Padmanandi Panchvinshati-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 108-144 (1. Dharmopadeshamrut).

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(शार्दूलविक्रीडित)
आयाते ऽनुभवं भवारिमथने निर्मुक्त मूर्त्याश्रये
शुद्धे ऽन्या
द्रशि सोमसूर्यहुतभुक्कान्तेरनन्तप्रभे
यस्मिन्नस्तमुपैति चित्रमचिरान्निःशेषवस्त्वन्तरं
तद्वन्दे विपुलप्रमोदसदनं चिद्रूपमेकं महः
।।१०८।।
अनुवाद : जे चैतन्यरूप तेज संसाररूपी शत्रुने मथनार छे, रूप, रस,
गंध, स्पर्शरूप मूर्तिना आश्रय रहित अर्थात् अमूर्तिक छे, शुद्ध छे, अनुपम छे
तथा चन्द्र, सूर्य अने अग्निनी प्रभानी अपेक्षाए अनंतगुणी प्रभाथी युक्त छे;
ते चैतन्यरूप तेजनो अनुभव थई जतां आश्चर्य छे के अन्य समस्त पर पदार्थ
शीघ्र ज नष्ट थई जाय छे अर्थात् तेमनो पछी विकल्प ज रहेतो नथी. अतिशय
आनंद उत्पन्न करनार ते एक चैतन्यरूप तेजने हुं नमस्कार करूं छुं. १०८.
(शार्दूलविक्रीडित)
जातिर्याति न यत्र यत्र च मृतो मृत्युर्जरा जर्जरा
जाता यत्र न कर्मकायघटना नो वाग् न च व्याधयः
यत्रात्मैव परं चकास्ति विशदज्ञानैकमूर्तिः प्रभु-
र्नित्यं तत्पदमाश्रिता निरुपमाः सिद्धाः सदा पान्तु वः
।।१०९।।
अनुवाद : जे मोक्षपदमां जन्म थतो नथी, मृत्यु मरी गयुं छे, जरा जीर्ण
थई गई छे, कर्म अने शरीरनो संबंध रह्यो नथी, वचन नथी, व्याधिओ पण बाकी
रही नथी, ज्यां केवळ निर्मळज्ञानरूप अद्वितीय शरीरने धारण करनार प्रभावशाळी
आत्मा ज सदा प्रकाशमान छे; ते मोक्षपद पामेला अनुपम सिद्ध परमेष्ठी सर्वदा
आपनी रक्षा करो. १०९.
(शार्दूलविक्रीडित)
दुर्लक्ष्ये ऽपि चिदात्मनि श्रुतबलात् किंचित्स्वसंवेदनात्
ब्रूमः किंचिदिह प्रबोधनिधिभिर्ग्राह्यं न किंचिच्छलम्
मोहे राजनि कर्मणामतितरां प्रौढान्तराये रिपौ
द्रग्बोधावरणद्वये सति मतिस्ताद्रक्कुतो माद्रशाम् ।।११०।।

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अनुवाद : जो के चैतन्यस्वरूप आत्मा अद्रश्य छे छतां पण शास्त्रना
बळथी थता कांईक स्वानुभवथी पण अहीं तेना संबंधमां कांईक निरूपण करीए
छीए. सम्यग्ज्ञानरूप निधिने धारण करनार विद्वानोए आमां कांई छळ नहीं
समजवुं जोईए. कारण के सर्व कर्मोना अधिपतिस्वरूप मोह, शक्तिशाळी
अंतरायरूप शत्रु तथा दर्शनावरण अने ज्ञानावरण आ चार घाति कर्मो विद्यमान
होय त्यारे मारा जेवा अल्पज्ञानीओने तेवी उत्कृष्ट बुद्धि क्यांथी होई शके? ११०.
(शार्दूलविक्रीडित)
विद्वन्मन्यतया सदस्यतितरामुद्दण्डवाग्डम्बराः
शृङ्गारादिरसैः प्रमोदजनकं व्याख्यानमातन्वते
ये ते च प्रतिसद्म सन्ति बहवो व्यामोहविस्तारिणो
येभ्यस्तत्परमात्मतत्त्वविषयं ज्ञानं तु ते दुर्लभाः
।।१११।।
अनुवाद : विद्वताना अभिमानथी सभामां अत्यंत उद्दंड वचनोनो आडंबर
करनारा जे कविओ शृंगारादि रसो द्वारा बीजाओने आनंद उत्पन्न करनार व्याख्याननो
विस्तार करीने तेमने मुग्ध करे छे ते कविओ तो अहीं घरे घरे अनेक छे. पण जेमनी
पासेथी परमात्मतत्त्व संबंधी ज्ञान प्राप्त थाय छे ते तो दुर्लभ ज छे. १११.
(शार्दूलविक्रीडित)
आपद्धेतुषु रागरोषनिकृतिप्रायेषु दोषेष्वलं
मोहात्सर्वजनस्य चेतसि सदा सत्सु स्वभावादपि
तन्नाशाय च संविदे च फलवत्काव्यं कवेर्जायते
शृङ्गारादिरसं तु सर्वजगतो मोहाय दुःखाय च
।।११२।।
अनुवाद : जे राग, क्रोध अने माया आदि दोष अत्यंत दुःखना कारणभूत
छे ते तो मोहने वश थयेला स्वभावथी ज सर्वदा सर्व जीवोना चित्तमां निवास
करे छे. उक्त दोषोनो नाश करवा तथा सम्यग्ज्ञान प्राप्त करवाना उद्देशथी रचवामां
आवेलुं कविनुं काव्य सफळ थाय छे. एनाथी विपरीत शृंगारादि रसप्रधान काव्य
तो सर्व जीवोने मोह अने दुःख ज उत्पन्न करनार थाय छे. ११२.

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(वसंततिलका)
कालादपि प्रसृतमोहमहान्धकारे
मार्गं न पश्यति जनो जगति प्रशस्तम्
क्षुद्राः क्षिपन्ति द्रशि दुःश्रुतिधूलिमस्य
न स्यात्कथं गतिरनिश्चितदुःपथेषु ।।११३।।
अनुवाद : काळना प्रभावथी ज्यां मोहरूप महान अंधकार फेलायेलो छे एवा
आ लोकमां मनुष्य उत्तम मार्ग जोई शकतो नथी. ते सिवाय नीच मिथ्याद्रष्टि जीवो
तेनी आंखमां मिथ्या उपदेशरूप धूळ पण फेंके छे. तो पछी एवी हालतमां तेनुं गमन
अनिश्चित खोटा मार्गे केम न थाय? अर्थात् अवश्य थाय. ११३.
(शार्दूलविक्रीडित)
विण्मूत्रक्रिमिसंकुले कृतघृणैरन्रादिभिः पूरिते
शुक्रासृग्वरयोषितामपि तनुर्मातुः कुगर्भे ऽजनि
सापि क्लिष्टरसादिधातुकलिता पूर्णा मलाद्यैरहो
चित्रं चन्द्रमुखीति जातमतिभिर्विद्वद्भिरावर्ण्यते
।।११४।।
अनुवाद : जे मातानी कुत्सित कुक्षि विष्टा, मूत्र अने तुच्छ जंतुओथी व्याप्त
तथा घृणाजनक आंतरडा आदिथी परिपूर्ण छे एवी ते कूखमां उत्तम स्त्रीओनुं पण
वीर्य अने रजथी निर्मित शरीर उत्पन्न थयुं छे. ते उत्तम स्त्री पण क्लेशजनक रस
आदि धातुओथी युक्त अने मळ आदिथी परिपूर्ण छे. छतां पण आश्चर्य छे के तेने
प्रतिभाशाळी विद्वान् चन्द्रमुखी (चन्द्र जेवा मुखवाळी) बतावे छे. ११४.
(शिखरणी)
कचा यूकावासा मुखमजिनबद्धास्थिनिचयः
कुचौ मांसोच्छ्रायौ जठरमपि विष्ठादिघटिका
मलोत्सर्गे यन्रं जघनमबलायाः क्रमयुगं
तदाधारस्थूणे किमिह किल रागाय महताम्
।।११५।।
अनुवाद : जे स्त्रीना वाळ जू ना स्थानरूप छे, मुख चामडाथी सम्बद्ध

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हाडकाना समूहथी संयुक्त छे. स्तन मांसथी उन्नत छे. उदर पण विष्टा आदिना
तुच्छ घडा समान छे जघन मळ छोडवाना यंत्र समान छे अने बन्ने पग ते यंत्रना
आधारभूत स्तंभो समान छे; आवी ते स्त्री शुं महान पुरुषो माटे रागनुं कारण
थई शके? अर्थात् थई शकती नथी. ११५.
(द्रुतविलम्बित)
परमधर्मनदाज्जनमीनकान् शशिमुखीबडिशेन समुद्धतान्
अतिसमुल्लसिते रतिमुर्मुरे पचति हा हतकः स्मरधीवरः ।।११६।।
अनुवाद : हत्यारो कामदेवरूपी माछीमार उत्तम धर्मरूपी नदीमांथी
मनुष्योरूपी माछलीओने स्त्री रूप कांटा द्वारा काढीने तेमने अत्यंत बळनारी
अनुरागरूपी अग्निमां रांधे छे, ए घणा खेदनी वात छे.
विशेषार्थ : जेम माछीमार कांटा द्वारा नदीमांथी माछलीओ काढीने तेमने अग्निमां
रांधे छे ते ज प्रमाणे कामदेव (भोगाभिलाषा) पण मनुष्योने स्त्रीओ द्वारा धर्मथी भ्रष्ट करीने तेमने
विषयभोगोथी संतप्त करे छे. ११६.
(शार्दूलविक्रीडित)
येनेदं जगदापदम्बुधिगतं कुर्वीत मोहो हठात्
येनैते प्रतिजन्तु हन्तुमनसः क्रोधादयो दुर्जयाः
येन भ्रातरियं च संसृति सरित्संजायते दुस्तरा
तज्जानीहि समस्तदोषविषमं स्त्रीरूपमेतद्ध्रुवम्
।।११७।।
अनुवादःजे स्त्रीना सौन्दर्यना प्रभावथी आ मोह जगतना प्राणीओने
बळपूर्वक आपत्तिरूप समुद्रमां प्रवेश करावे छे, जेना द्वारा आ दुर्जय क्रोध आदि
शत्रु प्रत्येक प्राणीना घातमां तत्पर रहे छे तथा जेना द्वारा आ संसाररूपी नदी
पार करवी अशक्य बनी जाय छे. हे भाई! तुं ते स्त्रीना सौन्दर्यने निश्चयथी
समस्त दोषोवाळुं होवाने कारणे कष्टदायक समज. ११७.
(शार्दूलविक्रीडित)
मोहव्याधभटेन संसृतिवने मुग्धैणबन्धापदे
पाशाः पङ्कजलोचनादिविषयाः सर्वत्र सज्जीकृताः

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मुग्धास्तत्र पतन्ति तानपि वरानास्थाय वाञ्छन्त्यहो
हा कष्टं परजन्मने ऽपि न विदः क्कापीति धिङ्मूर्खताम्
।।११८।।
अनुवादःसुभट मोहरूपी पारधीए संसाररूपी वनमां मूर्खजनरूपी
मृगोने बन्धन- जनित आपत्तिमां धकेलवा माटे सर्वत्र कमळ समान नेत्रोवाळी
स्त्री आदि विषयरूपी जाळो तैयार करी लीधी छे. आ मूर्ख प्राणी ते इन्द्रिय
विषयरूपी जाळमां फसाई जाय छे अने ते विषय भोगोने उत्तम अने स्थायी
समजीने परलोकमां पण तेमनी इच्छा करे छे, ए घणा खेदनी वात छे. परंतु
विद्वान् पुरुष तेमनी अभिलाषा आ लोक अने परलोकमांथी क्यांय पण करता
नथी. ते मूर्खताने धिक्कार छे. ११८.
(शार्दूलविक्रीडित)
एतन्मोहढकप्रयोगविहितभ्रान्तिभ्रमच्चक्षुषा
पश्यत्येेष जनो ऽसमञ्जसमसद्बुधिर्ध्रुवं व्यापदे
अप्येतान् विषयाननन्तनरकक्लेशप्रदानस्थिरान्
यत् शश्वत्सुखसागरानिव सतश्चेतःप्रियान् मन्यते
।।११९।।
अनुवाद : आ दुर्बुद्धि मनुष्य मोहरूपी ठगना प्रयोगथी करवामां आवेली
भ्रान्तिथी भ्रमित थयेली आंखो द्वारा आ विषयसुखने विपरीत देखे छे अर्थात् ते
दुःखदायक विषयसुखने सुखदायक माने छे. परंतु वास्तवमां ते निश्चयथी आपत्तिजनक
ज छे. जे आ विषयभोग नरकमां अनंत दुःख आपनार अने अस्थिर छे तेमने
ते सर्वदा चित्तने प्रिय लागनारा सुखना समुद्र समान माने छे. ११९.
(शार्दूलविक्रीडित)
संसारे ऽत्र घनाटवीपरिसरे मोहष्ठकः कामिनी-
क्रोधाद्याश्च तदीयपेटकमिदं तत्संनिधौ जायते
प्राणी तद्बिहितप्रयोगविकलस्तद्वश्यतामागतो
न स्वं चेतयते लभेत विपदं ज्ञातुः प्रभोः कथ्यताम्
।।१२०।।
अनुवाद : सघन वननी अंत्य भूमि समान आ संसारमां मोहरूप ठग
विद्यमान छे. स्त्री अने क्रोधादि कषायो तेनी पेटी समान छे अर्थात् तेओ तेना प्रबळ

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सहायक छे. कारण के ए तेना (मोहना) रहेवाथी ज रहे छे. उक्त मोहद्वारा करवामां
आवेला प्रयोगथी व्याकुळ थयेल प्राणी तेने वश थईने पोताना आत्मस्वरूपनो विचार
करता नथी, तेथी ते विपत्तिने प्राप्त थाय छे. ते मोहरूप ठगथी प्राणीनी रक्षा करनार
ज्ञाता प्रभु (सर्वदा) छे तेथी ज ते ज्ञाता प्रभुनी ज प्रार्थना करवी. १२०.
(शार्दूलविक्रीडित)
ऐश्वर्यादिगुणप्रकाशनतया मूढा हि ये कुर्वते
सर्वेषां टिरिटिल्लितानि पुरतः पश्यन्ति नो ब्यापदः
विद्युल्लोलमपि स्थिरं परमपि स्वं पुत्रदारादिकं
मन्यन्ते यदहो तदत्र विषमं मोहप्रभोः शासनम्
।।१२१।।
अनुवाद : जे मूर्खजनो पोताना ऐश्वर्य आदि गुणो प्रकट करवाना विचारथी
अन्य सर्व मनुष्योनी ठेकडी उडाड्या करे छे तेओ भविष्यमां आवनारी आपत्तिओने
जोता नथी. आश्चर्य छे के जे पुत्र अने पत्नी आदि विजळी समान चंचळ (अस्थिर)
छे तेमने ते लोको स्थिर माने छे तथा प्रत्यक्ष पर (भिन्न) देखावा छतां तेमने स्वकीय
समजे छे आ मोहरूपी राजानुं विषम शासन छे. १२१.
(शिखरणी)
क्व यामः किं कुर्मः कथमिह सुखं किं च भविता
कुतो लभ्या लक्ष्मीः क इह नृपतिः सेव्यत इति
विकल्पानां जालं जडयति मनः पश्यत सतां
अपि ज्ञातार्थनामिह महदहो मोहचरितम्
।।१२२।।
अनुवाद : अमे क्यां जईए, शुं करीए, अहीं सुख केवी रीते प्राप्त थई
शके? अने शुं थशे? लक्ष्मी क्यांथी प्राप्त थई शके? एना माटे क्या राजानी सेवा
करवी? इत्यादि विकल्पोनो समूह अहीं तत्त्वज्ञ सज्जन पुरुषोना मनने पण जड
बनावी दे छे, ए शोचनीय छे. आ बधी मोहनी महालीला छे. १२२.
(शिखरिणी)
विहाय व्यामोहं धनसदनतन्वादिविषये
कुरुध्वं तत्तूर्णं किमपि निजकार्यं ऐबत बुधाः

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न येनेदं जन्म प्रभवति सुनृत्वादिघटना
पुनः स्यान्न स्याद्वा किमपरवचोडम्बरशतैः
।।१२३।।
अनुवादःहे विद्वद्जनो! धन, महेल अने शरीर आदिना विषयमां
ममत्वबुद्धि छोडीने शीघ्रताथी कांई पण पोतानुं एवुं कार्य करो के जेथी आ जन्म
फरीथी प्राप्त न करवो पडे. बीजा सेंकडो वचनोना बाह्य डोळथी तमारुं कांई पण
इष्ट सिद्ध थवानुं नथी. आ जे तमने उत्तम मनुष्य पर्याय आदि स्वहित साधक
सामग्री प्राप्त थई छे ते फरीथी प्राप्त थशे अथवा नहि थाय ए कांई नक्की नथी.
अर्थात् तेनुं फरी प्राप्त थवुं बहु ज कठण छे. १२३.
(स्रग्धरा)
वाचस्तस्य प्रमाणं य इह जिनपतिः सर्वविद्वीतरागो
रागद्वेषादिदोषैरुपह्रतमनसो नेतरस्यानृतत्वात्
एतन्निश्चित्य चिते श्रयत बत बुधा विश्वतत्त्वोपलब्धौ
मुक्ते र्मूलं तमेकं भ्रमत किमु बहुष्वन्धवदुःपथेषु
।।१२४।।
अनुवाद : अहीं जे जिनेन्द्रदेव सर्वज्ञ थया थका रागद्वेषरहित छे तेनुं वचन
प्रमाण (सत्य) छे. एनाथी विपरीत जेनुं अंतःकरण राग-द्वेषादिथी दुषित छे एवा अन्य
कोईनुं वचन प्रमाण होई शकतुं नथी कारण के ते सत्यथी रहित छे एवो मनमां निश्चय
करीने हे बुद्धिमान् सज्जनो! जे सर्वज्ञ थई जवाथी मुक्तिनुं मूळ कारण छे ते ज एक
जिनेन्द्रदेवनो तमे समस्त तत्त्वोना परिज्ञान माटे आश्रय करो, आंधळानी जेम अनेक
कुमार्गोमां परिभ्रमण करवुं योग्य नथी. १२४.
(वसंततिलका)
यः कल्पयेत् किमपि सर्वविदोऽपि वाचि
संदिह्य तत्त्वमसमञ्जसमात्मबुद्धया
खे पत्रिणां विचरतां सुद्रशेक्षितानां
संख्यां प्रति प्रविदधाति स वादमन्धः ।।१२५।।
अनुवाद : जे सर्वज्ञना पण वचनमां संदेह करीने पोतानी बुद्धिथी तत्त्वना
विषयमां अन्यथा कांईक कल्पना करे छे ते अज्ञानी पुरुष निर्मळ नेत्रोवाळा

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पुरुषद्वारा जोवामां आवेल आकाशमां विहरता पक्षीओनी संख्यानी बाबतमां
विवाद करनार आंधळा समान आचरण करे छे. १२५.
(इन्द्रवज्रा)
उक्तं जिनैर्द्वादशभेदभङ्गं श्रुतं, ततो बाह्यमनन्तभेदम्
तस्मिन्नुपादेयतया चिदात्मा, ततः परं हेयतयाभ्यधायि ।।१२६।।
अनुवाद : जिनदेवे अंगश्रुतना बार तथा अंग बाह्यना अनंत भेद बताव्या
छे. आ बन्नेय प्रकारना श्रुतमां चेतन आत्माने ग्राह्यरूपे अने तेनाथी भिन्न पर
पदार्थोने हेयरूपे बतावेल छे.
विशेषार्थ : मतिज्ञानना निमित्ते जे ज्ञान थाय छे तेने श्रुतज्ञान कहे छे आ श्रुतना
मूळमां बे भेद छेअंगप्रविष्ट अने अंगबाह्य. आमां अंगप्रविष्टना नीचे प्रमाणे बार भेद
छे१. आचारांग २. सूत्रकृतांग ३. स्थानांग ४. समवायांग ५. व्याख्याप्रज्ञप्तिअंग
६. ज्ञातृधर्मकथांग ७. उपासकाध्ययनांग ८. अंतकृतदशांग ९. अनुत्तरौपपादिकदशांग
१०. प्रश्नव्याकरणांग ११. विपाकसूत्रांग अने १२. द्रष्टिवादांग आमां द्रष्टिवाद पण पांच
प्रकारना छे
१. परिकर्म २. सूत्र ३. प्रथमानुयोग ४. पूर्वगत अने ५. चूलिका. आमां
पूर्वगतना पण नीचे प्रमाणे चौद भेद छे१. उत्पाद पूर्व २. अग्रायणीपूर्व ३. वीर्यानुप्रवाद
४. अस्तिनास्तिप्रवाद ५. ज्ञानप्रवाद ६. सत्यप्रवाद ७. आत्मप्रवाद ८. कर्मप्रवाद
९. प्रत्याख्याननामधेय १०. विद्यानुप्रवाद ११. कल्याणनामधेय १२. प्राणावाय १३. क्रियाविशाळ
अने १४ लोकबिन्दुसार. अंगबाह्य दशवैकालिक अने उत्तराध्ययन आदि भेदथी अनेक प्रकारना
छे. छतां पण तेना मुख्यपणे नीचेना चौद भेद बताव्या छे
१. सामायिक २. चतुर्विशतिस्तव
३. वंदना ४. प्रतिक्रमण ५. वैनयिक ६. कृतिकर्म ७. दशवैकालिक ८. उत्तराध्ययन ९. कल्प-
व्यवहार १०. कल्प्याकल्प्य ११. महाकल्प्य १२. पुंडरीक १३. महापुंडरीक अने १४. निषिद्धिका
(विशेष जाणकारी माटे षट्खंडागम
कृतिअनुयोगद्वार (पु. ९) पृ. १८७२२४ जुओ). आ
बधा ज श्रुतमां एक मात्र आत्माने उपादेय बतावीने बीजा बधा पदार्थोने हेय बताव्या छे.
श्रुतना अभ्यासनुं प्रयोजन पण ए ज छे, अन्यथा अगियार अंग नव पूर्वोनो अभ्यास करीने
पण द्रव्यलिंगी मुनि संसारमां ज परिभ्रमण कर्या करे छे. १२६.
(उपजाति)
अल्पायुषामल्पधियामिदानीं कुतः समस्तश्रुतपाठशक्ति :
तदत्र मुक्तिं प्रति बीजमात्रमभ्यस्यतामात्महितं प्रयत्नात् ।।१२७।।

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अनुवाद : वर्तमान काळमां मनुष्योनुं आयुष्य अल्प अने बुद्धि अतिशय
मंद थई गई छे तेथी तेमनामां उपर्युक्त समस्त श्रुतना पाठनी शक्ति रही नथी.
आ कारणे तेमणे अहीं एटला ज श्रुतनो प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करवो जोईए जे
मोक्षनुं बीजभूत थईने आत्मानुं हित करनार होय. १२७.
(स्रग्धरा)
निश्चेतव्यो जिनेन्द्रस्तदतुलवचसां गोचरेऽर्थ परोक्षे
कार्यः सोऽपि प्रमाणं वदत किमपरेणालकोलाहलेन
सत्यां छद्मस्थतायामिह समयपथस्वानुभूतिप्रबुद्धा
भो भो भव्या यतध्वं
द्रगवगमनिधावात्मनि प्रीतिभाजः ।।१२८।।
अनुवाद : हे भव्य जीवो! आपे जिनेन्द्रदेवना विषयमां निश्चय करवो
जोईए अने तेमना अनुपम वचनोना विषयभूत परोक्ष पदार्थना विषयमां तेने
ज प्रमाण मानवा जोईए. बीजा व्यर्थ कोलाहलथी शुं प्रयोजन सिद्ध थशे, ए
आप ज बतावो. तेथी छद्मस्थ (अल्पज्ञ) अवस्था विद्यमान होवा छतां सिद्धांतना
मार्गे प्राप्त थयेल आत्मानुभववडे प्रबोधने पामीने आप सम्यग्दर्शन अने
सम्यग्ज्ञाननी निधिस्वरूप आत्माना विषयमां प्रीतियुक्त थईने प्रयत्न करो
तेनी
ज आराधना करो.
विशेषार्थ : अल्पज्ञताने कारणे आपणे जे परोक्ष पदार्थोना विषयमां कांई पण निश्चय
करी शकता नथी तेमना विषयमां आपणे जिनेन्द्रदेवने के जे राग-द्वेष रहित होईने सर्वज्ञ पण
छे, प्रमाण मानवा जोईए. जो के वर्तमानमां ते अही विद्यमान नथी तोपण परंपराप्राप्त तेमना
वचन (जिनागम) तो विद्यमान छे ज. तेना द्वारा प्रबोध प्राप्त करीने भव्य जीव आत्मकल्याण
करवामां प्रयत्नशील थई शके छे. १२८.
(आर्या)
तद्धयायत तात्पर्याज्ज्योतिः सच्चिन्मयं विना यस्मात्
सदपि न सत् सति यस्मिन् निश्चितमाभासते विश्वम् ।।१२९।।
अनुवाद : चैतन्यमय ते उत्कृष्ट ज्योतिनुं तत्परताथी ध्यान करो, जेना विना
विद्यमान विश्व पण अविद्यमान समान प्रतिभासे छे तथा जे उपस्थित होतां ते विश्व
निश्चितपणे यथार्थस्वरूपे प्रतिभासे छे. १२९.

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(शार्दूलविक्रीडित)
अज्ञो यद्भवकोटिभिः क्षपयति वं कर्म तस्माद्बहु
स्वीकुर्वन् कृतसंवरः स्थिरमना ज्ञानी तु तत्तत्क्षणात्
तीक्ष्णक्लेशहयाश्रितो ऽपि हि पदं नेष्टं तपःस्यन्दनो
नेयं तन्नयति प्रभुं स्फु टतरज्ञानैकसूतोज्झितः
।।१३०।।
अनुवाद : अज्ञानी जीव पोताना जे कर्म करोडो जन्मोमां नष्ट करे छे तथा
तेनाथी अनेक गणा ग्रहण करे छे तेने ज्ञानी जीव स्थिरचित्त थईने संवरने प्राप्त
थता थका तत्क्षण अर्थात् क्षणमात्रमां नष्ट करी दे छे. ते योग्य ज छे
तीक्ष्ण क्लेशरूपी
घोडानो आश्रय लेवा छतां पण तपरूपी रथ जो अतिशय निर्मळ ज्ञानरूपी अद्वितीय
सारथी विनानो होय तो ते पोताना लई जवा योग्य प्रभु (आत्मा अने राजा) ने
इष्ट स्थाने लई जई शकतो नथी.
विशेषार्थ : जेम अनुभवी सारथी (चलावनार) विना शीघ्रगामी घोडा द्वारा खेंचातो
रथ पण तेमां बेठेला राजा आदिने पोताना इष्ट स्थाने पहोंचाडी शकतो नथी तेवी ज रीते
सम्यग्ज्ञान विना करवामां आवेलुं तप दुःसह कायकलेशोथी संयुक्त होवा छतां पण आत्माने
मोक्षपदमां पहोंचाडी शकतुं नथी. ए ज कारणे जे कर्मो अज्ञानी जीव करोडो भवोमां पण नष्ट
करी शकतो नथी तेमनो सम्यक्ज्ञानी जीव क्षणमात्रमां ज नाश करी नाखे छे. एनुं कारण ए छे
के अज्ञानी जीवने निर्जरानी साथो साथ नवा कर्मोनो आस्रव पण थया करे छे, तेथी ते कर्मरहित
थई शकतो नथी. परंतु एनाथी उल्टुं ज्ञानी जीवने ज्यां नवा कर्मनो आस्रव अटकी जाय छे त्यां
पूर्वसंचित कर्मनी निर्जरा पण थाय छे. तेथी ज ते शीघ्र कर्मोथी रहित थई जाय छे. १३०.
(स्रग्धरा)
कर्माब्धौ तद्विचित्रोदयलहरिभरव्याकुले व्यापदुग्र-
भ्राम्यन्नक्रादिकीर्णे मृतिजननलसद्वाडवावर्तगर्ते
मुक्त : शक्त या हताङ्गः प्रतिगति स पुमान् मज्जनोन्मज्जनाभ्या
मप्राप्य ज्ञानपोतं तदनुगतजडः पारगामी कथं स्यात् ।।१३१।।
अनुवाद : जे कर्मरूपी समुद्र पोताना विविध प्रकारना उदयरूपी लहरीओना
भारथी व्याप्त छे, आपत्तिओ रूप आम तेम घूमता महान् मगर आदि
जळजंतुओथी परिपूर्ण छे, तथा मृत्यु अने जन्मरूपी वडवाग्नि अने वमळना खाडारूप

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छे; तेमां पडेलो ते अज्ञानी मनुष्यजेनुं शरीर प्रत्येक गतिमां (डगले पगले) वारंवार
डूबवा अने उपर आववाना कारणे पिडाई रह्युं छे तथा जे (समुद्रने) ओळंगवानी
शक्तिरहित छे
ज्ञानरूपी जहाजने प्राप्त कर्या विना केवी रीते पारगामी थई शके?
अर्थात् ज्यां सुधी तेने ज्ञानरूपी जहाज प्राप्त थतुं नथी त्यां सुधी ते कर्मरूपी समुद्रनो
पार कोई पण रीते पामी शकतो नथी. १३१.
(शार्दूलविक्रीडित)
शश्वन्मोहमहान्धकारकलिते त्रैलोक्यसद्मन्यसौ
जैनी वागमलप्रदीपकलिका न स्याद्यदि द्योतिका
भावानामुपलब्धिरेव न भवेत् सम्यक्त दिष्टेतर-
प्राप्तित्यागकृते पुनस्तनुभृतां दूरे मतिस्ता
द्रशी ।।१३२।।
अनुवाद : जे त्रणे लोकरूप भवन सर्वदा मोहरूप सघन अंधकारथी व्याप्त
थई रह्युं छे तेने प्रकाशित करनार जो जिनवाणी रूपी निर्मळ दीपकनी ज्योत न
होय तो पदार्थोनुं सारी रीते ज्ञान ज थई शकतुं नथी तो पछी एवी अवस्थामां
इष्टनी प्राप्ति अने अनिष्टना परित्याग माटे प्राणीओने ते प्रकारनी बुद्धि केवी रीते
थई शके? थई शके नहि. १३२.
(मन्दाक्रान्ता)
शान्ते कर्मण्युचितसकलक्षेत्रकालादिहेतौ
लब्धवा स्वास्थ्यं कथमपि लसद्योगमुद्रावशेषम्
आत्मा धर्मो यदयमसुखस्फीतसंसारगर्ता-
दुद्धृत्य स्वं सुखमयपदे धारयत्यात्मनैव
।।१३३।।
अनुवाद : कर्मना उपशान्त थवा साथे योग्य समस्त क्षेत्रकाळादिरूप सामग्री
प्राप्त थई जतां केवळ ध्यानमुद्राथी संयुक्त स्वास्थ्य (आत्मस्वरूपस्थता) कोई पण
प्रकारे प्राप्त करीने आ आत्मा दुःखोथी परिपूर्ण संसाररूप खाडामांथी पोताने काढीने
पोतानी जाते ज सुखमय पद अर्थात् मोक्षमां धारण करे छे तेथी ते आत्मा ज धर्म
कहेवाय छे.
विशेषार्थ : ‘इष्टस्थाने धरति इति धर्मः’ आ व्याख्या प्रमाणे जे जीवने संसारना

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दुःखमांथी काढीने इष्ट पद (मोक्ष)मां प्राप्त करावे छे तेने धर्म कहेवामां आवे छे. कर्मो उपशान्त
थवाथी प्राप्त थयेली द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावरूप सामग्री द्वारा अनंतचतुष्टयरूप स्वास्थ्यनो लाभ थाय
छे. आ अवस्थामां एक मात्र ध्यानमुद्रा ज बाकी रहे छे. बाकीना बधा संकल्प-विकल्प छूटी जाय
छे. हवे आत्मा पोताने पोता द्वारा ज संसाररूप खाडामांथी काढीने मोक्षमां पहोंचाडी दे छे. तेथी
उपर्युक्त व्याख्या प्रमाणे वास्तवमां आत्मानुं नाम ज धर्म छे
ते सिवाय बीजो कोई धर्म होई
शके नहि. १३३.
(शार्दूलविक्रीडित)
नो शून्यो न जडो न भूतजनितो नो कर्तृभावं गतो
नैको न क्षणिको न विश्वविततो नित्यो न चैकान्ततः
आत्मा कायमितश्चिदेकनिलयः कर्ता च भोक्ता स्वयं
संयुक्तः स्थिरताविनाशजननैः प्रत्येकमेकक्षणे
।।१३४।।
अनुवाद : आ आत्मा एकान्तरूपे न तो शून्य छे, न जड छे, न पृथ्वी
आदि भूतोथी उत्पन्न थयो छे, न कर्ता छे, न एक छे, न क्षणिक छे, न विश्वव्यापक
छे अने न नित्य पण छे. परंतु चैतन्य गुणना आश्रयभूत ते आत्मा प्राप्त थयेल
शरीर प्रमाणे थतो थको स्वयं ज कर्ता अने भोक्ता पण छे. ते आत्मा प्रत्येक क्षणे
स्थिरता (ध्रौव्य), विनाश (व्यय) अने जनन (उत्पाद)थी युक्त रहे छे.
विशेषार्थ : भिन्न भिन्न मतवादीओ द्वारा आत्माना स्वरूपनी जे विविध प्रकारे
कल्पना करवामां आवी छे तेनुं अहीं निराकरण करवामां आव्युं छे. जेम केशून्यैकान्तवादी
(माध्यमिक) केवळ आत्माने ज नहि पण समस्त विश्वने य शून्य माने छे. तेमना मतनुं
निराकरण करवा माटे अहीं
‘एकान्ततः नो शून्यः’ अर्थात् आत्मा सर्वथा शून्य नथी, एम कहेवामां
आव्युं छे. वैशेषिक मुक्ति अवस्थामां बुद्धि आदि नव विशेष गुणोनो उच्छेद मानीने तेने जड
जेवो माने छे. संसार अवस्थामां पण तेओ तेने स्वयं चेतन नथी मानता पण चेतन ज्ञानना
समवायथी तेने चेतन स्वीकारे छे. जे औपचारिक छे. आवी अवस्थामां ते स्वरूपथी जड ज
कहेवाशे. तेमना आ अभिप्रायनुं निराकरण करवा माटे अहीं
‘न जडः’ अर्थात् ते जड नथी, एवो
निर्देश करवामां आव्यो छे. चार्वाक मतानुयायी आत्माने पृथ्वी आदि पांच भूतोथी उत्पन्न थयेलो
माने छे. तेमना अभिप्राय प्रमाणे तेनुं अस्तित्व गर्भथी मरण पर्यन्त ज रहे छे.
गर्भना पहेलां
अने मरण पछी तेनुं अस्तित्व रहेतुं नथी. तेमना आ अभिप्रायने दोषवाळुं बतावीने अहीं
‘नभूतजनितः’ अर्थात् ते पांच भूतोथी उत्पन्न थयो नथी, एम कहेवामां आव्युं छे. नैयायिक
आत्माने सर्वथा कर्ता माने छे. तेमना अभिप्रायनुं लक्ष्य करीने अहीं ‘नो कर्मभावं गतः अर्थात् ते

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सर्वथा कर्तृत्व अवस्थाने प्राप्त नथी, एम कहेवामां आव्युं छे. पुरुषाद्वैतवादी केवळ परंब्रह्मनो ज
स्वीकार करीने तेना सिवाय समस्त पदार्थोनो निषेध करे छे. लोकमां जे विविध प्रकारना पदार्थ
जोवामां आवे छे तेनुं कारण अविद्याजनित संस्कार छे. एमना उपर्युक्त मतनुं निराकरण करतां
अहीं
‘नैकः’ अर्थात् आत्मा एक ज नथी, एवो निर्देश करवामां आव्यो छे. बौद्ध (सौत्रान्तिक)
तेने सर्वथा क्षणिक माने छे. तेमनो अभिप्राय सदोष बतावतां अहीं ‘न क्षणिकः’ अर्थात् आत्मा
सर्वथा क्षणमां नाश पामनार नथी, एम कह्युं छे. वैशेषिक आदि आत्माने विश्वव्यापक माने छे.
तेमना मतने दोषपूर्ण बतावीने अहीं
‘न विश्वविततः’अर्थात् ते समस्त लोकमां व्याप्त नथी, एवो
निर्देश कर्यो छे. सांख्यमतानुयायी आत्माने सर्वथा नित्य स्वीकारे छे. तेमना आ अभिमतने दूषित
ठरावीने अहीं
‘न नित्यः’ अर्थात् ते सर्वथा नित्य नथी, एवो निर्देश करवामां आव्यो छे. अहीं
‘एकान्ततः’ आ पदनो संबंध सर्वत्र समजवो जोईए. जेम के‘एकान्ततः नो शून्यः, एकान्ततः न
: जडः’ इत्यादि. जैनमतानुसार आत्मानुं स्वरूप केवुं छे, एनो निर्देश करतां आगळ एम बताव्युं
छे के नयविवक्षा प्रमाणे ते आत्मा प्राप्त शरीरनी बराबर अने चेतन छे. ते व्यवहारथी स्वयं
कर्मोनो कर्ता अने तेमना फळनो भोक्ता पण छे. प्रकृति कर्ता अने पुरुष भोक्ता छे, आ सांख्य
सिद्धांत अनुसार कर्ता एक (प्रकृति) अने फळनो भोक्ता बीजो (पुरुष) होय; एम संभवतुं नथी.
जीवादि छ द्रव्योमांथी प्रत्येक क्षणे क्षणे उत्पाद, व्यय अने ध्रौव्यथी संयुक्त रहे छे. कोई पण द्रव्य
सर्वथा क्षणिक अथवा नित्य नथी. १३४.
(शार्दूलविक्रीडित)
क्वात्मा तिष्ठति कीद्रशः स कलितः केनात्र यस्येद्रशी
भ्रान्तिस्तत्र विकल्पसंभृतमना यः कोऽपि स ज्ञायताम्
किंचान्यस्य कुतो मतिः परमियं भ्रान्ताशुभात्कर्मणो
नित्वा नाशमुपायतस्तदखिलं जानाति ज्ञाता प्रभुः
।।१३५।।
अनुवाद : आत्मा क्यां रहे छे, ते केवो छे तथा अहीं कोणे तेने जाण्यो
छे; आ जातनी भ्रान्ति जेने थई रही छे त्यां उपर्युक्त विकल्पोथी परिपूर्ण चित्तवाळो
जे कोई पण छे तेणे आत्मा जाणवो जोईए. कारण के आ प्रकारनी बुद्धि अन्य
(जड)ने थई शकती नथी. विशेषता केवळ एटली छे के आत्माने उत्पन्न थयेलो
उपर्युक्त विचार अशुभ कर्मना उदयथी भ्रांतियुक्त छे. आ भ्रान्तिनो प्रयत्नपूर्वक नाश
करीने ज्ञाता समस्त विश्वने जाणे छे.
विशेषार्थ : आत्मा अतीन्द्रिय छे. तेथी तेने अल्पज्ञानी आ चर्मचक्षुओथी जोई शकता
नथी. अद्रश्य होवाथी ज अनेक प्राणीओने ‘आत्मा क्यां रहे छे, केवो छे अने कोना द्वारा जोवामां

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आव्यो छे’ इत्यादि प्रकारनो संदेह घणुं करीने आत्माना विषयमां थया करे छे आ संदेह दूर करतां
ंअहीं एम बताव्युं छे के जे कोईनेय उपर्युक्त संदेह थाय छे, वास्तवमां ते ज आत्मा छे कारण
के एवो विकल्प शरीर आदि जड पदार्थने थई शकतो नथी. ते तो
‘अहम् अहम्’ अर्थात् हुं जाणुं
छुं, हुं अमुक कार्य करूं छुं; ए रीते ‘हुं हुं’ ए उल्लेखथी प्रतीतिमां आवता चेतन आत्माने ज
थई शके छे. एटलुं अवश्य छे के ज्यां सुधी मिथ्यात्व आदि अशुभ कर्मोनो उदय रहे छे त्यां
सुधी जीवने उपर्युक्त भ्रांति रही शके छे. त्यार पछी ते तपश्चरणादि द्वारा ज्ञानावरणादिने नष्ट
करीने पोताना स्वभावानुसार अखिल पदार्थोनो ज्ञाता (सर्वज्ञ) बनी जाय छे. १३५.
(शार्दूलविक्रीडित)
आत्मा मूर्तिविवर्जितो ऽपि वपुषि स्थित्वापि दुर्लक्षतां
प्राप्तोऽपि स्फु रति स्फु टं यदहमित्युल्लेखतः संततम्
तत्किं मुह्यत शासनादपि गुरोर्भ्रान्तिः समुत्सृज्यता-
मन्तः पश्यत निश्चलेन मनसा तं तन्मुखाक्षव्रजाः
।।१३६।।
अनुवाद : आत्मा मूर्ति (रूप, रस, गंध, स्पर्श ) रहित होवा छतां पण
शरीरमां स्थिति होवा छतां पण तथा अद्रश्य अवस्थाने प्राप्त होवा छतां पण निरंतर
‘अहम्’ अर्थात् ‘हुं’ आ उल्लेखथी स्पष्टपणे प्रतीतिमां आवे छे. एवी अवस्थामां
हे भव्य जीवो! तमे आत्मोन्मुख इन्द्रिय समूहथी संयुक्त थईने केम मोहने प्राप्त
थाव छो? गुरुनी आज्ञाथी पण भ्रम छोडो अने अभ्यंतरमां निश्चळ मनथी ते
आत्मानुं अवलोकन करो. १३६.
(शार्दूलविक्रीडित)
व्यापी नैव शरीर एव यदसावात्मा स्फु रत्यन्वहं
भूतानन्वयतो न भूतजनितो ज्ञानी प्रकृत्या यतः
नित्ये वा क्षणिके ऽथवा न कथमप्यर्थक्रिया युज्यते
तत्रैकत्वमपि प्रमाण
द्रढया भेदप्रतीत्याहतम् ।।१३७।।
अनुवाद : आत्मा व्यापक नथी ज कारण के ते निरंतर शरीरमां ज
प्रतिभासित थाय छे. ते भूतोथी उत्पन्न पण नथी केमके तेनी साथे भूतोनो अन्वय
जोवामां आवतो नथी तथा ते स्वभावथी ज्ञाता पण छे. तेने सर्वथा नित्य अथवा
क्षणिक स्वीकारवाथी तेमां कोई प्रकारे अर्थ क्रिया बनी शकती नथी. तेमां एकत्व पण

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नथी केमके ते प्रमाणथी द्रढताने पामेली भेद प्रतीति द्वारा बाधित छे.
विशेषार्थ : जे वैशेषिक आदि आत्माने व्यापक माने छे तेमनुं लक्ष करीने अहीं
एम कहेवामां आव्युं छे के ‘आत्मा व्यापक नथी’ केमके ते शरीरमां ज प्रतिभासित थाय छे.
जो आत्मा व्यापक होय तो तेनी प्रतीति केवळ शरीरमां ज केम थाय? बीजे पण थवी जोईती
हती. परंतु शरीर सिवाय बीजे क्यांय पण तेनी प्राप्ति थती नथी. तेथी निश्चित छे के आत्मा
शरीर प्रमाण ज छे, नहि के सर्वव्यापक. ‘आत्मा पांच भूतोथी उत्पन्न थयो छे’ आ चार्वाक
मतने दूषित बतावतां अहीं एम कह्युं छे के आत्मा स्वभावथी ज ज्ञाता द्रष्टा छे तेथी ते
भूतजनित नथी. जो एम होय तो आत्मामां स्वभावथी चैतन्यगुण प्राप्त थवो जोईतो न हतो.
एनुं पण कारण ए छे के कार्य प्रायः पोताना उपादान कारण अनुसार ज उत्पन्न थाय छे,
जेम माटीमांथी उत्पन्न थनार घडामां माटीना ज गुण (मूर्तिकपणुं अने अचेतनपणुं आदि)
प्राप्त थाय छे. तेवी ज रीते जो आत्मा पंचभूतथी उत्पन्न थयो होत तो तेमां भूतना गुण
अचेतनपणुं आदि ज प्राप्त थवा जोईता हता, नहि के स्वाभाविक चेतनत्व आदि. परंतु तेमां
अचेतनपणानी विरुद्ध चेतनपणुं ज प्राप्त थाय छे, माटे सिद्ध छे के ते आत्मा पृथ्वी आदि
भूतोथी उत्पन्न थयो नथी. आत्माने सर्वथा नित्य अथवा क्षणिक मानतां तेमां घटनी जळधारण
आदि अर्थक्रियानी जेम कांई पण अर्थक्रिया न थई शके. जेम
- जो आत्माने कूटस्थ नित्य (त्रणे
काळे एक ज स्वरूपे रहेनार) स्वीकारवामां आवे तो तेमां कोई पण क्रिया (परिणाम के
परिस्पन्दनरूप) थई शके नहि. एवी अवस्थामां कार्यनी उत्पत्ति पहेलां कारणनो अभाव केवी
रीते कही शकाशे? कारण के ज्यां आत्मामां कदी कोई प्रकारनो विकार संभवित ज नथी त्यां
ते आत्मा जेवो भोगरूप कार्य करती वखते हतो तेवो ज ते तेना पहेलां पण हतो. तो पछी
शुं कारण छे के पहेलां पण भोगरूप कार्य न होय? कारण होवाथी ते होवुं ज जोईतुं हतुं
अने जो ते पहेलां न होय तो पछी पाछळथी पण उत्पन्न न थवुं जोईए. केम के भोगरूप
क्रियानो कर्ता आत्मा सदा एकरूप ज रहे छे. नहि तो तेनी कूटस्थ नित्यतानो विघात अवश्य
थाय. कारण के पहेलां जे तेनी अकर्तापणारूप अवस्था हती तेनो विनाश थईने कर्तापणारूप
नवी अवस्थानो उत्पाद थयो छे. आ ज कूटस्थ नित्यतानो विघात छे. ए ज रीते जो आत्माने
सर्वथा क्षणिक ज मानवामां आवे तो पण कोई प्रकारनी अर्थक्रिया थई शकशे नहि कारण के
कोई पण कार्य करवा माटे स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, अने इच्छा आदिनुं रहेवुं आवश्यक होय छे.
ते आ क्षणिक एकान्त पक्षमां संभव नथी. एनुं पण कारण ए छे के जेणे पहेलां कोई पदार्थने
प्रत्यक्ष करी लीधो होय तेने ज पाछळथी तेनुं स्मरण थाय छे अने त्यार पछी ज तेना उक्त
अनुभूत पदार्थना स्मरणपूर्वक फरीथी प्रत्यक्ष थतां प्रत्यभिज्ञान पण थाय छे. परंतु जो आत्मा
सर्वथा क्षणिक ज होय तो जे चित्तक्षणने प्रत्यक्ष थयुं हतुं ते तो ते ज क्षणे नष्ट थई गयुं
छे. एवी हालतमां तेना स्मरण अने प्रत्यभिज्ञाननी संभावना केवी रीते करी शकाय? तथा
उक्त स्मरण अने प्रत्यभिज्ञान विना कोई पण कार्य करवुं असंभव छे. आ रीते क्षणिक

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एकान्त पक्षमां बंध मोक्षादिनी पण व्यवस्था थई शकती नथी. तेथी आत्मा आदिने सर्वथा
नित्य अथवा क्षणिक न मानतां कथंचित् (द्रव्यद्रष्टिए) नित्य अने कथंचित् (पर्यायद्रष्टिए)
अनित्य स्वीकारवा जोईए. जे पुरुषाद्वैतवादी आत्माने परब्रह्मस्वरूपमां सर्वथा एक स्वीकारीने
विभिन्न आत्माओ अने अन्य सर्व पदार्थोनो निषेध करे छे तेमना मतनुं निराकरण करतां
अहीं एम बताव्युं छे के सर्वथा एकत्वनी कल्पना प्रत्यक्षादि प्रमाणोथी बाधित छे. ज्यां विविध
प्राणीओ अने घट-पटादि पदार्थोनी जुदी जुदी सत्ता प्रत्यक्ष ज स्पष्टपणे देखवामां आवे छे
त्यां उपर्युक्त सर्वथा एकत्वनी कल्पना भला केवी रीते योग्य कही शकाय छे? कदापि नहि.
ए ज रीते शब्दाद्वैत, विज्ञानाद्वैत अने चित्राद्वैत आदिनी कल्पना पण प्रत्यक्षादिथी बाधित
होवाना कारणे ग्राह्य नथी; एवो निश्चय करवो जोईए. १३७.
(शार्दूलविक्रीडित)
कुर्यात्कर्म शुभाशुभं स्वयमसौ भुङ्क्ते स्वयं तत्फलं
सातासातगतानुभूतिकलनादात्मा न चान्या
द्रशः
चिद्रुपः स्थितिजन्मभङ्गकलितः कर्मावृतः संसृतौ
मुक्तौ ज्ञान
द्रगेकमूर्तिरमलस्त्रैलोक्यचूडामणिः ।।१३८।।
अनुवाद : ते आत्मा स्वयं शुभ अने अशुभ कार्य करे छे अने स्वयं तेनुं
फळ पण भोगवे छे, कारण के शुभाशुभ कर्मना फळ स्वरूप सुखदुःखनो अनुभव
पण तेने ज थाय छे. आनाथी भिन्न आत्मानुं बीजुं स्वरूप होई ज शके नहि.
स्थिति (ध्रौव्य), जन्म (उत्पाद) अने भंग (व्यय) सहित जे चेतन आत्मा संसार
अवस्थामां कर्मोना आवरण सहित होय छे ते ज मुक्ति अवस्थामां कर्ममळ रहित
थईने ज्ञान-दर्शनरूप अद्वितीय शरीर संयुक्त थयो थको त्रणे लोकमां चूडामणि रत्न
समान श्रेष्ठ थई जाय छे.
विशेषार्थ : सांख्य प्रकृतिने कर्ता अने पुरुषने भोक्ता माने छे. आ ज अभिप्राय
लक्षमां राखीने अहीं एम बताव्युं छे के जे आत्मा कर्मोनो कर्ता छे ते ज तेमना फळनो
भोक्ता पण थाय छे. कर्ता एक अने फळनो भोक्ता अन्य ज होय, ए कल्पना युक्ति संगत
नथी. ए सिवाय अहीं जे बे वार
‘स्वयम्’ पदनो प्रयोग थयो छे तेथी ए पण जणाय
छे के जेवी रीते इश्वर कर्तृत्व वादीओना मतमां कर्मोनुं करवुं अने तेमना फळनुं भोगववुं
इश्वर प्रेरणाथी थाय छे तेवुं जैन सिद्धांत अनुसार संभवित नथी. जैनमत प्रमाणे आत्मा
स्वयं कर्ता अने पोते ज तेमना फळनो भोक्ता पण छे. तथा ते ज पुरुषार्थ प्रगट करीने
कर्ममळ रहित थयो थको स्वयं परमात्मा पण बनी जाय छे. अहीं सर्वथा नित्यपणुं अथवा

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अनित्यत्वनी कल्पनाने दोषयुक्त प्रगट करतां ए पण बताव्युं छे के आत्मा आदि प्रत्येक
पदार्थ सदा उत्पाद, व्यय अने ध्रौव्यथी संयुक्त रहे छे. जेम माटीमांथी उत्पन्न थनार घटमां
माटीरूप पूर्वपर्यायनो व्यय, घटरूप नवीन पर्यायनो उत्पाद तथा पुद्गल द्रव्य उक्त बन्नेय
अवस्थामां ध्रुव स्वरूपे स्थित रहे छे. १३८.
(वसंततिलका)
आत्मानमेवमधिगम्य नयप्रमाण-
निक्षेपकादिभिरभिश्रयतैकचित्ताः
भव्या यदीच्छत भवार्णवमुत्तरीतु
मुत्तुङ्गमोहमकरोग्रतरं गभीरम् ।।१३९।।
अनुवाद : आ रीते नय, प्रमाण अने निक्षेप आदि द्वारा आत्मानुं स्वरूप
जाणीने हे भव्य जीवो! जो तमे उन्नत मोहरूपी मगरोथी अतिशय भयानक अने
गंभीर आ संसाररूप समुद्रथी पार थवानी इच्छा राखता हो तो पछी एकाग्रचित्त
थईने उपर्युक्त आत्मानो आश्रय करो.
विशेषार्थ : ज्ञाताना अभिप्रायने नय कहे छे. तात्पर्य ए छे के प्रमाण द्वारा ग्रहण
करवामां आवेल वस्तुना एकदेश (द्रव्य अथवा पर्याय आदिमां) मां वस्तुनो निश्चय करवो तेने नय
कहेवामां आवे छे. ते द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक नयना भेदथी बे प्रकारना छे. जे द्रव्यनी मुख्यताथी
वस्तुने ग्रहण करे छे ते द्रव्यार्थिक तथा जे पर्यायनी प्रधानताथी वस्तुने ग्रहण करे छे ते
पर्यायार्थिकनय कहेवाय छे. एमां द्रव्यार्थिक नयना त्रण भेद छे
नैगम, संग्रह अने व्यवहार. जे
पर्यायकलंकथी रहित सत्ता आदि सामान्यनी विवक्षाथी सर्वमां अभेद (एकत्व)ने ग्रहण करे छे
ते शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रहनय कहेवाय छे. एनाथी विपरीत जे पर्यायनी प्रधानताथी बे आदि अनंत
भेदरूप वस्तुने ग्रहण करे छे तेने अशुद्ध द्रव्यार्थिक व्यवहारनय कहेवामां आवे छे. जे संग्रह अने
व्यवहार आ बन्नेय नयोना परस्पर भिन्न बन्ने (अभेद अने भेद) विषयोने ग्रहण करे छे तेनुं
नाम नैगमनय छे. पर्यायार्थिक नय चार प्रकारनो छे
ॠजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ अने एवंभूत.
एमां जे त्रण काळ विषयक पर्यायोने छोडीने केवळ वर्तमानकाळ विषयक पर्यायने ग्रहण करे छे
ते ॠजुसूत्रनय छे. जे लिंग, संख्या (वचन), काळ, कारक अने पुरुष (उत्तमादि) आदिनो
व्यभिचार दूर करीने वस्तुनुं ग्रहण करे छे तेने शब्दनय कहे छे. लिंगव्यभिचार
जेम स्त्रीलिंगमां
पुल्लिंगनो प्रयोग करवो. जेमके ताराने माटे स्वाति शब्दनो प्रयोग करवो. इत्यादि व्यभिचार
शब्दनयनी द्रष्टिए अग्राह्य नथी. जे एक ज अर्थ शब्दभेदथी अनेक रूपे ग्रहे छे तेने शब्दनय
कहे छे. जेम एक ज व्यक्ति इन्दन (शासन) क्रियाना निमित्ते इन्द्र, शकन (सामर्थ्यरूप) क्रियाथी

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शक्र तथा पुरोना (नगरोना) विदारण करवाथी पुरंदर कहेवाय छे. आ नयनी द्रष्टिमां पर्याय
शब्दोनो प्रयोग अग्राह्य छे केमके एक अर्थनो बोधक एक ज शब्द होय छे.
समानार्थक अन्य
शब्द तेनो बोध करावी शकतो नथी. पदार्थ जे क्षणे जे क्रियामां परिणत होय तेने जे ते ज क्षणे
ते ज स्वरूपे ग्रहे छे तेने एवंभूतनय कहे छे. आ नयनी अपेक्षाए इन्द्र ज्यारे शासनक्रियामां
परिणत होय त्यारे ज ते इन्द्र शब्दनुं वाच्य थाय, नहि के अन्य समयमां पण. प्रमाण सम्यग्ज्ञानने
कहेवामां आवे छे. ते प्रत्यक्ष अने परोक्षना भेदथी बे प्रकारनुं छे. जे ज्ञान इन्द्रिय, मन, प्रकाश
अने उपदेशादि बाह्य निमित्तनी अपेक्षाए उत्पन्न थाय छे ते परोक्ष कहेवाय छे. तेना बे भेद
छे
मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान. जे ज्ञान इन्द्रियो अने मननी सहायताथी उत्पन्न थाय छे तेने
मतिज्ञान कहे छे. ते मतिज्ञानथी जाणेली वस्तुना विषयमां जे विशेष विचार उत्पन्न थाय छे ते
श्रुतज्ञान कहेवाय छे. प्रत्यक्ष प्रमाण त्रण प्रकारनुं छे.
अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान अने केवळज्ञान.
एमां जे इन्द्रिय आदिनी अपेक्षा न करतां द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावनी मर्यादापूर्वक रूपी (पुद्गल
अने तेनाथी संबद्ध संसारी प्राणी) पदार्थनुं ग्रहण करे छे तेने अवधिज्ञान कहे छे. जे जीवोना
मनोगत पदार्थने जाणे छे ते मनःपर्ययज्ञान कहेवाय छे. समस्त विश्वने युगपद ग्रहण करनार
ज्ञान केवळज्ञान कहेवाय छे. आ त्रणेय ज्ञान अतीन्द्रिय छे. निक्षेप शब्दनो अर्थ मूकवुं थाय छे.
प्रत्येक शब्दनो प्रयोग अनेक अर्थोमां थया करे छे. तेमांथी क्या वखते क्यो अर्थ इष्ट छे, ए
बताववुं ते निक्षेप विधिनुं कार्य छे. ते निक्षेप नाम, स्थापना, द्रव्य अने भावना भेदथी चार प्रकारना
छे. वस्तुमां विवक्षित गुण अने क्रिया आदि न होवा छतां पण केवळ लोकव्यवहार माटे तेनुं नाम
राखवाने नामनिक्षेप कहेवाय छे.
- जेम कोई व्यक्तिनुं नाम लोकव्यवहार माटे देवदत्त (देव द्वारा
न अपावा छतां) राखवुं. काष्टकर्म, पुस्तकर्म, चित्रकर्म अने पासाओना निक्षेप आदिमां ‘ते आ
छे’ ए प्रकारनी जे कल्पना करवामां आवे छे तेने स्थापना निक्षेप कहे छे. ते बे प्रकारनो छे
सद्भाव स्थापना निक्षेप अने असद्भाव स्थापना निक्षेप. स्थाप्यमान वस्तुना आकारवाळी कोई
अन्य वस्तुमां जे तेनी स्थापना करवामां आवे छे तेने सद्भाव स्थापना निक्षेप कहेवामां आवे
छे
जेम ॠषभ जिनेन्द्रना आकारभूत पाषाणमां ॠषभ जिनेन्द्रनी स्थापना करवी. जे वस्तु
स्थाप्यमान पदार्थना आकारनी नथी छतां पण तेमां ते वस्तुनी कल्पना करवी तेने असद्भाव
स्थापना निक्षेप कहेवाय छे,
जेम शतरंजनी गोटीमां हाथी, घोडा आदिनी कल्पना करवी. भविष्यमां
थनारी पर्यायनी मुख्यताथी वस्तुनुं कथन करवुं ते द्रव्य निक्षेप कहेवाय छे. वर्तमान पर्यायथी लक्षित
वस्तुना कथनने भावनिक्षेप कहेवामां आवे छे. आ रीते आ निक्षेपोना विधानथी अप्रकृतनुं निराकरण
अने प्रकृतनुं ग्रहण थाय छे. १३९.
(मालिनी)
भवरिपुरिह तावद्दुःखदो यावदात्मन्
तव विनिहितधामा कर्मसंश्लेषदोषः

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स भवति किल रागद्वेषहेतोस्तदादौ
झटिति शिवसुखार्थी यत्नतस्तौ जहीहि
।।१४०।।
अनुवाद : हे आत्मन्! अहीं संसाररूप शत्रु त्यां सुधी ज दुःख दई शके छे
ज्यां सुधी तारामां ज्ञानरूप ज्योतिने नष्ट करनार कर्मबंधरूप दोषे स्थान प्राप्त करेलुं
छे. ते कर्मबंधरूप दोष निश्चयथी राग अने द्वेषना निमित्ते थाय छे. तेथी मोक्षसुखनो
अभिलाषी थईने तुं सर्वप्रथम शीघ्रताथी प्रयत्नपूर्वक ते बन्नेने छोडी दे. १४०.
(स्रग्धरा)
लोकस्य त्वं न कश्चिन्न स तव यदिह स्वार्जितं भुज्यते कः
संबन्धस्तेन सार्घं तदसति सति वा तत्र कौ रोषतोषौ
काये ऽप्येवं जडत्वात्तदनुगतसुखादावपि ध्वंसभावा-
देवंनिश्चित्य हंस स्वबलमनुसर स्थायि मा पश्य पार्श्वम्
।।१४१।।
अनुवाद : हे आत्मन्! न तो तमे लोक (कुटुंबी जन आदि)ना कोई छो
अने न ते पण तमारुं कोई होई शके. अहीं तमे जे कांई कमाया छो ते ज (तमारे)
भोगववुं पडे छे. तमारो ते लोक साथे भला शुं संबंध छे? अर्थात् कांई पण नथी.
तो पछी लोक न होय तो विषाद अने ते होय तो हर्ष शा माटे करो छो? एवी
ज रीते शरीरमां रागद्वेष न करवो जोईए, केम के ते जड (अचेतन) छे. तथा शरीर
साथे संबंधवाळा इन्द्रियविषय भोगजनित सुखादिकमां पण तमारे राग-द्वेष करवो
उचित नथी, केम के ते विनश्वर छे. आ रीते निश्चय करीने तमे तमारी स्थिर
आत्मशक्तिनुं अनुसरण करो. ते निकटवर्ती लोकने स्थायी न समजो.
विशेषार्थ : कुटुंब अने धनधान्यादि बाह्य सर्व पदार्थोनो आत्मा साथे कांई पण
संबंध नथी. ते प्रत्यक्ष ज पोतानाथी जुदा देखाय छे. तेथी तेमना संयोगमां हर्षित अने
वियोगमां खेदखिन्न थवुं योग्य नथी. बीजुं तो शुं कहीए? जे शरीर सदा आत्मानी साथे
ज रहे छे तेनो पण संबंध आत्मा साथे कांई पण नथी; कारण के आत्मा चेतन छे अने
शरीर अचेतन छे. स्पर्शनादि इन्द्रियोनो संबंध पण ते ज शरीर साथे छे, नहि के ते चेतन
आत्मा साथे. इन्द्रियविषयभोगोथी उत्पन्न थनारूं सुख विनश्वर छे
स्थायी नथी. तेथी हे
आत्मन्! शरीर अने तेनी साथे संबंधवाळा सुखदुःखादिमां राग-द्वेष न करतां पोताना स्थायी
आत्मरूपनुं अवलोकन कर. १४१.

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(शार्दूलविक्रीडित)
आस्तामन्यगतौ प्रतिक्षणलसद्दुःखाश्रितायामहो
देवत्वेऽपि न शान्तिरस्ति भवतो रम्ये ऽणिमादिश्रिया
यत्तस्मादपि मृत्युकालकलयाधस्ताद्धठात्पात्यसे
तत्तन्नित्यपदं प्रति प्रतिदिनं रे जीव यत्नं कुरु
।।१४२।।
अनुवाद : हे आत्मन्! क्षणे क्षणे थतां दुःखना स्थानभूत अन्य नरक, तिर्यंच
अने मनुष्यगति तो दूर रहो; परंतु आश्चर्य तो ए छे के अणिमा आदिरूप लक्ष्मीथी
रमणीय देवगतिमां पण तने शान्ति नथी. कारण के त्यांथी पण तुं मृत्युकाळ द्वारा
बळजोरीथी नीचे पडाय छे. तेथी तुं प्रतिदिन ते नित्यपद अर्थात् अविनश्वर मोक्ष
प्रत्ये प्रयत्न कर. १४२.
(शार्दूलविक्रीडित)
यद् द्रष्टं बहिरङ्गनादिषु चिरं तत्रानुरागो ऽभवत्
भ्रान्त्या भूरि तथापि ताम्यसि ततो मुक्त्वा तदन्तर्विश
चेतस्तत्र गुरोः प्रबोधवसतेः किंचित्तदाकर्ण्यते
प्राप्ते यत्र समस्तदुःखविरमाल्लभ्येत नित्यं सुखम्
।।१४३।।
अनुवाद : हे चित्त! ते बाह्य स्त्री आदि पदार्थोमां जे सुख जोयुं छे तेमां तने
भ्रांतिथी चिरकाळ सुधी अनुराग थयो छे. छतां पण तुं तेनाथी अधिक संतप्त थई रह्यो
छे. तेथी तेने छोडीने पोताना अंतरात्मामां प्रवेश कर. तेना विषयमां सम्यग्ज्ञानना
आधारभूत गुरु पासेथी एवुं कांईक सांभळवामां आवे छे के जे प्राप्त थतां समस्त
दुःखोथी छूटकारो पामीने अविनश्वर (मोक्ष) सुख प्राप्त करी शकाय छे. १४३.
(पृथ्वी)
किमालकोलाहलैरमलबोधसंपन्निधेः
समस्ति यदि कौतुकं किल तवात्मनो दर्शने
निरुद्धसकलेन्द्रियो रहसि मुक्त संगग्रहः
कियन्त्यपि दिनान्यतः स्थिरमना भवान् पश्यतु
।।१४४।।
अनुवाद : हे जीव! जो तने निर्मळ ज्ञानरूप संपत्तिना आश्रयभूत आत्माना