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इन्द्रियोनो निरोध करीने तुं परिग्रह पिचाशने छोडी दे. एनाथी स्थिरचित्त थईने
तुं केटलाक दिवसोमां एकान्तमां ते अंतरात्मानुं अवलोकन करी शकीश. १४४.
रागद्वेषवशात्तयोः परिचयः कस्माच्च जातस्तव
नोचेन्मुञ्च समस्तमेतदचिरादिष्टादिसंकल्पनम्
छुं. ते चिन्ता कोनाथी उत्पन्न थई छे? ते रागद्वेषना वशे उत्पन्न थई छे. ते राग-
द्वेषनो परिचय तने क्या कारणे थयो? तेमनी साथे मारो परिचय इष्ट अने अनिष्ट
वस्तुओना समागमथी थयो. अंते जीव कहे छे के हे चित्त! जो एम होय तो आपणे
बन्नेय नरक प्राप्त करीशुं. ते जो तने इष्ट न होय तो आ समस्त इष्ट-अनिष्टनी
कल्पना शीघ्रताथी छोडी दे. १४५.
सानन्दा कृतकृत्यता च सहसा स्वान्ते समुन्मीलति
देवस्तिष्ठति मृग्यतां सरभसादन्यत्र किं धावत
आनंदपूर्वक पोताना मनमां प्रगट थई जाय छे; ते भगवान आत्मा आ ज शरीरमां
बिराजमान छे. तेनुं शीघ्र अन्वेषण करो. बीजी जग्याए (बाह्य पदार्थो तरफ) केम
दोडी रह्या छो. १४६.
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रागद्वेषकृतो ऽत्र मोहवशतो
तेमने मोहने वश थईने जोया छे, सांभळ्या छे तथा तेमनुं सेवन पण कर्युं छे. तेथी
तेओ तारा माटे चिरकाळथी द्रढ बंधनरूप थया छे के जेथी तने दुःख भोगववुं पडे
छे. आ बधुं जाणवा छतां पण तारी ते बुद्धि आजे य केम बाह्य पदार्थो तरफ
दोडी रही छे? १४७.
शब्दादेश्च चिदेकमूर्तिरमलः शान्तः सदानन्दभाक्
हुं चैतन्यरूप, अद्वितीय शरीरथी संपन्न, कर्ममळ रहित, शान्त अने सदा आनंदनो
उपभोक्ता छुं. आ प्रकारना श्रद्धानथी जेनुं चित्त स्थिरता पामी गयुं छे तथा जे
समताभाव धारण करीने आरंभरहित थई गयुं छे तेने संसारनो शो भय छे? कांई
पण नहि. अने जो उपर्युक्त द्रढ श्रद्धान होवा छतां पण संसारनो भय छे तो पछी
बीजे क्यां विश्वास करी शकाय? क्यांय नहि. १४८.
किं वाग्भिः किमुतेन्द्रियैः किमसुभिः किं तैर्विकल्पैरपि
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नात्मन्नेभिरभिश्रयस्यति तरामालेन किं बन्धनम्
इन्द्रियोनुं शुं प्रयोजन छे? प्राणोनुं शुं प्रयोजन छे? तथा ते विकल्पोनुं पण तारे
शुं प्रयोजन छे? अर्थात् आ बधानुं तारे कांईपण प्रयोजन नथी कारण के ते बधी
पुद्गलनी पर्यायो छे अने तेथी ताराथी भिन्न छे. तुं प्रमादने वश थईने व्यर्थ ज
आ विकल्पो द्वारा केम अतिशय बंधननो आश्रय करे छे. १४९.
अने समीचीन छे; एवो जेना हृदयमां द्रढ विश्वास थई गयो छे ते तत्त्वज्ञ छे. १५०.
क्षुधादिभिरभिश्रयंस्तदुपशान्तये ऽन्नादिकम्
समुल्लसति कच्छुकारुजि यथा शिखिस्वेदनम्
तेने ज भ्रम वशे सुख माने छे. परंतु वास्तवमां ते दुःख ज छे. आ सुखनी कल्पना
आ जातनी छे जेम के खुजलीना रोगमां अग्निना शेकथी थतुं सुख. १५१.
तस्मायेव हितस्ततो ऽपि च सुखी तस्यैव संबन्धभाक्
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किंचान्यत्सकलोपदेशनिवहस्यैतद्रहस्यं परम्
अने तेमां ज ते स्थित थाय; तो ते आनंदरूप अमृतनो समुद्र बनी जाय छे.
अधिक शुं कहेवु? समस्त उपदेशोनुं केवळ आ ज रहस्य छे.
आदि कारकोनो कांई पण भेद रहेतो नथी
छे. १५३.
शीर्यन्ते विषयास्तथा विरमति प्रीतिः शरीरेऽपि च
चिन्तायामपि यातुमिच्छति समं दोषैर्मनः पञ्चताम्
जाय छे, शरीरना विषयमां पण प्रेम रहेतो नथी, वचन पण मौन धारण करी ले
छे तथा मन दोषो साथे मृत्यु प्राप्त करवा इच्छे छे . १५४.
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भ्यासास्ताशेषवस्तोः स्थितपरममुदा यद्गतिर्नो विकल्पे
साक्षादाराधना सा श्रुतविशदमतेर्बाह्यमन्यत्समस्तम्
पदार्थो तरफथी जेनो मोह हटी गयो छे तथा जेनी बुद्धि आगमना अभ्यासथी निर्मळ
थई गई छे एवा साधु पुरुषना मननी प्रवृत्ति विकल्पोमां होती नथी. ते ग्राम अने
वनमां तथा प्राणी माटे सुख उत्पन्न करनारा स्थानमां अने ते सुख रहित स्थानमां
पण समबुद्धि रहे छे अर्थात् ग्राम अने सुखयुक्त स्थानमां ते हर्षित थतो नथी
तथा एनाथी विपरीत वन अने दुःखयुक्त स्थानमां ते खेद पण पामतो नथी. आने
ज साक्षात् आराधना कहेवामां आवे छे, बीजुं बधुं बाह्य छे. १५५.
नैवान्तर्निहितानि खानि तपसा बाह्येन किं फल्गुना
नैवान्तर्बहिरन्यवस्तु तपसा बाह्येन किं फल्गुना
पण बाह्य तप करवुं व्यर्थ ज छे
प्रयोजन छे? ते व्यर्थ ज छे. एनाथी उलटुं जो अंतरंग अने बाह्यमां पण अन्य
वस्तु प्रत्ये अनुराग न होय तो पण व्यर्थ बाह्य तपथी शुं प्रयोजन? अर्थात्
कांई पण नथी.
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आवश्यकता नथी रहेती. परंतु उक्त इन्द्रियोनी प्रवृत्ति आत्मोन्मुख न होतां जो बाह्य पदार्थो तरफ
जई रही होय तो बाह्य तप करवा छतां पण यथार्थ सुखनी प्राप्ति थई शकती नथी. तेथी आ
अवस्थामां पण बाह्य तप व्यर्थ ज ठरे छे. ए ज रीते जो अंतरंगमां अने बाह्यमां पर वस्तु
प्रत्ये अनुराग रह्यो न होय तो बाह्य तपनुं प्रयोजन आ समताभावथी ज प्राप्त थई जाय छे,
तेथी तेनी आवश्यकता रहेती नथी. अने जो अंतरंग अने बाह्यमां परपदार्थो प्रत्येनो अनुराग
हट्यो न होय तो चित्त राग-द्वेषथी दूषित कहेवाने कारणे बाह्य तपनुं आचरण करवा छतां पण
तेनाथी कांई प्रयोजन सिद्ध नहि थाय. तेथी आ अवस्थामां पण बाह्य तपनी आवश्यकता रहेती
नथी. तात्पर्य ए छे के बाह्य तपश्चरण पहेलां इन्द्रियदमन, राग-द्वेषनुं शमन अने मन, वचन
तथा कायानी सरळ प्रवृत्ति थवी अत्यावश्यक छे. ए थतां ज ते बाह्य तपश्चरण सार्थक थई शकशे,
अन्यथा तेनी निरर्थकता अनिवार्य छे. १५६.
शुद्धादेश इति प्रभेदजनकं शुद्धेतरत्कप्लितम्
छे ते शुद्धादेश कहेवाय छे अने जे भेदने प्रगट करे छे ते शुद्धथी इतर अर्थात्
अशुद्धनय कल्पित करायो छे. सम्यग्द्रष्टिए शेष बे उपायोमांथी प्रथम शुद्ध तत्त्वनो
आश्रय लेवो जोईए. बराबर छे
शुद्धादेशविवक्षया स हि ततश्चिद्रूप इच्युच्यते
र्ज्ञातं किं न विलोकितं न किमथ प्राप्तं न किं योगिभिः
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स्वरूप होई शकतुं नथी. माटे ते ‘चिद्रूप’ अर्थात् चेतनस्वरूप एम कहेवाय छे. उत्तम
गुरुना उपदेशथी पोताना गुणो अने पर्यायो साथे ते ज्ञान-दर्शन स्वरूप जीवने सारी
रीते जाणी लेतां योगीओए शुं नथी जाण्युं, शुं नथी देख्युं अने शुं नथी प्राप्त कर्युं?
अर्थात् उपर्युक्त जीवनुं स्वरूप जाणी लेतां बीजुं बधुं ज जाणी लीधुं, जोई लीधुं
अने प्राप्त करी लीधुं छे एम समजवुं जोईए. १५८.
नैव स्त्री न नपुंसकं न गुरुतां प्राप्तं न यल्लाघवम्
स्वच्छं ज्ञान
छे, न नपुंसक छे, न गुरु छे, न लघु छे; तथा जे कर्म, स्पर्श, शरीर, गंध, गणना,
शब्द अने वर्ण रहित थईने निर्मळ अने ज्ञान-दर्शनरूप अद्वितीय शरीर धारण करे
छे. एनाथी भिन्न बीजुं कोई मारुं स्वरूप नथी. १५९.
प्रोच्छिन्ने यदनाद्यमन्दमसकृन्मोहान्धकारे हठात्
तज्जीयात्सहजं सुनिष्कलमहं शब्दाभिधेयं महः
तथा चन्द्रमाने पण तिरस्कृत करीने समस्त जगतने प्रकाशित करनार छे; ते
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सातं च यत्तदनुयायि विकल्पजालम्
देवेन्द्रवन्दितमहं शरणं गतो ऽस्मि
हुं देवेन्द्रोथी वंदित ते ज (मोक्ष) पदना शरणे जाउं छुं. १६१.
धिक्कर्पूरविमिश्रचन्दनरसं धिक् ताञ्जलादीनपि
लग्नं चेदतिशीतलं गुरुवचोदिव्यामृतं मे हृदि
पत्नीना स्तनमंडळने धिक्कार छे, निर्मळ चंद्रमाना किरणोने धिक्कार छे, कपूर मिश्रित
चंदनरसने धिक्कार छे तथा अन्य जळ आदि शीतळ वस्तुओने पण धिक्कार छे.
ज थोडा समय माटे दूर करी शके छे, नहि के अभ्यंतर संसार संतापने. ते संसार संतापने जो
कोई दूर करी शके तो ते सद्गुरुना वचन ज दूर करी शके छे. अमृत समान अतिशय शीतळता
उत्पन्न करनार जो ते गुरुनो दिव्य उपदेश प्राणीने प्राप्त थई गयो होय तो पछी लोकमां शीतळ
गणाता ते स्त्रीनां स्तनमंडळ आदिने धिक्कार छे, कारण के आ बधा पदार्थ ते संताप नष्ट करवामां
सर्वथा असमर्थ छे. १६२.
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विश्रान्ता विजनेषु योगिपथिका दीर्घे चरन्तः क्रमात्
नित्यानन्दकलत्रसंगसुखिनो ये तत्र तेभ्यो नमः
स्थानमां विश्राम पामे छे. त्यार पछी जे ज्ञानरूपी धनथी संपन्न थया थका
स्वात्मोपलब्धिना स्थानभूत पोताना इष्ट स्थान (मोक्ष) ने प्राप्त थईने त्यां अविनश्वर-
सुख (मुक्ति) रूपी स्त्रीनां संगथी सुखी थई जाय छे तेमने नमस्कार हो. १६३.
पाथो दुःखानलानां परमपदलसत्सौधसोपानराजिः
सर्वस्मिन् वाङ्मये ऽथ स्मरति परमहो मा
पद अर्थात् मोक्षरूप महेलनी सीडीओनी पंक्ति समान छे. तेना महिमानुं वर्णन
ते केवळी ज करी शके छे जे त्रणे लोकना अधिपति होवाथी समस्त आगममां निष्णात
छे. मारा जेवो अल्पज्ञ मनुष्य तो केवळ तेनुं नामस्मरण करे छे. १६४.
संसारोग्रमहारुजोपहृतये ऽनन्तप्रमोदाय च
मिथ्यात्वाविरतिप्रमादनिकरक्रोधादि संत्यज्यताम्
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जो आपनी आ धर्मरूपी रसायण प्राप्त करवानी इच्छा छे तो मिथ्यात्व, अविरति
अने प्रमादना समूहनो तथा क्रोधादि कषायोनो परित्याग करो. १६५.
योगो यूपशलाकयोश्च गतयोः पूर्वापरौ तोयधी
लब्धे तत्र च जन्म निर्मलकुले तत्रापि धर्मे मतिः
थयेल यूप (यज्ञमां पशुने बांधवानुं लाकडुं) अने शलाका (यज्ञमां खोडवामां आवेली
खीली) नो फरी संयोग थवो दुर्लभ छे; तेवी ज रीते निरंतर दुःख आपनार आ
संसारमां मनुष्य पर्यायने प्राप्त करवी पण अतिशय दुर्लभ छे. जो कदाचित् आ
मनुष्य पर्याय प्राप्त थई पण जाय तोय निर्मळ कुळमां जन्म लेवो अने त्यां पण
धर्ममां बुद्धि लागवी, ए घणुं ज दुर्लभ छे. १६६.
प्राप्तं वा बहुकल्पकोटिभिरिदं कृच्छ्रान्नरत्वं यदि
प्रायैः प्राणभृतां तदेव सहसा वैफल्यमागच्छति
आंधळा मनुष्यना हाथमां बटेर पक्षीनुं आववुं दुर्लभ छे तेवी ज रीते आ मनुष्य
पर्याय प्राप्त थवी पण अत्यंत दुर्लभ छे. वळी जो ते करोडो कल्पकाळमां कोई प्रकारे
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अने नीच कुळमां उत्पत्ति आदि द्वारा सहसा निष्फळ जाय छे. १६७.
न्यङ्ग प्रसंगवशतो हि कुरु स्वकार्यम्
कस्त्वां भविष्यति विबोधयितुं समर्थः
तो जो तुं मरीने कोई तिर्यंच पर्याय पामीश तो पछी तने समजाववा माटे कोण
समर्थ थशे? अर्थात् कोई समर्थ थई शकशे नहि. १६८.
भक्तिं जैनमते कथं कथमपि प्रागर्जितश्रेयसः
हस्तप्राप्तमनर्ध्यरत्नमपि ते मुञ्चन्ति दुर्बुद्धयः
जैनमतमां भक्ति पण प्राप्त करी लीधी छे छतां पण जो तेओ संसार-समुद्रनो पार
करावीने सुख उत्पन्न करनार धर्म करता नथी तो समजवुं जोईए के ते दुर्बुद्धिजनो
हाथमां प्राप्त थवा छतां पण अमूल्य रत्न छोडी दे छे. १६९.
दित्येवं बत चिन्तयन्नपि जडो यात्यन्तकग्रासताम्
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थाउं? उत्तर काळमां ज्यारे वृद्धावस्था प्राप्त थशे त्यारे हुं निश्चिंत थईने खूब धर्म
करीश. खेदनी वात छे के आ जातनो विचार करतां करतां आ मूर्ख प्राणी काळनो
कोळियो बनी जाय छे. १७०
वृद्धत्व साथे वधती जाय छे अर्थात् जेम जेम तेनी वृद्धावस्था वधती जाय छे तेम
तेम उत्तरोत्तर तेनी तृष्णा पण वधती जाय छे. १७१.
प्रौढास्याशे किमथ बहुना स्त्रीत्वमालम्बितासि
मर्षस्येतन्मम च हतके स्नेहलाद्यापि चित्रम्
पामी छो. आ जरा (घडपण) रूप बीजी स्त्री तारी सामे ज अमारा वाळ पकडी
चूकी छे. हे घातक तृष्णा! तुं मारा आ वाळ ग्रहणरूप अपमानने सहन करती थकी
आजे पण स्नेह राखनार बनी रहो छो ए आश्चर्यनी वात छे.
जोवा छतां पण तेने छोडती नथी अने तेना प्रत्ये अनुराग ज करे छे. तात्पर्य ए छे के वृद्धावस्था
प्राप्त थतां पुरुषनुं शरीर शिथिल थई जाय छे अने स्मृति पण क्षीण थई जाय छे. छतां पण
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बिन्दूपमैर्धनकलेवरजीविताद्यैः
अवस्थामां क्यो बुद्धिमान पुरुष कमळपत्र उपर रहेला जळबिंदु समान विनाश पामनार
धन, शरीर अने जीवन आदि विषयमां अभिमान करे? अर्थात् क्षणमां क्षीण थनार आ
पदार्थोना विषयमां विवेकी जन कदी पण अभिमान करता नथी. १७३.
प्रायाः प्राणधनाङ्गजप्रणयिनीमित्रादयो देहिनाम्
सर्वं भङ्गुरमत्र दुःखदमहो मोहः करोत्यन्यथा
इन्द्रियजन्य सुख तीक्ष्ण विष समान परिणामे दुःखदायक छे. तेथी ए स्पष्ट छे के
अहीं धर्म सिवाय अन्य सर्व पदार्थो विनश्वर अने कष्टदायक छे परंतु आश्चर्य छे
के आ संसारी प्राणी मोहवश थईने आ विनश्वर पदार्थोने स्थिर मानीने तेमां
अनुराग करे छे अने स्थायी धर्मने भूली जाय छे. १७४.
तीक्ष्णस्तावदसिर्भुजौ
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धावत्यन्तरिदं विचिन्त्य विदुषा तद्रोधको मृग्यते
त्यां सुधी उत्कृष्ट पुरुषार्थ पण रहे छे, त्यां सुधी तीक्ष्ण तरवार पण स्थिर रहे छे,
त्यां सुधी बन्ने हाथ पण अतिशय द्रढ रहे छे अने त्यां सुधी क्रोध पण उदय
पामे छे. आम विचार करीने विद्वान पुरुष उक्त यमराजनो निग्रह करनार तप
आदिनी खोज करे छे. १७५.
प्रसृतधनजरोरुप्रोल्लसज्जालमध्ये
भवसरसि वराको लोकमीनौघ एषः
करनार आ बिचारा जनरूपी माछलीओनो समुदाय समीपमां आवेली महान
आपत्तिओनो समूह देखतो नथी. १७६.
सामादेरहितो गदाद्गदगणः शान्तिं नृभिर्नीयते
शोको न क्रियते बुधैः परमहो धर्मस्ततस्तज्जयः
कर्या करे छे. परंतु मृत्युने देव पण शान्त करी शकता नथी. आ रीते विचार करीने
विद्वान् मनुष्यो मित्र अथवा पुत्र मरवा छतां शोक करता नथी, पण एक मात्र धर्मनुं
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लब्ध्वानन्दं सुचिरममरश्रीसरस्यां रमन्ते
यान्त्येतस्मादपि शिवपदं मानसं भव्यहंसा
आनंदपूर्वक देवोनी लक्ष्मीरूप सरोवरमां चिरकाळ सुधी रमण करे छे. त्यांथी आवीने
तेओ राज्यपद रूप सरोवरमां रमण करे छे. अंते तेओ त्यांथी पण नीकळीने
अविनश्वर मोक्षपदरूपी मानस सरोवरने प्राप्त करे छे.
जई पहोंचे छे तेवी ज रीते धर्मात्मा भव्यजीव ते धर्मना प्रभावथी नरकादि दुर्गतिओना कष्टथी
बचीने क्रमशः देवपद अने राजपदना सुख भोगवता थका अंते मोक्षपद प्राप्त करी ले छे. १७८.
धर्मादेव दिगङ्गनाङ्गविलसच्छश्वद्यशश्चन्दनाः
पापेनेति विजानता किमिति नो धर्मः सता सेव्यते
तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बळदेव, नागेन्द्र अने कृष्ण (नारायण) आदि पद धर्मथी ज
प्राप्त थाय छे. धर्म रहित मनुष्य निश्चयथी पापना प्रभावथी नरकादिक
दुर्गतिओमां दुःख सहन करे छे. आ वातने जाणता थका सज्जन पुरुष धर्मनी
आराधना केम नथी करता? १७९.
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सारा सा च विमानराजिरतुलप्रेङ्खत्पताकापटा
शक्रत्वं तदनिन्द्यमेतदखिलं धर्मस्य विस्फू र्जितम्
पायदळ सैनिको, शोभायमान ते नंदनवन, ते स्त्रीओ तथा ते अनिन्द्य इन्द्रपद;
आ बधुं धर्मना प्रकाशमां प्राप्त थाय छे. १८०.
तुङ्गा यद्द्विरदा रथाश्च चतुराशीतिश्च लक्षाणि यत्
अने एक छत्र राज्य; आ जे चक्रवर्तीपणानी संपत्ति प्राप्त थाय छे ते बधी
धर्मप्रभुना ज प्रतापे प्राप्त थाय छे. १८१.
हन्तव्यो न ततः स एव शरणं संसारिणां सर्वथा
नो धर्मात्सुहृदस्ति नैव च सुखी नो पण्डितो धार्मिकात्
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तो ते पण निश्चयथी प्राणीओनो घात करे छे अर्थात् तेमने नरकादि योनिओमां
पहोंचाडे छे. तेथी धर्मनो घात न करवो जोईए कारण के ते संसारी प्राणीओनुं
सर्व प्रकारे रक्षण करनार ते ज छे. धर्म अहीं ते (मोक्ष) पदने पण प्राप्त
करावे छे के जेनुं ध्यान योगीओ करता रहे छे. धर्म सिवाय बीजो कोई मित्र
(हितेच्छक) नथी तथा धार्मिक पुरुषनी अपेक्षाए बीजो कोई न तो सुखी होई
शके अने न पंडित. १८२.
प्रोद्भुताद्भुतभूरिकर्ममकरग्रासीकृतप्राणिनि
नो धर्मादपरो ऽस्ति तारक इहाश्रान्तं यतध्वं बुधाः
थयेल आश्चर्यजनक अनेक कर्मरूपी मगरोना कोळिया बनी जाय छे, जेनो पार घणी
कठिनताथी प्राप्त करी शकाय छे तथा जे गंभीर अने अतिशय भयानक छे; एवा
जन्मरूपी समुद्रमां डूबता प्राणीओनो उद्धार करनार धर्म सिवाय बीजो कोई नथी.
तेथी हे विद्वानो! आप निरंतर धर्मना विषयमां प्रयत्न करो. १८३.
र्नीरोगं वपुरादिरायुरखिलं धर्माद्ध्रुवं जायते
यैरुत्कण्ठितमानसैरिव नरो नाश्रीयते धार्मिकः
आयुष्य परिपूर्ण थाय छे अर्थात् अकाळ मरण थतुं नथी. अथवा संसारमां एवी
कोई लक्ष्मी नथी, एवुं कोई सुख नथी अने एवो कोई निर्मळ गुण नथी के जे
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समस्त सुखनी सामग्री एक मात्र धर्मथी ज प्राप्त थाय छे. माटे विवेकी जीवोए
सदाय ते धर्मनुं आचरण करवुं जोईए. १८४.
नद्यः सिन्धुमिवाम्बुजाकरमिव श्वेतच्छदाः पक्षिणः
सर्वे धार्मिकमाश्रयन्ति न हितं धर्मं विना किंचन
छे अने जेवी रीते हंस पक्षी सरोवरनुं आलंबन ले छे; तेवी ज रीते वीरता, त्याग,
विवेक, पराक्रम, कीर्ति, संपत्ति अने सहायक आदि बधुं धार्मिक पुरुषनो आश्रय ले
छे. बराबर छे
प्रासादीयसि यत्सुखीयसि सदा रूपीयसि प्रीयसि
निर्धूताखिलदुःखदापदि सुहृद्धर्मे मतिर्धार्यताम्
महेलनी इच्छा करता हो, सुखनी इच्छा करता हो, सुंदर रूपनी इच्छा करता हो,
प्रीतिनी इच्छा करता हो अथवा जो अनंत सुखरूप अमृतना समुद्र जेवा उत्तम स्थान
(मोक्ष)नी इच्छा राखता हो तो निश्चयथी समस्त दुःखदायक आपत्तिओनो नाश
करनार धर्ममां तमारी बुद्धि जोडो. १८६.
कामिन्यो गिरिमस्तके ऽपि सरसाः साराणि रत्नानि च
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घर्मश्चेदिह वाञ्छितं तनुभृतां किं किं न संपद्यते
आनंदोत्पादक स्त्रीओ अने श्रेष्ठ रत्न पण प्राप्त थई जाय छे. ए सिवाय उक्त
धर्मना ज प्रभावथी भींत उपर अथवा लाकडामांथी बनावेल देवता पण सिद्धिदायक
थाय छे. बराबर छे
पुण्याद्विना करतलस्थमपि प्रयाति
पात्रं बुधा भवत निर्मलपुण्यराशेः
केवळ निमित्तमात्र थाय छे. तेथी हे पंडितजनो! निर्मळ पुण्य राशिना भाजन थाव,
अर्थात् पुण्यनुं उपार्जन करो. १८८.
निःप्राणोऽपि हरिर्विरूपतनुरप्याधुष्यते मन्मथः
पुण्यादन्यमपि प्रशस्तमखिलं जायेत यद्दुर्घटम्
प्राणी पण सिंह जेवुं बळवान बनी जाय छे, विकृत शरीरवाळो पण कामदेव समान
सुंदर गणवामां आवे छे तथा उद्योगहीन चेष्टावाळो जीव पण लक्ष्मी द्वारा गाढपणे
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जे कोई प्रशंसनीय अन्य समस्त पदार्थ अहीं दुर्लभ गणाय छे ते बधा पुण्यना
उदयथी प्राप्त थई जाय छे. १८९.
पृष्ठे भारसमर्पणं कृतवतां संचालनं ताडनम्
निःस्थाम्नां बलिनो ऽपि यत्तदखिलं दुष्टो विधिश्चेष्टते
छे, तथा दुष्ट वचनो पण बोले छे, एवा ते पराक्रमहीन महावतोना समस्त
दुर्व्यवहारने पण जे हाथी बळवान होवा छतां पण प्रतिदिन सहन करे छे ए
बधी दुर्दैवनी लीला छे, अर्थात् एने पापकर्मनुं ज फळ समजवुं जोईए. १९०.
संपद्येत रसायनं विषमपि प्रीतिं विधत्ते रिपुः
धर्मो यस्य नभोऽपि तस्य सततं रत्नैः परैर्वर्षति
मांडे छे अने देव प्रसन्नचित्त थईने आज्ञाकारी थई जाय छे. घणुं शुं कहेवुं? जेनी
पासे धर्म होय तेनी उपर आकाश पण निरंतर रत्नोनी वर्षा करे छे. १९१.
यः पित्तप्रकृतिर्मरौ मृदुतरः पान्थः पथा पीडितः