Padmanandi Panchvinshati-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 19-62 (11. Nishchayapanchashat),1 (12. Brahmacharyarakshavarti),2 (12. Brahmacharyarakshavarti),3 (12. Brahmacharyarakshavarti),4 (12. Brahmacharyarakshavarti),5 (12. Brahmacharyarakshavarti),6 (12. Brahmacharyarakshavarti),7 (12. Brahmacharyarakshavarti),8 (12. Brahmacharyarakshavarti),9 (12. Brahmacharyarakshavarti),10 (12. Brahmacharyarakshavarti),11 (12. Brahmacharyarakshavarti),12 (12. Brahmacharyarakshavarti),13 (12. Brahmacharyarakshavarti),14 (12. Brahmacharyarakshavarti),15 (12. Brahmacharyarakshavarti),16 (12. Brahmacharyarakshavarti); 12. Brahmacharyarakshavarti.

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(आर्या )
सानुष्ठानविशुद्धे द्रग्बोधे जृम्भिते कुतो जन्म
उदिते गभस्तिमालिनि किं न विनश्यति तमो नैशम् ।।१९।।
अनुवाद : चारित्र सहित विशुद्ध सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान वृद्धि पामतां
भला जन्ममरणरूप संसार क्यांथी रही शके? अर्थात् रही शकतो नथी. ठीक छेसूर्यनो
उदय थतां शुं रात्रिनो अंधकार नष्ट नथी थतो? अवश्य ज ते नष्ट थई जाय छे. १९.
(आर्या )
आत्मभुवि कर्मबीजाच्चित्ततरुर्यत्फलं फलति जन्म
मुक्त्यर्थिना स दाह्यो भेदज्ञानोग्रदावेन ।।२०।।
अनुवाद : आत्मारूप पृथ्वी उपर कर्मरूप बीजथी उत्पन्न थयेल आ चित्तरूप
वृक्ष जे संसाररूप फळ उत्पन्न करे छे तेने मोक्षाभिलाषी जीवे भेदज्ञानरूप तीक्ष्ण
तीव्र अग्नि द्वारा बाळी नाखवुं जोईए. २०.
(आर्या )
अमलात्मजलं समलं करोति मम कर्मकर्दमस्तदपि
का भीतिः सति निश्चितभेदकरज्ञानकतकफले ।।२१।।
अनुवाद : जोके कर्मरूपी कीचड मारा निर्मळ आत्मारूप जळने मलिन करे
छे तो पण निश्चित भेदने प्रगट करनार ज्ञान (भेदज्ञान) रूप निर्मळी फळ होतां
मने तेनाथी भय शानो? अर्थात् कांई पण भय नथी.
विशेषार्थ : जेम कीचडथी मलिन करवामां आवेलुं पाणी निर्मळी फळ (फटकडी) नाखतां
स्वच्छ थई जाय छे तेवी ज रीते कर्मना उदयथी उत्पन्न दुष्ट क्रोधादि विकारो द्वारा मलिन थयेल
आत्मा स्व-परना भेदज्ञान द्वारा निश्चयथी निर्मळ थई जाय छे. तेथी विवेकी (भेदज्ञानी) जीवने
कर्मकृत ते मलिनतानो कांई पण भय रहेतो नथी. २१.
(आर्या )
अन्योऽहमन्यमेतच्छरीरमपि किं पुनर्न बहिरर्थाः
व्यभिचारी यत्र सुतस्तत्र किमरयः स्वकीयाः स्युः ।।२२।।

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अनुवाद : जो हुं अन्य छुं अने आ शरीर पण अन्य छे तो शुं प्रत्यक्ष
भिन्न देखातां बाह्य पदार्थ (स्त्रीपुत्र आदि) माराथी भिन्न नथी? अर्थात् तेओ
तो अवश्य ज भिन्न छे. बराबर छे ज्यां पोतानो पुत्र ज व्यभिचारी होय अर्थात्
पोताने अनुकूळ न होय त्यां शुं शत्रु पोताने अनुकूळ होई शके? अर्थात् होई शके
नहि. २२.
(आर्या )
व्याधिस्तुदति शरीरं न माममूर्तं विशुद्धबोधमयम्
अग्निर्दहति कुटीरं न कुटीरासक्त माकाशम् ।।२३।।
अनुवादःरोग शरीरने पीडा करे छे, ते अमूर्त अने निर्मळ ज्ञानस्वरूप मने
(आत्माने) पीडा करतो नथी. योग्य छेअग्नि झुंपडीने ज बाळे छे, नहि के झुंपडी
साथे आकाशने पण. २३.
(आर्या )
वपुराश्रितमिदमखिलं क्षुधादिभिर्भवति किमपि यदसातम्
नो निश्चयेन तन्मे यदहं बाधाविनिर्मुक्त : ।।२४।।
अनुवाद : भूखतरस वगेरे द्वारा जे कांई पण दुःख थाय छे ते बधुं शरीराश्रित
छे. निश्चयथी ते (दुःख) मने नथी कारण के हुं स्वभावे बाधा रहित छुं. २४.
(आर्या )
नैवात्मनो विकारः क्रोधादिः किंतु कर्मसंबन्धात्
स्फ टिकमणेरिव रक्त त्वमाश्रितात्पुष्पतो रक्तात् ।।२५।।
अनुवाद : क्रोध आदि विकार आत्माना नथी, परंतु तेओ कर्म साथे
संबंधवाळा होवाने लीधे तेनाथी भिन्न छे. जेमलाल फूलना आश्रये स्फटिकमणिने
प्राप्त थयेल लालिमा वास्तवमां तेनी नथी होती. २५.
(आर्या )
कुर्यात्कर्म विकल्पं किं मम तेनातिशुद्धरूपस्य
मुखसंयोगजविकृतेर्न विकारी दर्पणो भवति ।।२६।।

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अनुवाद : कर्म विकल्प भले करे, अतिशय शुद्ध स्वरूप युक्त एवा मारी
तेना द्वारा शी हानि थई शके? कांई पण नहि. बराबर छेमुखना संयोगथी उत्पन्न
थयेल विकारना कारणे कांई दर्पण विकारयुक्त थई जतुं नथी. २६.
(आर्या )
आस्तां बहिरुपधिचयस्तनुवचनविकल्पजालमप्यपरम्
कर्मकृतत्वान्मत्तः कुतो विशुद्धस्य मम किंचित् ।।२७।।
अनुवाद : बाह्य उपाधिओनो समूह (स्त्रीपुत्रधनादि) तो दूर ज रहो,
परंतु शरीर अने वचन संबंधी विकल्पोनो समूह पण कर्मकृत होवाना कारणे माराथी
भिन्न छे. हुं स्वभावे शुद्ध छुं तेथी कोई पण विकार मारो क्यांथी होई शके? न
होई शके. २७.
(आर्या )
कर्म परं तत्कार्यं सुखमसुखं वा तदेव परमेव
तस्मिन् हर्षविषादौ मोही विदधाति खलु नान्यः ।।२८।।
अनुवाद : कर्म भिन्न छे तथा तेना कार्यभूत जे सुख अने दुःख छे ते
पण भिन्न छे. कर्मना कार्यभूत ते सुख अने दुःखमां निश्चयथी अज्ञानी जीव ज
हर्ष अने विषाद करे छे, नहि के ज्ञानी जीव. २८.
(आर्या )
कर्म न यथा स्वरूपं न तथा तत्कार्यकल्पनाजालम्
तत्रात्ममतिविहीनो मुमुक्षुरात्मा सुखी भवति ।।२९।।
अनुवाद : जेवी रीते कर्म आत्मानुं स्वरूप नथी तेवी ज रीते तेना कार्यभूत
विकल्पोनो समूह पण आत्मानुं स्वरूप नथी. तेथी तेमनामां आत्मबुद्धि अर्थात्
ममत्वबुद्धिथी रहित थयेल मोक्षाभिलाषी जीव सुखी थाय छे. २९.
(आर्या )
कर्मकृतकार्यजाते कर्मैव विधौ तथा निषेधे च
नाहमतिशुद्धबोधो विधूतविश्वोपधिर्नित्यम् ।।३०।।

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अनुवाद : कर्मकृत कार्यसमूह (रागद्वेषादि) अने तेनी विधि तथा निषेधमां
कर्म ज कारण छे. हुं (आत्मा) नथी. हुं तो सदा अतिशय निर्मळ ज्ञानस्वरूप होईने
समस्त उपाधि रहित छुं. ३०.
(आर्या )
बाह्यायामपि विकृतौ मोही जागर्ति सर्वदात्मेति
किं नोपभुक्त हेमो हेम ग्रावाणमपि मनुते ।।३१।।
अनुवाद : अज्ञानी जीव कर्मकृत बाह्य विकारमां पण निरंतर ‘हुं छुं’ एम
माने छे. बराबर छे.जेणे धतूरानुं फळ खाधुं होय ते शुं पथ्थरने पण सुवर्ण नथी
मानतो? माने ज छे.
विशेषार्थ : जेवी रीते धतूरानुं फळ खाईने मनुष्य तेना उन्मादथी पथ्थरने पण सुवर्ण
माने छे तेवी ज रीते मिथ्याज्ञानी जीव मिथ्यात्वना प्रभावथी जे बाह्य विकार (रागद्वेष, स्त्री,
पुत्र अने धन आदि) कर्मजनित होईने आत्माथी भिन्न छे तेमने ते पोताना माने छे. ३१.
(आर्या )
सति द्वितीये चिन्ता कर्म ततस्तेन वर्तते जन्म
एको ऽस्मि सकलचिन्तारहितो ऽस्मि मुमुक्षुरिति नियतम् ।।३२।।
अनुवाद : आत्माथी भिन्न कोई बीजो पदार्थ होतां तेने माटे चिन्ता उत्पन्न
थाय छे, तेनाथी कर्मनो बंध थाय छे तथा ते कर्मबंधथी फरी जन्म परंपरा चाले
छे. परंतु हुं निश्चयथी एक छुं अने तेथी समस्त चिन्ताओथी रहित थयो थको मोक्षनो
अभिलाषी छुं. ३२.
(आर्या )
याद्रश्यपि तद्रश्यपि परतश्चिन्ता करोति खलु बन्धम्
किं मम तया मुमुक्षोः परेण किं सर्वदैकस्य ।।३३।।
अनुवाद : अन्य पदार्थना निमित्ते जे कोई पण प्रकारनी चिन्ता थाय छे
ते निश्चयथी कर्मबंध करे छे. मोक्षना इच्छुक मारे ते चिन्ताथी अने परवस्तुओथी
पण शुं प्रयोजन छे? अर्थात् एमनाथी मारे कांई पण प्रयोजन नथी. कारण ए
छे के हुं एमनाथी भिन्न होईने सर्वदा एक स्वरूप छुं. ३३.

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(आर्या )
मयि चेतः परजातं तच्च परं कर्म विकृतिहेतुरतः
किं तेन निर्विकारः केवलमहममलबोधात्मा ।।३४।।
अनुवाद : मारामां जे चित्त छे ते परथी उत्पन्न थयेल छे अने ते पर
(जेनाथी चित्त उत्पन्न थयुं छे) कर्म छे के जे विकारनुं कारण छे. तेथी मारे तेनाथी
शुं प्रयोजन छे? कांई पण नथी. कारण के हुं विकार रहित, एक अने निर्मळ
ज्ञानस्वरूप छुं. ३४.
(आर्या )
त्याज्या सर्वा चिन्तेति बुद्धिराविष्करोति तत्तत्त्वम्
चन्द्रोदयायते यच्चैतन्यमहोदधौ झगिति ।।३५।।
अनुवाद : सर्व चिन्ता त्यागवा योग्य छे. आ जातनी बुद्धि ते तत्त्वने प्रगट
करे छे के जे चैतन्यरूप महासमुद्रनी वृद्धिमां शीघ्र ज चन्द्रमानुं काम करे छे.
विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के जेवी रीते चन्द्रमानो उदय थतां समुद्र वृद्धि
पामे छे तेवी ज रीते ‘सर्व प्रकारनी चिन्ता हेय छे’ आ भावनाथी चैतन्यस्वरूप पण वृद्धि
पामे छे. ३५.
(आर्या )
चैतन्यमसंपृक्तं कर्मविकारेण यत्तदेवाहम्
तस्य च संसृतिजन्मप्रभृति न किंचित्कुतश्चिन्ता ।।३६।।
अनुवाद : जे चेतन तत्त्व कर्मकृत विकारना संसर्ग रहित छे ते ज हुं छुं.
तेने (चैतन्यस्वरूप आत्माने) संसार अने जन्म-मरणादि कांई पण नथी. तो पछी
भला मारे (आत्माने) चिन्ता क्यांथी होई शके? अर्थात् होई शके नहि. ३६.
(आर्या )
चित्तेन कर्मणा त्वं बद्धो यदि बध्यते त्वया तदतः
प्रतिबन्दीकृतमात्मन् मोचयति त्वां न संदेहः ।।३७।।
अनुवाद : हे आत्मन्! तुं मन द्वारा कर्मथी बंधायो छो, जो तुं ते मनने

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बांधी दे अर्थात् तेने वश करी ले तो एनाथी ते प्रतिबंदी स्वरूप थईने तने छोडावी
देशे, एमां शंका नथी. ३७.
(आर्या )
नृत्वतरोर्विषयसुखच्छायालाभेन किं मनःपान्थ
भवदुःखक्षुत्पीडित तुष्टोऽसि गृहाण फलममृतम् ।।३८।।
अनुवाद : हे सांसारिक दुःखरूप क्षुधाथी पीडित मनरूप पथिक! तुं मनुष्य
पर्यायरूप वृक्षनी विषयसुखरूप छायानी प्राप्तिथी ज शा माटे संतुष्ट थाय छे? तेनाथी
तुं अमृतरूप फळनुं ग्रहण कर.
विशेषार्थ : जेम सूर्यना तापथी संतप्त कोई मुसाफर मार्गमां छायायुक्त वृक्ष
मेळवीने तेनी केवळ छायाथी ज संतुष्ट थई जाय छे, जो ते तेमां लागेला फळोनुं ग्रहण
करवानो प्रयत्न करे तो तेने एनाथी पण क्यांय अधिक सुख प्राप्त थई शके. बराबर ए
ज प्रमाणे आ जीव मनुष्य पर्याय पामीने तेनाथी प्राप्त थता विषयसुखनो अनुभव करतो
थको एटला मात्रथी ज संतुष्ट थई जाय छे. परंतु ते अज्ञानवश एम नथी विचारतो के
आ मनुष्य पर्यायथी तो ते अजर
अमर पद (मोक्ष) प्राप्त करी शकाय छे के जे अन्य
देवादि पर्यायथी (मेळववुं) दुर्लभ छे. तेथी अहीं मनने संबोधन करीने ए उपदेश आपवामां
आव्यो छे के तुं आ दुर्लभ मनुष्य पर्याय पामीने ते अस्थिर विषय सुखमां ज संतुष्ट न
था, परंतु स्थिर मोक्षसुख प्राप्त करवानो उद्यम कर. ३८.
(आर्या )
स्वान्तं ध्वान्तमशेषं दोषोज्झितकर्मबिम्बमिव मार्गे
विनिहन्ति निरालम्बे संचरदनिशं यतीशानाम् ।।३९।।
अनुवाद : मुनिओनुं मन सूर्यबिंब समान आलंबन रहित मार्गे
निरंतर संचार करतुं थकुं दोष रहित थईने समस्त अज्ञानरूप अंधकारनो नाश
करे छे.
विशेषार्थ : जेम सूर्यनुं बिंब निराधार आकाशमार्गे गमन करतु थकुं दोषा (रात्रि) ना
संबंध रहित थईने समस्त अंधकारनो नाश करी नाखे छे तेवी ज रीते मुनिओनुं मन अनेक
प्रकारना संकल्प
विकल्परूप आश्रय रहित मोक्षमार्गमां प्रवृत्त थईने दोषोना संसर्ग रहित थतुं थकुं
समस्त अज्ञाननो नाश करी नाखे छे. ३९.

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(आर्या )
संविच्छिखिना गलिते तनुमूषाकर्ममदनमयवपुषि
स्वमिव स्वं चिद्रूपं पश्यन् योगी भवति सिद्धः ।।४०।।
अनुवाद : सम्यग्ज्ञानरूप अग्निना निमित्ते शरीररूप बीबामांथी कर्मरूप
मीणनुं शरीर गळी जतां आकाश समान पोताना चैतन्य स्वरूपने देखनार योगी सिद्ध
थई जाय छे.
विशेषार्थ : जेम अग्निना संबंधथी बीबामां रहेलुं मीण गळी जतां त्यां शुद्ध आकाश
ज बाकी रही जाय छे तेवी ज रीते सम्यग्ज्ञान द्वारा शरीरमांथी कार्मण पिंड निजीर्ण थई जतां
पोतानुं शुद्ध चैतन्यस्वरूप प्रगट थई जाय छे. तेनुं अवलोकन करता योगी सिद्ध अवस्थाने प्राप्त
थई जाय छे. ४०.
(आर्या )
अहमेव चित्स्वरूपश्चिद्रूपस्याश्रयो मम स एव
नान्यत् किमपि जडत्वात्प्रीतिः सद्रशेषु कल्याणी ।।४१।।
अनुवाद : हुं ज चित्स्वरूप छुं अने चित्स्वरूप जे हुं छुं तेथी मारो आश्रय
पण ते ज चित्स्वरूप छे. तेना सिवाय जड होवाथी बीजो कोई मारे आधार होई
शके नहि ए योग्य पण छे केम के समान व्यक्तिओमां जे प्रेम होय छे ते ज
कल्याणकारक थाय छे. ४१.
(आर्या )
स्वपरविभागावगमे जाते सम्यक् परे परित्यक्ते
सहजैकबोधरूपे तिष्ठत्यात्मा स्वयं सिद्धः ।।४२।।
अनुवाद : स्व अने परना विभागनुं (भेदनुं) ज्ञान थई जतां आ आत्मा
सारी रीते परने छोडीने स्वयं सिद्ध थयो थको एक पोताना स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपमां
स्थित थई जाय छे. ४२.
(आर्या )
हेयोपादेयविभागभावनाकथ्यमानमपि तत्त्वम्
हेयोपादेयविभागभावनावर्जितं विद्धि ।।४३।।

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अनुवाद : हेय अने उपादेयना विभागनी भावनाथी कहेवामां आवतुं तत्त्व
पण ते हेयउपादेयविभागनी भावना रहित छे एम जाणवुं जोईए.
विशेषार्थ : पर पदार्थ हेय छे अने चैतन्यमय आत्मानुं स्वरूप उपादेय छे, ए रीते
व्यवहारनयनी अपेक्षाए हेयउपादेय विभागनी भवनाथी जोके आत्मतत्त्वनुं वर्णन करवामां आवे
छे; छतां पण निश्चयनयनी अपेक्षाए ते समस्त विकल्पोथी रहित होवाने कारणे उक्त हेय
उपादेयविभागनी भावनाथी पण रहित छे. ४३.
(आर्या )
प्रतिपद्यमानमपि च श्रुताद्विशुद्धं परात्मनस्तत्त्वम्
उररीकरोतु चेतस्तदपि न तच्चेतसो गम्यम् ।।४४।।
अनुवाद : जो के मन आगमनी सहायथी विशुद्ध परमात्मानुं स्वरूप जाणीने
ज तेनो स्वीकार करे छे छतां पण ते आत्मतत्त्व वास्तवमां ते मननो विषय नथी.
विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के आत्मतत्त्वनुं परिज्ञान आगम द्वारा थाय छे अने ते
आगमना विचारमां मन कारण छे कारण के मन विना कोई प्रकारनो य विचार संभवित नथी.
आ रीते ते आत्मतत्त्वनो स्वीकार करवामां जो के मन कारण थाय छे, छतां पण निश्चयनयनी
अपेक्षाए ते आत्मतत्त्व केवळ स्वानुभव द्वारा ज गम्य छे, नहि के अन्य मन आदि द्वारा. ४४.
(आर्या )
अहमेकाक्यद्वैतं द्वैतमहं कर्मकलित इति बुद्धेः
आद्यमनपायि मुक्तेरितरविकल्पं भवस्य परम् ।।४५।।
अनुवाद : ‘‘हुं एकलो छुं.’’ आ प्रकारनी बुद्धिथी अद्वैत तथा ‘‘हुं कर्म
संयुक्त छुं’’ आ प्रकारनी बुद्धिथी द्वैत थाय छे. आ बन्नेमांथी प्रथम विकल्प
(अद्वैत) अविनश्वर मुक्तिनुं कारण अने द्वितीय (द्वैत) विकल्प केवळ संसारनुं
कारण छे. ४५.
(आर्या )
बद्धो मुक्तो ऽहमथ द्वैते सति जायते ननु द्वैतम्
मोक्षायेत्सुभयमनोविकल्परहितो भवति मुक्त : ।।४६।।
अनुवाद : हुं बद्ध छुं अथवा मुक्त छुं, आ प्रकारनी द्वैतबुद्धि थतां निश्चयथी

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द्वैत थाय छे. तेथी जे योगी मोक्षना निमित्ते आ बन्ने विकल्पोथी रहित थई गया
छे ते मुक्त थई जाय छे. ४६.
(आर्या )
गतभाविभवद्भावाभावप्रतिभावभावितं चित्तम्
अभ्यासाच्चिद्रूपं परमानन्दान्वितं कुरुते ।।४७।।
अनुवाद : भूत, भविष्य अने वर्तमान पदार्थोना अभावनी भावनाथी
परिपूर्ण चित्त अभ्यासना बळथी चैतन्यस्वरूपने उत्कृष्ट आनंदथी सहित करी दे छे.
विशेषार्थ : निश्चयथी हुं शुद्ध चैतन्यस्वरूप छुं, तेना सिवाय बीजो कोई पण
पदार्थ मारो न तो थयो हतो, न वर्तमानमां छे अने न भविषयमां थवानो; आ प्रकारे
ज्यारे आ मन अद्वैतनी भावनाथी द्रढता पामी जाय छे त्यारे जीवने परमानंदस्वरूप पद प्राप्त
थाय छे. ४७.
(आर्या )
बद्धं पश्यन् बद्धो मुक्तं मुक्तो भवेत्सदात्मानम्
याति यदीयेन पथा तदेव पुरमश्नुते पान्थः ।।४८।।
अनुवाद : जे जीव आत्माने निरंतर कर्मथी बंधायेलो देखे छे ते कर्मथी
बंधायेलो ज रहे छे परंतु जे तेने मुक्त देखे छे ते मुक्त थई जाय छे. बराबर
छे
मुसाफर जे नगरना मार्गे चाले छे ते ज नगरमां ते पहोंचे छे. ४८.
(आर्या )
मा गा बहिरन्तर्वा साम्यसुधापानवर्धितानन्द
आस्स्व यथैव तथैव च विकारपरिवर्जितः सततम् ।।४९।।
अनुवाद : हे समतारूपी अमृतना पानथी वृद्धिगत आनंदने प्राप्त आत्मन्!
तुं बाह्य तत्त्व अथवा अंतस्तत्त्वमां न जा. तुं जे रीते निरंतर विकार रहित थवाय
ते ज प्रकारे स्थित थई जा. ४९.
(आर्या )
तज्जयति यत्र लब्धे श्रुतभुवि मत्यापगातिधावन्ती
विनिवृत्ता दूरादपि झगिति स्वस्थानमाश्रयति ।।५०।।

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अनुवाद : जे चैतन्यस्वरूप प्राप्त थतां आगमरूप पृथ्वी उपर वेगथी दोडती
बुद्धिरूपी नदी दूरथी पाछी वळीने तरत ज पोताना स्थाननो आश्रय ले छे ते
चैतन्यस्वरूप जयवंत रहे.
विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के ज्यां सुधी चैतन्यस्वरूपनी उपलब्धि नथी थती त्यां
सुधी ज बुद्धि आगमना अभ्यासमां प्रवृत्त थाय छे, परंतु जेवो उक्त चैतन्यस्वरूपनो अनुभव
प्राप्त थाय छे के तरत ज ते बुद्धि आगम तरफथी विमुख थईने ते चैतन्यस्वरूपमां ज लीन थई
जाय छे. एनाथी ज जीवने शाश्वत सुखनी प्राप्ति थाय छे. ५०.
(आर्या )
तन्नमत गृहिताखिलकालत्रयगतजगत्त्रयव्याप्ति
यत्रास्तमेति सहसा सकलोऽपि हि वाक्परिस्पन्दः ।।५१।।
अनुवाद : जे आत्मज्योतिमां त्रणे काळ अने त्रणे लोकना बधा ज पदार्थो
प्रतिभासित थाय छे तथा जे प्रगट थवाथी बधी ज वचन प्रवृत्ति सहसा नष्ट थई
जाय छे ते आत्मज्योतिने नमस्कार करो. ५१.
(आर्या )
तन्नमत विनष्टाखिलविकल्पजालद्रुमाणि परिकलिते
यत्र वहन्ति विदग्धा दग्धवनानीव हृदयानि ।।५२।।
अनुवाद : जे आत्मतेजने जाणी लेतां चतुर जनो बळेला वन समान विनाश
पामेला समस्त विकल्पसमूहरूप वृक्षो युक्त हृदयो धारण करे छे ते आत्मतेजने
नमस्कार करो.
विशेषार्थ : जेम वनमां अग्नि लागतां सर्व वृक्षो बळीने नाश पामी जाय छे तेवी
ज रीते विवेकी मनुष्यना हृदयमां आत्मतेज प्रगट थई जतां समस्त विकल्पसमूह नष्ट थई जाय
छे. आवा आत्मतेजने नमस्कार करवा जोईए. ५२.
(आर्या )
बद्धो वा मुक्तो वा चिद्रूपो नयविचारविधिरेषः
सर्वनयपक्षरहितो भवति हि साक्षात्समयसारः ।।५३।।
अनुवाद : चैतन्य स्वरूप बद्ध छे अथवा मुक्त छे, ए तो नयोने आश्रित

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विचारनुं विधान छे. वास्तवमां समयसार (आत्मस्वरूप) साक्षात् आ बधा नयपक्षोथी
रहित छे. ५३.
(आर्या )
नयनिक्षेपप्रमितिप्रभृतिविकल्पोज्झित परं शान्तम्
शुद्धात्मानुभूतिगोचरमहमेकं धाम चिद्रूपम् ।।५४।।
अनुवाद : जे चैतन्य स्वरूप तेज नय, निक्षेप अने प्रमाण आदि विकल्पो
रहित, उत्कृष्ट, शान्त, एक अने शुद्ध अनुभवनो विषय छे ते ज हुं छुं. ५४.
(आर्या )
ज्ञाते ज्ञातमशेषं द्रष्टे द्रष्टं च शुद्धचिद्रूपे
निःशेषबोध्यविषयौ द्रग्बोधौ यन्न तद्भिन्नौ ।।५५।।
अनुवाद : शुद्ध चैतन्य स्वरूपनुं ज्ञान थई जतां बधुं ज जणाई जाय छे
तथा तेने जोई लेतां बधुं ज देखवामां आवी जाय छे. कारण ए के समस्त ज्ञेय
पदार्थोनो विषय करनार दर्शन अने ज्ञान उक्त चैतन्यस्वरूपथी भिन्न नथी. ५५.
(आर्या )
भावे मनोहरेऽपि च काचिन्नियता च जायते प्रीतिः
अपि सर्वाः परमात्मनि द्रष्टे तु स्वयं समाप्यन्ते ।।५६।।
अनुवाद : मनोहर पदार्थना विषयमां पण कांईक नियमित (मर्यादित) ज
प्रीति उत्पन्न थाय छे. परंतु परमात्माना दर्शन थतां सर्व प्रकारनी प्रीति स्वयमेव
नष्ट थई जाय छे. ५६.
(आर्या )
सन्नप्यसन्निव विदां जनसामान्यो ऽपि कर्मणो योगः
तरणपटूनामृद्धः पथिकानामिव सरित्पूरः ।।५७।।
अनुवाद : जेम तरवामां कुशळ मुसाफरो माटे वृद्धिगत थयेलो नदीनो प्रवाह
होवा छतां पण न होवा बराबर छेतेने तेओ कांई पण बाधक मानता नथी
तेवी ज रीते विद्वानोने जनसाधारणमां रहेतो कर्मनो संबंध विद्यमान होवा छतां पण
अविद्यमान जेवो लागे छे. ५७.

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(आर्या )
मृगयमाणेन सुचिरं रोहणभुवि रत्नमीप्सितं प्राप्य
हेयाहेयश्रुतिरपि विलोक्यते लब्धतत्त्वेन ।।५८।।
अनुवाद : जेम लांबा काळथी रोहण पर्वतनी भूमिमां इच्छित रत्न गोतनार
मनुष्य तेने मेळवीने हेय अने उपादेयनी श्रुतिनुं पण अवलोकन करे छेआ ग्रहण
करवा योग्य छे के त्यागवा योग्य, ए प्रकारनो विचार करे छेतेवी ज रीते तत्त्वज्ञ
पुरुष आत्मारूप रोहणभूमिमां चिरकाळथी इच्छित आत्मतत्त्वरूप रत्नने गोततो थको
तेने प्राप्त करीने हेय
उपादेय श्रुतिनुं पण अवलोकन करे छे. ५८.
(आर्या )
कर्मकलितो ऽपि मुक्त : सश्रीको दुर्गतो ऽप्यहमतीव
तपसा दुःख्यपि च सुखी श्रीगुरुपादप्रसादेन ।।५९।।
अनुवाद : हुं कर्मथी संयुक्त होवा छतां पण श्रीगुरुदेवना चरणोना प्रसादथी
मुक्त जेवो ज छुं, अत्यंत दरिद्र होवा छतां पण धनवान छुं, तथा तपथी दुःखी
होवा छतां पण सुखी छुं.
विशेषार्थ : तत्त्वज्ञ जीव विचार करे छे के जो के हुं पर्यायनी अपेक्षाए कर्मथी
बंधायेलो छुं, दरिद्री छुं अने तपथी दुःखी पण छुं तो पण गुरुए जे मने शुद्ध आत्मस्वरूपनो
बोध कराव्यो छे तेथी हुं ए जाणी गयो छुं के वास्तवमां न हुं कर्मथी बंधायो छुं, न दरिद्री
छुं अने न तपथी दुःखी पण छुं. कारण ए छे के निश्चयथी हुं कर्मबंध रहित, अनंत चतुष्टयरूप
लक्ष्मीसहित अने परमानंदथी परिपूर्ण छुं. आ परपदार्थ शुद्ध आत्मस्वरूप उपर कांई पण प्रभाव
पाडी शकता नथी. ५९.
(आर्या )
बोधादस्ति न किंचित्कार्यं यद्द्रश्यते मलात्तन्मे
आकृष्टयन्त्रसूत्राद्दारुनरः स्फु रति नटकानाम् ।।६०।।
अनुवाद : मारे ज्ञान सिवाय बीजुं कांई पण कार्य नथी. बीजुं जो
कांई पण देखाय छे ते कर्ममळथी देखाय छे. जेमनटोनो काष्टमय पुरुष
(कठपुतळी) यंत्रनी दोरी खेंचवाथी नाचे छे.

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विशेषार्थ : जेम नट द्वारा कठपुतलीना यंत्रनी दोरी खेंचवामां आवतां ते कठपुतळी
नाच्या करे छे तेवी ज रीते प्राणी कर्मरूप दोरीथी प्रेरित थईने चार गतिस्वरूप संसारमां परिभ्रमण
कर्या करे छे, निश्चयथी जोवामां आवे तो जीव कर्मबंध रहित शुद्ध ज्ञाता द्रष्टा छे, तेने कोई पण
बाह्य पर पदार्थ साथे प्रयोजन नथी. ६०.
(आर्या )
निश्चयपञ्चाशत् पद्मनन्दिनं सूरिमाश्रिभिः कैश्चित्
शब्दैः स्वशक्ति सूचितवस्तुगुणैर्विरचितेयमिति ।।६१।।
अनुवाद : पद्मनन्दी मुनिनो आश्रय लईने पोतानी शक्तिथी (वाचक
शक्तिथी) वस्तुना गुणोने सूचित करनार केटलाक शब्दो द्वारा आ ‘निश्चय पंचाशत्’
प्रकरण रचवामां आव्युं छे. ६१.
(उपेन्द्रवज्रा)
तृणं नृपश्रीः किमु वच्मि तस्यां न कार्यमाखण्डलसंपदोऽपि
अशेषवाञ्छाविलयैकरूपं तत्त्वं परं चेतसि चेन्ममास्ते ।।६२।।
अनुवाद : जो मारा मनमां समस्त इच्छाओना अभावरूप अनुपम
स्वरूपवाळुं उत्कृष्ट आत्मतत्त्व स्थित होय तो पछी राज्यलक्ष्मी तृण समान तुच्छ
छे. तेना विषयमां तो शुं कहुं? परंतु मने तो त्यारे इन्द्रनी संपत्तिनुं य कांई प्रयोजन
नथी. ६२.
आ रीते निश्चयपंचाशत् अधिकार समाप्त थयो. ११.

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१२. ब्रह्मचर्यरक्षावर्ति
[१२. ब्रह्मचर्यरक्षावर्तिः ]
(शार्दूलविक्रीडित)
भ्रूक्षेपेण जयन्ति ये रिपुकुलं लोकाधिपाः केचन
द्राक् तेषामपि येन वक्षसि
द्रढं रोपः समारोपितः
सोऽपि प्रोद्गतविक्रमः स्मरभटः शान्तात्मभिर्लीलया
यैः शस्त्रग्रहवर्जितैरपि जितस्तेभ्यो यतिभ्यो नमः
।।।।
अनुवाद : जे केटलाय राजा भृकुटिनी वक्रताथी ज शत्रुओने जीती ले छे
तेमना पण वक्षस्थळमां जेणे द्रढताथी बाणनो आघात कर्यो छे एवा ते पराक्रमी
कामदेवरूप सुभटने जे शान्त मुनिओए शस्त्र विना ज सहेलाईथी जीती लीधो छे
ते मुनिओने नमस्कार हो. १.
(शार्दूलविक्रीडित)
आत्मा ब्रह्म विविक्त बोधनिलयो यत्तत्र चर्यं परं
स्वाङ्गासंगविवर्जितैकमनसस्तद्ब्रह्मचर्यं मुनेः
एवं सत्यबलाः स्वमातृभगिनीपुत्रीसमाः प्रेक्षते
ाृद्धाद्या विजितेन्द्रियो यदि तदा स ब्रह्मचारी भवेत्
।।।।
अनुवाद : ब्रह्म शब्दनो अर्थ निर्मळ ज्ञानस्वरूप आत्मा छे, ते आत्मामां
लीन थवानुं नाम ब्रह्मचर्य छे. जे मुनिनुं मन पोताना शरीर संबंधे पण ममत्व
रहित थई गयुं छे तेने ज ते ब्रह्मचर्य होय छे. आम थतां जो इन्द्रियविजयी थईने
वृद्धा वगेरे (युवती, बाळा) स्त्रीओने क्रमशः पोतानी माता, बहेन अने पुत्री समान
समजे छे तो ते ब्रह्मचारी थाय छे.

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विशेषार्थ : व्यवहार अने निश्चयनी अपेक्षाए ब्रह्मचर्यना बे भेद करी शकाय छे. आमां
मैथुन क्रियाना त्यागने व्यवहार ब्रह्मचर्य कहेवामां आवे छे. ते पण अणुव्रत अने महाव्रतना भेदथी
बे प्रकारनुं छे. पोतानी पत्नीने छोडीने बाकीनी बधी स्त्रीओने यथायोग्य माता, बहेन अने पुत्री
समान मानीने तेमना प्रत्ये रागपूर्वक व्यवहार न करवो; तेने ब्रह्मचर्याणुव्रत अथवा स्वदारसंतोष
पण कहेवामां आवे छे. तथा अन्य स्त्रीओनी जेम पोतानी पत्नीना विषयमां पण अनुरागबुद्धि
न राखवी, ए ब्रह्मचर्य महाव्रत कहेवाय छे जे मुनिने होय छे. पोताना विशुद्ध आत्मस्वरूपमां
ज रमण करवानुं नाम निश्चय ब्रह्मचर्य छे . आ ते महामुनिओने होय छे जे अन्य बाह्य पदार्थोना
विषयमां तो शुं, परंतु पोताना शरीरना विषयमां पण निःस्पृह थई गया छे. आ जातना ब्रह्मचर्यनुं
ज स्वरूप प्रस्तुत श्लोकमां निर्दिष्ट करवामां आव्युं छे. २.
(शार्दूलविक्रीडित)
स्वप्ने स्यादतिचारिता यदि तदा तत्रापि शास्त्रोदितं
प्रायश्चित्तविधिं करोति रजनीभागानुगत्या मुनिः
रागोद्रेकतया दुराशयतया सा गौरवात् कर्मणः
तस्य स्याद्यदि जाग्रतोऽपि हि पुनस्तस्यां महच्छोधनम्
।।।।
अनुवाद : जो स्वप्नमां पण कदाच ब्रह्मचर्यना विषयमां अतिचार (दोष)
उत्पन्न थाय छे तो मुनि तेना विषयमां पण रात्रिविभाग अनुसार विधिपूर्वक
प्रायश्चित्त करे छे. अने जो कर्मोदयवश रागनी प्रबळताथी अथवा दुष्ट अभिप्रायथी
जागृत अवस्थामां तेवो अतिचार थाय तो तेमने महान प्रायश्चित्त करवुं पडे छे. ३.
(शार्दूलविक्रीडित)
नित्यं खादति हस्तिसूकरपलं सिंहो बली तद्रति-
र्वर्षणैकदिने शिलाकणचरे पारावते सा सदा
न ब्रह्मव्रतमेति नाशमथवा स्यान्नैव भुक्तेर्गुणा-
त्तद्रक्षां
द्रढ एक एव कुरुते साधोर्मनः संयमः ।।।।
अनुवाद : जे बळवान सिंह निरंतर हाथी अने सुव्वरनुं मांस खाय छे
तेने अनुराग (संभोग) वर्षमां केवळ एक दिवसने माटे होय छे. एनाथी उल्टुं जे
कबूतर कांकरा खाय छे तेने ते अनुराग निरंतर रह्या करे छे. अथवा भोजनना
गुणथी
गरिष्ट भोजन अथवा लूखूं सूकुं भोजन करवा अथवा उपवास करवाथी

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ते ब्रह्मचर्यनो न तो नाश थाय छे अने न रक्षा य थाय छे. तेनी रक्षा तो द्रढताथी
निग्रह प्राप्त कराववामां आवेल एक साधुनुं मन ज करे छे. ४.
(शार्दूलविक्रीडित)
चेतः संयमनं यथावदवनं मूलव्रतानां मतं
शेषाणां च यथाबलं प्रभवतां बाह्यं मुनेर्ज्ञानिनः
तज्जन्यं पुनरान्तरं समरसीभावेन चिच्चेतसो
नित्यानन्दविधायि कार्यजनकं सर्वत्र हेतुद्वयम्
।।।।
अनुवाद : मूळगुणोनुं तथा शक्ति अनुसार उत्पन्न थतां शेष (उत्तर)
गुणोनुं विधिपूर्वक रक्षण करवुं, ए ज्ञानी मुनिनो बाह्य मनोसंयम कहेवाय छे.
आनाथी फरी ते अंतरंग संयम उत्पन्न थाय छे जे चैतन्य अने चित्तना एकरूप
थई जवाथी शाश्वत सुख उत्पन्न करे छे. बराबर छे
सर्व बाह्य अने अभ्यंतर
आ बन्नेय कारण कार्यना जनक थाय छे. ५.
(शार्दूलविक्रीडित)
चेतोभ्रान्तिकरी नरस्य मदिरापीतिर्यथा स्त्री तथा
तत्संगेन कुतो मुनेर्व्रतविधिः स्तोकोऽपि संभाव्यते
तस्मात्संसृतिपातभीतमतिभिः प्राप्तैस्तपोभूमिकां
कर्तव्यो व्रतिभिः समस्तयुवतित्यागे प्रयत्नो महान्
।।।।
अनुवाद : जेम मद्यपान मनुष्यनुं चित्त भ्रान्तियुक्त करी मूके छे तेवी
ज रीते स्त्री पण तेना चित्तने भ्रान्तियुक्त करी मूके छे. तो पछी भला तेना
संगथी मुनिने थोडाय व्रताचरणनी संभावना क्यांथी होई शके? न होई शके.
तेथी जेमनी बुद्धि संसार परिभ्रमणथी भय पामी छे तथा जे तपनुं अनुष्ठान
करे छे ते संयमी मनुष्योए समस्त स्त्रीओना त्यागनो प्रयत्न करवो जोईए. ६.
(शार्दूलविक्रीडित)
मुद्वर्क्तोरि द्रढार्गला भवतरोः सेके ऽङ्गना सारिणी
मोहव्याधविनिर्मिता नरमृगस्याबन्धने वागुरा

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यत्संगेन सतामपि प्रसरति प्राणातिपातादि तत्
तद्वार्तापि यतेर्यतित्वहतये कुर्यान्न किं सा पुनः
।।।।
अनुवाद : जे स्त्री मोक्षरूपी महेलना द्वारनी मजबूत भोगळ (बन्ने
बारणाने रोकनार खास लाकडुं आगळिया) समान छे, जे संसाररूप वृक्षने
सींचवा माटे सारिणी (नानी नदी के झारी) समान छे, जे पुरुषरूप हरणने
बांधवा माटे जाळ समान छे तथा जेना संगथी सज्जनोने पण प्राणघातादि
(हिंसादि) दोष वधे छे; ते स्त्रीनुं नाम लेवुं पण जो मुनिव्रतना नाशनुं कारण
थतुं होय तो भला ते स्वयं शुं न करी शके? अर्थात् ते बधा व्रत
नियमादिनो
नाश करे छे. ७.
(शार्दूलविक्रीडित)
तावत्पूज्यपदस्थितिः परिलसत्तावद्यशो जृम्भते
तावच्छुभ्रतरा गुणाः शुचिमनस्तावत्तपो निर्मलम्
तावद्धर्मकथापि राजति यतेस्तावत्स द्रश्यो भवेद्
यावन्न स्मरकारि हारि युवते रागान्मुखं वीक्षते ।।।।
अनुवाद : ज्यां सुधी कामनुं उद्दीपन करनार युवान स्त्रीनुं मनोहर मुख
अनुराग पूर्ण द्रष्टिथी देखता नथी त्यांसुधी ज मुनिनी पूज्य पदमां स्थिति रही शके
छे. त्यां सुधी ज तेमनी मनोहर कीर्तिनो विस्तार थाय छे. त्यांसुधी ज तेना निर्मळ
गुण विद्यमान रहे छे. त्यांसुधी ज तेनुं मन पवित्र रहे छे, त्यांसुधी ज निर्मळ तप
रहे छे, त्यांसुधी ज धर्मकथा सुशोभित रहे छे अने त्यांसुधी ज ते दर्शनने योग्य
रहे छे. ८.
(शार्दूलविक्रीडित)
तेजोहानिमपूततां व्रतहतिं पापं प्रपातं पथो
मुक्ते रागितयाङ्गनास्मृतिरपि क्लेशं करोति ध्रुवम्
तत्सांनिध्यविलोकनप्रतिवचःस्पर्शादयः कुर्वते
किं नानर्थपरंपरामिति यतेस्त्याज्याबला दूरतः
।।।।

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अनुवाद : रागबुद्धिथी करवामां आवेलुं स्त्रीनुं स्मरण पण जो निश्चयथी
मुनिना तेजनी हानि, अपवित्रता, व्रतनो विनाश, पाप, मोक्षमार्गथी पतन अने क्लेश
करे छे. तो भला तेनी समीपता, दर्शन, वार्तालाप अने स्पर्श आदि शुं अनर्थोनी
नवी परंपरा नथी करतां? अर्थात् अवश्य करे छे. तेथी साधुए एवी स्त्रीनो दूरथी
ज त्याग करवो जोईए. ९.
(शार्दूलविक्रीडित)
वेश्या स्याद्धनतस्तदस्ति न यतेश्चेदस्ति सो स्यात् कुतो
नात्मीया युवतिर्यतित्वमभवत्तत्त्यागतो यत्पुरा
पुंसोऽन्यस्य च योषितो यदि रतिश्छिन्नो नृपात्तत्पतेः
स्यादापज्जननद्वयक्षयकरी त्याज्यैव योषा यतेः
।।१०।।
अनुवाद : वेश्या धनथी प्राप्त थाय छे अने धन मुनि पासे होतुं नथी.
कदाच जो ते धन पण तेनी पासे होय तो य ते क्यांथी प्राप्त थाय? अर्थात् तेनी
प्राप्ति दुर्लभ छे. ए सिवाय जो पोतानी ज स्त्री मुनि पासे होय तो ए पण संभवित
नथी; कारण के पूर्वे तेनो त्याग करीने तो मुनिधर्मनो स्वीकार कर्यो छे. जो कोई
बीजा पुरुषनी स्त्री साथे अनुराग करवामां आवे तो राजा द्वारा तथा ते स्त्रीना पति
द्वारा इन्द्रिय छेदन आदि कष्टने प्राप्त थाय छे तेथी साधुए बन्ने लोकनो नाश
करनारी स्त्रीनो त्याग ज करवो जोईए. १०.
(शार्दूलविक्रीडित)
दारा एव गृहं न चेष्टकचित तत्तैर्गृहस्थो भवेत्
तत्त्यागे यतिरादधाति नियतं स ब्रह्मचर्यं परम्
वैकल्यं किल तत्र चेत्तदपरं सर्वं विनष्टं व्रतं
पुंसस्तेन विना तदा तदुभयभ्रष्टत्वमापद्यते
।।११।।
अनुवाद : स्त्री ज घर छे, इंटोथी निर्मित घर वास्तवमां घर नथी. ते स्त्रीरूप
घरना संबंधथी ज श्रावक गृहस्थ थाय छे अने तेनो त्याग करीने साधु नियमित
उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य धारण करे छे. जो ते ब्रह्मचर्यना विषयमां विकळता (दोष) होय तो
पछी अन्य सर्व व्रत नष्ट थई जाय छे. आ रीते ते ब्रह्मचर्य विना पुरुष बन्नेय

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लोकमांथी भ्रष्ट थाय छे अर्थात् तेनो आ लोक अने परलोक बन्नेय बगडे छे. ११.
(शार्दूलविक्रीडित)
संपद्येत दिनद्वयं यदि सुखं नो भोजनादेस्तदा
स्त्रीणामप्यतिरूपगर्वितधियामङ्गं शवाङ्गायते
लावण्याद्यपि तत्र चञ्चलमिति श्लिष्टं च तत्तद्गतां
द्रष्ट्वा कुङ्कुमकाजलादिरचनां मा गच्छ मोहं मुने ।।१२।।
अनुवाद : जो बे दिवस ज भोजन आदिनुं सुख प्राप्त न थाय तो पोताना
सौन्दर्यनुं अत्यंत अभिमान करनारी ते स्त्रीओनुं शरीर मृत शरीर समान थई जाय
छे. स्त्रीना शरीरमां संबद्ध लावण्य आदि पण विनश्वर छे तेथी हे मुने! तेना शरीर
उपर लगाडेल कुमकुम अने काजळ आदिनी रचना जोईने तुं मोह न पाम. १२.
(शार्दूलविक्रीडित)
रम्भास्तम्भमृणालहेमशशभृन्नीलोत्पलाद्यैः पुरा
यस्य स्त्रीवपुषः पुरः परिगतैः प्राप्ता प्रतिष्ठा न हि
तत्पर्यन्तदशां गतं विधिवशात्क्षिप्तं क्षतं पक्षिभि-
र्भीतैश्छादितनासिकैः पितृवने
द्रष्टं लघु त्यज्यते ।।१३।।
अनुवाद : पूर्वे जे स्त्री-शरीरनी आगळ केळनुं थड, कमळनाळ, सुवर्ण, चन्द्रमा
अने नीलकमळ आदि प्रतिष्ठा पामी शक्या नथी ते शरीर ज्यारे दैववशे मरण
अवस्थाने प्राप्त थतां स्मशानमां फेंकी देवामां आवे छे अने पक्षी तेने आमतेम
खोतरीने छिन्न भिन्न करी नाखे छे त्यारे आवी अवस्थामां तेने जोईने भय पामेला
लोको नाक बंध करीने तरत ज छोडी दे छे
त्यारे तेना उपर अनुराग करवो तो
दूर रह्यो पण ते अवस्थामां तेओ तेने जोई पण शकता नथी. १३.
(शार्दूलविक्रीडित)
अङ्गं यद्यपि योषितां प्रविलसत्तारुण्यलावण्यवद्
भूषावत्तदपि प्रमोदजनकं मूढात्मनां नो सताम्
उच्छूनैर्बहुभिः शवैरतितरां कीर्णं श्मशानस्थलं
लब्ध्वा तुष्यति कृष्णकाकनिकरो नो राजहंसव्रजः
।।१४।।

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अनुवाद : जो के शोभायमान यौवन अने सौन्दर्यथी परिपूर्ण स्त्रीओना
शरीर आभूषणोथी विभूषित छे तो पण ते मूर्खजनोने ज आनंद उत्पन्न करे छे,
नहि के सजजन मनुष्योने. बराबर छे
घणा सडीगळी गयेला मृत शरीरोथी अत्यंत
व्याप्त स्मशानभूमिमां आवीने काळा कागडाओनो समूह ज संतुष्ट थाय छे, नहि
के राजहंसोनो समूह. १४.
(शार्दूलविक्रीडित)
यूकाधाम कचाः कपालमजिनाच्छन्नं मुखं योषितां
तच्छिद्रे नयने कुचौ पलभरौ बाहू तते कीकसे
तुन्दं मूत्रमलादिसद्म जघनं प्रस्यन्दिवर्चोगृहं
पादस्थूणमिदं किमत्र महतां रागाय संभाव्यते
।।१५।।
अनुवाद : स्त्रीओना वाळ जुओनुं घर छे, मस्तक अने मुख चामडाथी
ढंकायेलुं छे, बन्ने आंख ते मुखना छिद्र छे, बन्ने स्तन मांसथी परिपूर्ण छे, बन्ने
भूजाओ लांबा हाडकां छे, पेट मळ
मूत्रादिनुं स्थान छे. योनि वहेता मळनुं घर
छे अने पग थांभला समान छे. आवी अवस्थामां आ स्त्रीनुं शरीर अहीं शुं महान्
पुरुषोने अनुरागनुं कारण होई शके? अर्थात् तेमने माटे ते अनुरागनुं कारण पण
होतुं नथी. १५.
(शार्दूलविक्रीडित)
कार्याकार्यविचारशून्यमनसो लोकस्य किं ब्रूमहे
यो रागान्धतयादरेण वनितावक्त्रस्य लालां पिबेत्
श्लाघ्यास्ते कवयः शशाङ्कवदिति प्रव्यक्त वाग्डम्बरै-
श्चर्मानद्धकपालमेतदपि यैरग्रे सतां वर्ण्यते
।।१६।।
अनुवाद : जेनुं मन कर्तव्य अने अकर्तव्यना विचार रहित छे अने तेथी
जे रागमां अंध बनीने उत्सुकताथी स्त्रीना मुखनी लाळ पीए छे, ते मनुष्यना
विषयमां अमे शुं कहीए? परंतु जे कविओ पोताना स्पष्ट वचनोना विस्तारथी
सज्जनो आगळ चामडाथी आच्छादित आ कपाळयुक्त मुखने चंद्रमा समान सुंदर
बतावे छे तेओ पण प्रशंसनीय गणाय छे
जे वास्तवमां निंदाने पात्र छे. १६.