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मौनादिव्रतमप्यनुष्ठितमिदं पुण्याय भव्यात्मनाम्
परित्याग, पवित्र वस्त्रथी गाळेला पाणीनुं पीवुं, तथा शक्ति अनुसार मौनव्रत आदि;
आ बधुं आचरण भव्य जीवोने पुण्यनुं कारण थाय छे. ५.
ब्रूते सत्यमचौर्यवृत्तिमबलां शुद्धां निजां सेवते
दानं भोगयुगप्रमाणमुररीकुर्याद्गृहीति व्रती
(चोरी)नो परित्याग करे छे, शुद्ध पोतानी ज स्त्रीनुं सेवन करे छे, दिग्व्रत अने
देशव्रतनुं पालन करे छे; अनर्थदंड (पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति अने
प्रमादचर्या )नो परित्याग करे छे; तथा सामायिक, प्रौषधोपवास, दान (अतिथि
संविभाग) अने भोगोपभोग परिमाणनो स्वीकार करे छे. ६.
पुण्योपार्जनहेतुषु प्रतिदिनं संजायमानेष्वपि
तद्देशव्रतधारिणो धनवतो दानं प्रकृष्टो गुणः
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समुद्र पार थवामां नौकानुं काम करनार जे सत्पात्रदान छे ते तेनो महान गुण छे.
अभिप्राय ए छे के श्रावकना समस्त कार्योमां मुख्य कार्य सत्पात्रदान छे. ७.
काले क्लिष्टतरे ऽपि मोक्षपदवी प्रायस्ततो वर्तते
दिगंबर साधुने ज होय छे, उक्त साधुनी स्थिति शरीरना निमित्ते होय छे, ते
शरीरनी स्थिति भोजनना निमित्ते होय छे अने ते भोजन श्रावको द्वारा आपवामां
आवे छे. आ रीते आ अतिशय क्लेशयुक्त काळमां पण मोक्षमार्गनी प्रवृत्ति घणुं
करीने ते श्रावकोना निमित्ते ज थई रही छे. ८.
साधूनां तु न सा ततस्तदपटु प्रायेण संभाव्यते
यत्तस्मादिह वर्तते प्रशमिनां धर्मो गृहस्थोत्तमात्
घणुं करीने अस्वस्थ थई जाय छे. आवी दशामां श्रावक ते शरीरने औषध, पथ्य
भोजन अने जळ द्वारा व्रत परिपालनने योग्य करे छे तेथी ज अहीं ते मुनिओनो
धर्म उत्तम श्रावकना निमित्ते ज चाले छे. ९.
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भक्त्या यत्क्रियते श्रुताश्रयमिदं दानं तदाहुर्बुधाः
श्रीकारिप्रकटीकृताखिलजगत्कैवल्यभाजो जनाः
छे, तेने विद्वानो श्रुतदान (ज्ञानदान) कहे छे. आ ज्ञानदान सिद्ध थतां थोडा ज
भवोमां मनुष्य ते केवळज्ञान प्राप्त करी ले छे जेना वडे समस्त विश्व साक्षात् देखाय
छे अने जे प्रगट थतां त्रणे लोकना प्राणी उत्सवनी शोभा करे छे. १०.
दानं स्यादभयादि तेन रहितं दानत्रयं निष्फलम्
यत्तत्पात्रजने विनश्यति ततो दानं तदेकं परम्
तेनाथी रहित बाकीना त्रण प्रकारना दान व्यर्थ जाय छे. आहार, औषध अने
शास्त्रदाननी विधिथी पात्रजीवोनो क्रमे क्षुधानो भय, रोगनो भय अने
अज्ञानपणानो भय नष्ट थाय छे माटे ज ते एक अभयदान ज श्रेष्ठ छे.
सिवाय जो विचार करवामां आवे तो ते आहारादिना दानस्वरूप बाकीना त्रण पण आ
अभयदाननी ज अंदर आवी जाय छे. एनुं कारण ए छे के अभयदाननो अर्थ छे प्राणीना
सर्व प्रकारना भय दूर करीने तेने निर्भय करवा. आहारदान द्वारा प्राणीनी क्षुधानो भय,
औषधदान द्वारा रोगनो भय अने शास्त्रदान द्वारा तेना अज्ञानपणानो भय ज दूर करवामां
आवे छे. ११.
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शास्त्रात् पात्रनिवेदितात् परभवे पाण्डित्यमत्यद्भुुतम्
पर्यन्ते पुनरुन्नतोन्नतपदप्राप्तिर्विमुक्तिस्ततः
प्राप्त थाय छे. अभयदानथी पुरुषने आ बधा ज गुणोनो समूह प्राप्त थाय छे
तथा अंते उन्नत उन्नत पदो (इन्द्र अने चक्रवर्ती आदि)नी प्राप्तिपूर्वक मुक्ति पण
प्राप्त थई जाय छे. १२.
भ्रान्त्वा वारिधिमेखलां वसुमतीं दुःखेन यच्चार्जितम्
दानं तेन च दीयतामिदमहो नान्येन तत्संगतिः
करीने घणा दुःखथी मेळवाय छे ते धन मनुष्यने पोताना पुत्र अने प्राणोथी पण
अधिक प्यारूं होय छे तेने खरचवानो उत्तम मार्ग दान छे. तेथी कष्टथी मेळवेला
ते धननुं दान करवुं जोईए. एनाथी विपरीत बीजा मार्गे (दुर्व्यसनादि) अपव्यय
करवामां आवे तो तेनो संयोग फरीथी प्राप्त थई शकतो नथी. १३.
सैव स्यान्ननु तद्विना धनवतो लोकद्वयध्वंसकृत्
तन्नाशाय शशाङ्कशुभ्रयशसे दानं च नान्यत्परम्
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छे. एनाथी उल्टुं उक्त दान विना धनवान मनुष्यनो ते गृहस्थाश्रम बन्ने लोकने
नष्ट करी नांखे छे. सेंकडो दुष्ट व्यापारोमां प्रवृत्त थतां गृहस्थने जे पाप उत्पन्न थाय
छे तेने नष्ट करवानुं तथा चंद्रमा समान धवळ यशनी प्राप्तिनुं कारण ते दान ज
छे, ते सिवाय पापनाश अने यशनी प्राप्तिनुं बीजुं कोई कारण होई शके नहि. १४.
येनानंतगुणं परत्र सुखदं व्यावर्तते तत्पुनः
सर्वासामिति सम्पदां गृहवतां दाने प्रधानं फलम्
प्राप्त थई जाय छे. परंतु एनाथी विपरीत जे धनवाननुं धन भोगना निमित्ते नष्ट
थाय छे ते निश्चयथी नष्ट ज थई जाय छे अर्थात् दानजनित पुण्यना अभावमां
ते फरी कदी प्राप्त थतुं नथी. तेथी ज गृहस्थोने समस्त संपत्तिओना लाभनुं उत्कृष्ट
फळ दानमां ज प्राप्त थाय छे. १५.
प्राप्ता नित्यसुखास्पदं सुतपसा मोक्षं पुरा पार्थिवाः
शक्त्या देयमिदं सदातिचपले द्रव्ये तथा जीविते
अविनश्वर सुखना स्थानभूत मोक्षने प्राप्त थया छे. आ रीते ते दान मोक्षनुं पण
प्रधान कारण छे. तेथी संपत्ति अने जीवन अतिशय चपळ अर्थात् नश्वर होवाथी
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ते तिष्ठन्ति गृहे न दानमिह चेत्तन्मोहपाशो दृढः
तत्संसारसरित्पतिप्रतरणे पोतायते निश्चितम्
माटे ते घर मोहद्वारा निर्मित द्रढ जाळ जेवुं ज छे एम समजीने गृहस्थ श्रावके
पोतानी संपत्ति अनुसार सर्वदा अनेक प्रकारनुं दान आपवुं जोईए. कारण ए छे
के ते दान निश्चयथी संसाररूपी समुद्र पार थवामां नावनुं काम करे छे. १७.
न स्तूयेत न दीयते मुनिजने दानं च भक्त्या परम्
तत्रस्था भवसागरे ऽतिविषमे मज्जन्ति नश्यन्ति च
मुनिजनोने उत्तम दान पण देता नथी; तेमनुं गृहस्थाश्रम पद पथ्थरनी नाव समान
छे. तेना उपर बेसीने ते मनुष्यो अत्यंत भयानक संसाररूपी समुद्रमां गोथा खाता
थका नाश ज पामवाना छे. १८.
ख्याता एव परोपकारक रणे दृष्टा न ते केनचित्
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तत्कार्याणि पुनः सदैव विदधद्दाता परं
छे अने न तेमणे अहीं कोईनो उपकार कर्यो पण छे तथा एवी संभावना पण घणुं
करीने नथी. परंतु तेमना कार्यो (परोपकारादि) सदाय करता केवळ दाता श्रावक अवश्य
जोवामां आवे छे. तात्पर्य ए छे के दानी मनुष्य ते प्रसिद्ध चिन्तामणि आदिथी
पण अतिशय श्रेष्ठ छे. १९.
यस्मिन् सोऽस्ति च तत्र सन्ति यतयो धर्मश्च तैर्वतते
सौख्यं भावि नृणां ततो गुणवतां स्युः श्रावकाः संमताः
छे तथा धर्म थतां पापना समूहनो नाश थईने स्वर्ग
जो ते श्रावको ज परंपराए ते सुखना साधन होय तो गुणी जनोए ते श्रावकोनुं यथायोग्य
सन्मान करवुं ज जोईए. २०
तुच्छे सामयिके जने बहुतरे मिथ्यान्धकारे सति
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थोडा अने अज्ञानरूप अंधकारनो प्रचार घणो वधारे छे. एवी अवस्थामां जे मनुष्य
जिनप्रतिमा अने जिनगृहना विषयमां भक्ति राखता होय ते पण जोवामां आवता
नथी. छतां पण जे भव्य विधिपूर्वक उक्त जिनप्रतिमा अने जिनगृहनुं निर्माण करावे
छे ते सज्जन पुरुषो द्वारा वंदनीय छे. २१.
ये कारयन्ति जिनसद्म जिनाकृतिं च
स्तोतुं परस्य किमु कारयितुर्द्वयस्य
माटे अहीं वाणी (सरस्वती) पण समर्थ नथी. तो पछी जे भव्य जीव ते ( जिनालय
अने जिनप्रतिमा) बन्नेनुंय निर्माण करावे छे तेमना विषयमां शुं कहेवुं? अर्थात् ते
तो अतिशय पुण्यशाळी छे ज. २२.
जिनभवननुं निर्माण करावीने तेमां मनोहर जिनप्रतिमाने प्रतिष्ठित करावे छे तेने तो निःसंदेह
अपरिमित पुण्यनो लाभ थवानो छे. २२.
नैवेद्यैर्बलिभिर्ध्वजश्च कलशैस्तूर्यत्रिकैर्जागरैः
भव्याः पुण्यमुपार्जयन्ति सततं सत्यत्र चैत्यालये
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चंदरवा, नैवेद्य, अन्य भेटो, ध्वजाओ, कळशो, लौर्यत्रिको (गीत, नृत्य, वादित्र),
जागरणो, घंट, चामर, दर्पणादि द्वारा उत्कृष्ट शोभानो विस्तार करीने निरंतर पुण्यनुं
उपार्जन करे छे. २३.
तिष्ठन्त्येव महर्द्धिकामरपद तत्रैव लब्ध्वा चिरम्
न्मानुष्यं च विरागतां च सकलत्यागं च मुक्तास्ततः
दीर्घकाळ सुधी त्यां (स्वर्गमां) ज रहे छे. त्यार पछी महान् पुण्यकर्मना उदयथी
मनुष्यलोकमां आवीने अने अतिशय प्रशंसनीय कुळमां उत्तम मनुष्य थईने वैराग्य
प्राप्त थया थका तेओ समस्त परिग्रह छोडीने मुनि थई जाय छे तथा आ क्रमे
तेओ अंते मुक्ति पण प्राप्त करी ले छे. २४.
शेषास्तद्विपरीतधर्मकलिता हेया मुमुक्षोरतः
यो भोगादिनिमित्तमेव स पुनः पापं बुधैर्मन्यते
त्रण पुरुषार्थ तेनाथी विपरीत (अस्थिर) स्वभाववाळा छे. तेथी ते मुमुक्षुजनोए
छोडवा योग्य छे. तेथी जे धर्म पुरुषार्थ उपर्युक्त मोक्ष पुरुषार्थनो साधक थाय छे
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विद्वानो पाप ज समजे छे. २५.
नान्यत्किंचिदिहैव निश्चयनयाज्जीवः सुखी जायते
के निश्चयनयथी जीव ते मोक्षमां ज स्थित थईने सुखी थाय छे. तेथी आ जातनी
बुद्धिथी जे सर्वे व्रतोनुं परिपालन करवामां आवे छे ते सफळता पामे छे तथा आनाथी
विपरीत तेने केवळ ते संसारनुं कारण थाय छे जे प्रत्यक्ष ज दुःख स्वरूप छे. २६.
पर्यन्ते यदनन्तसौख्यसदनं मोक्षं ददाति ध्रुवम्
श्रीमत्पङ्कजनन्दिभिर्विरचितं देशव्रतोद्दयोतनम्
जे निश्चयथी अनंत सुखना स्थानभूत मोक्ष आपे छे तथा जे उत्तम मनुष्य पर्याय
आदि गुणो वडे प्राप्त करावाय छे; एवुं ते दुर्लभ देशव्रतोद्योतन जयवंत हो. २७
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मूढात्मा किमु वच्मि तत्र यदि वा भक्त्या महत्या वशः
स्थित एक नक्षत्र समान स्पष्टपणे प्रतिभासे छे ते अपरिमित तेजना धारक सिद्धोनुं
वर्णन शुं मारा जेवो मूर्ख अने हीन मनुष्य करी शके छे? अर्थात् करी शकतो नथी.
छतां पण जे हुं तेमनुं कांईक वर्णन अहीं करी रह्यो छुं ते अतिशय भक्तिने वश
थईने ज करी रह्यो छुं. १.
देवास्ते ऽपि जिना यदुन्नतपदप्राप्त्यै यतन्ते तराम्
युक्ता न व्यभिचारिभिः प्रतिदिनं सिद्धान् नमामो वयम्
ते तीर्थंकर जिनदेव पण जे सिद्धोना उन्नत पदने प्राप्त करवा माटे अधिक प्रयत्न
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वृद्धि पामेला केवळज्ञानादिस्वरूप क्षायिक भावोथी संयुक्त छे; ते सिद्धोने अमे प्रतिदिन
नमस्कार करीए छीए. २.
नो याताः सहजस्थिरामललसद्
निर्मळ दर्शन (केवळदर्शन) अने ज्ञान (केवळज्ञान) रूप अनुपम शरीर धारण करे
छे, जे कृतकृत्यस्वरूपने प्राप्त थई चूक्या छे, अनुपम छे, जगतने माटे
मंगळस्वरूप छे, तथा अविनश्वर सुखरूप अमृतरसना पात्र छे; एवा ते सिद्ध
सदा तमारी रक्षा करो. ३.
येषां जन्मजरामृतिप्रभृतिभिः सीमापि नोल्लङ्घयते
ते सन्तु त्रिजगच्छिखाग्रमणयः सिद्धा मम श्रेयसे
ओळंगी शकता नथी, अर्थात् जे जन्म, जरा अने मरणथी मुक्त थई गया छे; तथा
जेमनामां असाधारण ज्ञानादि द्वारा अचिंत्य अने अद्वितीय अनंतचतुष्टयस्वरूप
ऐश्वर्यनो संयोग कराववामां आव्यो छे; एवा ते त्रणे लोकना चूडामणि समान सिद्ध
परमेष्ठी मारूं कल्याण करो. ४.
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ज्ञेयं लोकमलोकमेव च वदन्त्यात्मेति सर्वस्थितः
ज आत्मा सर्वव्यापक कहेवाय छे. बीबा (जेमां ढाळीने पात्र अने आभूषण वगेरे
बनाववामां आवे छे)मांथी मीण जुदुं पडी जतां तेनी अंदर जेवुं शुद्ध आकाश बाकी
रही जाय छे एवा आकारने धारण करनार तथा पहेलाना शरीरथी कांईक अल्प
एवा ते सिद्ध परमेष्ठी सदा आनंदनो अनुभव करे छे.
छे
कारण ए छे के शरीरना उपांगभूत जे नासिका वगेरेना छिद्रादि होय छे त्यां आत्मप्रदेशोनो
अभाव होय छे. शरीरनो संबंध छूटतां अमूर्तिक सिद्धात्मानो आकार केवो रहे छे ते बतावतां
अहीं उदाहरण आपवामां आव्युं छे के जेम माटी वगेरेथी बनावेल पूतळामां मीण भरी देवामां
आव्युं होय, अने त्यार पछी तेने अग्निनां संयोग प्राप्त थतां जेम ते मीण गळी जाय अने त्यां
ते आकारमां शुद्ध आकाश बाकी रही जाय छे तेवी ज रीते शरीरनो संबंध छूटी जतां तेना आकारे
शुद्ध आत्मप्रदेश बाकी रही जाय छे. ५.
सिद्धानां न च वेदनीयविरहाद्दुःखं सुखं चाक्षजम्
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अमूर्तपणुं (सूक्ष्मत्व), आयुष्य कर्म नष्ट थई जवाथी जन्म
अगुरुलघुत्व, तथा वेदनीय कर्म नष्ट थई जवाथी इन्द्रियजन्य सुख
वीर्यं नैव निजं भजन्त्यसुभृतो नित्यं स्थिताः संसृतौ
सिद्धा नित्यचतुष्टयामृतसरिन्नाथा भवेयुर्न किम्
(सामर्थ्य) नो पण अनुभव करतो नथी; ते कर्मोने जे सिद्धोए महान योग अर्थात्
शुक्लध्यान द्वारा नष्ट करी दीधा छे ते सिद्ध भगवान अविनश्वर अनंतचतुष्टयरूप
अमृतनी नदीना अधिपति (समुद्र) शुं नहि थाय? अर्थात् अवश्य थशे. ७.
ज्ञानाधिक्ययुता भवन्ति किमपि क्लेशोपशान्तेरिह
सद्बोधाः सुखिनश्च ते कथमहो न स्युस्त्रिलोकाधिपाः
के एमने तेनी अपेक्षाए कर्मनुं आवरण ओछुं छे. तो पछी भाई, जे सिद्ध जीव
समस्त कर्मरूपी घोर अंधकारना विस्तार रहित थई गया छे ते त्रणे लोकना अधिपति
थईने उत्तम ज्ञान (केवळज्ञान) अने अनंत सुख संपन्न केम न होय? अवश्य होय.
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जो ते ज कर्मोनुं आवरण सिद्धोने पूर्णपणे नष्ट थई गयुं छे तो पछी तेमने अनंतज्ञानी अने
अनंतसुखी थई जवामां कांई पण संदेह रहेतो नथी. ८.
बद्धोऽन्यैश्च नरो रुषा घनतरैरापादमामस्तकम्
किं न स्युः सुखिनः सदा विरहिता बाह्यान्तरैर्बन्धनैः
ते तेमांथी कोई एक पण दोरडुं ढीलुं थतां सुखनो अनुभव करे छे. तो पछी जे
सिद्ध जीव बाह्य अने अभ्यंतर बन्नेय बंधनोथी रहित थई गया छे तेओ शुं सदा
सुखी नहि होय? अर्थात् अवश्य हशे. ९.
रेणूनां गणनं किलाधिवसतामेकं प्रदेशं घनम्
न्मुक्त स्यास्य तु सर्वत्रः किमिति नो जायेत सौख्यं परम्
दिशाओमां अर्थात् सर्व तरफथी आ जीवनुं आत्मतेज कर्मोथी संबद्ध (रोकायेलुं)
होय तो तेने महान दुःख केम न थाय? अवश्य थाय. एनाथी विपरीत जे आ
सिद्ध जीव बधी तरफथी ज उक्त कर्मोथी रहित थई गया छे तेमने उत्कृष्ट सुख
न होय शुं? अर्थात् अवश्य होय.
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कर्म परमाणुओथी बंधायेला छे. हवे भला विचार करो के आटला अनंतानंत कर्म
परमाणुओथी बंधायेलो आ संसारी जीव केटलो बधो दुःखी अने ते बधाथी रहित थई
गयेला सिद्ध जीव केटला बधा सुखी हशे. १०.
तेषामन्नजलादिकौषधगणस्तच्छान्तये युज्यते
नित्यात्मोत्थसुखामृताम्बुधिगतास्तृप्तास्त एव ध्रुवम्
अने औषध वगेरे लेवुं उचित छे. परंतु जे सिद्ध जीवोने न कर्म छे अने तेथी न
तेनाथी उत्पन्न थती व्याधिओ पण छे तेमने आ अन्नादि वस्तुओथी शुं प्रयोजन
छे? अर्थात् तेमने आनुं कांईपण प्रयोजन रह्युं नथी. तेओ तो निश्चयथी अविनश्वर
आत्ममात्रजन्य (अतीन्द्रिय) सुखरूपी अमृतना समुद्रमां मग्न रहीने सदाय तृप्त रहे
छे. ११.
वर्तिर्दीपमिवोपसेव्य लभते योगी स्थिरं तत्पदम्
स्ता
असाधारण मूर्तिस्वरूप सिद्धज्योतिनी आराधना करीने योगी पण स्वयं तेना स्थिर
पद (सिद्धपद) ने प्राप्त करी ले छे. अथवा ते सम्यग्ज्ञान द्वारा विकल्पोथी रहित
थया थका सिद्धस्वरूपने प्राप्त थईने एवा थई जाय छे के त्रणे लोकना चूडामणि
रत्न समान तेमने देवो पण नमस्कार करे छे. १२.
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नश्यत्येव च नित्यमेव च तथा नास्त्येव चास्त्येव च
छे; एवी ते द्रढ प्रतीतिने प्राप्त थयेली अमूर्तिक, चेतन अने सुखस्वरूप सिद्धज्योति
कोई विरला ज योगी पुरुषद्वारा देखवामां आवे छे.
कहेवाय छे. ते पर (पुद्गलादि) द्रव्योना गुणोथी रहित होवाना कारणे शून्य तथा अनंतचतुष्टय
संयुक्त होवाना कारणे परिपूर्ण पण छे. पर्यायार्थिकनयनी अपेक्षाए ते परिणमनशील होवाथी
उत्पाद
अने भावनी अपेक्षाए अभाव स्वरूप पण छे. ते पोतानो स्वभाव छोडीने अन्य स्वरूपे न थवाने
कारणे एक तथा अनेक पदार्थोनुं स्वरूप प्रतिभासित करवाने कारणे अनेक स्वरूपे पण छे एवी
ते सिद्धज्योतिनुं चिंतन बधा करी शकता नथी पण निर्मळ ज्ञानना धारक कोई विशेष योगीजन
ज तेनुं चिंतन करे छे. १३.
धौता यस्य मतिः स एव मनुते तत्त्वं विमुक्तात्मनः
भेदेन स्वकृतेन तेन च विना स्वं रूपमेकं परम्
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आत्मानुं रहस्य जाणी शके छे. तेथी ते ज सुबुद्धि जीवने ज्यांसुधी पोतानी जाते
करवामां आवेला भेद (संसारी अने मुक्त स्वरूप) विद्यमान छे, त्यां सुधी ते ज
सिद्धस्वरूप साक्षात् उपादेय (ग्रहण करवा योग्य) थाय छे. त्यार पछी उपर्युक्त
भेदबुद्ध नष्ट थई जतां केवळ एक निर्विकल्प शुद्ध आत्मतत्त्व ज प्रतिभासित थाय
छे
लिप्त जाणीने ते ज सिद्धस्वरूपने उपादेय (ग्राह्य) माने छे. परंतु जेवुं तेने स्वरूपाचरण प्रगट
थाय छे के तरत ज तेनी संसारी अने सिद्ध विषयक भेदबुद्धि पण नष्ट थई जाय छे
एकमात्र शुद्ध आत्मस्वरूप ज प्रतिभासित थाय छे. १४.
मुक्त्वा मोहविजृम्भितं ननु पथा शुद्धेन संचर्यताम्
छे. परंतु अज्ञानी पुरुषनी द्रष्टि अशुद्ध आत्मस्वरूप अथवा पर पदार्थोमां स्थित
थईने संसार वधारे छे. ठीक छे
तेथी मुमुक्षु जीवे मोहथी वृद्धि पामेल विकल्प
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सोऽन्धो रूपनिरूपणं हि कुरुते प्राप्तो मनःशून्यताम्
आगमरूप नेत्रथी छ ये द्रव्योने जोईने तेमांथी निर्मळ आत्मतत्त्वनुं ग्रहण करे छे.
जे कोई जीव शास्त्र रहित रहीने उत्कृष्ट आत्मतत्त्वनो निश्चय करे छे ते मूर्ख मन
(विवेक) रहित होवा छतां य रूपनुं अवलोकन करवा इच्छनार अंध समान छे. १६.
तत्त्वं स्वीकुरुते तदेव कथितं सिद्धत्वबीजं जिनैः
दुष्प्रापं शुचि वर्त्म येन परमं तद्धाम संप्राप्यते
के जिनेन्द्रदेवे तेने ज मुक्तिनुं बीज बताव्युं छे. एनाथी विपरित जे जीव हेय अने
उपादेय तत्त्वना विषयमां स्वतः अथवा परना उपदेशथी भ्रमने प्राप्त थाय छे, ते
उक्त आत्मतत्त्वनो स्वीकार करी शकतो नथी. तेथी तेने ते निर्मळ मोक्षमार्ग दुर्लभ
थई जाय छे के जेना द्वारा ते उत्कृष्ट मोक्षपद प्राप्त कराय छे. १७.
ये ऽन्यार्थं परिकल्पयन्ति खलु ते निर्वाणमार्गच्युताः
निःशेषं श्रुतमेति तत्र विपुले साक्षाद्विचारे सति
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अन्वय वडे सर्वोत्कृष्ट एवा (परंपरागत द्रव्यश्रुत वडे) जे जीव मार्गनुं प्रगटपणे चिंतन
करे छे तेने तेनो विपुल विचार करतां, समस्त श्रुत साक्षात् प्राप्त थाय छे. १८.
प्राप्तानां विषये सदैव सुखिनामल्पैव मुक्तात्मनाम्
निःश्रेणिर्भवतादनन्तसुखतद्धामारुरुक्षोर्मम
मुक्तात्माओना विषयमां मारा जेवा अल्पज्ञे जे भक्तिवशे थोडुं कांईक कथन कर्युं छे
ते अनंत सुखथी परिपूर्ण ते मोक्षरूपी महेलमां चडवानी इच्छा करनार एवा मारा
माटे निसरणी समान थाव. १९.
नाशोत्पत्तियुतं तथाप्यविचलं मुक्त्यर्थिनां मानसे
शान्तं जीवघनं द्वितीयरहितं मुक्तात्मरूपं महः
(ध्रुव) छे, मुमुक्षुओना हृदयमां एकत्रित थईने निरंतर रहे छे, संसारना भाररहित
छे, शान्त छे, सघन आत्मप्रदेशो स्वरूप छे तथा असाधारण छे. २०
संबन्धं च तथा त्वमित्यहमिति प्रायान् विकल्पानपि