Padmanandi Panchvinshati-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 145-192 (1. Dharmopadeshamrut).

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दर्शननुं कौतूहल होय तो नकामा कोलाहल (बकवाद)थी शुं? पोतानी समस्त
इन्द्रियोनो निरोध करीने तुं परिग्रह पिचाशने छोडी दे. एनाथी स्थिरचित्त थईने
तुं केटलाक दिवसोमां एकान्तमां ते अंतरात्मानुं अवलोकन करी शकीश. १४४.
(शार्दूलविक्रीडित)
हे चेतः किमु जीव तिष्ठसि कथं चिन्तास्थितं सा कुतो
रागद्वेषवशात्तयोः परिचयः कस्माच्च जातस्तव
इष्टानिष्टसमागमादिति यदि श्वभ्रं तदावां गतौ
नोचेन्मुञ्च समस्तमेतदचिरादिष्टादिसंकल्पनम्
।।१४५।।
अनुवाद : अहीं जीव पोताना चित्तने केटलाक प्रश्न करे छे अने ते प्रमाणे
चित्त तेमनो उत्तर आपे छेहे चित्त! एवुं संबोधन करतां चित्त कहे छे के हे जीव
शुं छे? त्यारे जीव तेने पूछे छे के तुं केवी रीते रहे छे? हुं चिन्तामां स्थित रहुं
छुं. ते चिन्ता कोनाथी उत्पन्न थई छे? ते रागद्वेषना वशे उत्पन्न थई छे. ते राग-
द्वेषनो परिचय तने क्या कारणे थयो? तेमनी साथे मारो परिचय इष्ट अने अनिष्ट
वस्तुओना समागमथी थयो. अंते जीव कहे छे के हे चित्त! जो एम होय तो आपणे
बन्नेय नरक प्राप्त करीशुं. ते जो तने इष्ट न होय तो आ समस्त इष्ट-अनिष्टनी
कल्पना शीघ्रताथी छोडी दे. १४५.
(शार्दूलविक्रीडित)
ज्ञानज्योतिरुदेति मोहतमसो भेदः समुत्पद्यते
सानन्दा कृतकृत्यता च सहसा स्वान्ते समुन्मीलति
यस्यैकस्मृतिमात्रतो ऽपि भगवानत्रैव देहान्तरे
देवस्तिष्ठति मृग्यतां सरभसादन्यत्र किं धावत
।।१४६।।
अनुवाद : जे भगवान आत्माना केवळ स्मरणमात्रथी पण ज्ञानरूपी तेज
प्रगट थाय छे, अज्ञानरूप अंधकारनो विनाश थाय छे तथा कृतकृत्यता अकस्मात् ज
आनंदपूर्वक पोताना मनमां प्रगट थई जाय छे; ते भगवान आत्मा आ ज शरीरमां
बिराजमान छे. तेनुं शीघ्र अन्वेषण करो. बीजी जग्याए (बाह्य पदार्थो तरफ) केम
दोडी रह्या छो. १४६.

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(शार्दूलविक्रीडित)
जीवाजीवविचित्रवस्तुविविधाकारर्द्धिरूपादयो
रागद्वेषकृतो ऽत्र मोहवशतो
द्रष्टाः श्रुताः सेविताः
जातास्ते द्रढबन्धनं चिरमतो दुःखं तवात्मन्निदं
नूनं जानत एव किं बहिरसावद्यापि धीर्धावति ।।१४७।।
अनुवाद : हे आत्मन्! अहीं जे जीव अने अजीवरूप विचित्र वस्तुओ,
अनेक प्रकारना आकार, ॠद्धिओ अने रूप आदि राग-द्वेष उत्पन्न करनार छे. ते
तेमने मोहने वश थईने जोया छे, सांभळ्या छे तथा तेमनुं सेवन पण कर्युं छे. तेथी
तेओ तारा माटे चिरकाळथी द्रढ बंधनरूप थया छे के जेथी तने दुःख भोगववुं पडे
छे. आ बधुं जाणवा छतां पण तारी ते बुद्धि आजे य केम बाह्य पदार्थो तरफ
दोडी रही छे? १४७.
(शार्दूलविक्रीडित)
भिन्नोऽहं वपुषो बहिर्मलंकृतान्नानाविकल्पौघतः
शब्दादेश्च चिदेकमूर्तिरमलः शान्तः सदानन्दभाक्
इत्यास्था स्थिरचेतसो द्रढतरं साम्यादनारम्भिणः
संसाराद्भयमस्ति किं यदि तदप्यन्यत्र कः प्रत्ययः ।।१४८।।
अनुवाद : हुं बाह्य मळथी (रजवीर्यथी) उत्पन्न थयेला आ शरीरथी,
अनेक प्रकारना विकल्पोना समुदायथी तथा शब्दादिकथी पण भिन्न छुं. स्वभावथी
हुं चैतन्यरूप, अद्वितीय शरीरथी संपन्न, कर्ममळ रहित, शान्त अने सदा आनंदनो
उपभोक्ता छुं. आ प्रकारना श्रद्धानथी जेनुं चित्त स्थिरता पामी गयुं छे तथा जे
समताभाव धारण करीने आरंभरहित थई गयुं छे तेने संसारनो शो भय छे? कांई
पण नहि. अने जो उपर्युक्त द्रढ श्रद्धान होवा छतां पण संसारनो भय छे तो पछी
बीजे क्यां विश्वास करी शकाय? क्यांय नहि. १४८.
(शार्दूलविक्रीडित)
किं लोकेन किमाश्रयेण किमथ द्रव्येण कायेन किं
किं वाग्भिः किमुतेन्द्रियैः किमसुभिः किं तैर्विकल्पैरपि

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सर्वे पुद्गलपर्यया बत परे त्वत्तः प्रमत्तो भवन्-
नात्मन्नेभिरभिश्रयस्यति तरामालेन किं बन्धनम्
।।१४९।।
अनुवाद : हे आत्मन्! तारे लोकनुं शुं प्रयोजन छे? आश्चर्यनुं शुं प्रयोजन
छे? द्रव्यनुं शुं प्रयोजन छे? शरीरनुं शुं प्रयोजन छे? वचनोनुं शुं प्रयोजन छे?
इन्द्रियोनुं शुं प्रयोजन छे? प्राणोनुं शुं प्रयोजन छे? तथा ते विकल्पोनुं पण तारे
शुं प्रयोजन छे? अर्थात् आ बधानुं तारे कांईपण प्रयोजन नथी कारण के ते बधी
पुद्गलनी पर्यायो छे अने तेथी ताराथी भिन्न छे. तुं प्रमादने वश थईने व्यर्थ ज
आ विकल्पो द्वारा केम अतिशय बंधननो आश्रय करे छे. १४९.
(अनुष्टुप)
सतताभ्यस्तभोगानामप्यसत्सुखमात्मजम्
अप्यपूर्वं सदित्यास्था चित्ते यस्य स तत्त्ववित् ।।१५०।।
अनुवाद : जे जीवोए निरंतर भोगोनो अनुभव कर्यो छे तेमनुं ते भोगोथी
उत्पन्न थयेलुं सुख अवास्तविक (कल्पित) छे परंतु आत्माथी उत्पन्न सुख अपूर्व
अने समीचीन छे; एवो जेना हृदयमां द्रढ विश्वास थई गयो छे ते तत्त्वज्ञ छे. १५०.
(पृथ्वी)
प्रतिक्षणमयं जनो नियतमुग्रदुःखातुरः
क्षुधादिभिरभिश्रयंस्तदुपशान्तये ऽन्नादिकम्
तदेव मनुते सुखं भ्रमवशाद्यदेवासुखं
समुल्लसति कच्छुकारुजि यथा शिखिस्वेदनम्
।।१५१।।
अनुवाद : आ प्राणी समये समये क्षुधातृषा आदि द्वारा अत्यंत तीव्र दुःखथी
व्याकुळ थईने तेमने शान्त करवा माटे अन्न अने पाणी आदिनो आश्रय ले छे अने
तेने ज भ्रम वशे सुख माने छे. परंतु वास्तवमां ते दुःख ज छे. आ सुखनी कल्पना
आ जातनी छे जेम के खुजलीना रोगमां अग्निना शेकथी थतुं सुख. १५१.
(शार्दूलविक्रीडित)
आत्मा स्वं परमीक्षते यदि समं तेनैव संचेष्टते
तस्मायेव हितस्ततो ऽपि च सुखी तस्यैव संबन्धभाक्

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तस्मिन्नेव गतो भवत्यविरतानन्दामृताम्भोनिधिः
किंचान्यत्सकलोपदेशनिवहस्यैतद्रहस्यं परम्
।।१५२।।
अनुवाद : जो आत्मा पोतानी जातने उत्कृष्ट देखे, तेनी साथे क्रीडा करे,
तेना ज माटे हितस्वरूप रहे, तेनाथी ज ते सुखी थाय, तेनो ज संबंध ते पामे
अने तेमां ज ते स्थित थाय; तो ते आनंदरूप अमृतनो समुद्र बनी जाय छे.
अधिक शुं कहेवु? समस्त उपदेशोनुं केवळ आ ज रहस्य छे.
विशेषार्थ : आनो अभिप्राय ए छे के बाह्य सर्व पदार्थोथी ममत्वबुद्धि छोडीने
एक मात्र पोताना आत्मामां लीन थवाथी अपूर्व सुख प्राप्त थाय छे. ते अवस्थामां कर्ता कर्म
आदि कारकोनो कांई पण भेद रहेतो नथी
ते ज आत्मा कर्ता अने ते ज कर्म आदि स्वरूप
होय छे. ए ज कारणे ग्रन्थकर्ताए आ श्लोकमां क्रमशः तेना माटे साते विभक्तिओ (आत्मा,
स्वम्, तेन, तस्मै, ततः, तस्य, तस्मिन् ) उपयोग कर्यो छे. १५२.
(आर्या)
परमानन्दाब्जरसं सकलविकल्पान्यसुमनसस्त्यक्त्वा
योगी स यस्य भजते स्तिमितान्तःकरणषट्चरणः ।।१५३।।
अनुवाद : जेनो शान्त अंतःकरणरूपी भ्रमर समस्त विकल्पोरूप अन्य
पुष्पोने छोडीने केवळ उत्कृष्ट आनंदरूप कमळना रसनुं सेवन करे छे ते योगी कहेवाय
छे. १५३.
(शार्दूलविक्रीडित)
जायन्ते विरसा रसा विघटते गोष्ठीकथाकौतुकं
शीर्यन्ते विषयास्तथा विरमति प्रीतिः शरीरेऽपि च
जोषं वागपि धारयत्यविरतानन्दात्मशुद्धात्मनः
चिन्तायामपि यातुमिच्छति समं दोषैर्मनः पञ्चताम्
।।१५४।।
अनुवाद : नित्य आनंदस्वरूप शुद्ध आत्मानो विचार करतां रस नीरस थई
जाय छे, परस्परना संलापरूप कथानुं कुतूहल नष्ट थई जाय छे, विषय नष्ट थई
जाय छे, शरीरना विषयमां पण प्रेम रहेतो नथी, वचन पण मौन धारण करी ले
छे तथा मन दोषो साथे मृत्यु प्राप्त करवा इच्छे छे . १५४.

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(स्रग्धरा)
आत्मैकः सोपयोगो मम किमपि ततो नान्यदस्तीति चिन्ता-
भ्यासास्ताशेषवस्तोः स्थितपरममुदा यद्गतिर्नो विकल्पे
ग्रामे वा कानने वा जनजनितसुखे निःसुखे वा प्रदेशे
साक्षादाराधना सा श्रुतविशदमतेर्बाह्यमन्यत्समस्तम्
।।१५५।।
अनुवाद : उपयोग (ज्ञान-दर्शन) युक्त एक आत्मा ज मारो छे, तेना
सिवाय बीजुं कांई पण मारुं नथी; आ जातना विचारना अभ्यासथी समस्त बाह्य
पदार्थो तरफथी जेनो मोह हटी गयो छे तथा जेनी बुद्धि आगमना अभ्यासथी निर्मळ
थई गई छे एवा साधु पुरुषना मननी प्रवृत्ति विकल्पोमां होती नथी. ते ग्राम अने
वनमां तथा प्राणी माटे सुख उत्पन्न करनारा स्थानमां अने ते सुख रहित स्थानमां
पण समबुद्धि रहे छे अर्थात् ग्राम अने सुखयुक्त स्थानमां ते हर्षित थतो नथी
तथा एनाथी विपरीत वन अने दुःखयुक्त स्थानमां ते खेद पण पामतो नथी. आने
ज साक्षात् आराधना कहेवामां आवे छे, बीजुं बधुं बाह्य छे. १५५.
(शार्दूलविक्रीडित)
यद्यन्तर्निहितानि खानि तपसा बाह्येन किं फल्गुना
नैवान्तर्निहितानि खानि तपसा बाह्येन किं फल्गुना
यद्यन्तर्बहिरन्यवस्तु तपसा बाह्येन किं फल्गुना
नैवान्तर्बहिरन्यवस्तु तपसा बाह्येन किं फल्गुना
।।१५६।।
अनुवाद : जो इन्द्रियो अंतरात्मानी सन्मुख होय तो पछी व्यर्थना बाह्य
तपथी कांई प्रयोजन नथी अने जो ते इन्द्रियो अंतरात्मानी सन्मुख न होय तो
पण बाह्य तप करवुं व्यर्थ ज छे
तेनाथी कांई प्रयोजन सिद्ध थतुं नथी. जो
अंतरंग अने बाह्यमां अन्य वस्तु प्रत्ये अनुराग होय तो बाह्यमां तपथी शुं
प्रयोजन छे? ते व्यर्थ ज छे. एनाथी उलटुं जो अंतरंग अने बाह्यमां पण अन्य
वस्तु प्रत्ये अनुराग न होय तो पण व्यर्थ बाह्य तपथी शुं प्रयोजन? अर्थात्
कांई पण नथी.
विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के जो इन्द्रियोनी प्रवृत्ति आत्मसन्मुख होय तो इष्ट

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प्रयोजन एटला मात्रथी ज सिद्ध थई जाय छे, पछी तेने माटे बाह्य तपश्चरणनी कांई पण
आवश्यकता नथी रहेती. परंतु उक्त इन्द्रियोनी प्रवृत्ति आत्मोन्मुख न होतां जो बाह्य पदार्थो तरफ
जई रही होय तो बाह्य तप करवा छतां पण यथार्थ सुखनी प्राप्ति थई शकती नथी. तेथी आ
अवस्थामां पण बाह्य तप व्यर्थ ज ठरे छे. ए ज रीते जो अंतरंगमां अने बाह्यमां पर वस्तु
प्रत्ये अनुराग रह्यो न होय तो बाह्य तपनुं प्रयोजन आ समताभावथी ज प्राप्त थई जाय छे,
तेथी तेनी आवश्यकता रहेती नथी. अने जो अंतरंग अने बाह्यमां परपदार्थो प्रत्येनो अनुराग
हट्यो न होय तो चित्त राग-द्वेषथी दूषित कहेवाने कारणे बाह्य तपनुं आचरण करवा छतां पण
तेनाथी कांई प्रयोजन सिद्ध नहि थाय. तेथी आ अवस्थामां पण बाह्य तपनी आवश्यकता रहेती
नथी. तात्पर्य ए छे के बाह्य तपश्चरण पहेलां इन्द्रियदमन, राग-द्वेषनुं शमन अने मन, वचन
तथा कायानी सरळ प्रवृत्ति थवी अत्यावश्यक छे. ए थतां ज ते बाह्य तपश्चरण सार्थक थई शकशे,
अन्यथा तेनी निरर्थकता अनिवार्य छे. १५६.
(शार्दूलविक्रीडित)
शुद्धं वागतिवर्तितत्त्वमितरद्वाच्यं च तद्वाचकं
शुद्धादेश इति प्रभेदजनकं शुद्धेतरत्कप्लितम्
तत्राद्यं श्रवणीयमेव सुद्रशा शेषद्वयोपायतः
सापेक्षा नयसंहतिः फलवती संजायते नान्यथा ।।१५७।।
अनुवाद : शुद्ध तत्त्व वचन अगोचर छे, एनाथी विपरीत अशुद्ध तत्त्व
वचन गोचर छे अर्थात् शब्द द्वारा कही शकाय छे. शुद्ध तत्त्वने जे ग्रहण करे
छे ते शुद्धादेश कहेवाय छे अने जे भेदने प्रगट करे छे ते शुद्धथी इतर अर्थात्
अशुद्धनय कल्पित करायो छे. सम्यग्द्रष्टिए शेष बे उपायोमांथी प्रथम शुद्ध तत्त्वनो
आश्रय लेवो जोईए. बराबर छे
नयोनो समुदाय परस्पर सापेक्ष होवाथी ज
प्रयोजनभूत थाय छे. परस्परनी अपेक्षा न करवाथी ते निष्फळ ज रहे छे. १५७.
(शार्दूलविक्रीडित)
ज्ञानं दर्शनमव्यशेषविषयं जीवस्य नार्थान्तरं
शुद्धादेशविवक्षया स हि ततश्चिद्रूप इच्युच्यते
पर्यायैश्च गुणैश्च साधु विदिते तस्मिन् गिरा सद्गुरो-
र्ज्ञातं किं न विलोकितं न किमथ प्राप्तं न किं योगिभिः
।।१५८।।

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अनुवाद : शुद्धनयनी अपेक्षाए समस्त पदार्थोनो विषय करनार ज्ञान अने
दर्शन ज जीवनुं स्वरूप छे जे ते जीवथी पृथक् नथी. आथी भिन्न बीजुं कोई जीवनुं
स्वरूप होई शकतुं नथी. माटे ते ‘चिद्रूप’ अर्थात् चेतनस्वरूप एम कहेवाय छे. उत्तम
गुरुना उपदेशथी पोताना गुणो अने पर्यायो साथे ते ज्ञान-दर्शन स्वरूप जीवने सारी
रीते जाणी लेतां योगीओए शुं नथी जाण्युं, शुं नथी देख्युं अने शुं नथी प्राप्त कर्युं?
अर्थात् उपर्युक्त जीवनुं स्वरूप जाणी लेतां बीजुं बधुं ज जाणी लीधुं, जोई लीधुं
अने प्राप्त करी लीधुं छे एम समजवुं जोईए. १५८.
(शार्दूलविक्रीडित)
यन्नान्तर्न बहिः स्थितं न च दिशि स्थूलं न सूक्ष्मं पुमान्
नैव स्त्री न नपुंसकं न गुरुतां प्राप्तं न यल्लाघवम्
कर्मस्पर्शशरीरगन्धगणनाव्याहारवर्णोज्झितं
स्वच्छं ज्ञान
द्रगेकमूर्ति तदहं ज्योतिः परं नापरम् ।।१५९।।
अनुवाद : हुं ते उत्कृष्ट ज्योति स्वरूप छुं जे न अंदर स्थित छे, न बहार
स्थित छे, न दिशामां स्थित छे, न स्थूळ छे, न सूक्ष्म छे, न पुरुष छे, न स्त्री
छे, न नपुंसक छे, न गुरु छे, न लघु छे; तथा जे कर्म, स्पर्श, शरीर, गंध, गणना,
शब्द अने वर्ण रहित थईने निर्मळ अने ज्ञान-दर्शनरूप अद्वितीय शरीर धारण करे
छे. एनाथी भिन्न बीजुं कोई मारुं स्वरूप नथी. १५९.
(शार्दूलविक्रीडित)
जानन्ति स्वयमेव यद्विमनसश्चिद्रूपमानन्दवत्
प्रोच्छिन्ने यदनाद्यमन्दमसकृन्मोहान्धकारे हठात्
सूर्याचन्द्रमसावतीत्य यदहो विश्वप्रकाशात्मकं
तज्जीयात्सहजं सुनिष्कलमहं शब्दाभिधेयं महः
।।१६०।।
अनुवाद : जेने अनादिकालीन प्रचुर मोहरूप अंधकार बळपूर्वक नष्ट थई
जवाथी मनरहित थयेला सर्वज्ञ स्वयं ज जाणे छे, जे चेतनस्वरूप छे, आनंदसंयुक्त
छे, अनादि छे, तीव्र छे, निरंतर रहेनार छे अने जे आश्चर्यनी वात छे के सूर्य
तथा चन्द्रमाने पण तिरस्कृत करीने समस्त जगतने प्रकाशित करनार छे; ते
‘अहम्’

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शब्दथी कहेवातुं शरीर रहित स्वाभाविक तेज जयवंत हो. १६०.
(वसंततिलका)
यज्जायते किमपि कर्मवशादसातं
सातं च यत्तदनुयायि विकल्पजालम्
जातं मनागपि न यत्र पदं तदेव
देवेन्द्रवन्दितमहं शरणं गतो ऽस्मि
।।१६१।।
अनुवाद : कर्मना उदयथी जे कांई पण दुःख अने सुख थाय छे तथा तेमनुं
अनुसरण करनार जे विकल्प समूह पण थाय छे ते जे पदमां जराय रहेतो नथी,
हुं देवेन्द्रोथी वंदित ते ज (मोक्ष) पदना शरणे जाउं छुं. १६१.
(शार्दूलविक्रीडित)
धिक्कान्तास्तनमण्डलं धिगमलप्रालेयरोचिः करान्
धिक्कर्पूरविमिश्रचन्दनरसं धिक् ताञ्जलादीनपि
यत्प्राप्तं न कदाचिदत्र तदिदं संसारसंतापहृत्
लग्नं चेदतिशीतलं गुरुवचोदिव्यामृतं मे हृदि
।।१६२।।
अनुवाद : जे पूर्वे कदी प्राप्त थयुं नथी एवुं संसारनो संताप नष्ट करनार
अत्यंत शीतळ गुरुना उपदेशरूप दिव्य अमृत जो मारा हृदयमां संलग्न छे तो पछी
पत्नीना स्तनमंडळने धिक्कार छे, निर्मळ चंद्रमाना किरणोने धिक्कार छे, कपूर मिश्रित
चंदनरसने धिक्कार छे तथा अन्य जळ आदि शीतळ वस्तुओने पण धिक्कार छे.
विशेषार्थ : स्त्रीनुं स्तनमंडळ, चंद्रकिरण, कपूर साथे मळेलो चंदनरस, अने बीजा पण
जे जळ आदि शीतळ पदार्थो लोकमां देखवामां आवे छे ते बधा प्राणीना बाह्य शारीरिक संतापने
ज थोडा समय माटे दूर करी शके छे, नहि के अभ्यंतर संसार संतापने. ते संसार संतापने जो
कोई दूर करी शके तो ते सद्गुरुना वचन ज दूर करी शके छे. अमृत समान अतिशय शीतळता
उत्पन्न करनार जो ते गुरुनो दिव्य उपदेश प्राणीने प्राप्त थई गयो होय तो पछी लोकमां शीतळ
गणाता ते स्त्रीनां स्तनमंडळ आदिने धिक्कार छे, कारण के आ बधा पदार्थ ते संताप नष्ट करवामां
सर्वथा असमर्थ छे. १६२.

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(मन्दाक्रान्ता)
जित्वा मोहमहाभटं भवपथे दत्तोग्रदुःखश्रमे
विश्रान्ता विजनेषु योगिपथिका दीर्घे चरन्तः क्रमात्
प्राप्ता ज्ञान धनाश्चिरादभिमतस्वात्मोपलम्भालयं
नित्यानन्दकलत्रसंगसुखिनो ये तत्र तेभ्यो नमः
।।१६३।।
अनुवाद : अत्यंत तीव्र दुःख अने परिश्रम उत्पन्न करनार लांबा संसारना
मार्गमां क्रमशः गमन करनार जे योगीरूप पथिक मोहरूपी महान योद्धाने जीतीने एकान्त
स्थानमां विश्राम पामे छे. त्यार पछी जे ज्ञानरूपी धनथी संपन्न थया थका
स्वात्मोपलब्धिना स्थानभूत पोताना इष्ट स्थान (मोक्ष) ने प्राप्त थईने त्यां अविनश्वर-
सुख (मुक्ति) रूपी स्त्रीनां संगथी सुखी थई जाय छे तेमने नमस्कार हो. १६३.
(स्रग्धरा)
इत्यादिर्धर्म एषः क्षितिपसुरसुखानर्ध्यमाणिक्यकोशः
पाथो दुःखानलानां परमपदलसत्सौधसोपानराजिः
एतन्माहात्म्यमीशः कथयति जगतां केवली साध्वधीता
सर्वस्मिन् वाङ्मये ऽथ स्मरति परमहो मा
द्रशस्तस्य नाम ।।१६४।।
अनुवाद : इत्यादि (उपर्युक्त) आ धर्म, राजा अने देवोना सुखरूप अमूल्य
रत्नोनो खजानो छे, दुःखरूप अग्निने शांत करवा माटे जळ समान छे तथा उत्तम
पद अर्थात् मोक्षरूप महेलनी सीडीओनी पंक्ति समान छे. तेना महिमानुं वर्णन
ते केवळी ज करी शके छे जे त्रणे लोकना अधिपति होवाथी समस्त आगममां निष्णात
छे. मारा जेवो अल्पज्ञ मनुष्य तो केवळ तेनुं नामस्मरण करे छे. १६४.
(शार्दूलविक्रीडित)
शाश्वज्जन्मजरान्तकालविलसद्दुःखौघसारीभवत्-
संसारोग्रमहारुजोपहृतये ऽनन्तप्रमोदाय च
एतद्धर्मरसायनं ननु बुधाः कर्तुं मतिश्चेत्तदा
मिथ्यात्वाविरतिप्रमादनिकरक्रोधादि संत्यज्यताम्
।।१६५।।

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अनुवाद : हे विद्वानो! निरंतर जन्म, जरा अने मरणरूप दुःखोना समूहमां
सारभूत एवा संसाररूप तीव्र महारोगने दूर करीने अनंत सुख प्राप्त करवा माटे
जो आपनी आ धर्मरूपी रसायण प्राप्त करवानी इच्छा छे तो मिथ्यात्व, अविरति
अने प्रमादना समूहनो तथा क्रोधादि कषायोनो परित्याग करो. १६५.
(शार्दूलविक्रीडित)
नष्टं रत्नमिवाम्बुधौ निधिरिव प्रभ्रष्टदृष्टेर्यथा
योगो यूपशलाकयोश्च गतयोः पूर्वापरौ तोयधी
संसारे ऽत्र तथा नरत्वमसकृद्दुःखप्रदे दुर्लभं
लब्धे तत्र च जन्म निर्मलकुले तत्रापि धर्मे मतिः
।।१६६।।
अनुवाद : जेम समुद्रमां विलीन थयेला रत्ननुं फरीथी प्राप्त थवुं दुर्लभ छे.
आंधळाने निधि मळवानुं दुर्लभ छे तथा जुदी जुदी पूर्व अने पश्चिम समुद्रने प्राप्त
थयेल यूप (यज्ञमां पशुने बांधवानुं लाकडुं) अने शलाका (यज्ञमां खोडवामां आवेली
खीली) नो फरी संयोग थवो दुर्लभ छे; तेवी ज रीते निरंतर दुःख आपनार आ
संसारमां मनुष्य पर्यायने प्राप्त करवी पण अतिशय दुर्लभ छे. जो कदाचित् आ
मनुष्य पर्याय प्राप्त थई पण जाय तोय निर्मळ कुळमां जन्म लेवो अने त्यां पण
धर्ममां बुद्धि लागवी, ए घणुं ज दुर्लभ छे. १६६.
(शार्दूलविक्रीडित)
न्यायादन्धकवर्तकीयकजनाख्यानस्य संसारिणां
प्राप्तं वा बहुकल्पकोटिभिरिदं कृच्छ्रान्नरत्वं यदि
मिथ्यादेवगुरूपदेशविषयव्यामोहनीचान्वय-
प्रायैः प्राणभृतां तदेव सहसा वैफल्यमागच्छति
।।१६७।।
अनुवाद : संसारी प्राणीओने आ मनुष्य पर्याय ‘अन्धकवर्तकीयक’ रूप जन
आख्यानना न्याये करोडो कल्प काळोमां महा कष्टे प्राप्त थई छे, अर्थात् जेवी रीते
आंधळा मनुष्यना हाथमां बटेर पक्षीनुं आववुं दुर्लभ छे तेवी ज रीते आ मनुष्य
पर्याय प्राप्त थवी पण अत्यंत दुर्लभ छे. वळी जो ते करोडो कल्पकाळमां कोई प्रकारे

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प्राप्त पण थई गई तो ते मिथ्या देव अने मिथ्या गुरुना उपदेश, विषय अनुराग
अने नीच कुळमां उत्पत्ति आदि द्वारा सहसा निष्फळ जाय छे. १६७.
(वसंततिलका)
लब्धे कथं कथमपीह मनुष्यजन्म-
न्यङ्ग प्रसंगवशतो हि कुरु स्वकार्यम्
प्राप्तं तु कामपि गतिंकुमते तिरश्चां
कस्त्वां भविष्यति विबोधयितुं समर्थः
।।१६८।।
अनुवाद : हे दुर्बुद्धि प्राणी! जो अहीं तने कोई पण प्रकारे मनुष्य जन्म
प्राप्त थई गयो छे तो पछी प्रसंग पामीने पोतानुं कार्य (आत्महित) करी ले. नहि
तो जो तुं मरीने कोई तिर्यंच पर्याय पामीश तो पछी तने समजाववा माटे कोण
समर्थ थशे? अर्थात् कोई समर्थ थई शकशे नहि. १६८.
(शार्दूलविक्रीडित)
जन्म प्राप्य नरेषु निर्मलकुले क्लेशान्मतेः पाटवं
भक्तिं जैनमते कथं कथमपि प्रागर्जितश्रेयसः
संसारार्णवतारकं सुखकरं धर्मं न ये कुर्वते
हस्तप्राप्तमनर्ध्यरत्नमपि ते मुञ्चन्ति दुर्बुद्धयः
।।१६९।।
अनुवाद : जे मनुष्यो मनुष्य पर्यायमां उत्तम कुळमां जन्म लईने कष्टपूर्वक
बुद्धिचातुर्यने पाम्या छे तथा जेमणे पूर्वोपार्जित पुण्यकर्मना उदयथी कोईपण प्रकारे
जैनमतमां भक्ति पण प्राप्त करी लीधी छे छतां पण जो तेओ संसार-समुद्रनो पार
करावीने सुख उत्पन्न करनार धर्म करता नथी तो समजवुं जोईए के ते दुर्बुद्धिजनो
हाथमां प्राप्त थवा छतां पण अमूल्य रत्न छोडी दे छे. १६९.
(शार्दूलविक्रीडित)
तिष्ठत्या युरतीव दीर्घमखिलान्यङ्गानि दूरं द्रढा-
न्येषा श्रीरपि मे वशं गतवती किं व्याकुलत्वं मुधा
आयत्यां निरवग्रहो गतवया धर्मं करिष्ये भरा-
दित्येवं बत चिन्तयन्नपि जडो यात्यन्तकग्रासताम्
।।१७०।।

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अनुवाद : मारुं आयुष्य घणुं लांबु छे, हाथ पग वगेरे बधा अवयवो खूब
मजबूत छे, आ लक्ष्मी पण मारा वशमां छे तो पछी हुं नकामो व्याकुळ शा माटे
थाउं? उत्तर काळमां ज्यारे वृद्धावस्था प्राप्त थशे त्यारे हुं निश्चिंत थईने खूब धर्म
करीश. खेदनी वात छे के आ जातनो विचार करतां करतां आ मूर्ख प्राणी काळनो
कोळियो बनी जाय छे. १७०
(आर्या)
पलितैकदर्शनादपि सरति सतश्चित्तमाशु वैराग्यम्
प्रतिदिनमितरस्य पुनः सह जरया वर्धते तृष्णा ।।१७१।।
अनुवाद : साधु पुरुषनुं चित्त एक पाको (श्वेत) वाळ देखवाथी ज शीघ्र
वैराग्य पामी जाय छे. परंतु एनाथी विपरीत अविवेकी मनुष्यनी तृष्णा प्रतिदिन
वृद्धत्व साथे वधती जाय छे अर्थात् जेम जेम तेनी वृद्धावस्था वधती जाय छे तेम
तेम उत्तरोत्तर तेनी तृष्णा पण वधती जाय छे. १७१.
(मन्दाक्रान्ता)
आजातेर्नस्त्वमसि दयिता नित्यमासन्नगासि
प्रौढास्याशे किमथ बहुना स्त्रीत्वमालम्बितासि
अस्मत्केशग्रहणमकरोदग्रतस्ते जरेयं
मर्षस्येतन्मम च हतके स्नेहलाद्यापि चित्रम्
।।१७२।।
अनुवाद : हे तृष्णा! तुं अमने जन्मथी मांडीने ज प्रिय छो, सदा पासे
रहेनारी छो, अने वृद्धि पामेली छो. घणुं शुं कहीए? तुं अमारी पत्नीनी अवस्थाने
पामी छो. आ जरा (घडपण) रूप बीजी स्त्री तारी सामे ज अमारा वाळ पकडी
चूकी छे. हे घातक तृष्णा! तुं मारा आ वाळ ग्रहणरूप अपमानने सहन करती थकी
आजे पण स्नेह राखनार बनी रहो छो ए आश्चर्यनी वात छे.
विशेषार्थ : लोकमां जोवामां आवे छे के जो कोई पुरुष कोई अन्य स्त्री साथे प्रेम
करे छे तो चिरकाळथी प्रेम करनारी पण तेनी स्त्री तेना तरफ विरक्त थई जाय छेतेने छोडी
दे छे. पण खेदनी वात छे के ते तृष्णारूप स्त्री पोताना प्रियतमने अन्य जरारूप नारीमां आसक्त
जोवा छतां पण तेने छोडती नथी अने तेना प्रत्ये अनुराग ज करे छे. तात्पर्य ए छे के वृद्धावस्था
प्राप्त थतां पुरुषनुं शरीर शिथिल थई जाय छे अने स्मृति पण क्षीण थई जाय छे. छतां पण

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ते विषयतृष्णा छोडीने आत्महितमां प्रवृत्त थतो नथी, ए केटला खेदनी वात छे. १७२.
(वसंततिलका)
रङ्कायते परिद्रढोऽपि द्रढोऽपि मृत्यु-
मभ्येति दैववशतः क्षणतोऽत्र लोके
तत्कः करोति मदमम्बुजपत्रवारि-
बिन्दूपमैर्धनकलेवरजीविताद्यैः
।।१७३।।
अनुवाद : अहीं संसारमां राजा पण दैववश थईने रंक जेवो बनी जाय छे तथा
पुष्ट शरीरवाळो मनुष्य पण कर्मोदयथी क्षणवारमां ज मृत्यु पामी जाय छे.एवी
अवस्थामां क्यो बुद्धिमान पुरुष कमळपत्र उपर रहेला जळबिंदु समान विनाश पामनार
धन, शरीर अने जीवन आदि विषयमां अभिमान करे? अर्थात् क्षणमां क्षीण थनार आ
पदार्थोना विषयमां विवेकी जन कदी पण अभिमान करता नथी. १७३.
(शार्दूलविक्रीडित)
प्रातर्दर्भदलाग्रकोटिघटितावश्यायबिन्दूत्कर-
प्रायाः प्राणधनाङ्गजप्रणयिनीमित्रादयो देहिनाम्
अक्षाणां सुखमेतदुग्रविषवद्धर्मं विहाय स्फु टं
सर्वं भङ्गुरमत्र दुःखदमहो मोहः करोत्यन्यथा
।।१७४।।
अनुवाद : प्राणीओना प्राण, धन, पुत्र, स्त्री अने मित्र आदि प्रातःकाळमां
दर्भ घासना पांदडानी अणी उपर रहेल झाकळना टीपाओ समान अस्थिर छे. आ
इन्द्रियजन्य सुख तीक्ष्ण विष समान परिणामे दुःखदायक छे. तेथी ए स्पष्ट छे के
अहीं धर्म सिवाय अन्य सर्व पदार्थो विनश्वर अने कष्टदायक छे परंतु आश्चर्य छे
के आ संसारी प्राणी मोहवश थईने आ विनश्वर पदार्थोने स्थिर मानीने तेमां
अनुराग करे छे अने स्थायी धर्मने भूली जाय छे. १७४.
(शार्दूलविक्रीडित)
तावद्वल्गति वैरिणां प्रति चमूस्तावत्परं पौरुषं
तीक्ष्णस्तावदसिर्भुजौ
द्रढतरौ तावच्च कोपोद्गमः

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भूपस्यापि यमो न यावददयः क्षुत्पीडितः सन्मुखं
धावत्यन्तरिदं विचिन्त्य विदुषा तद्रोधको मृग्यते
।।१७५।।
अनुवाद : ज्यां सुधी भूखथी पिडायेल निर्दय यमराज (मृत्यु) सामे आवता
नथी त्यां सुधी राजानी पण सेना शत्रुओ उपर आक्रमण करवा प्रस्थान करे छे,
त्यां सुधी उत्कृष्ट पुरुषार्थ पण रहे छे, त्यां सुधी तीक्ष्ण तरवार पण स्थिर रहे छे,
त्यां सुधी बन्ने हाथ पण अतिशय द्रढ रहे छे अने त्यां सुधी क्रोध पण उदय
पामे छे. आम विचार करीने विद्वान पुरुष उक्त यमराजनो निग्रह करनार तप
आदिनी खोज करे छे. १७५.
(मालिनी)
रतिजलरममाणो मृत्युकैवर्तहस्त-
प्रसृतधनजरोरुप्रोल्लसज्जालमध्ये
निकटमपि न पश्यत्यापदां चक्रमुग्रं
भवसरसि वराको लोकमीनौघ एषः
।।१७६।।
अनुवाद : जेनी मध्यमां मृत्युरूपी नाविके पोताने हाथे सघन जरारूपी
विस्तृत जाळ फेलावी दीधी छे एवा संसाररूपी सरोवरमां रागरूपी जळमां रमण
करनार आ बिचारा जनरूपी माछलीओनो समुदाय समीपमां आवेली महान
आपत्तिओनो समूह देखतो नथी. १७६.
(शार्दूलविक्रीडित)
क्षुद्भुक्तेस्तृडपीह शीतलजलाद्भूतादिका मन्त्रतः
सामादेरहितो गदाद्गदगणः शान्तिं नृभिर्नीयते
नो मृत्युस्तु सुरैरपीति हि मृते मित्रे ऽपि पुत्रे ऽपि वा
शोको न क्रियते बुधैः परमहो धर्मस्ततस्तज्जयः
।।१७७।।
अनुवाद : संसारमां मनुष्य भोजनथी क्षुधाने, जळथी तरसने, मंत्रथी भूत
पिशाचादिने, साम, दाम, दंड अने भेदथी शत्रुने तथा औषधथी रोगोना समूहने शान्त
कर्या करे छे. परंतु मृत्युने देव पण शान्त करी शकता नथी. आ रीते विचार करीने
विद्वान् मनुष्यो मित्र अथवा पुत्र मरवा छतां शोक करता नथी, पण एक मात्र धर्मनुं

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ज आचरण करे छे अने तेनाथी ज ते मत्यु उपर विजय मेळवे छे. १७७.
(मन्दाक्रान्ता)
त्यक्त्वा दूरं विधुरपयसो दुर्गतिक्लिष्टकृच्छ्रान्
लब्ध्वानन्दं सुचिरममरश्रीसरस्यां रमन्ते
एत्यैतस्या नृपपदसरस्यक्षयं धर्मपक्षा
यान्त्येतस्मादपि शिवपदं मानसं भव्यहंसा
।।१७८।।
अनुवाद : धर्मरूपी पांखो धारण करनार भव्य जीवरूप हंस नरकादिक
दुर्गतिओना क्लेशयुक्त दुःखोरूप पाणी विनाना जळाशयोने दूरथी ज छोडीने
आनंदपूर्वक देवोनी लक्ष्मीरूप सरोवरमां चिरकाळ सुधी रमण करे छे. त्यांथी आवीने
तेओ राज्यपद रूप सरोवरमां रमण करे छे. अंते तेओ त्यांथी पण नीकळीने
अविनश्वर मोक्षपदरूपी मानस सरोवरने प्राप्त करे छे.
विशेषार्थ : जेम उत्तम, पुष्ट पांखोवाळा हंस पक्षी जळथी खाली थयेला जळाशयो छोडी
दईने कोई अन्य सरोवरमां चाल्या जाय छे अने पछी अंते तेने पण छोडी मानस सरोवरमां
जई पहोंचे छे तेवी ज रीते धर्मात्मा भव्यजीव ते धर्मना प्रभावथी नरकादि दुर्गतिओना कष्टथी
बचीने क्रमशः देवपद अने राजपदना सुख भोगवता थका अंते मोक्षपद प्राप्त करी ले छे. १७८.
(शार्दूलविक्रीडित)
जायन्ते जिनचक्रवर्तिबलभृद्भोगीन्द्रकृष्णादयो
धर्मादेव दिगङ्गनाङ्गविलसच्छश्वद्यशश्चन्दनाः
तद्धीना नरकादियोनिषु नरा दुःखं सहन्ते ध्रुवं
पापेनेति विजानता किमिति नो धर्मः सता सेव्यते
।।१७९।।
अनुवाद : जेमनुं यशरूपी चंदन सदा दिशाओरूप स्त्रीओना शरीरमां
सुशोभित रहे छे अर्थात् जेमनी कीर्ति समस्त दिशाओमां फेलायेली छे एवा
तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बळदेव, नागेन्द्र अने कृष्ण (नारायण) आदि पद धर्मथी ज
प्राप्त थाय छे. धर्म रहित मनुष्य निश्चयथी पापना प्रभावथी नरकादिक
दुर्गतिओमां दुःख सहन करे छे. आ वातने जाणता थका सज्जन पुरुष धर्मनी
आराधना केम नथी करता? १७९.

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(शार्दूलविक्रीडित)
स स्वर्गः सुखरामणीयकपदं ते ते प्रदेशाः पराः
सारा सा च विमानराजिरतुलप्रेङ्खत्पताकापटा
ते देवाश्च पदातयः परिलसत्तन्नन्दनं ताः स्त्रियः
शक्रत्वं तदनिन्द्यमेतदखिलं धर्मस्य विस्फू र्जितम्
।।१८०।।
अनुवाद : सुख वडे रमणीयपणुं पामेल ते स्वर्गनुं पद, ते ते उत्कृष्ट
स्थान, लहेराता अनुपम ध्वजवस्त्रोथी सुशोभित ते श्रेष्ठ विमानपंक्ति, ते देव, ते
पायदळ सैनिको, शोभायमान ते नंदनवन, ते स्त्रीओ तथा ते अनिन्द्य इन्द्रपद;
आ बधुं धर्मना प्रकाशमां प्राप्त थाय छे. १८०.
(शार्दूलविक्रीडित)
यत्षट्खण्डमही नवोरुनिधयो द्विःसप्तरत्नानि यत्
तुङ्गा यद्द्विरदा रथाश्च चतुराशीतिश्च लक्षाणि यत्
यच्चाष्टादशकोटयश्च तुरगा योषित्सहस्त्राणि यत्
षड्युक्ता नवतिर्यदेकविभुता तद्धमि धर्मप्रभोः ।।१८१।।
अनुवाद : छ खंड (पूर्ण भरत, ऐरावत अथवा कच्छा आदि क्षेत्रे) रूप
पृथ्वीनो उपभोग; महान नवनिधि, बे वार सात (७×र) अर्थात् चौद रत्न, उन्नत
चोरासी लाख हाथी अने एटला ज रथ, अढार करोड घोडा, छन्नुहजार स्त्रीओ
अने एक छत्र राज्य; आ जे चक्रवर्तीपणानी संपत्ति प्राप्त थाय छे ते बधी
धर्मप्रभुना ज प्रतापे प्राप्त थाय छे. १८१.
(शार्दूलविक्रीडित)
धर्मो रक्षति रक्षितो ननु हतो हन्ति ध्रुवं देहिनां
हन्तव्यो न ततः स एव शरणं संसारिणां सर्वथा
धर्मः प्रापयतीह तत्पदमपि ध्यायन्ति यद्योगिनो
नो धर्मात्सुहृदस्ति नैव च सुखी नो पण्डितो धार्मिकात्
।।१८२।।
अनुवाद : जो धर्मनी रक्षा करवामां आवे तो ते पण धर्मात्मा प्राणीनी

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नरकादिथी रक्षा करे छे. एनाथी विपरीत जो ते धर्मनो घात करवामां आवे
तो ते पण निश्चयथी प्राणीओनो घात करे छे अर्थात् तेमने नरकादि योनिओमां
पहोंचाडे छे. तेथी धर्मनो घात न करवो जोईए कारण के ते संसारी प्राणीओनुं
सर्व प्रकारे रक्षण करनार ते ज छे. धर्म अहीं ते (मोक्ष) पदने पण प्राप्त
करावे छे के जेनुं ध्यान योगीओ करता रहे छे. धर्म सिवाय बीजो कोई मित्र
(हितेच्छक) नथी तथा धार्मिक पुरुषनी अपेक्षाए बीजो कोई न तो सुखी होई
शके अने न पंडित. १८२.
(शार्दूलविक्रीडित)
नानायोनिजलौघलङ्घितदिशि क्लेशोर्मिजालाकुले
प्रोद्भुताद्भुतभूरिकर्ममकरग्रासीकृतप्राणिनि
दुःपर्यन्तगभीरभीषणतरे जन्माम्बुधौ मज्जतां
नो धर्मादपरो ऽस्ति तारक इहाश्रान्तं यतध्वं बुधाः
।।१८३।।
अनुवाद : जेणे अनेक योनिरूप जळना समूहथी दिशाओनुं अतिक्रमण करी
नाख्युं छे, जे क्लेशरूपी लहेरोना समूहथी व्याप्त थई रह्यो छे, ज्यां प्राणी प्रगट
थयेल आश्चर्यजनक अनेक कर्मरूपी मगरोना कोळिया बनी जाय छे, जेनो पार घणी
कठिनताथी प्राप्त करी शकाय छे तथा जे गंभीर अने अतिशय भयानक छे; एवा
जन्मरूपी समुद्रमां डूबता प्राणीओनो उद्धार करनार धर्म सिवाय बीजो कोई नथी.
तेथी हे विद्वानो! आप निरंतर धर्मना विषयमां प्रयत्न करो. १८३.
(शार्दूलविक्रीडित)
जन्मोच्चैःकुल एव संपदधिके लावण्यवारांनिधि-
र्नीरोगं वपुरादिरायुरखिलं धर्माद्ध्रुवं जायते
सा न श्रीरथवा जगत्सु न सुखं तत्ते न शुभ्रा गुणाः
यैरुत्कण्ठितमानसैरिव नरो नाश्रीयते धार्मिकः
।।१८४।।
अनुवाद : निश्चयथी धर्मना प्रभावे अधिक संपत्तिशाळी ऊंच कुळमां ज जन्म
थाय छे, सौन्दर्यरूपी समुद्र प्राप्त थाय छे, नीरोग शरीर आदि प्राप्त थाय छे तथा
आयुष्य परिपूर्ण थाय छे अर्थात् अकाळ मरण थतुं नथी. अथवा संसारमां एवी
कोई लक्ष्मी नथी, एवुं कोई सुख नथी अने एवो कोई निर्मळ गुण नथी के जे

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उत्कंठापूर्वक धार्मिक पुरुषनो आश्रय लेता न होय. अभिप्राय ए छे के उपर्युक्त
समस्त सुखनी सामग्री एक मात्र धर्मथी ज प्राप्त थाय छे. माटे विवेकी जीवोए
सदाय ते धर्मनुं आचरण करवुं जोईए. १८४.
(शार्दूलविक्रीडित)
भृङ्गाः पुष्पितकेतकीमिव मृगा वन्यामिव स्वस्थलीं
नद्यः सिन्धुमिवाम्बुजाकरमिव श्वेतच्छदाः पक्षिणः
शौर्यत्यागविवेकविक्रमयशःसंपत्सहायादयः
सर्वे धार्मिकमाश्रयन्ति न हितं धर्मं विना किंचन
।।१८५।।
अनुवाद : जेवी रीते भमरा फूलेला केतकी वृक्षनो आश्रय ले छे, मृग जेवी
रीते पोताना जंगली स्थाननो आश्रय ले छे, नदीओ जेवी रीते समुद्रनो सहारो ले
छे अने जेवी रीते हंस पक्षी सरोवरनुं आलंबन ले छे; तेवी ज रीते वीरता, त्याग,
विवेक, पराक्रम, कीर्ति, संपत्ति अने सहायक आदि बधुं धार्मिक पुरुषनो आश्रय ले
छे. बराबर छे
धर्म सिवाय बीजुं कोई प्राणीने हितकारक नथी. १८५.
(शार्दूलविक्रीडित)
सौभागीयसि कामिनीयसि सुतश्रेणीयसि श्रीयसि
प्रासादीयसि यत्सुखीयसि सदा रूपीयसि प्रीयसि
यद्वानन्तसुखामृतम्बुधिपरस्थानीयसीह ध्रुवं
निर्धूताखिलदुःखदापदि सुहृद्धर्मे मतिर्धार्यताम्
।।१८६।।
अनुवाद : हे मित्र! जो तमे अहीं सौभाग्यनी इच्छा राखता हो, सुंदर
स्त्रीनी इच्छा राखता हो, पुत्रोनी इच्छा करता हो, लक्ष्मीनी इच्छा करता हो,
महेलनी इच्छा करता हो, सुखनी इच्छा करता हो, सुंदर रूपनी इच्छा करता हो,
प्रीतिनी इच्छा करता हो अथवा जो अनंत सुखरूप अमृतना समुद्र जेवा उत्तम स्थान
(मोक्ष)नी इच्छा राखता हो तो निश्चयथी समस्त दुःखदायक आपत्तिओनो नाश
करनार धर्ममां तमारी बुद्धि जोडो. १८६.
(शार्दूलविक्रीडित)
संछन्नं कर्मलैर्मरावपि सरः सौधं वने ऽप्युन्नतं
कामिन्यो गिरिमस्तके ऽपि सरसाः साराणि रत्नानि च

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जायन्ते ऽपि च लेप [प्य] काष्ठघटिताः सिद्धिप्रदा देवताः
घर्मश्चेदिह वाञ्छितं तनुभृतां किं किं न संपद्यते
।।१८७।।
अनुवाद : धर्मना प्रभावथी मरुभूमिमां पण कमळोथी व्याप्त सरोवर प्राप्त
थई जाय छे, जंगलमां पण उन्नत महेल बनी जाय छे, पर्वतना शिखर पर पण
आनंदोत्पादक स्त्रीओ अने श्रेष्ठ रत्न पण प्राप्त थई जाय छे. ए सिवाय उक्त
धर्मना ज प्रभावथी भींत उपर अथवा लाकडामांथी बनावेल देवता पण सिद्धिदायक
थाय छे. बराबर छे
धर्म अहीं प्राणीओने क्या क्या इष्ट पदार्थ प्राप्त करावतो
नथी? बधुं ज प्राप्त करावे छे. १८७.
(वसंततिलका)
दूरादभीष्टभिगच्छति पुण्ययोगात्
पुण्याद्विना करतलस्थमपि प्रयाति
अन्यत्परं प्रभवतीह निमित्तमात्रं
पात्रं बुधा भवत निर्मलपुण्यराशेः
।।१८८।।
अनुवाद : पुण्यना योगथी अहीं दूरवर्ती इष्ट पदार्थ पण प्राप्त थई जाय
छे अने पुण्य विना हाथमां रहेला पदार्थ पण चाल्या जाय छे. बीजा पदार्थ तो
केवळ निमित्तमात्र थाय छे. तेथी हे पंडितजनो! निर्मळ पुण्य राशिना भाजन थाव,
अर्थात् पुण्यनुं उपार्जन करो. १८८.
(शार्दूलविक्रीडित)
कोप्यन्धोऽपि सुलोचनो ऽपि जरसा ग्रस्तो ऽपि लावण्यवान्
निःप्राणोऽपि हरिर्विरूपतनुरप्याधुष्यते मन्मथः
उद्योगोज्झितचेष्टितोऽपि नितरामालिङ्ग्यते च श्रिया
पुण्यादन्यमपि प्रशस्तमखिलं जायेत यद्दुर्घटम्
।।१८९।।
अनुवाद : पुण्यना प्रभावथी कोई आंधळुं प्राणी पण निर्मळ नेत्रोनुं धारक
थई जाय छे, वृद्धावस्था युक्त मनुष्य पण लावण्ययुक्त (सुंदर) थई जाय छे, निर्बळ
प्राणी पण सिंह जेवुं बळवान बनी जाय छे, विकृत शरीरवाळो पण कामदेव समान
सुंदर गणवामां आवे छे तथा उद्योगहीन चेष्टावाळो जीव पण लक्ष्मी द्वारा गाढपणे

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आलिंगाय छे अर्थात् उद्योग रहित मनुष्य पण अत्यंत संपत्तिवान् बनी जाय छे.
जे कोई प्रशंसनीय अन्य समस्त पदार्थ अहीं दुर्लभ गणाय छे ते बधा पुण्यना
उदयथी प्राप्त थई जाय छे. १८९.
(शार्दूलविक्रीडित)
बन्धस्कन्धसमाश्रितां सृणिभृतामारोहकाणामलं
पृष्ठे भारसमर्पणं कृतवतां संचालनं ताडनम्
दुर्वाचं वदतामपि प्रतिदिनं सर्वं सहन्ते गजा
निःस्थाम्नां बलिनो ऽपि यत्तदखिलं दुष्टो विधिश्चेष्टते
।।१९०।।
अनुवाद : जे महावत हाथीने बांधीने तेना स्कंध (कांध) उपर बेसे छे,
अंकुश धारण करे छे, पीठ उपर भारे बोजो लादे छे, संचालन अने ताडन करे
छे, तथा दुष्ट वचनो पण बोले छे, एवा ते पराक्रमहीन महावतोना समस्त
दुर्व्यवहारने पण जे हाथी बळवान होवा छतां पण प्रतिदिन सहन करे छे ए
बधी दुर्दैवनी लीला छे, अर्थात् एने पापकर्मनुं ज फळ समजवुं जोईए. १९०.
(शार्दूलविक्रीडित)
सर्पो हारलता भवत्यसिलता सत्पुष्पदामायते
संपद्येत रसायनं विषमपि प्रीतिं विधत्ते रिपुः
देवा यान्ति वशं प्रसन्नमनसः किं वा बहु ब्रूमहे
धर्मो यस्य नभोऽपि तस्य सततं रत्नैः परैर्वर्षति
।।१९१।।
अनुवाद : धर्मात्मा प्राणीने झेरी साप हार बनी जाय छे, तलवार सुंदर
फूलोनी माळा बनी जाय छे, झेर पण उत्तम औषधि बनी जाय छे, शत्रु प्रेम करवा
मांडे छे अने देव प्रसन्नचित्त थईने आज्ञाकारी थई जाय छे. घणुं शुं कहेवुं? जेनी
पासे धर्म होय तेनी उपर आकाश पण निरंतर रत्नोनी वर्षा करे छे. १९१.
(शार्दूलविक्रीडित)
उग्रग्रीष्मरविप्रतापदहनज्वालाभितप्तश्चिरं
यः पित्तप्रकृतिर्मरौ मृदुतरः पान्थः पथा पीडितः