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‘सर्व प्रथम ॠषभ जिनेन्द्र द्वारा शरू थयो अने दानविधिनो प्रचार राजा श्रेयांसथी
शरू थयो. एमनो परस्पर संबंध थतां अहीं भरतक्षेत्रमां धर्मनी स्थिति थई. १.
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छे. ५.
मुनिओनी स्थिति, धर्म अने दान आ त्रणेयनुं मूळकारण गृहस्थ श्रावक छे. ६.
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सामायिकव्रत मानवामां आवे छे. ८.
परित्याग अवश्य करवो जोईए. ९.
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देश, दुर्ग अने सैन्य) थी युक्त राज्यने बळवान कर्युं छे.
धर्मरूपी शत्रुनो नाश करवा माटे पोताना राज्यने आ सात व्यसनोरूप सात राज्यांगोथी ज सुसज्ज
करी लीधुं छे. १३.
जाय छे. अभिप्राय ए छे के ते पोते पण परमात्मा बनी जाय छे. १४.
धिक्कार छे. १५.
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अवलोकनमां सहायक थई शके छे, नहि के आत्मावलोकनमां. आत्मावलोकनमां तो केवळ गुरुना
निमित्ते प्राप्त थयेलुं अध्यात्मज्ञान ज सहायक थाय छे. १९.
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हुं समजुं छुं.
थई जाय छे. अभिप्राय ए छे के देशव्रतना परिपालननी सफळता एमां ज
छे के तेना पछी पूर्ण संयम पण धारण करवामां आवे. २२.
मूळगुण कहेवामां आवे छे.
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होता नथी तेमनी स्थिति लांबा समय सुधी रही शकती नथी.
द्रढ रहेती नथी तेथी आ श्रावकना मूळगुण कहेवाय छे. एमनी शरूआतमां सम्यग्दर्शन अवश्य
होवुं जोईए, केमके तेना विना घणुं करीने व्रत आदि बधुं निष्फळ ज रहे छे. २३.
अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत अने परिग्रहपरिमाणाणुव्रत. मन,
वचन अने काया द्वारा कृत, कारित अने अनुमोदनारूपे (नव प्रकारे) जे संकल्पपूर्वक त्रस
जीवोनी हिंसानो परित्याग करवामां आवे छे तेने अहिंसाणुव्रत कहे छे. स्थूळ असत्य वचन
स्वयं न बोलवुं, बीजाने ए माटे प्रेरित न करवा तथा जे सत्य वचनथी बीजा विपत्तिमां
पडता होय एवा सत्य वचन पण न बोलवा, तेने सत्याणुव्रत कहे छे. मूकेलुं, पडेलुं अथवा
भुलाई गयेलुं परधन आप्या विना लेवुं नहि ते अचौर्याणुव्रत कहेवाय छे. परस्त्री साथे न
तो पोते संबंध राखवो अने न बीजाने पण ए माटे प्रेरित करवा, तेने ब्रह्मचर्याणुव्रत
अथवा स्वदारसंतोष व्रत कहेवाय छे. धन
पर्वत आदिनी मर्यादा करीने तेनी बहार न जवानो मरण पर्यन्त नियम करी लेवो तेने
दिग्व्रत कहेवाय छे. जे कामोथी कोई प्रकारनो लाभ न थतां केवळ पाप ज उत्पन्न थाय
छे ते अनर्थदंड कहेवाय छे. अने तेना त्यागने अनर्थदंडव्रत कहेवाय छे. जे वस्तु एक ज
वार भोगववामां आवे छे ते भोग कहेवाय छे
भोगोपभोगपरिमाण व्रत कहे छे. आ त्रणे व्रत मूळगुणोनी वृद्धिनां कारण छे, तेथी एमने
गुणव्रत कहेवामां आवे छे. देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास अने वैयावृत्य ए चार
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नगर आदिनी मर्यादा करीने तेनी अंदर ज रहेवानो नियम करवो ते देशावकाशिक व्रत
कहेवाय छे. निश्चित समय सुधी पांचे पापोनो पूर्णरूपे त्याग करवो तेने सामायिक कहे छे.
आ सामायिक जिनचैत्यालयादि रूप कोई निर्बाध एकान्त स्थानमां करवामां आवे छे.
सामायिकमां स्थिर थईने एम विचार करवो जोईए के जे संसारमां रहुं छुं ते अशरण
छे, अशुभ छे, अनित्य छे, दुःखस्वरूप छे तथा आत्मस्वरूपथी भिन्न छे. परंतु एनाथी
विपरीत मोक्ष शरण छे, नित्य छे, निराकुळ सुखस्वरूप छे अने आत्मस्वरूपथी अभिन्न
छे; इत्यादि. अष्टमी अने चतुर्दशीना दिवसे अन्न, पान (दूध आदि), खाद्य (लाडु
करवो; तेने प्रोषधोपवास कहेवाय छे. प्रोषधोपवास ए पद प्रोषध अने उपवास, आ बे
शब्दोना समासथी निष्पन्न थयुं छे. एमां प्रोषध शब्दनो अर्थ एकवार भोजन (एकाशन)
तथा उपवास शब्दनो अर्थ चार प्रकारना आहारनो त्याग करवो एवो छे. अभिप्राय ए
छे के एकाशनपूर्वक जे उपवास करवामां आवे छे ते प्रोषधोपवास कहेवाय छे. जेम के
अष्टमीना दिवसे उपवास करवो जोईए. आ रीते प्रोषधोपवासमां सोळपहोर माटे आहारनो
त्याग करवामां आवे छे. प्रोषधोपवासना दिवसे पांच पाप, स्नान, अलंकार तथा सर्व
प्रकारनो आरंभ छोडीने ध्यान अध्ययनादिमां ज समय वीताववो जोईए. कोई प्रत्युपकार
आदिनी अभिलाषा न राखतां जे मुनि आदि सत्पात्रोने दान आपवामां आवे छे, तेने
वैयावृत्य कहे छे. आ वैयावृत्यमां दान सिवाय संयमी जनोनी यथायोग्य सेवा
तथा भोगोपभोगपरिमाणव्रतनो शिक्षाव्रतमां समावेश करवामां आव्यो छे. २४.
साथोसाथ तेमणे रात्रिभोजन छोडीने पाणी पण वस्त्रथी गाळेलुं पीवुं जोईए. २५.
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पण परित्याग करी देवो जोईए. २६.
होय ते उपभोग कहेवाय छे.
जन्ममां पण अतिशय वृद्धि पामतुं रहे. २८.
करनार जीवोनो पण यथायोग्य विनय करवो जोईए. २९.
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थाय छे. ३१.
उपाय केवळ दान छे. तेथी जो ते पात्रदान करे नहि तो पछी ते उक्त संचित पापद्वारा
संसारमां ज परिभ्रमण करवानो छे. आ रीते उक्त दानहीन श्रावकने माटे ते बंधनना ज
कारण बनी जाय छे. ३२.
होय? अवश्य होय. ३३.
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छे, एमां संदेह नथी. ३५.
होई शके नहि.
चित्त दयाथी भींजायुं नथी तेओ कदी पण धर्मात्मा होई शके नहि. कारण के धर्मनुं मूळ तो ते
दया ज छे. ३७.
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तो जेम तेना बधा फूल विखराई जाय छे तेवी ज रीते निर्दय मनुष्यना ते बधा गुण पण दयाना
अभावमां विखराई जाय छे
छे. ४१.
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जिनेन्द्र भगवान द्वारा बार अनुप्रेक्षाओ कहेवामां आवी छे. ४३
छे. आ रीते वारंवार विचार करवानुं नाम अनित्य भावना छे. ४५.
तेनाथी जीवनुं रक्षण करनार पण संसारमां कोई नथी. आ रीते विचार करवो तेने
अशरणभावना कहेवामां आवे छे. ४६.
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मोक्षमां ज छे. तेथी हे भव्यजनो! तेने ज सिद्ध करवुं जोईए. आ रीते
संसारना स्वरूपनुं चिंतन करवुं, ए संसारभावना छे. ४७.
भोगवे छे. आ रीते वारंवार विचार करवो, तेने एकत्वभावना कहे छे. ४८.
भला शुं कहेवुं? अर्थात् तेओ तो जीवथी भिन्न छे ज. आ रीते विचार करवो तेनुं
नाम अन्यत्वभावना छे. ४९.
थई जाय छे. आ रीते शरीरना स्वरूपनो विचार करवो, ए अशुचिभावना छे. ५०.
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जळनुं ग्रहण करे छे.
थको मिथ्यात्वादि द्वारा कर्मोनो आस्रव करीने आ ज दुःखमय संसारमां फर्या करे छे. तात्पर्य ए
छे के दुःखनुं कारण आ कर्मोनो आस्रव ज छे, तेथी तेनो त्याग करवो जोईए. आ जातना विचारनुं
नाम आस्रवभावना छे. ५१.
मोक्षनुं कारण छे. तेथी आस्रव हेय अने संवर उपादेय छे. आ रीते संवरना स्वरूपनो विचार
करवो, ए संवरभावना कहेवाय छे. ५२.
स्वरूपनो विचार करवो, ए निर्जरा भावना छे. ५३.
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जोईए.
कोई वार देव अने कोई वार मनुष्य थाय छे. आमां परिभ्रमण करता जीवने कदी निराकुळ सुख
प्राप्त थतुं नथी. ते निराकुळ सुख मोक्ष प्राप्त थतां ज उत्पन्न थाय छे तेथी विवेकी जीवे उक्त
मोक्षनी प्राप्तिनो ज प्रयत्न करवो जोईए. आ रीते लोकना स्वभावनो विचार करवो, ए
लोकभावना कहेवाय छे. ५४.
जाय तो पछी तेना विषयमां महान प्रयत्न करवो जोईए. आ रीते रत्नत्रयस्वरूप
बोधिनी प्राप्तिनी दुर्लभतानो विचार करवो, ए बोधिदुर्लभभावना छे. ५५.
प्राप्त थतां सुधी साथे ज आवे. ५६.
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छे. ५८.
जोईए. ५९.
करवो जोईए. ६०.
आपनार आत्मानो सदा विचार करवो जोईए. ६१.
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धर्म थाय छे. ६२.
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कृत्वा कर्मचतुष्टयक्षयमगात् सर्वज्ञतां निश्चितम्
भ्राम्यत्यत्र मतिस्तु यस्य स महापापी न भव्योऽथवा
व्याख्यानमां कहेवामां आवेला वचनो सत्य छे, एनाथी भिन्न राग-द्वेषथी दूषित
हृदयवाळा कोई अल्पज्ञना वचनो सत्य नथी. तेथी जे जीवनी बुद्धि उक्त सर्वज्ञना
वचनोमां भ्रमने प्राप्त थाय छे ते अतिशय पापी छे, अथवा ते भव्य ज नथी. १.
स श्लाघ्यः खलु दुःखितो ऽप्युदयतो दुष्कर्मणः प्राणभृत्
स्फीतानन्दभरप्रदामृतपथैर्मिथ्यापथे प्रस्थितैः
पण निश्चयथी प्रशंसनीय छे. एनाथी उल्टुं जे मिथ्यामार्गमां प्रवृत्त थईने महान
सुखनुं प्रदान करनार मोक्षना मार्गथी बहु दूर छे ते जो संख्यामां अधिक अने
सुखी पण होय तोपण तेमनाथी कांई प्रयोजन नथी. २.
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तो पण ते प्रशंसनीय नथी
वर्तमानमां सुखमां स्थित रहेवानुं हानिकारक छे. २.
क्व प्राणी लभते महत्यपि गते काले हितां तामिह
मोक्षाभिलाषी विद्वानोए तेना संरक्षण आदिना विषयमां महान् प्रयत्न करवो
जोईए. कारण ए छे के पापकर्मथी आछन्न थईने घणी (चोरासी लाख)
योनिओना समूहथी जटिल आ संसारमां परिभ्रमण करनार प्राणी दीर्घ काळ
वीतवा छतां पण हितकारक ते सम्यग्दर्शन क्यां प्राप्त करी शके छे? अर्थात्
प्राप्त करी शकतो नथी. ३.
मानुष्ये शुचिदर्शने च महता कार्यं तपो मोक्षदम्
सम्पद्येत न तत्तदा गृहवतां षट्कर्मयोग्यं व्रतम्
आचरण करवुं जोईए. परंतु जो कुटुंबीजन वगेरेना रोकवाथी, महामोहथी अथवा
अशक्तिना कारणे ते तपश्चचरण करी न शकाय तो पछी गृहस्थ श्रावकोना छ आवश्यक