Padmanandi Panchvinshati-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 3-50 (10. Sadabodhachandroday),1 (11. Nishchayapanchashat),2 (11. Nishchayapanchashat),3 (11. Nishchayapanchashat),4 (11. Nishchayapanchashat),5 (11. Nishchayapanchashat),6 (11. Nishchayapanchashat),7 (11. Nishchayapanchashat),8 (11. Nishchayapanchashat),9 (11. Nishchayapanchashat),10 (11. Nishchayapanchashat),11 (11. Nishchayapanchashat),12 (11. Nishchayapanchashat),13 (11. Nishchayapanchashat),14 (11. Nishchayapanchashat),15 (11. Nishchayapanchashat),16 (11. Nishchayapanchashat),17 (11. Nishchayapanchashat),18 (11. Nishchayapanchashat); 11. Nishchayapanchashat.

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ज्योतिथी दैदिप्यमान अने तत्त्वना विचारमां चतुर एवो मनुष्य पण मोह पामे छे
ते चेतन तत्त्व जीवित रहे.
विशेषार्थ : ते चिद्रूप तत्त्व (समजवुं) घणुं अघरुं छे कारण के भिन्न भिन्न
अपेक्षाए तेनुं स्वरूप अनेक प्रकारनुं छे. जेम केउक्त चिद्रूप तत्त्व जो द्रव्यार्थिकनयनी अपेक्षाए
नित्य छे तो पर्यायार्थिक नयनी अपेक्षाए ते अनित्य पण छे. जो ते अनन्त पदार्थोनो विषय
करवाने कारणे स्थूळ छे तो मूर्ति रहित होवाना कारणे सूक्ष्म पण छे, जो ते सामान्य स्वरूपे
एक छे तो विशेष स्वरूपे अनेक पण छे, जो ते स्वकीय द्रव्यादि चतुष्टयनी अपेक्षाए सत्
छे तो परकीय द्रव्यादिचतुष्टयनी अपेक्षाए असत् पण छे तथा जो ते अनंतचतुष्टय आदि
गुणोथी परिपूर्ण छे तो रूप
रसादि रहित होवाना कारणे शून्य पण छे. आ रीते तेनुं स्वरूप
गंभीर होवाथी कदी समस्त श्रुतना पारगामी पण तेना विषयमां मोह पामी जाय छे. २.
(शार्दूलविक्रीडित)
सर्वस्मिन्नणिमादिपङ्कजवने रम्येऽपि हित्वा रतिं
यो दृष्टिं शुचिमुक्ति हंसवनितां प्रत्यादराद्दत्तवान्
चेतोवृत्तिनिरोधलब्धपरमब्रह्मप्रमोदाम्बुभृत्-
सम्यक्साम्यसरोवरस्थितिजुषे हंसाय तस्मै नमः
।।।।
अनुवाद : अणिमामहिमा आदि आठ ॠद्धिओरूप रमणीय समस्त
कमळवन रहेवा छतां पण जे आत्मारूप हंस तेना विषयमां अनुरक्त न थतां
आदरथी मुक्तिरूप हंसी उपर ज पोतानी द्रष्टि राखे छे तथा जे चित्तवृत्तिना
निरोधथी प्राप्त थयेल परब्रह्मस्वरूप आनंदरूपी जळथी परिपूर्ण एवा समीचीन
समताभावरूप सरोवरमां निवास करे छे ते आत्मारूप हंसने नमस्कार हो. ३.
(रथोद्धता)
सर्वभावविलये विभाति यत् सत्समाधिभरनिर्भरात्मनः
चित्स्वरूपमभितः प्रकाशकं शर्मधाम नमताद्भुतं महः ।।।।
अनुवाद : जे आश्चर्यजनक चित्स्वरूप तेज रागद्वेषादिरूप विभाव परिणामो
नष्ट थतां सम्यक् समाधिना भारने धारण करनार योगीने शोभायमान थाय छे,
जे सर्व पदार्थोनुं प्रकाशक छे तथा जे सुखनुं कारण छे ते चित्स्वरूप तेजने नमस्कार
करो. ४.

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(रथोद्धता)
विश्ववस्तुविधृतिक्षमं लासज्जालमन्तपरिवर्जितं गिराम्
अस्तमेत्यखिलमेकहेलया यत्र तज्जयति चिन्मयं महः ।।।।
अनुवाद : जे चिद्रूप तेज समस्त वस्तुओने प्रकाशित करवामां समर्थ छे,
दैदीप्यमान छे, अंत रहित अर्थात् अविनश्वर छे तथा जेना विषयमां समस्त वचनोनो
समूह क्रीडामात्रथी ज नाश पामे छे अर्थात् जे वचननो अविषय छे; ते चिद्रूप तेज
जयवंत हो. ५.
(रथोद्धता)
नो विकल्परहितं चिदात्मकं वस्तु जातु मनसो ऽपि गोचरम्
कर्मजाश्रितविकल्परूपिणः का कथा तु वपुषो जडात्मनः ।।।।
अनुवाद : ते चैतन्यरूप तत्त्व सर्व प्रकारना विकल्प रहित छे अने त्यां ते
मन कर्मजनित रागद्वेषना आश्रये थनारा विकल्प स्वरूप छे. तेथी ज्यारे ते चैतन्य
तत्त्व ते मननो पण विषय नथी तो पछी जडस्वरूप (अचेतन) शरीरनी तो वात
ज शी छे?
तेनो तो विषय ते कदी थई ज शकतुं नथी. ६.
(रथोद्धता)
चेतसो न वचसोऽपि गोचरस्तर्हि नास्ति भविता खपुष्पवत्
शङ्कनीयमिदमत्र नो यतः स्वानुभूतिविषयस्ततो ऽस्ति तत् ।।।।
अनुवाद : जो ते चैतन्यरूप तेज मन अने वचननो पण विषय न होय
तो ते आकाशना फूल समान असत् थई जशे एवी पण अहीं आशंका न करवी
जोईए कारण के ते स्वानुभवनो विषय छे. तेथी ते सत् ज छे, नहि के असत्.
७.
(रथोद्धता)
नूनमत्र परमात्मनि स्थितं स्वान्तमन्तमुपयाति तद्बहिः
तं विहाय सततं भ्रमत्यदः को बिभेति मरणान्न भूतले ।।।।
अनुवाद : अहीं परमात्मामां स्थित थयेलुं मन निश्चयथी मरणने प्राप्त थई
जाय छे. तेथी ते तेने (परमात्माने) छोडीने निरंतर बाह्य पदार्थोमां विचरे छे.

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बराबर छेआ पृथ्वी उपर मृत्युथी कोण डरतुं नथी? अर्थात् तेनाथी बधा ज डरे
छे. ८.
(रथोद्धता)
तत्त्वमात्मगतमेव निश्चितं यो ऽन्यदेशनिहितं समीक्षते
वस्तु मुष्टिविधृतं प्रयत्नतः कानने मृगयते स मूढधीः ।।।।
अनुवाद : चैतन्यतत्त्व निश्चयथी पोतामां ज स्थित छे, ते चैतन्यरूप तत्त्वने
जे अन्य स्थानमां स्थित समजे छे ते मूर्ख मुठीमां राखेली वस्तुने जाणे प्रयत्नपूर्वक
वनमां शोधे छे. ९.
(रथोद्धता)
तत्परः परमयोगसंपदां पात्रमत्र न पुनर्बहिर्गतः
नापरेण चलि [ल] तो यथेप्सितः स्थानलाभविभवो विभाव्यते ।।१०।।
अनुवाद : जे भव्य जीव आ परमात्मतत्त्वमां तल्लीन थाय छे ते समाधिरूप
संपत्तिओनुं पात्र थाय छे, परंतु जे बाह्य पदार्थोमां मुग्ध रहे छे ते तेमनुं पात्र
थतो नथी. योग्य छे
जे बीजा मार्गे चाली रह्यो छे तेने इच्छानुसार स्थाननी
प्राप्तिरूप संपत्ति प्राप्त थई शकती नथी. १०.
(रथोद्धता)
साधुलक्ष्यमनवाप्य चिन्मये यत्र सुष्ठु गहने तपस्विनः
अप्रतीतिभुवमाश्रिता जडा भान्ति नाटयगतपात्रसंनिभाः ।।११।।
अनुवाद : जे तपस्वी अतिशय गहन ते चैतन्यस्वरूप तत्त्वना विषयमां लक्ष्य
(वेध्य) न पामीने अतत्त्वश्रद्धान (मिथ्यात्व) रूप भूमिकानो आश्रय ले छे ते मूढबुद्धि
जीव नाटकना पात्र समान लागे छे.
विशेषार्थ : जेम नाटकना पात्र राजा, रंक अने साधु आदिनो वेश लईने तथा ते प्रमाणे
ज तेमनुं चरित्र बतावीने जोनाराओने जो के मुग्ध करी ले छे, छतां पण तेओ यथार्थ राजा वगेरे
होता नथी. बराबर ए ज रीते जे बाह्य तपश्चरणादि तो करे छे, परंतु सम्यग्दर्शन रहित होवाना
कारणे ते चैतन्य तत्त्वनो अनुभव करी शकता नथी. तेओ योगीनो वेश लईने पण वास्तविक योगी
थई शकता नथी. ११.

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(रथोद्धता)
भूरिधर्मयुतमप्यबुद्धिमानन्धहस्तिविधिनावबुध्य यत्
भ्राम्यति प्रचुरजन्मसंकटे पातु वस्तदतिशायि चिन्महः ।।१२।।
अनुवाद : अज्ञानी जीव अनेक धर्मोवाळा जे चेतन तत्त्वने अंधहस्ति
न्यायथी जाणीने अनेक जन्ममरणथी भयानक आ संसारमां परिभ्रमण करे छे ते
अनुपम चेतन तत्त्वरूप तेज आप सर्वेनुं रक्षण करो.
विशेषार्थ : जेवी रीते आंधळो मनुष्य हाथीनो यथार्थ आकार न जाणतां तेना जे
अवयव (पग के सूंढ वगेरे) नो स्पर्श करे छे तेने ज हाथी समजी ले छे, तेवी ज रीते मिथ्याद्रष्टि
जीव अनेक धर्मयुक्त ते चेतन तत्त्वने यथार्थ स्वरूपे न जाणतां एकांते कोई एक ज धर्मस्वरूप
समजी ले छे. ए ज कारणे ते जन्म
मरणस्वरूप आ संसारमां ज परिभ्रमण करीने दुःख सहन
करे छे. १२.
(रथोद्धता)
कर्मबन्धकलितो ऽप्यबन्धनो रागद्वेषमलिनो ऽपि निर्मलः
देहवानपि च देहवर्जितश्चित्रमेतदखिलं किलात्मनः ।।१३।।
अनुवाद : आ आत्मा कर्मबंध सहित होवा छतां पण बंधन रहित छे,
रागद्वेषथी मलिन होवा छतां पण निर्मळ छे तथा शरीर साथे संबंधवाळो होवा
छतां पण ते शरीर रहित छे. आ रीते आ बधुं आत्मानुं स्वरूप आश्चर्यजनक छे.
विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के शुद्ध निश्चयनयथी आ आत्माने न राग-द्वेष परिणाम
छे, न कर्मोनो बंध छे अने न शरीरे य छे. ते वास्तवमां वीतराग, स्वाधीन अने अशरीर होईने
सिद्ध समान छे. परंतु पर्यायस्वरूपे ते कर्मबंध सहित होईने राग
द्वेषथी मलिन अने शरीर सहित
मानवामां आवे छे. १३.
(रथोद्धता)
निर्विनाशमपि नाशमाश्रितं शून्यमप्यतिशयेन संभृतम्
एकमेव गतमप्यनेकतां तत्त्वमीद्रगपि नो विरुध्यते ।।१४।।
अनुवाद : ते आत्मतत्त्व विनाश रहित होवा छतां पण नाशने प्राप्त छे, शून्य
होवा छतां पण अतिशयथी परिपूर्ण छे तथा एक होवा छतां पण अनेकताने प्राप्त छे.
आ रीते नयविवक्षाथी एम मानवामां कांई पण विरोध आवतो नथी. १४.

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(रथोद्धता)
विस्मृतार्थ परिमार्गणं यथा यस्तथा सहजचेतनाश्रितः
स क्रमेण परमेकतां गतः स्वस्वरूपपदमाश्रयेद्ध्रुवम् ।।१५।।
अनुवाद : जेवी रीते मूर्च्छित मनुष्य स्वाभाविक चेतना पामीने (होशणां
आवीने) पोतानी भूलायेली वस्तुनी शोध करवा मांडे छे तेवी ज रीते जे भव्य प्राणी
पोताना स्वाभाविक चैतन्यनो आश्रय ले छे ते क्रमे करीने एकत्व पामी पोताना
स्वाभाविक उत्कृष्ट पद (मोक्ष) ने निश्चितपणे ज प्राप्त करी ले छे. १५.
(रथोद्धता)
यद्यदेव मनसि स्थितं भवेत् तत्तदेव सहसा परित्यजेत्
इत्युपाधिपरिहारपूर्णता सा यदा भवति तत्पदं तदा ।।१६।।
अनुवाद : जे जे विकल्प आवीने मनमां स्थित थाय छे तेने शीघ्र ज छोडी
देवो जोईए. आ रीते ज्यारे ते विकल्पोनो त्याग परिपूर्ण थई जाय छे त्यारे ते
मोक्ष पद पण प्राप्त थई जाय छे. १६.
(रथोद्धता)
संहृतेषु खमनो ऽनिलेषु यद्भाति तत्त्वममलात्मनः परम्
तद्गतं परमनिस्तरङ्गतामग्निरुग्र इह जन्मकानने ।।१७।।
अनुवाद : इन्द्रिय, मन अने श्वासोच्छ्वास नष्ट थई गया पछी जे निर्मळ
आत्मानुं उत्कृष्ट स्वरूप प्रतिभासित थाय छे ते अतिशय स्थिरता पामीने अहीं जन्म
(संसार) रूप वनने बाळवा माटे तीक्ष्ण अग्नि समान होय छे. १७.
(रथोद्धता)
मुक्त इत्यपि न कार्यमञ्जसा कर्मजालकलितो ऽहमित्यपि
निर्विकल्प पदवीमुपाश्रयन् संयमी हि लभते परं पदम् ।।१८।।
अनुवाद : वास्तवमां ‘हुं मुक्त छुं’ ए जातनो विकल्प पण न करवो जोईए.
तथा ‘हुं कर्मोना समूहथी संबद्ध छुं’ एवो विकल्प पण न करवो जोईए. कारण
ए छे के संयमी पुरुष निर्विकल्प पदवी पामीने ज निश्चयथी उत्कृष्ट मोक्षपद पामे
छे. १८.

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(रथोद्धता)
कर्म चाहमिति च द्वये सति द्वैतमेतदिह जन्मकारणम्
एक इत्यपि मतिः सती न यत्साप्युपाधिरचिता तदङ्गभृत् ।।१९।।
अनुवाद : हे प्राणी! ‘कर्म अने हुं’ आवा प्रकारनी बे पदार्थोनी कल्पना
थतां जे अहीं द्वैतबुद्धि थाय छे ते संसारनुं कारण छे. तथा ‘हुं एक छुं’ ए जातनो
विकल्प पण योग्य नथी कारण के ते पण उपाधिथी निर्मित होवाना कारणे संसारनुं
ज कारण थाय छे. १९.
(रथोद्धता)
संविशुद्धपरमात्मभावना संविशुद्धपदकारणं भवेत्
सेतरेतकृते सुवर्णतो लोहतश्च विकृतीस्तदाश्रिते ।।२०।।
अनुवाद : अतिशय विशुद्ध परमात्मतत्त्वनी जे भावना छे ते अतिशय
निर्मळ मोक्षपदनुं कारण थाय छे. तथा एनाथी विपरीत जे भावना छे ते संसारनुं
कारण थाय छे. बराबर छे
सुवर्णथी जे पर्याय उत्पन्न थाय छे ते सुवर्णमय अने
लोहथी जे पर्याय उत्पन्न थाय छे ते लोहमय होय छे. २०.
(रथोद्धता)
कर्म भिन्नमनिशं स्वतो ऽखिलं पश्यतो विशदबोधचक्षुषा
तत्कृते ऽपि परमार्थवेदिनो योगिनो न सुखदुःखकल्पना ।।२१।।
अनुवाद : समस्त कर्म माराथी भिन्न छे, आ रीते निरंतर निर्मळ ज्ञानरूप नेत्रथी
देखनारा अने यथार्थ स्वरूपना वेत्ता योगीने कर्मकृत सुखदुःख होवा छतां पण तेने उक्त सुख
दुःखनी कल्पना होती नथी. २१.
(रथोद्धता)
मानसस्य गतिरस्ति चेन्निरालम्ब एव पथि भास्वतो यथा
योगिनो द्रगवरोधकारकः संनिधिर्न तमसां कदाचन ।।२२।।
अनुवाद : जो योगीना मननी गति सूर्य समान निराधार मार्गमां ज होय
तो तेने जोवामां बाधा उत्पन्न करनार अंधकार (अज्ञान) नी समीपता कदी पण
होई शके नहि.

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विशेषार्थ : जेवी रीते निराधार आकाशमार्गे गमन करनार सूर्य रहे त्यारे अंधकार
कोई रीते बाधा पहोंचाडी शकतो नथी तेवी ज रीते समस्त मानसिक विकल्पोथी रहित आत्मतत्त्वमां
संचार करनार योगीना तत्त्वदर्शनमां अज्ञान
अंधकार पण बाधा पहोंचाडी शकतो नथी. २२.
(रथोद्धता)
रुग्जरादिविकृतिर्न मे ऽञ्जसा सा तनोरहमितः सदा पृथक्
मीलितेऽपि सति खे विकारिता जायते न जलदैर्विकारिभिः ।।२३।।
अनुवाद : रोग अने जरा आदि रूप विकार वास्तवमां मारा नथी, ते तो
शरीरना विकार छे अने हुं ते शरीरथी संबद्ध होवा छतां पण वास्तवमां तेनाथी
सर्वदा भिन्न छुं. ठीक छे
विकार उत्पन्न करनार वादळाओ साथे आकाशनो मेळाप
थवा छतां पण तेमां कोई प्रकारनो विकारभाव उत्पन्न थतो नथी. २३.
(रथोद्धता)
व्याधिनाङ्गमभिभूयते परं तद्गतो ऽपि न पुनश्चिदात्मकः
उत्थितेन गृहमेव दह्यते वह्निना न गगनं तदाश्रितम् ।।२४।।
अनुवाद : रोग केवळ शरीरने पराधीन करे छे पण तेमां स्थित होवा छतां
चेतन आत्माने पराधीन करतो नथी. बराबर छेउत्पन्न थयेली अग्नि केवळ घरने
ज बाळे छे, परंतु तेना आश्रयभूत आकाशने बाळती नथी. २४
(रथोद्धता)
बोधरूपमखिलैरुपाधिभिर्वर्जितं किमपि यत्तदेव नः
नान्यदल्पमपि तत्त्वमीद्रशं मोक्षहेतुरिति योगनिश्चयः ।।२५।।
अनुवाद : समस्त उपाधिथी रहित जे कांई पण ज्ञानरूप छे ते ज अमारूं
स्वरूप छे, तेनाथी भिन्न जराय तत्त्व अमारूं नथी; आ जातनो योगनो निश्चय
मोक्षनुं कारण थाय छे. २५.
(रथोद्धता)
योगतो हि लभते विबन्धनं योगतो ऽपि किल मुच्यते नरः
योगवर्त्म विषमं गुरोर्गिरा बोध्यमेतदखिलं मुमुक्षुणा ।।२६।।

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अनुवाद : मनुष्य योगना निमित्ते विशेष बंधन प्राप्त करे छे तथा योगना
निमित्ते ज तेनाथी मुक्त पण थाय छे. आ रीते योगनो मार्ग विषम छे.
मोक्षाभिलाषी भव्य जीवे आ समस्त योगमार्गनुं ज्ञान गुरुना उपदेशथी प्राप्त करवुं
जोईए. २६.
(रथोद्धता)
शुद्धबोधमयमस्ति वस्तु यद् रमणीयकपदं तदेव नः
स प्रमाद इह मोहजः क्वचित्कल्प्यते वद परो [रे] ऽपि रम्यता ।।२७।।
अनुवाद : जे शुद्ध ज्ञानरूप वस्तु छे ते ज अमारूं रमणीय पद छे. एनाथी
उल्टुं जे अन्य कोई बाह्य जड वस्तुमां पण रमणीयतानी कल्पना करवामां आवे छे
ते केवळ मोहजनित प्रमाद छे. २७.
(रथोद्धता)
आत्मबोधशुचितीर्थमद्भुतं स्नानमत्र कुरुत्तोत्तमं बुधाः
यन्न यात्यपरतीर्थकोटिभिः क्षालयत्यपि मलं तदान्तरम् ।।२८।।
अनुवाद : आत्मज्ञानरूप पवित्र तीर्थ आश्चर्यजनक छे. हे विद्वानो! आप
एमां उत्तम रीते स्नान करो. जे अभ्यंतर मळ बीजा करोडो तीर्थोथी पण जतो नथी
तेने पण आ तीर्थ धोई नाखे छे. २८.
(रथोद्धता)
चित्समुद्रतटबद्धसेवया जायते किमु न रत्नसंचयः
दुःखहेतुरमुतस्तु दुर्गतिः किं न विप्लवमुपैति योगिनः ।।२९।।
अनुवाद : चैतन्यरूप समुद्रना तटथी संबंधित सेवा द्वारा शुं रत्नोनो संचय
नथी थतो? अवश्य थाय छे. तथा तेनाथी दुःखना कारणभूत योगीनी दुर्गति शुं
नाश नथी पामती? अर्थात् ते अवश्यमेव नाश पामे छे.
विशेषार्थ : जेवी रीते समुद्रना किनारे रहेनारा माणसो पासे कोई बहुमूल्य रत्नोनो
संचय थई जाय छे तथा एनाथी तेनी दुर्गति (निर्धनता) नाश पामे छे तेवी ज रीते चैतन्यरूप
समुद्रना तटनी आराधना करनार योगीने पण अमूल्य रत्नो (सम्यग्दर्शन, ज्ञान अने चारित्र
आदि) नो संचय थई जाय छे अने एनाथी तेनी दुर्गति (नारक पर्याय आदि) पण नष्ट

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थई जाय छे. आ रीते तेने नारकादि पर्याय जनित दुःख नष्ट थई जवाथी अपूर्व शांतिनो
लाभ थाय छे. २९.
(रथोद्धता)
निश्चयावगमनस्थितित्रयं रत्नसंचितिरियं परात्मनि
योगद्रष्टिविषयीभवन्नसौ निश्चयेन पुनरेक एव हि ।।३०।।
अनुवाद : परमात्माना विषयमां जे निश्चय, ज्ञान अने स्थिरता थाय
छे; ए त्रणेनुं नाम ज रत्नसंचय छे. ते परमात्मा योगरूप नेत्रनो विषय छे.
निश्चयनयनी अपेक्षाए ते रत्नत्रयस्वरूप आत्मा एक ज छे, तेमां
सम्यग्दर्शनादिनो भेद पण द्रष्टिगोचर थतो नथी.
विशेषार्थ : सम्यग्दर्शनादिना स्वरूपनो विचार निश्चय अने व्यवहारनी अपेक्षाए
बे प्रकारे करवामां आवे छे. जेम केजीवादि सात तत्त्वोनुं यथार्थ श्रद्धान करवुं. ए व्यवहार
सम्यग्दर्शन छे. उक्त जीवादि तत्त्वोनुं जे यथार्थ ज्ञान होय छे, तेने व्यवहार सम्यग्ज्ञान
कहे छे. पापरूप क्रियाओना परित्यागने व्यवहार सम्यक् चारित्र कहेवामां आवे छे. आ
व्यवहारनी अपेक्षाए तेमना स्वरूपनो विचार थयो. निश्चयनयनी अपेक्षाए तेमनुं स्वरूप आ
रीते छे. शुद्ध आत्माना विषयमां रुचि उत्पन्न थवी ते निश्चय सम्यग्दर्शन, ते ज आत्माना
स्वरूपने जाणवुं ते निश्चय सम्यग्ज्ञान अने उक्त आत्मामां ज लीन थवुं ए निश्चय चारित्र
कहेवाय छे. आमां व्यवहार ज्यां सुधी निश्चयनो साधक छे त्यांसुधी ज ते उपादेय छे,
वास्तवमां ते असत्यार्थ होवाथी हेय ज छे. उपादेय केवळ निश्चय ज छे, केमके ते यथार्थ
छे. अहीं निश्चय रत्नत्रयना स्वरूपनुं ज दिग्दर्शन कराववामां आव्युं छे ते निर्मळ ध्याननी
अपेक्षा राखे छे. ३०.
(रथोद्धता)
प्रेरिताः श्रुतगुणेन शेमुषीकार्मुकेण शरवद् दृगादयः
बाह्यवेध्यविषये कृतश्रमाश्चिद्रणे प्रहतकर्मशत्रवः ।।३१।।
अनुवादःआगमरूप दोरीथी संयुक्त एवा बुद्धिरूप धनुष्यथी प्रेरित
सम्यग्दर्शनादिरूप बाण चैतन्यरूप रणमां बाह्य पदार्थरूप लक्ष्यना विषयमां परिश्रम
करीने कर्मरूप शत्रुओनो नाश करी नाखे छे.
विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के जेवी रीते रणभूमिमां दोरीथी सुसजज धनुष्य द्वारा
छोडवामां आवेल बाण लक्ष्यभूत शत्रुओने वींधीने तेमनो नाश करी नाखे छे तेवी ज रीते अहीं

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चैतन्यरूपी रणभूमिमां आगमाभ्यासरूपी दोरीथी बुद्धिरूपी धनुष्यने सज्ज करी तेनी प्रेरणाथी प्राप्त
थयेला सम्यग्दर्शनादिरूपी बाणो द्वारा कर्मरूपी शत्रु पण नष्ट करी देवामां आवे छे. ३१.
(रथोद्धता)
चित्तवाच्यकरणीयवर्जिता निश्चयेन मुनिवृत्तिरीद्रशी
अन्यथा भवति कर्मगौरवात् सा प्रमादपदवीमुपेयुषः ।।३२।।
अनुवाद : निश्चयथी मुनिनी वृत्ति मन, वचन अने कायानी प्रवृत्ति रहित
एवी होय छे. तात्पर्य ए छे के ते मनोगुप्ति, वचनगुप्ति अने कायगुप्ति सहित
होय छे. परंतु प्रमाद अवस्था पामेला मुनिने कर्मनी अधिकताने कारणे ते (मुनिवृति)
आनाथी विपरीत अर्थात् उपर्युक्त त्रण गुप्तिओथी रहित होय छे. ३२.
(रथोद्धता)
सत्समाधिशशलाञ्छनोदयादुल्लसत्यमलबोधवारिधिः
योगिनो ऽणुसद्रशं विभाव्यते यत्र मग्नमखिलं चराचरम् ।।३३।।
अनुवाद : समीचीन समाधिरूप चन्द्रमाना उदयथी हर्षित थईने योगीनो
निर्मळ ज्ञानरूप समुद्र वृद्धि पामे छे, जेमां डूबेलुं आ समस्त चराचर विश्व अणु-
समान प्रतिभासे छे. ३३.
(रथोद्धता)
कर्मशुष्कतृणराशिरुन्नतो ऽप्युद्गते शुचिसमाधिमारुतात्
भेदबोधदहने हृदि स्थिते योगिनो झटिति भस्मसाद्भवेत् ।।३४।।
अनुवाद : पवित्र समाधिरूप वायु द्वारा योगीना हृदयमां स्थित
भेदज्ञानरूपी अग्नि प्रज्वलित थतां तेमां कर्मरूपी सूका घासनो ऊंचो ढगलो पण
तरत ज भस्म थई जाय छे. ३४.
(रथोद्धता)
चित्तमत्तकरिणा न चेद्धतो दुष्टबोधवह्निनाथवा
योगकल्पतरुरेष निश्चितं वाञ्छितं फलति मोक्षसत्फलम् ।।३५।।
अनुवाद : जो ते योगरूपी कल्पवृक्ष उन्मत्त हाथी द्वारा अथवा

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मिथ्याज्ञानरूपी अग्नि द्वारा नष्ट करवामां न आवे तो ते निश्चयथी इष्ट मोक्षरूपी
उत्तम फळ उत्पन्न करे छे. ३५.
(रथोद्धता)
तावदेव मतिवाहिनी सदा धावति श्रुतगता पुरः पुरः
यावदत्र परमात्मसंविदा भिद्यते न हृदयं मनीषिणः ।।३६।।
अनुवाद : अहीं विद्वान साधुनी बुद्धिरूपी नदी आगममां स्थित थईने
निरंतर त्यां सुधी ज आगळ आगळ दोडे छे ज्यां सुधी तेनुं हृदय उत्कृष्ट आत्मतत्त्वना
ज्ञानथी भेदातुं नथी.
विशेषार्थ : आनो अभिप्राय ए छे के विद्वान साधुने ज्यारे उत्कृष्ट आत्मानुं स्वरूप
समजवामां आवी जाय छे त्यारे तेने श्रुतना परिशीलननी विशेष आवश्यकता नथी रहेती. कारण
ए छे के आत्मतत्त्वनुं परिज्ञान प्राप्त करवुं ए ज तो आगमना अभ्यासनुं फळ छे, अने ते तेने
प्राप्त थई ज गयुं छे. हवे तेने मोक्षपद कांई दूर नथी. ३६.
(रथोद्धता)
यः कषायपवनैरचुम्बितो बोधवह्निरमलोल्लसद्दशः
किं न मोहतिमिरं विखण्डयन् भासते जगति चित्प्रदीपकः ।।३७।।
अनुवाद : जे चैतन्यरूपी दीपक कषायरूपी वायुथी स्पर्शायो नथी, ज्ञानरूपी
अग्नि सहित छे तथा प्रकाशमान निर्मळ दशाओ (द्रव्य पर्यायो) रूप दशा (बत्ती)
थी सुशोभित छे, ते शुं संसारमां मोहरूपी अंधकारने नष्ट करतो प्रतिभासित नथी
थतो? अर्थात् अवश्य ज प्रतिभासित थाय छे. ३७.
(रथोद्धता)
बाह्यशास्त्रगहने विहारिणी या मतिर्बहुविकल्पधारिणी
चित्स्वरूपकुलसद्मनिर्गता सा सती न सद्रशी कुयोषिता ।।३८।।
अनुवाद : जे बुद्धिरूपी स्त्री बाह्य शास्त्ररूपी वनमां फरनारी छे, अनेक
विकल्पो धारण करे छे तथा चैतन्यरूपी कुलीन घरमांथी नीकळी चुकी छे, ते पतिव्रता
समान समीचीन नथी, परंतु दुराचारिणी स्त्री समान छे. ३८.

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(रथोद्धता)
यस्तु हेयमितरच्च भावयन्नाद्यतो हि परमाप्तुमीहते
तस्य बुद्धिरुपदेशतो गुरोराश्रयेत्स्वपदमेव निश्चलम् ।।३९।।
अनुवाद : जे भव्य जीव हेय अने उपादेयनो विचार करतो थको पहेलानी
(हेयनी) अपेक्षाए बीजी (उपादेय) ने प्राप्त करवानो प्रयत्न करे छे तेनी बुद्धि गुरुना
उपदेशथी स्थिर आत्मपद (मोक्ष)ने ज प्राप्त करे छे. ३९.
(रथोद्धता)
सुप्त एष बहुमोहनिद्रया लङ्द्यितः स्वमबलादि पश्यति
जाग्रतोच्चवचसा गुरोर्गतं संगतं सकलमेव द्रश्यते ।।४०।।
अनुवाद : मोहरूपी गाढ निद्राने वशीभूत थईने सूतेलो आ जीव स्त्री
पुत्रादि बाह्य वस्तुओने पोतानी समजे छे. ते ज्यारे गुरुना ऊंचा वचन अर्थात्
उपदेशथी जागी उठे छे त्यारे संयोगने प्राप्त थयेल ते बधा ज बाह्य पदार्थोने नश्वर
समजवा मांडे छे. ४०.
(रथोद्धता)
जल्पितेन बहुना किमाश्रयेद् बुद्धिमानमलयोगसिद्धये
साम्यमेव सकलैरूपाधिभिः कर्मजालजनितैर्विवर्जितम् ।।४१।।
अनुवाद : घणुं कहेवाथी शुं? बुद्धिमान मनुष्ये निर्मळ योगनी सिद्धि माटे
कर्मसमूहथी उत्पन्न थयेल समस्त उपाधि रहित एक मात्र समताभावनो ज आश्रय
करवो जोईए. ४१.
(रथोद्धता)
नाममात्रकथया परात्मनो भूरिजन्मकृतपापसंक्षयः
बोध वृत्तरुचयस्तु तद्गताः कुर्वते हि जगतां पतिं नरम् ।।४२।।
अनुवाद : परमात्माना नाम मात्रनी कथाथी ज अनेक जन्मोमां संचित करेला
पापोनो नाश थाय छे. तथा उक्त परमात्मामां स्थित ज्ञान, चारित्र अने सम्यग्दर्शन
मनुष्यने जगतनो अधीश्वर बनावी दे छे. ४२.

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(रथोद्धता)
चित्स्वरूपपदलीनमानसो यः सदा स किल योगिनायकः
जीवराशिरखिलश्चिदात्मको दर्शनीय इति चात्मसंनिभिः ।।४३।।
अनुवाद : जे मुनिनुं मन चैतन्यस्वरूपमां लीन थाय छे ते योगीओमां श्रेष्ठ
थई जाय छे. समस्त जीवराशि चैतन्यस्वरूप छे माटे तेमने पोताना समान ज गणवा
जोईए. ४३.
(रथोद्धता)
अन्तरङ्गबहिरङ्गयोगतः कार्यसिद्धिरखिलेति योगिना
आसितव्यमनिशं प्रयत्नतः स्वं परं सद्रशमेव पश्यता ।।४४।।
अनुवाद : सर्व कार्योनी सिद्धि अंतरंग अने बहिरंग योगथी थाय छे. तेथी
योगीए निरंतर प्रयत्नपूर्वक स्व अने परने समद्रष्टिथी देखता रहेवुं जोईए.
विशेषार्थ : योग शब्दना बे अर्थ छेमन, वचन अने कायानी प्रवृत्ति अने समाधि.
एमां मन, वचन अने कायनी प्रवृत्तिरूप जे योग छे ते बे प्रकारनो छेशुभ अने अशुभ. आमां
शुभ योगथी पुण्य अने अशुभ योगथी पापनो आस्रव थाय छे अने ते प्रमाणे ज जीवने सांसारिक
सुख अने दुःखनी प्राप्ति थाय छे. आ बन्नेय प्रकारना योग शरीर साथे संबद्ध होवाना कारणे
बहिरंग कहेवाय छे. अंतरंग योग समाधि छे. एनाथी जीवने अविनश्वर पदनी प्राप्ति थाय छे.
अहीं ग्रन्थकर्ताए स्व अने परमां समबुद्धि राखता योगीने आ अंतरंग योगमां स्थित रहेवा
तरफ संकेत कर्यो छे. ४४.
(रथोद्धता)
लोक एष बहुभावभावितः स्वार्जितेन विविधेन कर्मणा
पश्यतोऽस्य विकृतीर्जडात्मनः क्षोभमेति हृदयं न योगिनः ।।४५।।
अनुवाद : आ जनसमूह पोताना कमायेला अनेक प्रकारना कर्म अनुसार अनेक
अवस्थाओ पामे छे. ते अज्ञानीना विकारो जोईने योगीनुं मन क्षोभ पामतुं नथी. ४५.
(रथोद्धता)
सुप्त एष बहुमोहनिद्रया दीर्घकालमविरामया जनः
शास्त्रमेतदधिगम्य सांप्रतं सुप्रबोध इह जायतामिति ।।४६।।

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अनुवाद : आ प्राणी निरंतर रहेनारी मोहरूप गाढ निद्राथी घणा काळ
सुधी सूतो छे. हवे तेणे अहीं आ शास्त्रनो अभ्यास करीने जागृत (सम्यग्ज्ञानी)
थई जवुं जोईए. ४६.
(रथोद्धता)
चित्स्वरूपगगने जयत्यसावेकदेशविषयापि रम्यता
ईषदुद्गतवचःकरैः परैः पद्मनन्दिवदनेन्दुना कृता ।।४७।।
अनुवाद : पद्मनंदी मुनिना मुखरूप चंद्रमा द्वारा किंचित् उदय पामेला उत्कृष्ट
वचनरूप किरणोथी करवामां आवेली ते रमणीयता एक देशनो विषय करती होवा
छतां पण चैतन्यरूप आकाशमां जयवंत हो. ४७.
(शार्दूलविक्रीडित)
त्यक्ताशेषपरिग्रहः शमधनो गुप्तित्रयालंकृतः
शुद्धात्मानमुपाश्रितो भवति यो योगी निराशस्ततः
मोक्षो हस्तगतो ऽस्य निर्मलमतेरेतावतैव ध्रुवं
प्रत्यूहं कुरुते स्वभावविषमो मोहो व वैरी यदि
।।४८।।
अनुवाद : जे योगीए समस्त परिग्रहनो परित्याग करी दीधो छे, जे
शांतिरूप संपत्ति सहित छे, त्रण गुप्तिओथी अलंकृत छे तथा शुद्ध आत्मस्वरूपने
प्राप्त करीने आशा रहित (इच्छा के तृणा रहित) थई गया छे तेना मार्गमां
स्वभावथी दुष्ट ते मोहरूपी शत्रु जो विध्न न करे तो एटला मात्रथी ज मोक्ष
आ निर्मळबुद्धि योगीना हाथमां स्थित (छे एम) समजवुं जोईए. ४८.
(शार्दूलविक्रीडित)
त्रैलोक्ये किमिहास्ति को ऽपि स सुरः किं वा नरः किं फणी
यस्माद्भीर्मम यामि कातरतया यस्याश्रयं चापदि
उक्तं यत्परमेश्वरेण गुरुणा निःशेषवाञ्छाभयं
भ्रान्तिक्लेशहरं हृदि स्फु रति चेत्तत्तत्त्वमत्यद्भुतम्
।।४९।।
अनुवाद : महान परमेश्वर द्वारा कहेवामां आवेलुं जे चैतन्यतत्त्व समस्त
इच्छा, भय, भ्रान्ति अने क्लेश दूर करे छे ते आश्चर्यजनक चैतन्यतत्त्व जो हृदयमां

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प्रकाशमान छे तो पछी त्रणे लोकमां अहीं शुं एवो कोई देव छे, एवो कोई मनुष्य
छे अथवा एवो कोई सर्प छे; जेनाथी मने भय उत्पन्न थाय अथवा आपत्ति आवतां
हुं डरी जईने तेना शरणे जाउं? अर्थात् उपर्युक्त चैतन्यस्वरूप हृदयमां स्थित रहेतां
कदी कोईनो भय रहेतो नथी अने तेथी कोईना शरणे जवानी पण आवश्यकता रहेती
नथी. ४९.
(शार्दूलविक्रीडित)
तत्त्वज्ञानसुधार्णवं लहरिभिर्दूरं समुल्लासयन्
तृष्णापत्रविचित्रचित्तकमले संकोचमुद्रां दधत्
सद्विद्याश्रितभव्यकैरवकुले कुर्वन् विकासश्रियं
योगीन्द्रोदयभूधरे विजयते सद्बोधचन्दोदयः
।।५०।।
अनुवाद : जे सद्बोधचन्द्रोदय (सम्यग्ज्ञानरूपी चंद्रनो उदय) तत्त्वज्ञानरूपी
अमृतना समुद्रने तत्त्वविचाररूप लहेरो द्वारा दूरथी ज प्रगट करे छे, तृष्णारूपी
पांदडाओथी विचित्र एवा चित्तरूपी कमळने संकोचे छे तथा सम्यग्ज्ञाननो आश्रय
पामेला भव्य जीवो रूप कुमुदोना समूहने विकसित करे छे; ते सद्बोध चन्द्रोदय
(आ प्रकरण) मुनीन्द्ररूपी उदयाचळ पर्वत उपर जयवंत थाय छे. ५०.
आ रीते सद्बोधचंद्रोदय अधिकार समाप्त थयो. १०.

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११. निश्चयपंचाशत्
[११. निश्चयपञ्चाशत् ]
(आर्या )
दुर्लक्ष्यं जयति परं ज्योतिर्वाचां गणः कवीन्द्राणाम्
जलमिव वज्रे यस्मिन्नलब्धमध्या बहिर्लुठति ।।।।
अनुवाद : जेवी रीते जळ वज्रनी मध्यमां प्रवेश न पामतां बहार ज दडी
पडे छे तेवी ज रीते जे उत्कृष्ट ज्योतिनी मध्यमां महाकविओना वचनोनो समूह पण
प्रवेश न पामतां बहार ज रही जाय छे, अर्थात् जेनुं वर्णन महाकवि पण पोतानी
वाणी द्वारा करी शकता नथी तथा जे घणी मुश्केलीथी देखी शकाय छे ते उत्कृष्ट ज्योति
जयवंत हो. १.
(आर्या )
मनसो ऽचिन्त्यं वाचामगोचरं यन्महस्तनोर्भिन्नम्
स्वानुभवमात्रगम्यं चिद्रूपममूर्तमव्याद्वः ।।।।
अनुवाद : जे चैतन्यरूप तेजना विषयमां मनथी कांई विचार करी शकातो
नथी, वचनथी कांई कही शकातुं नथी तथा जे शरीरथी भिन्न, अनुभव मात्रथी गम्य
अने अमूर्त छे; ते चैतन्यरूप तेज आप लोकोनी रक्षा करो. २.
(आर्या )
वपुरादिपरित्यक्ते मज्जत्यानन्दसागरे मनसि
प्रतिभाति यत्तदेकं जयति परं चिन्मयं ज्योतिः ।।।।
अनुवाद : मनथी बाह्य शरीरादि तरफथी खसीने आनंदरूप समुद्रमां डूबी जतां

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जे ज्योति प्रतिभासित थाय छे ते उत्कृष्ट चैतन्यस्वरूप ज्योति जयवंत हो. ३.
(आर्या )
स जयति गुरुर्गरीयान् यस्मामलवचनरश्मिभिर्झगिति
नश्यति तन्मोहतमो यदविषयो दिनकरादीनाम् ।।।।
अनुवाद : जे अज्ञानरूप अंधकार सूर्यादि द्वारा नष्ट करी शकातो नथी ते
जे गुरुना निर्मळ वचनरूप किरणोद्वारा शीघ्र ज नष्ट थई जाय छे ते श्रेष्ठ गुरु जयवंत
हो. ४.
(आर्या )
आस्तां जरादिदुःखं सुखमपि विषयोद्भवं सतां दुःखम्
तैर्मन्यते सुखं यत्तन्मुक्तौ सा च दुःसाध्या ।।।।
अनुवाद : वृद्धत्व आदिना निमित्ते उत्पन्न थनारूं दुःख तो दूर ज रहे,
परंतु विषयभोगोथी उत्पन्न थयेलुं सुख पण साधु पुरुषोने दुःखरूप ज प्रतिभाषित
थाय छे. तेओ जेने वास्तविक सुख माने छे ते सुख मुक्तिमां छे अने ते घणी
मुश्केलीथी सिद्ध करी शकाय छे. ५.
(आर्या )
श्रुतपरिचितानुभूतं सर्वं सर्वस्य जन्मने सुचिरम्
न तु मुक्त येऽत्र सुलभा शुद्धात्मज्योतिरुपलब्धिः ।।।।
अनुवाद : लोकमां सर्व प्राणीओए चिरकाळथी जन्ममरणरूप संसारना
कारणभूत वस्तुओना विषयमां सांभळ्युं छे, परिचय प्राप्त कर्यो छे तथा अनुभव
पण कर्यो छे. परंतु जे शुद्ध आत्मानी ज्योति मुक्तिना कारणभूत छे तेनी उपलब्धि
तेमने सुलभ नथी. ६.
(आर्या )
बोधोऽपि यत्र विरलो वृत्तिर्वाचामगोचरे बाढम्
अनुभूतिस्तत्र पुनर्दुर्लक्ष्यात्मनि परं गहनम् ।।।।
अनुवाद : जे आत्मा वचनोथी अगोचर छेविकल्पातीत छेते आत्मतत्त्वना

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विषयमां प्रायः ज्ञान ज थतुं नथी. तेना विषयमां स्थिति तो विशेष कठिन छे अने
तेनो अनुभव तो दुर्लभ ज छे. ते आत्मतत्त्व अत्यंत दुर्गम छे. ७.
(आर्या )
व्यवहृतिरबोधजनबोधनाय कर्मक्षयाय शुद्धनयः
स्वार्थं मुमुक्षुरहमिति वक्ष्ये तदाश्रितं किंचित् ।।।।
अनुवाद : व्यवहारनय अज्ञानीजनोने प्रतिबोध करवा माटे छे, परंतु शुद्ध
निश्चयनय कर्मोना नाशनुं कारण छे. तेथी मोक्षनी अभिलाषा राखनार हुं (पद्मनंदी)
स्वना निमित्ते शुद्ध निश्चयनयना आश्रये प्रयोजनभूत आत्मस्वरूपनुं वर्णन करूं छुं. ८.
(आर्या )
व्यवहारो ऽभूतार्थो भूतार्थो देशितस्तु शुद्धनयः
शुद्धनयमाश्रिता ये प्राप्नुवन्ति यतयः पदं परमम् ।।।।
अनुवाद : व्यवहारनयने असत्य पदार्थनो विषय करनार अने निश्चयनयने
यथार्थ वस्तुनो विषय करनार कहेवामां आवेल छे. जे मुनि शुद्ध निश्चयनयनो आश्रय
ले छे ते उत्कृष्ट पद (मोक्ष) ने प्राप्त करे छे. ९.
(आर्या )
तत्त्वं वागतिवर्ति व्यवहृतिमासाद्य जायते वाच्यम्
गुणपर्ययादिविवृतेः प्रसरति तच्चापि शतशाखम् ।।१०।।
अनुवाद : वस्तुनुं यथार्थ स्वरूप वचन अगोचर छे अर्थात् ते वचन द्वारा
कही शकातुं नथी. ते व्यवहारनो आश्रय लईने ज वचन द्वारा कहेवाने योग्य बने
छे ते पण गुणो अने पर्यायो आदिना विवरणथी सेंकडो शाखाओमां विस्तार पामे
छे. १०.
(आर्या )
मुख्योपचारविवृतिं व्यवहारोपायतो यतः सन्तः
ज्ञात्वा श्रयन्ति शुद्धं तत्त्वमिति व्यवहृतिः पूज्या ।।११।।
अनुवाद : सज्जन मनुष्य व्यवहारनयना आश्रये ज मुख्य अने उपचारभूत

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कथन जाणीने शुद्ध स्वरूपनो आश्रय ले छे तेथी ते व्यवहार (पूज्य) ग्राह्य छे. ११.
(आर्या )
आत्मनि निश्चयबोधस्थितयो रत्नत्रयं भवक्षतये
भूतार्थपथप्रस्थितबुद्धेरात्मैव तत्त्रितयम् ।।१२।।
अनुवाद : आत्माना विषयमां द्रढता (सम्यग्दर्शन), ज्ञान अने स्थिति
(चारित्र)रूप रत्नत्रय संसारना नाशनुं कारण छे. परंतु जेनी बुद्धि शुद्ध निश्चयनयना
मार्गमां प्रवृत्त थई चुकी छे तेने ते त्रणे (सम्यग्दर्शनादि) एक आत्मस्वरूप ज छे
तेनाथी भिन्न नथी. १२.
(आर्या )
सम्यक्सुखबोधद्रशां त्रितयमखण्डं परात्मनो रूपम्
तत्तत्र तत्परो यः स एव तल्लब्धिकृतकृत्यः ।।१३।।
अनुवाद : सम्यक् सुख (चारित्र), ज्ञान अने दर्शन आ त्रणेनी एकता
परमात्मानुं अखंड स्वरूप छे. तेथी जे जीव उपर्युक्त परमात्मस्वरूपमां लीन थाय
छे ते ज तेमनी प्राप्तिथी कृतकृत्य थाय छे. १३.
(आर्या )
अग्नाविवोष्णभावः सम्यग्बोधो ऽस्ति दर्शनं शुद्धम्
ज्ञातं प्रतीतमाभ्यां सत्स्वास्थ्यं भवति चारित्रम् ।।१४।।
अनुवाद : जेवी रीते अभेद स्वरूपे अग्निमां उष्णता रहे छे तेवी ज रीते
आत्मामां ज्ञान छे. आ प्रकारनी प्रतीतिनुं नाम शुद्ध सम्यग्दर्शन अने ते ज प्रकारे
जाणवानुं नाम सम्यग्ज्ञान छे. आ बन्नेनी साथे उक्त आत्माना स्वरूपमां स्थित
थवानुं नाम सम्यक्चारित्र छे. १४.
(आर्या )
विहिताभ्यासा बहिरर्थवेध्यसंबन्धिनो द्रगादिशराः
सफलाः शुद्धात्मरणे छिन्दितकर्मारिसंघाताः ।।१५।।
अनुवाद : जे सम्यग्दर्शन आदिरूप बाण बाह्य वस्तुरूप वेध्य (लक्ष्य)

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साथे संबंध राखे छे तथा जेमणे आ कार्यनो अभ्यास पण कर्यो छे ते
सम्यग्दर्शनादिरूप बाण शुद्ध आत्मारूप रणमां कर्मरूप शत्रुओना समूहनो नाश
करीने सफळ थाय छे. १५.
(आर्या )
हिंसोज्झित एकाकी सर्वोपद्रवसहो वनस्थो ऽपि
तरुरिव नरो न सिध्यति सम्यग्बोधाद्रते जातु ।।१६।।
अनुवाद : जे मनुष्य वृक्ष समान हिंसा कर्म रहित छे, एकलो छे अर्थात्
कोई सहायकनी अपेक्षा राखतो नथी, समस्त उपद्रवो सहन करे छे तथा वनमां स्थित
पण छे छतां पण ते सम्यग्ज्ञान विना कदी पण सिद्ध थई शकतो नथी.
विशेषार्थ : वनमां एकलुं रहेल जे वृक्ष ठंडी अने गरमी आदिना उपद्रवो सहन करे
छे तथा स्थावर होवाना कारणे हिंसाकर्मथी पण रहित छे छतां य सम्यग्ज्ञान रहित होवाना कारणे
जेम ते कदी मुक्ति पामी शकतुं नथी ते ज रीते मनुष्य साधु थईने सर्व प्रकारना उपद्रवो अने
परिषहो सहन करे छे, घर छोडीने वनमां एकाकीपणे रहे छे तथा प्राणीओना घातथी विरत छे;
छतां पण जो तेणे सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर्युं नथी तो ते पण कदी मुक्त थई शकतो नथी. १६.
(आर्या )
अस्पृष्टमबद्धमनन्यमयुतमविशेषभ्रमोपेतः
यः पश्यत्यात्मानं स पुमान् खलु शुद्धनयनिष्ठः ।।१७।।
अनुवाद : जे भव्य जीव भ्रमरहित थईने पोताने कर्मथी अस्पृष्ट, बंधरहित,
एक, परना संयोग रहित तथा पर्यायना संबंध रहित शुद्ध द्रव्यस्वरूपने देखे छे
तेने निश्चयथी शुद्ध नयमां निष्ठा राखनार समजवो जोईए. १७.
(आर्या )
शुद्धाच्छुद्धमशुद्धं ध्यायन्नाप्नोत्यशुद्धमेव स्वम्
जनयति हेम्नो हैमं लोहाल्लो [लौ] हं नरः कटकम् ।।१८।।
अनुवाद : जीव शुद्ध निश्चयनयथी शुद्ध आत्मानुं ध्यान करतो शुद्ध ज
आत्मस्वरूपने प्राप्त करे छे तथा व्यवहारनयनुं अवलंबन लईने अशुद्ध आत्मानो
विचार करतो अशुद्ध ज आत्मस्वरूपने प्राप्त करे छे. बराबर छे
मनुष्य सोनामांथी
सोनामय कडुं अने लोढामांथी लोहमय कडुं ज उत्पन्न करे छे. १८.