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धारावेश्मसमो हि संसृतिपथे धर्मो भवेद्देहिनः
लांबा समयथी मार्गना श्रमथी पीडा पाम्यो छे तेने जेम तरत ज हिमालयनी
लत्ताओथी बनेल अने उत्कृष्ट फुवाराओथी शोभायमान धारागृह प्राप्त थतां अपूर्व
सुखनो अनुभव थाय छे तेवी ज रीते संसारमार्गमां चालता प्राणीने धर्मथी अभूतपूर्व
सुखनो अनुभव थाय छे. १९२.
तुङ्गोर्मिभ्रमितोरुनक्रमकरग्राहादिभिर्भीषणे
ज्जन्तोःखे ऽपि विमानमाशु कुरुते धर्मः समालम्बनम्
मगर अने ग्राह आदि हिंसक जळजंतुओथी भय उत्पन्न करनार छे तथा कंपित
तीक्ष्ण वाडवाग्निनी ज्वाळाथी भयानक छे एवा ते समुद्रमां पडता जीवोने धर्म
शीघ्रताथी आकाशमां पण आलंबनभूत विमान करी दे छे. १९३.
र्गीयन्ते किन्नरीभिर्ललितपदलसद्गीतिभिर्भक्तिरागात्
लक्ष्मीस्तेषु प्रशस्ता विदधति मनुजा ये सदा धर्ममेकम्
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ललित पदोथी शोभायमान गीतो द्वारा तेमना भक्तिपूर्वक गुणगान करे छे तथा
तेमनो यश प्रत्येक दिशामां वारंवार भ्रमण करे छे अर्थात् तेमनी कीर्ति बधी
ज दिशामां फेलाई जाय छे. अथवा तेमने कई प्रशस्त लक्ष्मी प्राप्त थती नथी?
अर्थात् तेमने बधा ज प्रकारनी श्रेष्ठ लक्ष्मी प्राप्त थई जाय छे. १९४.
धर्मः कामगवीप्सितप्रदमणिर्धर्मः परं दैवतम्
धर्मो भ्रातरुपास्यतां किमपरैः क्षुद्रैरसत्कल्पनैः
अथवा चिन्तामणि समान इष्ट वस्तुओनुं प्रदान करनार छे, ते धर्म उत्तम देव
समान छे तथा ते धर्म सुखपरंपरारूप अमृतनी नदी उत्पन्न करनार उत्तम पर्वत
समान छे. तेथी हे भाई! तमे बीजी तुच्छ मिथ्या कल्पनाओ छोडीने ते धर्मनी
आराधना करो. १९५.
श्रुत्वा चेतसि धार्यते त्रिभुवने तेषां न काः संपदः
प्राप्तं पद्मरजः सुगन्धिभिरपि श्रान्तं जनं मोदयेत्
तेमने त्रण लोकमां कई संपत्तिओ प्राप्त थती नथी? योग्य ज छे. उत्तम जळ पीवा
अने तेमां स्नान करवाथी प्राप्त थनारूं सुख तो दूर रहो, परंतु तळावना शीतळ
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बनावी दे छे. १९६.
लग्नैः शिरस्यमलबोधकलावतारः
स श्रीगुरुर्दिशतु मे मुनिवीरनन्दी
श्रीमुनि वीरनन्दी गुरु मने मोक्ष प्रदान करो. १९७.
प्रायो दुर्लभमत्र कर्णपुटकैर्भव्यात्मभिः पीयताम्
स्तोकं यद्यपि सारताधिकमिदं धर्मोपदेशामृतम्
जीव कानोरूप अंजलिथी पीओ अर्थात् कानो द्वारा तेनुं श्रवण करो. मुनि
पद्मनन्दिना मुखरूप चंद्रमांथी नीकळेल आ उपदेशामृत जो के अल्प छे तोपण
श्रेष्ठतानी अपेक्षाए ते अधिक छे.
जीवोना संसार परिभ्रमणनुं दुःख दूर थई जाय छे अने तेमने अनंत सुखनो लाभ थाय
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उत्पन्न थाय छे तो आ उपदेश ते चन्द्रमा समान मुनि पद्मनन्दीना मुखमांथी उत्पन्न थयो
छे तथा जेम अमृत थोडुं होय तोपण ते अधिक लाभकारी थाय छे तेवी ज रीते ज आ
ग्रंथप्रमाणनी अपेक्षाए आ उपदेश जो के थोडो छे छतां पण ते लाभप्रद अधिक छे. आ
रीते आ उपदेशने अमृत समान हितकारी जाणीने भव्य जीवोए तेनु निरन्तर मनन करवुं
जोईए. १९८.
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श्रेयो नृपश्च कुरुगोत्रगृहप्रदीपः
सारक्रमे परमधर्मरथस्य चक्रे
जिनेन्द्र अने कुरुवंशरूप गृहना दीपक समान राजा श्रेयांस पण जयवंत हो.
तेओ दस प्रकारना कल्पवृक्षोमांथी प्राप्त थयेली सामग्री द्वारा यथेच्छ भोग भोगवता थका काळ
निर्गमन करता हता, काळक्रमे ज्यारे तृतीय काळमां पल्यनो आठमो भाग
अनुभव थयो तेने यथाक्रमे उत्पन्न थनार प्रतिश्रुति आदि चौद कुलकरोए दूर कर्यो हतो. तेमां
अंतिम कुलकर नाभिराज हता. प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ तेमना ज पुत्र हता. अत्यार
सुधी जे व्रतोनो प्रचार नहोतो तेने भगवान आदिनाथे पोते ज पांच महाव्रतोनुं ग्रहण करीने
प्रचलित कर्यो. ए ज प्रमाणे अत्यार सुधी कोईने दानविधिनुं पण परिज्ञान नहोतुं. ए ज कारणे
छ मासना उपवास परिपूर्ण करीने भगवान आदि जिनेन्द्रने पारणाना निमित्ते बीजा पण छ मास
पर्यंत घूमवुं पड्युं. अंते राजा श्रेयांसने जातिस्मरण द्वारा आहार-दाननी विधिनुं परिज्ञान थयुं.
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आहारादि दानोनी विधिनो पण प्रचार शरू थई गयो. आ रीते भगवान आदिनाथे व्रतोनो प्रचार
करीने तथा श्रेयांस राजाए दानविधिनो पण प्रचार करीने जगतनुं कल्याण कर्युं छे. तेथी ग्रंथकार
श्री पद्मनंदी मुनिए अहीं तीर्थना प्रवर्तक स्वरूपे भगवान आदि जिनेन्द्रनुं तथा दानतीर्थना प्रवर्तक
स्वरूपे श्रेयांस राजानुं स्मरण कर्युं छे. १.
भ्राम्यद्यशोभृतजगत्रितयस्य तस्य
त्रैलोक्यवन्दितपदेन जिनेश्वरेण
धवळ यश त्रणे लोकमां फेलायो ते श्रेयांस राजानुं केटलुं वर्णन करवुं? २.
आकाशमांथी ते रत्नवृष्टि थई के जेना द्वारा आ पृथ्वी ‘वसुमती (धनवाळी)’ एवी
सार्थक संज्ञा पामी हती; ते श्रेयांस राजा जयवंत हो.
जय शब्दनो प्रसार (४) सुगंधी वायुनो संचार अने (५) पुष्पोनी वर्षा. (जुओ ति. प.
गाथा ४, ६७१ थी ६७४). ते प्रमाणे भगवान आदिनाथे ज्यारे राजा श्रेयांसने घेर प्रथम
पारणुं कर्युं हतुं. त्यारे तेना घरमां पण रत्नोनो वरसाद वरस्यो हतो. तेनो ज निर्देश अहीं
श्री पद्मनंदी मुनिए कर्यो छे. ३.
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स्वप्नेन्द्रजालस
कारुण्यतः खलु तदुद्धरणाय किंचित्
लोभरूप अंधकारयुक्त कूवामां पडेला छे तेमना उद्धार माटे दयाळु बुद्धिथी अहीं
केटलुंक दाननुं वर्णन कर्युं छे. ४.
गृहस्थ जीवनमां उत्तम सात्त्विक भावथी आपवामां आवेलुं उत्कृष्ट दान समस्त
गुणोमां श्रेष्ठ होवाथी नौकानुं काम करे छे.
नष्ट करवानो जो तेनी पासे कोई उपाय होय तो ते दान ज छे. आ दान संसाररूपी समुद्रथी
पार थवाने माटे जहाज समान छे. ५.
सत्पात्रदानविधिरेव गृहस्थतायाः
नावः समुद्र इव कर्मठकर्णधारः
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सत्पात्रदाननी विधि ज छे जेम समुद्रथी पार थवा माटे चतुर नाविकथी संचालित
नाव कारण छे.
पात्र, विकळ चारित्र (देशव्रत) धारण करनार श्रावकने मध्यम पात्र अने व्रतरहित सम्यग्द्रष्टिने
जघन्य पात्र समजवा जोईए. आ पात्रोने जो मिथ्याद्रष्टि जीव आहारादि आपे छे तो ते यथाक्रमे
(उत्तम पात्र आदि अनुसार) उत्तम, मध्यम अने जघन्य भोगभूमिना सुख भोगवीने त्यार पछी
यथा संभव देवपर्यायने प्राप्त करे छे, पण जो उपर्युक्त पात्रोने ज सम्यग्द्रष्टि जीव आहार आदि
आपे छे तो ते नियमथी उत्तम देवोमां ज उत्पन्न थाय छे. कारण ए छे के सम्यग्द्रष्टि जीवने
एक मात्र देवायुनो ज बंध थाय छे. आमना सिवाय जे जीव सम्यग्दर्शनथी रहित होवा छतां
पण व्रतोनुं परिपालन करे छे ते कुपात्र कहेवाय छे. कुपात्रदानना प्रभावथी प्राणी कुभोगभूमिओ
(अंतरद्वीपो)मां कुमनुष्य तरीके उत्पन्न थाय छे. जे प्राणी न तो सम्यग्द्रष्टि छे, अने न व्रतोनुं
पण पालन करे छे ते अपात्र कहेवाय छे अने एवा अपात्रने आपवामां आवेलुं दान व्यर्थ जाय
छे
आपवामां आवेलुं दान (दयादत्ति) व्यर्थ नथी जतुं. परंतु तेनाथी य यथायोग्य पुण्य कर्मनो बंध
अवश्य थाय छे. ६.
यज्जीवितादपि निजाद्दयितं जनानाम्
मन्या विपत्तय इति प्रवदन्ति सन्तः
ज थाय छे, एनाथी विरुद्ध दुर्व्यसनादिमां तेनो उपयोग करवाथी प्राणीने कष्ट
ज भोगववा पडे छे; एवुं साधुजनोनुं कहेवुं छे. ७.
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नष्टा रमापि पुनरेति कदाचिदत्र
क्षेत्रस्थबीजमिव कोटिगुणं वटस्थ
आपवामां आवेल दाननी विधिथी व्यय पामेली संपत्ति फरीथी पण प्राप्त थई जाय
छे. जेम उत्तम भूमिमां वावेलुं वडवृक्षनुं बीज करोडगणुं फळ आपे छे. ८.
भक्त्याश्रितः शिवपथे न धृतः स एव
मुच्चैः पदं व्रजति तत्सहितोऽपि शिल्पी
तेणे मोक्षमार्गमां लगावी छे. बराबर ज छे
आपनार गृहस्थ पण उक्त मुनिनी साथे ज मोक्षमार्गमां प्रवृत्त थई जाय छे. ९.
बुद्धिः प्रयच्छति जनो मुनिपुंगवाय
क्षेत्रे न किं भवति भूरि कृषीवलस्य
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पात्राय यच्छति जनो ननु भुक्ति मात्रम्
पुण्ये हरिर्भवति सोऽपि कृताभिलाषः
कारणस्वरूप पुण्यना विषयमां ते इन्द्र पण अभिलाषा युक्त होय छे. अभिप्राय एम
छे के एनाथी जे तेने पुण्यनी प्राप्ति थवानी छे तेने इन्द्र पण इच्छे छे. ११.
तद्धार्यते मुनिभिरङ्गबलात्तदन्नात्
तस्माद्धृतो गृहिजनेन विमुक्ति मार्गः
भोजनथी प्राप्त थाय छे अने ते भोजन अतिशय भक्तिपूर्वक गृहस्थ द्वारा आपवामां
आवे छे. ए ज कारणे वास्तवमां ते मोक्षमार्ग गृहस्थोए ज धारण कर्यो छे. १२.
खञ्जीकृतानि गृहिणो न तथा व्रतानि
प्रीत्यातिशुद्धमनसा कृतपात्रदानम्
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अनेक झंझटोथी उत्पन्न थयेल पाप समूहो द्वारा कूबडा अर्थात् शक्तिहीन करवामां
आवेला गृहस्थना व्रत करता नथी. १३.
यावच्छिवं सरिदिवानिशमासमुद्रम्
साथे निरंतर उत्तरोत्तर वृद्धि पामती थकी मोक्षपर्यंत जाय छे
छे.
ज क्रमे वधता जाय छे. तेवी ज रीते सम्यग्द्रष्टि जीवनी धन
तेना प्रभावथी मुक्ति प्राप्त थवा सुधी उत्तरोत्तर वृद्धि ज पामती जाय छे. तेनी साथे ज उक्त
दाता श्रावकनी कीर्तिनो प्रसार पण वधतो जाय छे. १४.
शुद्धात्मनो भुवि यतः पुरुषार्थसिद्धिः
सा लीलयैव कृतपात्रजनानुषंगात्
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आवेल चार प्रकारना दानथी अनायासे ज प्राप्त थई जाय छे. १५.
राशु क्षयं व्रजति तद्दुरितं समस्तम्
संसारमुत्तरति सोऽत्र नरो न चित्तम्
भोजन, औषध अने मठ (उपाश्रय) आदि द्वारा उपकार करे छे ते जो संसारथी
पार थई जाय छे तो तेमां भला आश्चर्य ज शुं छे? कांई पण नहि. १६.
नित्यं पवित्रितधराग्रशिरःप्रदेशाः
नथी ते घर शुं छे? अर्थात् एवा गृहोनुं कांई पण महत्त्व नथी. ए ज रीते स्मरण
वशे पोताना चरण जळ द्वारा श्रावकोना शिर प्रदेशोने पवित्र करनार ते मुनिओ
जे श्रावकोनां मनमां संचार करता नथी ते श्रावक पण शुं छे? अर्थात् तेमनुं कांई
पण महत्त्व नथी.
मनथी चिंतन करे छे तथा तेमने आहारादि आपवामां सदा उत्सुक रहे छे ते ज गृहस्थ
प्रशंसाने योग्य छे. १७.
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धर्मः स किं न करुणाङ्गिषु यत्र मुख्या
सा किं विभूतिरिह यत्र न पात्रदानम्
तेने शुं धर्म कही शकाय? कही शकाय नहि. जेमां सम्यग्ज्ञान नथी ते शुं तप अने
गुरु होई शके छे? होई शके नहि. जे संपत्तिमांथी पात्रोने दान आपवामां आवतुं
नथी ते संपत्ति शुं सफळ होई शके? अर्थात् न होई शके. १८.
सा किं विभूतिरथ या न वशं प्रयाति
धर्मो जगत्त्रयवशीकरणैकमन्त्रः
एवा क्या गुण छे जे तेना वश न थई शके? ते क्युं सुख छे जे तेने प्राप्त न
थई शके? अने एवी कई विभूति छे जे तेने आधीन न थती होय? अर्थात् धर्मात्मा
मनुष्यने सर्व प्रकारना गुण, उत्तम सुख अने अनुपम विभूति पण स्वयमेव प्राप्त
थई जाय छे. १९.
रेकत्र वा परजने नरनाथलक्ष्मीः
दागामिकालफलदायि न तस्य किंचित्
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प्रथम मनुष्यनी अपेक्षाए द्वितीय मनुष्य दरिद्र ज छे कारण के तेनी पासे
आगामी काळमां फळ आपनार कांई पण बाकी नथी.
सुखी रहेशे. पण जे व्यक्तिए एवा पुण्यनो संचय कर्यो नथी ते वर्तमानमां राज्यलक्ष्मीथी संपन्न
होवा छतां पण भविष्यमां दुःखी ज रहेशे. २०.
नैवं श्रुतं च परमोपशमाय नित्यम्
संसारदुःखमृतिजातिनिबन्धनाय
मरण अने जन्मना कारणभूत मरण माटे ज होय छे.
वारंवार जन्म-मरण धारण करतो सांसारिक दुःख ज सहन कर्या करे छे. २१.
संसारसागरसमुत्तरणैकसेतुः
देवे गुरौ शमिनि पूजनदानहीना
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एवो वैभव एक मात्र बंधनुं ज कारण थाय छे. २२.
कार्यानुबन्धविधुराश्रितचित्तवृत्तिः
दुलँङ्घदुर्गतिकरी न पुनविभूतिः
विपुल अने तीव्र दुःखोथी परिपूर्ण दुर्लंघ्य नरकादिरूप दुर्गति करनारी विभूति श्रेष्ठ
नथी. २३.
दानं न संयतजनाय च भक्ति पूर्वम्
शीघ्रं जलाञ्जलिरगाधजले प्रविश्य
ते गृहस्थ अवस्थाने अगाध जळमां प्रवेशीने शुं शीघ्र डूबाडी न देवी जोईए?
अर्थात् अवश्य डूबाडी देवी जोईए. २४.
मानुष्यजन्मनि चिरादतिदुःखलब्धे
जायेत चेदहरहः किल पात्रदानम्
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जो कदाच ते तप न करी शकाय तो अणुव्रती ज थई जवुं जोईए के जेथी प्रतिदिन
पात्रदान थई शके. २५.
पाथेयमुन्नततरं स सुखी मनुष्यः
दानेन चार्जितशुभं सुखहेतुरेकम्
बीजा जन्ममां प्रवेशवाने माटे प्रवास करनार आ जीवने व्रत अने दानथी कमायेलुं
एक मात्र पुण्य ज सुखनुं कारण थाय छे. २६.
दैवादिह व्रजति निष्फलतां कदाचित्
कुर्यादसत्यपि हि पात्रजने प्रमोदात्
दानना अनुष्ठानमां करवामां आवेलो केवळ संकल्प पण पुण्य करे छे. २७.
कुर्वन्ति मानमतुलं वचनासनाद्यैः
पात्रे मुदा महति किं क्रियते न शिष्टैः
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बाधाकरं बत यथा मुनिदानशून्यम्
पुंसा कृते तु मनुते मतिमाननिष्टम्
बराबर छे
तेने अनिष्ट माने छे.
के जे कोई पण प्रकारे टाळी शकातो नथी. परंतु तेने त्यां जो कोई दिवस साधु पुरुषने आहारदान
आपवामां आवतुं नथी तो ते एना माटे पश्चात्ताप करे छे. एनुं कारण ए छे के ते तेनी
असावधानीथी थयुं छे, एमां दैव कांई बाधक थयुं नथी. जो तेणे सावधान रहीने द्वार पासे प्रतीक्षा
आदि करी होत तो मुनिदाननो सुयोग तेने प्राप्त थई शक्यो होत. २९.
स्त्यागेन ते धनयुतस्य भवन्ति सत्याः
श्चन्द्रोपलाः किल लभन्त इह प्रतिष्ठाम्
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ज्यारे उक्त भवनमांथी पाणीनो प्रवाह वहेवा लागे छे त्यारे सामान्यमां सामान्य माणस पण
एम समजी ले छे के उक्त भवन चन्द्रकान्त मणिथी बनावेल छे, तेथी ते तेमनी प्रशंसा करे
छे. बराबर ए ज रीते विवेकी दाता जिनमंदिर आदिनुं निर्माण करावीने पोतानी संपत्तिनो
सदुपयोग करे छे. ते जो के पोते पोतानी प्रतिष्ठा इच्छता नथी छतां पण उक्त जिनमंदिर
आदिनुं अवलोकन करनार अन्य मनुष्यो तेनी प्रशंसा करे छे. आ तो थई आ जन्मनी वात.
आनी साथे ज पात्रदानादि धर्मकार्यो द्वारा जे तेने पुण्यलाभ थाय छे तेनाथी ते पर जन्ममां
पण संपन्न अने सुखी थाय छे. ३०.
सत्यात्मनो वदति धार्मिकतां च यत्तत्
या जायते तडिदमुत्र सुखाचलेषु
परलोकमां तेना सुखरूपी पर्वतोना विनाश माटे वीजळीनुं काम करे छे. ३१.
तस्यापि संततमणुव्रतिना यथर्द्धि
द्रव्यं भविष्यति सदुत्तमदानहेतुः
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जे उत्तम पात्रदाननुं कारण थई शके, ए कांई पण कही शकातुं नथी.
राखीने अहीं एम कहेवामां आव्युं छे के घणुं करीने इच्छानुसार द्रव्य कदी कोईने पण
प्राप्त थतुं नथी माटे पोतानी पासे जे कांई द्रव्य छे ते प्रमाणे प्रत्येक मनुष्ये प्रतिदिन थोडुं
दान आपवुं ज जोईए. ३२.
सर्वाणि तत्र विदधाति न किं सु
सर्व प्रकारना इच्छित पदार्थो आपे छे. तो पछी जो सम्यग्द्रष्टि ते पात्रदानमां रुचि
राखे तो तेने शुं प्राप्त न थाय? अर्थात् तेने तो निश्चितपणे ज वांछित फळ प्राप्त
थाय छे. ३३.
तद्योग्यसपदि गृहाभिमुखे च पात्रे
रत्नं करोति विमतिस्तलभूमिभेदम्
दुर्बुद्धि खाणमांथी प्राप्त थयेल अतिशय मूल्यवान रत्न छोडी दईने पृथ्वीनुं
तळियुं व्यर्थ खोदे छे. ३४.
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न्नासाद्य चारुनरतार्थजिनेश्वराज्ञाः
सच्छिद्रनावमधिरुह्य गृहीतरत्नः
मूर्ख रत्नो लईने छिद्रवाळी नौकामां बेसीने समुद्रमां प्रवेश करे छे.
प्राप्त थई जाय अने छतां पण जो ते दानादि शुभ कार्योमां प्रवृत्त थतो नथी तो समजवुं जोईए
के जेवी रीते कोई मनुष्य खूब मूल्यवान रत्नो साथे लईने छिद्रवाळी नावमां बेसे छे अने तेथी
ते ते रत्नो साथे पोते पण समुद्रमां डूबी जाय छे, आवी ज अवस्था उक्त मनुष्यनी पण थाय
छे. कारण के भविष्यमां सुखी थवानुं साधन जे दानादि कार्योथी उत्पन्न थनारुं पुण्य हतुं तेने तेणे
मनुष्य पर्यायनी साथे तेने योग्य संपत्ति मेळवीने पण कर्युं ज नहि. ३५.
मस्मिन् परत्र च भवे यशसे सुखाय
क्षिप्तः स सेवकनरो धनरक्षणाय
पुण्यशाळी मनुष्य द्वारा धनना रक्षण माटे सेवकना रूपमां ज राखवामां आव्यो छे.
संपत्तिनो न तो स्वयं उपभोग करे छे अने न पात्रदान पण करे छे ते मनुष्य अन्य धनवान
मनुष्य द्वारा पोताना धननी रक्षा माटे राखवामां आवेल नोकर समान ज छे. कारण के जेवी