Page 255 of 378
PDF/HTML Page 281 of 404
single page version
तीव्र अग्नि द्वारा बाळी नाखवुं जोईए. २०.
मने तेनाथी भय शानो? अर्थात् कांई पण भय नथी.
आत्मा स्व-परना भेदज्ञान द्वारा निश्चयथी निर्मळ थई जाय छे. तेथी विवेकी (भेदज्ञानी) जीवने
कर्मकृत ते मलिनतानो कांई पण भय रहेतो नथी. २१.
Page 256 of 378
PDF/HTML Page 282 of 404
single page version
पोताने अनुकूळ न होय त्यां शुं शत्रु पोताने अनुकूळ होई शके? अर्थात् होई शके
नहि. २२.
Page 257 of 378
PDF/HTML Page 283 of 404
single page version
भिन्न छे. हुं स्वभावे शुद्ध छुं तेथी कोई पण विकार मारो क्यांथी होई शके? न
होई शके. २७.
हर्ष अने विषाद करे छे, नहि के ज्ञानी जीव. २८.
ममत्वबुद्धिथी रहित थयेल मोक्षाभिलाषी जीव सुखी थाय छे. २९.
Page 258 of 378
PDF/HTML Page 284 of 404
single page version
समस्त उपाधि रहित छुं. ३०.
छे. परंतु हुं निश्चयथी एक छुं अने तेथी समस्त चिन्ताओथी रहित थयो थको मोक्षनो
अभिलाषी छुं. ३२.
पण शुं प्रयोजन छे? अर्थात् एमनाथी मारे कांई पण प्रयोजन नथी. कारण ए
छे के हुं एमनाथी भिन्न होईने सर्वदा एक स्वरूप छुं. ३३.
Page 259 of 378
PDF/HTML Page 285 of 404
single page version
शुं प्रयोजन छे? कांई पण नथी. कारण के हुं विकार रहित, एक अने निर्मळ
ज्ञानस्वरूप छुं. ३४.
पामे छे. ३५.
भला मारे (आत्माने) चिन्ता क्यांथी होई शके? अर्थात् होई शके नहि. ३६.
Page 260 of 378
PDF/HTML Page 286 of 404
single page version
देशे, एमां शंका नथी. ३७.
तुं अमृतरूप फळनुं ग्रहण कर.
करवानो प्रयत्न करे तो तेने एनाथी पण क्यांय अधिक सुख प्राप्त थई शके. बराबर ए
ज प्रमाणे आ जीव मनुष्य पर्याय पामीने तेनाथी प्राप्त थता विषयसुखनो अनुभव करतो
थको एटला मात्रथी ज संतुष्ट थई जाय छे. परंतु ते अज्ञानवश एम नथी विचारतो के
आ मनुष्य पर्यायथी तो ते अजर
आव्यो छे के तुं आ दुर्लभ मनुष्य पर्याय पामीने ते अस्थिर विषय सुखमां ज संतुष्ट न
था, परंतु स्थिर मोक्षसुख प्राप्त करवानो उद्यम कर. ३८.
करे छे.
प्रकारना संकल्प
Page 261 of 378
PDF/HTML Page 287 of 404
single page version
थई जाय छे.
पोतानुं शुद्ध चैतन्यस्वरूप प्रगट थई जाय छे. तेनुं अवलोकन करता योगी सिद्ध अवस्थाने प्राप्त
थई जाय छे. ४०.
शके नहि ए योग्य पण छे केम के समान व्यक्तिओमां जे प्रेम होय छे ते ज
कल्याणकारक थाय छे. ४१.
स्थित थई जाय छे. ४२.
Page 262 of 378
PDF/HTML Page 288 of 404
single page version
आ रीते ते आत्मतत्त्वनो स्वीकार करवामां जो के मन कारण थाय छे, छतां पण निश्चयनयनी
अपेक्षाए ते आत्मतत्त्व केवळ स्वानुभव द्वारा ज गम्य छे, नहि के अन्य मन आदि द्वारा. ४४.
(अद्वैत) अविनश्वर मुक्तिनुं कारण अने द्वितीय (द्वैत) विकल्प केवळ संसारनुं
कारण छे. ४५.
Page 263 of 378
PDF/HTML Page 289 of 404
single page version
छे ते मुक्त थई जाय छे. ४६.
ज्यारे आ मन अद्वैतनी भावनाथी द्रढता पामी जाय छे त्यारे जीवने परमानंदस्वरूप पद प्राप्त
थाय छे. ४७.
छे
ते ज प्रकारे स्थित थई जा. ४९.
Page 264 of 378
PDF/HTML Page 290 of 404
single page version
चैतन्यस्वरूप जयवंत रहे.
प्राप्त थाय छे के तरत ज ते बुद्धि आगम तरफथी विमुख थईने ते चैतन्यस्वरूपमां ज लीन थई
जाय छे. एनाथी ज जीवने शाश्वत सुखनी प्राप्ति थाय छे. ५०.
जाय छे ते आत्मज्योतिने नमस्कार करो. ५१.
नमस्कार करो.
छे. आवा आत्मतेजने नमस्कार करवा जोईए. ५२.
Page 265 of 378
PDF/HTML Page 291 of 404
single page version
रहित छे. ५३.
पदार्थोनो विषय करनार दर्शन अने ज्ञान उक्त चैतन्यस्वरूपथी भिन्न नथी. ५५.
नष्ट थई जाय छे. ५६.
अविद्यमान जेवो लागे छे. ५७.
Page 266 of 378
PDF/HTML Page 292 of 404
single page version
तेने प्राप्त करीने हेय
होवा छतां पण सुखी छुं.
बोध कराव्यो छे तेथी हुं ए जाणी गयो छुं के वास्तवमां न हुं कर्मथी बंधायो छुं, न दरिद्री
छुं अने न तपथी दुःखी पण छुं. कारण ए छे के निश्चयथी हुं कर्मबंध रहित, अनंत चतुष्टयरूप
लक्ष्मीसहित अने परमानंदथी परिपूर्ण छुं. आ परपदार्थ शुद्ध आत्मस्वरूप उपर कांई पण प्रभाव
पाडी शकता नथी. ५९.
Page 267 of 378
PDF/HTML Page 293 of 404
single page version
कर्या करे छे, निश्चयथी जोवामां आवे तो जीव कर्मबंध रहित शुद्ध ज्ञाता द्रष्टा छे, तेने कोई पण
बाह्य पर पदार्थ साथे प्रयोजन नथी. ६०.
प्रकरण रचवामां आव्युं छे. ६१.
छे. तेना विषयमां तो शुं कहुं? परंतु मने तो त्यारे इन्द्रनी संपत्तिनुं य कांई प्रयोजन
नथी. ६२.
Page 268 of 378
PDF/HTML Page 294 of 404
single page version
द्राक् तेषामपि येन वक्षसि
यैः शस्त्रग्रहवर्जितैरपि जितस्तेभ्यो यतिभ्यो नमः
कामदेवरूप सुभटने जे शान्त मुनिओए शस्त्र विना ज सहेलाईथी जीती लीधो छे
ते मुनिओने नमस्कार हो. १.
स्वाङ्गासंगविवर्जितैकमनसस्तद्ब्रह्मचर्यं मुनेः
ाृद्धाद्या विजितेन्द्रियो यदि तदा स ब्रह्मचारी भवेत्
रहित थई गयुं छे तेने ज ते ब्रह्मचर्य होय छे. आम थतां जो इन्द्रियविजयी थईने
वृद्धा वगेरे (युवती, बाळा) स्त्रीओने क्रमशः पोतानी माता, बहेन अने पुत्री समान
समजे छे तो ते ब्रह्मचारी थाय छे.
Page 269 of 378
PDF/HTML Page 295 of 404
single page version
बे प्रकारनुं छे. पोतानी पत्नीने छोडीने बाकीनी बधी स्त्रीओने यथायोग्य माता, बहेन अने पुत्री
समान मानीने तेमना प्रत्ये रागपूर्वक व्यवहार न करवो; तेने ब्रह्मचर्याणुव्रत अथवा स्वदारसंतोष
पण कहेवामां आवे छे. तथा अन्य स्त्रीओनी जेम पोतानी पत्नीना विषयमां पण अनुरागबुद्धि
न राखवी, ए ब्रह्मचर्य महाव्रत कहेवाय छे जे मुनिने होय छे. पोताना विशुद्ध आत्मस्वरूपमां
ज रमण करवानुं नाम निश्चय ब्रह्मचर्य छे . आ ते महामुनिओने होय छे जे अन्य बाह्य पदार्थोना
विषयमां तो शुं, परंतु पोताना शरीरना विषयमां पण निःस्पृह थई गया छे. आ जातना ब्रह्मचर्यनुं
ज स्वरूप प्रस्तुत श्लोकमां निर्दिष्ट करवामां आव्युं छे. २.
प्रायश्चित्तविधिं करोति रजनीभागानुगत्या मुनिः
तस्य स्याद्यदि जाग्रतोऽपि हि पुनस्तस्यां महच्छोधनम्
प्रायश्चित्त करे छे. अने जो कर्मोदयवश रागनी प्रबळताथी अथवा दुष्ट अभिप्रायथी
जागृत अवस्थामां तेवो अतिचार थाय तो तेमने महान प्रायश्चित्त करवुं पडे छे. ३.
र्वर्षणैकदिने शिलाकणचरे पारावते सा सदा
त्तद्रक्षां
कबूतर कांकरा खाय छे तेने ते अनुराग निरंतर रह्या करे छे. अथवा भोजनना
गुणथी
Page 270 of 378
PDF/HTML Page 296 of 404
single page version
निग्रह प्राप्त कराववामां आवेल एक साधुनुं मन ज करे छे. ४.
शेषाणां च यथाबलं प्रभवतां बाह्यं मुनेर्ज्ञानिनः
नित्यानन्दविधायि कार्यजनकं सर्वत्र हेतुद्वयम्
आनाथी फरी ते अंतरंग संयम उत्पन्न थाय छे जे चैतन्य अने चित्तना एकरूप
थई जवाथी शाश्वत सुख उत्पन्न करे छे. बराबर छे
तत्संगेन कुतो मुनेर्व्रतविधिः स्तोकोऽपि संभाव्यते
कर्तव्यो व्रतिभिः समस्तयुवतित्यागे प्रयत्नो महान्
संगथी मुनिने थोडाय व्रताचरणनी संभावना क्यांथी होई शके? न होई शके.
तेथी जेमनी बुद्धि संसार परिभ्रमणथी भय पामी छे तथा जे तपनुं अनुष्ठान
करे छे ते संयमी मनुष्योए समस्त स्त्रीओना त्यागनो प्रयत्न करवो जोईए. ६.
Page 271 of 378
PDF/HTML Page 297 of 404
single page version
तद्वार्तापि यतेर्यतित्वहतये कुर्यान्न किं सा पुनः
सींचवा माटे सारिणी (नानी नदी के झारी) समान छे, जे पुरुषरूप हरणने
बांधवा माटे जाळ समान छे तथा जेना संगथी सज्जनोने पण प्राणघातादि
(हिंसादि) दोष वधे छे; ते स्त्रीनुं नाम लेवुं पण जो मुनिव्रतना नाशनुं कारण
थतुं होय तो भला ते स्वयं शुं न करी शके? अर्थात् ते बधा व्रत
तावच्छुभ्रतरा गुणाः शुचिमनस्तावत्तपो निर्मलम्
छे. त्यां सुधी ज तेमनी मनोहर कीर्तिनो विस्तार थाय छे. त्यांसुधी ज तेना निर्मळ
गुण विद्यमान रहे छे. त्यांसुधी ज तेनुं मन पवित्र रहे छे, त्यांसुधी ज निर्मळ तप
रहे छे, त्यांसुधी ज धर्मकथा सुशोभित रहे छे अने त्यांसुधी ज ते दर्शनने योग्य
रहे छे. ८.
मुक्ते रागितयाङ्गनास्मृतिरपि क्लेशं करोति ध्रुवम्
किं नानर्थपरंपरामिति यतेस्त्याज्याबला दूरतः
Page 272 of 378
PDF/HTML Page 298 of 404
single page version
करे छे. तो भला तेनी समीपता, दर्शन, वार्तालाप अने स्पर्श आदि शुं अनर्थोनी
नवी परंपरा नथी करतां? अर्थात् अवश्य करे छे. तेथी साधुए एवी स्त्रीनो दूरथी
ज त्याग करवो जोईए. ९.
नात्मीया युवतिर्यतित्वमभवत्तत्त्यागतो यत्पुरा
स्यादापज्जननद्वयक्षयकरी त्याज्यैव योषा यतेः
प्राप्ति दुर्लभ छे. ए सिवाय जो पोतानी ज स्त्री मुनि पासे होय तो ए पण संभवित
नथी; कारण के पूर्वे तेनो त्याग करीने तो मुनिधर्मनो स्वीकार कर्यो छे. जो कोई
बीजा पुरुषनी स्त्री साथे अनुराग करवामां आवे तो राजा द्वारा तथा ते स्त्रीना पति
द्वारा इन्द्रिय छेदन आदि कष्टने प्राप्त थाय छे तेथी साधुए बन्ने लोकनो नाश
करनारी स्त्रीनो त्याग ज करवो जोईए. १०.
तत्त्यागे यतिरादधाति नियतं स ब्रह्मचर्यं परम्
पुंसस्तेन विना तदा तदुभयभ्रष्टत्वमापद्यते
उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य धारण करे छे. जो ते ब्रह्मचर्यना विषयमां विकळता (दोष) होय तो
पछी अन्य सर्व व्रत नष्ट थई जाय छे. आ रीते ते ब्रह्मचर्य विना पुरुष बन्नेय
Page 273 of 378
PDF/HTML Page 299 of 404
single page version
स्त्रीणामप्यतिरूपगर्वितधियामङ्गं शवाङ्गायते
छे. स्त्रीना शरीरमां संबद्ध लावण्य आदि पण विनश्वर छे तेथी हे मुने! तेना शरीर
उपर लगाडेल कुमकुम अने काजळ आदिनी रचना जोईने तुं मोह न पाम. १२.
यस्य स्त्रीवपुषः पुरः परिगतैः प्राप्ता प्रतिष्ठा न हि
र्भीतैश्छादितनासिकैः पितृवने
अवस्थाने प्राप्त थतां स्मशानमां फेंकी देवामां आवे छे अने पक्षी तेने आमतेम
खोतरीने छिन्न भिन्न करी नाखे छे त्यारे आवी अवस्थामां तेने जोईने भय पामेला
लोको नाक बंध करीने तरत ज छोडी दे छे
भूषावत्तदपि प्रमोदजनकं मूढात्मनां नो सताम्
लब्ध्वा तुष्यति कृष्णकाकनिकरो नो राजहंसव्रजः
Page 274 of 378
PDF/HTML Page 300 of 404
single page version
नहि के सजजन मनुष्योने. बराबर छे
के राजहंसोनो समूह. १४.
तच्छिद्रे नयने कुचौ पलभरौ बाहू तते कीकसे
पादस्थूणमिदं किमत्र महतां रागाय संभाव्यते
भूजाओ लांबा हाडकां छे, पेट मळ
पुरुषोने अनुरागनुं कारण होई शके? अर्थात् तेमने माटे ते अनुरागनुं कारण पण
होतुं नथी. १५.
यो रागान्धतयादरेण वनितावक्त्रस्य लालां पिबेत्
श्चर्मानद्धकपालमेतदपि यैरग्रे सतां वर्ण्यते
विषयमां अमे शुं कहीए? परंतु जे कविओ पोताना स्पष्ट वचनोना विस्तारथी
सज्जनो आगळ चामडाथी आच्छादित आ कपाळयुक्त मुखने चंद्रमा समान सुंदर
बतावे छे तेओ पण प्रशंसनीय गणाय छे