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प्राणीने सेंकडो प्रकारे दुःख आपे छे. जेम योग्य भूमिमां वाववामां आवेलुं नानकडुं
वडनुं बीज पण सेंकडो शाखाओ संयुक्त वडवृक्ष रूपे विस्तार पामे छे तेथी ज आवो
अहितकारी ते शोक प्रयत्नपूर्वक छोडी देवो जोईए. २७.
मरण अनिवार्य छे. छतां एक प्राणी बीजा प्राणीनुं मृत्यु थतां शोक केम करे छे?
अर्थात् जो बधा संसारी प्राणीओनुं मरण अवश्य थनार छे तो एक बीजा मरतां
शोक करवो उचित नथी. २८.
जेनुं मरण त्रणे काळे संभव न होय ते जो कोई प्रियजननुं मरण थतां शोक करे
तो एमां तेनी शोभा छे. परंतु जे मनुष्य समयानुसार पोते ज मरणने प्राप्त थाय
छे तेनुं बीजा कोई प्राणीनुं मरण थतां शोकाकुळ थवुं अशोभनीय छे. अभिप्राय
ए छे के जो बधा संसारी प्राणी समय अनुसार मृत्युने प्राप्त थाय छे तो एके
बीजानुं मृत्यु थतां शोक करवो उचित नथी. २९.
मनुभवति च पातं सोऽपि देवो दिनेशः
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वसति हृदि विषादः सत्स्ववस्थान्तरेषु
सायंकाळमां निश्चयथी अस्त पामे छे त्यारे जन्ममरणादि
पण विषाद न करवो जोईए. ३०.
भूपृष्ठ एव शकटप्रमुखाश्चरन्ति
सर्वत्र कुत्र भविनां भवति प्रयत्नः
करे छे. परंतु यम(मृत्यु) आकाश, पृथ्वी अने जळमां बधा स्थळे पहोंचे छे. तेथी
संसारी प्राणीओनो प्रयत्न क्यां थई शके? अर्थात् काळ जो बधा संसारी प्राणीओनो
कोळियो करी जतो होय तो तेनाथी बचवा माटे करवामां आवतो कोई पण प्राणीनो
प्रयत्न सफळ थई शकतो नथी. ३१.
किं मन्त्रं किमुताश्रयः किमु सुहृत् किं वा स गन्धो ऽस्ति सः
यैः सर्वैरपि देहिनः स्वसमये कर्मोदितं वार्यते
पण एवा शक्तिशाळी छे जे बधाय पोताना उदय पामेला कर्मने रोकी शके? अर्थात्
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नथी. ३२.
ध्वस्तास्ते ऽपि परम्परेण स परस्तेभ्यः कियान् राक्षसः
रामो ऽप्यन्तकगोचरः समभवत् को ऽन्यो बलीयान् विधेः
छे. ते शत्रु पण रावण राक्षस हतो जे ते इन्द्रादिनी अपेक्षाए कांई पण नहोतो.
वळी ते रावण राक्षस पण राम नामना मनुष्य द्वारा समुद्र ओळंगीने मार्यो गयो.
अंते ते राम पण यमराजनो विषय बनी गया अर्थात् तेने पण मृत्युए न छोड्या.
बराबर छे
मुग्धास्तत्र वधूमृगीगतधियस्तिष्ठन्ति लोकैणकाः
तस्माज्जीवति नो शिशुर्न च युवा वृद्धोऽपि नो कश्चन
आसक्त थईने रहे छे. निर्दय काळ (मृत्यु) रूपी व्याध (शिकारी) सामे आवेल
आ मनुष्योरूपी हरणोनो सदाय नाश कर्या करे छे. तेनाथी न कोई बाळक बचे
छे, न कोई युवक बचे छे अने न कोई वृद्ध पण जीवतो रहे छे. ३४.
पुत्रादिप्रियपल्लवो रतिसुखप्रायैः फलैराश्रितः
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पौत्रादिरूपी मनोहर पर्णोथी रमणीय तथा विषयभोगजनित सुख जेवा फळोथी
परिपूर्ण होय छे; ते जो मृत्युरूपी तीव्र दावानळथी व्याप्त न होत तो विद्वानो
बीजुं शुं देखे? अर्थात् ते मनुष्यरूपी वृक्ष ते काळरूपी दावानळथी नष्ट थाय
ज छे. आ जोवा छतां पण विद्वानो आत्महितमां प्रवृत्त थता नथी ए खेदनी
वात छे. ३५.
नूनं मृत्युमुपाश्रयन्ति मनुजास्तत्राप्यतो बिभ्यति
दुःखोर्मिप्रचुरे पतन्ति कुधियः संसारघोरार्णवे
डरे छे. आ रीते ते दुर्बुद्धि मनुष्यो हृदयमां इच्छा (सुखनी अभिलाषा) अने भय
(मृत्युनो भय) धारण करतां थकां अज्ञानथी अनेक दुःखोरूपी लहेरोवाळा संसाररूपी
भयानक समुद्रमां नकामा ज पडे छे. ३६.
प्रसृतधनजरोरुप्राल्लसज्जालमध्ये
भवसरसि वराको लोकमीनौघ एषः
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आपत्तिओना समूहने पण देखतो नथी.
आवेली जाळनुं पण ध्यान रहेतुं नथी तेथी तेमने तेमां फसाईने मरणनुं कष्ट सहन करवुं
पडे छे. बराबर एवी ज रीते बिचारा आ प्राणीओ पण संसारमां शातावेदनीयजनित अल्प
सुखमां एटला अधिक मग्न थई जाय छे के तेने मृत्यु प्राप्त करावनार वृद्धत्वनी प्राप्ति
थई जवा छतां पण तेनुं भान नथी रहेतुं अने तेथी अंते ते काळनो कोळियो बनीने असह्य
दुःख सहे छे. ३७.
मोहादेव जनस्तथापि मनुते स्थैर्यं परं ह्यात्मनः
तद्वध्नात्यधिकाधिकं स्वमसकृत्पुत्रादिभिर्बन्धनैः
मोहना कारणे पोताने अतिशय स्थिर माने छे. तेथी वृद्धत्वने प्राप्त थवा छतां पण
ते घणुं करीने धर्मनी अभिलाषा करतो नथी अने तेथी ज पोताने निरंतर पुत्रादिरूप
बंधनोथी अत्यन्तपणे बांधे छे. ३८.
सापायस्थिति दोषधातुमलवत्सर्वत्र यन्नश्वरम्
तच्चित्रं स्थिरता बुधैरपि वपुष्यत्रापि यन्मृग्यते
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परिपूर्ण छे; अने जे नष्ट थवानुं छे, तेनी साथे जो आधि (मानसिक चिंता),
रोग, वृद्धावस्था अने मरण आदि रहेता होय तो एमां कोई आश्चर्य नथी.
परंतु आश्चर्य तो केवळ एमां छे के विद्वान् मनुष्य पण ते शरीरमां स्थिरता
शोधे छे. ३९.
प्राप्तास्ते विषया मनोहरतराः स्वर्गे ऽपि ये दुर्लभाः
श्लिष्टं भोज्यमिवातिरम्यमपि धिग्मुक्ति : परं मृग्यताम्
ते अतिशय मनोहर विषयो पण प्राप्त करी लीधा छे. छतां पण जो पाछळ
मृत्यु आववानुं होय तो आ बधुं विषयुक्त आहार समान अत्यंत रमणीय होवा
छतां पण धिक्कारवा योग्य छे. तेथी तुं एक मात्र मुक्तिनी खोज कर. ४०.
क्रुद्धो धावति नैव सन्मुखमितो यत्नो विधेयो बुधैः
मारवानी इच्छाथी सामे दोडतो नथी त्यां सुधी ज कार्य सिद्ध करी शके छे. तेथी
विद्वान् पुरुषोए ते यमथी पोतानी रक्षा करवा माटे अर्थात् मोक्ष प्राप्ति माटे ज
प्रयत्न करवो जोईए. ४१.
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सर्वव्याधिविवर्जितो ऽपि तरुणो ऽप्याशु क्षयं गच्छति
संसारे स्थितिरी
पदार्थोना विषयमां तो शुं कहेवुं? पण जे लक्ष्मी अने जीवन बन्ने य संसारमां श्रेष्ठ
गणवामां आवे छे तेमनी पण जो आवी (उपर्युक्त) स्थिति छे तो विद्वान् मनुष्ये
बीजा कोना विषयमां अभिमान करवुं जोईए? अर्थात् अभिमान करवा योग्य कोई
पदार्थ अहीं स्थायी नथी. ४२.
तृष्णार्तो ऽथ मरीचिकाः पिबति च प्रायः प्रमत्तो भवन्
यः सम्पत्सुतकामिनीप्रभृतिभिः कुर्यान्मदं मानवः
जे मनुष्य तेमना विषयमां स्थिरतानुं अभिमान करे छे ते जाणे मुठ्ठीथी आकाशनो
नाश करे छे अथवा व्याकुळ थईने सूकी (जळ रहित) नदी तरे छे अथवा तरसथी
पीडाईने प्रमादयुक्त थयो थको रेतीने पीवे छे.
ज रीते जे संपत्ति, पुत्र अने स्त्री आदि पदार्थो देखता देखता ज नष्ट थनारा छे तेमना विषयमां
अभिमान करवुं ए पण मनुष्यनुं अज्ञान प्रगट करे छे. कारण के जो उक्त पदार्थो चिरस्थायी
होत तो तेमना विषयमां अभिमान करवुं उचित कही शकातुं हतुं, पण तेम तो छे नहि. ४३.
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पुत्रादीनपरान् मृगानतिरुषा निघ्नन्ति सेर्ष्यं किल
नो पश्यन्ति समीपमागतमपि क्रुद्धं यमं लुब्धकम्
मृगोनो घात करे छे. तेओ ते यमरूपी शिकारीए घणी आपत्तिओ रूपी धनुष्यने
सुसज्ज करीने तेनी उपर संहार करनार बाण राखी मूक्युं छे तथा जे पोतानी समीपे
आवी गयो छे एवा ते क्रोधे भरायेला यमरूपी शिकारीने पण देखता नथी.
तरफ जोता नथी के जे तेमनो वध करवा माटे धनुष्य-बाणथी सुसज्ज थईने समीपमां आवी
पहोच्यो छे. बराबर एवी ज रीते राजाओ चंचळ राज्यलक्ष्मीना निमित्ते क्रुद्ध बनीने
बीजाओनी तो शुं वात पण पुत्रादिनो पण घात करे छे, परंतु तेओ ते यमराज (मृत्यु)
ने जोता नथी के जे अनेक आपत्तिओमां नाखीने तेमने ग्रहण करवा माटे समीपमां आवी
गयो छे. तात्पर्य ए छे के जे धन
य नश्वर समजीने कल्याणना मार्गमां लागी जवुं जोईए. ४४.
नो गन्धोऽपि गुणस्य तस्य बहवो दोषाः पुनर्निश्चितम्
पापं रुक् च मृतिश्च दुर्गतिरथ स्याद्दीर्घसंसारिता
छे; ए नक्की छे. आ शोकथी तेनुं दुःख अधिक वधे छे; धर्म, अर्थ, काम अने
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(अशातावेदनीय) कर्मनो बंध पण थाय छे. रोग उत्पन्न थाय छे अने अंते मरण
पामीने ते नरकादि दुर्गति पामे छे. आ रीते तेनुं संसार परिभ्रमण लांबु थई
जाय छे. ४५.
भयथी दुःखी थशे? अर्थात् कोई नहि थाय.
ए ज रीते ज्यां संसारनुं स्वरूप ज आपत्तिमय छे त्यां भला एवा संसारमां
रहीने कोई आपत्ति आवतां खेदखिन्न थवुं, ए पण अतिशय अज्ञानपणानुं ज
द्योतक छे. ४६.
भ्रान्तोऽथ वा किमु जनः किमथ प्रमत्तः
विद्युच्चलं तदपि नो कुरुते स्वकार्यम्
समान चंचळ छे’ आ वात जाणे छे, देखे छे अने सांभळे पण छे; तो पण पोतानुं
कार्य (आत्महित) करतो नथी. ४७.
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नो कुर्याच्छुचमेवमुन्नतमतिर्लोकान्तरस्थे निजे
बन्धाश्चर्मविनिर्मिताः परिलसद्वर्षाम्बुसिक्ता इव
शोक करता नथी. कारण के मृत्यु पासे आवतां प्राणीओना बधा प्रयत्नो एवी रीते
शिथिल थई जाय छे जेम चामडाना बनावेला बंधन वरसादना पाणीमां भींजाईने
शिथिल थई जाय छे. अर्थात् मृत्युथी बचवा माटे करवामां आवतो प्रयत्न कदी
कोईनो सफळ थतो नथी. ४८.
समाघ्रातः साक्षाच्छरणरहिते संसृतिवने
वदन्नेवं मे मे पशुरिव जनो याति मरणम्
‘आ प्रिया मारी छे, आ पुत्र मारा छे. आ द्रव्य मारुं छे, अने आ घर पण मारुं
छे.’ आम ‘मारुं मारुं कहेतो मरण पामी जाय छे.
वशीभूत थईने आ मनुष्य ते मृत्यु तरफ ध्यान न देतां जे स्त्री
छे आदि) करतो थको नकामो संक्लेश पामे छे. ४९.
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विहन्यमानस्य निजायुषो भृशम्
त्वमात्यन्यभिमन्यते जडः
माने छे. ५०.
का वार्तान्यजनस्य कीटस
कालः क्रीडति नात्र येन सहसा तत्किंचिदन्विष्यताम्
वात ज शी? अर्थात् ते तो निःसंदेह मरण पामशे ज तेथी हे भव्य जीव! कोई
अत्यंत प्रिय मनुष्य मरण पामतां व्यर्थ मोह न कर. परंतु कोई एवो उपाय शोध
के जेथी ते काळ (मृत्यु) सहसा अहीं क्रीडा न करी शके. ५१.
सम्पच्चेद्विपदा सुखं यदि तदा दुःखेन भाव्यं ध्रुवम्
वेषान्यत्वनटीकृताङ्गिनि सतः शोको न हर्षः क्वचित्
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पण अवश्य होवुं जोईए, जो संपत्ति छे तो विपत्ति पण अवश्य होवी जोईए,
तथा जो सुख छे तो दुःख पण अवश्य होवुं जोईए. तेथी सज्जन मनुष्ये
इष्टसंयोगादि थतां तो हर्ष अने इष्टवियोगादि थतां शोक पण न करवो जोईए.
संपत्ति अने विपत्ति तथा सुख अने दुःख आदिमां अंतःकरणपूर्वक हर्ष अने विषाद पामतो
नथी. कारण के ते पोतानी यथार्थ अवस्था अने ग्रहण करेला ते कृत्रिम वेशोमां तफावत
समजे छे. तेवी ज रीते विवेकी मनुष्य पण उपर्युक्त संयोग
ज जन्म
कोई वार संपत्तिशाळी थाय छे तो कोई वार ते अशुभ कर्मना उदयथी विपत्तिग्रस्त पण
जोवामां आवे छे. तेथी तेमां हर्ष अने विषाद पामवो बुद्धिमत्ता नथी. ५२.
कुर्यात्सा भवितव्यतागतवती तत्तत्र यद्रोचते
रागद्वेषविषोज्झितैरिति सदा सद्भिः सुखं स्थीयताम्
राग-द्वेषरूपी विष रहित थईने मोहना प्रभावथी अतिशय विस्तार पामता अनेक
विकल्पोनो त्याग करीने सदा सुखपूर्वक स्थिति करो. ५३.
वाताहतध्वजपटाग्रचलं समस्तम्
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धर्मे मतिं कुरुत किं बहुभिर्वचोभिः
तेमना विषयमां तथा धन अने मित्र आदिना विषयमां मोह छोडीने धर्ममां
बुद्धि जोडो. ५४.
श्रीपद्मनन्दिवदनाम्बुधरप्रसूतिः
पञ्चाशदुन्नतधियाममृतैक वृष्टिः
विद्वानोने माटे पुत्रादिना शोकरूपी अग्निने शान्त करीने सम्यग्ज्ञानरूप धान्य उत्पन्न
करे छे ते जयवंत हो. ५५.
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करवा माटे सदा नमस्कार करूं छुं. १.
देवोना इन्द्रोथी पूज्य छे एवी ते चैतन्यस्वरूप उत्कृष्ट ज्योतिने हुं नमस्कार करुं
छुं. २.
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घूमे छे अर्थात् विषयभोगजनित सुखने ज वास्तविक सुख मानीने तेने प्राप्त
करवा माटे ज प्रयत्नशील रहे छे. ४.
आत्मतत्त्वने लाकडामां शक्तिरूपे विद्यमान अग्नि समान जाणता नथी. ५.
सांभळता य नथी. ६.
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एवी ज रीते केटलाय मंदबुद्धि मनुष्यो एकांतवादीओ द्वारा प्रकाशित खोटा शास्त्रोना
अभ्यासथी पदार्थने सर्वथा एकरूप ज मानीने तेना अनेक धर्मात्मक (अनेकान्तात्मक)
स्वरूपने जाणता नथी अने तेथी ते विनाश पामे छे.
पण आवतो नथी. एवी ज रीते प्रत्येक पदार्थमां अनेक धर्म रहे छे. परंतु केटलाय एकान्तवादी तेमनी
अपेक्षाकृत सत्यता न समजतां तेमनामां परस्पर विरोध बतावे छे. तेमनुं कहेवुं एम छे के जेवी
रीते कोई एक ज पदार्थमां एक साथे शीतपणुं अने उष्णपणुं आ बन्ने धर्म रही शकता नथी तेवी
ज रीते एक ज पदार्थमां नित्यपणुं - अनित्यपणुं, - अपृथकत्व तथा एकत्व - अनेकत्व आदि
करवामां आवे तो उक्त धर्मो रहेवामां कोई प्रकारनो विरोध प्रतिभासतो नथी. जेम
रहेवामां, एक ज वस्तुमां शीतपणुं अने उष्णपणुं रहेवामां जे विरोध बताववामां आवे छे तेमां
प्रत्यक्षरूपे बाधा आवे छे केमके चिपिया आदिमां एक साथे ते बन्ने (आगला भागनी अपेक्षाए
उष्णपणुं अने पाछला भागनी अपेक्षाए शीतपणुं) धर्म प्रत्यक्षपणे जोवामां आवे छे. ए ज रीते
घट
कांई निरन्वय नाश थतो नथी. परंतु जे पुद्गल द्रव्य घट पर्यायमां हतुं तेनुं पुद्गलपणुं ते नष्ट थई
जतां उत्पन्न थयेल ठीकराओमां पण टकी कहे छे. तेथी पर्यायनी अपेक्षाए ज तेनो नाश कहेवाशे
नहि के पुद्गल द्रव्यनी अपेक्षाए पण. एवी ज रीते अन्य धर्मोना संबंधमां पण समजवुं जोईए.
आ रीते जे जडबुद्धि पदार्थमां अनेक धर्मो प्रतीतिसिद्ध होवा छतां पण तेमनामांथी कोई एक ज
धर्मनो दुराग्रह वश थईने स्वीकार करे छे तेओ पोते ज पोतानुं अहित करे छे. ७.
अन्य कोई पण विशिष्ट विद्वानोनो आश्रय लेता नथी. ८.
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तेथी मनुष्योए तेनुं (धर्मनुं) परीक्षापूर्वक ग्रहण करवुं जोईए. ९.
मानवामां आवे छे.
धर्म प्रमाण होई शके नहि. परंतु जे पुरुष सर्वज्ञ होवानी साथोसाथ राग-द्वेषथी रहित पण थई
गया छे तेमनो ज कहेलो धर्म प्रमाण मानी शकाय छे. १०.
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थई गयो छे.
लब्धि थाय छे.
पुण्य प्रकृतिओना बंधनुं कारण तथा अशाता वेदनीय आदि पाप प्रकृतिओना अबंधनुं कारण
थाय छे तेने विशुद्धि कहे छे. आ विशुद्धिनी प्राप्तिनुं नाम विशुद्धिलब्धि छे.
ग्रहण, धारण अने विचार करवानी शक्तिनी प्राप्तिने पण देशनालब्धि कहे छे.
द्विस्थानीय (घातिया कर्मोने लता अने लाकडारूप तथा अन्य पाप प्रकृतिओने लींबडा अने
कांजी रूप) अनुभागमां स्थापित करवाने प्रायोग्यलब्धि कहेवामां आवे छे.
(विशेष जाणवा माटे जुओ षट्खंडागम पु. ६, पृ. २१४ वगेरे). प्रत्येक समये उत्तरोत्तर
जे अपूर्व अपूर्व परिणाम थाय छे ते अपूर्वकरण परिणाम कहेवाय छे. आमां भिन्न समयवर्ती
जीवोना परिणाम सर्वथी विसद्रश अने एक समयवर्ती जीवोना परिणाम सद्रश अने विसद्रश
पण होय छे. जे परिणाम एक समयवर्ती जीवोना सर्वथा सद्रश तथा भिन्न समयवर्ती जीवोना
सर्वथा विसद्रश ज होय छे तेमने अनिवृत्तिकरण परिणाम कहेवामां आवे छे. प्रथमोपशम
सम्यक्त्वनी प्राप्ति आ त्रण प्रकारना परिणामोना अंतिम समये थाय छे. उपर्युक्त पांच
लब्धिओमां पूर्वनी चार लब्धिओ भव्य अने अभव्य बन्नेनेय समानरूपे थाय छे. परंतु पांचमी
करणलब्धि सम्यक्त्व सन्मुख थयेला भव्य जीवने ज होय छे. १२.
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प्रयत्न करवो जोईए. १३.
सम्यक्चारित्र कहेवामां आवे छे. आ त्रणेनो संयोग मोक्षनुं कारण थाय छे. १४.
आत्माथी अभिन्न छे. तेथी तेमनामां भेदनी कल्पना पण थई शकती नथी. १५.
उपयोग थाय छे. परंतु शुद्ध निश्चयनयनी द्रष्टिमां केवळ एक शुद्ध आत्मा ज
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ज प्रतिभासित थाय छे. १६.
पृथक् पृथक् स्वरूपे देखुं छुं. १७.
छे, ते ज अमृत अर्थात् मोक्षना मार्गे स्थित थाय छे, ते ज मोक्षपदने प्राप्त करे
छे तथा ते ज अर्हन्त, त्रणे लोकना स्वामी, प्रभु अने इश्वर कहेवाय छे. १८-१९.
अने तेने सांभळतां बीजुं शुं न सांभळवामां आव्युं? अर्थात् एक मात्र तेने जाणी
लेतां बधुं ज जणाई गयुं छे, तेने देखी लेतां बधुं ज देखवामां आवी गयुं छे