Padmanandi Panchvinshati-Gujarati (Devanagari transliteration). 6. Upasak Sanskar; Shlok: 1-62 (6. Upasak Sanskar),1 (7. Deshvratodhyotan),2 (7. Deshvratodhyotan),3 (7. Deshvratodhyotan),4 (7. Deshvratodhyotan); 7. Deshvratodhyotan.

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६. उपासक संस्कार
[ ६. उपासक संस्कार ]
(अनुष्टुभ् )
आद्यो जिनो नृपः श्रेयान् व्रतदानादिपुरुषौ
एतदन्योन्यसंबन्धे धर्मस्थितिरभूदिह ।।।।
अनुवाद : आदि जिन अर्थात् ॠषभ जिनेन्द्र अने श्रेयांस राजा आ बन्ने
क्रमपूर्वक व्रतविधि अने दानविधिना आदि प्रवर्तक पुरुष छे अर्थात् व्रतोनो प्रचार
‘सर्व प्रथम ॠषभ जिनेन्द्र द्वारा शरू थयो अने दानविधिनो प्रचार राजा श्रेयांसथी
शरू थयो. एमनो परस्पर संबंध थतां अहीं भरतक्षेत्रमां धर्मनी स्थिति थई. १.
(अनुष्टुभ् )
सम्यग्द्रग्बोधचारित्रत्रितयं धर्म उच्यते
मुक्तेः पन्थाः स एव स्यात् प्रमाणपरिनिष्ठितः ।।।।
अनुवाद : सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र आ त्रणेने धर्म
कहेवामां आवे छे तथा ते ज मुक्तिनो मार्ग छे जे प्रमाणथी सिद्ध छे. २.
(अनुष्टुभ् )
रत्नत्रयात्मके मार्गे संचरन्ति न ये जनाः
तेषां मोक्षपदं दूरं भवेद्दीर्घतरो भवः ।।।।
अनुवाद : जे जीव रत्नत्रयस्वरूप आ मोक्षमार्गमां संचार करता नथी तेमने
मोक्षस्थान तो दूर अने संसार अतिशय दीर्घ थई जाय छे. ३.



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(अनुष्टुभ् )
सम्पूर्णदेशभेदाभ्यां स च धर्मो द्विधा भवेत्
आद्ये भेदे च निर्ग्रन्थाः द्वितीये गृहिणः स्थिताः ।।।।
अनुवाद : ते धर्म संपूर्ण धर्म अने देशधर्मना भेदथी बे प्रकारनो छे. आमांथी
प्रथम भेदमां दिगंबर मुनि अने बीजा भेदमां गृहस्थ स्थित होय छे. ४.
(अनुष्टुभ् )
संप्रत्यपि प्रवर्तेत धर्मस्तेनैव वर्त्मना
तेने तेऽपि च गण्यन्ते गृहस्था धर्महेतवः ।।।।
अनुवाद : वर्तमानमां पण ते रत्नत्रयस्वरूप धर्मनी प्रवृत्ति ते ज मार्गे अर्थात्
पूर्णधर्म अने देशधर्म स्वरूपे थई रही छे. तेथी ते गृहस्थ पण धर्मनुं कारण गणाय
छे. ५.
(अनुष्टुभ् )
संप्रत्यत्र कलौ काले जिनगेहे मुनिस्थितिः
धर्मश्च दानमित्येषां श्रावका मूलकारणम् ।।।।
अनुवाद : अत्यारे अहीं आ कळिकाळ अर्थात् पंचमकाळमां मुनिओनो निवास
जिनालयोमां थई रह्यो छे अने तेमना ज निमित्ते धर्म अने दाननी प्रवृत्ति छे. आ रीते
मुनिओनी स्थिति, धर्म अने दान आ त्रणेयनुं मूळकारण गृहस्थ श्रावक छे. ६.
(अनुष्टुभ् )
देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ।।।।
अनुवाद : जिनपूजा, गुरुनी सेवा, स्वाध्याय, संयम अने तप आ छ कर्म
गृहस्थोए प्रतिदिन करवा योग्य छे अर्थात् ते तेमना आवश्यक कार्य छे. ७.
(अनुष्टुभ् )
समता सर्वभूतेषु संयमे शुभभावना
आर्तरौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिकं व्रतम् ।।।।

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अनुवाद : सर्व प्राणीओ प्रत्ये समताभाव धारण करवो, संयमना
विषयमां शुभ विचार राखवो अने आर्त तथा रौद्र ध्यानोनो त्याग करवो, एने
सामायिकव्रत मानवामां आवे छे. ८.
(अनुष्टुभ् )
सामायिकं न जायेत व्यसनम्लानचेतसः
श्रावकेन ततः साक्षात्त्याज्यं व्यसनसप्तकम् ।।।।
अनुवाद : जेमनुं चित्त जुगार वगेरे व्यसनोथी मलिन थई रह्युं होय तेने
उपर्युक्त सामायिकनी संभावना नथी. तेथी श्रावके साक्षात् ते सात व्यसनोनो
परित्याग अवश्य करवो जोईए. ९.
(अनुष्टुभ् )
द्यूतमांससुरावेश्याखेटचौर्यपराङ्गनाः
महापापानि सप्तैव व्यसनानि त्यजेद् बुधः ।।१०।।
अनुवाद : जुगार, मांस, मद्य, वेश्या, शिकार, चोरी अने परस्त्री आ साते
य व्यसन महापापस्वरूप छे. विवेकी मनुष्ये एमनो त्याग करवो जोईए. १०.
(अनुष्टुभ् )
धर्मार्थिनो ऽपि लोकस्य चेदस्ति व्यसनाश्रयः
जायते न ततः सापि धर्मान्वेषणयोग्यता ।।११।।
अनुवाद : धर्माभिलाषी मनुष्य पण जो ते व्यसनोनो आश्रय ले छे ते
एनाथी तेने ते धर्म शोधवानी योग्यता पण उत्पन्न थती नथी. ११.
(अनुष्टुभ् )
सप्तैव नरकाणि स्युस्तैरेकैकं निरूपितम्
आकर्षयन्नृणामेतद्वयसनं स्वसमृद्धये ।।१२।।
अनुवाद : नरक सात ज छे. तेमणे जाणे पोतानी समृद्धि माटे मनुष्योने
आकर्षित करनार आ एक एक व्यसनने नियुक्त कर्युं छे. १२.

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(अनुष्टुभ् )
धर्मशत्रुविनाशार्थं पापाख्यकुपतेरिह
सप्ताङ्गं बलवद्राज्यं सप्तभिर्व्यसनैः कृतम् ।।१३।।
अनुवाद : आ सात व्यसनोए जाणे धर्मरूपी शत्रुनो नाश करवा माटे पाप
नामथी प्रसिद्ध निकृष्ट (हलका) राजाना सात राज्यांगो (राजा, मंत्री, मित्र, खजानो,
देश, दुर्ग अने सैन्य) थी युक्त राज्यने बळवान कर्युं छे.
विशेषार्थ : अभिप्राय एनो ए छे के आ व्यसनोना निमित्ते धर्मनो तो ह्रास (नाश)
थाय छे अने पाप वधे छे. अहीं ग्रन्थकर्ताए आ उत्प्रेक्षा करी छे के जाणे पापरूपी राजाए पोताना
धर्मरूपी शत्रुनो नाश करवा माटे पोताना राज्यने आ सात व्यसनोरूप सात राज्यांगोथी ज सुसज्ज
करी लीधुं छे. १३.
(अनुष्टुभ् )
प्रपश्यन्ति जिनं भक्त्या पूजयन्ति स्तुवन्ति ये
ते च द्रश्याश्च पूज्याश्च स्तुत्याश्च भुवनत्रये ।।१४।।
अनुवाद : जे भव्य प्राणी भक्तिथी जिन भगवानना दर्शन, पूजन अने
स्तुति करता रहे छे ते त्रणे लोकमां पोते ज दर्शन, पूजन अने स्तुति योग्य बनी
जाय छे. अभिप्राय ए छे के ते पोते पण परमात्मा बनी जाय छे. १४.
(अनुष्टुभ् )
ये जिनेन्द्रं न पश्यन्ति पूजयन्ति स्तुवन्ति न
निष्फलं जीवितं तेषां तेषां धिक् च गृहाश्रमम् ।।१५।।
अनुवाद : जे जीव भक्तिथी जिनेन्द्र भगवानना न दर्शन करे छे, न पूजन
करे छे अने न स्तुति पण करे छे तेमनुं जीवन निष्फळ छे; तथा तेमना गृहस्थाश्रमने
धिक्कार छे. १५.
(अनुष्टुभ् )
प्रातरुत्थाय कर्तव्यं देवतागुरुदर्शनम्
भक्त्या तद्वन्दना कार्या धर्मश्रुतिरुपासकैः ।।१६।।

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अनुवाद : श्रावकोए प्रातःकाळे उठीने भक्तिथी जिनेन्द्रदेव तथा निर्ग्रन्थ
गुरुना दर्शन अने तेमनी वंदना करीने धर्मश्रवण करवुं जोईए. १६.
(अनुष्टुभ् )
पश्चादन्यानि कार्याणि कर्तव्यानि यतो बुधैः
धर्मार्थकाममोक्षाणामादौ धर्मः प्रकीर्तितः ।।१७।।
अनुवाद : त्यार पछी अन्य कार्य करवा जोईए, केम के विद्वान पुरुषोए
धर्म, अर्थ, काम अने मोक्ष आ चार पुरुषार्थोमां धर्मने प्रथम बताव्यो छे. १७.
(अनुष्टुभ् )
गुरोरेव प्रसादेन लभ्यते ज्ञानलोचनम्
समस्तं द्रश्यते येन हस्तरेखेव निस्तुषम् ।।१८।।
अनुवाद : गुरुनी ज प्रसन्नताथी ते ज्ञान (केवळज्ञान) रूपी नेत्र प्राप्त थाय
छे के जेना द्वारा समस्त जगत् हाथनी रेखा समान स्पष्टपणे देखाय छे. १८.
(अनुष्टुभ् )
ये गुरुं नैव मन्यन्ते तदुपास्तिं न कुर्वते
अन्धकारो भवेत्तेषामुदिते ऽपि दिवाकरे ।।१९।।
अनुवाद : जे अज्ञानी जन न तो गुरुने माने छे अने न तेनी उपासना
य करे छे तेमने माटे सूर्यनो उदय होवा छतां पण अंधकार जेवुं ज छे.
विशेषार्थ : ए उपर कहेवामां आवी गयुं छे के ज्ञाननी प्राप्ति गुरुना ज प्रसादथी
थाय छे. तेथी जे मनुष्य आदरपूर्वक गुरुनी सेवाशुश्रूषा नथी करता ते अल्पज्ञानी ज रहे छे.
तेमनुं अज्ञान सूर्यनो प्रकाश पण दूर नथी करी शकतो. कारण के ते तो केवळ सीमित बाह्य पदार्थोना
अवलोकनमां सहायक थई शके छे, नहि के आत्मावलोकनमां. आत्मावलोकनमां तो केवळ गुरुना
निमित्ते प्राप्त थयेलुं अध्यात्मज्ञान ज सहायक थाय छे. १९.
(अनुष्टुभ् )
ये पठन्ति न सच्छास्त्रं सद्गुरुप्रकटीकृतम्
तेऽन्धाः सचक्षुषोऽपीह संभाव्यन्ते मनीषिभिः ।।२०।।

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अनुवाद : जे मनुष्यो उत्तम गुरु द्वारा प्ररूपित समीचीन शास्त्र वांचता नथी
तेमने बुद्धिमान मनुष्य बन्ने आंखोवाळा होवा छतां आंधळा समजे छे. २०.
(अनुष्टुभ् )
मन्ये न प्रायशस्तेषां कर्णाश्च हृदयानि च
यैरभ्यासे गुरोः शास्त्रं न श्रुतं नावधारितम् ।।२१।।
अनुवाद : जेमणे गुरुनी समीपे न शास्त्र सांभळ्युं छे अने न तेने हृदयमां
धारण पण कर्युं छे तेमने घणुं करीने न तो कान छे अने न हृदय पण छे, एम
हुं समजुं छुं.
विशेषार्थ : काननो सदुपयोग एमां ज छे के तेमना द्वारा शास्त्रोनुं श्रवण करवामां
आवेतेनाथी सदुपदेश सांभळवामां आवे. तथा मनना लाभनो पण ए ज सदुपयोग छे के तेना
द्वारा सांभळेला शास्त्रनुं चिन्तन करायतेनुं रहस्य धारण कराय. तेथी जे प्राणी कान अने मन
मेळवीने पण तेमने शास्त्रना विषयमां जोडता नथी तेमना ते कान अने मन निष्फळ ज छे. २१.
(अनुष्टुभ् )
देशव्रतानुसारेण संयमो ऽपि निषेव्यते
गृहस्थैर्येन तेनैव जायते फलवद्व्रतम् ।।२२।।
अनुवाद : श्रावक जो देशव्रत अनुसार इन्द्रियोना निग्रह अने
प्राणीदयारूप संयमनुं पण सेवन करे छे तो तेनाथी तेमनुं ते व्रत (देशव्रत) सफळ
थई जाय छे. अभिप्राय ए छे के देशव्रतना परिपालननी सफळता एमां ज
छे के तेना पछी पूर्ण संयम पण धारण करवामां आवे. २२.
(अनुष्टुभ् )
त्याज्यं मांसं च मद्यं च मधूदुम्बरपञ्चकम्
अष्टौ मूलगुणाः प्रोक्ताः गृहिणो द्रष्टिपूर्वकाः ।।२३।।
अनुवाद : मांस, मद्य, मध अने पांच उदुम्बर फळ (उमरडो, कठुमर, पाकर,
वड अने पीपळो) नो त्याग करवो जोईए. सम्यग्दर्शन साथे आ आठ श्रावकना
मूळगुण कहेवामां आवे छे.
विशेषार्थ : मूळ शब्दनो अर्थ जड थाय छे. जे वृक्षना मूळियां खूब ऊंडा अने बळवान

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होय छे तेमनी स्थिति घणा समय सुधी रहे छे. परंतु जेनां मूळियां वधारे ऊंडा अने बळवान
होता नथी तेमनी स्थिति लांबा समय सुधी रही शकती नथी.
ते आंधी आदि द्वारा तरत ज उखाडी
नखाय छे. बराबर ए ज रीते आ गुणो विना श्रावकना उत्तर गुणो (अणुव्रतादि)नी स्थिति पण
द्रढ रहेती नथी तेथी आ श्रावकना मूळगुण कहेवाय छे. एमनी शरूआतमां सम्यग्दर्शन अवश्य
होवुं जोईए, केमके तेना विना घणुं करीने व्रत आदि बधुं निष्फळ ज रहे छे. २३.
(अनुष्टुभ् )
अणुव्रतानि पञ्चैव त्रिप्रकारं गुणव्रतम्
शिक्षाव्रतानि चत्वारि द्वादशेति गृहिव्रते ।।२४।।
अनुवाद : गृहिव्रत अर्थात् देशव्रतमां पांच अणुव्रत, त्रण गुणव्रत अने चार
शिक्षाव्रत; आ रीते बार व्रत होय छे.
विशेषार्थ : हिंसा, असत्य वचन, चोरी, मैथुन अने परिग्रह आ पांच स्थूळ
पापोनो परित्याग करवो; तेने अणुव्रत कहेवामां आवे छे. ते पांच प्रकारना छे.
अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत अने परिग्रहपरिमाणाणुव्रत. मन,
वचन अने काया द्वारा कृत, कारित अने अनुमोदनारूपे (नव प्रकारे) जे संकल्पपूर्वक त्रस
जीवोनी हिंसानो परित्याग करवामां आवे छे तेने अहिंसाणुव्रत कहे छे. स्थूळ असत्य वचन
स्वयं न बोलवुं, बीजाने ए माटे प्रेरित न करवा तथा जे सत्य वचनथी बीजा विपत्तिमां
पडता होय एवा सत्य वचन पण न बोलवा, तेने सत्याणुव्रत कहे छे. मूकेलुं, पडेलुं अथवा
भुलाई गयेलुं परधन आप्या विना लेवुं नहि ते अचौर्याणुव्रत कहेवाय छे. परस्त्री साथे न
तो पोते संबंध राखवो अने न बीजाने पण ए माटे प्रेरित करवा, तेने ब्रह्मचर्याणुव्रत
अथवा स्वदारसंतोष व्रत कहेवाय छे. धन
धान्यादि परिग्रहनुं प्रमाण करीने तेनाथी अधिकनी
इच्छा न करवी, तेने परिग्रहपरिमाणाणुव्रत कहे छे. गुणव्रत त्रण छेदिग्व्रत, अनर्थदंडव्रत
अने भोगोपभोगपरिमाणव्रत. पूर्वादि दश दिशाओमां प्रसिद्ध कोई समुद्र, नदी, वन अने
पर्वत आदिनी मर्यादा करीने तेनी बहार न जवानो मरण पर्यन्त नियम करी लेवो तेने
दिग्व्रत कहेवाय छे. जे कामोथी कोई प्रकारनो लाभ न थतां केवळ पाप ज उत्पन्न थाय
छे ते अनर्थदंड कहेवाय छे. अने तेना त्यागने अनर्थदंडव्रत कहेवाय छे. जे वस्तु एक ज
वार भोगववामां आवे छे ते भोग कहेवाय छे
जेम के, भोजनादि. तथा जे वस्तु एकवार
भोगवीने फरीवार पण भोगववामां आवे छे तेने उपभोग कहेवाय छेजेम के वस्त्रादि. आ
भोग अने उपभोगरूप इन्द्रियविषयोनुं प्रमाण करीने अधिकनी इच्छा न करवी, तेने
भोगोपभोगपरिमाण व्रत कहे छे. आ त्रणे व्रत मूळगुणोनी वृद्धिनां कारण छे, तेथी एमने
गुणव्रत कहेवामां आवे छे. देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास अने वैयावृत्य ए चार

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शिक्षाव्रत छे. दिग्व्रतमां करेली मर्यादानी अंदर पण केटलाक समय माटे कोई घर, गाम अने
नगर आदिनी मर्यादा करीने तेनी अंदर ज रहेवानो नियम करवो ते देशावकाशिक व्रत
कहेवाय छे. निश्चित समय सुधी पांचे पापोनो पूर्णरूपे त्याग करवो तेने सामायिक कहे छे.
आ सामायिक जिनचैत्यालयादि रूप कोई निर्बाध एकान्त स्थानमां करवामां आवे छे.
सामायिकमां स्थिर थईने एम विचार करवो जोईए के जे संसारमां रहुं छुं ते अशरण
छे, अशुभ छे, अनित्य छे, दुःखस्वरूप छे तथा आत्मस्वरूपथी भिन्न छे. परंतु एनाथी
विपरीत मोक्ष शरण छे, नित्य छे, निराकुळ सुखस्वरूप छे अने आत्मस्वरूपथी अभिन्न
छे; इत्यादि. अष्टमी अने चतुर्दशीना दिवसे अन्न, पान (दूध आदि), खाद्य (लाडु
पेंडा
आदि) अने लेह्य (चाटवा योग्य राबडी आदि) आ चार प्रकारना आहारोनो परित्याग
करवो; तेने प्रोषधोपवास कहेवाय छे. प्रोषधोपवास ए पद प्रोषध अने उपवास, आ बे
शब्दोना समासथी निष्पन्न थयुं छे. एमां प्रोषध शब्दनो अर्थ एकवार भोजन (एकाशन)
तथा उपवास शब्दनो अर्थ चार प्रकारना आहारनो त्याग करवो एवो छे. अभिप्राय ए
छे के एकाशनपूर्वक जे उपवास करवामां आवे छे ते प्रोषधोपवास कहेवाय छे. जेम के
जो अष्टमीनो प्रोषधोपवास करवो होय तो सप्तमी अने नवमीना दिवसे एकाशन तथा
अष्टमीना दिवसे उपवास करवो जोईए. आ रीते प्रोषधोपवासमां सोळपहोर माटे आहारनो
त्याग करवामां आवे छे. प्रोषधोपवासना दिवसे पांच पाप, स्नान, अलंकार तथा सर्व
प्रकारनो आरंभ छोडीने ध्यान अध्ययनादिमां ज समय वीताववो जोईए. कोई प्रत्युपकार
आदिनी अभिलाषा न राखतां जे मुनि आदि सत्पात्रोने दान आपवामां आवे छे, तेने
वैयावृत्य कहे छे. आ वैयावृत्यमां दान सिवाय संयमी जनोनी यथायोग्य सेवा
शुश्रुषा करीने
तेमनुं कष्ट पण दूर करवुं जोईए. कोई आचार्योना मत प्रमाणे देशावकाशिक व्रतनो गुणव्रतमां
तथा भोगोपभोगपरिमाणव्रतनो शिक्षाव्रतमां समावेश करवामां आव्यो छे. २४.
(अनुष्टुभ् )
पर्वस्वथ यथाशक्ति भुक्ति त्यागादिकं तपः
वस्त्रपूतं पिबेत्तोयं रात्रिभोजनवर्जनम् ।।२५।।
अनुवाद : श्रावके पर्वना दिवसो (आठम अने चौदश आदि) मां पोतानी
शक्ति अनुसार भोजनना परित्याग आदिरूप (अनशनादि) तप करवा जोईए. एनी
साथोसाथ तेमणे रात्रिभोजन छोडीने पाणी पण वस्त्रथी गाळेलुं पीवुं जोईए. २५.
(अनुष्टुभ् )
तं देशं तं नरं तत्स्वं तत्कर्माणि च नाश्रयेत्
मलिनं दर्शनं येन येन च व्रतखण्डनम् ।।२६।।

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अनुवाद : जे देशादिना निमित्ते सम्यग्दर्शन मलिन थतुं होय अने
व्रतोनो नाश थतो होय एवा ते देश, ते मनुष्य, ते द्रव्य तथा ते क्रियाओनो
पण परित्याग करी देवो जोईए. २६.
(अनुष्टुभ् )
भोगोपभोगसंख्यानं विधेयं विधिवत्सदा
व्रतशून्या न कर्तव्या काचित् कालकला बुधैः ।।२७।।
अनुवाद : विद्वान मनुष्योए नियमानुसार सदा भोग अने उपभोगरूप
वस्तुओनुं प्रमाण करी लेवुं जोईए. तेमनो थोडोक समय पण व्रत रहित न जवो जोईए.
विशेषार्थ : जे वस्तु एक ज वार उपयोगमां आवती होय तेने भोग कहेवाय छे
जेम के भोज्य पदार्थ अने माळा वगेरे. एनाथी उल्टुं जे वस्तु अनेक वार उपयोगमां आवती
होय ते उपभोग कहेवाय छे.
जेम के वस्त्र आदि. आ बन्नेय प्रकारना पदार्थोनुं प्रमाण करीने
श्रावके तेनाथी अधिकनी इच्छा न करवी जोईए. २७.
(अनुष्टुभ् )
रत्नत्रयाश्रयः कार्यस्तथा भव्यैरतन्द्रितैः
जन्मान्तरे ऽपि तच्छ्रद्धा यथा संवर्धते तराम् ।।२८।।
अनुवाद : भव्य जीवोए आळस छोडीने रत्नत्रयनो आश्रय ए रीते
करवो जोईए के जे रीते तेमनुं उक्त रत्नत्रयविषयक श्रद्धान (द्रढता) बीजा
जन्ममां पण अतिशय वृद्धि पामतुं रहे. २८.
(अनुष्टुभ् )
विनयश्च यथायोग्यं कर्तव्यः परमेष्ठिषु
द्रष्टिबोधचरित्रेषु तद्वत्सु समयाश्रितैः ।।२९।।
अनुवाद : ए उपरांत श्रावकोए जिनागमना आश्रित थईने अर्हदादि पांच
परमेष्ठी, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा आ सम्यग्दर्शनादि धारण
करनार जीवोनो पण यथायोग्य विनय करवो जोईए. २९.
(अनुष्टुभ् )
दर्शनज्ञानचारित्रतपःप्रभृति सिध्यति
विनयेनेति तं तेन मोक्षद्वारं प्रचक्षते ।।३०।।

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अनुवाद : ते विनय द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र अने तप
आदिनी सिद्धि थाय छे तेथी ज तेने मोक्षनुं द्वार कहेवाय छे. ३०.
(अनुष्टुभ् )
सत्पात्रेषु यथाशक्ति दानं देयं गृहस्थितैः
दानहीना भवेत्तेषां निष्फलैव गृहस्थता ।।३१।।
अनुवाद : गृहमां स्थित रहेनार श्रावकोए शक्ति प्रमाणे उत्तम पात्रोने
दान आपवुं जोईए केम के दान विना तेमनो गृहस्थाश्रम (श्रावकपणुं) निष्फळ ज
थाय छे. ३१.
(अनुष्टुभ् )
दानं ये न प्रयच्छन्ति निर्ग्रन्थेषु चतुर्विधम्
पाशा एव गृहास्तेषां बन्धनायैव निर्मिताः ।।३२।।
अनुवाद : जे गृहस्थ दिगंबर मुनिओने चार प्रकारनुं दान आपता नथी
तेमने बंधनमां राखवा माटे ते घर जाणे जाळ ज बनाववामां आवी छे.
विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के श्रावक घरमां रहीने असिमषि आदिरूप कर्मो
करे छे तेमनाथी तेने अनेक प्रकारना पापकर्मनो संचय थाय छे. तेनाथी छूटकारो मेळववानो
उपाय केवळ दान छे. तेथी जो ते पात्रदान करे नहि तो पछी ते उक्त संचित पापद्वारा
संसारमां ज परिभ्रमण करवानो छे. आ रीते उक्त दानहीन श्रावकने माटे ते बंधनना ज
कारण बनी जाय छे. ३२.
(अनुष्टुभ् )
अभयाहारभैषज्यशास्त्रदाने हि यत्कृते
ऋषीणां जायते सौख्यं गृही श्लाध्यः कथं न सः ।।३३।।
अनुवाद : जेना द्वारा अभय, आहार, औषध अने शास्त्रनुं दान
आपवाथी मुनिओने सुख उत्पन्न थाय छे ते गृहस्थ केम प्रशंसाने योग्य न
होय? अवश्य होय. ३३.
(अनुष्टुभ् )
समर्थोऽपि न यो दद्याद्यतीनां दानमादरात्
छिनत्ति स स्वयं मूढः परत्र सुखमात्मनः ।।३४।।

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अनुवाद : जे मनुष्य दान देवा योग्य होवा छतां पण मुनिओने भक्तिपूर्वक
दान देतो नथी ते मूर्ख परलोकमां पोताना सुखने पोते ज नष्ट करे छे. ३४.
(अनुष्टुभ् )
द्रषन्नावसमो ज्ञेयो दानहीनो गृहाश्रमः
तदारूढो भवाम्भौधौ मज्जत्येव न संशयः ।।३५।।
अनुवाद : दानरहित गृहस्थाश्रमने पथ्थरनी नाव समान समजवो जोईए.
ते गृहस्थाश्रमरूपी पथ्थरनी नाव उपर बेठेलो मनुष्य संसाररूपी समुद्रमां डूबे ज
छे, एमां संदेह नथी. ३५.
(अनुष्टुभ् )
समयस्थेषु वात्सल्यं स्वशक्त्या ये न कुर्वते
बहुपापावृतात्मानस्ते धर्मस्य पराङ्मुखाः ।।३६।।
अनुवाद : जे गृहस्थ पोतानी शक्ति अनुसार साधर्मी जनो प्रत्ये प्रेम राखता
नथी ते धर्मथी विमुख थईने पोताने घणा पापथी आच्छादित करे छे. ३६.
(अनुष्टुभ् )
येषां जिनोपदेशेन कारुण्यामृतपूरिते
चित्ते जीवदया नास्ति तेषां धर्मः कुतो भवेत् ।।३७।।
अनुवाद : जिन भगवानना उपदेशथी दयाळुतारूप अमृतथी परिपूर्ण जे
श्रावकोना हृदयमां प्राणीदया उत्पन्न थती नथी तेमने धर्म क्यांथी होई शके? अर्थात्
होई शके नहि.
विशेषार्थ : आनो अभिप्राय ए छे के जे गृहस्थोनुं हृदय जिनागमनो अभ्यास करवाने
कारणे दयाथी भींजाई गयुं छे ते ज गृहस्थ वास्तवमां धर्मात्मा छे. परंतु एनाथी विपरीत जेमनुं
चित्त दयाथी भींजायुं नथी तेओ कदी पण धर्मात्मा होई शके नहि. कारण के धर्मनुं मूळ तो ते
दया ज छे. ३७.
(अनुष्टुभ् )
मूलं धर्मतरोराद्या व्रतानां धाम संपदाम्
गुणानां निधिरित्यङ्गिदया कार्या विवेकिभिः ।।३८।।

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अनुवाद : प्राणीदया धर्मरूपी वृक्षनुं मूळ छे, व्रतोमां मुख्य छे. संपत्तिओनुं
स्थान छे अने गुणोनो भंडार छे. तेथी विवेकीजनोए ते अवशय करवी जोईए. ३८.
(अनुष्टुभ् )
सर्वे जीवदयाधारा गुणास्तिष्ठन्ति मानुषे
सूत्राधाराः प्रसूनानां हाराणां च सरा इव ।।३९।।
अनुवाद : मनुष्यमां बधा ज गुण जेम पुष्पोनी हार दोराना आधारे रहे
छे तेम जीवदयाना आश्रये रहे छे.
विशेषार्थ : जेम फूलना हारनी पंक्तिओ दोराना आश्रये स्थिर रहे छे तेवी ज रीते
बधा गुणोनो समूह प्राणीदयाना आश्रये स्थिर रहे छे जो माळानी वच्चेनो दोरो तूटी जाय छे
तो जेम तेना बधा फूल विखराई जाय छे तेवी ज रीते निर्दय मनुष्यना ते बधा गुण पण दयाना
अभावमां विखराई जाय छे
नष्ट थई जाय छे. माटे सम्यग्दर्शनादि गुणोना अभिलाषी श्रावके
प्राणीओना विषयमां दयाळु अवश्य थवुं जोईए. ३९.
(अनुष्टुभ् )
यतीनां श्रावकाणां च व्रतानि सकलान्यपि
एकाहिंसाप्रसिद्धयर्थं कथितानि जिनेश्वरैः ।।४०।।
अनुवाद : जिनेन्द्रदेवे मुनिओ अने श्रावकोना बधा ज व्रत एक मात्र
अहिंसा धर्मनी ज सिद्धि माटे बताव्या छे. ४०.
(अनुष्टुभ् )
जीवहिंसादिसंकल्पैरात्मन्यपि हि दूषिते
पापं भवति जीवस्य न परं परपीडनात् ।।४१।।
अनुवाद : जीवने केवळ बीजा प्राणीओने कष्ट देवाथी ज पाप नथी थतुं,
पण प्राणीनी हिंसा आदिना विचार मात्रथी पण आत्मा दूषित थतां ते पाप थाय
छे. ४१.
(अनुष्टुभ् )
द्वादशापि सदा चिन्त्या अनुप्रेक्षा महात्मभिः
तद्भावना भवत्येव कर्मणः क्षयकारणम् ।।४२।।

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अनुवाद : महात्मा पुरुषोए निरंतर बारेय अनुप्रेक्षाओनुं चिन्तन करवुं
जोईए. कारण ए छे के तेमनी भावना (चिन्तन) कर्मना क्षयनुं कारण थाय छे. ४२.
(अनुष्टुभ् )
अध्रुवाशरणे चैव भव एकत्वमेव च
अन्यत्वमशुचित्वं च तथैवास्रवसंवरौ ।।४३।।
निर्जरा च तथा लोको बोधि दुर्लभधर्मता
द्वादशैता अनुप्रेक्षा भाषिता जिनपुङ्गवैः ।।४४।।
अनुवाद : अध्रुव अर्थात् अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व,
अशुचित्व, तेवी ज रीते आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ अने धर्म आ
जिनेन्द्र भगवान द्वारा बार अनुप्रेक्षाओ कहेवामां आवी छे. ४३
४४.
(अनुष्टुभ् )
अध्रुवाणि समस्तानि शरीरादीनि देहिनाम्
तन्नाशे ऽपि न कर्तव्यः शोको दुष्कर्मकारणम् ।।४५।।
अनुवाद : प्राणीओनां शरीर आदि बधुं ज नश्वर छे. तेथी उक्त शरीर
आदिनो नाश थवा छतां पण शोक न करवो जोईए कारण के शोक पापबंधनुं कारण
छे. आ रीते वारंवार विचार करवानुं नाम अनित्य भावना छे. ४५.
(अनुष्टुभ् )
व्याघ्रेणाघ्रातकायस्य मृगशावस्य निर्जने
यथा न शरणं जन्तोः संसारे न तथापदि ।।४६।।
अनुवाद : जेम निर्जन वनमां सिंह द्वारा पकडवामां आवेल मृगना
बच्चानी रक्षा करनार कोई नथी, तेवी ज रीते आपत्ति (मरण आदि) प्राप्त थतां
तेनाथी जीवनुं रक्षण करनार पण संसारमां कोई नथी. आ रीते विचार करवो तेने
अशरणभावना कहेवामां आवे छे. ४६.
(अनुष्टुभ् )
यत्सुखं तत्सुखाभासं यद्दुःखं तत्सदाञ्जसा
भवे लोकाः सुख सत्यं मोक्ष एव स साध्यताम् ।।४७।।

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अनुवाद : संसारमां जे सुख छे ते सुखनो आभास छेयथार्थ सुख
नथी, परंतु जे दुःख छे ते वास्तविक छे अने सदा रहेनार छे. साचुं सुख
मोक्षमां ज छे. तेथी हे भव्यजनो! तेने ज सिद्ध करवुं जोईए. आ रीते
संसारना स्वरूपनुं चिंतन करवुं, ए संसारभावना छे. ४७.
(अनुष्टुभ् )
स्वजनो वा परो वापि नो कश्चित्परमार्थतः
केवलं स्वार्जितं कर्म जीवेनैकेन भुज्यते ।।४८।।
अनुवाद : कोई पण प्राणी वास्तवमां न तो स्वजन (स्वकीय माता-पिता आदि)
छे अने न पर पण छे. जीव द्वारा जे कर्म बांधवामां आव्युं छे तेने ज केवळ ते एकलो
भोगवे छे. आ रीते वारंवार विचार करवो, तेने एकत्वभावना कहे छे. ४८.
(अनुष्टुभ् )
क्षीरनीरवदेकत्र स्थितयोर्देहदेहिनोः
भेदो यदि ततोऽन्येषु कलत्रादिषु का कथा ।।४९।।
अनुवाद : जो दूध अने पाणीनी समान एक ज स्थानमां रहेनार शरीर अने
जीवमां पण भेद होय तो प्रत्यक्ष ज पोतानाथी भिन्न देखाता स्त्री-पुत्र आदिना विषयमां
भला शुं कहेवुं? अर्थात् तेओ तो जीवथी भिन्न छे ज. आ रीते विचार करवो तेनुं
नाम अन्यत्वभावना छे. ४९.
(अनुष्टुभ् )
तथाशुचिरयं कायः कृमिधातुमलान्वितः
यथा तस्यैव संपर्कादन्यत्राप्यपवित्रता ।।५०।।
अनुवाद : क्षुद्र जंतु, रसरुधिरादि धातुओ तथा मळसंयुक्त आ शरीर एवुं
अपवित्र छे के तेना ज संबंधथी बीजी (पुष्पमाळा आदि) वस्तुओ पण अपवित्र
थई जाय छे. आ रीते शरीरना स्वरूपनो विचार करवो, ए अशुचिभावना छे. ५०.
(अनुष्टुभ् )
जीवपोतो भवाम्भोधौ मिथ्यात्वादिकरन्ध्रवान्
आस्रवति विनाशार्थं कर्माम्भः सुचिरं भ्रमात् ।।५१।।

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अनुवाद : संसाररूपी समुद्रमां मिथ्यात्वादिरूप छेदोथी संयुक्त जीवरूपी नाव
भ्रम (अज्ञान अने परिभ्रमण)ना कारणे घणा काळथी आत्मविनाश माटे कर्मरूपी
जळनुं ग्रहण करे छे.
विशेषार्थ : जेम छिद्रयुक्त नाव परिभ्रमण करीने छिद्रद्वारा जळनुं ग्रहण करती थकी
अंते समुद्रमां डूबीने पोताने नष्ट करे छे तेवी ज रीते आ जीव पण संसारमां परिभ्रमण करतो
थको मिथ्यात्वादि द्वारा कर्मोनो आस्रव करीने आ ज दुःखमय संसारमां फर्या करे छे. तात्पर्य ए
छे के दुःखनुं कारण आ कर्मोनो आस्रव ज छे, तेथी तेनो त्याग करवो जोईए. आ जातना विचारनुं
नाम आस्रवभावना छे. ५१.
(अनुष्टुभ् )
कर्मास्रवनिरोधोऽत्र संवरो भवति ध्रुवम्
साक्षादेतदनुष्ठान मनोवाक्कायसंवृतिः ।।५२।।
अनुवाद : कर्मोना आस्रवने रोकवो, ते निश्चयथी संवर कहेवाय छे. आ
संवरनुं साचुं अनुष्ठान मन, वचन अने कायानी अशुभ प्रवृत्ति रोकवी ते ज छे.
विशेषार्थ : जे मिथ्यात्व अने अविरति आदि परिणामो द्वारा कर्म आवे छे तेमने
आस्रव तथा तेमना निरोधने संवर कहेवामां आवे छे. आस्रव जो संसारनुं कारण छे तो संवर
मोक्षनुं कारण छे. तेथी आस्रव हेय अने संवर उपादेय छे. आ रीते संवरना स्वरूपनो विचार
करवो, ए संवरभावना कहेवाय छे. ५२.
(अनुष्टुभ् )
निर्जरा शातनं प्रोक्ता पूर्वोपार्जितकर्मणाम्ः
तपोभिर्बहुभिः सा स्याद्वैराग्याश्रित चेष्टितैः ।।५३।।
अनुवाद : पूर्वोपार्जित कर्मो धीरे धीरे नष्ट करवा, ते निर्जरा कहेवाय छे,
ते वैराग्यना आलंबनथी प्रवर्तता घणा तप द्वारा थाय छे. आ रीते निर्जराना
स्वरूपनो विचार करवो, ए निर्जरा भावना छे. ५३.
(अनुष्टुभ् )
लोकः सर्वोऽपि सर्वत्र सापायस्थितिरध्रुवः
दुःखकारीति कर्तव्या मोक्ष एव मतिः सताम् ।।५४।।
अनुवाद : आ बधो लोक सर्वत्र विनाशयुक्त स्थिति सहित, अनित्य अने

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दुःखदायी छे. तेथी विवेकी जीवोए पोतानी बुद्धि मोक्षना विषयमां ज लगाववी
जोईए.
विशेषार्थ : आ चौद राजु ऊंचो लोक अनादिनिधन छे, एनो कोई कर्ता हर्ता नथी.
जीव पोताना कर्म अनुसार आ लोकमां परिभ्रमण करतो थको कोई वार नारकी, कोई वार तिर्यंच,
कोई वार देव अने कोई वार मनुष्य थाय छे. आमां परिभ्रमण करता जीवने कदी निराकुळ सुख
प्राप्त थतुं नथी. ते निराकुळ सुख मोक्ष प्राप्त थतां ज उत्पन्न थाय छे तेथी विवेकी जीवे उक्त
मोक्षनी प्राप्तिनो ज प्रयत्न करवो जोईए. आ रीते लोकना स्वभावनो विचार करवो, ए
लोकभावना कहेवाय छे. ५४.
(अनुष्टुभ् )
रत्नत्रयपरिप्राप्तिर्बोधिः सातीव दुर्लभा
लब्धा कथं कथंचिच्चेत् कार्यो यत्नो महानिह ।।५५।।
अनुवाद : सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र स्वरूप रत्नत्रयनी
प्राप्तिनुं नाम बोधि छे. ते अत्यंत दुर्लभ छे. जो ते कोई पण उपाये प्राप्त थई
जाय तो पछी तेना विषयमां महान प्रयत्न करवो जोईए. आ रीते रत्नत्रयस्वरूप
बोधिनी प्राप्तिनी दुर्लभतानो विचार करवो, ए बोधिदुर्लभभावना छे. ५५.
(अनुष्टुभ् )
जिनधर्मोऽयमत्यन्तं दुर्लभो भविनां मतः
तथा ग्राह्यो यथा साक्षादामोक्षं सह गच्छति ।।५६।।
अनुवाद : संसारी प्राणीओने माटे आ जैनधर्म अत्यंत दुर्लभ मानवामां
आव्यो छे. उक्त धर्मने ए रीते ग्रहण करवो जोईए के जेथी ते साक्षात् मोक्ष
प्राप्त थतां सुधी साथे ज आवे. ५६.
(अनुष्टुभ् )
दुःखग्राहगणाकीर्णे संसारक्षारसागरे
धर्मपोतं परं प्राहुस्तारणार्थं मनीषिणः ।।५७।।
अनुवाद : विद्वान् पुरुषो दुःखरूपी हिंसक जळजंतुओना समूहथी व्याप्त आ
संसाररूपी खारा समुद्रमां तेनाथी पार थवा माटे धर्मरूपी नौकाने उत्कृष्ट बतावे छे.

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आ रीते धर्मना स्वरूपनो विचार करवो तेने धर्मभावना कहेवामां आवे छे. ५७.
(अनुष्टुभ् )
अनुप्रेक्षा इमाः सद्भिः सर्वदा हृदये धृताः
कुर्वते तत्परं पुण्यं हेतुर्यत्स्वर्गमोक्षयोः ।।५८।।
अनुवाद : सज्जनो द्वारा सदा हृदयमां धारण करवामां आवती आ बार
अनुप्रेक्षाओ ते उत्कृष्ट पुण्य उत्पन्न करे छे के जे स्वर्ग अने मोक्षनुं कारण थाय
छे. ५८.
(अनुष्टुभ् )
आद्योत्तमक्षमा यत्र यो धर्मो दशभेदभाक्
श्रावकैरपि सेव्योऽसौ यथाशक्ति यथागमम् ।।५९।।
अनुवाद : जे धर्ममां उत्तम क्षमा सौथी पहेला छे तथा जे दस भेदोथी
संयुक्त छे, ते धर्मनुं सेवन श्रावकोए पण पोतानी शक्ति अने आगम अनुसार करवुं
जोईए. ५९.
(अनुष्टुभ् )
अन्तस्तत्त्वं विशुद्धात्मा बहिस्तत्त्वं दयाङ्गिषु
द्वयोः सन्मीलने मोक्षस्तस्माद् द्वितयमाश्रयेत् ।।६०।।
अनुवाद : अभ्यंतर तत्त्व कर्मकलंक रहित विशुद्ध आत्मा अने बाह्य तत्त्व
प्राणीओ प्रत्ये दयाभाव छे. आ बन्ने मळतां मोक्ष थाय छे. तेथी ते बन्नेनो आश्रय
करवो जोईए. ६०.
(अनुष्टुभ् )
कर्मभ्यः कर्मकार्येभ्यः पृथग्भूतं चिदात्मकम्
आत्मानं भावयेन्नित्यं नित्यानन्दपदप्रदम् ।।६१।।
अनुवाद : जे चैतन्यस्वरूप आत्मा कर्मो तथा तेना कार्यभूत रागादि विभावो
अने शरीर आदिथी भिन्न छे ते शाश्वतिक आनंदस्वरूप पदनो अर्थात् मोक्षने
आपनार आत्मानो सदा विचार करवो जोईए. ६१.

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(अनुष्टुभ् )
इत्युपासक संस्कारः कृतः श्रीपद्मनन्दिना
येषामेतदनुष्ठानं तेषां धर्मो ऽतिनिर्मलः ।।६२।।
अनुवाद : आ रीते आ उपासक संस्कार अर्थात् श्रावकनुं चारित्र श्री पद्मनंदी
मुनिद्वारा रचवामां आव्युं छे. जे मनुष्य आनुं आचरण करे छे तेमने अत्यंत निर्मळ
धर्म थाय छे. ६२.
आ रीते श्रावकाचार समाप्त थयुं. ६.

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७. देशव्रतउद्योतन
[ ७. देशव्रतोद्द्योतनम् ]
(शार्दूलविक्रीडित)
बाह्याभ्यन्तरसंगवर्जनतया ध्यानेन शुक्लेन यः
कृत्वा कर्मचतुष्टयक्षयमगात् सर्वज्ञतां निश्चितम्
तेनोक्तानि वचांसि धर्मकथने सत्यानि नान्यानि तत्
भ्राम्यत्यत्र मतिस्तु यस्य स महापापी न भव्योऽथवा
।।।।
अनुवाद : जे बाह्य अने अभ्यंतर परिग्रह छोडीने तथा शुक्ल ध्यान द्वारा
चार घाती कर्मोनो नाश करीने निश्चयथी सर्वज्ञताने प्राप्त थया छे तेमना द्वारा धर्मना
व्याख्यानमां कहेवामां आवेला वचनो सत्य छे, एनाथी भिन्न राग-द्वेषथी दूषित
हृदयवाळा कोई अल्पज्ञना वचनो सत्य नथी. तेथी जे जीवनी बुद्धि उक्त सर्वज्ञना
वचनोमां भ्रमने प्राप्त थाय छे ते अतिशय पापी छे, अथवा ते भव्य ज नथी. १.
(शार्दूलविक्रीडित)
एको ऽप्यत्र करोति यः स्थितिमतिप्रीतः शुचौ दर्शने
स श्लाघ्यः खलु दुःखितो ऽप्युदयतो दुष्कर्मणः प्राणभृत्
अन्यैः किं प्रचुरैरपि प्रमुदितैरत्यन्तदूरीकृत-
स्फीतानन्दभरप्रदामृतपथैर्मिथ्यापथे प्रस्थितैः
।।।।
अनुवाद : जे एक पण भव्य प्राणी अत्यंत प्रसन्नताथी अहीं निर्मळ
सम्यग्दर्शनना विषयमां स्थिति करे छे ते पापकर्मना उदयथी दुःखी होवा छतां
पण निश्चयथी प्रशंसनीय छे. एनाथी उल्टुं जे मिथ्यामार्गमां प्रवृत्त थईने महान
सुखनुं प्रदान करनार मोक्षना मार्गथी बहु दूर छे ते जो संख्यामां अधिक अने
सुखी पण होय तोपण तेमनाथी कांई प्रयोजन नथी. २.

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विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के जो निर्मळ सम्यग्द्रष्टि जीव एक पण होय
तो ते प्रशंसा योग्य छे. परंतु मिथ्यामार्गमां प्रवृत्त थयेला प्राणी संख्यामां जो अधिक होय
तो पण ते प्रशंसनीय नथी
निन्दनीय ज छे. निर्मळ सम्यग्द्रष्टि जीवनुं पापकर्मना उदयथी
वर्तमानमां दुःखी रहेवुं एटलुं हानिकारक नथी जेटलुं मिथ्याद्रष्टि जीवनुं पुण्यकर्मना उदयथी
वर्तमानमां सुखमां स्थित रहेवानुं हानिकारक छे. २.
(शार्दूलविक्रीडित)
बीजं मोक्षतरोद्रर्शं भवतरोर्मिथ्यात्वमाहुर्जिनाः
प्राप्तायां द्रशि तन्मुमुक्षुभिरलं यत्नो विधेयो बुधैः
संसारे बहुयोनिजालजटिले भ्राम्यन् कुकर्मावृतः
क्व प्राणी लभते महत्यपि गते काले हितां तामिह
।।।।
अनुवाद : जिन भगवान् सम्यग्दर्शनने मोक्षरूपी वृक्षनुं बीज तथा
मिथ्यादर्शनने संसाररूपी वृक्षनुं बीज बतावे छे. तेथी ते सम्यग्दर्शन प्राप्त थतां
मोक्षाभिलाषी विद्वानोए तेना संरक्षण आदिना विषयमां महान् प्रयत्न करवो
जोईए. कारण ए छे के पापकर्मथी आछन्न थईने घणी (चोरासी लाख)
योनिओना समूहथी जटिल आ संसारमां परिभ्रमण करनार प्राणी दीर्घ काळ
वीतवा छतां पण हितकारक ते सम्यग्दर्शन क्यां प्राप्त करी शके छे? अर्थात्
प्राप्त करी शकतो नथी. ३.
(शार्दूलविक्रीडित)
सम्प्राप्ते ऽत्र भवे कथं कथमपि द्राधीयसानेहसा
मानुष्ये शुचिदर्शने च महता कार्यं तपो मोक्षदम्
नो चेल्लोकनिषेधतो ऽथ महतो मोहादशक्तेरथो
सम्पद्येत न तत्तदा गृहवतां षट्कर्मयोग्यं व्रतम्
।।।।
अनुवाद : अहीं संसारमां जो कोई प्रकारे अतिशय दीर्घकाळमां मनुष्यभव
अने निर्मळ सम्यग्दर्शन प्राप्त थई गयुं होय तो पछी महापुरुषे मोक्षदायक तपनुं
आचरण करवुं जोईए. परंतु जो कुटुंबीजन वगेरेना रोकवाथी, महामोहथी अथवा
अशक्तिना कारणे ते तपश्चचरण करी न शकाय तो पछी गृहस्थ श्रावकोना छ आवश्यक