Padmanandi Panchvinshati-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 37-54 (2. Danopadeshana),1 (3. Anitya Panchashat),2 (3. Anitya Panchashat),3 (3. Anitya Panchashat),4 (3. Anitya Panchashat),5 (3. Anitya Panchashat),6 (3. Anitya Panchashat),7 (3. Anitya Panchashat),8 (3. Anitya Panchashat),9 (3. Anitya Panchashat),10 (3. Anitya Panchashat),11 (3. Anitya Panchashat),12 (3. Anitya Panchashat),13 (3. Anitya Panchashat),14 (3. Anitya Panchashat),15 (3. Anitya Panchashat),16 (3. Anitya Panchashat),17 (3. Anitya Panchashat),18 (3. Anitya Panchashat),19 (3. Anitya Panchashat),20 (3. Anitya Panchashat),21 (3. Anitya Panchashat),22 (3. Anitya Panchashat),23 (3. Anitya Panchashat),24 (3. Anitya Panchashat),25 (3. Anitya Panchashat),26 (3. Anitya Panchashat),27 (3. Anitya Panchashat); 3. Anitya Panchashat.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 8 of 21

 

Page 115 of 378
PDF/HTML Page 141 of 404
single page version

background image
रीते धननी रक्षा माटे राखवामां आवेल दास (मुनीम आदि) स्वयं ते धननो उपयोग करी
शकतो नथी पण केवळ तेनुं रक्षण ज करे छे. बराबर ए ज रीते ते धनवान मनुष्य पण
ज्यारे ते धन पोताना उपभोगमां खरचतो नथी अने पात्रदानादि पण करतो नथी त्यारे
भला ते नोकरनी अपेक्षाए आनामां शुं विशेषता रहे छे? कांई पण नहि. ३६.
(वसंततिलका)
चैत्यालये च जिनसूरिबुधार्चने च
दाने च संयतजनस्य सुदुःखिते च
यच्चात्मनि स्वमुपयोगि तदेव नून-
मात्मीयमन्यदिह कस्यचिदन्यपुंसः
।।३७।।
अनुवाद : लोकमां जे धन जिनालयनुं निर्माण कराववामां, जिनदेव, आचार्य
अने पंडित अर्थात् उपाध्यायनी पूजामां, संयमी जनोने दान आपवामां, अतिशय
दुःखी प्राणीओने पण दयापूर्वक दान आपवामां तथा पोताना उपभोगमां पण काम
आवे छे. तेने ज निश्चयथी पोतानुं धन समजवुं जोईए. तेनाथी विपरीत जे धन
आ उपर्युक्त कामोमां खरचवामां आवतुं नथी तेने कोई बीजा ज मनुष्यनुं धन
समजवुं जोईए. ३७.
(वसंततिलका)
पुण्यक्षयात्क्षयमुपैति न दीयमाना
लक्ष्मीरतः कुरुत संततपात्रदानम्
कूपे न पश्यत जलं गृहिणः समन्ता-
दाकृष्यमाणमपि वर्धत एव नित्यम्
।।३८।।
अनुवाद : संपत्ति पुण्यनो क्षय थवाथी क्षय पामे छे, नहि के दान करवाथी
माटे हे श्रावको! तमे निरंतर पात्रदान करो. शुं तमे ए नथी जोता के कूवामांथी
चारे तरफथी काढवामां आवतुं होवा छतां पण पाणी हंमेशा वधतुं ज रहे छे. ३८.
(वसंततिलका)
सर्वान् गुणानिह परत्र च हन्ति लोभः
सर्वस्य पूज्यजनपूजनहानिहेतुः

Page 116 of 378
PDF/HTML Page 142 of 404
single page version

background image
अन्यत्र तत्र विहिते ऽपि हि दोषमात्र-
मेकत्र जन्मनि परं प्रथयन्ति लोकाः
।।३९।।
अनुवाद : पूज्य पुरुषोनी पूजामां बाधा पहोंचाडनार लोभ आ लोकमां
अने परलोकमां पण बधाना बधा गुणो नष्ट करी दे छे. ते लोभ जो गृहसंबंधी
कोई विवाहादि कार्योमां करवामां आवे तो लोको केवळ एक जन्ममां ज तेना
दोषमात्रने प्रसिद्ध करे छे.
विशेषार्थ : जो कोई मनुष्य जिनपूजन अने पात्रदानादिना विषयमां लोभ करे छे
तो एनाथी तेने आ जन्ममां कीर्ति आदिनो लाभ थतो नथी अने अन्य भवमां पूजन-
दानादिथी उत्पन्न थनार पुण्य रहित होवाना कारणे सुख पण प्राप्त थतुं नथी. आ रीते जे
व्यक्ति धार्मिक कार्योमां लोभ करे छे ते बन्नेय लोकमां पोतानुं अहित करे छे. एनाथी
विपरीत जे मनुष्य केवळ विवाहादिरूप गृहस्थना कार्योमां लोभ करे छे तेवो माणस कृपण
आदि शब्दो द्वारा फक्त आ जन्ममां ज तिरस्कार करी शके छे परंतु परलोक तेनो सुखमय
ज वीते छे. तेथी ज गृहस्थना कार्योमां करवामां आवतो लोभ एटलो निन्द्य नथी जेटलो
धार्मिक कार्योमां करवामां आवतो लोभ निंदनीय छे. ३९.
(वसंततिलका)
जातो ऽप्यजात इव स श्रियमाश्रितो ऽपि
रङ्कः कलङ्करहितो ऽप्यगृहीतनामा
कम्बोरिवाश्रितमृतेरपि यस्य पुंसः
शब्दः समुच्चलति नो जगति प्रकामम्
।।४०।।
अनुवाद : मुत्यु पामतां शंख समान जे पुरुषनुं नाम संसारमां अतिशय
प्रचलित थतुं नथी ते मनुष्य जन्म लईने पण नहि जन्म्या बराबर थाय छे
अर्थात् तेनो मनुष्य जन्म लेवो व्यर्थ थाय छे. कारण के ते लक्ष्मी प्राप्त करीने
पण दरिद्री जेवो रहे छे तथा दोषोथी रहित होवा छतां पण यशस्वी थई शकतो
नथी. ४०.
(वसंततिलका)
श्वापि क्षितेरपि विभुर्जठरं स्वकीयं
कर्मोपनीतविधिना विदधाति पूर्णम्

Page 117 of 378
PDF/HTML Page 143 of 404
single page version

background image
किंतु प्रशस्यनृभवार्थविवेकीताना-
मेतत्फलं यदिह संततपात्रदानम्
।।४१।।
अनुवाद : पोताना कर्म प्रमाणे कुतरो पण पोतानुं पेट भरे छे अने राजा
पण पोतानुं पेट भरे छे. पण प्रशंसनीय मनुष्यभव, धन अने विवेकबुद्धि प्राप्त
करवानुं अहीं ए ज प्रयोजन छे के निरंतर पात्रदान आपवामां आवे. ४१.
(वसंततिलका)
आयासकोटिभिरुपार्जितमङ्गजेभ्यो
यज्जीवितादपि निजाद्दयितं जनानाम्
वित्तस्य तस्य नियतं प्रविहाय दान-
मन्या विपत्तय इति प्रवदन्ति सन्तः
।।४२।।
अनुवाद : करोडो परिश्रमो द्वारा कमायेलुं जे धन पुत्रो अने पोताना
जीवनथी पण लोकोने अधिक प्रिय होय छे निश्चयथी ते धन माटे दान सिवायनी
बीजी विपत्तिओ ज छे एम साधुपुरुषो कहे छे.
विशेषार्थ : मनुष्य धन घणा कठोर परिश्रम द्वारा प्राप्त करे छे. तेथी ते तेमने पोताना
प्राणोथी पण अधिक प्रिय जणाय छे. जो तेओ तेनो सदुपयोग पात्रदानादिमां करे तो ते तेमने
फरीथी पण प्राप्त थई जाय छे. पण एनाथी उल्टुं जो तेनो दुरुपयोग खोटा व्यसनादिमां करवामां
आवे अथवा दान अने भोगरहित केवळ तेनो ज संचय ज करवामां आवे तो ते मनुष्योने
विपत्तिजनक ज थाय छे. एनुं कारण ए छे के सुखनुं कारण जे पुण्य छे तेनो ज संचय तेमणे
पात्रदानादिरूप सत्कार्यो द्वारा कदी कर्यो ज नथी. ४२.
(वसंततिलका)
नार्थः पदात्पदमपि व्रजति त्वदीयो
व्यावर्तते पितृववान्ननु बन्धुवर्गः
दीर्घे पथि प्रसवता भवतः सखैकं
पुण्यं भविष्यति ततः क्रियतां तदेव
।।४३।।
अनुवाद : तमारुं धन पोताना स्थानथी एक डगलुं पण (तमारी साथे) जतुं
नथी, ए ज रीते तमारा सगासंबंधी स्मशान सुधी तमारी साथे जईने त्यांथी पाछा

Page 118 of 378
PDF/HTML Page 144 of 404
single page version

background image
आवी जाय छे. लांबा मार्गे प्रवास करतां तमारा माटे एक पुण्य ज मित्र छे. तेथी
हे भव्य जीवो! तमे ते ज पुण्यनुं उपार्जन करो. ४३.
(वसंततिलका)
सौभाग्यशौर्यसुखरूपविवेकिताद्या
विद्यावपुर्धनगृहाणि कुले च जन्म
संपद्यते ऽखिलमिदं किल पात्रदानात्
तस्मात् किमत्र सततं क्रियते न यत्नः
।।४४।।
अनुवाद : सौभाग्य, शूरवीरपणुं, सुख, सुंदरता, विवेकबुद्धि आदि विद्या,
शरीर, धन अने महेल तथा उत्तमकुळमां जन्म थवो, आ बधुं निश्चयथी पात्रदान
द्वारा ज प्राप्त थाय छे. तो पछी हे भव्य जन! तमे ते पात्रदाननी बाबतमां निरंतर
प्रयत्न केम नथी करता? ४४.
(वसंततिलका)
न्यासश्च सद्म च करग्रहणं च सूनो-
रर्थेन तावदिह कारयितव्यमास्ते
धर्माय दानमधिकाग्रतया करिष्ये
संचिन्तयन्नपि गृही मृतिमेति मूढः
।।४५।।
अनुवाद : पहेलां तो अहीं धनमांथी कांईक थापण मूकवी छे (जमीनमां
दाटवा वगेरे), मकान बनाववुं छे अने पुत्रना लग्न करवा छे, त्यार पछी जो
वधारे धन थशे तो धर्मना निमित्ते दान करीश. आम विचार करता करता ज
ते मूर्ख गृहस्थ मरण पामी जाय छे. ४५.
(वसंततिलका)
किं जीवितेन कृपणस्य नरस्य लोके
निर्भोगदानधनबन्धनबद्धमूर्तेः
तस्माद्वरं बलिभुगुन्नतभूरिवाग्मि-
र्व्याहूतकाककुल एव बलिं स भुङ्क्ते
।।४६।।

Page 119 of 378
PDF/HTML Page 145 of 404
single page version

background image
अनुवाद : लोकमां जे कंजूस मनुष्यनुं शरीर भोग अने दान रहित एवा
धनरूपी बंधनथी बंधायेलुं छे तेना जीवननुं शुं प्रयोजन छे? अर्थात् तेना जीववाथी
कांई पण लाभ नथी. तेनी अपेक्षाए तो ते कागडो ज सारो छे जे ऊंचा अनेक
वचनो (का, का) द्वारा बीजा कागडाओने बोलावीने ज बलि (श्राद्धमां अपायेलुं द्रव्य)
खाय छे. ४६.
(वसंततिलका)
औदार्ययुक्त जनहस्तपरम्पराप्त-
व्यावर्तनप्रसृतखेदभरातिखिन्नाः
अर्था गताः कृपणगेहमनन्तसौख्य-
पूर्णा इवानिशमबाधमतिस्वपन्ति
।।४७।।
अनुवाद : दानी पुरुषोना हाथो द्वारा परंपराथी प्राप्त थयेल जवा
आववाना विपुल खेदना भारथी जाणे अत्यंत व्याकुळ थईने ज ते धन कंजूस
मनुष्यना घरने प्राप्त करीने अनंत
सुखथी परिपूर्ण थयुं थकुं निरंतर निर्बाधपणे
सूवे छे.
विशेषार्थ : दानी पुरुष प्राप्त धननो उपयोग पात्रदानमां कर्या करे छे. तेथी
पात्रदानजनित पुण्यना निमित्ते ते तेमने वारंवार मळ्या करे छे, एनाथी उल्टुं कंजूस मनुष्य पूर्वना
पुण्यथी प्राप्त थयेल ते धननो उपयोग न तो पात्रदानमां करे छे अने न पोताना उपयोगमां य.
ते केवळ तेनुं संरक्षण ज करे छे. आ बाबतमां ग्रंथकार उत्प्रेक्षा करे छे के ते धन एम विचारी
ज जाणे के ‘मने दानी पुरुषोने त्यां वारंवार जवा
आववानुं असीम कष्ट सहन करवुं पडे छे’
कंजूस मनुष्यना घरमां आवी गयुं छे. अहीं आवीने ते वारंवार थता गमनागमनना कष्टथी बचीने
निश्चिन्त रीते सूवे छे. ४७.
(वसंततिलका)
उत्कृष्टपात्रमनगारमणुव्रताढयं
मध्यं व्रतेन रहितं सु
द्रशं जघन्यम्
निर्दर्शनं व्रतनिकाययुतं कुपात्रं
युग्मोज्झितं नरमपात्रमिदं च विद्धि
।।४८।।
अनुवाद : गृह रहित मुनिने उत्तम पात्र, अणुव्रतोथी युक्त श्रावकने मध्यम

Page 120 of 378
PDF/HTML Page 146 of 404
single page version

background image
पात्र, अविरत सम्यग्द्रष्टिने जघन्य पात्र, सम्यग्दर्शन रहित होवा छतां व्रतोनुं पालन
करनार मनुष्योने कुपात्र अने बन्ने (सम्यग्दर्शन तथा व्रत) थी रहित मनुष्यने अपात्र
समजो. ४८.
(वसंततिलका)
तेभ्यः प्रदत्तमिह दानफलं जनाना-
मेतद्विशेषणविशिष्टमदुष्टभावात्
अन्याद्रशे ऽथ हृदये तदपि स्वभावा-
दुच्चावचं भवति किं बहुभिवयोभिः ।।४९।।
अनुवाद : ते उपर्युक्त पात्रोने आपवामां आवेल दाननुं फळ मनुष्योने आ
ज (उत्तम, मध्यम, जघन्य, कुत्सित अने अपात्र) विशेषणोथी विशिष्ट प्रकारनुं प्राप्त
थाय छे (जुओ पाछळना श्लोक २०४नो विशेषार्थ). अथवा घणुं कहेवाथी शुं? अन्य
प्रकारना अर्थात् दूषित हृदयमां पण ते दाननुं फळ स्वभावथी अनेक प्रकारनुं प्राप्त
थाय छे. ४९.
(वसंततिलका)
चत्वारि यान्यभवभेषजभक्ति शास्त्र-
दानानि तानि कथितानि महाफलानि
नान्यानि गोकनक भूमिरथाङ्गनादि-
दानानि निश्चितमवद्यकराणि यस्मात्
।।५०।।
अनुवाद : अभयदान, औषधदान, आहारदान अने शास्त्रदान (ज्ञानदान)
आ जे चार दान कहेवामां आव्या छे ते महान फळ आपनारा छे. एनाथी भिन्न
गाय, सोनुं, पृथ्वी, रथ अने स्त्री आदिनां दान महान फळ आपनार नथी; केम
के ते निश्चयथी पाप उत्पादक छे. ५०.
(वसंततिलका)
यद्दीयते जिनगृहाय धरादि किंचित्
तत्तत्र संस्कृतिनिमित्तमिह प्ररूढम्

Page 121 of 378
PDF/HTML Page 147 of 404
single page version

background image
आस्ते ततस्तदतिदीर्घतरं हि कालं
जैनं च शासनमतः कृतमस्ति दातुः
।।५१।।
अनुवाद : जिनालयना निमित्ते जे कांई पृथ्वी आदिनुं दान करवामां आवे
छे ते अहीं धार्मिक संस्कृतिनुं कारण होईने अंकुरित थतुं थकुं अतिशय दीर्घ काळ
सुधी रहे छे. तेथी ते दाता द्वारा जैन शासन ज करवामां आव्युं छे. ५१.
(वसंततिलका)
दानप्रकाशनमशोभनकर्मकार्य-
कार्पण्यपूर्णहृदयाय न रोचते ऽदः
दोषोज्झितं सकललोकसुखप्रदायि
तेजो रवेरिव सदा हतकौशिकाय
।।५२।।
अनुवाद : जे निर्दोष दाननो प्रकाश समस्त जनोने सुख आपे छे ते
पापकर्मनी कार्यभूत कृपणता (कंजूसाई)थी परिपूर्ण हृदयवाळा प्राणी (कंजूस
मनुष्य)ने कदी रुचतो नथी. जेम दोषो अर्थात् रात्रिना संसर्ग रहित होवाने लीधे
समस्त प्राणीओने सुख आपनार सूर्यनुं तेज निन्दनीय घुवडने रुचिकर लागतुं
नथी. ५२.
(वसंततिलका)
दानोपदेशनमिदं कुरुते प्रमोद-
मासन्नभव्यपुरुषस्य न चेतरस्य
जातिः समुल्लसति दारु न भृङ्गसंगा-
दिन्दीवरं हसति चन्द्रकरैर्न चाश्मा
।।५३।।
अनुवाद : आ दाननो उपदेश आसन्नभव्य पुरुषोने आनंद आपनार छे,
नहि के अन्य (दूरभव्य अने अभव्य) पुरुषोने. बराबर छेभमराओना संसर्गथी
मालती पुष्प शोभा पामे छे, परंतु तेमना संसर्गथी लाकडुं शोभा पामतुं नथी. तेवी
ज रीते चन्द्रकिरणो द्वारा श्वेत कमळ प्रफुल्लित थाय छे, परंतु पथ्थर प्रफुल्लित थतो
नथी. ५३.

Page 122 of 378
PDF/HTML Page 148 of 404
single page version

background image
(वसंततिलका)
रत्नत्रयाभरणवीरमुनीन्द्रपाद-
पद्मद्वयस्मरणसंजनितप्रभावः
श्रीपद्मनन्दिमुनिराश्रितयुग्मदान-
पञ्चाशतं ललितवर्णचयं चकार
।।५४।।
अनुवाद : रत्नत्रयरूप आभरणथी विभूषित श्री विरनन्दी मुनिराजना
उभय चरणकमळना स्मरणथी उत्पन्न थयेल प्रभावने धारण करनार श्री पद्मनन्दी
मुनिए ललित वर्णोना समूहथी संयुक्त आ बे अधिक दानपंचाशत् अर्थात् बावन
पद्योवाळा दानप्रकरणनी रचना करी छे. ५४.
आ रीते दानपंचाशत् प्रकरण समाप्त थयुं.

Page 123 of 378
PDF/HTML Page 149 of 404
single page version

background image
३. अनित्य पंचाशत्
[३. अनित्यपंञ्चाशत् ]
(आर्या)
जयति जिनो धृतिधनुषामिषुमाला भवति योगियोधानाम्
यद्वाक्करुणामय्यपि मोहरिपुप्रहतये तीक्ष्णा ।।।।
अनुवाद : जे जिन भगवाननी वाणी धैर्यरूप धनुष धारण करनार योगीजनो
रूपी योद्धाओने बाणपंक्ति समान होय छे तथा जेनी ते वाणी दयामय होवा छतां
पण मोह रूपी शत्रुनो घात करवा माटे तीक्ष्ण तलवारनुं काम करे छे ते जिन भगवान
जयवंत हो .१.
(शार्दूलविक्रीडित)
यद्येकत्र दिने विभुक्ति रथ वा निद्रा न रात्रौ भवेत्
विद्रात्यम्बुजपत्रवद्दहनतो ऽभ्यासस्थिताद्यद्ध्रुवम्
अस्त्रव्याधिजलादितो ऽपि सहसा यच्च क्षयं गच्छति
भ्रातः कात्र शरीरके स्थितिमतिर्नाशेऽस्य को विस्मयः
।।।।
अनुवाद : जो कोई वार एक दिवस भोजन प्राप्त थतुं नथी के रात्रे
ऊंघ आवती नथी तो जे शरीर निश्चयथी निकटवर्ती अग्निथी संतप्त थयेला
कमळना पांदडानी जेम म्लानता पामे छे तथा जे अस्त्र, रोग अने जळ आदि
द्वारा अकस्मात् नाश पामे छे; हे भाई! ते शरीरना विषयमां स्थिरतानी बुद्धि
क्यांथी थई शके? अने तेनो नाश थई जाय तेमां आश्चर्य ज शुं छे? अर्थात्

Page 124 of 378
PDF/HTML Page 150 of 404
single page version

background image
तेने न तो स्थिर समजवुं जोईए अने न तो नष्ट थतां कांई आश्चर्य पण थवुं
जोईए. २.
(शार्दूलविक्रीडित)
दुर्गन्धाशुचिधातुभित्तिकलितं संछादितं चर्मणा
विण्मूत्रादिभृतं क्षुधादिविलसद्दुःखाखुभिश्छिद्रितम्
क्लिष्टं कायकुटीरकं स्वयमपि प्राप्तं जरावह्निना
चेदेतत्तदपि स्थिरं शुचितरं मूढो जनो मन्यते
।।।।
अनुवाद : जे शरीररूपी झूंपडी दुर्गन्धयुक्त अपवित्र धातुओ रूपी दीवालो
सहित छे, चामडाथी ढांकेली छे, विष्टा अने मूत्र आदिथी परिपूर्ण छे, तथा भूख-
तरस आदिना दुःखोरूप उंदरडाओ द्वारा करवामां आवेला छिद्रोथी संयुक्त छे, ते
क्लेशयुक्त शरीररूपी झुंपडी ज्यारे पोते ज घडपणरूपी अग्निथी घेराई जाय छे त्यारे
पण आ मूर्ख प्राणी तेने स्थिर अने अतिशय पवित्र माने छे. ३.
(शार्दूलविक्रीडित)
अम्भोबुद्बुदसंनिभा तनुरियं श्रीरिन्द्रजालोपमा
दुर्वाताहतवारिवाहस
द्रशाः कान्तार्थपुत्रादयः
सौख्यं वैषयिकं सदैव तरलं मत्ताङ्गनापाङ्गवत्
तस्मादेतदुपप्लवाप्तिविषये शोकेन किं किं मुदा
।।।।
अनुवाद : आ शरीर पाणीना परपोटा समान क्षणमां नाश पामनार छे,
लक्ष्मी इन्द्रजाळ समान विनश्वर छे; स्त्री, धन अने पुत्र आदि दुष्ट वायुथी ताडित
वादळाओ समान जोत जोतामां ज विलीन थई जाय छे; तथा इन्द्रियविषयजन्य सुख
सदाय कामोन्मत्त स्त्रीना कटाक्षो समान चंचळ छे. आ कारणे आ बधाना नाशमां
शोकथी अने तेमनी प्राप्तिना विषयमां हर्षथी शुं प्रयोजन छे? कांई पण नहि.
अभिप्राय ए छे के जो शरीर, धन-संपत्ति, स्त्री अने पुत्र आदि समस्त चेतन-अचेतन
पदार्थ स्वभावथी ज अस्थिर छे तो विवेकी मनुष्योए तेमना संयोगमां हर्ष अने
वियोगमां शोक न करवो जोईए. ४.

Page 125 of 378
PDF/HTML Page 151 of 404
single page version

background image
(वसंततिलका)
दुःखे वा समुपस्थिते ऽथ मरणे शोको न कार्यो बुधैः
संबन्धो यदि विग्रहेण यदयं संभूतिधात्र्येतयोः
तस्मात्तत्परिचिन्तनीयमनिशं संसारदुःखप्रदो
येनास्य प्रभवः पुरः पुनरपि प्रायो न संभाव्यते
।।।।
अनुवाद : जो शरीर साथे संबंध होय तो दुःख अथवा मरण उपस्थित थतां
विद्वान पुरुषोए शोक न करवो जोईए. कारण ए के ते शरीर आ बन्ने (दुःख अने
मरण)नी जन्मभूमि छे अर्थात् आ बन्नेनो शरीर साथे अविनाभाव छे. माटे ज
निरंतर ते आत्मस्वरूपनो विचार करवो जोईए जेना द्वारा आगळ प्रायः (घणुं करीने)
संसारना दुःख आपनार आ शरीरनी उत्पत्तिनी फरीथी संभावना ज न रहे. ५.
(शार्दूलविक्रीडित)
दुर्वारार्जितकर्मकारणवशादिष्टे प्रणष्टे नरे
यच्छोकं कुरुते तदत्र नितरामुन्मत्तलीलायितम्
यस्मात्तत्र कृते न सिध्यति किमप्येतत्परं जायते
नश्यन्त्येव नरस्य मूढमनसो धर्मार्थकामादयः
।।।।
अनुवाद : पूर्वोपार्जित दुर्निवार कर्मना उदयवशे कोई इष्ट मनुष्यनुं मरण
थतां जे अहीं शोक करवामां आवे छे ते अतिशय पागल मनुष्यनी चेष्टा समान
छे. कारण के ते शोक करवाथी कांई पण सिद्ध थतुं नथी परंतु तेनाथी केवळ ए
थाय छे के ते मूढ बुद्धिवाळा मनुष्यना धर्म, अर्थ अने कामरूपी पुरुषार्थ आदि ज
नष्ट थाय छे. ६.
(उपेन्द्रवज्रा)
उदेति पाताय रविर्यथा तथा
शरीरमेत्तन्ननु सर्वदेहिनाम्
स्वकालमासाद्य निजेऽपि संस्थिते
करोति कः शोकमतः प्रबुद्धधीः
।।।।

Page 126 of 378
PDF/HTML Page 152 of 404
single page version

background image
अनुवाद : जेम सूर्यनो उदय अस्त थवा माटे थाय छे तेवी ज रीते निश्चयथी
समस्त प्राणीओनुं आ शरीर पण नष्ट थवाने माटे उत्पन्न थाय छे. तो पछी काळ
पामीने पोताना कोई बंधु वगेरेनुं मरण थतां क्यो बुद्धिमान मनुष्य तेने माटे शोक
करे? अर्थात् तेने माटे कोई पण बुद्धिमान शोक करतो नथी.
विशेषार्थ : जेवी रीते सूर्यनो उदय अस्तनो अविनाभावी छे तेवी ज रीते शरीरनी
उत्पत्ति पण विनाशनी अविनाभावी छे. आवी स्थितिमां ते विनश्वर शरीरनो नाश थतां तेना
विषयमां शोक करवो विवेकहीनतानुं द्योतक छे. ७.
(वसंततिलका)
भवन्ति वृक्षेषु पतन्ति नूनं पत्राणि पुष्पाणि फलानि यद्वत्
कुलेषु तद्वत्पुरुषाः किमत्र हर्षेण शोकेन च सन्मतीनाम् ।।।।
अनुवाद : जेवी रीते वृक्षोमां पत्र, पुष्प अने फळ उत्पन्न थाय छे अने
तेओ समयानुसार निश्चयथी पडे पण छे, तेवी ज रीते कुळो (कुटुंब)मां जे पुरुषो
उत्पन्न थाय छे तेओ मरे पण छे. तो पछी बुद्धिमान मनुष्योने ते उत्पन्न थतां
हर्ष अने मरतां शोक शा माटे थवो जोईए? न थवो जोईए. ८.
(शार्दूलविक्रीडित)
दुर्लङ्घयाद्भवितव्यताव्यतिकरान्नष्टे प्रिये मानुषे
यच्छोकः क्रियते तदत्र तमसि प्रारभ्यते नर्तनम्
सर्वं नश्वरमेव वस्तु भुवने मत्वा महत्या धिया
निर्धूताखिलदुःखसंततिरहो धर्मः सदा सेव्यताम्
।।।।
अनुवाद : दुर्निवार दैवना प्रभावथी कोई प्रिय मनुष्यनुं मरण थई जाय
तो अहीं शोक करवामां आवे छे ते अंधारामां नृत्य शरू करवा बराबर छे.
संसारमां बधी वस्तुओ नाश पामे छे, एम उत्तम बुद्धिद्वारा जाणीने समस्त
दुःखोनी परंपरानो नाश करनार धर्मनुं सदा आराधन करो.
विशेषार्थ : जेम अंधारामां नृत्यनो आरंभ करवो निष्फळ छे तेवी रीते कोई प्रियजननो
वियोग थतां तेना माटे शोक करवो पण निष्फळ ज छे. कारण के संसारना बधा ज पदार्थ स्वभावथी

Page 127 of 378
PDF/HTML Page 153 of 404
single page version

background image
नाश पामे छे, एम विवेकबुद्धिथी निश्चित छे. तेथी जे धर्म समस्त दुःखोनो नाश करीने अनंत
सुख (मोक्ष)ने प्राप्त करावे छे तेनुं ज आराधन करवुं जोईए. ९.
(शार्दूलविक्रीडित)
पूर्वोपार्जितकर्मणा विलिखितं यस्यावसानं यदा
तज्जायेत तदैव तस्य भविनो ज्ञात्वा तदेतद्ध्रुवम्
शोकं मुञ्च मृते प्रिये ऽपि सुखदं धर्मं कुरुष्वादरात्
सर्पे दूरमुपागते किमिति भोस्तद्घृष्टिराहन्यते
।।१०।।
अनुवाद : पूर्वे कमायेल कर्म द्वारा जे प्राणीनो अंत जे समये लखवामां
आव्यो छे तेनो ते ज समये अंत थाय छे एम निश्चित जाणीने कोई प्रिय मनुष्यनुं
मरण थवा छतां पण शोक छोडो अने विनयपूर्वक सुखदायक धर्मनुं आराधन करो.
ठीक छे
ज्यारे साप दूर चाल्यो जाय छे त्यारे तेना लीसोटाने क्यो बुद्धिमान पुरुष
लाठी द्वारा पीटे छे? अर्थात् कोई पण बुद्धिमान तेम करतो नथी. १०.
(शार्दूलविक्रीडित)
ये मूर्खा भुवि ते ऽपि दुःखहतये व्यापारमातन्वते
सा माभूदथवा स्वकर्मवशतस्तस्मान्न ते ता
द्रशाः
मूर्खान् मूर्खशिरोमणीन् ननु वयं तानेव मन्यामहे
ये कुर्वन्ति शुचं मृते सति निजे पापाय दुःखाय च
।।११।।
अनुवाद : आ पृथ्वी उपर जे मूर्ख मनुष्यो छे तेओ पण दुःखनो नाश
करवा माटे प्रयत्न करे छे. छतां पण जो पोताना कर्मना प्रभावथी ते दुःखनो विनाश
न ये थाय तोपण तेओ एटला मूर्ख नथी. अमे तो ते ज मूर्खोने मूर्खोमां श्रेष्ठ
अर्थात् अतिशय मूर्ख मानीए छीए जे कोई इष्ट मनुष्यनुं मरण थतां पाप अने
दुःखना निमित्तभूत शोकने दूर करे छे.
विशेषार्थ : लोकमां जे प्राणीने मूर्ख समजवामां आवे छे तेओ पण दुःख दूर करवानो
प्रयत्न करे छे. जो कदाच दैववशे तेमने पोताना आ प्रयत्नमां सफळता न ये मळे तोपण तेमने
एटला बधा जड (मूर्ख) गणवामां आवता नथी. परंतु जे मनुष्य कोई इष्ट जननो वियोग थतां
शोक करे छे तेमने मूर्ख ज नहि पण मूर्खशिरोमणि (अतिशय जड) गणवामां आवे छे. कारण
ए छे के मूर्ख समजवामां आवता ते प्राणीओ तो आवेलुं दुःख दूर करवा माटे ज कांई ने कांई

Page 128 of 378
PDF/HTML Page 154 of 404
single page version

background image
प्रयत्न करे छे, परंतु आ मूर्खशिरोमणि इष्टवियोगमां शोकाकुळ थईने अने नवीन दुःखने पण
उत्पन्न करवानो प्रयत्न करे छे. एनुं पण कारण ए छे के ते शोकथी
‘‘दुःख-शोक-तापाक्रन्दन-वध-
परिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वेद्यस्य’’ आ सूत्र (त. सू. ६११) अनुसार अशातावेदनीय कर्मनो ज
बंध थाय छे, के जेथी भविष्यमां पण तेमने ते दुःखनी प्राप्ति अनिवार्य बनी जाय छे. ११.
(शार्दूलविक्रीडित)
किं जानासि न किं शृणोषि न न किं प्रत्यक्षमेवेक्षसे
निःशेषं जगदिन्द्रजालस
द्रशं रम्भेव सारोज्झितम्
किं शोकं कुरुषे ऽत्र मानुषपशो लोकान्तरस्थे निजे
तत्किंचित्कुरु येन नित्यपरमानन्दास्पदं गच्छसि
।।१२।।
अनुवाद : हे अज्ञानी मनुष्य! आ समस्त जगत् इन्द्रजाळ समान विनश्वर
अने केळना थड समान निःसार छे; आ वात शुं तुं नथी जाणतो? शुं शास्त्रमां
सांभळ्युं नथी? अने शुं प्रत्यक्ष नथी देखतो? अर्थात् तमे एने अवश्य जाणो छो,
सांभळो छो अने प्रत्यक्षपणे देखो छो. तो पछी भला अहीं पोताना कोई संबंधी
मनुष्यनुं मरण थतां शोक केम करो छो? अर्थात् शोक छोडीने एवो कांईक प्रयत्न
करो के जेथी शाश्वत, उत्तम सुखना स्थानभूत मोक्षने पामी शको. १२.
(वसंततिलका)
जातो जनो म्रियत एव दिने च मृत्योः
प्राप्ते पुनस्त्रिभुवने ऽपि न रक्षकोऽस्ति
तद्यो मृते सति निजे ऽपि शुचं करोति
पूत्कृत्य रोदिति वने विजने स मूढः
।।१३।।
अनुवाद : जे मनुष्य उत्पन्न थयो छे ते मृत्युनो दिवस आवतां मरे ज
छे, ते वखते तेनी रक्षा करनार त्रणे लोकमां कोई पण नथी. तेथी जे पोतानुं इष्टजन
मृत्यु पामे त्यारे शोक करे छे ते मूर्ख निर्जन वनमां बूमो पाडीने रुदन करे छे.
अभिप्राय ए छे के जेवी रीते जनशून्य (मनुष्य विनाना) वनमां रुदन करनारना
रोवाथी कांई पण प्रयोजन सिद्ध थतुं नथी तेवी रीते कोई इष्ट जन मृत्यु पामतां,
तेना माटे शोक करवावाळाने पण कांई प्रयोजन सिद्ध थतुं नथी, परंतु तेथी दुःखदायक
नवीन कर्मोनो ज बंध थाय छे. १३.

Page 129 of 378
PDF/HTML Page 155 of 404
single page version

background image
(वसंततिलका)
इष्टक्षयो यदिह ते यदनिष्टयोगः
पापेन तद्भवति जीव पुराकृतेन
शोकं करोषि किमु तस्य कुरु प्रणाशं
पापस्य तौ न भवतः पुरतोऽपि येन
।।१४।।
अनवादःहे जीव! अहीं जे तने इष्टनो वियोग अने अनिष्टनो संयोग
थाय छे ते तारा पूर्वकृत पापना उदयथी थाय छे. तेथी तुं शोक शा माटे करे छे?
ते पापनो ज नाश करवानो प्रयत्न कर के जेथी आगळ पण ते बन्ने (इष्ट वियोग
अने अनिष्टसंयोग) न थई शके. १४.
(शार्दूलविक्रीडित)
नष्टे वस्तुनि शोभने ऽपि हि तदा शोकः समारभ्यते
तल्लाभो ऽथ यशोऽथ सौख्यमथ वा धर्मो ऽथ वा स्याद्यदि
यद्येको ऽपि न जायते कथमपि स्फारैः प्रयत्नैरपि
प्रायस्तत्र सुधीर्मुधा भवति कः शोकोग्ररक्षोवशः
।।१५।।
अनुवाद : मनोहर वस्तुनो नाश थतां जो शोक करवाथी तेनी प्राप्ति
थती होय कीर्ति मळती होय, सुख थतुं होय अथवा धर्म थतो होय; तो तो
शोकनो प्रारंभ करवो बराबर छे. परंतु जो अनेक प्रयत्नो द्वारा पण ते
चारेमांथी घणुं करीने कोई एक पण उत्पन्न न थतुं होय तो पछी क्यो
बुद्धिमान मनुष्य व्यर्थ ते शोकरूपी महाराक्षसने आधीन थाय? अर्थात् कोई
नहीं. १५.
(वसंततिलका)
एकद्रुमे निशि वसन्ति यथा शकुन्ताः
प्रातः प्रयान्ति सहसा सकलासु दिक्षु
स्थित्वा कुले बत तथान्यकुलानि मृत्वा
लोकाः श्रयन्ति विदुषा खलु शोच्यते कः
।।१६।।

Page 130 of 378
PDF/HTML Page 156 of 404
single page version

background image
अनुवाद : जेवी रीते पक्षीओ रात्रे कोई एक वृक्ष उपर निवास करे छे अने
पछी सवार थतां तेओ सहसा सर्व दिशाओमां चाल्या जाय छे, खेद छे के तेवी
ज रीते मनुष्य पण कोई एक कुळमां स्थित रहीने पछी मृत्यु पामीने अन्य कुळोनो
आश्रय करे छे. तेथी विद्वान मनुष्य तेने माटे कांई पण शोक करता नथी. १६.
(शार्दूलविक्रीडित)
दुःखव्यालसमाकुलं भववनं जाडयान्धकाराश्रितं
तस्मिन् दुर्गतिपल्लिपातिकुपथैर्भ्राम्यन्ति सर्वे ऽङ्गिनः
तन्मध्ये गुरुवाक्प्रदीपममलं ज्ञानप्रभाभासुरं
प्राप्यालोक्य च सत्पथं सुखपदं याति प्रबुद्धो ध्रुवम्
।।१७।।
अनुवाद : जे संसाररूपी वन दुःखोरूपी सर्पोथी व्याप्त अने अज्ञानरूपी
अंधकारथी परिपूर्ण छे तेमां सर्वे प्राणी दुर्गतिरूप भीलोनी वस्ती तरफ लई जता
खोटा मार्गे परिभ्रमण करे छे. ते (संसार
वन)नी वच्चे विवेकी पुरुष ज्ञानरूपी
ज्योतिथी देदीप्यमान निर्मळ गुरुना वचन (उपदेश) रूपी दीपक पामीने अने तेनाथी
समीचीन मार्ग जोईने निश्चयथी सुखना स्थानभूत मोक्षने प्राप्त करी ले छे.
विशेषार्थ : जेवी रीते कोई मुसाफर सर्पोथी भरेला अंधकारयुक्त वनमां भूलीने खोटा
मार्गे भीलोनी वस्तीमां जई पहोंचे छे अने कष्ट सहन करे छे. जो तेने उक्त वनमां कोई प्रकारे
दीवो प्राप्त थई जाय छे तो ते तेना सहारे योग्य मार्गनी खोज करीने तेना द्वारा इष्ट स्थानमां
पहोंची जाय छे. बराबर एवी ज रीते आ संसारी प्राणी पण दुःखोथी भरेला आ अज्ञानमय
संसारमां मिथ्यादर्शनादिने वशीभूत थईने नरकादि दुर्गतिओमां पहोंचे छे अने त्यां अनेक प्रकारना
कष्टो सहे छे. तेने ज्यारे निर्मळ सद्गुरुनो उपदेश मळे छे त्यारे ते तेमांथी प्रबुद्ध थईने
मोक्षमार्गनो आश्रय करे छे अने तेना द्वारा मुक्तिपुरीमां जई पहोंचे छे. १७.
(वसंततिलका)
यैव स्वकर्मकृतकालकलात्र जन्तु-
स्तत्रैव याति मरणं न पुरो न पश्चात्
मूढास्तथापि हि मृते स्वजने विधाय
शोकं परं प्रचुरदुःखभुजो भवन्ति
।।१८।।

Page 131 of 378
PDF/HTML Page 157 of 404
single page version

background image
अनुवाद : आ संसारमां पोताना कर्म द्वारा जे मरणनो समय नक्की
करवामां आव्यो छे ते ज समये प्राणी मरण पामे छे, ते तेनाथी न तो पहेलां
मरे छे अने न पछी, पण छतां य मूर्ख मनुष्यो पोताना कोई संबंधीनुं मृत्यु
थतां अतिशय शोक करीने बहु ज दुःख भोगवे छे. १८.
(शार्दूलविक्रीडित)
वृक्षाद्वृक्षमिवाण्डजा मधुलिहः पुष्पाच्च पुष्पं यथा
जीवा यान्ति भवाद्भवान्तरमिहाश्रोन्तं तथा संसृतौ
तज्जातेऽथ मृतेऽथ वा न हि मुदं शोकं न कस्मिन्नपि
प्रायः प्रारभते ऽधिगम्य मतिमानस्थैर्यमित्यङ्गिनाम्
।।१९।।
अनुवाद : जेवी रीते पक्षी एक वृक्षथी बीजा वृक्ष उपर तथा भमरो एक
फूलथी बीजा फूल उपर जाय छे तेवी ज रीते अहीं संसारमां जीव निरंतर एक
पर्यायमांथी बीजी पर्यायमां जाय छे. तेथी बुद्धिमान मनुष्य उपर्युक्त प्रकारे
प्राणीओनी अस्थिरता जाणीने घणुं करीने कोई इष्ट संबंधीनो जन्म थतां हर्ष पामता
नथी अने तेनुं मृत्यु थतां शोक पामतां नथी. १९.
(शार्दूलविक्रीडित)
भ्राम्यन् कालमनन्तमत्र जनने प्राप्नोति जीवो न वा
मानुष्यं यदि दुष्कुले तदघतः प्राप्तं पुनर्नश्यति
सज्जातावथ तत्र याति विलयं गर्भे ऽपि जन्मन्यपि
द्राग्बाल्ये ऽपि ततो ऽपि नो वृष इति प्राप्ते प्रयत्नो वरः
।।२०।।
अनुवाद : आ जन्म-मरणरूप संसारमां अनंतकाळथी परिभ्रमण करतो
जीव मनुष्य पर्याय पामे छे अथवा नथी पण पामतो अर्थात् तेने ते मनुष्य
पर्याय घणी मुश्केलीथी प्राप्त थाय छे. जो कदाच ते मनुष्यभव प्राप्त पण करी
ले छे तो पण नीच कुळमां उत्पन्न थवाथी तेनो ते मनुष्यभव पापाचरणपूर्वक
ज नष्ट थई जाय छे. जो कोई प्रकारे उत्तम कुळमां य उत्पन्न थयो तोपण त्यां
ते कां तो गर्भमां ज मरी जाय छे अथवा जन्म लेती वखते मरी जाय छे अथवा
बाल्यावस्थामां पण शीध्र मरण पामी जाय छे. तेथी पण धर्मनी प्राप्ति थई

Page 132 of 378
PDF/HTML Page 158 of 404
single page version

background image
शकती नथी. पछी जो आयुष्यनी अधिकतामां ते धर्म प्राप्त थई जाय तो तेना
विषयमां उत्कृष्ट प्रयत्न करवो जोईए. २०.
(मालिनी)
स्थिरं सदपि सर्वदा भृशमुदेत्यवस्थान्तरैः
प्रतिक्षणमिदं जगज्जलदकूटवन्नश्यति
तदत्र भवमाश्रिते मृतिमुपागते वा जने
प्रियेऽपि किमहो मुदा किमु शुचा प्रबुद्धात्मनः
।।२१।।
अनुवाद : आ विश्व द्रव्य अपेक्षाए स्थिर (ध्रुव) होवा छतां पण पर्याय-
अपेक्षाए प्रत्येक क्षणे मेघपटल समान अन्य-अन्य अवस्थाओथी उत्पन्न पण थाय छे
अने नष्ट पण अवश्य थाय छे. आ कारणे अहीं ज्ञानी जीवने कोई प्रियजननो जन्म
थतां हर्ष अने तेनुं मरण थतां शोक केम थवो जोईए? अर्थात् न थवो जोईए. २१.
(शार्दूलविक्रीडित)
लङ्घ्यन्ते जलराशयः शिखरिणो देशास्तटिन्यो जनैः
सा वेला तु मृतेर्नृपक्ष्मचलनस्तोकापि देवैरपि
तत्कस्मिन्नपि संस्थिते सुखकरं श्रेयो विहाय ध्रुवं
कः सर्वत्र दुरन्तदुःखजनकं शोकं विदध्यात् सुधीः
।।२२।।
अनुवाद : मनुष्य समुद्रो, पर्वतो, देशो अने नदीओने ओळंगी शके छे; परंतु
मृत्युना निश्चित समयने देव पण निमेष मात्र (आंखना पलकारा बराबर) जरा
पण ओळंगी शकतो नथी. आ कारणे कोई पण इष्ट जननुं मृत्यु थतां क्यो बुद्धिमान
मनुष्य सुखदायक कल्याणमार्ग छोडीने सर्वत्र अपार दुःख उत्पन्न करनार शोक करे?
अर्थात् कोई पण बुद्धिमान् शोक करतो नथी. २२.
(शार्दूलविक्रीडित)
आक्रन्दं कुरुते यदत्र जनता नष्टे निजे मानुषे
जाते यच्च मुदं तदुन्नतधियो जल्पन्ति वातूलताम्
यज्जाडयात्कृतदुष्टचेष्टितभवत्कर्मप्रबन्धोदयात्
मृत्यूत्पत्तिपरम्परामयमिदं सर्वं जगत्सर्वदा
।।२३।।

Page 133 of 378
PDF/HTML Page 159 of 404
single page version

background image
अनुवाद : संसारमां लोको पोताना कोई संबंधी मनुष्यनुं मृत्यु थतां जे
विलापपूर्वक चीसो पाडीने रुदन करे छे तथा तेनो जन्म थतां जे हर्ष करे छे तेने
उन्नत बुद्धिना धारक गणधर आदि पागलपणुं कहे छे. कारण के मूर्खतावश जे खोटी
प्रवृत्तिओ करवामां आवी होय तेनाथी थता कर्मना प्रकृष्ट बंध अने तेना उदयथी
सदा आ आखुंय विश्व मृत्यु अने उत्पत्तिनी परंपरास्वरूप छे. २३.
(शार्दूलविक्रीडित)
गुर्वी भ्रान्तिरियं जडत्वमथ वा लोकस्य यस्माद्वसन्
संसारे बहुदुःखजालजटिले शोकीभवत्यापदि
भूतप्रेतपिशाचफे रवचितापूर्णे श्मशाने गृहं
कः कृत्वा भयदादमङ्गलकृते भावाद्भवेच्छङ्कितः
।।२४।।
अनुवाद : अनेक दुःखोना समूहथी परिपूर्ण एवा संसारमां रहेनार मनुष्य
आपत्ति आवतां जे शोकाकुळ थाय छे ए तेनी घणी मोटी भ्रान्ति अथवा अज्ञानता
छे. बराबर छे
जे व्यक्ति भूत, प्रेत, पिशाच, शियाळ अने चित्ताओथी भरेसा एवा
अमंगळकारी स्मशानमां मकान बनावीने रहे छे ते शुं भय उत्पन्न करनार पदार्थोथी
कदी शंकित थाय? अर्थात् न थाय.
विशेषार्थ : जेवी रीते भूतप्रेतादिथी व्याप्त स्मशानमां घर बनावीने रहेनार मनुष्य
कदी अन्य पदार्थोथी भयभीत थतो नथी तेवी ज रीते अनेक दुःखोथी परिपूर्ण आ जन्ममरणरूप
संसारमां परिभ्रमण करनार जीवे पण कोई इष्टवियोगादिरूप आपत्ति आवतां व्याकुळ न थवुं
जोईए. छतां जो एवी आपत्तिओ आवतां प्राणी शोकादिथी संतप्त थाय छे तो एमां तेनी
अज्ञानता ज कारण छे केम के ज्यारे संसार स्वभावथी ज दुःखमय छे तो आपत्तिओनुं आववुं
जवुं तो रहेवानुं ज. तो पछी एमां रहेता थका भला हर्ष अने विषाद करवाथी क्युं प्रयोजन सिद्ध
थवानुं? २४.
(मालिनी)
भ्रमति नभसि चन्द्रः संसृतौ शश्वदङ्गी
लभत उदयमस्तं पूर्णतां हीनतां च
कलुषितहृदयः सन् याति राशिं च राशे-
स्तनुमिह तनुतस्तत्कात्र मुत्कश्च शोकः
।।२५।।

Page 134 of 378
PDF/HTML Page 160 of 404
single page version

background image
अनुवाद : जेवी रीते चन्द्रमा आकाशमां निरंतर चक्कर लगाव्या करे छे तेवी
ज रीते आ प्राणी सदा संसारमां परिभ्रमण कर्या करे छे; जेम चन्द्रमा उदय, अस्त,
अने कळाओनी हानि
वृद्धिने पाम्या करे छे तेवी ज रीते संसारी प्राणी पण जन्म
मरण अने संपत्तिनी हानि-वृद्धिने पाम्या करे छे; जेम चंद्र मध्यमां कलुषित (काळो)
रहे छे तेवी ज रीते संसारी प्राणीनुं हृदय पण पापथी कलुषित रहे छे तथा जेम
चंद्र एक राशि (मीन-मेष वगेरे)थी बीजी राशिने प्राप्त थाय छे तेवी ज रीते संसारी
प्राणी पण एक शरीर छोडीने बीजा शरीरनुं ग्रहण कर्या करे छे. आवी स्थिति होतां
संपत्ति अने विपत्तिनी प्राप्तिमां जीवे हर्ष अने विषाद शा माटे करवो जोईए?
अर्थात् न करवा जोईए . २५.
(मालिनी)
तडिदिव चलमेतत्पुत्रदारादि सर्वं
किमिति तदभिघाते खिद्यते बुद्धिमद्भिः
स्थितिजननविनाशं नोष्णतेवानलस्य
व्यभिचरति कदाचित्सर्वभावेषु नूनम्
।।२६।।
अनुवाद : आ बधा पुत्र अने स्त्री आदि पदार्थ जो विजळी समान चंचळ
अर्थात् क्षणिक छे तो पछी तेमनो विनाश थतां बुद्धिमान मनुष्य खेदखिन्न केम थाय
छे? अर्थात् तेमनो नश्वर स्वभाव जाणीने तेमणे खेदखिन्न न थवुं जोईए. जेवी
रीते उष्णता अग्निनो व्यभिचार करती नथी अर्थात् ते सदा अग्नि होय त्यां होय
छे अने तेना अभावमां कदी पण नथी होती; बराबर एवी ज रीते स्थिति (ध्रौव्य),
उत्पाद अने व्यय पण निश्चयथी पदार्थो होय त्यां अवश्य होय छे अने तेमना
अभावमां कदी पण होता नथी. २६.
(मालिनी)
प्रियजनमृतिशोकः सेव्यमानो ऽतिमात्रं
जनयति तदसातं कर्म यच्चाग्रतो ऽपि
प्रसरति शतशाखं देहिनि क्षेत्र उप्तं
वट इव तनुबीजं त्यज्यतां स प्रयत्नात्
।।२७।।