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शुद्धे ऽन्या
तद्वन्दे विपुलप्रमोदसदनं चिद्रूपमेकं महः
तथा चन्द्र, सूर्य अने अग्निनी प्रभानी अपेक्षाए अनंतगुणी प्रभाथी युक्त छे;
ते चैतन्यरूप तेजनो अनुभव थई जतां आश्चर्य छे के अन्य समस्त पर पदार्थ
शीघ्र ज नष्ट थई जाय छे अर्थात् तेमनो पछी विकल्प ज रहेतो नथी. अतिशय
आनंद उत्पन्न करनार ते एक चैतन्यरूप तेजने हुं नमस्कार करूं छुं. १०८.
जाता यत्र न कर्मकायघटना नो वाग् न च व्याधयः
र्नित्यं तत्पदमाश्रिता निरुपमाः सिद्धाः सदा पान्तु वः
रही नथी, ज्यां केवळ निर्मळज्ञानरूप अद्वितीय शरीरने धारण करनार प्रभावशाळी
आत्मा ज सदा प्रकाशमान छे; ते मोक्षपद पामेला अनुपम सिद्ध परमेष्ठी सर्वदा
आपनी रक्षा करो. १०९.
ब्रूमः किंचिदिह प्रबोधनिधिभिर्ग्राह्यं न किंचिच्छलम्
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छीए. सम्यग्ज्ञानरूप निधिने धारण करनार विद्वानोए आमां कांई छळ नहीं
समजवुं जोईए. कारण के सर्व कर्मोना अधिपतिस्वरूप मोह, शक्तिशाळी
अंतरायरूप शत्रु तथा दर्शनावरण अने ज्ञानावरण आ चार घाति कर्मो विद्यमान
होय त्यारे मारा जेवा अल्पज्ञानीओने तेवी उत्कृष्ट बुद्धि क्यांथी होई शके? ११०.
शृङ्गारादिरसैः प्रमोदजनकं व्याख्यानमातन्वते
येभ्यस्तत्परमात्मतत्त्वविषयं ज्ञानं तु ते दुर्लभाः
विस्तार करीने तेमने मुग्ध करे छे ते कविओ तो अहीं घरे घरे अनेक छे. पण जेमनी
पासेथी परमात्मतत्त्व संबंधी ज्ञान प्राप्त थाय छे ते तो दुर्लभ ज छे. १११.
मोहात्सर्वजनस्य चेतसि सदा सत्सु स्वभावादपि
शृङ्गारादिरसं तु सर्वजगतो मोहाय दुःखाय च
करे छे. उक्त दोषोनो नाश करवा तथा सम्यग्ज्ञान प्राप्त करवाना उद्देशथी रचवामां
आवेलुं कविनुं काव्य सफळ थाय छे. एनाथी विपरीत शृंगारादि रसप्रधान काव्य
तो सर्व जीवोने मोह अने दुःख ज उत्पन्न करनार थाय छे. ११२.
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मार्गं न पश्यति जनो जगति प्रशस्तम्
तेनी आंखमां मिथ्या उपदेशरूप धूळ पण फेंके छे. तो पछी एवी हालतमां तेनुं गमन
अनिश्चित खोटा मार्गे केम न थाय? अर्थात् अवश्य थाय. ११३.
शुक्रासृग्वरयोषितामपि तनुर्मातुः कुगर्भे ऽजनि
चित्रं चन्द्रमुखीति जातमतिभिर्विद्वद्भिरावर्ण्यते
वीर्य अने रजथी निर्मित शरीर उत्पन्न थयुं छे. ते उत्तम स्त्री पण क्लेशजनक रस
आदि धातुओथी युक्त अने मळ आदिथी परिपूर्ण छे. छतां पण आश्चर्य छे के तेने
प्रतिभाशाळी विद्वान् चन्द्रमुखी (चन्द्र जेवा मुखवाळी) बतावे छे. ११४.
कुचौ मांसोच्छ्रायौ जठरमपि विष्ठादिघटिका
तदाधारस्थूणे किमिह किल रागाय महताम्
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तुच्छ घडा समान छे जघन मळ छोडवाना यंत्र समान छे अने बन्ने पग ते यंत्रना
आधारभूत स्तंभो समान छे; आवी ते स्त्री शुं महान पुरुषो माटे रागनुं कारण
थई शके? अर्थात् थई शकती नथी. ११५.
अनुरागरूपी अग्निमां रांधे छे, ए घणा खेदनी वात छे.
विषयभोगोथी संतप्त करे छे. ११६.
येनैते प्रतिजन्तु हन्तुमनसः क्रोधादयो दुर्जयाः
तज्जानीहि समस्तदोषविषमं स्त्रीरूपमेतद्ध्रुवम्
शत्रु प्रत्येक प्राणीना घातमां तत्पर रहे छे तथा जेना द्वारा आ संसाररूपी नदी
पार करवी अशक्य बनी जाय छे. हे भाई! तुं ते स्त्रीना सौन्दर्यने निश्चयथी
समस्त दोषोवाळुं होवाने कारणे कष्टदायक समज. ११७.
पाशाः पङ्कजलोचनादिविषयाः सर्वत्र सज्जीकृताः
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हा कष्टं परजन्मने ऽपि न विदः क्कापीति धिङ्मूर्खताम्
स्त्री आदि विषयरूपी जाळो तैयार करी लीधी छे. आ मूर्ख प्राणी ते इन्द्रिय
विषयरूपी जाळमां फसाई जाय छे अने ते विषय भोगोने उत्तम अने स्थायी
समजीने परलोकमां पण तेमनी इच्छा करे छे, ए घणा खेदनी वात छे. परंतु
विद्वान् पुरुष तेमनी अभिलाषा आ लोक अने परलोकमांथी क्यांय पण करता
नथी. ते मूर्खताने धिक्कार छे. ११८.
पश्यत्येेष जनो ऽसमञ्जसमसद्बुधिर्ध्रुवं व्यापदे
यत् शश्वत्सुखसागरानिव सतश्चेतःप्रियान् मन्यते
दुःखदायक विषयसुखने सुखदायक माने छे. परंतु वास्तवमां ते निश्चयथी आपत्तिजनक
ज छे. जे आ विषयभोग नरकमां अनंत दुःख आपनार अने अस्थिर छे तेमने
ते सर्वदा चित्तने प्रिय लागनारा सुखना समुद्र समान माने छे. ११९.
क्रोधाद्याश्च तदीयपेटकमिदं तत्संनिधौ जायते
न स्वं चेतयते लभेत विपदं ज्ञातुः प्रभोः कथ्यताम्
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आवेला प्रयोगथी व्याकुळ थयेल प्राणी तेने वश थईने पोताना आत्मस्वरूपनो विचार
करता नथी, तेथी ते विपत्तिने प्राप्त थाय छे. ते मोहरूप ठगथी प्राणीनी रक्षा करनार
ज्ञाता प्रभु (सर्वदा) छे तेथी ज ते ज्ञाता प्रभुनी ज प्रार्थना करवी. १२०.
सर्वेषां टिरिटिल्लितानि पुरतः पश्यन्ति नो ब्यापदः
मन्यन्ते यदहो तदत्र विषमं मोहप्रभोः शासनम्
जोता नथी. आश्चर्य छे के जे पुत्र अने पत्नी आदि विजळी समान चंचळ (अस्थिर)
छे तेमने ते लोको स्थिर माने छे तथा प्रत्यक्ष पर (भिन्न) देखावा छतां तेमने स्वकीय
समजे छे आ मोहरूपी राजानुं विषम शासन छे. १२१.
कुतो लभ्या लक्ष्मीः क इह नृपतिः सेव्यत इति
अपि ज्ञातार्थनामिह महदहो मोहचरितम्
करवी? इत्यादि विकल्पोनो समूह अहीं तत्त्वज्ञ सज्जन पुरुषोना मनने पण जड
बनावी दे छे, ए शोचनीय छे. आ बधी मोहनी महालीला छे. १२२.
कुरुध्वं तत्तूर्णं किमपि निजकार्यं ऐबत बुधाः
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पुनः स्यान्न स्याद्वा किमपरवचोडम्बरशतैः
फरीथी प्राप्त न करवो पडे. बीजा सेंकडो वचनोना बाह्य डोळथी तमारुं कांई पण
इष्ट सिद्ध थवानुं नथी. आ जे तमने उत्तम मनुष्य पर्याय आदि स्वहित साधक
सामग्री प्राप्त थई छे ते फरीथी प्राप्त थशे अथवा नहि थाय ए कांई नक्की नथी.
अर्थात् तेनुं फरी प्राप्त थवुं बहु ज कठण छे. १२३.
रागद्वेषादिदोषैरुपह्रतमनसो नेतरस्यानृतत्वात्
मुक्ते र्मूलं तमेकं भ्रमत किमु बहुष्वन्धवदुःपथेषु
कोईनुं वचन प्रमाण होई शकतुं नथी कारण के ते सत्यथी रहित छे एवो मनमां निश्चय
करीने हे बुद्धिमान् सज्जनो! जे सर्वज्ञ थई जवाथी मुक्तिनुं मूळ कारण छे ते ज एक
जिनेन्द्रदेवनो तमे समस्त तत्त्वोना परिज्ञान माटे आश्रय करो, आंधळानी जेम अनेक
कुमार्गोमां परिभ्रमण करवुं योग्य नथी. १२४.
संदिह्य तत्त्वमसमञ्जसमात्मबुद्धया
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विवाद करनार आंधळा समान आचरण करे छे. १२५.
पदार्थोने हेयरूपे बतावेल छे.
१०. प्रश्नव्याकरणांग ११. विपाकसूत्रांग अने १२. द्रष्टिवादांग आमां द्रष्टिवाद पण पांच
प्रकारना छे
९. प्रत्याख्याननामधेय १०. विद्यानुप्रवाद ११. कल्याणनामधेय १२. प्राणावाय १३. क्रियाविशाळ
अने १४ लोकबिन्दुसार. अंगबाह्य दशवैकालिक अने उत्तराध्ययन आदि भेदथी अनेक प्रकारना
छे. छतां पण तेना मुख्यपणे नीचेना चौद भेद बताव्या छे
व्यवहार १०. कल्प्याकल्प्य ११. महाकल्प्य १२. पुंडरीक १३. महापुंडरीक अने १४. निषिद्धिका
(विशेष जाणकारी माटे षट्खंडागम
श्रुतना अभ्यासनुं प्रयोजन पण ए ज छे, अन्यथा अगियार अंग नव पूर्वोनो अभ्यास करीने
पण द्रव्यलिंगी मुनि संसारमां ज परिभ्रमण कर्या करे छे. १२६.
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आ कारणे तेमणे अहीं एटला ज श्रुतनो प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करवो जोईए जे
मोक्षनुं बीजभूत थईने आत्मानुं हित करनार होय. १२७.
कार्यः सोऽपि प्रमाणं वदत किमपरेणालकोलाहलेन
भो भो भव्या यतध्वं
ज प्रमाण मानवा जोईए. बीजा व्यर्थ कोलाहलथी शुं प्रयोजन सिद्ध थशे, ए
आप ज बतावो. तेथी छद्मस्थ (अल्पज्ञ) अवस्था विद्यमान होवा छतां सिद्धांतना
मार्गे प्राप्त थयेल आत्मानुभववडे प्रबोधने पामीने आप सम्यग्दर्शन अने
सम्यग्ज्ञाननी निधिस्वरूप आत्माना विषयमां प्रीतियुक्त थईने प्रयत्न करो
छे, प्रमाण मानवा जोईए. जो के वर्तमानमां ते अही विद्यमान नथी तोपण परंपराप्राप्त तेमना
वचन (जिनागम) तो विद्यमान छे ज. तेना द्वारा प्रबोध प्राप्त करीने भव्य जीव आत्मकल्याण
करवामां प्रयत्नशील थई शके छे. १२८.
निश्चितपणे यथार्थस्वरूपे प्रतिभासे छे. १२९.
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स्वीकुर्वन् कृतसंवरः स्थिरमना ज्ञानी तु तत्तत्क्षणात्
नेयं तन्नयति प्रभुं स्फु टतरज्ञानैकसूतोज्झितः
थता थका तत्क्षण अर्थात् क्षणमात्रमां नष्ट करी दे छे. ते योग्य ज छे
सारथी विनानो होय तो ते पोताना लई जवा योग्य प्रभु (आत्मा अने राजा) ने
इष्ट स्थाने लई जई शकतो नथी.
सम्यग्ज्ञान विना करवामां आवेलुं तप दुःसह कायकलेशोथी संयुक्त होवा छतां पण आत्माने
मोक्षपदमां पहोंचाडी शकतुं नथी. ए ज कारणे जे कर्मो अज्ञानी जीव करोडो भवोमां पण नष्ट
करी शकतो नथी तेमनो सम्यक्ज्ञानी जीव क्षणमात्रमां ज नाश करी नाखे छे. एनुं कारण ए छे
के अज्ञानी जीवने निर्जरानी साथो साथ नवा कर्मोनो आस्रव पण थया करे छे, तेथी ते कर्मरहित
थई शकतो नथी. परंतु एनाथी उल्टुं ज्ञानी जीवने ज्यां नवा कर्मनो आस्रव अटकी जाय छे त्यां
पूर्वसंचित कर्मनी निर्जरा पण थाय छे. तेथी ज ते शीघ्र कर्मोथी रहित थई जाय छे. १३०.
भ्राम्यन्नक्रादिकीर्णे मृतिजननलसद्वाडवावर्तगर्ते
जळजंतुओथी परिपूर्ण छे, तथा मृत्यु अने जन्मरूपी वडवाग्नि अने वमळना खाडारूप
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शक्तिरहित छे
पार कोई पण रीते पामी शकतो नथी. १३१.
जैनी वागमलप्रदीपकलिका न स्याद्यदि द्योतिका
प्राप्तित्यागकृते पुनस्तनुभृतां दूरे मतिस्ता
होय तो पदार्थोनुं सारी रीते ज्ञान ज थई शकतुं नथी तो पछी एवी अवस्थामां
इष्टनी प्राप्ति अने अनिष्टना परित्याग माटे प्राणीओने ते प्रकारनी बुद्धि केवी रीते
थई शके? थई शके नहि. १३२.
लब्धवा स्वास्थ्यं कथमपि लसद्योगमुद्रावशेषम्
दुद्धृत्य स्वं सुखमयपदे धारयत्यात्मनैव
प्रकारे प्राप्त करीने आ आत्मा दुःखोथी परिपूर्ण संसाररूप खाडामांथी पोताने काढीने
पोतानी जाते ज सुखमय पद अर्थात् मोक्षमां धारण करे छे तेथी ते आत्मा ज धर्म
कहेवाय छे.
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थवाथी प्राप्त थयेली द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावरूप सामग्री द्वारा अनंतचतुष्टयरूप स्वास्थ्यनो लाभ थाय
छे. आ अवस्थामां एक मात्र ध्यानमुद्रा ज बाकी रहे छे. बाकीना बधा संकल्प-विकल्प छूटी जाय
छे. हवे आत्मा पोताने पोता द्वारा ज संसाररूप खाडामांथी काढीने मोक्षमां पहोंचाडी दे छे. तेथी
उपर्युक्त व्याख्या प्रमाणे वास्तवमां आत्मानुं नाम ज धर्म छे
नैको न क्षणिको न विश्वविततो नित्यो न चैकान्ततः
संयुक्तः स्थिरताविनाशजननैः प्रत्येकमेकक्षणे
छे अने न नित्य पण छे. परंतु चैतन्य गुणना आश्रयभूत ते आत्मा प्राप्त थयेल
शरीर प्रमाणे थतो थको स्वयं ज कर्ता अने भोक्ता पण छे. ते आत्मा प्रत्येक क्षणे
स्थिरता (ध्रौव्य), विनाश (व्यय) अने जनन (उत्पाद)थी युक्त रहे छे.
निराकरण करवा माटे अहीं
जेवो माने छे. संसार अवस्थामां पण तेओ तेने स्वयं चेतन नथी मानता पण चेतन ज्ञानना
समवायथी तेने चेतन स्वीकारे छे. जे औपचारिक छे. आवी अवस्थामां ते स्वरूपथी जड ज
कहेवाशे. तेमना आ अभिप्रायनुं निराकरण करवा माटे अहीं
माने छे. तेमना अभिप्राय प्रमाणे तेनुं अस्तित्व गर्भथी मरण पर्यन्त ज रहे छे.
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स्वीकार करीने तेना सिवाय समस्त पदार्थोनो निषेध करे छे. लोकमां जे विविध प्रकारना पदार्थ
जोवामां आवे छे तेनुं कारण अविद्याजनित संस्कार छे. एमना उपर्युक्त मतनुं निराकरण करतां
अहीं
तेमना मतने दोषपूर्ण बतावीने अहीं
ठरावीने अहीं
कर्मोनो कर्ता अने तेमना फळनो भोक्ता पण छे. प्रकृति कर्ता अने पुरुष भोक्ता छे, आ सांख्य
सिद्धांत अनुसार कर्ता एक (प्रकृति) अने फळनो भोक्ता बीजो (पुरुष) होय; एम संभवतुं नथी.
जीवादि छ द्रव्योमांथी प्रत्येक क्षणे क्षणे उत्पाद, व्यय अने ध्रौव्यथी संयुक्त रहे छे. कोई पण द्रव्य
सर्वथा क्षणिक अथवा नित्य नथी. १३४.
नित्वा नाशमुपायतस्तदखिलं जानाति ज्ञाता प्रभुः
जे कोई पण छे तेणे आत्मा जाणवो जोईए. कारण के आ प्रकारनी बुद्धि अन्य
(जड)ने थई शकती नथी. विशेषता केवळ एटली छे के आत्माने उत्पन्न थयेलो
उपर्युक्त विचार अशुभ कर्मना उदयथी भ्रांतियुक्त छे. आ भ्रान्तिनो प्रयत्नपूर्वक नाश
करीने ज्ञाता समस्त विश्वने जाणे छे.
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ंअहीं एम बताव्युं छे के जे कोईनेय उपर्युक्त संदेह थाय छे, वास्तवमां ते ज आत्मा छे कारण
के एवो विकल्प शरीर आदि जड पदार्थने थई शकतो नथी. ते तो
थई शके छे. एटलुं अवश्य छे के ज्यां सुधी मिथ्यात्व आदि अशुभ कर्मोनो उदय रहे छे त्यां
सुधी जीवने उपर्युक्त भ्रांति रही शके छे. त्यार पछी ते तपश्चरणादि द्वारा ज्ञानावरणादिने नष्ट
करीने पोताना स्वभावानुसार अखिल पदार्थोनो ज्ञाता (सर्वज्ञ) बनी जाय छे. १३५.
प्राप्तोऽपि स्फु रति स्फु टं यदहमित्युल्लेखतः संततम्
मन्तः पश्यत निश्चलेन मनसा तं तन्मुखाक्षव्रजाः
थाव छो? गुरुनी आज्ञाथी पण भ्रम छोडो अने अभ्यंतरमां निश्चळ मनथी ते
आत्मानुं अवलोकन करो. १३६.
भूतानन्वयतो न भूतजनितो ज्ञानी प्रकृत्या यतः
तत्रैकत्वमपि प्रमाण
जोवामां आवतो नथी तथा ते स्वभावथी ज्ञाता पण छे. तेने सर्वथा नित्य अथवा
क्षणिक स्वीकारवाथी तेमां कोई प्रकारे अर्थ क्रिया बनी शकती नथी. तेमां एकत्व पण
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जो आत्मा व्यापक होय तो तेनी प्रतीति केवळ शरीरमां ज केम थाय? बीजे पण थवी जोईती
हती. परंतु शरीर सिवाय बीजे क्यांय पण तेनी प्राप्ति थती नथी. तेथी निश्चित छे के आत्मा
शरीर प्रमाण ज छे, नहि के सर्वव्यापक. ‘आत्मा पांच भूतोथी उत्पन्न थयो छे’ आ चार्वाक
मतने दूषित बतावतां अहीं एम कह्युं छे के आत्मा स्वभावथी ज ज्ञाता द्रष्टा छे तेथी ते
भूतजनित नथी. जो एम होय तो आत्मामां स्वभावथी चैतन्यगुण प्राप्त थवो जोईतो न हतो.
एनुं पण कारण ए छे के कार्य प्रायः पोताना उपादान कारण अनुसार ज उत्पन्न थाय छे,
जेम माटीमांथी उत्पन्न थनार घडामां माटीना ज गुण (मूर्तिकपणुं अने अचेतनपणुं आदि)
प्राप्त थाय छे. तेवी ज रीते जो आत्मा पंचभूतथी उत्पन्न थयो होत तो तेमां भूतना गुण
अचेतनपणुं आदि ज प्राप्त थवा जोईता हता, नहि के स्वाभाविक चेतनत्व आदि. परंतु तेमां
अचेतनपणानी विरुद्ध चेतनपणुं ज प्राप्त थाय छे, माटे सिद्ध छे के ते आत्मा पृथ्वी आदि
भूतोथी उत्पन्न थयो नथी. आत्माने सर्वथा नित्य अथवा क्षणिक मानतां तेमां घटनी जळधारण
आदि अर्थक्रियानी जेम कांई पण अर्थक्रिया न थई शके. जेम - जो आत्माने कूटस्थ नित्य (त्रणे
परिस्पन्दनरूप) थई शके नहि. एवी अवस्थामां कार्यनी उत्पत्ति पहेलां कारणनो अभाव केवी
रीते कही शकाशे? कारण के ज्यां आत्मामां कदी कोई प्रकारनो विकार संभवित ज नथी त्यां
ते आत्मा जेवो भोगरूप कार्य करती वखते हतो तेवो ज ते तेना पहेलां पण हतो. तो पछी
शुं कारण छे के पहेलां पण भोगरूप कार्य न होय? कारण होवाथी ते होवुं ज जोईतुं हतुं
अने जो ते पहेलां न होय तो पछी पाछळथी पण उत्पन्न न थवुं जोईए. केम के भोगरूप
क्रियानो कर्ता आत्मा सदा एकरूप ज रहे छे. नहि तो तेनी कूटस्थ नित्यतानो विघात अवश्य
थाय. कारण के पहेलां जे तेनी अकर्तापणारूप अवस्था हती तेनो विनाश थईने कर्तापणारूप
नवी अवस्थानो उत्पाद थयो छे. आ ज कूटस्थ नित्यतानो विघात छे. ए ज रीते जो आत्माने
सर्वथा क्षणिक ज मानवामां आवे तो पण कोई प्रकारनी अर्थक्रिया थई शकशे नहि कारण के
कोई पण कार्य करवा माटे स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, अने इच्छा आदिनुं रहेवुं आवश्यक होय छे.
ते आ क्षणिक एकान्त पक्षमां संभव नथी. एनुं पण कारण ए छे के जेणे पहेलां कोई पदार्थने
प्रत्यक्ष करी लीधो होय तेने ज पाछळथी तेनुं स्मरण थाय छे अने त्यार पछी ज तेना उक्त
अनुभूत पदार्थना स्मरणपूर्वक फरीथी प्रत्यक्ष थतां प्रत्यभिज्ञान पण थाय छे. परंतु जो आत्मा
सर्वथा क्षणिक ज होय तो जे चित्तक्षणने प्रत्यक्ष थयुं हतुं ते तो ते ज क्षणे नष्ट थई गयुं
छे. एवी हालतमां तेना स्मरण अने प्रत्यभिज्ञाननी संभावना केवी रीते करी शकाय? तथा
उक्त स्मरण अने प्रत्यभिज्ञान विना कोई पण कार्य करवुं असंभव छे. आ रीते क्षणिक
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नित्य अथवा क्षणिक न मानतां कथंचित् (द्रव्यद्रष्टिए) नित्य अने कथंचित् (पर्यायद्रष्टिए)
अनित्य स्वीकारवा जोईए. जे पुरुषाद्वैतवादी आत्माने परब्रह्मस्वरूपमां सर्वथा एक स्वीकारीने
विभिन्न आत्माओ अने अन्य सर्व पदार्थोनो निषेध करे छे तेमना मतनुं निराकरण करतां
अहीं एम बताव्युं छे के सर्वथा एकत्वनी कल्पना प्रत्यक्षादि प्रमाणोथी बाधित छे. ज्यां विविध
प्राणीओ अने घट-पटादि पदार्थोनी जुदी जुदी सत्ता प्रत्यक्ष ज स्पष्टपणे देखवामां आवे छे
त्यां उपर्युक्त सर्वथा एकत्वनी कल्पना भला केवी रीते योग्य कही शकाय छे? कदापि नहि.
ए ज रीते शब्दाद्वैत, विज्ञानाद्वैत अने चित्राद्वैत आदिनी कल्पना पण प्रत्यक्षादिथी बाधित
होवाना कारणे ग्राह्य नथी; एवो निश्चय करवो जोईए. १३७.
सातासातगतानुभूतिकलनादात्मा न चान्या
मुक्तौ ज्ञान
पण तेने ज थाय छे. आनाथी भिन्न आत्मानुं बीजुं स्वरूप होई ज शके नहि.
स्थिति (ध्रौव्य), जन्म (उत्पाद) अने भंग (व्यय) सहित जे चेतन आत्मा संसार
अवस्थामां कर्मोना आवरण सहित होय छे ते ज मुक्ति अवस्थामां कर्ममळ रहित
थईने ज्ञान-दर्शनरूप अद्वितीय शरीर संयुक्त थयो थको त्रणे लोकमां चूडामणि रत्न
समान श्रेष्ठ थई जाय छे.
भोक्ता पण थाय छे. कर्ता एक अने फळनो भोक्ता अन्य ज होय, ए कल्पना युक्ति संगत
नथी. ए सिवाय अहीं जे बे वार
इश्वर प्रेरणाथी थाय छे तेवुं जैन सिद्धांत अनुसार संभवित नथी. जैनमत प्रमाणे आत्मा
स्वयं कर्ता अने पोते ज तेमना फळनो भोक्ता पण छे. तथा ते ज पुरुषार्थ प्रगट करीने
कर्ममळ रहित थयो थको स्वयं परमात्मा पण बनी जाय छे. अहीं सर्वथा नित्यपणुं अथवा
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पदार्थ सदा उत्पाद, व्यय अने ध्रौव्यथी संयुक्त रहे छे. जेम माटीमांथी उत्पन्न थनार घटमां
माटीरूप पूर्वपर्यायनो व्यय, घटरूप नवीन पर्यायनो उत्पाद तथा पुद्गल द्रव्य उक्त बन्नेय
अवस्थामां ध्रुव स्वरूपे स्थित रहे छे. १३८.
निक्षेपकादिभिरभिश्रयतैकचित्ताः
गंभीर आ संसाररूप समुद्रथी पार थवानी इच्छा राखता हो तो पछी एकाग्रचित्त
थईने उपर्युक्त आत्मानो आश्रय करो.
कहेवामां आवे छे. ते द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक नयना भेदथी बे प्रकारना छे. जे द्रव्यनी मुख्यताथी
वस्तुने ग्रहण करे छे ते द्रव्यार्थिक तथा जे पर्यायनी प्रधानताथी वस्तुने ग्रहण करे छे ते
पर्यायार्थिकनय कहेवाय छे. एमां द्रव्यार्थिक नयना त्रण भेद छे
ते शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रहनय कहेवाय छे. एनाथी विपरीत जे पर्यायनी प्रधानताथी बे आदि अनंत
भेदरूप वस्तुने ग्रहण करे छे तेने अशुद्ध द्रव्यार्थिक व्यवहारनय कहेवामां आवे छे. जे संग्रह अने
व्यवहार आ बन्नेय नयोना परस्पर भिन्न बन्ने (अभेद अने भेद) विषयोने ग्रहण करे छे तेनुं
नाम नैगमनय छे. पर्यायार्थिक नय चार प्रकारनो छे
ते ॠजुसूत्रनय छे. जे लिंग, संख्या (वचन), काळ, कारक अने पुरुष (उत्तमादि) आदिनो
व्यभिचार दूर करीने वस्तुनुं ग्रहण करे छे तेने शब्दनय कहे छे. लिंगव्यभिचार
शब्दनयनी द्रष्टिए अग्राह्य नथी. जे एक ज अर्थ शब्दभेदथी अनेक रूपे ग्रहे छे तेने शब्दनय
कहे छे. जेम एक ज व्यक्ति इन्दन (शासन) क्रियाना निमित्ते इन्द्र, शकन (सामर्थ्यरूप) क्रियाथी
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शब्दोनो प्रयोग अग्राह्य छे केमके एक अर्थनो बोधक एक ज शब्द होय छे.
ते ज स्वरूपे ग्रहे छे तेने एवंभूतनय कहे छे. आ नयनी अपेक्षाए इन्द्र ज्यारे शासनक्रियामां
परिणत होय त्यारे ज ते इन्द्र शब्दनुं वाच्य थाय, नहि के अन्य समयमां पण. प्रमाण सम्यग्ज्ञानने
कहेवामां आवे छे. ते प्रत्यक्ष अने परोक्षना भेदथी बे प्रकारनुं छे. जे ज्ञान इन्द्रिय, मन, प्रकाश
अने उपदेशादि बाह्य निमित्तनी अपेक्षाए उत्पन्न थाय छे ते परोक्ष कहेवाय छे. तेना बे भेद
छे
श्रुतज्ञान कहेवाय छे. प्रत्यक्ष प्रमाण त्रण प्रकारनुं छे.
अने तेनाथी संबद्ध संसारी प्राणी) पदार्थनुं ग्रहण करे छे तेने अवधिज्ञान कहे छे. जे जीवोना
मनोगत पदार्थने जाणे छे ते मनःपर्ययज्ञान कहेवाय छे. समस्त विश्वने युगपद ग्रहण करनार
ज्ञान केवळज्ञान कहेवाय छे. आ त्रणेय ज्ञान अतीन्द्रिय छे. निक्षेप शब्दनो अर्थ मूकवुं थाय छे.
प्रत्येक शब्दनो प्रयोग अनेक अर्थोमां थया करे छे. तेमांथी क्या वखते क्यो अर्थ इष्ट छे, ए
बताववुं ते निक्षेप विधिनुं कार्य छे. ते निक्षेप नाम, स्थापना, द्रव्य अने भावना भेदथी चार प्रकारना
छे. वस्तुमां विवक्षित गुण अने क्रिया आदि न होवा छतां पण केवळ लोकव्यवहार माटे तेनुं नाम
राखवाने नामनिक्षेप कहेवाय छे. - जेम कोई व्यक्तिनुं नाम लोकव्यवहार माटे देवदत्त (देव द्वारा
छे’ ए प्रकारनी जे कल्पना करवामां आवे छे तेने स्थापना निक्षेप कहे छे. ते बे प्रकारनो छे
अन्य वस्तुमां जे तेनी स्थापना करवामां आवे छे तेने सद्भाव स्थापना निक्षेप कहेवामां आवे
छे
स्थापना निक्षेप कहेवाय छे,
वस्तुना कथनने भावनिक्षेप कहेवामां आवे छे. आ रीते आ निक्षेपोना विधानथी अप्रकृतनुं निराकरण
अने प्रकृतनुं ग्रहण थाय छे. १३९.
तव विनिहितधामा कर्मसंश्लेषदोषः
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झटिति शिवसुखार्थी यत्नतस्तौ जहीहि
छे. ते कर्मबंधरूप दोष निश्चयथी राग अने द्वेषना निमित्ते थाय छे. तेथी मोक्षसुखनो
अभिलाषी थईने तुं सर्वप्रथम शीघ्रताथी प्रयत्नपूर्वक ते बन्नेने छोडी दे. १४०.
संबन्धस्तेन सार्घं तदसति सति वा तत्र कौ रोषतोषौ
देवंनिश्चित्य हंस स्वबलमनुसर स्थायि मा पश्य पार्श्वम्
भोगववुं पडे छे. तमारो ते लोक साथे भला शुं संबंध छे? अर्थात् कांई पण नथी.
तो पछी लोक न होय तो विषाद अने ते होय तो हर्ष शा माटे करो छो? एवी
ज रीते शरीरमां रागद्वेष न करवो जोईए, केम के ते जड (अचेतन) छे. तथा शरीर
साथे संबंधवाळा इन्द्रियविषय भोगजनित सुखादिकमां पण तमारे राग-द्वेष करवो
उचित नथी, केम के ते विनश्वर छे. आ रीते निश्चय करीने तमे तमारी स्थिर
आत्मशक्तिनुं अनुसरण करो. ते निकटवर्ती लोकने स्थायी न समजो.
वियोगमां खेदखिन्न थवुं योग्य नथी. बीजुं तो शुं कहीए? जे शरीर सदा आत्मानी साथे
ज रहे छे तेनो पण संबंध आत्मा साथे कांई पण नथी; कारण के आत्मा चेतन छे अने
शरीर अचेतन छे. स्पर्शनादि इन्द्रियोनो संबंध पण ते ज शरीर साथे छे, नहि के ते चेतन
आत्मा साथे. इन्द्रियविषयभोगोथी उत्पन्न थनारूं सुख विनश्वर छे
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देवत्वेऽपि न शान्तिरस्ति भवतो रम्ये ऽणिमादिश्रिया
तत्तन्नित्यपदं प्रति प्रतिदिनं रे जीव यत्नं कुरु
रमणीय देवगतिमां पण तने शान्ति नथी. कारण के त्यांथी पण तुं मृत्युकाळ द्वारा
बळजोरीथी नीचे पडाय छे. तेथी तुं प्रतिदिन ते नित्यपद अर्थात् अविनश्वर मोक्ष
प्रत्ये प्रयत्न कर. १४२.
प्राप्ते यत्र समस्तदुःखविरमाल्लभ्येत नित्यं सुखम्
छे. तेथी तेने छोडीने पोताना अंतरात्मामां प्रवेश कर. तेना विषयमां सम्यग्ज्ञानना
आधारभूत गुरु पासेथी एवुं कांईक सांभळवामां आवे छे के जे प्राप्त थतां समस्त
दुःखोथी छूटकारो पामीने अविनश्वर (मोक्ष) सुख प्राप्त करी शकाय छे. १४३.
समस्ति यदि कौतुकं किल तवात्मनो दर्शने
कियन्त्यपि दिनान्यतः स्थिरमना भवान् पश्यतु