Padmanandi Panchvinshati-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 21-80 (4. Aekatvasaptati),1 (5. Yatibhavnashtkam),2 (5. Yatibhavnashtkam),3 (5. Yatibhavnashtkam),4 (5. Yatibhavnashtkam),5 (5. Yatibhavnashtkam),6 (5. Yatibhavnashtkam),7 (5. Yatibhavnashtkam),8 (5. Yatibhavnashtkam),9 (5. Yatibhavnashtkam); 5. Yatibhavnashtkam.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 10 of 21

 

Page 155 of 378
PDF/HTML Page 181 of 404
single page version

background image
अने तेने सांभळी लेतां बधुं ज सांभळी लीधुं छे. २०.
(अनुष्टुभ् )
इति ज्ञेयं तदेवैकं श्रवणीयं तदेव हि
द्रष्टव्यं च तदेवैकं नान्यन्निश्चयतो बुधैः ।।२१।।
अनुवाद : आ कारणे विद्वान् मनुष्योए निश्चयथी ते ज एक उत्कृष्ट
आत्मतेज जाणवा योग्य छे, ते ज एक सांभळवा योग्य छे तथा ते ज एक देखवा
योग्य छे; तेनाथी भिन्न अन्य कांई पण न जाणवा योग्य छे, न सांभळवा योग्य
छे अने न देखवा योग्य छे. २१.
(अनुष्टुभ् )
गुरूपदेशतो ऽभ्यासाद्वैराग्यादुपलभ्य यत्
कृतकृत्यो भवेद्योगी तदेवैकं न चापरम् ।।२२।।
अनुवाद : योगीओ गुरुना उपदेशथी, अभ्यासथी अने वैराग्यथी ते
ज एक आत्मतेज प्राप्त करीने कृतकृत्य (मुक्त) थाय छे, नहि के तेनाथी भिन्न
कोई अन्यने प्राप्त करीने. २२.
(अनुष्टुभ् )
तत्प्रतिप्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता
निश्चितं स भवेद्भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम् ।।२३।।
अनुवाद : ते आत्मतेज प्रत्ये मनमां प्रेम धारण करीने जेणे तेनी वात
पण सांभळी छे ते निश्चयथी भव्य छे अने भविष्यमां प्राप्त थनारी मुक्तिनुं पात्र
छे. २३.
(अनुष्टुभ् )
जानीते यः परं ब्रह्म कर्मणः पृथगेकताम्
गतं तद्गतबोधात्मा तत्स्वरूपं स गच्छति ।।२४।।
अनुवाद : जे ज्ञानस्वरूप जीव कर्मथी पृथक् थईने अभेद अवस्थाने प्राप्त
थई ते उत्कृष्ट आत्माने जाणे छे अने तेमां लीन थाय छे ते पोते ज तेना स्वरूपने
प्राप्त थई जाय छे अर्थात् परमात्मा बनी जाय छे. २४.

Page 156 of 378
PDF/HTML Page 182 of 404
single page version

background image
(अनुष्टुभ् )
केनापि हि परेण स्यात्संबन्धो बन्धकारणम्
परैकत्वपदे शान्ते मुक्तये स्थितिरात्मनः ।।२५।।
अनुवाद : कोई पण परपदार्थ साथे जे संबंध थाय छे ते बंधनुं कारण थाय
छे, परंतु शान्त अने उत्कृष्ट एकत्वपदमां जे आत्मानी स्थिति थाय छे ते मुक्तिनुं कारण
थाय छे. २५.
(अनुष्टुभ् )
विकल्पोर्मिभरत्यक्तः शान्तः कैवल्यमाश्रितः
कर्माभावे भवेदात्मा वाताभावे समुद्रवत् ।।२६।।
अनुवाद : कर्मना अभावमां आ आत्मा वायुना अभावमां समुद्रसमान विकल्पो-
रूप लहेरोना भारथी रहित अने शान्त थईने कैवल्य अवस्थाने प्राप्त थई जाय छे.
विशेषार्थ : जेवी रीते वायुनो संचार न थतां समुद्र लहरियोथी रहित, शान्त अने
एकत्व अवस्था युक्त थाय छे तेवी ज रीते ज्ञानावरणादि कर्मोनो अभाव थई जतां आ आत्मा
सर्व प्रकारना विकल्पोथी रहित, शान्त (क्रोधादि विकारो रहित) अने केवळी अवस्थाथी युक्त थई
जाय छे. २६.
(अनुष्टुभ् )
संयोगेन यदायातं मत्तस्तत्सकलं परम्
तत्परित्यागयोगेन मुक्तो ऽहमिति मे मतिः ।।२७।।
अनुवाद : संयोगथी जे कांई पण प्राप्त थयुं छे ते सर्व माराथी भिन्न छे.
तेनो परित्याग करी देवाना संबंधथी हुं मुक्त थई गयो छुं एवो मारो निश्चय छे.
विशेषार्थ : आ प्राणी स्त्री, पुत्र, मित्र अने धन संपत्ति आदि पर पदार्थोना संयोगथी
ज अनेक प्रकारना दुःखो भोगवे छे, तेथी उक्त संयोगनो ज परित्याग करवो जोईए. एम
करवाथी मोक्षनी प्राप्ति थाय छे. २७.
(अनुष्टुभ् )
किं मे करिष्यतः क्रूरौ शुभाशुभनिशाचरौ
रागद्वेषपरित्यागमहामन्त्रेण कीलितौ ।।२८।।

Page 157 of 378
PDF/HTML Page 183 of 404
single page version

background image
अनुवाद : जे पुण्य अने पापरूप बन्ने दुष्ट राक्षसोने राग-द्वेषना
परित्यागरूप महामंत्र द्वारा कीलित करी देवामां आव्या छे तेओ हवे मारुं (आत्मानुं)
शुं करी शकशे? अर्थात् तेओ कांई पण हानि करी शकशे नहि.
विशेषार्थ : जे पुण्य अने पापरूप कर्म प्राणीने अनेक प्रकारनुं कष्ट (परतंत्रता आदि)
आप्या करे छे तेमनो बंध राग अने द्वेषना निमित्ते ज थाय छे. तेथी उक्त रागद्वेषनो परित्याग करी
देवाथी तेमनो बंध स्वयमेव अटकी जाय छे अने आ रीते आत्मा स्वतंत्र थई जाय छे. २८.
(अनुष्टुभ् )
संबन्धेऽपि सति त्याज्यौ रागद्वेषौ महात्मभिः
विना तेनापि ये कुर्युस्ते कुर्युः किं न वातुलाः ।।२९।।
अनुवाद : महात्माओए संबंध (निमित्त) होवा छतां पण ते राग-द्वेषनो
परित्याग करवो जोईए. जे जीव ते (संबंध) ना विना पण रागद्वेष करे छे
तेओ वातरोगथी पिडायेला रोगी समान पोतानुं क्युं अहित नथी करता? अर्थात्
तेओ पोतानुं सर्व प्रकारे अहित करे छे. २९.
(अनुष्टुभ् )
मनोवाक्कायचेष्टाभिस्तद्विधं कर्म जृभ्भते
उपास्यते तदेवैकं ताभ्यो भिन्नं मुमुक्षुभिः ।।३०।।
अनुवाद : मन, वचन अने कायानी प्रवृत्तिथी ते प्रकारनुं अर्थात् तदनुसार
पुण्य-पापरूप कर्म वृद्धि पामे छे. माटे मुमुक्षुओए उक्त मन-वचन-कायानी प्रवृत्तिथी
भिन्न ते ज एक आत्मतत्त्वनी उपासना कर्या करे छे. ३०.
(अनुष्टुभ् )
द्वैततो द्वैतमद्वैतादद्वैतं खलु जायते
लोहाल्लोहमयं पात्रं हेम्नो हेममय यथा ।।३१।।
अनुवाद : द्वैत भावथी नियमथी द्वैत अने अद्वैतभावथी अद्वैत उत्पन्न थाय
छे. जेम लोढामांथी लोढानुं अने सोनामांथी सोनानुं ज वासण उत्पन्न थाय छे.
विशेषार्थ : आत्मा अने कर्म तथा बंध अने मोक्ष इत्यादि प्रकारनी बुद्धि ते
द्वैतबुद्धि कहेवाय छे. एवी बुद्धिथी द्वैतभाव ज बनी रहे छे के जेथी संसार परिभ्रमण

Page 158 of 378
PDF/HTML Page 184 of 404
single page version

background image
अनिवार्य थई जाय छे. परंतु हुं एक ज छुं, अन्य बाह्य पदार्थो न मारा छे अने न
हुं तेमनो छुं, आ जातनी बुद्धि अद्वैतबुद्धि कहेवाय छे. आ प्रकारना विचारथी ते अद्वैतभाव
सदा जगृत रहे छे के जेथी अंते मोक्ष पण प्राप्त थई जाय छे. एना आटे अहीं ए
उदाहरण आपवामां आव्युं छे के जेवी रीते लोढानी धातुमांथी लोहमय अने सुवर्णमांथी
सुवर्णमय ज पात्र बने छे तेवी ज रीते द्वैतबुद्धिथी द्वैतभाव तथा अद्वैतबुद्धिथी अद्वैतभाव
ज थाय छे. ३१.
(अनुष्टुभ् )
निश्चयेन तदेकत्वमद्वैतममृतं परम्
द्वितीयेन कृतं द्वैतं संसृतिर्व्यवहारतः ।।३२।।
अनुवाद : निश्चयथी जे एकत्व छे ते ज अद्वैत छे के जे उत्कृष्ट अमृत अर्थात्
मोक्षस्वरूप छे. परंतु बीजा (कर्म के शरीर आदि) ना निमित्ते जे द्वैतभाव उत्पन्न
थाय छे ते व्यवहारनी अपेक्षा राखवाथी संसारनुं कारण थाय छे. ३२.
(अनुष्टुभ् )
बन्धमोक्षौ रतिद्वेषौ कर्मात्मानौ शुभाशुभौ
इति द्वैताश्रिता बुद्धिरसिद्धिरभिधीयते ।।३३।।
अनुवाद : बंध अने मोक्ष, राग अने द्वेष, कर्म अने आत्मा तथा शुभ अने अशुभ;
आ जातनी बुद्धि द्वैतना आश्रये थाय छे जे संसारनुं कारण कहेवाय छे. ३३.
(अनुष्टुभ् )
उदयोदीरणा सत्ता प्रबन्धः खलु कर्मणः
बोधात्मधाम सर्वेभ्यस्तदेवैकं परं परम् ।।३४।।
अनुवाद : उदय, उदीरणा अने सत्त्व आ बधो निश्चयथी कर्मनो विस्तार
छे. परंतु ज्ञानरूप जे आत्मानुं तेज छे ते ते बधाथी भिन्न, एक अने उत्कृष्ट छे.
विशेषार्थ : स्थिति पूर्ण थतां जीर्ण थयेलुं कर्म जे फळदाननी सन्मुख थाय छे तेने उदय
कहेवामां आवे छे. उदयकाळ प्राप्त न थवा छतां पण अपकर्षण द्वारा जे कर्मनिषेक उदयमां स्थापित
कराववामां आवे छे, तेने उदीरणा कहे छे. ज्ञानावरणादि कर्मप्रकृतिओना कर्मस्वरूपे अवस्थित
रहेवाने सत्त्व कहेवामां आवे छे. ३४.

Page 159 of 378
PDF/HTML Page 185 of 404
single page version

background image
(अनुष्टुभ् )
क्रोधादिकर्मयोगेऽपि निर्विकारं परं महः
विकारकारिभिर्मेधैर्न विकारि नभो भवेत् ।।३५।।
अनुवाद : क्रोधादि कर्मोनो संयोग थवा छतां पण ते उत्कृष्ट आत्मतेज विकार
रहित ज होय छे. बराबर पण छेविकार करनारा वादळाओथी कदी आकाश
विकारयुक्त नथी थतुं.
विशेषार्थ : जेम आकाशमां विकार उत्पन्न करनार वादळाओ रहेवा छतां पण ते
आकाश विकारी थतुं नथी. परंतु स्वभावथी स्वच्छ ज रहे छे. तेवी ज रीते आत्मा साथे क्रोधादि
कर्मोनो संयोग रहेेवा छतां पण आत्मामां विकार उत्पन्न नथी थतो, परंतु ते स्वभावथी निर्विकार
ज रहे छे. ३५.
(अनुष्टुभ् )
नामापि हि परं तस्मान्निश्चयात्तदनामकम्
जन्ममृत्यादि चाशेषं वपुर्धर्मं विदुर्बुधाः ।।३६्।।
अनुवाद : आत्मानो वाचक शब्द पण निश्चयथी तेनाथी भिन्न छे, केम के
निश्चयनयनी अपेक्षाए ते आत्मा संज्ञा रहित (अनिर्वचनीय) छे. अर्थात् वाच्य-
वाचकभाव व्यवहारनयने आश्रित छे, नहि के निश्चयनयने. विद्वानो जन्म अने मरण
आदि बधाने शरीरनो धर्म समजे छे. ३६.
(अनुष्टुभ् )
बोधेनापि युतिस्तस्य चैतन्यस्य तु कल्पना
स च तच्च तयोरैक्यं निश्चयेन विभाव्यते ।।३७।।
अनुवाद : ते चैतन्यनो ज्ञान साथे पण जे संयोग छे ते केवळ कल्पना छे,
केम के ज्ञान अने चैतन्य आ बन्नेमां निश्चयथी अभेद मानवामां आवे छे. ३७.
(अनुष्टुभ् )
क्रियाकारकसंबन्धप्रबन्धोज्झितमूर्ति यत्
एवं ज्योतिस्तदेवैकं शरण्यं मोक्षकाङ्क्षिणाम् ।।३८।।
अनुवाद : जे आत्मज्योति गमनादिरूप क्रिया, कर्ता आदि कारक अने तेमना

Page 160 of 378
PDF/HTML Page 186 of 404
single page version

background image
संबंधना विस्तार रहित छे ते ज एक मात्र ज्योति मोक्षाभिलाषी साधुजनोने
शरणभूत छे. ३८.
(अनुष्टुभ् )
तदेकं परमं ज्ञानं तदेकं शुचि दर्शनम्
चारित्रं च तदेकं स्यात् तदेकं निर्मलं तपः ।।३९।।
अनुवाद : ते ज एक आत्मज्योति उत्कृष्ट ज्ञान छे, ते ज एक आत्मज्योति
निर्मळ सम्यग्दर्शन छे, ते ज एक आत्मज्योति चारित्र छे तथा ते ज एक
आत्मज्योति निर्मळ तप छे.
विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के ज्यारे स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट थई जाय छे
त्यारे शुद्ध चैतन्यस्वरूप एक मात्र आत्मानो ज अनुभव थाय छे. ते वखते सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र अने तप आदिमां कांई पण भेद नथी रहेतो. ए ज रीते ज्ञान,
ज्ञाता अने ज्ञेयनो पण कांई भेद रहेतो नथी; केमके ते वखते ते ज एक मात्र आत्मा ज्ञान,
ज्ञेय अने ज्ञाता बनी जाय छे. तेथी आ अवस्थामां कर्ता अने करण आदि कारकोनो पण बधो
भेद समाप्त थई जाय छे. ३९.
(अनुष्टुभ् )
नमस्यं च तदेवैकं तदेवैकं च मङ्गलम्
उत्तमं च तदेवैकं तदेव शरणं सताम् ।।४०।।
अनुवाद : ते ज एक आत्मज्योति नमस्कार करवा योग्य छे, ते ज एक
आत्मज्योति मंगळस्वरूप छे, ते ज एक आत्मजयोति उत्तम छे तथा ते ज एक
आत्मज्योति साधुओने शरणभूत छे.
विशेषार्थ : ‘‘चत्तारि मंगलं, अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो
धम्मो मंगलं. चत्तारि लोगुत्तमा....’’ इत्यादि प्रकारे जे अरहंत, सिद्ध, साधु अने केवळीकथित धर्म आ
चारने मंगळ, लोकोत्तम तथा शरणभूत बताववामां आव्या छे ते व्यवहारनयनी प्रधानताथी छे. शुद्ध
निश्चयनयनी अपेक्षाए तो केवळ एक ते आत्मज्योति ज मंगळ, लोकोत्तम अने शरणभूत छे. ४०.
(अनुष्टुभ् )
आचारश्च तदेवैकं तदेवावश्यकक्रिया
स्वाध्यायस्तु तदेवैकमप्रमत्तस्य योगिनः ।।४१।।

Page 161 of 378
PDF/HTML Page 187 of 404
single page version

background image
अनुवाद : प्रमाद रहित थयेल मुनिने ते ज एक आत्मज्योतिआचार छे,
ते ज एक आत्मज्योति आवश्यक क्रिया छे तथा ते ज एक आत्मज्योति स्वाध्याय
पण छे. ४१.
(अनुष्टुभ् )
गुणाः शिलानि सर्वाणि धर्मश्चात्यन्तनिर्मलः
संभाव्यन्ते परं ज्योतिस्तदेकमनुतिष्ठतः ।।४२।।
अनुवाद : केवळ ए ज एक उत्कृष्ट आत्मज्योतिनुं अनुष्ठान करनार साधुने
गुणोनी, समस्त शीलोनी अने अत्यन्त निर्मळ धर्मनी पण संभावना छे. ४२.
(अनुष्टुभ् )
तदेवैकं परं रत्नं सर्वशास्त्रमहोदधेः
रमणीयेषु सर्वेषु तदेकं पुरतः स्थितम् ।।४३।।
अनुवाद : समस्त शास्त्ररूपी महासमुद्रनुं उत्कृष्ट रत्न ते ज एक आत्मज्योति
छे तथा ते ज एक आत्मज्योति सर्व रमणीय पदार्थोमां आगळ स्थित अर्थात् श्रेष्ठ
छे. ४३.
(अनुष्टुभ् )
तदेवैकं परं तत्त्वं तदेवैकं परं पदम्
भव्याराध्यं तदेवैकं तदेवैकं परं महः ।।४४।।
अनुवाद : ते ज एक आत्मज्योति उत्कृष्ट तत्त्व छे, ते ज एक आत्मज्योति
उत्कृष्ट पद छे, ते ज एक आत्मज्योति भव्य जीवो द्वारा आराधवा योग्य छे, तथा
ते ज एक आत्मज्योति उत्कृष्ट तेज छे. ४४.
(अनुष्टुभ् )
शस्त्रं जन्मतरुच्छेदि तदेवैकं सतां मतम्
योगिनां योगनिष्ठानां तदेवैकं प्रयोजनम् ।।४५।।
अनुवाद : ते ज एक आत्मज्योति साधुओने जन्मरूपी वृक्ष नष्ट करनार
शस्त्र मानवामां आवे छे तथा समाधिमां स्थित योगीजनोनुं इष्ट प्रयोजन ते ज एक
आत्मज्योतिनी प्राप्ति छे. ४५.

Page 162 of 378
PDF/HTML Page 188 of 404
single page version

background image
(अनुष्टुभ् )
मुमुक्षूणां तदेवैकं मुक्तेः पन्था न चापरः
आनन्दोऽपि न चान्यत्र तद्विहाय विभाव्यते ।।४६।।
अनुवाद : मोक्षाभिलाषी जनोने मोक्षनो मार्ग ते ज एक आत्मज्योति छे,
बीजो नहि. तेना सिवाय बीजा स्थानमां आनंदनी पण संभावना नथी. ४६.
(अनुष्टुभ् )
संसारघोरधर्मेण सदा तप्तस्य देहिनः
यन्त्रधारागृहं शान्तं तदेव हिमशीतलम् ।।४७।।
अनुवाद : शान्त अने बरफ समान शीतळ ते ज आत्मज्योति संसाररूपी
भयानक तापथी निरंतर संताप पामेला प्राणीने यंत्रधारागृह (फुवाराओ सहितनुं घर)
समान आनंददायक छे. ४७.
(अनुष्टुभ् )
तदेवैकं परं दुर्गमगम्यं कर्मविद्विषाम्
तदेवैत्ततिरस्कारकारि सारं निजं बलम् ।।४८।।
अनुवाद : ते ज एक आत्मज्योति कर्मरूपी शत्रुओने दुर्गम एवो उत्कृष्ट
दुर्ग (किल्लो) छे तथा ते ज आ आत्मज्योति आ कर्मरूपी शत्रुओनो तिरस्कार
करनारी पोतानी श्रेष्ठ सेना छे. ४८.
(अनुष्टुभ् )
तदेव महती विद्या स्फु रन्मन्त्रस्तदेव हि
औषधं तदपि श्रेष्ठं जन्मव्याधिविनाशनम् ।।४९।।
अनुवाद : ते ज आत्मज्योति विपुल बोध छे, ते ज प्रकाशमान मंत्र छे,
तथा ते ज जन्मरूपी रोगनो नाश करनारी श्रेष्ठ औषधि छे. ४९.
(अनुष्टुभ् )
अक्षयस्याक्षयानन्दमहाफलभरश्रियः
तदेवैकं परं बीजं निःश्रेयसलसत्तरोः ।।५०।।

Page 163 of 378
PDF/HTML Page 189 of 404
single page version

background image
अनुवाद : ते ज आत्मज्योति शाश्वत सुखरूपी महाफळोना भारथी सुशोभित
एवा अविनश्वर मोक्षरूपी सुंदर वृक्षनुं एक उत्कृष्ट बीज छे. ५०.
(अनुष्टुभ् )
तदेवैकं परं विद्धि त्रैलोक्यगृहनायकम्
येनैकेन विना शङ्के वसदप्येतदुद्वसम् ।।५१।।
अनुवाद : ते ज एक उत्कृष्ट आत्मज्योतिने त्रणे लोकरूपी गृहनो नायक
समजवो जोईए, जे एक विना आ त्रण लोकरूपी गृह निवास सहित होवा छतां
पण तेना विनानुं निर्जन वन समान जणाय छे. अभिप्राय ए छे के अन्य द्रव्यो
होवा छतां पण लोकनी शोभा ते एक आत्मज्योतिथी ज छे. ५१.
(अनुष्टुभ् )
शुद्धं यदेव चैतन्यं तदेवाहं न संशयः
कल्पनयानयाप्येतद्धीनमानन्दमन्दिरम् ।।५२।।
अनुवाद : आनंदना स्थानभूत जे आ आत्मज्योति छे ते ‘‘जे शुद्ध चैतन्य
छे ते ज हुं छुं. एमां संदेह नथी’’ आवी कल्पनाथी पण रहित छे. ५२.
(अनुष्टुभ् )
स्पृहा मोक्षे ऽपि मोहोत्था तन्निषेधाय जायते
अन्यस्मै तत्कथं शान्ताः स्पृहयन्ति मुमुक्षवः ।।५३।।
अनुवाद : मोहना उदयथी उत्पन्न थयेली मोक्षप्राप्तिनी पण अभिलाषा
ते मोक्षनी प्राप्तिमां विध्न नाखनार बने छे, तो पछी भला, शान्त मोक्षाभिलाषी
जीव बीजी कई वस्तुनी इच्छा करे? अर्थात् कोईनी पण नहि. ५३.
(अनुष्टुभ् )
अहं चैतन्यमेवैकं नान्यत्किमपि जातुचित्
संबन्धो ऽपि न केनापि द्रढपक्षो ममेद्रशः ।।५४।।
अनुवाद : हुं एक चैतन्यस्वरूप ज छुं, तेनाथी भिन्न बीजुं कोई पण स्वरूप
मारूं कदी पण होई शके नहि. कोई परपदार्थ साथे मारो संबंध पण नथी, एवो मारो
द्रढ निश्चय छे. ५४.

Page 164 of 378
PDF/HTML Page 190 of 404
single page version

background image
(अनुष्टुभ् )
शरीरादि बहिश्चिन्ताचक्रसंपर्कवर्जितम्
विशुद्धात्मस्थितं चित्तं कुर्वन्नास्ते निरन्तरम् ।।५५।।
अनुवाद : ज्ञानी साधु शरीरादि बाह्य पदार्थ विषयक चिन्ता समूहना संयोग
रहित पोताना चित्तने निरंतर शुद्ध आत्मामां स्थिर करीने रहे छे. ५५.
(अनुष्टुभ् )
एवं सति यदेवास्ति तदस्तु किमिहापरैः
आसाद्यात्मन्निदं तत्त्वं शान्तो भव सुखी भव ।।५६।।
अनुवाद : हे आत्मा, आवी स्थिति होवाथी जे कांई छे ते भले होय. अहीं
अन्य पदार्थोथी भला शुं प्रयोजन छे? अर्थात् कांई पण नहि. आ चैतन्यस्वरूपने
पामीने तुं शान्त अने सुखी रहे. ५६.
(अनुष्टुभ् )
अपारजन्मसन्तानपथभ्रान्तिकृतश्रमम्
तत्त्वामृतमिदं पीत्वा नाशयन्तु मनीषिणः ।।५७।।
अनुवाद : बुद्धिमान पुरुष आ तत्त्वरूपी अमृत पीने अपरिमित जन्मपरंपरा
(संसार)ना मार्गमां परिभ्रमण करवाथी उत्पन्न थयेल थाक दूर करो. ५७.
(अनुष्टुभ् )
अतिसूक्ष्ममतिस्थूलमेकं चानेकमेव यत्
स्वसंवेद्यमवेद्यं च यदक्षरमनक्षरम् ।।५८।।
अनौपम्यमनिर्देश्यमप्रमेयमनाकुलम्
शून्यं पूर्णं च यन्नित्यमनित्यं च प्रचक्ष्यते ।।५९।।
अनुवाद : ते आत्मज्योति अतिशय सूक्ष्म पण छे अने स्थूळ पण छे, एक
पण छे अने अनेक पण छे, स्वसंवेद्य पण छे अने अवेद्य पण छे तथा अक्षर पण
छे अने अनक्षर पण छे. ते ज्योति अनुपम, अनिर्देश्य, अप्रमेय अने अनाकुळ होवाथी
शून्य पण कहेवाय छे अने पूर्ण पण, नित्य पण कहेवाय छे अने अनित्य पण.

Page 165 of 378
PDF/HTML Page 191 of 404
single page version

background image
विशेषार्थ : ते आत्मज्योति निश्चयनयनी अपेक्षाए रूप, रस, गंध अने स्पर्श
रहित होवाना कारणे सूक्ष्म तथा व्यवहारनयनी अपेक्षाए शरीराश्रित होवाथी स्थूळ पण
कहेवाय छे. ए ज रीते ते शुद्ध चैतन्यरूप सामान्य स्वभावनी अपेक्षाए एक अने
व्यवहारनयनी अपेक्षाए भिन्न भिन्न शरीर आदिने आश्रित रहेवाथी अनेक पण कहेवाय
छे. ते स्वसंवेदन प्रत्यक्षद्वारा जाणवा योग्य होवाथी स्वसंवेद्य तथा इन्द्रियजनित ज्ञाननो
अविषय होवाथी अवेद्य पण कहेवाय छे. ते निश्चयथी विनाशरहित होवाथी अक्षर तथा
अकारादि अक्षरोथी रहित होवाने कारणे अथवा व्यवहारनी अपेक्षाए विनष्ट होवाथी अनक्षर
पण कहेवाय छे. ते ज आत्मज्योति उपमा रहित होवाथी अनुपम, निश्चयनयथी शब्दनो
अविषय होवाथी अनिर्देश्य (अवाच्य), सांव्यवहारिक प्रत्यक्षादि प्रमाणोनो विषय न होवाथी
अप्रमेय तथा आकुळता रहित होवाने कारणे अनाकुळ पण छे. ए सिवाय ते मूर्तिक समस्त
बाह्य पदार्थोना संयोगथी रहित छे माटे शून्य अने पोताना ज्ञानादि गुणोथी परिपूर्ण होवाथी
पूर्ण पण मनाय छे. ते द्रव्यार्थिकनयनी अपेक्षाए विनाशरहित होवाथी नित्य तथा पर्यायार्थिक
नयनी अपेक्षाए अनित्य पण कहेवाय छे. ५८
५९.
(अनुष्टुभ् )
निःशरीरं निरालम्बं निःशब्दं निरुपाधि यत्
यिदात्मकं परंज्योतिरवाङ्मानसगोचरम् ।।६०।।
अनुवाद : ते उत्कृष्ट चैतन्यस्वरूप ज्योति शरीर, आलंबन, शब्द अने
बीजा पण अन्य अन्य विशेषणोथी रहित छे; तेथी ते वचन अने मनने पण
अगोचर छे. ६०.
(अनुष्टुभ् )
इत्यत्र गहने ऽत्यन्तदुर्लक्ष्ये परमात्मनि
उच्यते यत्तदाकाशं प्रत्यालेख्यं विलिख्यते ।।६१।।
अनुवाद : आ रीते ते परमात्मा दुरधिगम्य अने अत्यंत दुर्लक्ष्य (अद्रश्य)
होवाथी तेना विषयमां जे कांई पण कहेवामां आवे छे ते आकाशमां चित्रलेखन
समान छे.
विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के जेवी रीते अमूर्त आकाशमां चित्रनुं निर्माण करवुं
असंभव छे तेवी ज रीते अतीन्द्रिय आत्माना विषयमां कांई वर्णन करवुं पण असंभव ज छे.
ते तो केवळ स्वानुभव गोचर छे. ६१.

Page 166 of 378
PDF/HTML Page 192 of 404
single page version

background image
(अनुष्टुभ् )
आस्तां तत्र स्थितो यस्तु चिन्तामात्रपरिग्रहः
तस्यात्र जीवितं श्लाध्यं देवैरपि स पूज्यते ।।६२।।
अनुवाद : जे ते आत्मामां लीन छे ते तो दूर रहो. पण जे तेनुं चिन्तन
मात्र करे छे तेनुं जीवन प्रशंसायोग्य छे, ते देवो द्वारा पण पूजाय छे. ६२.
(अनुष्टुभ् )
सर्वविद्भिरसंसारेः सम्यग्ज्ञानविलोचनैः
एतस्योपासनोपायः साम्यमेकमुदाहृतम् ।।६३।।
अनुवाद : जे सर्वज्ञदेव संसारथी रहित अर्थात् जीवनमुक्त थईने
सम्यग्ज्ञानरूप नेत्र धारण करे छे तेमणे आ आत्माना आराधननो उपाय एक मात्र
समताभाव बताव्यो छे. ६३.
(अनुष्टुभ् )
साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च योगश्चेतोनिरोधनम्
शुद्धोपयोग इत्येते भवन्त्येकार्थवाचकाः ।।६४।।
अनुवाद : साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्तनिरोध अने शुद्धोपयोग; आ
बधा शब्द एक ज अर्थना वाचक छे. ६४.
(अनुष्टुभ् )
नाकृतिर्नाक्षरं वर्णो नो विकल्पश्च कश्चन
शुद्धं चैतन्यमेवैकं यत्र तत्साम्यमुच्यते ।।६५।।
अनुवाद : ज्यां न कोई आकार छे, न अकारादि अक्षर छे, न कृष्णनीलादि
वर्ण छे अने न कोई विकल्पेय छे; परंतु ज्यां केवळ एक चैतन्यस्वरूप ज प्रतिभासित
थाय छे तेने ज साम्य कहेवामां आवे छे. ६५.
(अनुष्टुभ् )
साम्यमेकं परं कार्यं साम्यं तत्त्वं परं स्मृतम्
साम्यं सर्वोपदेशानामुपदेशो विमुक्त ये ।।६६।।
अनुवाद : ते समताभाव एक उत्कृष्ट कार्य छे. ते समताभाव उत्कृष्ट तत्त्व

Page 167 of 378
PDF/HTML Page 193 of 404
single page version

background image
मानवामां आव्युं छे. ते ज समताभाव सर्व उपदेशोनो उपदेश छे जे मुक्तिनुं कारण
छे, अर्थात् समताभावनो उपदेश समस्त उपदेशोनो सार छे केम के तेनाथी मोक्षनी
प्राप्ति थाय छे. ६६.
(अनुष्टुभ् )
साम्यं सद्बोधनिर्माणं शश्वदानन्दमन्दिरम्
साम्यं शुद्धात्मनो रूपं द्वारं मोक्षैकसद्मनः ।।६७।।
अनुवाद : समताभाव सम्यग्ज्ञान उत्पन्न करनार छे, ते शाश्वतिक (नित्य)
सुखनुं स्थान छे. ते समताभाव शुद्ध आत्मानुं स्वरूप तथा मोक्षरूपी अनुपम महेलनुं
द्वार छे. ६७.
(अनुष्टुभ् )
साम्यं निःशेषशास्त्राणां सारमाहुर्विपश्चितः
साम्यं कर्ममहाकक्षदाहे दावानलायते ।।६८।।
अनुवाद : पंडितो समताभावने समस्त शास्त्रोनो सार बतावे छे ते
समताभाव कर्मरूपी महावनने भस्म करवा माटे दावानळ समान छे. ६८.
(अनुष्टुभ् )
साम्यं शरण्यमित्याहुर्योगिनां योगगोचरम्
उपाधिरचिताशेषदोषक्षपणकारणम ।।६९।।
अनुवाद : जे समताभाव योगीओने योगनो विषय थयो थको बाह्य अने
अभ्यंतर परिग्रहना निमित्ते उत्पन्न थयेल समस्त दोषोनो नाश करनार छे ते
शरणभूत कहेवाय छे. ६९.
(अनुष्टुभ् )
निःस्पृहायाणिमाद्यब्जखण्डे साम्यसरोजुषे
हंसाय शुचये मुक्ति हंसीदत्तद्रशे नमः ।।७०।।
अनुवाद : जे आत्मारूपी हंस अणिमादि ॠद्धिरूपी कमळखंड (स्वर्ग)नी
अभिलाषा रहित छे, समतारूपी सरोवरनो आराधक छे, पवित्र छे तथा मुक्तिरूपी
हंसी तरफ द्रष्टि राखे छे तेने नमस्कार हो. ७०.

Page 168 of 378
PDF/HTML Page 194 of 404
single page version

background image
(अनुष्टुभ् )
ज्ञानिनोऽमृतसंगाय मृत्युस्तापकरोऽपि सन्
आमकुम्भस्य लोकेऽस्मिन् भवेत्पाकविधिर्यथा ।।७१।।
अनुवाद : जेम आ लोकमां काचा घडानो परिपाक अमृतसंग अर्थात् पाणीना
संयोगने कारणे थाय छे तेवी ज रीते अविवेकी मनुष्यने संताप करनार ते मृत्यु पण
ज्ञानी मनुष्यने अमृतसंग अर्थात् शाश्वत सुख (मोक्ष) नुं कारण थाय छे. ७१.
(अनुष्टुभ् )
मानुष्यं सत्कुले जन्म लक्ष्मीर्बुद्धिः कृतज्ञता
विवेकेन विना सर्वं सदप्येतन्न किंचन ।।७२।।
अनुवाद : मनुष्य पर्याय, उत्तमकुळमां जन्म, संपत्ति, बुद्धि अने कृतज्ञता
(उपकारनुं स्मरण); आ बधी सामग्री होवा छतां पण विवेक विना कांई पण कार्यकारी
नथी. ७२.
(अनुष्टुभ् )
चिदचिद् द्वे परे तत्त्वे विवेकस्तद्विवेचनम्
उपादेयमुपादेयं हेयं हेयं च कुर्वतः ।।७३।।
अनुवाद : चेतन अने अचेतन ए बन्ने भिन्न तत्त्व छे. तेमना भिन्न स्वरूपनो
विचार करवो तेने विवेक कहेवामां आवे छे. तेथी हे आत्मा! तुं आ विवेकथी ग्रहण करवा
योग्य जे चैतन्यस्वरूप छे तेनुं ग्रहण कर अने छोडवा योग्य जडताने छोडी दे. ७३.
(अनुष्टुभ् )
दुःखं किंचित्सुखं किंचिच्चित्ते भाति जडात्मनः
संसारे ऽत्र पुनर्नित्यं सर्वं दुःखं विवेकिनः ।।७४।।
अनुवाद : `````अहीं संसारमां मूर्ख प्राणीना चित्तमां कांईक तो सुख अने कांईक
दुःखरूप प्रतिभासे छे. परंतु विवेकी जीवना चित्तमां सदा सर्व दुःखदायक ज प्रतिभासे छे.
विशेषार्थ : आनो अभिप्राय ए छे के अविवेकी प्राणी कदी इष्ट सामग्री प्राप्त थतां
सुख अने तेनो वियोग थई जतां कदी दुःखनो अनुभव करे छे. परंतु विवेकी प्राणी इष्ट सामग्रीनी
प्राप्ति अने तेना वियोग बन्नेने दुःखप्रद समजे छे. तेथी ते उक्त बन्ने अवस्थाओमां समभाव
राखे छे. ७४.

Page 169 of 378
PDF/HTML Page 195 of 404
single page version

background image
(अनुष्टुभ् )
हेयं हि कर्म रागादि तत्कार्यं च विवेकिनः
उपादेयं परं ज्योतिरुपयोगैकलक्षणम् ।।७५।।
अनुवाद : विवेकी मनुष्ये कर्म अने तेना कार्यभूत रागादि पण छोडवा योग्य
छे अने उपयोगरूप एक लक्षणवाळी उत्कृष्ट ज्योति ग्रहण करवा योग्य छे. ७५.
(इन्द्रवज्रा)
यदेव चैतन्यमहं तदेव तदेव जानाति तदेव पश्यति
तदेव चैकं परमस्ति निश्चयाद् गतोऽस्मि भावेन तदेकतां परम् ।।७६।।
अनुवाद : जे चैतन्य छे ते ज हुं छुं. ते ज चैतन्य जाणे छे अने ते ज
चैतन्य देखे पण छे. निश्चयथी ते ज एक चैतन्य उत्कृष्ट छे. हुं स्वभावथी केवळ
तेनी साथे एकता पाम्यो छुं. ७६.
(वसंततिलका)
एकत्वसप्ततिरियं सुरसिन्धुरुच्चैः
श्रीपद्मनन्दिहिमभूधरतः प्रसूता
यो गाहते शिवपदाम्बुनिधिं प्रविष्टा-
मेतां लभेत स नरः परमां विशुद्धिम्
।।७७।।
अनुवाद : जे आ एकत्वसप्तति (सीत्तेर पद्यमय एकत्वविषयक प्रकरण) रूपी
गंगा उन्नत श्री पद्मनन्दिरूपी हिमालय पर्वतथी उत्पन्न थईने मोक्षपदरूपी समुद्रमां
प्रवेशी छे तेमां जे मनुष्य स्नान करे छे (एकत्वसप्ततिना पक्षे
अभ्यास करे छे)
ते मनुष्य अतिशय विशुद्धि पामे छे. ७७.
(वसंततिलका)
संसारसागरसमुत्तरणैकसेतु
मेनं सतां सदुपदेशमुपाश्रितानाम्
कुर्यात्पदं मललवोऽपि किमन्तरङ्गे
सम्यक्समाधिविधिसंनिधिनिस्तरङ्गे
।।७८।।

Page 170 of 378
PDF/HTML Page 196 of 404
single page version

background image
अनुवाद : जे साधु जनोए संसाररूपी समुद्र पार थवामां अद्वितीय
पुलस्वरूप आ उपदेशनो आश्रय लीधो छे तेमना उत्तम समाधिविधिनी समीपताथी
निश्चल बनेल अंतःकरणमां शुं मळने लेश पण स्थान प्राप्त थई शके छे? अर्थात्
प्राप्त थई शकतुं नथी. ७८.
(मंदाक्रान्ता)
आत्मा भिन्नस्तदनुगतिमत्कर्म भिन्नं तयोर्या
प्रत्यासत्तेर्भवति विकृतिः सापि भिन्नं तथैव
कालक्षेत्रप्रमुखमपि यत्तच्च भिन्नं मतं मे
भिन्नं भिन्नं निजगुणकलालंकृतं सर्वमेतत्
।।७९।।
अनुवाद : आत्मा भिन्न छे, तेने अनुसरनार कर्म माराथी भिन्न छे, आ
बन्नेना संबंधथी जे विकारभाव उत्पन्न थाय छे ते पण ते ज प्रकारे भिन्न छे,
तथा अन्य पण जे काळ अने क्षेत्र आदि छे तेमने पण भिन्न मानवामां आव्या
छे. अभिप्राय ए छे के पोताना गुणो अने कळाओथी पण विभूषित आ सर्व भिन्न
भिन्न ज छे. ७९.
(वसंततिलका)
येऽभ्यासयन्ति कथयन्ति विचारयन्ति
संभावयन्ति च मुहुर्मुहुरात्मतत्त्वम्
ते मोक्षमक्षयमनूनमनन्तसौख्यं
क्षिप्रं प्रयान्ति नवकेवललब्धिरूपम्
।।८०।।
अनुवाद : जे भव्यजीव आ आत्मतत्त्वनो वारंवार अभ्यास करे छे, व्याख्यान
करे छे, विचार करे छे तथा सन्मान करे छे; ते शीघ्र ज अविनश्वर, संपूर्ण, अनंत सुख
संयुक्त अने नव केवळलब्धि (केवळज्ञान, केवळदर्शन, क्षायिकदान, लाभ, भोग,
उपभोग, वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व अने क्षायिक चारित्र) स्वरूप मोक्षने प्राप्त करे छे. ८०.
आ रीते एकत्वसप्तति प्रकरण समाप्त थयुं. ४.

Page 171 of 378
PDF/HTML Page 197 of 404
single page version

background image
५. यतिभावनाष्टक
[ ५. यतिभावनाष्टकम् ]
(शार्दूलविक्रीडित)
आदाय व्रतमात्मतत्त्वममलं ज्ञात्वाथ गत्वा वनं
निःशेषामपि मोहकर्मजनितां हित्वा विकल्पावलिम्
ये तिष्ठन्ति मनोमरुच्चिदचलैकत्वप्रमोदं गता
निष्कम्पा गिरिवज्जयन्ति मुनयस्ते सर्वसंगौज्झिताः
।।।।
अनुवाद : जे मुनि व्रत ग्रहण करीने, निर्मळ आत्मतत्त्वने जाणीने वनमां
जईने, तथा मोहनीय कर्मना उदयथी उत्पन्न थता सर्व विकल्पोनो समूह छोडीने
मनरूपी वायुथी विचलित न थनार स्थिर चैतन्यमां एकत्वना आनंदने पामता थका
पर्वत समान निश्चळ रहे छे ते संपूर्ण परिग्रह रहित मुनि जयवंत हो. १.
(शार्दूलविक्रीडित)
चेतोवृत्तिनिरोधनेन करणग्रामं विधायोद्वसं
तत्संहृत्य गतागतं च मरुतो धैर्यं समाश्रित्य च
पयङ्केन मया शिवाय विधिवच्छून्यैकभूभृद्दरी-
मध्यस्थेन कदा चिदर्पित
द्रशा स्थातव्यमन्तर्मुखम् ।।।।
अनुवाद : मुनि विचार करे छे के हुं मननो व्यापार रोकीने, इन्द्रियसमूहने
उज्जड करीने (जीतीने), वायुना गमन-आगमनने संकोचीने, धैर्यनुं अवलंबन लईने,
तथा मोक्षप्राप्तिना निमित्ते विधिपूर्वक पर्वतनी एक निर्जन गुफानी वच्चे पद्मासनमां

Page 172 of 378
PDF/HTML Page 198 of 404
single page version

background image
स्थित थईने पोताना स्वरूपमां स्थित थईने पोताना स्वरूपमां द्रष्टि राखतो थको
क्यारे चेतन आत्मामां लीन थईने स्थित थईश? २.
(शार्दूलविक्रीडित)
धूलीधूसरितं विमुक्त वसनं पर्यङ्कमुद्रागतं
शान्तं निर्वचनं निमीलित
द्रशं तत्त्वोपलम्भे सति
उत्कीर्णं द्रषदीव मां वनभुवि भ्रान्तो मृगाणां गणः
पश्यत्युद्गतविस्मयो यदि तदा माद्रग्जनः पुण्यवान् ।।।।
अनुवाद : तत्त्वज्ञाननी प्राप्ति थतां धूळथी मलिन(स्नान कर्या वगरना), वस्त्र
रहित, पद्मासनमां स्थित, शान्त, वचन रहित अने आंखो बंध होय एवी अवस्थाने
पामेला मने जो जंगलना प्रदेशमां भ्रम प्राप्त थयेल मृगोनो समूह आश्चर्यचकित थईने
पथ्थरमां कोतरेली मूर्ति समजवा लागे तो मारा जेवो मनुष्य पुण्यशाळी हशे. ३.
(शार्दूलविक्रीडित)
वासः शून्यमठे क्वचिन्निवसनं नित्यं ककुम्मण्डलं
संतोषो धनमुन्नतं प्रियतमा क्षान्तिस्तपो वर्तनम्
मैत्री सर्वशरीरिभिः सह सदा तत्त्वैकचिन्तासुखं
चेदास्ते न किमस्ति मे शमवतः कार्यं न किंचित् परैः
।।।।
अनुवाद : जो कोई निर्जन उपाश्रयमां मारो निवास होय, सदा दिशा समूह
ज मारुं वस्त्र बनी जाय, अर्थात् जो मारी पासे कांई पण परिग्रह न रहे, संतोष
ज मारूं उन्नत धन थई जाय, क्षमा ज मारी प्यारी स्त्री बनी जाय, एक मात्र
तप ज मारो व्यापार थई जाय, बधा ज प्राणीओ साथे मैत्रीभाव थई जाय तथा
जो हुं सदाय एक मात्र तत्त्वविचारथी उत्पन्न थनार सुखनो अनुभव करवा लागुं;
तो पछी अतिशय शान्तिने प्राप्त थयेल मारी पासे शुं नथी? बधुं ज छे. एवी
अवस्थामां मने बीजाओनुं कांई पण प्रयोजन नथी रहेतुं. ४.
(शार्दूलविक्रीडित)
लब्धवा जन्म कुले शुचौ वरवपुर्बुद्धवा श्रुतं पुण्यतो
वैराग्यं च करोति यः शुचि तपो लोके स एकः कृती

Page 173 of 378
PDF/HTML Page 199 of 404
single page version

background image
तेनैवोज्झितगौरवेण यदि वा ध्यानामृतं पीयते
प्रासादे कलशस्तदा मणिमयो हैमे समारोपितः
।।।।
अनुवाद : लोकमां जे मनुष्य पुण्यना प्रभावथी उत्तम कुळमां जन्म
लईने, उत्तम शरीर पामीने अने आगम जाणीने वैराग्य पाम्या थका निर्मळ
तप करे छे ते अनुपम पुण्यशाळी छे. ते ज मनुष्य जो प्रतिष्ठानो मोह (आदर
सत्कारनो भाव) छोडीने ध्यानरूप अमृतनुं पान करे छे तो समजवुं जोईए के
तेणे सुवर्णमय महेल उपर मणिमय कळशनी स्थापना करी छे. ५.
(शार्दूलविक्रीडित)
ग्रीष्मे भूधरमस्तकाश्रितशिलां मूलं तरोः प्रावृषि
प्रोद्भूते शिशिरे चतुष्पथपदं प्राप्ताः स्थितिं कुर्वते
ये तेषां यमिनां यथोक्त तपसां ध्यानप्रशान्तात्मनां
मार्गे संचरतो मम प्रशमिनः कालः कदा यास्यति
।।।।
अनुवाद : जे साधु ग्रीष्म ॠतुमां पर्वतना शिखर उपर, स्थित शिला
उपर, वर्षा ॠतुनां वृक्षना मूळमां तथा शियाळो आवतां चोकमां स्थान प्राप्त
करीने ध्यानमां स्थित थाय छे; जे आगमोक्त अनशनादि तपनुं आचरण करे
छे अने जेमणे ध्यान द्वारा पोताना आत्माने अतिशय शान्त करी लीधो छे;
तेमना मार्गे प्रवर्तता मारो समय अत्यंत शान्तिथी क्यारे वीतशे? ६.
(शार्दूलविक्रीडित)
भेदज्ञानविशेषसंहृतमनोवृत्तिः समाधिः परो
जायेताद्भुतधामधन्यशमिनां केषांचिदत्राचलः
वज्रे मुर्ध्नि पतत्यपि त्रिभुवने बह्निप्रदीप्ते ऽपि वा
येषां नो विकृतिर्मनागपि भवेत् प्राणेषु नश्यत्स्वपि
।।।।
अनुवाद : मस्तक उपर वज्र पडवा छतां अथवा त्रणे लोक अग्निथी
प्रज्वलित थई जवा छतां अथवा प्राणोनो नाश थवा छतां पण जेमना चित्तमां
थोडोय विकारभाव उत्पन्न थतो नथी; एवा आश्चर्यजनक आत्मतेजने धारण
करनार कोई विरला ज श्रेष्ठ मुनिओने ते उत्कृष्ट निश्चळ समाधि होय छे जेमां

Page 174 of 378
PDF/HTML Page 200 of 404
single page version

background image
भेदज्ञान विशेषद्वारा मननो व्यापार (दुष्ट प्रवृत्ति) अटकी जाय छे. ७.
(शार्दूलविक्रीडित)
अन्तस्तत्त्वमुपाधिवर्जितमहंव्याहारवाच्यं परं
ज्योतिर्यैः कलितं श्रितं च यतिभिस्ते सन्तु नः शान्तये
येषां तत्सदनं तदेव शयनं तत्संपदस्तत्सुखं
तद्वृत्तिस्तदपि प्रियं तदखिलश्रेष्ठार्थसंसाधकम्
।।।।
अनुवाद : जे मुनिओए बाह्यअभ्यंतर परिग्रह रहित अने ‘अर्हं’ शब्द द्वारा
कहेवाता उत्कृष्ट ज्योतिस्वरूप अंतस्तत्त्व अर्थात् अंतरात्मानुं स्वरूप जाणी लीधुं छे तथा
तेनो ज आश्रय पण लीधो छे अने जे मुनिओने ते ज आत्मतत्त्व भवन छे, ते ज शय्या
छे, ते ज संपत्ति छे, ते ज सुख छे, ते ज व्यापार छे, ते ज प्यारूं छे अने ते ज समस्त
श्रेष्ठ पदार्थोने सिद्ध करनार छे; ते मुनिओ आपणने शान्ति आपे. ८.
(शार्दूलविक्रीडित)
पापारिक्षयकारि दातृ नृपतिस्वर्गापवर्गश्रियं
श्रीमत्पङ्कजनन्दिभिर्विरचितं चिच्चेतनानन्दिभिः
भक्त्या यो यतिभावनाष्टकमिदं भव्यस्त्रिसंध्यं पठेत्
किं किं सिध्यति वाञ्छितं न भुवने तस्यात्र पुण्यात्मनः
।।।।
अनुवाद : आत्मचैतन्यमां आनंदनो अनुभव करनार श्रीमान् पद्मनंदी
(भव्य जीवोने प्रफुल्लित करनार गणधरादि अथवा पद्मनंदी मुनि) द्वारा रचवामां
आवेलुं आ आठ श्लोकमय ‘यतिभावना’ प्रकरण पापरूप शत्रुनो नाश करीने
राज्यलक्ष्मी, स्वर्गलक्ष्मी अने मोक्ष आपनार छे. जे भव्य जीव त्रणे संध्याकाळे
(प्रातः, मध्याह्न अने सायंकाळे) भक्तिपूर्वक ते यतिभावनाष्टक वांचे छे ते पुण्यात्मा
जीवने अहीं लोकमां क्या क्या इष्ट पदार्थ सिद्ध नथी थता? अर्थात् तेने बधा इष्ट
पदार्थ सिद्ध थाय छे. ९.
आ रीते यतिभावनाष्टक समाप्त थयुं. ५