Page 155 of 378
PDF/HTML Page 181 of 404
single page version
योग्य छे; तेनाथी भिन्न अन्य कांई पण न जाणवा योग्य छे, न सांभळवा योग्य
छे अने न देखवा योग्य छे. २१.
कोई अन्यने प्राप्त करीने. २२.
छे. २३.
प्राप्त थई जाय छे अर्थात् परमात्मा बनी जाय छे. २४.
Page 156 of 378
PDF/HTML Page 182 of 404
single page version
थाय छे. २५.
सर्व प्रकारना विकल्पोथी रहित, शान्त (क्रोधादि विकारो रहित) अने केवळी अवस्थाथी युक्त थई
जाय छे. २६.
करवाथी मोक्षनी प्राप्ति थाय छे. २७.
Page 157 of 378
PDF/HTML Page 183 of 404
single page version
शुं करी शकशे? अर्थात् तेओ कांई पण हानि करी शकशे नहि.
तेओ पोतानुं सर्व प्रकारे अहित करे छे. २९.
भिन्न ते ज एक आत्मतत्त्वनी उपासना कर्या करे छे. ३०.
Page 158 of 378
PDF/HTML Page 184 of 404
single page version
हुं तेमनो छुं, आ जातनी बुद्धि अद्वैतबुद्धि कहेवाय छे. आ प्रकारना विचारथी ते अद्वैतभाव
सदा जगृत रहे छे के जेथी अंते मोक्ष पण प्राप्त थई जाय छे. एना आटे अहीं ए
उदाहरण आपवामां आव्युं छे के जेवी रीते लोढानी धातुमांथी लोहमय अने सुवर्णमांथी
सुवर्णमय ज पात्र बने छे तेवी ज रीते द्वैतबुद्धिथी द्वैतभाव तथा अद्वैतबुद्धिथी अद्वैतभाव
ज थाय छे. ३१.
थाय छे ते व्यवहारनी अपेक्षा राखवाथी संसारनुं कारण थाय छे. ३२.
कराववामां आवे छे, तेने उदीरणा कहे छे. ज्ञानावरणादि कर्मप्रकृतिओना कर्मस्वरूपे अवस्थित
रहेवाने सत्त्व कहेवामां आवे छे. ३४.
Page 159 of 378
PDF/HTML Page 185 of 404
single page version
कर्मोनो संयोग रहेेवा छतां पण आत्मामां विकार उत्पन्न नथी थतो, परंतु ते स्वभावथी निर्विकार
ज रहे छे. ३५.
वाचकभाव व्यवहारनयने आश्रित छे, नहि के निश्चयनयने. विद्वानो जन्म अने मरण
आदि बधाने शरीरनो धर्म समजे छे. ३६.
Page 160 of 378
PDF/HTML Page 186 of 404
single page version
शरणभूत छे. ३८.
आत्मज्योति निर्मळ तप छे.
सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र अने तप आदिमां कांई पण भेद नथी रहेतो. ए ज रीते ज्ञान,
ज्ञाता अने ज्ञेयनो पण कांई भेद रहेतो नथी; केमके ते वखते ते ज एक मात्र आत्मा ज्ञान,
ज्ञेय अने ज्ञाता बनी जाय छे. तेथी आ अवस्थामां कर्ता अने करण आदि कारकोनो पण बधो
भेद समाप्त थई जाय छे. ३९.
आत्मज्योति साधुओने शरणभूत छे.
चारने मंगळ, लोकोत्तम तथा शरणभूत बताववामां आव्या छे ते व्यवहारनयनी प्रधानताथी छे. शुद्ध
निश्चयनयनी अपेक्षाए तो केवळ एक ते आत्मज्योति ज मंगळ, लोकोत्तम अने शरणभूत छे. ४०.
Page 161 of 378
PDF/HTML Page 187 of 404
single page version
पण छे. ४१.
छे. ४३.
ते ज एक आत्मज्योति उत्कृष्ट तेज छे. ४४.
आत्मज्योतिनी प्राप्ति छे. ४५.
Page 162 of 378
PDF/HTML Page 188 of 404
single page version
समान आनंददायक छे. ४७.
करनारी पोतानी श्रेष्ठ सेना छे. ४८.
Page 163 of 378
PDF/HTML Page 189 of 404
single page version
पण तेना विनानुं निर्जन वन समान जणाय छे. अभिप्राय ए छे के अन्य द्रव्यो
होवा छतां पण लोकनी शोभा ते एक आत्मज्योतिथी ज छे. ५१.
जीव बीजी कई वस्तुनी इच्छा करे? अर्थात् कोईनी पण नहि. ५३.
द्रढ निश्चय छे. ५४.
Page 164 of 378
PDF/HTML Page 190 of 404
single page version
पामीने तुं शान्त अने सुखी रहे. ५६.
छे अने अनक्षर पण छे. ते ज्योति अनुपम, अनिर्देश्य, अप्रमेय अने अनाकुळ होवाथी
शून्य पण कहेवाय छे अने पूर्ण पण, नित्य पण कहेवाय छे अने अनित्य पण.
Page 165 of 378
PDF/HTML Page 191 of 404
single page version
कहेवाय छे. ए ज रीते ते शुद्ध चैतन्यरूप सामान्य स्वभावनी अपेक्षाए एक अने
व्यवहारनयनी अपेक्षाए भिन्न भिन्न शरीर आदिने आश्रित रहेवाथी अनेक पण कहेवाय
छे. ते स्वसंवेदन प्रत्यक्षद्वारा जाणवा योग्य होवाथी स्वसंवेद्य तथा इन्द्रियजनित ज्ञाननो
अविषय होवाथी अवेद्य पण कहेवाय छे. ते निश्चयथी विनाशरहित होवाथी अक्षर तथा
अकारादि अक्षरोथी रहित होवाने कारणे अथवा व्यवहारनी अपेक्षाए विनष्ट होवाथी अनक्षर
पण कहेवाय छे. ते ज आत्मज्योति उपमा रहित होवाथी अनुपम, निश्चयनयथी शब्दनो
अविषय होवाथी अनिर्देश्य (अवाच्य), सांव्यवहारिक प्रत्यक्षादि प्रमाणोनो विषय न होवाथी
अप्रमेय तथा आकुळता रहित होवाने कारणे अनाकुळ पण छे. ए सिवाय ते मूर्तिक समस्त
बाह्य पदार्थोना संयोगथी रहित छे माटे शून्य अने पोताना ज्ञानादि गुणोथी परिपूर्ण होवाथी
पूर्ण पण मनाय छे. ते द्रव्यार्थिकनयनी अपेक्षाए विनाशरहित होवाथी नित्य तथा पर्यायार्थिक
नयनी अपेक्षाए अनित्य पण कहेवाय छे. ५८
अगोचर छे. ६०.
समान छे.
ते तो केवळ स्वानुभव गोचर छे. ६१.
Page 166 of 378
PDF/HTML Page 192 of 404
single page version
समताभाव बताव्यो छे. ६३.
थाय छे तेने ज साम्य कहेवामां आवे छे. ६५.
Page 167 of 378
PDF/HTML Page 193 of 404
single page version
छे, अर्थात् समताभावनो उपदेश समस्त उपदेशोनो सार छे केम के तेनाथी मोक्षनी
प्राप्ति थाय छे. ६६.
द्वार छे. ६७.
शरणभूत कहेवाय छे. ६९.
हंसी तरफ द्रष्टि राखे छे तेने नमस्कार हो. ७०.
Page 168 of 378
PDF/HTML Page 194 of 404
single page version
ज्ञानी मनुष्यने अमृतसंग अर्थात् शाश्वत सुख (मोक्ष) नुं कारण थाय छे. ७१.
नथी. ७२.
योग्य जे चैतन्यस्वरूप छे तेनुं ग्रहण कर अने छोडवा योग्य जडताने छोडी दे. ७३.
प्राप्ति अने तेना वियोग बन्नेने दुःखप्रद समजे छे. तेथी ते उक्त बन्ने अवस्थाओमां समभाव
राखे छे. ७४.
Page 169 of 378
PDF/HTML Page 195 of 404
single page version
तेनी साथे एकता पाम्यो छुं. ७६.
श्रीपद्मनन्दिहिमभूधरतः प्रसूता
मेतां लभेत स नरः परमां विशुद्धिम्
प्रवेशी छे तेमां जे मनुष्य स्नान करे छे (एकत्वसप्ततिना पक्षे
सम्यक्समाधिविधिसंनिधिनिस्तरङ्गे
Page 170 of 378
PDF/HTML Page 196 of 404
single page version
निश्चल बनेल अंतःकरणमां शुं मळने लेश पण स्थान प्राप्त थई शके छे? अर्थात्
प्राप्त थई शकतुं नथी. ७८.
प्रत्यासत्तेर्भवति विकृतिः सापि भिन्नं तथैव
भिन्नं भिन्नं निजगुणकलालंकृतं सर्वमेतत्
तथा अन्य पण जे काळ अने क्षेत्र आदि छे तेमने पण भिन्न मानवामां आव्या
छे. अभिप्राय ए छे के पोताना गुणो अने कळाओथी पण विभूषित आ सर्व भिन्न
भिन्न ज छे. ७९.
संभावयन्ति च मुहुर्मुहुरात्मतत्त्वम्
क्षिप्रं प्रयान्ति नवकेवललब्धिरूपम्
संयुक्त अने नव केवळलब्धि (केवळज्ञान, केवळदर्शन, क्षायिकदान, लाभ, भोग,
उपभोग, वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व अने क्षायिक चारित्र) स्वरूप मोक्षने प्राप्त करे छे. ८०.
Page 171 of 378
PDF/HTML Page 197 of 404
single page version
निःशेषामपि मोहकर्मजनितां हित्वा विकल्पावलिम्
निष्कम्पा गिरिवज्जयन्ति मुनयस्ते सर्वसंगौज्झिताः
मनरूपी वायुथी विचलित न थनार स्थिर चैतन्यमां एकत्वना आनंदने पामता थका
पर्वत समान निश्चळ रहे छे ते संपूर्ण परिग्रह रहित मुनि जयवंत हो. १.
तत्संहृत्य गतागतं च मरुतो धैर्यं समाश्रित्य च
मध्यस्थेन कदा चिदर्पित
तथा मोक्षप्राप्तिना निमित्ते विधिपूर्वक पर्वतनी एक निर्जन गुफानी वच्चे पद्मासनमां
Page 172 of 378
PDF/HTML Page 198 of 404
single page version
क्यारे चेतन आत्मामां लीन थईने स्थित थईश? २.
शान्तं निर्वचनं निमीलित
पामेला मने जो जंगलना प्रदेशमां भ्रम प्राप्त थयेल मृगोनो समूह आश्चर्यचकित थईने
पथ्थरमां कोतरेली मूर्ति समजवा लागे तो मारा जेवो मनुष्य पुण्यशाळी हशे. ३.
संतोषो धनमुन्नतं प्रियतमा क्षान्तिस्तपो वर्तनम्
चेदास्ते न किमस्ति मे शमवतः कार्यं न किंचित् परैः
ज मारूं उन्नत धन थई जाय, क्षमा ज मारी प्यारी स्त्री बनी जाय, एक मात्र
तप ज मारो व्यापार थई जाय, बधा ज प्राणीओ साथे मैत्रीभाव थई जाय तथा
जो हुं सदाय एक मात्र तत्त्वविचारथी उत्पन्न थनार सुखनो अनुभव करवा लागुं;
तो पछी अतिशय शान्तिने प्राप्त थयेल मारी पासे शुं नथी? बधुं ज छे. एवी
अवस्थामां मने बीजाओनुं कांई पण प्रयोजन नथी रहेतुं. ४.
वैराग्यं च करोति यः शुचि तपो लोके स एकः कृती
Page 173 of 378
PDF/HTML Page 199 of 404
single page version
प्रासादे कलशस्तदा मणिमयो हैमे समारोपितः
तप करे छे ते अनुपम पुण्यशाळी छे. ते ज मनुष्य जो प्रतिष्ठानो मोह (आदर
सत्कारनो भाव) छोडीने ध्यानरूप अमृतनुं पान करे छे तो समजवुं जोईए के
तेणे सुवर्णमय महेल उपर मणिमय कळशनी स्थापना करी छे. ५.
प्रोद्भूते शिशिरे चतुष्पथपदं प्राप्ताः स्थितिं कुर्वते
मार्गे संचरतो मम प्रशमिनः कालः कदा यास्यति
करीने ध्यानमां स्थित थाय छे; जे आगमोक्त अनशनादि तपनुं आचरण करे
छे अने जेमणे ध्यान द्वारा पोताना आत्माने अतिशय शान्त करी लीधो छे;
तेमना मार्गे प्रवर्तता मारो समय अत्यंत शान्तिथी क्यारे वीतशे? ६.
जायेताद्भुतधामधन्यशमिनां केषांचिदत्राचलः
येषां नो विकृतिर्मनागपि भवेत् प्राणेषु नश्यत्स्वपि
थोडोय विकारभाव उत्पन्न थतो नथी; एवा आश्चर्यजनक आत्मतेजने धारण
करनार कोई विरला ज श्रेष्ठ मुनिओने ते उत्कृष्ट निश्चळ समाधि होय छे जेमां
Page 174 of 378
PDF/HTML Page 200 of 404
single page version
ज्योतिर्यैः कलितं श्रितं च यतिभिस्ते सन्तु नः शान्तये
तद्वृत्तिस्तदपि प्रियं तदखिलश्रेष्ठार्थसंसाधकम्
तेनो ज आश्रय पण लीधो छे अने जे मुनिओने ते ज आत्मतत्त्व भवन छे, ते ज शय्या
छे, ते ज संपत्ति छे, ते ज सुख छे, ते ज व्यापार छे, ते ज प्यारूं छे अने ते ज समस्त
श्रेष्ठ पदार्थोने सिद्ध करनार छे; ते मुनिओ आपणने शान्ति आपे. ८.
श्रीमत्पङ्कजनन्दिभिर्विरचितं चिच्चेतनानन्दिभिः
किं किं सिध्यति वाञ्छितं न भुवने तस्यात्र पुण्यात्मनः
आवेलुं आ आठ श्लोकमय ‘यतिभावना’ प्रकरण पापरूप शत्रुनो नाश करीने
राज्यलक्ष्मी, स्वर्गलक्ष्मी अने मोक्ष आपनार छे. जे भव्य जीव त्रणे संध्याकाळे
(प्रातः, मध्याह्न अने सायंकाळे) भक्तिपूर्वक ते यतिभावनाष्टक वांचे छे ते पुण्यात्मा
जीवने अहीं लोकमां क्या क्या इष्ट पदार्थ सिद्ध नथी थता? अर्थात् तेने बधा इष्ट
पदार्थ सिद्ध थाय छे. ९.