तेमने देवो पण नमस्कार करे छे. १२.

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(शार्दूलविक्रीडित)
यत्सूक्ष्मं च महच्च शून्यमपि यन्नो शून्यमुत्पद्यते
नश्यत्येव च नित्यमेव च तथा नास्त्येव चास्त्येव च
एकं यद्यदनेकमेव तदपि प्राप्तं प्रतीतिं द्रढां
सिद्धज्योतिरमूर्ति चित्सुखमयं केनापि तल्लक्ष्यते ।।१३।।
अनुवाद : जे सिद्धज्योति सूक्ष्म पण छे अने स्थूळ पण छे, शून्य पण
छे अने परिपूर्ण पण छे, उत्पादविनाशवाळी पण छे अने नित्य पण छे,
सद्भावरूप पण छे अने अभावरूप पण छे तथा एक पण छे अने अनेक पण
छे; एवी ते द्रढ प्रतीतिने प्राप्त थयेली अमूर्तिक, चेतन अने सुखस्वरूप सिद्धज्योति
कोई विरला ज योगी पुरुषद्वारा देखवामां आवे छे.
विशेषार्थ : अहीं जे सिद्धज्योतिने परस्पर विरुद्ध प्रतीत थतां अनेक धर्मोथी संयुक्त
बताववामां आवेल छे ते विवक्षाभेदथी बतावेल छे. जेम केते सिद्धज्योति अतीन्द्रिय छे माटे
ज सूक्ष्म कहेवाय छे. परंतु तेमां अनंतानंत पदार्थ प्रतिभासे छे तेथी ए अपेक्षाए ते स्थूळ पण
कहेवाय छे. ते पर (पुद्गलादि) द्रव्योना गुणोथी रहित होवाना कारणे शून्य तथा अनंतचतुष्टय
संयुक्त होवाना कारणे परिपूर्ण पण छे. पर्यायार्थिकनयनी अपेक्षाए ते परिणमनशील होवाथी
उत्पाद
विनाशवाळी तथा द्रव्यार्थिकनयनी अपेक्षाए विकार रहित होवाथी नित्य पण मनाय छे.
पोताना द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावनी अपेक्षाए ते सद्भाव स्वरूप तथा परना द्रव्य, क्षेत्र, काळ
अने भावनी अपेक्षाए अभाव स्वरूप पण छे. ते पोतानो स्वभाव छोडीने अन्य स्वरूपे न थवाने
कारणे एक तथा अनेक पदार्थोनुं स्वरूप प्रतिभासित करवाने कारणे अनेक स्वरूपे पण छे एवी
ते सिद्धज्योतिनुं चिंतन बधा करी शकता नथी पण निर्मळ ज्ञानना धारक कोई विशेष योगीजन
ज तेनुं चिंतन करे छे. १३.
(शार्दूलविक्रीडित)
स्याच्छब्दामृतगर्भितागममहारत्नाकरस्नानतो
धौता यस्य मतिः स एव मनुते तत्त्वं विमुक्तात्मनः
तत्तस्यैव तदेव याति सुमतेः साक्षादुपादेयतां
भेदेन स्वकृतेन तेन च विना स्वं रूपमेकं परम्
।।१४।।
अनुवाद : ‘स्यात्’ शब्दरूप अमृतथी गर्भित आगम (अनेकान्त सिद्धांत)

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रूपी महासमुद्रमां स्नान करवाथी जेमनी बुद्धि निर्मळ थई गई छे ते ज सिद्ध
आत्मानुं रहस्य जाणी शके छे. तेथी ते ज सुबुद्धि जीवने ज्यांसुधी पोतानी जाते
करवामां आवेला भेद (संसारी अने मुक्त स्वरूप) विद्यमान छे, त्यां सुधी ते ज
सिद्धस्वरूप साक्षात् उपादेय (ग्रहण करवा योग्य) थाय छे. त्यार पछी उपर्युक्त
भेदबुद्ध नष्ट थई जतां केवळ एक निर्विकल्प शुद्ध आत्मतत्त्व ज प्रतिभासित थाय
छे
ते वखते ते उपादान
उपादेय भाव पण नष्ट थई जाय छे.
विशेषार्थ : आ भव्य जीव ज्यारे अनेकान्तमय परमागमनो अभ्यास करे छे त्यारे
ते विवेकबुद्धि पामीने सिद्धोनुं यथार्थ स्वरूप जाणी ले छे. ते वखते ते पोतानी जातने कर्मकलंकथी
लिप्त जाणीने ते ज सिद्धस्वरूपने उपादेय (ग्राह्य) माने छे. परंतु जेवुं तेने स्वरूपाचरण प्रगट
थाय छे के तरत ज तेनी संसारी अने सिद्ध विषयक भेदबुद्धि पण नष्ट थई जाय छे
ते वखते
तेने ध्यान, ध्याता अने ध्येयनो भेद ज रहेतो नथी. त्यारे तेने सर्व प्रकारना विकल्पोथी रहित
एकमात्र शुद्ध आत्मस्वरूप ज प्रतिभासित थाय छे. १४.
(शार्दूलविक्रीडित)
द्रष्टिस्तत्त्वविदः करोत्यविरतं शुद्धात्मरूपे स्थिता
शुद्धं तत्पदमेकमुल्बणमतेरन्यत्र चान्याद्रशम्
स्वर्णात्तन्मयमेव वस्तु घटितं लोहाच्च मुक्त्यर्थिना
मुक्त्वा मोहविजृम्भितं ननु पथा शुद्धेन संचर्यताम्
।।१५।।
अनुवाद : निर्मळ बुद्धिने धारण करनार तत्त्वज्ञ पुरुषनी द्रष्टि निरंतर
शुद्ध आत्मस्वरूपमां स्थित थईने एक मात्र शुद्ध आत्मपद अर्थात् मोक्षपदने करे
छे. परंतु अज्ञानी पुरुषनी द्रष्टि अशुद्ध आत्मस्वरूप अथवा पर पदार्थोमां स्थित
थईने संसार वधारे छे. ठीक छे
सोनामांथी बनावायेल वस्तु (कटककुंडळ आदि)
सुवर्णमय तथा लोढामांथी बनावायेल वस्तु (छरी आदि) लोहमय ज होय छे.
तेथी मुमुक्षु जीवे मोहथी वृद्धि पामेल विकल्प
समूहने छोडीने शुद्ध मोक्षमार्गमां
चालवुं जोईए. १५.
(शार्दूलविक्रीडित)
निर्दोषश्रुतचक्षुषा षडपि हि द्रव्याणि द्रष्ट्वा सुधी-
रादत्ते विशदं स्वमन्यमिलितं स्वर्णं यथा धावकः

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यः कश्चित् किल निश्चिनोति रहितः शास्त्रेण तत्त्वं परं
सोऽन्धो रूपनिरूपणं हि कुरुते प्राप्तो मनःशून्यताम्
।।१६।।
अनुवाद : जेवी रीते सोनी तांबा वगेरेथी मिश्रित सोनुं जोईने तेमांथी तांबा
वगेरेने जुदु करीने शुद्ध सुवर्णनुं ग्रहण करे छे तेवी ज रीते विवेकी पुरुष निर्दोष
आगमरूप नेत्रथी छ ये द्रव्योने जोईने तेमांथी निर्मळ आत्मतत्त्वनुं ग्रहण करे छे.
जे कोई जीव शास्त्र रहित रहीने उत्कृष्ट आत्मतत्त्वनो निश्चय करे छे ते मूर्ख मन
(विवेक) रहित होवा छतां य रूपनुं अवलोकन करवा इच्छनार अंध समान छे. १६.
(शार्दूलविक्रीडित)
यो हेयेतरबोधसंभृतमतिर्मुञ्चन् स हेयं परं
तत्त्वं स्वीकुरुते तदेव कथितं सिद्धत्वबीजं जिनैः
नान्यो भ्रान्तिगतः स्वतोऽथ परतो हेये परेऽर्थेऽस्य तद्
दुष्प्रापं शुचि वर्त्म येन परमं तद्धाम संप्राप्यते
।।१७।।
अनुवाद : जेनी बुद्धि हेय अने उपादेय तत्त्वना ज्ञानथी परिपूर्ण छे ते
भव्य जीव हेय पदार्थ छोडीने उपादेयभूत उत्कृष्ट आत्मतत्त्वनो स्वीकार करे छे कारण
के जिनेन्द्रदेवे तेने ज मुक्तिनुं बीज बताव्युं छे. एनाथी विपरित जे जीव हेय अने
उपादेय तत्त्वना विषयमां स्वतः अथवा परना उपदेशथी भ्रमने प्राप्त थाय छे, ते
उक्त आत्मतत्त्वनो स्वीकार करी शकतो नथी. तेथी तेने ते निर्मळ मोक्षमार्ग दुर्लभ
थई जाय छे के जेना द्वारा ते उत्कृष्ट मोक्षपद प्राप्त कराय छे. १७.
(शार्दूलविक्रीडित)
साङ्गोपाङ्गमपि श्रुतं बहुतरं सिद्धत्वनिष्पत्तये
ये ऽन्यार्थं परिकल्पयन्ति खलु ते निर्वाणमार्गच्युताः
मार्गं चिन्तयतो ऽन्वयेन तमतिक्रम्यापरेण स्फु टं
निःशेषं श्रुतमेति तत्र विपुले साक्षाद्विचारे सति
।।१८।।
अनुवाद : अंगो अने उपांगो सहित पुष्कळ श्रुत (आगम) मुक्तिनी प्राप्तिनुं
साधन छे. जे जीव ते श्रुतनी अन्य सांसारिक प्रयोजनो माटे कल्पना करे छे तेओ खरेखर

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मोक्षमार्गथी भ्रष्ट छे. तेनुं अतिक्रमण करीने (अन्य सांसारिक प्रयोजनो छोडीने) अपर
अन्वय वडे सर्वोत्कृष्ट एवा (परंपरागत द्रव्यश्रुत वडे) जे जीव मार्गनुं प्रगटपणे चिंतन
करे छे तेने तेनो विपुल विचार करतां, समस्त श्रुत साक्षात् प्राप्त थाय छे. १८.
(शार्दूलविक्रीडित)
निःशेषश्रुतसंपदः शमनिधेराराधनायाः फलं
प्राप्तानां विषये सदैव सुखिनामल्पैव मुक्तात्मनाम्
उक्ता भक्तिवशान्मयाप्यविदुषा या सापि गीः सांप्रतं
निःश्रेणिर्भवतादनन्तसुखतद्धामारुरुक्षोर्मम
।।१९।।
अनुवाद : जे समस्त श्रुतरूप संपत्ति सहित अने शांतिना स्थानभूत एवा
आत्मतत्त्वनी आराधनाना फळने प्राप्त थईने शाश्वत सुख पामी चुक्या छे एवा ते
मुक्तात्माओना विषयमां मारा जेवा अल्पज्ञे जे भक्तिवशे थोडुं कांईक कथन कर्युं छे
ते अनंत सुखथी परिपूर्ण ते मोक्षरूपी महेलमां चडवानी इच्छा करनार एवा मारा
माटे निसरणी समान थाव. १९.
(शार्दूलविक्रीडित)
विश्वं पश्यति वेत्ति शर्म लभते स्वोत्पन्नमात्यन्तिकं
नाशोत्पत्तियुतं तथाप्यविचलं मुक्त्यर्थिनां मानसे
एकीभूतमिदं वसत्यविरतं संसारभारोज्झितं
शान्तं जीवघनं द्वितीयरहितं मुक्तात्मरूपं महः
।।२०।।
अनुवाद : आ सिद्धात्मारूप तेज विश्वने देखे अने जाणे छे, मात्र आत्माथी
उत्पन्न आत्यंतिक सुख प्राप्त करे छे, नाश अने उत्पाद युक्त होवा छतां पण निश्चळ
(ध्रुव) छे, मुमुक्षुओना हृदयमां एकत्रित थईने निरंतर रहे छे, संसारना भाररहित
छे, शान्त छे, सघन आत्मप्रदेशो स्वरूप छे तथा असाधारण छे. २०
(शार्दूलविक्रीडित)
त्यक्त्वान्यासनयप्रमाणविवृतीः सर्वं पुनः कारकं
संबन्धं च तथा त्वमित्यहमिति प्रायान् विकल्पानपि