Padmanandi Panchvinshati-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 193-198 (1. Dharmopadeshamrut),1 (2. Danopadeshana),2 (2. Danopadeshana),3 (2. Danopadeshana),4 (2. Danopadeshana),5 (2. Danopadeshana),6 (2. Danopadeshana),7 (2. Danopadeshana),8 (2. Danopadeshana),9 (2. Danopadeshana),10 (2. Danopadeshana),11 (2. Danopadeshana),12 (2. Danopadeshana),13 (2. Danopadeshana),14 (2. Danopadeshana),15 (2. Danopadeshana),16 (2. Danopadeshana),17 (2. Danopadeshana),18 (2. Danopadeshana),19 (2. Danopadeshana),20 (2. Danopadeshana),21 (2. Danopadeshana),22 (2. Danopadeshana),23 (2. Danopadeshana),24 (2. Danopadeshana),25 (2. Danopadeshana),26 (2. Danopadeshana),27 (2. Danopadeshana),28 (2. Danopadeshana),29 (2. Danopadeshana),30 (2. Danopadeshana),31 (2. Danopadeshana),32 (2. Danopadeshana),33 (2. Danopadeshana),34 (2. Danopadeshana),35 (2. Danopadeshana),36 (2. Danopadeshana); 2. Danopadeshana.

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तद् द्राग्लब्धहिमाद्रिकुञ्जरचितप्रोद्दामयन्त्रोल्लसद्-
धारावेश्मसमो हि संसृतिपथे धर्मो भवेद्देहिनः
।।१९२।।
अनुवाद : मरुभूमि (मारवाड)मां चालनार जे पित्तप्रकृतिवाळो सुकुमार
मुसाफर ग्रीष्म ॠतुना तीक्ष्ण सूर्यना प्रकृष्ट तापरूप अग्निनी ज्वाळाथी संतप्त थईने
लांबा समयथी मार्गना श्रमथी पीडा पाम्यो छे तेने जेम तरत ज हिमालयनी
लत्ताओथी बनेल अने उत्कृष्ट फुवाराओथी शोभायमान धारागृह प्राप्त थतां अपूर्व
सुखनो अनुभव थाय छे तेवी ज रीते संसारमार्गमां चालता प्राणीने धर्मथी अभूतपूर्व
सुखनो अनुभव थाय छे. १९२.
(शार्दूलविक्रीडित)
संहारोग्रसमीरसंहतिहतप्रोद्भूतनीरोल्लसत्-
तुङ्गोर्मिभ्रमितोरुनक्रमकरग्राहादिभिर्भीषणे
अम्भोधौ विधुतोग्रबाडवशिखिज्वालाकराले पत-
ज्जन्तोःखे ऽपि विमानमाशु कुरुते धर्मः समालम्बनम्
।।१९३।।
अनुवाद : जे समुद्र घातक तीक्ष्ण वायु (प्रलय पवन)ना समूहथी
आघात पामीने जळमां उत्पन्न थनार उन्नत लहरीओथी आमतेम उछळता नक्र,
मगर अने ग्राह आदि हिंसक जळजंतुओथी भय उत्पन्न करनार छे तथा कंपित
तीक्ष्ण वाडवाग्निनी ज्वाळाथी भयानक छे एवा ते समुद्रमां पडता जीवोने धर्म
शीघ्रताथी आकाशमां पण आलंबनभूत विमान करी दे छे. १९३.
(स्रग्धरा)
उह्यन्ते ते शिरोभिः सुरपतिभिरपि स्तूयमानाः सुरौधै-
र्गीयन्ते किन्नरीभिर्ललितपदलसद्गीतिभिर्भक्तिरागात्
बम्भ्रम्यन्ते च तेषां दिशि दिशि विशदाः कीर्तयः का न वा स्यात्
लक्ष्मीस्तेषु प्रशस्ता विदधति मनुजा ये सदा धर्ममेकम्
।।१९४।।
अनुवाद : जे मनुष्य सदा अद्वितीय धर्मनो आश्रय ले छे तेमने इन्द्रो

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पण मस्तक उपर धारण करे छे, देवोनो समूह तेमनी स्तुति करे छे, किन्नरीओ
ललित पदोथी शोभायमान गीतो द्वारा तेमना भक्तिपूर्वक गुणगान करे छे तथा
तेमनो यश प्रत्येक दिशामां वारंवार भ्रमण करे छे अर्थात् तेमनी कीर्ति बधी
ज दिशामां फेलाई जाय छे. अथवा तेमने कई प्रशस्त लक्ष्मी प्राप्त थती नथी?
अर्थात् तेमने बधा ज प्रकारनी श्रेष्ठ लक्ष्मी प्राप्त थई जाय छे. १९४.
(शार्दूलविक्रीडित)
धर्मः श्रीवशमन्त्र ऐष परमो धर्मश्च कल्पद्रुमो
धर्मः कामगवीप्सितप्रदमणिर्धर्मः परं दैवतम्
धर्मः सौख्यपरंपरामृतनदीसंभूतिसत्पर्वतो
धर्मो भ्रातरुपास्यतां किमपरैः क्षुद्रैरसत्कल्पनैः
।।१९५।।
अनुवाद : आ उत्कृष्ट धर्म लक्ष्मीने वश करवा माटे वशीकरण मन्त्र
समान छे, आ धर्म कल्पवृक्ष समान इच्छित पदार्थ आपनार छे, ते कामधेनु
अथवा चिन्तामणि समान इष्ट वस्तुओनुं प्रदान करनार छे, ते धर्म उत्तम देव
समान छे तथा ते धर्म सुखपरंपरारूप अमृतनी नदी उत्पन्न करनार उत्तम पर्वत
समान छे. तेथी हे भाई! तमे बीजी तुच्छ मिथ्या कल्पनाओ छोडीने ते धर्मनी
आराधना करो. १९५.
(शार्दूलविक्रीडित)
आस्तामस्य विधानतः पथि गतिर्धर्मस्य वार्तापि यैः
श्रुत्वा चेतसि धार्यते त्रिभुवने तेषां न काः संपदः
दूरे सज्जलपानमज्जनसुखं शीतैः सरोमारुतैः
प्राप्तं पद्मरजः सुगन्धिभिरपि श्रान्तं जनं मोदयेत्
।।१९६।।
अनुवाद : आ धर्मना अनुष्ठानथी जे मोक्षमार्गमां प्रवृत्ति थाय छे ते तो
दूर रहो, परंतु जे मनुष्य ते धर्मनी वात पण सांभळीने चित्तमां धारण करे छे
तेमने त्रण लोकमां कई संपत्तिओ प्राप्त थती नथी? योग्य ज छे. उत्तम जळ पीवा
अने तेमां स्नान करवाथी प्राप्त थनारूं सुख तो दूर रहो, परंतु तळावना शीतळ

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अने सुगंधी वायु द्वारा प्राप्त थती कमळनी रज पण थाकेला मनुष्यने आनंदित
बनावी दे छे. १९६.
(वसंततिलका)
यत्पादपङ्कजरजोभिरपि प्रणामात्
लग्नैः शिरस्यमलबोधकलावतारः
भव्यात्मनां भवति तत्क्षणमेव मोक्षं
स श्रीगुरुर्दिशतु मे मुनिवीरनन्दी
।।१९७।।
अनुवाद : नमस्कार करती वखते मस्तकमां लागेल जेमना चरण-कमळोनी
धूळथी भव्य जीवोने तत्काळ ज निर्मळ सम्यग्ज्ञानरूप कळानी प्राप्ति थाय छे ते
श्रीमुनि वीरनन्दी गुरु मने मोक्ष प्रदान करो. १९७.
(वसंततिलका)
दत्तानन्दपारसंसृतिपथश्रान्तश्रमच्छेदकृत्
प्रायो दुर्लभमत्र कर्णपुटकैर्भव्यात्मभिः पीयताम्
निर्यातं मुनिपद्मनन्दिवदनप्रालेयरश्मेः परं
स्तोकं यद्यपि सारताधिकमिदं धर्मोपदेशामृतम्
।।१९८।।
इति धर्मोपदेशामृतं समाप्तम् ।।।।
अनुवाद : जे धर्मोपदेशरूप अमृत आनंद आपनार छे, अपार संसारना
मार्गमां थाकेला मुसाफरनो परिश्रम दूर करनार छे तथा घणुं दुर्लभ छे, तेने भव्य
जीव कानोरूप अंजलिथी पीओ अर्थात् कानो द्वारा तेनुं श्रवण करो. मुनि
पद्मनन्दिना मुखरूप चंद्रमांथी नीकळेल आ उपदेशामृत जो के अल्प छे तोपण
श्रेष्ठतानी अपेक्षाए ते अधिक छे.
विशेषार्थ : जेम अमृतनुं पान करवाथी पथिकनो मार्गनो थाक दूर थई जाय छे
अने तेने अतिशय आनंद प्राप्त थाय छे तेवी ज रीते आ धर्मोपदेश सांभळवाथी भव्य
जीवोना संसार परिभ्रमणनुं दुःख दूर थई जाय छे अने तेमने अनंत सुखनो लाभ थाय

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छे. जेवी रीते अमृत दुर्लभ छे तेवी ज रीते आ उपदेश पण दुर्लभ छे. अमृत जो चंद्रमांथी
उत्पन्न थाय छे तो आ उपदेश ते चन्द्रमा समान मुनि पद्मनन्दीना मुखमांथी उत्पन्न थयो
छे तथा जेम अमृत थोडुं होय तोपण ते अधिक लाभकारी थाय छे तेवी ज रीते ज आ
ग्रंथप्रमाणनी अपेक्षाए आ उपदेश जो के थोडो छे छतां पण ते लाभप्रद अधिक छे. आ
रीते आ उपदेशने अमृत समान हितकारी जाणीने भव्य जीवोए तेनु निरन्तर मनन करवुं
जोईए. १९८.
आ रीते धर्मोपदेशामृत समाप्त थयुं. १.

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२. दाननो उपदेश
[२. दानोपदेशम् ]
(वसंततिलका)
जीयाज्जिनो जगति नाभिनरेन्द्रसूनुः
श्रेयो नृपश्च कुरुगोत्रगृहप्रदीपः
याभ्यां बभूवतुरिह व्रतदानतीर्थे
सारक्रमे परमधर्मरथस्य चक्रे
।।।।
अनुवाद : जेमना द्वारा उत्तम रीते चालनारा श्रेष्ठ धर्मरूपी रथना चक्र
समान व्रत अने दानरूप बे तीर्थ अहीं प्रगट थया छे ते नाभिराजाना पुत्र आदि
जिनेन्द्र अने कुरुवंशरूप गृहना दीपक समान राजा श्रेयांस पण जयवंत हो.
विशेषार्थ : आ भरत क्षेत्रमां प्रथम, द्वितीय अने तृतीय काळमां भोगभूमिनी अवस्था
होय छे. ते समये आर्य कहेवाता पुरुषो अने स्त्रीओमां न तो विवाहादि संस्कार हता के न व्रतादिक
तेओ दस प्रकारना कल्पवृक्षोमांथी प्राप्त थयेली सामग्री द्वारा यथेच्छ भोग भोगवता थका काळ
निर्गमन करता हता, काळक्रमे ज्यारे तृतीय काळमां पल्यनो आठमो भाग
बाकी रह्यो त्यारे
ते कल्पवृक्षोनी दानशक्ति क्रमशः क्षीण थवा लागी हती. तेथी जे समये ते आर्योने मुश्केलीओनो
अनुभव थयो तेने यथाक्रमे उत्पन्न थनार प्रतिश्रुति आदि चौद कुलकरोए दूर कर्यो हतो. तेमां
अंतिम कुलकर नाभिराज हता. प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ तेमना ज पुत्र हता. अत्यार
सुधी जे व्रतोनो प्रचार नहोतो तेने भगवान आदिनाथे पोते ज पांच महाव्रतोनुं ग्रहण करीने
प्रचलित कर्यो. ए ज प्रमाणे अत्यार सुधी कोईने दानविधिनुं पण परिज्ञान नहोतुं. ए ज कारणे
छ मासना उपवास परिपूर्ण करीने भगवान आदि जिनेन्द्रने पारणाना निमित्ते बीजा पण छ मास
पर्यंत घूमवुं पड्युं. अंते राजा श्रेयांसने जातिस्मरण द्वारा आहार-दाननी विधिनुं परिज्ञान थयुं.

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ते प्रमाणे त्यारे तेणे भक्तिपूर्वक भगवान आदिनाथने शेरडीना रसनो आहार आप्यो. बस अहींथी
आहारादि दानोनी विधिनो पण प्रचार शरू थई गयो. आ रीते भगवान आदिनाथे व्रतोनो प्रचार
करीने तथा श्रेयांस राजाए दानविधिनो पण प्रचार करीने जगतनुं कल्याण कर्युं छे. तेथी ग्रंथकार
श्री पद्मनंदी मुनिए अहीं तीर्थना प्रवर्तक स्वरूपे भगवान आदि जिनेन्द्रनुं तथा दानतीर्थना प्रवर्तक
स्वरूपे श्रेयांस राजानुं स्मरण कर्युं छे. १.
(शार्दूलविक्रीडित)
श्रेयोभिधस्य नृपतेः शरदभ्रशुभ्र-
भ्राम्यद्यशोभृतजगत्रितयस्य तस्य
किं वर्णयामि ननु सद्मनि यस्य भुक्तं
त्रैलोक्यवन्दितपदेन जिनेश्वरेण
।।।।
अनुवाद : जे श्रेयांस राजाने घेर त्रणे लोकोथी वन्दित चरणोवाळा भगवान
ॠषभदेव जिनेन्द्रे आहार ग्रहण कर्यो अने तेथी जेनो शरदॠतुना वादळा समान
धवळ यश त्रणे लोकमां फेलायो ते श्रेयांस राजानुं केटलुं वर्णन करवुं? २.
(शार्दूलविक्रीडित)
श्रेयान् नृपो जयति यस्य गृहे तदा खादेकाद्यमुनिपुंगवपारणायाम्
सा रत्नवृष्टिरभवज्जगदेकचित्रहेतुर्यया वसुमतीत्वमिता धरित्री ।।।।
अनुवाद : जे श्रेयांस राजाने घेर इन्द्रादिको द्वारा वन्दनीय एक प्रथम
मुनिपुंगव (तीर्थंकर)ना आहार लेवाना समये लोकोने अभूतपूर्व आश्चर्यमां नाखनारी
आकाशमांथी ते रत्नवृष्टि थई के जेना द्वारा आ पृथ्वी ‘वसुमती (धनवाळी)’ एवी
सार्थक संज्ञा पामी हती; ते श्रेयांस राजा जयवंत हो.
विशेषार्थ : आ आगममां सारी रीते प्रसिद्ध छे के जेना घेर कोई तीर्थंकरनुं प्रथम
पारणुं थाय छे तेमने त्यां पांच आश्चर्य थाय छे. (१) रत्नवर्षा (२) दुंदुभीवादन (३) जय
जय शब्दनो प्रसार (४) सुगंधी वायुनो संचार अने (५) पुष्पोनी वर्षा. (जुओ ति. प.
गाथा ४, ६७१ थी ६७४). ते प्रमाणे भगवान आदिनाथे ज्यारे राजा श्रेयांसने घेर प्रथम
पारणुं कर्युं हतुं. त्यारे तेना घरमां पण रत्नोनो वरसाद वरस्यो हतो. तेनो ज निर्देश अहीं
श्री पद्मनंदी मुनिए कर्यो छे. ३.

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(शार्दूलविक्रीडित)
प्राप्तेऽपि दुर्लभतरेऽपि मनुष्यभावे
स्वप्नेन्द्रजालस
द्रशेऽपि हि जीवितादौ
ये लोभकूपकु हरे पतिताः प्रवक्ष्ये
कारुण्यतः खलु तदुद्धरणाय किंचित्
।।।।
अनुवाद : जे मनुष्य पर्याय अतिशय दुर्लभ छे ते प्राप्त थवा छतां पण
तथा जीवन आदि स्वप्न अने इन्द्रजाळ समान विनश्वर होवा छतां पण जे प्राणी
लोभरूप अंधकारयुक्त कूवामां पडेला छे तेमना उद्धार माटे दयाळु बुद्धिथी अहीं
केटलुंक दाननुं वर्णन कर्युं छे. ४.
(शार्दूलविक्रीडित)
कान्तात्मजद्रविणमुख्यपदार्थसार्थप्रोत्थातिघोरघनमोहमहासमुद्रे
पोतायते गृहिणि सर्वगुणाधिकत्वाद्दानं परं परमसात्त्विकभावयुक्त म् ।।।।
अनुवाद : जे गृहस्थ जीवन स्त्री, पुत्र अने धन आदि पदार्थोना समूहथी
उत्पन्न थयेल अत्यंत भयानक अने विस्तृत मोहना विशाळ समुद्र समान छे ते
गृहस्थ जीवनमां उत्तम सात्त्विक भावथी आपवामां आवेलुं उत्कृष्ट दान समस्त
गुणोमां श्रेष्ठ होवाथी नौकानुं काम करे छे.
विशेषार्थ : आ गृहस्थ जीवनमां प्राणीने, स्त्री, पुत्र अने धन आदिथी सदा मोह रह्या
करे छे; के जेथी ते अनेक प्रकारना आरंभोमां प्रवृत्त थईने पापनो संचय कर्या करे छे. आ पापने
नष्ट करवानो जो तेनी पासे कोई उपाय होय तो ते दान ज छे. आ दान संसाररूपी समुद्रथी
पार थवाने माटे जहाज समान छे. ५.
(शार्दूलविक्रीडित)
नानाजनाश्रितपरिग्रहसंभृतायाः
सत्पात्रदानविधिरेव गृहस्थतायाः
हेतुः परः शुभगतेर्विषमे भवेऽस्मिन्
नावः समुद्र इव कर्मठकर्णधारः
।।।।

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अनुवाद : आ विषम संसारमां जुदा जुदा कुटुंबी आदि जनोना आश्रये
परिग्रहथी परिपूर्ण एवी गृहस्थ अवस्थाना शुभ प्रवर्तननुं कारण एक मात्र
सत्पात्रदाननी विधि ज छे जेम समुद्रथी पार थवा माटे चतुर नाविकथी संचालित
नाव कारण छे.
विशेषार्थ : जे दान देवाने योग्य छे तेने पात्र कहेवाय छे. ते उत्तम, मध्यम अने
जघन्यना भेदथी त्रण प्रकारना छे. एमां सकळ चारित्र (महाव्रत) धारण करनार मुनिने उत्तम
पात्र, विकळ चारित्र (देशव्रत) धारण करनार श्रावकने मध्यम पात्र अने व्रतरहित सम्यग्द्रष्टिने
जघन्य पात्र समजवा जोईए. आ पात्रोने जो मिथ्याद्रष्टि जीव आहारादि आपे छे तो ते यथाक्रमे
(उत्तम पात्र आदि अनुसार) उत्तम, मध्यम अने जघन्य भोगभूमिना सुख भोगवीने त्यार पछी
यथा संभव देवपर्यायने प्राप्त करे छे, पण जो उपर्युक्त पात्रोने ज सम्यग्द्रष्टि जीव आहार आदि
आपे छे तो ते नियमथी उत्तम देवोमां ज उत्पन्न थाय छे. कारण ए छे के सम्यग्द्रष्टि जीवने
एक मात्र देवायुनो ज बंध थाय छे. आमना सिवाय जे जीव सम्यग्दर्शनथी रहित होवा छतां
पण व्रतोनुं परिपालन करे छे ते कुपात्र कहेवाय छे. कुपात्रदानना प्रभावथी प्राणी कुभोगभूमिओ
(अंतरद्वीपो)मां कुमनुष्य तरीके उत्पन्न थाय छे. जे प्राणी न तो सम्यग्द्रष्टि छे, अने न व्रतोनुं
पण पालन करे छे ते अपात्र कहेवाय छे अने एवा अपात्रने आपवामां आवेलुं दान व्यर्थ जाय
छे
तेनुं कोई फळ प्राप्त थतुं नथी जेम के उज्जड भूमिमां वावेलुं बीज. एटलुं अवश्य छे के अपात्र
होवा छतां पण जे प्राणी विकलांग (लंगडा, आंधळा वगेरे) अथवा असहाय छे तेमने दयापूर्वक
आपवामां आवेलुं दान (दयादत्ति) व्यर्थ नथी जतुं. परंतु तेनाथी य यथायोग्य पुण्य कर्मनो बंध
अवश्य थाय छे. ६.
(वसंततिलका)
आयासकोटिभिरुपार्जितमङ्गजेभ्यो
यज्जीवितादपि निजाद्दयितं जनानाम्
वित्तस्य तस्य सुगतिः खलु दानमेक-
मन्या विपत्तय इति प्रवदन्ति सन्तः
।।।।
अनुवाद : करोडो परिश्रमोथी संचित करेलुं जे धन प्राणीओने पुत्रो अने
पोताना प्राणोथी पण अधिक प्रिय लागे छे तेनो सदुपयोग केवळ दान देवामां
ज थाय छे, एनाथी विरुद्ध दुर्व्यसनादिमां तेनो उपयोग करवाथी प्राणीने कष्ट
ज भोगववा पडे छे; एवुं साधुजनोनुं कहेवुं छे. ७.

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(वसंततिलका)
भुक्त्यादिभिः प्रतिदिनं गृहिणो न सम्यङ्-
नष्टा रमापि पुनरेति कदाचिदत्र
सत्पात्रदानविधिना तु गताप्युदेति
क्षेत्रस्थबीजमिव कोटिगुणं वटस्थ
।।।।
अनुवाद : लोकमां प्रतिदिन भोजन आदि द्वारा नाश पामेली गृहस्थनी
लक्ष्मी (संपत्ति) अहीं फरीथी कदी पण प्राप्त थती नथी. परंतु उत्तम पात्रोने
आपवामां आवेल दाननी विधिथी व्यय पामेली संपत्ति फरीथी पण प्राप्त थई जाय
छे. जेम उत्तम भूमिमां वावेलुं वडवृक्षनुं बीज करोडगणुं फळ आपे छे. ८.
(वसंततिलका)
यो दत्तवानिह मुमुक्षुजनाय भुक्तिंं
भक्त्याश्रितः शिवपथे न धृतः स एव
आत्मापि तेन विदधत्सुरसद्म नून-
मुच्चैः पदं व्रजति तत्सहितोऽपि शिल्पी
।।।।
अनुवाद : जे श्रावके अहीं मोक्षाभिलाषी मुनिने भक्तिपूर्वक आहार आप्यो
छे तेणे केवळ ते मुनिने ज मोक्षमार्गमां प्रवृत्त नथी कर्या पण पोतानी जातने पण
तेणे मोक्षमार्गमां लगावी छे. बराबर ज छे
मंदिर बनावनार कारीगर पण निश्चयथी
ते मंदिरनी साथे ज ऊंचा स्थान उपर चाल्यो जाय छे.
विशेषार्थ : जेम देवालयने बनावनार कारीगर जेम जेम देवालय ऊंचुं थतुं जाय छे
तेम तेम ते पण ऊंचा स्थाने चढतो जाय छे. बराबर एवी ज रीते मुनिने भक्तिपूर्वक आहार
आपनार गृहस्थ पण उक्त मुनिनी साथे ज मोक्षमार्गमां प्रवृत्त थई जाय छे. ९.
(वसंततिलका)
यः शाकपिण्डमपि भक्ति रसानुविद्ध-
बुद्धिः प्रयच्छति जनो मुनिपुंगवाय
स स्यादनन्तफलभागथ बीजमुप्तं
क्षेत्रे न किं भवति भूरि कृषीवलस्य
।।१०।।

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अनुवाद : भक्तिरसथी अनुरंजित बुद्धिवाळो जे गृहस्थ श्रेष्ठ मुनिने शाकनो
आहार पण आपे छे ते अनंत फळ भोगवनार थाय छे. योग्य छेउत्तम खेतरमां
वावेलुं बीज शुं खेडूतने घणुं फळ नथी आपतुं? अवश्य आपे छे. १०.
(वसंततिलका)
साक्षान्मनोवचनकायविशुद्धिशुद्धः
पात्राय यच्छति जनो ननु भुक्ति मात्रम्
यस्तस्य संसृतिसमुत्तरणैकबीजे
पुण्ये हरिर्भवति सोऽपि कृताभिलाषः
।।११।।
अनुवाद : मन, वचन अने कायानी शुद्धिथी विशुद्ध थयेल जे मनुष्य साक्षात्
पात्र (मुनि आदि)ने केवळ आहार ज आपे छे तेना संसारथी पार उतारवामां अद्वितीय
कारणस्वरूप पुण्यना विषयमां ते इन्द्र पण अभिलाषा युक्त होय छे. अभिप्राय एम
छे के एनाथी जे तेने पुण्यनी प्राप्ति थवानी छे तेने इन्द्र पण इच्छे छे. ११.
(वसंततिलका)
मोक्षस्य कारणमभिष्टुतमत्र लोके
तद्धार्यते मुनिभिरङ्गबलात्तदन्नात्
तद्दीयते च गृहिणा गुरुभक्ति भाजा
तस्माद्धृतो गृहिजनेन विमुक्ति मार्गः
।।१२।।
अनुवाद : लोकमां मोक्षना कारणभूत जे रत्नत्रयनी स्तुति करवामां आवे
छे ते मुनिओ द्वारा शरीरनी शक्तिथी धारण करवामां आवे छे, ते शरीरनी शक्ति
भोजनथी प्राप्त थाय छे अने ते भोजन अतिशय भक्तिपूर्वक गृहस्थ द्वारा आपवामां
आवे छे. ए ज कारणे वास्तवमां ते मोक्षमार्ग गृहस्थोए ज धारण कर्यो छे. १२.
(वसंततिलका)
नानागृहव्यतिकरार्जितपापपुञ्जैः
खञ्जीकृतानि गृहिणो न तथा व्रतानि
उच्चैः फलं विदधतीह यथैकदापि
प्रीत्यातिशुद्धमनसा कृतपात्रदानम्
।।१३।।

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अनुवाद : लोकमां अत्यंत विशुद्ध मनवाळा गृहस्थद्वारा प्रीतिपूर्वक पात्रने
एक वार पण आपवामां आवेलुं दान जेवुं उन्नत फळ आपे छे तेवुं फल गृहनी
अनेक झंझटोथी उत्पन्न थयेल पाप समूहो द्वारा कूबडा अर्थात् शक्तिहीन करवामां
आवेला गृहस्थना व्रत करता नथी. १३.
(वसंततिलका)
मूले तनुस्तदनु धावति वर्धमाना
यावच्छिवं सरिदिवानिशमासमुद्रम्
लक्ष्मीः सद्रष्टिपुरुषस्य यतीन्द्रदान
पुण्यात्पुरः सह यशोभिरतीद्धफे नैः ।।१४।।
अनुवाद : सम्यग्द्रष्टि पुरुषनी लक्ष्मी मूळमां अल्प होवा छतां पण त्यार
पछी मुनिराजने आपवामां आवेल दानथी उत्पन्न थयेल पुण्यना प्रभावथी कीर्ति
साथे निरंतर उत्तरोत्तर वृद्धि पामती थकी मोक्षपर्यंत जाय छे
जेमनदी मूळमां कृश
होवा छतां पण अतिशय तेजस्वी फीण साथे उत्तरोत्तर वृद्धि पामीने समुद्र सुधी जाय
छे.
विशेषार्थ : जेम नदीने उद्गमस्थानमां तेनो विस्तार जो के बहु ज थोडो होय छे,
छतां पण ते समुद्रपर्यंत पहोंचता उत्तरोत्तर वधतो ज जाय छे. एनी साथे नदीना फीण पण ते
ज क्रमे वधता जाय छे. तेवी ज रीते सम्यग्द्रष्टि जीवनी धन
संपत्ति पण जो के शरूआतमां बहु
थोडी होय छे तोपण ते आगळ भक्तिपूर्वक करवामां आवेला पात्रदानथी जे पुण्यबंध थाय छे
तेना प्रभावथी मुक्ति प्राप्त थवा सुधी उत्तरोत्तर वृद्धि ज पामती जाय छे. तेनी साथे ज उक्त
दाता श्रावकनी कीर्तिनो प्रसार पण वधतो जाय छे. १४.
(वसंततिलका)
प्रायः कुतो गृहगते परमात्मबोधः
शुद्धात्मनो भुवि यतः पुरुषार्थसिद्धिः
दानात्पुनर्ननु चतुर्विधतः करस्था
सा लीलयैव कृतपात्रजनानुषंगात्
।।१५।।
अनुवाद : जगतमां जे उत्कृष्ट आत्मस्वरूपना ज्ञानथी शुद्ध आत्माना
पुरुषार्थनी सिद्धि थाय छे ते आत्मज्ञान गृहमां स्थित मनुष्यने प्रायः क्यांथी थई

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शके? अर्थात् थई शकतुं नथी. पण ते पुरुषार्थनी सिद्धि पात्र जनोने आपवामां
आवेल चार प्रकारना दानथी अनायासे ज प्राप्त थई जाय छे. १५.
(वसंततिलका)
नामापि यः स्मरति मोक्षपथस्य साधो-
राशु क्षयं व्रजति तद्दुरितं समस्तम्
यो भक्त भेषजमठादिकृतोपकारः
संसारमुत्तरति सोऽत्र नरो न चित्तम्
।।१६।।
अनुवाद : जे मनुष्य मोक्षमार्गमां स्थित साधुनुं केवळ नामस्मरण पण करे
छे तेना समस्त पाप शीघ्र ज नाश पामी जाय छे. वळी जे मनुष्य उक्त साधुने
भोजन, औषध अने मठ (उपाश्रय) आदि द्वारा उपकार करे छे ते जो संसारथी
पार थई जाय छे तो तेमां भला आश्चर्य ज शुं छे? कांई पण नहि. १६.
(वसंततिलका)
किं ते गृहाः किमिह ते गृहिणो नु येषा
मन्तर्मनस्सु मुनयो न हि संचरन्ति
साक्षादथ स्मृतिवशाच्चरणोदकेन
नित्यं पवित्रितधराग्रशिरःप्रदेशाः
।।१७।।
अनुवाद : जे मुनिओ साक्षात् पोताना पादोदकथी गृहगत पृथ्वीना
अग्रभागने सदा पवित्र करता रहे छे एवा मुनिओ जे गृहोमां साक्षात् संचार करता
नथी ते घर शुं छे? अर्थात् एवा गृहोनुं कांई पण महत्त्व नथी. ए ज रीते स्मरण
वशे पोताना चरण जळ द्वारा श्रावकोना शिर प्रदेशोने पवित्र करनार ते मुनिओ
जे श्रावकोनां मनमां संचार करता नथी ते श्रावक पण शुं छे? अर्थात् तेमनुं कांई
पण महत्त्व नथी.
विशेषार्थ : अभिप्राय एवो छे के जे घरोमां आहारादिना निमित्ते मुनिओनुं
आवागमन थतुं रहे छे ते ज घर वास्तवमां सफळ छे. ए ज रीते जे गृहस्थ ते मुनिओनुं
मनथी चिंतन करे छे तथा तेमने आहारादि आपवामां सदा उत्सुक रहे छे ते ज गृहस्थ
प्रशंसाने योग्य छे. १७.

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(वसंततिलका)
देवः स किं भवति यत्र विकारभावो
धर्मः स किं न करुणाङ्गिषु यत्र मुख्या
तत् किं तपो गुरुरथास्ति न यत्र बोधः
सा किं विभूतिरिह यत्र न पात्रदानम्
।।१८।।
अनुवाद : जेमने क्रोधादि विकारभाव विद्यमान छे ते शुं देव होई शके?
अर्थात् ते कदापि देव होई शके नहि. ज्यां प्राणीओनी बाबतमां दया मुख्य नथी
तेने शुं धर्म कही शकाय? कही शकाय नहि. जेमां सम्यग्ज्ञान नथी ते शुं तप अने
गुरु होई शके छे? होई शके नहि. जे संपत्तिमांथी पात्रोने दान आपवामां आवतुं
नथी ते संपत्ति शुं सफळ होई शके? अर्थात् न होई शके. १८.
(वसंततिलका)
किं ते गुणाः किमिह तत्सुखमस्ति लोके
सा किं विभूतिरथ या न वशं प्रयाति
दानव्रतादिजनितो यदि मानवस्य
धर्मो जगत्त्रयवशीकरणैकमन्त्रः
।।१९।।
अनुवाद : जो मनुष्यनी पासे त्रणे लोकने वशीभूत करवा माटे अद्वितीय
वशीकरणमंत्र समान दान अने व्रत आदिथी उत्पन्न थयेल धर्म विद्यमान होय तो
एवा क्या गुण छे जे तेना वश न थई शके? ते क्युं सुख छे जे तेने प्राप्त न
थई शके? अने एवी कई विभूति छे जे तेने आधीन न थती होय? अर्थात् धर्मात्मा
मनुष्यने सर्व प्रकारना गुण, उत्तम सुख अने अनुपम विभूति पण स्वयमेव प्राप्त
थई जाय छे. १९.
(वसंततिलका)
सत्पात्रदानजनितोन्नतपुण्यराशि-
रेकत्र वा परजने नरनाथलक्ष्मीः
आद्यात्परस्तदपि दुर्गत एव यस्मा-
दागामिकालफलदायि न तस्य किंचित्
।।२०।।

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अनुवाद : एक मनुष्य पासे उत्तम पात्रने आपेल दानथी उत्पन्न
पुण्यनो समूह छे अने बीजा मनुष्य पासे राज्यलक्ष्मी विद्यमान छे. छतां पण
प्रथम मनुष्यनी अपेक्षाए द्वितीय मनुष्य दरिद्र ज छे कारण के तेनी पासे
आगामी काळमां फळ आपनार कांई पण बाकी नथी.
विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के सुखनुं कारण एक मात्र पुण्यनो संचय ज होय छे.
ए ज कारणे जे व्यक्तिए पात्रदानादि द्वारा एवा पुण्यनो संचय करी लीधो छे ते आगामी काळमां
सुखी रहेशे. पण जे व्यक्तिए एवा पुण्यनो संचय कर्यो नथी ते वर्तमानमां राज्यलक्ष्मीथी संपन्न
होवा छतां पण भविष्यमां दुःखी ज रहेशे. २०.
(वसंततिलका)
दानाय यस्य न धनं न वपुर्व्रताय
नैवं श्रुतं च परमोपशमाय नित्यम्
तज्जन्म केवलमलं मरणाय भूरि-
संसारदुःखमृतिजातिनिबन्धनाय
।।२१।।
अनुवाद : जेनुं धन दान माटे नथी, शरीर व्रत माटे नथी ए ज रीते
शास्त्राभ्यास कषायोना उत्कृष्ट उपशम माटे नथी; तेनो जन्म केवळ सांसारिक दुःख,
मरण अने जन्मना कारणभूत मरण माटे ज होय छे.
विशेषार्थ : जे मनुष्य पोताना धननो सदुपयोग दानमां करतो नथी, शरीरनो सदुपयोग
व्रत धारणमां करतो नथी तथा आगममां निपुण होवा छतां पण कषायोनुं दमन करतो नथी ते
वारंवार जन्म-मरण धारण करतो सांसारिक दुःख ज सहन कर्या करे छे. २१.
(वसंततिलका)
प्राप्ते नृजन्मनि तपः परमस्तु जन्तोः
संसारसागरसमुत्तरणैकसेतुः
मा भूद्विभूतिरिह बन्धनहेतुरेव
देवे गुरौ शमिनि पूजनदानहीना
।।२२।।
अनुवाद : मनुष्यजन्म प्राप्त थतां जीवे उत्तम तप ग्रहण करवुं जोईए
केम के ते संसाररूपी समुद्रथी पार थवा माटे अपूर्व पुल समान छे. तेनी पासे

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देव, गुरु अने मुनिनी पूजा अने दानथी रहित वैभव न होवो जोईए, केमके
एवो वैभव एक मात्र बंधनुं ज कारण थाय छे. २२.
(वसंततिलका)
भिक्षा वरं परिहृताखिलपापकारि-
कार्यानुबन्धविधुराश्रितचित्तवृत्तिः
सत्पात्रदानरहिता विततोग्रदुःख-
दुलँङ्घदुर्गतिकरी न पुनविभूतिः
।।२३।।
अनुवाद : पाप उत्पन्न करनार समस्त कार्योना संबंध रहित एवी
चित्तवृत्तिनो आश्रय करनारी भिक्षा क्यांय श्रेष्ठ छे पण सत्पात्रदान रहित थईने
विपुल अने तीव्र दुःखोथी परिपूर्ण दुर्लंघ्य नरकादिरूप दुर्गति करनारी विभूति श्रेष्ठ
नथी. २३.
(वसंततिलका)
पूजा न चेज्जिनपतेः पदपङ्कजेषु
दानं न संयतजनाय च भक्ति पूर्वम्
नो दीयते किमु ततः सदनस्थितायाः
शीघ्रं जलाञ्जलिरगाधजले प्रविश्य
।।२४।।
अनुवाद : जे गृहस्थावस्थामां जिनेन्द्र भगवानना चरणकमळोनी पूजा
करवामां आवती नथी तथा भक्तिपूर्वक संयमीजनोने दान आपवामां आवतुं नथी
ते गृहस्थ अवस्थाने अगाध जळमां प्रवेशीने शुं शीघ्र डूबाडी न देवी जोईए?
अर्थात् अवश्य डूबाडी देवी जोईए. २४.
(वसंततिलका)
कार्यं तपः परमिह भ्रमता भवाब्धौ
मानुष्यजन्मनि चिरादतिदुःखलब्धे
संपद्यते न तदणुव्रतिनापि भाव्यं
जायेत चेदहरहः किल पात्रदानम्
।।२५।।

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अनुवाद : अहीं संसाररूप समुद्रमां परिभ्रमण करतां जो घणां काळे महान
दुःखथी मनुष्य पर्याय प्राप्त थई गई छे तो तेने पामीने उत्कृष्ट तप करवुं जोईए.
जो कदाच ते तप न करी शकाय तो अणुव्रती ज थई जवुं जोईए के जेथी प्रतिदिन
पात्रदान थई शके. २५.
(वसंततिलका)
ग्रामान्तरं व्रजति यः स्वगृहाद्गृहीत्वा
पाथेयमुन्नततरं स सुखी मनुष्यः
जन्मान्तरं प्रविशतो ऽस्य तथा व्रतेन
दानेन चार्जितशुभं सुखहेतुरेकम्
।।२६।।
अनुवाद : जे मनुष्य पोताना घेरथी घणो नास्तो (मार्गमां खावा योग्य
पकवान्न वगेरे) लईने बीजा कोई गाम जाय छे ते जेम सुखी रहे छे तेवी ज रीते
बीजा जन्ममां प्रवेशवाने माटे प्रवास करनार आ जीवने व्रत अने दानथी कमायेलुं
एक मात्र पुण्य ज सुखनुं कारण थाय छे. २६.
(वसंततिलका)
यत्नः कृतोऽपि मदनार्थयशोनिमित्तं
दैवादिह व्रजति निष्फलतां कदाचित्
संकल्पमात्रमपि दानविधौ तु पुण्यं
कुर्यादसत्यपि हि पात्रजने प्रमोदात्
।।२७।।
अनुवाद : अहीं काम, अर्थ अने यश माटे करवामां आवेलो प्रयत्न
भाग्यवश कदाच निष्फळ पण थई जाय छे. परंतु पात्रजनना अभावमां पण हर्षपूर्वक
दानना अनुष्ठानमां करवामां आवेलो केवळ संकल्प पण पुण्य करे छे. २७.
(वसंततिलका)
सद्मागते किल विपक्षजने ऽपि सन्तः
कुर्वन्ति मानमतुलं वचनासनाद्यैः
यत्तत्र चारुगुणरत्न निधानभूतै
पात्रे मुदा महति किं क्रियते न शिष्टैः
।।२८।।

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अनुवाद : पोताना घेर शत्रुओ आवे तो पण सज्जन मनुष्य वचन अने
आसनदान वगेरे द्वारा तेनो अनुपम आदरसत्कार करे छे. तो पछी शुं उत्तम गुणोरूप
रत्नोना आश्रयभूत उत्कृष्ट पात्र त्यां पहोंचता सज्जन हर्षथी आदरसत्कार नथी
करता? अर्थात् तेओ अवश्यमेव दानादि द्वारा तेनुं यथायोग्य सन्मान करे छे. २८.
(वसंततिलका)
सूनोर्मृतेरपि दिनं न सतस्तथा स्याद्
बाधाकरं बत यथा मुनिदानशून्यम्
दुर्वारदुष्टविधिना न कृते ह्यकार्ये
पुंसा कृते तु मनुते मतिमाननिष्टम्
।।२९।।
अनुवाद : सज्जन मनुष्यने माटे पोताना पुत्रना मृत्युनो दिवस पण एटलो
बाधक नथी होतो जेटलो मुनिदानथी रहित दिवस तेमने माटे बाधक होय छे.
बराबर छे
दुर्निवार दुष्ट दैव द्वारा कुत्सित कार्य करवामां आवता बुद्धिमान मनुष्य
तेने अनिष्ट नथी मानता परंतु मनुष्य द्वारा एवुं कोई काम करवामां विवेकी प्राणी
तेने अनिष्ट माने छे.
विशेषार्थ : जो कोई विवेकी मनुष्यना घरमां पुत्रनुं मरण थई जाय तो ते शोकाकुळ
थता नथी कारण के ते जाणे छे के आ पुत्र वियोग पोताना पूर्वोपार्जित कर्मना उदयथी थयो छे
के जे कोई पण प्रकारे टाळी शकातो नथी. परंतु तेने त्यां जो कोई दिवस साधु पुरुषने आहारदान
आपवामां आवतुं नथी तो ते एना माटे पश्चात्ताप करे छे. एनुं कारण ए छे के ते तेनी
असावधानीथी थयुं छे, एमां दैव कांई बाधक थयुं नथी. जो तेणे सावधान रहीने द्वार पासे प्रतीक्षा
आदि करी होत तो मुनिदाननो सुयोग तेने प्राप्त थई शक्यो होत. २९.
(वसंततिलका)
ये धर्मकारणसमुल्लसिता विकल्पा-
स्त्यागेन ते धनयुतस्य भवन्ति सत्याः
स्पृष्टाः शशाङ्ककिरणैरमृतं क्षरन्त-
श्चन्द्रोपलाः किल लभन्त इह प्रतिष्ठाम्
।।३०।।
अनुवाद : धर्मना साधन माटे जे विकल्पो उत्पन्न थाय छे ते धनवान

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मनुष्यना दान द्वारा सत्य बने छे. बराबर छेचन्द्रकान्तमणि चन्द्रना किरणोनो स्पर्श
पामीने अमृत वहेवरावीने ज अहीं प्रतिष्ठा पामे छे.
विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के पात्रने दान आपनार श्रावक आ भवमां उक्त
दान द्वारा लोकमां प्रतिष्ठा प्राप्त करे छे. जेम केचन्द्रकान्तमणिथी बनावेल भवनने जोवा छतां
पण साधारण मनुष्य उक्त चन्द्रकान्त मणिनो परिचय पामतो नथी. पण चन्द्रमानो उदय थतां
ज्यारे उक्त भवनमांथी पाणीनो प्रवाह वहेवा लागे छे त्यारे सामान्यमां सामान्य माणस पण
एम समजी ले छे के उक्त भवन चन्द्रकान्त मणिथी बनावेल छे, तेथी ते तेमनी प्रशंसा करे
छे. बराबर ए ज रीते विवेकी दाता जिनमंदिर आदिनुं निर्माण करावीने पोतानी संपत्तिनो
सदुपयोग करे छे. ते जो के पोते पोतानी प्रतिष्ठा इच्छता नथी छतां पण उक्त जिनमंदिर
आदिनुं अवलोकन करनार अन्य मनुष्यो तेनी प्रशंसा करे छे. आ तो थई आ जन्मनी वात.
आनी साथे ज पात्रदानादि धर्मकार्यो द्वारा जे तेने पुण्यलाभ थाय छे तेनाथी ते पर जन्ममां
पण संपन्न अने सुखी थाय छे. ३०.
(वसंततिलका)
मन्दायते य इह दानविधौ धने ऽपि
सत्यात्मनो वदति धार्मिकतां च यत्तत्
माया हृदि स्फु रति सा मनुजस्य तस्य
या जायते तडिदमुत्र सुखाचलेषु
।।३१।।
अनुवाद : जे मनुष्य धन होवा छतां पण दान देवामां उत्सुक तो थतो
नथी परंतु पोतानी धार्मिकता प्रगट करे छे तेना हृदयमां जे कुटिलता रहे छे ते
परलोकमां तेना सुखरूपी पर्वतोना विनाश माटे वीजळीनुं काम करे छे. ३१.
(वसंततिलका)
ग्रासस्तदर्धमपि देयमथार्धमेव
तस्यापि संततमणुव्रतिना यथर्द्धि
इच्छानुरूपमिह कस्य कदात्र लोके
द्रव्यं भविष्यति सदुत्तमदानहेतुः
।।३२।।
अनुवाद : अणुव्रती गृहस्थे निरंतर पोतानी संपत्ति प्रमाणे एक ग्रास,
अडधो ग्रास अथवा तेनो पण अडधो भाग अर्थात् ग्रासनो एक चतुर्थांश पण देवो

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जोईए. कारण ए के अहीं लोकमां पोतानी इच्छानुसार द्रव्य कोने क्यारे मळशे के
जे उत्तम पात्रदाननुं कारण थई शके, ए कांई पण कही शकातुं नथी.
विशेषार्थ : जेमनी पासे अधिक द्रव्य होतुं नथी तेओ घणुं करीने विचार कर्या
करे छे के ज्यारे पूरतुं धन मळशे त्यारे आपणे दान करीशुं. एवा ज मनुष्योने लक्षमां
राखीने अहीं एम कहेवामां आव्युं छे के घणुं करीने इच्छानुसार द्रव्य कदी कोईने पण
प्राप्त थतुं नथी माटे पोतानी पासे जे कांई द्रव्य छे ते प्रमाणे प्रत्येक मनुष्ये प्रतिदिन थोडुं
दान आपवुं ज जोईए. ३२.
(वसंततिलका)
मिथ्याद्रशो ऽपि रुचिरेव मुनीन्द्रदाने
दद्यात् पशोरपि हि जन्म सुभोगभूमौ
कल्पाङ्ध्रिपा ददति यत्र सदेप्सितानि
सर्वाणि तत्र विदधाति न किं सु
द्रष्टेः ।।३३।।
अनुवाद : मिथ्याद्रष्टि पशुने पण मुनिराजने दान आपवामां जे केवळ रुचि
होय छे तेनाथी ज ते, उत्तम भोगभूमिमां जन्म ले छे के ज्यां कल्पवृक्ष सदा तेने
सर्व प्रकारना इच्छित पदार्थो आपे छे. तो पछी जो सम्यग्द्रष्टि ते पात्रदानमां रुचि
राखे तो तेने शुं प्राप्त न थाय? अर्थात् तेने तो निश्चितपणे ज वांछित फळ प्राप्त
थाय छे. ३३.
(वसंततिलका)
दानाय यस्य न समुत्सहते मनीषा
तद्योग्यसपदि गृहाभिमुखे च पात्रे
प्राप्तं खनावतिमहार्ध्यतरं विहाय
रत्नं करोति विमतिस्तलभूमिभेदम्
।।३४।।
अनुवाद : दान योग्य संपत्ति होवा छतां अने पात्र पण पोताना घर
समीपे आववा छतां जे मनुष्यनी बुद्धि दान माटे उत्साहित थती नथी ते
दुर्बुद्धि खाणमांथी प्राप्त थयेल अतिशय मूल्यवान रत्न छोडी दईने पृथ्वीनुं
तळियुं व्यर्थ खोदे छे. ३४.

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(वसंततिलका)
नष्टा मणीरिव चिराज्जलधौ भवे ऽस्मि-
न्नासाद्य चारुनरतार्थजिनेश्वराज्ञाः
दानं न यस्य स जडः प्रविशेत् समुद्रं
सच्छिद्रनावमधिरुह्य गृहीतरत्नः
।।३५।।
अनुवाद : घणा लांबा समयथी समुद्रमां नष्ट थयेल मणि समान आ
भवमां उत्तम मनुष्य पर्याय, धन अने जिनवाणी पामीने जे दान करतो नथी ते
मूर्ख रत्नो लईने छिद्रवाळी नौकामां बेसीने समुद्रमां प्रवेश करे छे.
विशेषार्थ : जेवी रीते समुद्रमां पडेलुं मणिनुं फरीथी प्राप्त थवुं अतिशय कठण छे तेवी
ज रीते मनुष्य पर्याय आदिनुं पण फरीथी प्राप्त थवुं अतिशय कठण छे, ते जो भाग्यवशे कोईने
प्राप्त थई जाय अने छतां पण जो ते दानादि शुभ कार्योमां प्रवृत्त थतो नथी तो समजवुं जोईए
के जेवी रीते कोई मनुष्य खूब मूल्यवान रत्नो साथे लईने छिद्रवाळी नावमां बेसे छे अने तेथी
ते ते रत्नो साथे पोते पण समुद्रमां डूबी जाय छे, आवी ज अवस्था उक्त मनुष्यनी पण थाय
छे. कारण के भविष्यमां सुखी थवानुं साधन जे दानादि कार्योथी उत्पन्न थनारुं पुण्य हतुं तेने तेणे
मनुष्य पर्यायनी साथे तेने योग्य संपत्ति मेळवीने पण कर्युं ज नहि. ३५.
(वसंततिलका)
यस्यास्ति नो धनवतः किल पात्रदान-
मस्मिन् परत्र च भवे यशसे सुखाय
अन्येन केनचिदनूनसुपुण्यभाजा
क्षिप्तः स सेवकनरो धनरक्षणाय
।।३६।।
अनुवाद : जे पात्रदान आ भवमां यशनुं कारण तथा परभवमां सुखनुं
कारण छे तेने जे धनवान मनुष्य करतो नथी ते मनुष्य जाणे कोई बीजा अतिशय
पुण्यशाळी मनुष्य द्वारा धनना रक्षण माटे सेवकना रूपमां ज राखवामां आव्यो छे.
विशेषार्थ : जो भाग्यवश धनसंपत्तिनी प्राप्ति थई तो तेनो सदुपयोग पोतानी
योग्य आवश्यकतानी पूर्ति करता थका पात्रदानमां करवो जोईए. परंतु जे मनुष्य प्राप्त
संपत्तिनो न तो स्वयं उपभोग करे छे अने न पात्रदान पण करे छे ते मनुष्य अन्य धनवान
मनुष्य द्वारा पोताना धननी रक्षा माटे राखवामां आवेल नोकर समान ज छे. कारण के जेवी