Padmanandi Panchvinshati-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 28-55 (3. Anitya Panchashat),1 (4. Aekatvasaptati),2 (4. Aekatvasaptati),3 (4. Aekatvasaptati),4 (4. Aekatvasaptati),5 (4. Aekatvasaptati),6 (4. Aekatvasaptati),7 (4. Aekatvasaptati),8 (4. Aekatvasaptati),9 (4. Aekatvasaptati),10 (4. Aekatvasaptati),11 (4. Aekatvasaptati),12 (4. Aekatvasaptati),13 (4. Aekatvasaptati),14 (4. Aekatvasaptati),15 (4. Aekatvasaptati),16 (4. Aekatvasaptati),17 (4. Aekatvasaptati),18 (4. Aekatvasaptati),19 (4. Aekatvasaptati),20 (4. Aekatvasaptati); 4. Aekatvasaptati.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 9 of 21

 

Page 135 of 378
PDF/HTML Page 161 of 404
single page version

background image
अनुवाद : प्रियजननुं मृत्यु थतां जे शोक करवामां आवे छे ते तीव्र
अशातावेदनीय कर्म उत्पन्न करे छे जे आगळ (भविष्यमां) पण विस्तार पामीने
प्राणीने सेंकडो प्रकारे दुःख आपे छे. जेम योग्य भूमिमां वाववामां आवेलुं नानकडुं
वडनुं बीज पण सेंकडो शाखाओ संयुक्त वडवृक्ष रूपे विस्तार पामे छे तेथी ज आवो
अहितकारी ते शोक प्रयत्नपूर्वक छोडी देवो जोईए. २७.
(आर्या)
आयुःक्षतिः प्रतिक्षणमेतन्मुखमन्तकस्य तत्र गताः
सर्वे जनाः किमेकः शोचयत्यन्यं मृतं मूढः ।।२८।।
अनुवाद : प्रत्येक क्षणे जे आयुष्यनी हानि थई रही छे ए यमराजनुं मुख
छे. तेमां (यमराजना मुखमां) बधा ज प्राणी पहोंचे छे. अर्थात् बधा प्राणीओनुं
मरण अनिवार्य छे. छतां एक प्राणी बीजा प्राणीनुं मृत्यु थतां शोक केम करे छे?
अर्थात् जो बधा संसारी प्राणीओनुं मरण अवश्य थनार छे तो एक बीजा मरतां
शोक करवो उचित नथी. २८.
(अनुष्टुभ्)
यो नात्र गोचरं मृत्योर्गतो याति न यास्यति
स हि शोकं मृते कुर्वन् शोभते नेतरः पुमान् ।।२९।।
अनुवाद : जे मनुष्य अहीं मृत्युना विषयने न तो भूतकाळमां प्राप्त थयो
होय, न वर्तमानमां प्राप्त थतो होय अने न भविष्यमां प्राप्त थवानो होय; अर्थात्
जेनुं मरण त्रणे काळे संभव न होय ते जो कोई प्रियजननुं मरण थतां शोक करे
तो एमां तेनी शोभा छे. परंतु जे मनुष्य समयानुसार पोते ज मरणने प्राप्त थाय
छे तेनुं बीजा कोई प्राणीनुं मरण थतां शोकाकुळ थवुं अशोभनीय छे. अभिप्राय
ए छे के जो बधा संसारी प्राणी समय अनुसार मृत्युने प्राप्त थाय छे तो एके
बीजानुं मृत्यु थतां शोक करवो उचित नथी. २९.
(मालिनी)
प्रथममुदयमुच्चैर्दूरमारोहलक्ष्मी-
मनुभवति च पातं सोऽपि देवो दिनेशः

Page 136 of 378
PDF/HTML Page 162 of 404
single page version

background image
यदि किल दिनमध्ये तत्र केषां नराणां
वसति हृदि विषादः सत्स्ववस्थान्तरेषु
।।३०।।
अनुवाद : जे सूर्यदेव एक ज दिवसमां प्रातःकाळे उदयनो अनुभव करे छे
अने त्यार पछी मध्याह्नमां खूब ऊंचे चढीने लक्ष्मीनो अनुभव करे छे ते पण ज्यारे
सायंकाळमां निश्चयथी अस्त पामे छे त्यारे जन्ममरणादि
स्वरूप भिन्न-भिन्न
अवस्थाओ थतां क्या मनुष्यना हृदयमां विषाद रहे छे? अर्थात् एवी दशामां कोईए
पण विषाद न करवो जोईए. ३०.
(वसंततिलका)
आकाश एव शशिसूर्यमरुत्खगाद्याः
भूपृष्ठ एव शकटप्रमुखाश्चरन्ति
मीनादयश्च जल एव यमस्तु याति
सर्वत्र कुत्र भविनां भवति प्रयत्नः
।।३१।।
अनुवाद : चंद्र, सूर्य, वायु अने पक्षी आदि आकाशमां ज गमन करे छे;
गाडी आदिनुं आवागमन पृथ्वी उपर ज थाय छे तथा मत्स्यादि जळमां ज संचार
करे छे. परंतु यम(मृत्यु) आकाश, पृथ्वी अने जळमां बधा स्थळे पहोंचे छे. तेथी
संसारी प्राणीओनो प्रयत्न क्यां थई शके? अर्थात् काळ जो बधा संसारी प्राणीओनो
कोळियो करी जतो होय तो तेनाथी बचवा माटे करवामां आवतो कोई पण प्राणीनो
प्रयत्न सफळ थई शकतो नथी. ३१.
(शार्दूलविक्रीडित)
किं देवः किमु देवता किमगदो विद्यास्ति किं किं मणिः
किं मन्त्रं किमुताश्रयः किमु सुहृत् किं वा स गन्धो ऽस्ति सः
अन्ये वा किमु भूपतिप्रभृतयः सन्त्यत्र लोकत्रये
यैः सर्वैरपि देहिनः स्वसमये कर्मोदितं वार्यते
।।३२।।
अनुवाद : अहीं त्रणे लोकमां शुं देव, शुं देवी, शुं औषधि, शुं विद्या, शुं
मणि, शुं मन्त्र, शुं आश्रय, शुं मित्र, शुं ते सुगंध अथवा शुं अन्य राजा आदि
पण एवा शक्तिशाळी छे जे बधाय पोताना उदय पामेला कर्मने रोकी शके? अर्थात्

Page 137 of 378
PDF/HTML Page 163 of 404
single page version

background image
उदयमां आवेला कर्मनुं निवारण करवा माटे उपर्युक्त देवादिमांथी कोई पण समर्थ
नथी. ३२.
(शार्दूलविक्रीडित)
गीर्वाणा अणिमादिस्वस्थमनसः शक्ताः किमत्रोच्यते
ध्वस्तास्ते ऽपि परम्परेण स परस्तेभ्यः कियान् राक्षसः
रामाख्येन च मानुषेण निहतः प्रोल्लङ्घ्य सो ऽप्यम्बुधिं
रामो ऽप्यन्तकगोचरः समभवत् को ऽन्यो बलीयान् विधेः
।।३३।।
अनुवाद : अहीं अधिक शुं कहेवुं? अणिमा-महिमा आदि ॠद्धिओथी स्वस्थ
मनवाळा जे शक्तिशाळी इन्द्रादि देव हता ते पण केवळ एक शत्रु द्वारा नाश पाम्या
छे. ते शत्रु पण रावण राक्षस हतो जे ते इन्द्रादिनी अपेक्षाए कांई पण नहोतो.
वळी ते रावण राक्षस पण राम नामना मनुष्य द्वारा समुद्र ओळंगीने मार्यो गयो.
अंते ते राम पण यमराजनो विषय बनी गया अर्थात् तेने पण मृत्युए न छोड्या.
बराबर छे
दैवथी अधिक बळवान बीजुं कोण छे? अर्थात् कोई पण नथी. ३३.
(शार्दूलविक्रीडित)
सर्वत्रोद्गतशोकदावदहनव्याप्तं जगत्काननं
मुग्धास्तत्र वधूमृगीगतधियस्तिष्ठन्ति लोकैणकाः
कालव्याध इमान् निहन्ति पुरतः प्राप्तान् सदा निर्दयः
तस्माज्जीवति नो शिशुर्न च युवा वृद्धोऽपि नो कश्चन
।।३४।।
अनुवाद : आ संसाररूपी वन सर्वत्र उत्पन्न थयेल शोकरूपी दावानळ
(जंगलनी अग्नि)थी व्याप्त छे. तेमां मूढ मनुष्यरूपी हरण स्त्रीरूपी हरणीमां
आसक्त थईने रहे छे. निर्दय काळ (मृत्यु) रूपी व्याध (शिकारी) सामे आवेल
आ मनुष्योरूपी हरणोनो सदाय नाश कर्या करे छे. तेनाथी न कोई बाळक बचे
छे, न कोई युवक बचे छे अने न कोई वृद्ध पण जीवतो रहे छे. ३४.
(वसंततिलका)
संपच्चारुलतः प्रियापरिलसद्वल्लीभिरालिङ्गितः
पुत्रादिप्रियपल्लवो रतिसुखप्रायैः फलैराश्रितः

Page 138 of 378
PDF/HTML Page 164 of 404
single page version

background image
जातः संसृतिकानने जनतरुः कालोग्रदावानल
व्याप्तश्चेन्न भवेत्तदा बत बुधैरन्यत्किमालोक्यते ।।३५।।
अनुवाद : संसाररूपी वनमां उत्पन्न थयेल जे मनुष्यरूपी वृक्ष
संपत्तिरूपी सुंदर लत्ता सहित स्त्रीरूपी शोभायमान वेलोथी वींटाळायेल पुत्र-
पौत्रादिरूपी मनोहर पर्णोथी रमणीय तथा विषयभोगजनित सुख जेवा फळोथी
परिपूर्ण होय छे; ते जो मृत्युरूपी तीव्र दावानळथी व्याप्त न होत तो विद्वानो
बीजुं शुं देखे? अर्थात् ते मनुष्यरूपी वृक्ष ते काळरूपी दावानळथी नष्ट थाय
ज छे. आ जोवा छतां पण विद्वानो आत्महितमां प्रवृत्त थता नथी ए खेदनी
वात छे. ३५.
(शिखरिणी)
वाञ्छन्त्येव सुखं तदत्र विधिना दत्तं परं प्राप्यते
नूनं मृत्युमुपाश्रयन्ति मनुजास्तत्राप्यतो बिभ्यति
इत्थं कामभयप्रसक्त हृदया मोहान्मुधैव ध्रुवं
दुःखोर्मिप्रचुरे पतन्ति कुधियः संसारघोरार्णवे
।।३६।।
अनुवाद : संसारमां मनुष्य सुखनी इच्छा करे ज छे, परंतु ते तेमने फक्त
कर्म द्वारा अपायेल प्राप्त थाय छे. ते मनुष्य निश्चयथी मृत्यु तो पामे छे परंतु तेनाथी
डरे छे. आ रीते ते दुर्बुद्धि मनुष्यो हृदयमां इच्छा (सुखनी अभिलाषा) अने भय
(मृत्युनो भय) धारण करतां थकां अज्ञानथी अनेक दुःखोरूपी लहेरोवाळा संसाररूपी
भयानक समुद्रमां नकामा ज पडे छे. ३६.
(मालिनी)
स्वसुखपयसि दीव्यन्मृत्युकैवर्तहस्त-
प्रसृतधनजरोरुप्राल्लसज्जालमध्ये
निकटमपि न पश्यत्यापदां चक्रमुग्रं
भवसरसि वराको लोकमीनौघ एषः
।।३७।।
अनुवाद : आ बिचारो मनुष्योरूपी माछलीओना समूह संसाररूपी
सरोवरमां पोताना सुखरूप जळमां क्रीडा करतो थको मृत्युरूपी माछीमारना हाथे

Page 139 of 378
PDF/HTML Page 165 of 404
single page version

background image
फेलाववामां आवेल वृद्धत्वरूपी विस्तृत जाळनी वच्चे फसाईने निकटवर्ती तीव्र
आपत्तिओना समूहने पण देखतो नथी.
विशेषार्थ : जेवी रीते माछलीओ सरोवरमां पाणीमां क्रीडा करती थकी तेमां
एटली आसक्त थई जाय छे के तेमने माछीमार द्वारा पोताने पकडवा माटे फेलाववामां
आवेली जाळनुं पण ध्यान रहेतुं नथी तेथी तेमने तेमां फसाईने मरणनुं कष्ट सहन करवुं
पडे छे. बराबर एवी ज रीते बिचारा आ प्राणीओ पण संसारमां शातावेदनीयजनित अल्प
सुखमां एटला अधिक मग्न थई जाय छे के तेने मृत्यु प्राप्त करावनार वृद्धत्वनी प्राप्ति
थई जवा छतां पण तेनुं भान नथी रहेतुं अने तेथी अंते ते काळनो कोळियो बनीने असह्य
दुःख सहे छे. ३७.
(शार्दूलविक्रीडित)
शूण्वन्नन्तकगोचरं गतवतः पश्यन्बहून् गच्छतो
मोहादेव जनस्तथापि मनुते स्थैर्यं परं ह्यात्मनः
संप्राप्ते ऽपि च वार्धके स्पृहयति प्रायो न धर्माय यत्
तद्वध्नात्यधिकाधिकं स्वमसकृत्पुत्रादिभिर्बन्धनैः
।।३८।।
अनुवाद : मनुष्य मरण पामेला जीवोना विषयमां सांभळे छे तथा
वर्तमानमां ते मरण पामनार घणा जीवोने स्वयं देखे पण छे; तो पण ते केवळ
मोहना कारणे पोताने अतिशय स्थिर माने छे. तेथी वृद्धत्वने प्राप्त थवा छतां पण
ते घणुं करीने धर्मनी अभिलाषा करतो नथी अने तेथी ज पोताने निरंतर पुत्रादिरूप
बंधनोथी अत्यन्तपणे बांधे छे. ३८.
(शार्दूलविक्रीडित)
दुश्चेष्टाकृतकर्मशिल्पिरचितं दुःसन्धि दुर्बन्धनं
सापायस्थिति दोषधातुमलवत्सर्वत्र यन्नश्वरम्
आधिव्याधिजरामृतिप्रभृतयो यच्चात्र चित्रं न तत्
तच्चित्रं स्थिरता बुधैरपि वपुष्यत्रापि यन्मृग्यते
।।३९।।
अनुवाद : जे शरीर दुष्ट आचरणथी उपार्जित कर्मरूपी कारीगर द्वारा
रचवामां आव्युं छे, जेना सांधा अने बंधनो निंद्य छे, जेनी स्थिति विनाश

Page 140 of 378
PDF/HTML Page 166 of 404
single page version

background image
सहित छे अर्थात् जे विनश्वर छे; जे रोगादि दोषो, सात धातुओ अने मळथी
परिपूर्ण छे; अने जे नष्ट थवानुं छे, तेनी साथे जो आधि (मानसिक चिंता),
रोग, वृद्धावस्था अने मरण आदि रहेता होय तो एमां कोई आश्चर्य नथी.
परंतु आश्चर्य तो केवळ एमां छे के विद्वान् मनुष्य पण ते शरीरमां स्थिरता
शोधे छे. ३९.
(शार्दूलविक्रीडित)
लब्धा श्रीरिह वाञ्छिता वसुमती भुक्ता समुद्रावधिः
प्राप्तास्ते विषया मनोहरतराः स्वर्गे ऽपि ये दुर्लभाः
पश्चाच्चेन्मृतिरागमिष्यति ततस्तत्सर्वमेतद्विषा-
श्लिष्टं भोज्यमिवातिरम्यमपि धिग्मुक्ति : परं मृग्यताम्
।।४०।।
अनुवाद : हे आत्मा! तें इच्छित लक्ष्मी प्राप्त करी लीधी छे, समुद्र
पर्यंत पृथ्वी पण भोगवी लीधी छे अने जे विषयो स्वर्गमां पण दुर्लभ छे
ते अतिशय मनोहर विषयो पण प्राप्त करी लीधा छे. छतां पण जो पाछळ
मृत्यु आववानुं होय तो आ बधुं विषयुक्त आहार समान अत्यंत रमणीय होवा
छतां पण धिक्कारवा योग्य छे. तेथी तुं एक मात्र मुक्तिनी खोज कर. ४०.
(शार्दूलविक्रीडित)
युद्धे तावदलं रथेभतुरगा वाराश्च द्रप्ता भृशं
मन्त्रः शौर्यमसिश्च तावदतुलाः कार्यस्य संसाधकाः
राज्ञो ऽपि क्षुधितोऽपि निर्दयमना यावज्जिघत्सुर्यमः
क्रुद्धो धावति नैव सन्मुखमितो यत्नो विधेयो बुधैः
।।४१।।
अनुवाद : युद्धमां राजाना रथ, हाथी, घोडा, अभिमानी सुभटो, मंत्र, शौर्य
अने तरवार; आ बधी अनुपम सामग्री दुष्ट, भूख्यो यमराज (मृत्यु) क्रोधित थईने
मारवानी इच्छाथी सामे दोडतो नथी त्यां सुधी ज कार्य सिद्ध करी शके छे. तेथी
विद्वान् पुरुषोए ते यमथी पोतानी रक्षा करवा माटे अर्थात् मोक्ष प्राप्ति माटे ज
प्रयत्न करवो जोईए. ४१.

Page 141 of 378
PDF/HTML Page 167 of 404
single page version

background image
(शार्दूलविक्रीडित)
राजापि क्षणमात्रतो विविधवशाद्रङ्कायते निश्चितं
सर्वव्याधिविवर्जितो ऽपि तरुणो ऽप्याशु क्षयं गच्छति
अन्यैः किं किल सारतामुगपते श्रीजीविते द्वे तयोः
संसारे स्थितिरी
द्रशीति विदुषा क्वान्यत्र कार्यो मदः ।।४२।।
अनुवाद : भाग्यवशे राजा य क्षणवारमां निश्चये रंक समान थई जाय छे
तथा समस्त रोग रहित युवान पुरुष पण तरत ज मरण पामे छे. आ रीते अन्य
पदार्थोना विषयमां तो शुं कहेवुं? पण जे लक्ष्मी अने जीवन बन्ने य संसारमां श्रेष्ठ
गणवामां आवे छे तेमनी पण जो आवी (उपर्युक्त) स्थिति छे तो विद्वान् मनुष्ये
बीजा कोना विषयमां अभिमान करवुं जोईए? अर्थात् अभिमान करवा योग्य कोई
पदार्थ अहीं स्थायी नथी. ४२.
(शार्दूलविक्रीडित)
हन्ति व्योम स मुष्टिनाथ सरितं शुष्कां तरत्याकुलः
तृष्णार्तो ऽथ मरीचिकाः पिबति च प्रायः प्रमत्तो भवन्
प्रोत्तुङ्गाचलचूलिकागतमरुत्प्रेङ्खत्प्रदीपोपमैः
यः सम्पत्सुतकामिनीप्रभृतिभिः कुर्यान्मदं मानवः
।।४३।।
अनुवाद : संपत्ति, पुत्र अने स्त्री आदि पदार्थो ऊंचा पर्वतना शिखर पर
स्थित अने वायुथी चलायमान दीपक समान शीघ्र ज नाश पामनारा छे. छतां पण
जे मनुष्य तेमना विषयमां स्थिरतानुं अभिमान करे छे ते जाणे मुठ्ठीथी आकाशनो
नाश करे छे अथवा व्याकुळ थईने सूकी (जळ रहित) नदी तरे छे अथवा तरसथी
पीडाईने प्रमादयुक्त थयो थको रेतीने पीवे छे.
विषेषार्थ : जेम मुठ्ठीथी आकाशने प्रहार करवो, जळरहित नदीमां तरवुं अने तरसथी
पीडाईने रेतीनुं पान करवुं; आ बधा कार्य असंभव होवाथी मनुष्यना अज्ञानना द्योतक छे तेवी
ज रीते जे संपत्ति, पुत्र अने स्त्री आदि पदार्थो देखता देखता ज नष्ट थनारा छे तेमना विषयमां
अभिमान करवुं ए पण मनुष्यनुं अज्ञान प्रगट करे छे. कारण के जो उक्त पदार्थो चिरस्थायी
होत तो तेमना विषयमां अभिमान करवुं उचित कही शकातुं हतुं, पण तेम तो छे नहि. ४३.

Page 142 of 378
PDF/HTML Page 168 of 404
single page version

background image
(शार्दूलविक्रीडित)
लक्ष्मी व्याधमृगीमतीव चपलामाश्रित्य भूपा मृगाः
पुत्रादीनपरान् मृगानतिरुषा निघ्नन्ति सेर्ष्यं किल
सज्जीभूतघनापदुन्नतधनुःसंलग्रसंहृच्छरं
नो पश्यन्ति समीपमागतमपि क्रुद्धं यमं लुब्धकम्
।।४४।।
अनुवाद : राजा रूपी मृग अत्यंत चंचळ एवी लक्ष्मी रूपी शिकारीनी
हरणीनो आश्रय लईने इर्ष्यायुक्त थतो थको अतिशय क्रोधथी पुत्रादि रूपी बीजा
मृगोनो घात करे छे. तेओ ते यमरूपी शिकारीए घणी आपत्तिओ रूपी धनुष्यने
सुसज्ज करीने तेनी उपर संहार करनार बाण राखी मूक्युं छे तथा जे पोतानी समीपे
आवी गयो छे एवा ते क्रोधे भरायेला यमरूपी शिकारीने पण देखता नथी.
विशेषार्थ : जेवी रीते हरण शिकारी द्वारा पकडवामां आवेली (मरणोन्मुख)
हरणीना निमित्ते इर्ष्या युक्त थईने बीजा हरणोनो तो घात करे छे परंतु तेओ ते शिकारी
तरफ जोता नथी के जे तेमनो वध करवा माटे धनुष्य-बाणथी सुसज्ज थईने समीपमां आवी
पहोच्यो छे. बराबर एवी ज रीते राजाओ चंचळ राज्यलक्ष्मीना निमित्ते क्रुद्ध बनीने
बीजाओनी तो शुं वात पण पुत्रादिनो पण घात करे छे, परंतु तेओ ते यमराज (मृत्यु)
ने जोता नथी के जे अनेक आपत्तिओमां नाखीने तेमने ग्रहण करवा माटे समीपमां आवी
गयो छे. तात्पर्य ए छे के जे धन
संपत्ति थोडो ज समय रहीने नियमथी नष्ट थई जवानी
छे तेना निमित्ते मनुष्योए बीजा प्राणीओने कष्ट न पहोंचाडवुं जोईए. पण पोतानी जातने
य नश्वर समजीने कल्याणना मार्गमां लागी जवुं जोईए. ४४.
(शार्दूलविक्रीडित)
मृत्योर्गोचरमागते निजजने मोहेन यः शोककृत्
नो गन्धोऽपि गुणस्य तस्य बहवो दोषाः पुनर्निश्चितम्
दुःखं वर्धत एव नश्यति चतुर्वर्गो मतेर्विभ्रमः
पापं रुक् च मृतिश्च दुर्गतिरथ स्याद्दीर्घसंसारिता
।।४५।।
अनुवाद : पोताना कोई संबंधी पुरुषनुं मृत्यु थतां जे अज्ञान वशे शोक
करे छे तेनी पासे गुणनी गंध (लेशमात्र) पण नथी, परंतु दोष तेनी पासे घणा
छे; ए नक्की छे. आ शोकथी तेनुं दुःख अधिक वधे छे; धर्म, अर्थ, काम अने

Page 143 of 378
PDF/HTML Page 169 of 404
single page version

background image
मोक्षरूप चारे पुरुषार्थ नष्ट थाय छे, बुद्धिमां विपरीतता आवे छे तथा पाप
(अशातावेदनीय) कर्मनो बंध पण थाय छे. रोग उत्पन्न थाय छे अने अंते मरण
पामीने ते नरकादि दुर्गति पामे छे. आ रीते तेनुं संसार परिभ्रमण लांबु थई
जाय छे. ४५.
(आर्या)
आपन्मयसंसारे क्रियते विदुषा किमापदि विषादः
कस्त्रस्यति लङ्घनतः प्रविधाय चतुष्पथे सदनम् ।।४६।।
अनुवाद : आ आपत्ति स्वरूप संसारमां कोई विशेष आपत्ति प्राप्त
थतां विद्वान् मनुष्य शुं खेद करे छे? अर्थात् नथी करतो. बराबर छेचोकमां
(ज्यां चारे तरफ रस्ता जाय छे) मकान बनावीने क्यो मनुष्य ओळंगी जवाना
भयथी दुःखी थशे? अर्थात् कोई नहि थाय.
विशेषार्थ : जेवी रीते चोकमां स्थित रहीने जो कोई मनुष्य गाडी आदि
द्वारा कचराई जवानी आशंका करे तो ए तेनुं अज्ञान ज कहेवाय छे. बराबर
ए ज रीते ज्यां संसारनुं स्वरूप ज आपत्तिमय छे त्यां भला एवा संसारमां
रहीने कोई आपत्ति आवतां खेदखिन्न थवुं, ए पण अतिशय अज्ञानपणानुं ज
द्योतक छे. ४६.
(वसंततिलका)
वातूल एष किमु किं ग्रहसंगृहीतो
भ्रान्तोऽथ वा किमु जनः किमथ प्रमत्तः
जानाति पश्यति शृणोति च जीवितादि
विद्युच्चलं तदपि नो कुरुते स्वकार्यम्
।।४७।।
अनुवाद : आ मनुष्य शुं वानो रोगी छे, शुं भूत-पिशाच आदिथी ग्रहायो
छे, शुं भ्रान्ति पाम्यो छे अथवा शुं पागल छे? कारण के ते ‘जीवन आदि वीजळी
समान चंचळ छे’ आ वात जाणे छे, देखे छे अने सांभळे पण छे; तो पण पोतानुं
कार्य (आत्महित) करतो नथी. ४७.

Page 144 of 378
PDF/HTML Page 170 of 404
single page version

background image
(शार्दूलविक्रीडित)
दत्तं नौषधमस्य नैव कथितः कस्याप्ययं मन्त्रिणो
नो कुर्याच्छुचमेवमुन्नतमतिर्लोकान्तरस्थे निजे
यत्ना यान्ति यतो ऽङ्गिनः शिथिलतां सर्वे मृतेः संनिधौ
बन्धाश्चर्मविनिर्मिताः परिलसद्वर्षाम्बुसिक्ता इव
।।४८।।
अनुवाद : कोई प्रिय जन मरण पामतां विवेकी मनुष्य ‘आने दवा आपवामां
न आवी अथवा आना विषयमां कोई मंत्र जाणनारने न कहेवामां आव्युं’ ए प्रकारे
शोक करता नथी. कारण के मृत्यु पासे आवतां प्राणीओना बधा प्रयत्नो एवी रीते
शिथिल थई जाय छे जेम चामडाना बनावेला बंधन वरसादना पाणीमां भींजाईने
शिथिल थई जाय छे. अर्थात् मृत्युथी बचवा माटे करवामां आवतो प्रयत्न कदी
कोईनो सफळ थतो नथी. ४८.
(शिखरिणी)
स्वकर्मव्याघ्रेण स्फु रितनिजकालादिमहसा
समाघ्रातः साक्षाच्छरणरहिते संसृतिवने
प्रिया मे पुत्रा मे द्रविणमपि मे मे गृहमिदं
वदन्नेवं मे मे पशुरिव जनो याति मरणम्
।।४९।।
अनुवाद : जे संसाररूपी वन रक्षको रहित छे तेमां पोताना उदयकाळ
आदिरूप पराक्रमथी संयुक्त एवा कर्मरूपी वाघ द्वारा ग्रहायेल आ मनुष्यरूपी पशु
‘आ प्रिया मारी छे, आ पुत्र मारा छे. आ द्रव्य मारुं छे, अने आ घर पण मारुं
छे.’ आम ‘मारुं मारुं कहेतो मरण पामी जाय छे.
विशेषार्थ : जेवी रीते वनमां गंध पामीने चित्ता द्वारा पकडायेल बकरा वगेरे पशुनुं
रक्षण करनार त्यां कोई नथीते ‘में में’ शब्द करता थका त्यां ज मरण पामे छेतेवी ज रीते
आ संसारमां कर्मने आधीन थयेल प्राणीनुं पण मृत्युथी रक्षण करनार कोई नथी. छतां पण मोहने
वशीभूत थईने आ मनुष्य ते मृत्यु तरफ ध्यान न देतां जे स्त्री
पुत्रादि बाह्य पदार्थ कदी पोताना
थई शकता नथी तेमनामां ममत्व बुद्धि राखीने ‘मारा मारा’ (आ मारी स्त्री छे, आ पुत्र मारा
छे आदि) करतो थको नकामो संक्लेश पामे छे. ४९.

Page 145 of 378
PDF/HTML Page 171 of 404
single page version

background image
(वसन्ततिलका)
दिनानि खण्डानि गुरूणि मृत्युना
विहन्यमानस्य निजायुषो भृशम्
पतन्ति पश्यन्नपि नित्यमग्रतः स्थिर-
त्वमात्यन्यभिमन्यते जडः
।।५०।।
अनुवाद : आ अज्ञानी प्राणी मृत्यु द्वारा खंडित कराता पोताना आयुष्यना
दिवसो रूपी दीर्घ टूकडाओने सदा पोतानी सामे पडता जोवा छतां पण पोताने स्थिर
माने छे. ५०.
(शार्दूलविक्रीडित)
कालेन प्रलयं व्रजन्ति नियतं ते ऽपीन्द्रचन्द्रादयः
का वार्तान्यजनस्य कीटस
द्रशो ऽशक्तेरदीर्घायुषः
तस्मान्मृत्युमुपागते प्रियतमे मोहं मुधा मा कथाः
कालः क्रीडति नात्र येन सहसा तत्किंचिदन्विष्यताम्
।।५१।।
अनुवाद : जो ते इन्द्र अने चंद्र आदि पण समय पामीने निश्चयथी मरण
पामे छे तो भला कीडा जेवा निर्बळ अने अल्प आयुवाळा अन्य मनुष्योनी तो
वात ज शी? अर्थात् ते तो निःसंदेह मरण पामशे ज तेथी हे भव्य जीव! कोई
अत्यंत प्रिय मनुष्य मरण पामतां व्यर्थ मोह न कर. परंतु कोई एवो उपाय शोध
के जेथी ते काळ (मृत्यु) सहसा अहीं क्रीडा न करी शके. ५१.
(शार्दूलविक्रीडित)
संयोगो यदि विप्रयोगविधिना चेज्जन्म तन्मृत्युना
सम्पच्चेद्विपदा सुखं यदि तदा दुःखेन भाव्यं ध्रुवम्
संसारेऽत्र मुहुर्मुहुर्बहुविधावस्थान्तरप्रोल्लसद्-
वेषान्यत्वनटीकृताङ्गिनि सतः शोको न हर्षः क्वचित्
।।५२।।
अनुवाद : ज्यां प्राणी वारंवार अनेक प्रकारनी अवस्थाओरूप वेशोनी
भिन्नताथी नट समान आचरण करे छे एवा ते संसारमां जो इष्टनो संयोग

Page 146 of 378
PDF/HTML Page 172 of 404
single page version

background image
थाय छे तो वियोग पण तेनो अवश्य थवो जोईए, जो जन्म छे तो मृत्यु
पण अवश्य होवुं जोईए, जो संपत्ति छे तो विपत्ति पण अवश्य होवी जोईए,
तथा जो सुख छे तो दुःख पण अवश्य होवुं जोईए. तेथी सज्जन मनुष्ये
इष्टसंयोगादि थतां तो हर्ष अने इष्टवियोगादि थतां शोक पण न करवो जोईए.
विशेषार्थ : जेम नट (नाटकनुं पात्र) आवश्यकता प्रमाणे राजा अने रंक आदि
अनेक प्रकारना वेशोनुं ग्रहण करे छे; परंतु ते संयोग अने वियोग, जन्म अने मरण,
संपत्ति अने विपत्ति तथा सुख अने दुःख आदिमां अंतःकरणपूर्वक हर्ष अने विषाद पामतो
नथी. कारण के ते पोतानी यथार्थ अवस्था अने ग्रहण करेला ते कृत्रिम वेशोमां तफावत
समजे छे. तेवी ज रीते विवेकी मनुष्य पण उपर्युक्त संयोग
वियोग अने नर-नारकादि
अवस्थाओमां कदी हर्ष अने विषाद पामतो नथी. कारण के ते समजे छे के संसारनुं स्वरूप
ज जन्म
मरण छे. एमां पूर्वाेपार्जित कर्म अनुसार प्राणीओने कदी इष्टनो संयोग अने कदी
तेनो वियोग पण अवश्य थाय छे. संपत्ति अने विपत्ति कदी कोईना नियत नथी. जो मनुष्य
कोई वार संपत्तिशाळी थाय छे तो कोई वार ते अशुभ कर्मना उदयथी विपत्तिग्रस्त पण
जोवामां आवे छे. तेथी तेमां हर्ष अने विषाद पामवो बुद्धिमत्ता नथी. ५२.
(शार्दूलविक्रीडित)
लोकाश्चेतसि चिन्तयन्त्यनुदिनं कल्याणमेवात्मनः
कुर्यात्सा भवितव्यतागतवती तत्तत्र यद्रोचते
मोहोल्लासवशादतिप्रसरतो हित्वा विकल्पान् बहून्
रागद्वेषविषोज्झितैरिति सदा सद्भिः सुखं स्थीयताम्
।।५३।।
अनुवाद : मनुष्य मनमां प्रतिदिन पोताना कल्याणनो ज विचार करे छे,
परंतु आवेली भवितव्यता (दैव) ते ज करे छे के जे तेने रुचे छे. तेथी सज्जन पुरुष
राग-द्वेषरूपी विष रहित थईने मोहना प्रभावथी अतिशय विस्तार पामता अनेक
विकल्पोनो त्याग करीने सदा सुखपूर्वक स्थिति करो. ५३.
(वसंततिलका)
लोका गृहप्रियतमासुतजीवितादि
वाताहतध्वजपटाग्रचलं समस्तम्

Page 147 of 378
PDF/HTML Page 173 of 404
single page version

background image
व्यामोहमत्र परिहृत्य धनादिमित्रे
धर्मे मतिं कुरुत किं बहुभिर्वचोभिः
।।५४।।
अनुवाद : हे भव्य जनो! अधिक कहेवाथी शुं लाभ? जे गृह, स्त्री,
पुत्र अने जीवनादि सर्व पवनथी प्रताडित धजाना वस्त्रना छेडा समान चंचळ छे
तेमना विषयमां तथा धन अने मित्र आदिना विषयमां मोह छोडीने धर्ममां
बुद्धि जोडो. ५४.
(वसंततिलका)
पुत्रादिशोकशिखिशान्तिकरी यतीन्द्र-
श्रीपद्मनन्दिवदनाम्बुधरप्रसूतिः
सद्बोधसस्यजननी जयतादनित्य-
पञ्चाशदुन्नतधियाममृतैक वृष्टिः
।।५५।।
इति अनित्यपञ्चाशत् ।।।।
अनुवाद : श्री पद्मनन्दि मुनीन्द्रना मुखरूपी मेघथी उत्पन्न थयेल जे
अनित्यपंचाशत् (पचास श्लोकमय अनित्यतानुं प्रकरण) रूप अद्वितीय अमूतनी वर्षा
विद्वानोने माटे पुत्रादिना शोकरूपी अग्निने शान्त करीने सम्यग्ज्ञानरूप धान्य उत्पन्न
करे छे ते जयवंत हो. ५५.
आ रीते अनित्यपंचाशत् समाप्त थयुं. ३.

Page 148 of 378
PDF/HTML Page 174 of 404
single page version

background image
४. एकत्वसप्तति
[४. एकत्वसप्तति ]
(अनुष्टुभ् )
चिदानन्दैकसद्भावं परमात्मानभव्ययम्
प्रणमामि सदा शान्तं शान्तये सर्वकर्मणाम् ।।।।
अनुवाद : जे परमात्मामां चेतनस्वरूप अनुपम आनंदनो सद्भाव छे तथा
जे अविनश्वर अने शान्त छे तेमने हुं (पद्मनन्दीमुनि) पोताना समस्त कर्मो शान्त
करवा माटे सदा नमस्कार करूं छुं. १.
(अनुष्टुभ् )
खादिपञ्चकनिर्मुक्तं कर्माष्टकविवर्जितम्
चिदात्मकं परं ज्योतिर्वन्दे देवेन्द्रपूजितम् ।।।।
अनुवाद : जे आकाशादि पांच (आकाश, वायु, अग्नि, जळ अने पृथ्वी)
द्रव्योथी अर्थात् शरीरथी तथा ज्ञानावरणादि आठ कर्मोथी पण रहित थयेल छे अने
देवोना इन्द्रोथी पूज्य छे एवी ते चैतन्यस्वरूप उत्कृष्ट ज्योतिने हुं नमस्कार करुं
छुं. २.
(अनुष्टुभ् )
यदव्यक्त मबोधानां व्यक्तं सद्वोधचक्षुषाम्
सारं यत्सर्ववस्तूनां नमस्तस्मै चिदात्मने ।।।।
अनुवाद : जे चेतन आत्मा अज्ञानी प्राणीओने अस्पष्ट तथा सम्यग्ज्ञानीओने

Page 149 of 378
PDF/HTML Page 175 of 404
single page version

background image
स्पष्ट छे अने समस्त वस्तुओमां श्रेष्ठ छे ते चेतन आत्माने नमस्कार हो. ३.
(अनुष्टुभ् )
चित्तत्वं तत्प्रतिप्राणिदेह एव व्यवस्थितम्
तमश्छन्ना न जानन्ति भ्रमन्ति च बहिर्बहिः ।।।।
अनुवाद : ते चैतन्य तत्त्व प्रत्येक प्राणीना शरीरमां ज स्थित छे. परंतु
अज्ञानरूप अंधकारथी व्याप्त जीव तेने जाणता नथी, तेथी तेओ बहारने बहार
घूमे छे अर्थात् विषयभोगजनित सुखने ज वास्तविक सुख मानीने तेने प्राप्त
करवा माटे ज प्रयत्नशील रहे छे. ४.
(अनुष्टुभ् )
भ्रमन्तो ऽपि सदा शास्त्रजाले महति केचन
न विदन्ति परं तत्त्वं दारुणीव हुताशनम् ।।।।
अनुवाद : केटलाय मनुष्यो सदा महान् शास्त्रसमूहमां परिभ्रमण करता
होवा छतां पण, अर्थात् अनेक शास्त्रोनुं परिशीलन करता होवा छतां ते उत्कृष्ट
आत्मतत्त्वने लाकडामां शक्तिरूपे विद्यमान अग्नि समान जाणता नथी. ५.
(अनुष्टुभ् )
केचित्केनापि कारुण्यात्कथ्यमानमपि स्फु टम्
न मन्यन्ते न शृण्वन्ति महामोहमलीमसाः ।।।।
अनुवाद : जो कोई दयाथी प्रेराईने ते उत्कृष्ट तत्त्वनुं स्पष्टपणे कथन करे
छे तो पण केटलाय प्राणीओ महामोहथी मलिन थईने तेने मानता य नथी अने
सांभळता य नथी. ६.
(अनुष्टुभ् )
भूरिधर्मात्मकं तत्त्वं दुःश्रुतेर्मन्दबुद्धयः
जात्यन्धहस्तिरूपेण ज्ञात्वा नश्यन्ति केचन ।।।।
अनुवाद : जेम जन्मांध मनुष्य हाथीनुं यथार्थ स्वरूप ग्रहण करी शकतो

Page 150 of 378
PDF/HTML Page 176 of 404
single page version

background image
नथी, परंतु तेना कोई एक ज अंगने पकडीने तेने ज हाथी मानी ले छे बराबर
एवी ज रीते केटलाय मंदबुद्धि मनुष्यो एकांतवादीओ द्वारा प्रकाशित खोटा शास्त्रोना
अभ्यासथी पदार्थने सर्वथा एकरूप ज मानीने तेना अनेक धर्मात्मक (अनेकान्तात्मक)
स्वरूपने जाणता नथी अने तेथी ते विनाश पामे छे.
विशेषार्थ : जेवी रीते एक ज पुरुषमां पितृत्व, पुत्रत्व, फुवापणुं, मामापणुं वगेरे अनेक
धर्म भिन्न भिन्न अपेक्षाए रहे छे तथा अपेक्षाकृत होवाथी तेमनामां परस्पर कोई प्रकारनो विरोध
पण आवतो नथी. एवी ज रीते प्रत्येक पदार्थमां अनेक धर्म रहे छे. परंतु केटलाय एकान्तवादी तेमनी
अपेक्षाकृत सत्यता न समजतां तेमनामां परस्पर विरोध बतावे छे. तेमनुं कहेवुं एम छे के जेवी
रीते कोई एक ज पदार्थमां एक साथे शीतपणुं अने उष्णपणुं आ बन्ने धर्म रही शकता नथी तेवी
ज रीते एक ज पदार्थमां नित्यपणुं
- अनित्यपणुं, - अपृथकत्व तथा एकत्व - अनेकत्व आदि
परस्पर विरोधी धर्म पण एक साथे रही शकता नथी. परंतु जो आना उपर गंभीर द्रष्टिथी विचार
करवामां आवे तो उक्त धर्मो रहेवामां कोई प्रकारनो विरोध प्रतिभासतो नथी. जेम
कोई एक ज
पुरुषमां पोताना पुत्रनी अपेक्षाए पितापणुं अने पितानी अपेक्षाए पुत्रपणुं आ बन्ने विरोधी धर्म
रहेवामां, एक ज वस्तुमां शीतपणुं अने उष्णपणुं रहेवामां जे विरोध बताववामां आवे छे तेमां
प्रत्यक्षरूपे बाधा आवे छे केमके चिपिया आदिमां एक साथे ते बन्ने (आगला भागनी अपेक्षाए
उष्णपणुं अने पाछला भागनी अपेक्षाए शीतपणुं) धर्म प्रत्यक्षपणे जोवामां आवे छे. ए ज रीते
घट
पटादि बधा पदार्थोमां द्रव्यनी अपेक्षाए नित्यपणुं अने पर्यायनी अपेक्षाए अनित्यपणुं आदि
परस्पर विरोधी देखाता धर्म पण प्राप्त थाय छे. कारण के ज्यारे घडानो नाश थाय छे त्यारे ते
कांई निरन्वय नाश थतो नथी. परंतु जे पुद्गल द्रव्य घट पर्यायमां हतुं तेनुं पुद्गलपणुं ते नष्ट थई
जतां उत्पन्न थयेल ठीकराओमां पण टकी कहे छे. तेथी पर्यायनी अपेक्षाए ज तेनो नाश कहेवाशे
नहि के पुद्गल द्रव्यनी अपेक्षाए पण. एवी ज रीते अन्य धर्मोना संबंधमां पण समजवुं जोईए.
आ रीते जे जडबुद्धि पदार्थमां अनेक धर्मो प्रतीतिसिद्ध होवा छतां पण तेमनामांथी कोई एक ज
धर्मनो दुराग्रह वश थईने स्वीकार करे छे तेओ पोते ज पोतानुं अहित करे छे. ७.
(अनुष्टुभ् )
केचित् किंचित्परिज्ञाय कुतश्चिद्गर्विताशयाः
जगन्मन्दं प्रपश्यन्तो नाश्रयन्ति मनीषिणः ।।।।
अनुवाद : केटलाय जीव कोई शास्त्र आदिना निमित्ते कांईक थोडुं एक ज्ञान
मेळवीने एटला बधा अभिमानी थई जाय छे के ते बधा लोकोने मूर्ख समजीने
अन्य कोई पण विशिष्ट विद्वानोनो आश्रय लेता नथी. ८.

Page 151 of 378
PDF/HTML Page 177 of 404
single page version

background image
(अनुष्टुभ् )
जन्तुमुद्धरते धर्मः पतन्तं दुःखसंकटे
अन्यथा स कृतो भ्रान्त्या लोकैर्ग्राह्यः परीक्षितः ।।।।
अनुवाद : दुःखरूप संकुचित मार्गमां (खाडामां) पडता प्राणीनुं रक्षण धर्म
ज करे छे. परंतु बीजाओए एनुं स्वरूप भ्रान्तिवश थईने विपरीत करी दीधुं छे.
तेथी मनुष्योए तेनुं (धर्मनुं) परीक्षापूर्वक ग्रहण करवुं जोईए. ९.
(अनुष्टुभ् )
सर्वविद्वीतरागोक्तो धर्मः सूनृततां व्रजेत्
प्रामाण्यतो यतः पुंसो वाचः प्रामाण्यमिष्यते ।।१०।।
अनुवाद : जे धर्म सर्वज्ञ अने वीतराग द्वारा कहेवामां आव्यो होय ते ज
यथार्थपणाने प्राप्त थई शके छे, केम के पुरुषनी प्रमाणताथी ज वचनमां प्रमाणता
मानवामां आवे छे.
विशेषार्थ : वचनमां असत्यपणुं कां तो अल्पज्ञताने कारणे होय छे अथवा तो पछी
हृदय राग-द्वेषथी दूषित होवाना कारणे. तेथी जे पुरुष अल्पज्ञ अने राग-द्वेष सहित छे तेनो कहेलो
धर्म प्रमाण होई शके नहि. परंतु जे पुरुष सर्वज्ञ होवानी साथोसाथ राग-द्वेषथी रहित पण थई
गया छे तेमनो ज कहेलो धर्म प्रमाण मानी शकाय छे. १०.
(अनुष्टुभ् )
बहिर्विषयसंबंधः सर्वः सर्वस्य सर्वदा
अतस्तद्भिन्नचैतन्यबोधयोगौ तु दुर्लभौ ।।११।।
अनुवाद : बधा बाह्य विषयोनो संबंध बधा प्राणीओने अने ते पण सदा काळ
रहे छे. परंतु तेनाथी भिन्न चैतन्य अने सम्यग्ज्ञाननो संबंध ए बन्ने दुर्लभ छे. ११.
(अनुष्टुभ् )
लब्धिपञ्चकसामग्रीविशेषात्पात्रतां गतः
भव्यः सम्यग्द्रगादीनां यः स मुक्ति पथे स्थितः ।।१२।।
अनुवादःजे भव्यजीव क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य अने करण
आ पंच लब्धिओ रूप विशेष सामग्रीथी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने

Page 152 of 378
PDF/HTML Page 178 of 404
single page version

background image
सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय धारण करवाने योग्य बनी गयो छे ते मोक्षमार्गमां स्थित
थई गयो छे.
विशेषार्थःप्रथमोपशम सम्यक्त्वनी प्राप्ति जे पांच लब्धिओ द्वारा थाय छे तेमनुं
स्वरूप आ रीते छे.
१. क्षयोपशम लब्धिःज्यारे पूर्वसंचित कर्मोना अनुभाग स्पर्धको विशुद्धि द्वारा
प्रत्येक समये उत्तरोत्तर अनंतगुणा हीन थता थका उद्दीरणाने प्राप्त थाय छे त्यारे क्षयोपशम
लब्धि थाय छे.
२. विशुद्धिलब्धिःप्रतिसमय अनंतगुणी हीनताना क्रमथी उद्दीरणाने प्राप्त
कराववामां आवेला अनुभाग स्पर्धकोथी उत्पन्न थयेल जे जीवना परिणाम शाता वेदनीय आदि
पुण्य प्रकृतिओना बंधनुं कारण तथा अशाता वेदनीय आदि पाप प्रकृतिओना अबंधनुं कारण
थाय छे तेने विशुद्धि कहे छे. आ विशुद्धिनी प्राप्तिनुं नाम विशुद्धिलब्धि छे.
३. देशनालब्धिःजीवादि छ द्रव्य तथा नव पदार्थोना उपदेशने देशना कहेवामां
आवे छे. ते देशनामां लीन थयेल आचार्य आदिनी प्राप्तिने तथा तेमना द्वारा उपदिष्ट पदार्थना
ग्रहण, धारण अने विचार करवानी शक्तिनी प्राप्तिने पण देशनालब्धि कहे छे.
४. प्रायोग्यलब्धिःबधा कर्मोनी उत्कृष्ट स्थितिनो घात करीने तेने अंतःकोडाकोडी
मात्र स्थितिमां स्थापित करवाने तथा उकत सर्व कर्मोना उत्कृष्ट अनुभागनो घात करीने तेने
द्विस्थानीय (घातिया कर्मोने लता अने लाकडारूप तथा अन्य पाप प्रकृतिओने लींबडा अने
कांजी रूप) अनुभागमां स्थापित करवाने प्रायोग्यलब्धि कहेवामां आवे छे.
५. करणलब्धिःअधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण अने अनिवृत्तिकरण आ त्रण
प्रकारना परिणामोनी प्राप्तिने करणलब्धि कहे छे. जे परिणामोमां उपरितनसमयवर्ती परिणाम
अधस्तनसमयवर्ती परिणामोना समान होय छे तेमने अधःप्रवृत्तकरण कहेवामां आवे छे.
(विशेष जाणवा माटे जुओ षट्खंडागम पु. ६, पृ. २१४ वगेरे). प्रत्येक समये उत्तरोत्तर
जे अपूर्व अपूर्व परिणाम थाय छे ते अपूर्वकरण परिणाम कहेवाय छे. आमां भिन्न समयवर्ती
जीवोना परिणाम सर्वथी विसद्रश अने एक समयवर्ती जीवोना परिणाम सद्रश अने विसद्रश
पण होय छे. जे परिणाम एक समयवर्ती जीवोना सर्वथा सद्रश तथा भिन्न समयवर्ती जीवोना
सर्वथा विसद्रश ज होय छे तेमने अनिवृत्तिकरण परिणाम कहेवामां आवे छे. प्रथमोपशम
सम्यक्त्वनी प्राप्ति आ त्रण प्रकारना परिणामोना अंतिम समये थाय छे. उपर्युक्त पांच
लब्धिओमां पूर्वनी चार लब्धिओ भव्य अने अभव्य बन्नेनेय समानरूपे थाय छे. परंतु पांचमी
करणलब्धि सम्यक्त्व सन्मुख थयेला भव्य जीवने ज होय छे. १२.

Page 153 of 378
PDF/HTML Page 179 of 404
single page version

background image
(अनुष्टुभ् )
सम्यग्द्रग्बोधचारित्रत्रितयं मुक्ति कारणम्
मुक्तावेव सुखं तेन तत्र यत्नो विधीयताम् ।।१३।।
अनुवाद : सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र आ त्रणे एकत्रित रूपे
मोक्षनां कारण छे. अने वास्तविक सुख ते मोक्षमां ज छे. तेथी ते मोक्षना विषयमां
प्रयत्न करवो जोईए. १३.
(अनुष्टुभ् )
दर्शनं निश्चयः पुंसि बोधस्तद्बोध इष्यते
स्थितिरत्रैव चारित्रमिति योगः शिवाश्रयः ।।१४।।
अनुवाद : आत्माना विषयमां जे निश्चय थई जाय छे तेने सम्यग्दर्शन,
ते आत्मानुं जे ज्ञान थाय छे तेने सम्यग्ज्ञान तथा ते ज आत्मामां स्थिर थवाने
सम्यक्चारित्र कहेवामां आवे छे. आ त्रणेनो संयोग मोक्षनुं कारण थाय छे. १४.
(अनुष्टुभ् )
एकमेव हि चैतन्यं शुद्धनिश्चयतोऽथवा
को ऽवकाशो विकल्पानां तत्राखण्डैकवस्तुनि ।।१५।।
अनुवाद : अथवा शुद्धनिश्चयनयनी अपेक्षाए आ (सम्यग्दर्शनादि) त्रणे एक
चैतन्यस्वरूप ज छे. कारण के ते अखंड एक वस्तु (आत्मा)मां भेदोने स्थान ज क्यां छे?
विशेषार्थ : उपर जे सम्यग्दर्शन आदिनुं पृथक् पृथक् स्वरूप बताववामां आव्युं छे ते
व्यवहारनयनी अपेक्षाए छे. शुद्ध निश्चयनयथी ते त्रणेमां कोई भेद नथी कारण के ते त्रणेय अखंड
आत्माथी अभिन्न छे. तेथी तेमनामां भेदनी कल्पना पण थई शकती नथी. १५.
(अनुष्टुभ् )
प्रमाणनयनिक्षेपा अर्वाचीने पदे स्थिताः
केवले च पुनस्तस्मिंस्तदेकं प्रतिभासते ।।१६।।
अनुवाद : प्रमाण, नय अने निक्षेप ए अर्वाचीन पदमां स्थित छे अर्थात्
ज्यारे व्यवहारनयनी मुख्यताथी वस्तुनुं विवेचन करवामां आवे छे त्यारे ज तेमनो
उपयोग थाय छे. परंतु शुद्ध निश्चयनयनी द्रष्टिमां केवळ एक शुद्ध आत्मा ज

Page 154 of 378
PDF/HTML Page 180 of 404
single page version

background image
प्रतिभासित थाय छे. त्यां ते उपर्युक्त सम्यग्दर्शनादि त्रणे पण अभेदरूपमां एक
ज प्रतिभासित थाय छे. १६.
(अनुष्टुभ् )
निश्चयैकद्रशा नित्यं तदेवैकं चिदात्मकम्
प्रपश्यामि गतभ्रान्तिर्व्यवहारद्रशा परम् ।।१७।।
अनुवाद : हुं निश्चयनय रूप अनुपम नेत्रथी सदा भ्रांतिथी रहित थईने
ते ज एक चैतन्यस्वरूपने देखुं छुं. परंतु व्यवहारनयरूप नेत्रथी उक्त सम्यग्दर्शनादि
पृथक् पृथक् स्वरूपे देखुं छुं. १७.
(अनुष्टुभ् )
अजमेकं परं शान्तं सर्वोपाधिविवर्जितम्
आत्मानमात्मना ज्ञात्वा तिष्ठेदात्मनि यः स्थिरः ।।१८।।
(अनुष्टुभ् )
स एवामृतमार्गस्थः स एवामृतमश्नुते
स एवार्हन् जगन्नाथः स एव प्रभुरीश्वरः ।।१९।।
अनुवाद : जे महात्मा जन्ममरण रहित, एक, उत्कृष्ट, शान्त अने सर्व
प्रकारना विशेषणो रहित आत्माने आत्मा द्वारा जाणीने ते ज आत्मामां स्थिर रहे
छे, ते ज अमृत अर्थात् मोक्षना मार्गे स्थित थाय छे, ते ज मोक्षपदने प्राप्त करे
छे तथा ते ज अर्हन्त, त्रणे लोकना स्वामी, प्रभु अने इश्वर कहेवाय छे. १८-१९.
(अनुष्टुभ् )
केवलज्ञानद्रक्सौख्यस्वभावं तत्परं महः
तत्र ज्ञाते न किं ज्ञातं द्रष्टे द्रष्टं श्रुते श्रुतम् ।।२०।।
अनुवाद : केवळज्ञान, केवळदर्शन अने अनंत सुखस्वरूप जे ते उत्कृष्ट तेज
छे तेने जाणतां बीजुं शुं न जणायुं? तेने देखी लेतां बीजुं शुं न देखवामां आव्युं?
अने तेने सांभळतां बीजुं शुं न सांभळवामां आव्युं? अर्थात् एक मात्र तेने जाणी
लेतां बधुं ज जणाई गयुं छे, तेने देखी लेतां बधुं ज देखवामां आवी गयुं छे