Padmanandi Panchvinshati-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 17-22 (12. Brahmacharyarakshavarti),1 (13. Rhushabha Stoatra),2 (13. Rhushabha Stoatra),3 (13. Rhushabha Stoatra),4 (13. Rhushabha Stoatra),5 (13. Rhushabha Stoatra),6 (13. Rhushabha Stoatra),7 (13. Rhushabha Stoatra),8 (13. Rhushabha Stoatra),9 (13. Rhushabha Stoatra),10 (13. Rhushabha Stoatra),11 (13. Rhushabha Stoatra),12 (13. Rhushabha Stoatra),13 (13. Rhushabha Stoatra),14 (13. Rhushabha Stoatra),15 (13. Rhushabha Stoatra),16 (13. Rhushabha Stoatra),17 (13. Rhushabha Stoatra),18 (13. Rhushabha Stoatra),19 (13. Rhushabha Stoatra),20 (13. Rhushabha Stoatra),21 (13. Rhushabha Stoatra),22 (13. Rhushabha Stoatra),23 (13. Rhushabha Stoatra),24 (13. Rhushabha Stoatra),25 (13. Rhushabha Stoatra),26 (13. Rhushabha Stoatra),27 (13. Rhushabha Stoatra),28 (13. Rhushabha Stoatra),29 (13. Rhushabha Stoatra),30 (13. Rhushabha Stoatra),31 (13. Rhushabha Stoatra),32 (13. Rhushabha Stoatra),33 (13. Rhushabha Stoatra),34 (13. Rhushabha Stoatra),35 (13. Rhushabha Stoatra),36 (13. Rhushabha Stoatra),37 (13. Rhushabha Stoatra),38 (13. Rhushabha Stoatra),39 (13. Rhushabha Stoatra),40 (13. Rhushabha Stoatra),41 (13. Rhushabha Stoatra),42 (13. Rhushabha Stoatra),43 (13. Rhushabha Stoatra),44 (13. Rhushabha Stoatra),45 (13. Rhushabha Stoatra),46 (13. Rhushabha Stoatra),47 (13. Rhushabha Stoatra),48 (13. Rhushabha Stoatra),49 (13. Rhushabha Stoatra),50 (13. Rhushabha Stoatra),51 (13. Rhushabha Stoatra),52 (13. Rhushabha Stoatra),53 (13. Rhushabha Stoatra),54 (13. Rhushabha Stoatra); 13. Rhushabha Stoatra.

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(शार्दूलविक्रीडित)
एष स्त्रीविषये विनापि हि परप्रोक्तोपदेशं भृशं
रागान्धो मदनोदयादनुचितं किं किं न कुर्याज्जनः
अप्येतत्परमार्थबोधविकलः प्रौढं करोति स्फु रत्-
शृङ्गारं प्रविधाय काव्यमसकृल्लोकस्य कश्चित्कविः
।।१७।।
अनुवाद : आ जनसमूह बीजाओना उपदेश विना पण काम उद्दीप्त
थवाथी रागथी अंध बनीने स्त्रीना विषयमां क्युं क्युं निन्द्य कार्य नथी करता?
अर्थात् उपदेश विना ज ते स्त्रीनी साथे अनेक प्रकारनी निन्दनीय चेष्टाओ करे
छे. वळी हेय
उपादेयना ज्ञान रहित कोई कवि निरंतर शृंगार रसथी परिपूर्ण
काव्य रचीने ते लोकोना चित्तने विशेषपणे रागथी पुष्ट करे छे. १७.
(शार्दूलविक्रीडित)
दारार्थादि परिग्रहः कृतगृहव्यापारसारो ऽपि सन्
देवः सोऽपि गृही नरः परधनस्त्रीनिस्पृहः सर्वदा
यस्य स्त्री न तु सर्वथा न च धनं रत्नत्रयालङ्कृतो
देवानामपि देव एव स मुनिः केनात्र नो मन्यते
।।१८।।
अनुवाद : जे गृहस्थ स्त्री अने धन आदि परिग्रह सहित होईने घरना
उत्तम व्यापार आदि कार्यो करतो थको पण कदी परधन अने परस्त्रीनी इच्छा करतो
नथी ते गृहस्थ मनुष्य (होवा छतां) पण देव (प्रशंसनीय) छे. वळी जेमनी पासे
सर्वथा न तो स्त्री छे अने न धन पण छे तथा जे रत्नत्रयथी विभूषित छे ते मुनि
तो देवोना पण देव (देवोथी पण पूज्य) छे. तेमने भला अहीं कोण मानतुं नथी?
अर्थात् तेमनी बधा ज पूजा करे छे. १८.
(शार्दूलविक्रीडित)
कामिन्यादि विनात्र दुःखहतये स्वीकृर्वते तच्च ये
लोकास्तत्र सुखं पराश्रिततया तद्दुःखमेव ध्रुवम्
हित्वा तद्विषयोत्थमन्तविरसं स्तोकं यदाध्यात्मिकं
त्तत्त्वैक
द्रशां सुखं निरुपमं नित्यं निजं नीरजम् ।।१९।।

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अनुवाद : अहीं स्त्री आदि विना जे दुःख थाय छे तेने नष्ट करवा माटे
लोको उक्त स्त्री आदिनो स्वीकार करे छे परंतु ते स्त्री आदिना निमित्ते जे सुख थाय
छे ते वास्तवमां परने आधीन होवाथी दुःख ज छे. तेथी विवेकी जनो परिणामे
अहितकारक अने प्रमाणमां अल्प ते विषयजन्य सुख छोडीने तत्त्वदर्शीओना ते
अनुपम सुखनो स्वीकार करे छे जे आत्माधीन, नित्य, आत्मिक (स्वाधीन) अने
पापरहित छे. १९.
(शार्दूलविक्रीडित)
सौभाग्यादिगुणप्रमोदसदनैः पुण्यैर्युतास्ते हृदि
स्त्रीणां ये सुचिरं वसन्ति विलसत्तारुण्यपुण्यश्रियाम्
ज्योतिर्बोधमयं तदन्तरद्रशा कायात्पृथक् पश्यतां
येषां ता न तु जातु ते ऽपि कृतिनस्तेभ्यो नमः कुर्वते ।।२०।।
अनुवाद : जे मनुष्य शोभायमान यौवननी पवित्र शोभाथी संपन्न एवी
स्त्रीओना हृदयमां चिरकाळ सुधी निवास करे छे ते सौभाग्यादि गुणो अने आनंदना
स्थानभूत पुण्ययुक्त होय छे. अर्थात् जेमने उत्तम स्त्रीओ चाहे छे ते पुण्यात्मा पुरुष
छे. परंतु अभ्यंतर नेत्रथी ज्ञानमय ज्योतिने शरीरथी भिन्न देखनार जे साधुओना
हृदयमां ते स्त्रीओ कदी पण निवास करती नथी ते पुण्यशाळी मुनिओने ते पूर्वोक्त
(स्त्रीओना हृदयमां रहेनार) पुण्यात्मा पुरुषो पण नमस्कार करे छे. २०.
(शार्दूलविक्रीडित)
दुष्प्रापं बहुदुःखराशिरशुचि स्तोकायुरल्पज्ञता-
ज्ञातप्रान्तदिनं जराहतमतिः प्रायो नरत्वं भवे
अस्मिन्नेव तपस्ततः शिवपदं तत्रैव साक्षात्सुखं
सौख्यार्थीति विचिन्त्य चेतसि तपः कुर्यान्नरो निर्मलम्
।।२१।।
अनुवाद : संसारमां जे मनुष्यपर्याय दुर्लभ छे, घणा दुःखोना समूहथी
व्याप्त छे, अपवित्र छे, अल्प आयुसहित छे, जेना अंत (मरण)नो दिवस
अल्पज्ञताने कारणे जाणी शकातो नथी, तथा जेमां वृद्धावस्थाने कारणे बुद्धि प्रायः
कुंठित थई जाय छे; ते मनुष्य पर्यायमां ज तप करी शकाय छे अने मोक्षपदनी

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प्राप्ति आ तपथी थाय छे अने वास्तविक सुख ते मोक्षमां ज छे. मनमां आवो
विचार करीने मोक्षसुखाभिलाषी मनुष्ये आ दुर्लभ मनुष्य पर्यायमां निर्मळ तप करवुं
जोईए. २१.
(शार्दूलविक्रीडित)
उक्तेयं मुनि पद्मनन्दिभिषजा द्वाभ्यां युतायाः शुभा
सद्वृत्तौषधविंशतेरुचितवागर्थाम्भसा वर्तिता
निर्ग्रन्थैः परलोकदर्शनकृते प्रोद्यत्तपोवार्धकै-
श्चेतश्चक्षुरनङ्गरोगशमनी वर्तिः सदा सेव्यताम्
।।२२।।
अनुवाद : बावीश उत्तम छन्दो (पद्यो) रूप औषधि (बावीश श्लोकमां रचित
आ ब्रह्मचर्य प्रकरण) नी जे आ बत्ती पद्मनन्दी मुनिरूप वैद्य द्वारा बताववामां आवी
छे, श्रेष्ठ छे, योग्य शब्द अने अर्थरूप जळथी जेनुं उद्वर्तन करवामां आव्युं छे तथा
जे चित्तरूप चक्षुना कामरूप रोगने शांत करे छे, तेनुं सेवन तपोवृद्ध साधुओए
परलोकदर्शन माटे निरंतर करवुं जोईए.
विशेषार्थ : अहीं श्री पद्मनन्दी मुनिए जे आ बावीश श्लोकमय ब्रह्मचर्य प्रकरण रच्युं
छे तेने तेमणे औषधिनी बत्ती (रूमां औषध रेडीने आंखमां नाखवा माटे बनावेली वाट अथवा
अंजनशलाका) नी उपमा आपी छे. अभिप्राय तेनो ए छे के जेम उत्तम वैद्य द्वारा बतावायेल
श्रेष्ठ आंजण सळी द्वारा आंखोमां आंजतां मनुष्यनी आंखोनो रोग (फूलुं वगेरे) दूर थई जाय
छे अने पछी ते बीजा लोकोने स्पष्ट जोवा लागे छे. तेवी ज रीते जे भव्य जीव पद्मनन्दि मुनि
द्वारा उत्तमोत्तम शब्दो अने अर्थनो आश्रय लईने रचायेल आ ब्रह्मचर्य प्रकरणनुं मनन करे छे
तेमना चित्तनो कामरोग (विषय वांछा) नष्ट थई जाय छे अने त्यारे ते मुनिव्रत धारण करीने
परलोक (बीजो भव) जोवामां समर्थ थई जाय छे. तात्पर्य ए के आम करवाथी दुर्गतिनुं दुःख
नष्ट थईने तेमने कां तो मोक्षनी प्राप्ति थई जाय छे अथवा तो बीजा भवमां देवादिनी उत्तम
पर्याय प्राप्त थाय छे. २२.
आ रीते ब्रह्मचर्यरक्षावर्ती नामनो अधिकार समाप्त थयो. १२.

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१३. ऋषभस्तोत्र
[१३. ऋषभस्त्रोत्रम् ]
(आर्या )
जय उसह णाहिणंदण तिहुवणणिलएक्कदीव तित्थयर
जय सयलजीववच्छल णिम्मलगुणरयणणिहि णाह ।।।।
अनुवाद : हे ॠषभ जिनेन्द्र! नाभि राजाना पुत्र, आप त्रण लोकरूप गृहने
प्रकाशित करवा माटे अद्वितीय दीपक समान छो, धर्मतीर्थना प्रवर्तक छो, समस्त
प्राणीओना विषयमां वात्सल्यभाव धारण करो छो तथा निर्मळ गुणोरूप रत्नोनां
स्थान छो. आप जयवंत हो. १.
(आर्या )
सयलसुरासुरमणिमउडकिरणकब्बुरियपायपीढ तुमं
धण्णा पेच्छंति थुणंति जवंति झायंति जिणणाह ।।।।
अनुवाद : नमस्कार करतां सर्व देवो अने असुरोना मणिमय मुगटोना
किरणोथी जेमनी पादपीठ (पग राखवानुं आसन) विचित्र वर्णनी थई रही छे, एवा
हे ॠषभ जिनेन्द्र! पुण्यात्मा जीव आपना दर्शन करे छे, स्तुति करे छे, जप करे
छे अने ध्यान पण करे छे. २.
(आर्या )
चम्मच्छिणा वि दिट्ठे तइ तइलोए ण माइ महहरिसो
णाणच्छिणा उणो जिण णयाणिमो किं परप्फु रइ ।।।।
अनुवाद : हे जिन! चर्ममय नेत्रथी पण आपना दर्शन थतां जे महान

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हर्ष उत्पन्न थाय छे ते त्रणे लोकमां समातो नथी. तो पछी ज्ञानरूप नेत्रथी आपना
दर्शन थतां केटलो आनंद प्राप्त थाय, ए अमे जाणतां नथी. ३.
(आर्या )
तं जिण णाणमणंतं विसईकयसयलवत्थुवित्थारं
जो थुणइ सो पयासइ समुद्दकहमवडसालूरो ।।।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! जे जीव समस्त वस्तुओना विस्तारनो विषय करनार
आपना अनंत ज्ञाननी स्तुति करे छे ते पोताने पेला कूपमंडुक (कूवामां रहेनार देडका)
समान प्रकट करे छे जे कुवामां रहेवा छतां पण समुद्रना विस्तारादि बतावे छे.
विशेषार्थ : जेम कूवामां रहेनारो तुच्छ देडको कदी समुद्रनो विस्तार आदि बतावी
शकतो नथी तेवी ज रीते अल्पज्ञ मनुष्य आपना ते अनंत ज्ञाननी स्तुति करी शकतो नथी के जेमां
समस्त द्रव्यो अने तेमना अनंत गुण तथा पर्यायो युगपत् प्रतिभासित थई रह्या छे. ४.
(आर्या )
अम्हारिसाण तुह गोत्तकित्तणेण वि जिणेस संचरइ
आएसं मग्गंती पुरओ हियइच्छिया लच्छी ।।।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपना नामना कीर्तनथीकेवळ नामना स्मरण
मात्रथी पण अमारा जेवा मनुष्योनी सामे मनचाही लक्ष्मी आज्ञा मागती उपस्थित
थाय छे. ५.
(आर्या )
जासि सिरी तइ संते तुव अवइप्णम्मि तीए णट्ठाए
संके जणियाणिट्ठा दिट्ठा सव्वट्ठसिद्धी वि ।।।।
अनुवाद : हे भगवन्! आप सर्वार्थसिद्धिमां स्थित हता ते वखते तेनी जे
शोभा हती ते आपनो अहीं अवतार थतां नष्ट थई गई. तेथी मने एवी आशंका
थाय छे के ते वखते सर्वार्थसिद्धि पण एवी देखवामां आवी के जाणे तेनुं अनिष्ट
ज थई गयुं होय.
विशेषार्थ : जे वखते भगवान ॠषभ जिनेन्द्रनो जीव सर्वार्थसिद्धिमां विद्यमान हतो
ते वखते भावितीर्थंकर त्यां रहेवाथी तेनी शोभा निराळी ज हती. पछी ज्यारे ते त्यांथी च्युत

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थईने मरुदेवी माताना गर्भमां अवतर्या त्यारे सर्वार्थसिद्धिनी ते शोभा नष्ट थई गई हती. आ
बाबतमां अहीं एवी उत्प्रेक्षा करवामां आवी छे के भगवान् ॠषभ जिनेन्द्र च्युत थतां ते
सर्वार्थसिद्धि जाणे विधवा ज थई गई हती तेथी ते वखते ते सौभाग्यश्री विनानी देखाई. ६.
(आर्या)
णाहिघरे वसुहारावडणं जं सुइरमिहं तुहोयरणा
आसि णहाहि जिणेसर तेण धरा वसुमई जाया ।।।।
अनुवाद : हे जिनेश्वर! आपे अवतार लेवाथी नाभि राजाना घेर आकाशमांथी
जे लांबा समय सुधी (पंदर मास सुधी) धननी धारानो वरसाद थयोरत्नोनी वर्षा
थईतेथी आ पृथ्वी ‘वसुमती (धनवाळी)’ एवा सार्थक नामवाळी बनी. ७.
(आर्या )
स च्चिय सुरणवियपया मरुएवी पहु ठिओ सि जंगब्भे
पुरओ पट्टो बज्झइ मज्झे से पुत्तवंतीणं ।।।।
अनुवाद : हे भगवान्! जे मरूदेवीना गर्भमां तमारा जेवा प्रभु स्थित
हता तेमना ज चरणोमां ते वखते देवोए नमस्कार कर्या हता. ते वखते पुत्रवती
स्त्रीओमां तेमनी समक्ष तेमने पट्ट बांधवामां आव्यो हतो अर्थात् समस्त पुत्रवती
स्त्रीओनी वच्चे तीर्थंकर जेवा पुत्ररत्नने जन्म आपनार एक ते ज मरूदेवीने
पुत्रवती तरीके प्रसिद्ध करवामां आवी हती. ८.
(आर्या )
अंकत्थे तइ दिट्ठे जंतेण सुरायलं सुरिंदेण
अणिमेसत्तबहुत्तं सयलं णयणाण पडिवण्णं ।।।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! सुमेरु पर्वत उपर जती वखते इन्द्रने खोळामां बेठेला
आपना दर्शन थतां ते पोताना नेत्रोनी निर्निमेषता (पलकारानो अभाव) अने
अधिकता (हजारनी संख्या) ने सफळ समजवा लाग्यां.
विशेषार्थ : ए आगम प्रसिद्ध वात छे के देवोना नेत्र निर्निमेष (पलकारा विनाना)
होय छे. ते प्रमाणे इन्द्रना नेत्र निर्निमेष तो हता ज, साथोसाथ तेमनी संख्या पण एक हजार
हती. इन्द्रे ज्यारे आ नेत्रोथी प्रभुना दर्शन कर्या त्यारे तेमणे तेने सफळ मान्या. आ सुयोग अन्य

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मनुष्य आदिने प्राप्त थतो नथी. कारण के तेमने बे ज नेत्र होय छे अने ते पण सनिमेष. तेथी
तेओ ज्यारे त्रिलोकीनाथना दर्शन करे छे त्यारे तेमने वच्चे वच्चे पलक बीडाई जवाथी एकाग्रता
पण रहेती नथी. तेओ ते देवोनी जेम घणा समय सुधी एकटक द्रष्टिथी भगवानना दर्शन करी
शकता नथी. ९.
(आर्या)
तित्थत्तणमावण्णो मेरू तुह जम्मण्हाणजलजोए
तं तस्स सूरपमुहा पयाहिणं जिण कुणंति सया ।।१०।।
अनुवाद : हे जिन! ते वखते मेरु पर्वत आपना जन्माभिषेकना जळना
संबंधथी तीर्थस्वरूप बनी गयो हतो तेथी ज जाणे सूर्यचन्द्रादि ज्योतिषी देव
निरंतर तेनी प्रदक्षिणा कर्या करे छे. १०.
(आर्या )
मेरुसिरे पडणुच्छलियणीरताडणपणट्ठदेवाणं
तं वित्तं तुह ण्हाणं तह जह णहमासि संकिण्णं ।।११।।
अनुवाद : जन्माभिषेक वखते मेरू पर्वतना शिखर उपरथी नीचे पडीने ऊंचे
ऊछळता जळना आघातथी कांईक खेद पामेला देवो द्वारा आपनो ते जन्माभिषेक
एवी रीते संपन्न थयो के जेथी आकाश ते देवो अने जळथी भराई गयुं. ११.
(आर्या )
णाह तुह जम्मण्हाणे हरिणो मेरुम्मि णच्चमाणस्स
वेल्लिरभुयाहि भग्गा तइ अज्ज वि भंगुरा मेहा ।।१२।।
अनुवाद : हे नाथ! आपना जन्माभिषेक महोत्सवमां मेरु पर्वत उपर नृत्य
करता इन्द्रनी चंचळ भुजाओथी नाश पामेला वादळा अत्यारे पण भंगुर (विनश्वर)
जोवामां आवे छे. १२.
(आर्या )
जाण बहुएहिं वित्ती जाया कप्पद्दुमेहिं तेहिं विणा
एक्केण वि ताण तए पयाण परिकप्पिया णाह ।।१३।।

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अनुवाद : हे नाथ! भोगभूमिना समयमां जे प्रजाजनोनी आजीविका घणां
कल्पवृक्षो द्वारा संपन्न थई हती तेमनी ते आजीविका ते कल्पवृक्षोना अभावमां एक
मात्र आपना द्वारा संपन्न (प्रदर्शित) करवामां आवी हती.
विशेषार्थ : पूर्वे अहीं (भरतक्षेत्रमां) ज्यारे भोगभूमिनी प्रवृत्ति हती त्यारे
प्रजाजनोनी आजीविका घणा (दस प्रकारनां) कल्पवृक्षो द्वारा संपन्न थती हती. परंतु ज्यारे
त्रीजा काळनो अंत आववामां पल्यनो आठमो भाग बाकी हतो त्यारे ते कल्पवृक्ष धीरे धीरे
नष्ट थई गया हता. ते वखते भगवान् आदि जिनेन्द्रे तेमने कर्मभूमिने योग्य असि--मसि
आदि आजीविकाना साधनोनुं शिक्षण आप्युं हतुं. जेम के श्री समन्तभद्राचार्य स्वामीए कह्युं
पण छे
प्रजापतिर्या प्रथमं जिजीविषु : शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्भुतोदयो
ममत्वतो निर्विविदे विदांवरः ।। अभिप्राय ए छे के जे ॠषभ जिनेन्द्र पहेलां कल्पवृक्षो नष्ट
थई जतां आजीविका निमित्ते व्याकुळता पामेली प्रजाने प्रजापति रूपे कृषि आदि छ कर्मोनुं
शिक्षण आप्युं हतुं ते ज ॠषभ जिनेन्द्र पछी वस्तुस्वरूप जाणीने संसार, शरीर अने
भोगोथी विरक्त थतां थका आश्चर्यजनक अभ्युदयने प्राप्त थया अने सर्व विद्वानोमां अग्रेसर
थई गया. बृ. स्व. स्तो. २. आ रीते जे प्रजाजन भोगभूमिना समयमां अनेक कल्पवृक्षोथी
आजीविका सम्पन्न करता हता तेमणे कर्मभूमिना प्रारंभमां एकमात्र उक्त ॠषभ जिनेन्द्रथी
ज ते आजीविका सम्पन्न करी हती. तेओ ॠषभ जिनेन्द्र पासेथी असि, मसि अने कृषि
आदि कर्मोनुं शिक्षण मेळवीने आनंदपूर्वक आजीविका मेळववा लाग्या हता. १३.
(आर्या )
पहुणा तए सणाहा धरासि तीए कहण्णहा वूढो
णवधणसमयसमुल्लसियसासछम्मेण रोमंचो ।।१४।।
अनुवाद : हे भगवन्! ते वखते पृथ्वी आप जेवा प्रभुने पामीने सनाथ
थई हती. जो एम न थयुं होय तो पछी ते नवीन वर्षाकाळना समये प्रगट थयेला
धान्यांकुरोना ब्हाने रोमांच केवी रीते धारण करी शकत? १४.
(आर्या )
विज्जु व्व घणे रंगे दिट्ठपणट्ठा पणच्चिरी अमरी
जइया तइया वि तए रायसिरी तारिसी दिट्ठा ।।१५।।
अनुवाद : हे भगवन्! ज्यारे आपे वादळानी वच्चे क्षणमां नष्ट थनारी
वीजळी समान रंगभूमि उपर जोत जोतामां मृत्यु पामनारी नृत्य करती नीलांजना

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अप्सराने जोई हती त्यारे आपे राज्यलक्ष्मीने पण ए ज रीते क्षणभंगुर समजी
लीधी हती.
विशेषार्थ : कोई वखते भगवान् ॠषभ जिनेन्द्र अनेक राजा महाराजाओथी वींटळाईने
सिंहासन उपर बिराजमान हता. ते वखते तेमनी सेवा करवा माटे इन्द्र अनेक गंधर्वो अने
अप्सराओ साथे त्यां आव्या. तेणे भक्तिवशे त्यां अप्सराओनुं नृत्य शरू कराव्युं. तेणे भगवानने
राज्यभोगथी विरक्त करवानी इच्छाथी आ कार्यमां एवा पात्रनी (नीलांजनानी) निमणुंक करी के
जेनुं आयुष्य तरत ज पूर्ण थवानुं हतुं. ते प्रमाणे नीलांजना रस, भाव अने लय साथे नृत्य करी
रही हती के एटलामां तेनुं आयुष्य समाप्त थई गयुं. अने ते देखतां देखतां क्षणवारमां अद्रश्य
थई गई. जोके इन्द्रे रसभंगना भयथी त्यां बीजी तेवी ज अप्सरा तत्काळ खडी करी दीधी हती,
छतां पण भगवान ॠषभ जिनेन्द्र एनाथी अजाण न रह्या. आथी तेमना हृदयमां घणो वैराग्य
थयो. (आ. पु. १७, १
११.) १५.
(आर्या )
वेरग्गदिणे सहसा वसुहा जुण्णं व जं मुक्का
देव तए सा अज्ज वि विलवइ सरिजलरवा वराई ।।१६।।
अनुवाद : हे देव! आपे वैराग्यना दिवसे पृथ्वीने जीर्ण तृण समान एकाएक
ज छोडी दीधी हती, तेथी ते बिचारी आज पण नदीजळना ध्वनिना ब्हाने विलाप
करी रही छे. १६.
(आर्या )
अइसोहिओ सि तइया काउस्सग्गट्ठिओ तुमं णाह
धम्मिक्कघरारंभे उब्भीकयमूलखंभो व्व ।।१७।।
अनुवाद : हे नाथ! आप कार्योत्सर्गमां स्थित थईने एवा अत्यंत शोभता
हता, जाणे धर्मरूपी अद्वितीय महेलना निर्माणमां उपर खडो करवामां आवेलो मूळ
स्तंभ ज होय! १७.
(आर्या )
हिययत्थझाणसिहिडज्झमाण सहसा सरीरधूमो व्व
सहइ जिण तुज्झ सीसे महुयरकुलसंणिहो केसभरो ।।१८।।
अनुवाद : हे जिन! आपना शिर उपर जे भमराओना समूह समान काळा

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केशोनो भार छे ते एवो शोभे छे जाणे हृदयमां रहेली ध्यानरूपी अग्निथी सहसा
बळनार शरीरनो धूमाडो ज होय! १८.
(आर्या )
कम्मकलंकचउक्के णट्ठे णिम्मलसमाहिभूईए
तुह णाणदप्पणे च्चिय लोयालोयं पडिप्फलियं ।।१९।।
अनुवाद : हे भगवान! निर्मळ ध्यानरूप संपत्तिथी चार घाति कर्मरूप कलंक
नष्ट थई जतां प्रगट थयेल आपना ज्ञान (केवलज्ञान) रूप दर्पणमां ज लोक अने
अलोक प्रतिबिंबित थवा लाग्या हता. १९.
(आर्या)
आवरणाईणि तए समूलमुम्मूलियाइ दट्ठूण
कम्मचउक्केण मुयं व णाह भीएण सेसेण ।।२०।।
अनुवाद : हे नाथ! ते वखते ज्ञानावरणादि चार घाती कर्मोने मूळमांथी
नष्ट थयेलां जोईने शेष (वेदनीय, आयुष्य, नाम अने गोत्र) चार आघाती कर्म
भयथी ज जाणे मरेला समान (अनुभागथी क्षीण) थई गया हता. २०.
(आर्या )
णाणामणिणिम्माणे देव ठिओ सहसि समवसरणम्मि
उवरिं व संणिविट्ठो जियाण जोईण सव्वाणं ।।२१।।
अनुवाद : हे देव! विविध प्रकारना मणिओथी निर्मित समवसरणमां स्थित
आप जीती लेवामां आवेला सर्व योगीओनी उपर बेठेला जेवा सुशोभित थाव छो.
विशेषार्थ : जिनेन्द्र भगवन् समवसरण सभामां गंधकूटीमां स्वभावथी ज सर्वथी उपर
विराजमान रहे छे. ए बाबत उपर अहीं ए उत्प्रेक्षा करवामां आवी छे के तेमणे पोतानी
अभ्यंतर अने बाह्य लक्ष्मी द्वारा सर्व योगीओने जीती लीधा हता. तेथी तेओ जाणे ते बधा
योगीओनी उपर स्थित हता. २१.
(आर्या )
लोउत्तरा वि सा समवसरणसोहा जिणेस तुह पाए
लहिऊण लहइ महिमं रविणो णलिणि व्व कुसुमट्ठा [ड्ढा] ।।२२।।

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अनुवाद : हे जिनेश! ते समवसरणनी शोभा जो के अलौकिक हती, छतां
पण ते आपना पाद (चरणो) ने प्राप्त करीने एवी महिमा पामी के जेथी पुष्पोथी
व्याप्त कमलिनी सूर्यना पाद (किरणो) ने पामीने महिमा प्राप्त करे छे. २२.
(आर्या )
णिद्दोसो अकलंको अजडो चंदो ब्व सहसि तं तह वि
सीहासणायलत्थो जिणिंद कयकुवलयाणंदो ।।२३।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! सिंहासनरूप उदयाचळ उपर स्थित आप चन्द्रमा
समान कुवलय (पृथ्वीमंडळ, चंद्रपक्षे कुमुद) ने आनंदित करो छो; तेथी ज ते चन्द्रमा
समान सुशोभित थाव छो, तो पण आपमां ते चन्द्रमानी अपेक्षाए विशेषता छे
कारण के जेवी रीते आप अज्ञानादि दोषोथी रहित होवाने कारणे निर्दोष छो तेवी
रीते चन्द्रमा निर्दोष नथी
ते सदोष छे कारण के ते दोषो (रात्रि) साथे संबंध राखे
छे. आप कर्ममळ रहित होवाना कारणे अकलंक छो, परंतु चन्द्रमा कलंक (काळा चिह्न)
सहित ज छे. आप जडता (अज्ञानता) रहित होवाने कारणे अजड छो परंतु चन्द्रमा
अजड नथी, पण जड छे
हिमग्रस्त छे. २३.
(आर्या )
अच्छंतु ताव इयरा फु रियविवेया णमंतसिरसिहरा
होइ असोओ रुक्खो वि णाह तह संणिहाणत्थो ।।२४।।
अनुवाद : हे नाथ! जेमने विवेक प्रगट थयो छे तथा जेमनुं शिररूप शिखर
आपने नमस्कार करवामां नम्रीभूत थाय छे एवा बीजा भव्य जीव तो दूर ज रह्या
परंतु आपनी समीपमां स्थित वृक्ष पण अशोक थई जाय छे.
विशेषार्थ : अहीं ग्रन्थकर्ता भगवान ॠषभ जिनेन्द्रनी स्तुति करतां तेमनी
समीपे रहेल आठ प्रातिहार्योमांथी प्रथम अशोक वृक्षनो उल्लेख करे छे ते वृक्ष
जो के नामथी ज ‘अशोक’ प्रसिद्ध छे, छतां पण तेओ पोताना शब्दचातुर्यथी
एम व्यक्त करे छे के जो जिनेन्द्र भगवाननी केवळ समीपता ज पामीने ते स्थावर
वृक्ष पण अशोक (शोक रहित) थई जाय छे तो भला जे विवेकी जीव तेमनी
समीपमां रहीने तेमने भक्तिपूर्वक नमस्कार आदि करे छे तेओ शोक रहित केम
न थाय? अवश्य ज तेओ शोक रहित थईने अनुपम सुख प्राप्त करशे. २४.

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(आर्या )
छत्तत्तयमालंबियणिम्मलमुत्ताहलच्छला तुज्झ
जणलोयणेसु वरिसइ अमयं पि व णाह बिंदूहिं ।।२५।।
अनुवाद : हे नाथ! आपना त्रण छत्र लटकता निर्मळ मोतिओना ब्हाने
जाणे बिंदुओ द्वारा भव्यजनोनां नेत्रोमां अमृतनी वर्षा ज करे छे.
विशेषार्थ : भगवान ॠषभ जिनेन्द्रना शिर उपर जे त्रण छत्र अवस्थित हता तेमनी
चारे तरफ जे सुन्दर मोती लटकता हता ते लोकोना नेत्रोमां एवा लागता हता के जाणे ते त्रण
छत्र ते मोतीओना ब्हाने अमृतबिन्दुओनी ज वर्षा करी रह्या होय. २५.
(आर्या)
कयलोयलोयगुप्पलहरिसाइ सुरेसहत्थचलियाइं
तुह देव सरय हरकिरणकयाइं व चमराइं ।।२६।।
अनुवाद : हे देव! लोकोनां नेत्रोरूप नीलकमळोने हर्षित करनार जे चमर
इन्द्रना हाथे आपना उपर ढोळवामां आवता हता ते शरद काळना चन्द्रमाना
किरणोथी करवामां आव्या होय तेवा लागता हता. २६.
(आर्या )
विहलीकयपचसरे पंचसरो जिण तुमम्मि काऊण
अमरकयपुप्फ विट्ठिच्छला बहू मुवइ कुसुमसरे ।।२७।।
अनुवाद : हे जिन आपना विषयमां पोताना पांच बाणोने व्यर्थ जोईने
ते कामदेव देवो द्वारा करवामां आवती पुष्पवृष्टिनां ब्हाने जाणे आपना उपर घणां
पुष्पमय बाणो छोडी रह्या छे.
विशेषार्थ : कामदेवनुं एक नाम पंचशर पण छे जेनो अर्थ थाय छे पांच बाणोवाळा
आ बाण पण तेमना लोहमय न होता पुष्पमय मानवामां आवे छे. ते आ जे बाणो द्वारा केटलाय
अविवेकी प्राणीओने जीतीने तेमने विषयासक्त कर्या करे छे. मूळमां अहीं भगवान ॠषभजिनेन्द्र
उपर जे देवोद्वारा पुष्पोनी वर्षा करवामां आवी रही हती तेनी उपर आ उत्प्रेक्षा करवामां आवी
छे के ते पुष्पवर्षा नथी पण ज्यारे भगवानने पोताने वश करवा माटे ते कामदेवे तेमनी उपर
पोताना पांचे बाण चलाव्या अने छतां पण तेओ तेने वश न थया त्यारे तेणे जाणे तेमना उपर
एक साथे घणा बाणो छोडवा ज शरू कर्या हता. २७.

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(आर्या )
एस जिणो परमप्पा णाणी अण्णाण सुणह मा वयणं
तुह दुंदुही रसंतो कहइ व तिजयस्स मिलियस्स ।।२८।।
अनुवादःहे भगवन्! शब्द करती थकी तमारी भेरी त्रणे लोकना
सर्व प्राणीओने जाणे एम कही रही हती के हे भव्य जीवो! आ जिनदेव
ज ज्ञानी परमात्मा छे, बीजा कोई परमात्मा नथी; तेथी एक जिनेन्द्रदेव सिवाय
तमे बीजाओनो उपदेश न सांभळो. २८.
(आर्या )
रविणो संतावयरं ससिणो उण जयायरं देव
संतावजडत्तहरं तुज्झ च्चिय पहु पहावलयं ।।२९।।
अनुवादःहे देव! सूर्यनुं प्रभामंडळ तो संताप करनार छे अने चंद्रनुं
प्रभामंडळ जडता (शीतपणुं) उत्पन्न करे छे. परंतु हे प्रभो! संताप अने जडता
(अज्ञानता) आ बन्नेने दूर करनार प्रभामंडळ एक आपनुं ज छे. २९.
(आर्या )
मंदरमहिज्जमाणंबुरासिणिग्घोससंणिहा तुज्झ
वाणी सुहा ण अण्णा संसारविसस्स णासयरी ।।३०।।
अनुवादःमेरु पर्वत वडे मथवामां आवता समुद्रनी ध्वनि समान गंभीर
आपनी उत्तम वाणी अमृत स्वरूप होईने संसाररूप विषने नष्ट करनार छे, एना
सिवाय बीजा कोईनी वाणी ते संसाररूप विषने नष्ट करी शकती नथी.
विशेषार्थःजिनेन्द्र भगवाननी जे दिव्यध्वनि खरे छे ते ताळवुं, कंठ अने होठ
आदिना व्यापाररहित निरक्षर होय छे. तेनो अवाज समुद्र अथवा मेघगर्जना समान गंभीर
होय छे. तेमां एक आ विशेषता होय छे के जेथी श्रोतागणने एवुं ज लागे छे के भगवान
आपणी भाषामां ज उपदेश आपी रह्या छे. क्यांक एवो पण उल्लेख मळे छे के ते दिव्यध्वनि
होय छे तो निरक्षर ज, पण तेने मागधदेव अर्धमागधी भाषामां परिणमावे छे. ते दिव्यध्वनि
स्वभावथी त्रणे संध्याकाळे नव मुहूर्त सुधी ज खरे छे. परंतु गणधर, इन्द्र अने चक्रवर्ती आदिना
प्रश्न अनुसार कोई वार ते अन्य समयमां पण खरे छे. ते एक योजन सुधी संभळाय छे.

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भगवान जिनेन्द्र वीतराग अने सर्वज्ञ होय छे तेथी तेमना द्वारा निर्दिष्ट तत्त्वना विषयमां कोई
प्रकारनो संदेह आदि करी शकातो नथी. कारण ए छे के वचनमां असत्यपणुं कां तो कषायवश
जोवामां आवे छे अथवा तो अल्पज्ञताने कारणे, अने ते जिनेन्द्र भगवानमां रह्या नथी. माटे
तेमनी वाणीने अहीं अमृत समान संसार विषनाशक बताववामां आवी छे. ३०.
(आर्या )
पत्ताण सारणि पिव तुज्झ गिरं सा गई जडाणं पि
जा मोक्खतरुट्ठाणे असरिसफलकारणं होइ ।।३१।।
अनुवादःहे जिनेन्द्रदेव! क्यारी समान तमारी वाणीने प्राप्त थयेल
अज्ञानी जीवोनी पण ते अवस्था थाय छे जे मोक्षरूप वृक्षना स्थानमां अनुपम फळनुं
कारण थाय छे.
विशेषार्थःजेवी रीते उत्तम क्यारी बनावीने तेमां लगाववामां आवेलुं वृक्ष जळसिंचन
पामीने इच्छित फळ आपे छे तेवी ज रीते जे भव्य जीव मोक्षरूप वृक्षनी क्यारी समान ते
जिनवाणी पामीने (सांभळीने) ते प्रमाणे मोक्षमार्गमां प्रवृत्त थाय छे तेमने अवश्य ज तेनाथी
अनुपम फळ (मोक्षसुख) प्राप्त थाय छे. ३१.
(आर्या )
पोयं पिव तुह वयणं संलीणा फु डमहोकयजडोहं
हेलाए च्चिय जीवा तरंति भवसायरमणंत्तं ।।३२।।
अनुवादःजेवी रीते जलौघ अर्थात् पाणीना समूहने अधःकृत (नीचे
करनारी) नौकानो आश्रय लईने प्राणी अनायास ज अपार समुद्रनो पार पामी जाय
छे, तेवी ज रीते जडौघ अर्थात् अज्ञान समूहने अधःकृत (तिरस्कृत) करनारी आपनी
वाणीरूप नौकानो आश्रय लईने भव्य जीव पण अनायासे ज अनंत संसाररूप
समुद्रने पार थई जाय छे, ए स्पष्ट छे. ३२.
(आर्या )
तुह वयणं चिय साहइ णूणमणेयंतवादवियडवहं
तह हिययपईइअरं सव्वत्तणमप्पणो णाह ।।३३।।
अनुवादःहे नाथ! हृदयमां प्रतीति उत्पन्न करनारी आपनी वाणी ज

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निश्चयथी अनेकान्तवादरूप कठिन मार्गने तथा आत्माना सर्वज्ञत्वने पण सिद्ध करे छे.३३.
(आर्या )
विप्पडिवज्जइ जो तुह गिराए मइसुइबलेण केवलिणो
वरद्दिट्ठिदिट्ठिणहजंतपविखगणणे वि सो अंधो ।।३४।।
अनुवादःहे भगवान! जे मनुष्य पोताना मतिज्ञान अने श्रुतज्ञानना बळ
उपर आपना जेवा केवळीनी वाणीना विषयमांतेना द्वारा निरूपित तत्त्वस्वरूपमां
विवाद (संदेहादि) पामे छे, तेनुं आ आचरण ते अंध मनुष्य समान छे, जे कोई
निर्मळ नेत्रोवाळा अन्य मनुष्य द्वारा देखवामां आवेला एवा आकाशमां संचार करतां
पक्षीओनी गणतरी (संख्या)मां विवाद करे छे. ३४.
(आर्या )
भिण्णाण परणयाणं एक्केक्कमसंगया णया तुज्झ
पावंति जयम्मि जयं मज्झम्मि रिऊण किं चित्तं ।।३५।।
अनुवादःहे भगवन्! जगतमां आपना पृथक् पृथक् एक एक नय
शत्रुभूत भिन्न भिन्न परमतोनी मध्यमां जो जय पामे छे तो एमां आश्चर्य शुं
छे! कांई पण नहि. ३५.
(आर्या )
अण्णस्स जए जीहा कस्स सयाणस्स वण्णणे तुज्झ
जत्थ जिण ते वि जाया सुरगुरुपमुहा कई कुंठा ।।३६।।
अनुवादःहे जिन! जगतमां तमारा वर्णनमां जे बृहस्पति आदि कवि पण
कुंठित (असमर्थ) थई गया छे तेमां भला अन्य क्या बुद्धिमाननी जीभ समर्थ थई
शके? अर्थात् आपना गुणोनुं कीर्तन ज्यां बृहस्पति आदि पण करी शक्या नथी तो
पछी बीजो क्यो एवो कवि छे जे आपना ते गुणोनुं पूर्णपणे कीर्तन करी शके? ३६.
(आर्या )
सो मोहथेणरहिओ पयासिओ पहु सुपहो तए तइया
तेणज्ज वि रयणजुया णिव्विग्घं जंति णिव्वाणं ।।३७।।

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अनुवादःहे प्रभो! ते वखते आपे मोहरूप चोर रहित ते सुमार्ग
(मोक्षमार्ग) प्रगट कर्यो हतो के जेथी आजे पण मनुष्य रत्नो (रत्नत्रय) सहित थईने
निर्बाधपणे मोक्षमां जाय छे.
विशेषार्थःजेम शासनना सारा प्रबंधथी चोर रहित करवामां आवेला मार्गे
मनुष्य इच्छित धन लईने निर्बाधपणे गमनागमन करे छे, तेवी ज रीते ॠषभदेव भगवाने
पोताना दिव्य उपदेश द्वारा जे मोक्षमार्गने मोहरूप चोरथी रहित करी दीधो हतो तेना उपर
चालीने साधु पुरुषो अत्यारे पण सम्यग्दर्शनादिरूप अनुपम रत्नो साथे निर्विघ्नपणे इच्छित
स्थान (मोक्ष) प्राप्त करे छे. ३७.
(आर्या )
उम्मुद्दियम्मि तम्मि हु मोक्खणिहाणम्मि गुणणिहाण तए
केहिं ण जुण्णतिणाइ व इयरणिहाणेहिं भुवणम्मि ।।३८।।
अनुवादःहे गुणनिधान! आपना द्वारा ते मोक्षरूप निधि (खजानो)
खोली नाखवामां आवता लोकमां क्या भव्य जीवोए रत्नसुवर्णादि रूप बीजा
खजाना जीर्ण घास समान छोड्या नहोता? अर्थात् घणाए तेमनो त्याग करी
जिनदीक्षानो स्वीकार कर्यो हतो. ३८.
(आर्या )
मोहमहाफ णिडक्को जणो विरायं तुमं पमुत्तूण
इयराणाए कह पहु विचेयणो चेयणं लहइ ।।३९।।
अनुवादःहे प्रभु! मोहरूपी महा सर्पद्वारा करडावाथी मूर्च्छा पामेलो
मनुष्य आप वीतरागने छोडीने बीजानी आज्ञा (उपदेश)थी केवी रीते चेतना पामी
शके? अर्थात् पामी शके नहि.
विशेषार्थःजेम सर्प करडवाथी मूर्च्छा पामेलो मनुष्य मंत्र जाणनारना उपदेशथी
निर्विष बनीने चेतनपणुं प्राप्त करी ले छे तेवी ज रीते मोहथी ग्रसायेल संसारी प्राणी आपना
सदुपदेशथी अविवेक छोडीने पोतानुं चैतन्यस्वरूप प्राप्त करी ले छे. ३९.
(आर्या )
भवसायरम्मि धम्मो धरइ पडंतं जणं च्चेय
सवरस्स व परमारणकारणमियराण जिणणाह ।।४०।।

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अनुवादःहे जिनेन्द्र! संसाररूप समुद्रमां पडता प्राणीनुं रक्षण आपनो
ज धर्म करे छे. बीजाओनो धर्म तो भीलना धर्म (धनुष्य) समान अन्य जीवोने
मारवानुं ज कारण थाय छे. ४०.
(आर्या )
अण्णो को तुह पुरओ वग्गइ गरुयत्तणं पयासंतो
जम्मि तइ परमियत्तं केसणहाणं पि जिण जायं ।।४१।।
अनुवादःहे जिन! जे आपना वाळ अने नख पण परिमितता पाम्या
अर्थात् वृद्धिरहित थई गया हता तेवा आपनी आगळ बीजो कोण पोतानो महिमा
प्रगट करतो थको जई शके? अर्थात् कोई जइ शके नहि.
विशेषार्थःकेवळज्ञान प्रगटतां नख अने वाळनी वृद्धि थती नथी. ए बाबत
उपर अहीं एम उत्प्रेक्षा करवामां आवी छे के ते नखकेशनी वृद्धिनो अभाव जाणे एम
सूचन करतो हतो के आ जिनेन्द्र भगवान सर्वश्रेष्ठ छे, एमनी आगळ बीजा कोईनो प्रभाव
रही शकतो नथी. ४१.
(आर्या )
सहइ शरीरं तुह पहु तिहुयणजणणयणबिंबविच्छुरियं
पडिसमयमच्चियं चारुतरलणीलुप्पलेहिं व ।।४२।।
अनुवादःहे प्रभो! आपना शरीर उपर जे त्रणे लोकना प्राणीओना
नेत्रोनुं प्रतिबिंब पडी रह्युं हतुं तेनाथी व्याप्त ते शरीर एवुं लागतुं हतुं के जाणे
ते निरंतर सुंदर अने चंचळ नीलकमळो द्वारा पूजा पामी रह्युं होय. ४२.
(आर्या )
अहमहमियाए णिवडंति णाह छुहियालिणो व्व हरिचक्खू
तुज्झ च्चिय णहपहसरमज्झट्ठियचलणकमलेसुं ।।४३।।
अनुवादःहे नाथ! तमारा ज नखोनी कान्तिरूप सरोवरनी मध्यमां
स्थित चरणरूप कमळो उपर जे इन्द्रना नेत्रो पडे छे ते एवा देखाय छे के
जाणे अहमहमिका अर्थात् हुं पहेलां पहोंचुं, हुं पहेलां पहोंचुं, आ रूपे भूख्या
भ्रमर ज तेमनी उपर पडी रह्या होय. ४३.

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(आर्या )
कणयकमलाणमुवरिं सेवा तुह विबुहकप्पियाण तुहं
अहियसिरीणं तत्तो जुत्तं चरणाण संचरणं ।।४४।।
अनुवादःहे भगवन्! आपनी सेवा माटे देवो द्वारा रचवामां आवेला
सुवर्णमय कमळो उपर जे आपना चरणोनो संचार थतो हतो ते योग्य ज हतुं केम
के आपना चरणोनी शोभा ते कमळो करतां वधारे हती. ४४.
(आर्या )
सइ-हरिकयकण्णसुहो गिज्जइ अमरेहिं तुह जसो सग्गे
मण्णे तं सोउमणो हरिणो हरिणंक वमल्लीणो ।।४५।।
अनुवादःहे जिनेन्द्र! स्वर्गमां इन्द्राणी अने इन्द्रना कानोने सुख आपनारुं
जे देवोद्वारा आपनुं यशोगान करवामां आवे छे ते सांभळवा माटे उत्सुक थईने ज
जाणे हरणे चन्द्रनो आश्रय लीधो छे, एम हुं समजुं छुं. ४५.
(आर्या )
अलियं कमले कमला कमकमले तुह जिणिंद सा वसइ
णहकिरणणिहेण घडंति णयजणे से कडक्खछडा ।।४६।।
अनुवादःहे जिनेन्द्र! कमळमां लक्ष्मी रहे छे एम कहेवुं असत्य छे; कारण
के ते तो आपना चरणकमळमां रहे छे, तेथी ज तो नमस्कार करता जनो उपर
आपना नखोना किरणोना ब्हाने तेना नेत्रकटाक्षोनी कान्ति संग पामी शके छे. ४६.
(आर्या )
जे कयकुवलयहरिसे तुमम्मि विद्देसिणो स ताणं पि
दोसो ससिम्मि वा आहयाण जह वाहिआवरणं ।।४७।।
अनुवादःहे जिनेन्द्र! कुवलय अर्थात् भूमंडळने हर्षित करनार आपना
विषयमां जे विद्वेष राखे छे ते तेमनो ज दोष छे. जेमकुवलय (कुमुद)ने प्रफुल्लित
करनार चन्द्रना विषयमां जे मूर्ख बहारनुं आवरण करे छे तो ते तेमनो ज दोष
होय छे, नहि के चन्द्रनो. अभिप्राय एम छे के जेवी रीते कोई चन्द्रनो प्रकाश

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(चांदनी) रोकवा माटे जो बाह्य आवरण करे छे तो ते तेनो ज दोष गणवामां
आवे छे, नहि के चन्द्रनो, कारण के ते तो स्वभावे प्रकाशक अने आह्लादजनक
ज छे. एवी ज रीते जो कोई अज्ञानी जीव आपने पामीने पण आत्महित करतो
नथी तो ए तेनो ज दोष छे, नहि के आपनो. कारण के आप तो स्वभावथी
बधा ज प्राणीओना हितकारक छो. ४७.
(आर्या )
को इह हि उव्वरंतो जिण जयसंहरणमरणवणसिहिणो
तुह पयथुइणिज्झरणी वारणमिणमो ण जइ होंति ।।४८।।
अनुवादःहे जिन! जो आपना चरणोनी स्तुतिरूप आ नदी रोकनारी
(ओलवनारी) न होत तो पछी अहीं जगतनो संहार करनारी मृत्युरूप दावाग्निथी
कोण बची शकतुं हतुं? अर्थात् कोई बाकी न रही शकत. ४८.
(आर्या )
करजुवलकमलमउले भालत्थे तुह पुरो कए वसइ
सग्गापवग्गकमला कुणंति तं तेण सप्पुरिसा ।।४९।।
अनुवादःहे भगवन्! आपनी आगळ नमस्कार करती वखते मस्तक उपर
स्थित बन्ने हाथरूप कमळनी कळीमां स्वर्ग अने मोक्षनी लक्ष्मी निवास करे छे, तेथी
सज्जन पुरुष तेने (बन्ने हाथ कपाळ उपर स्थित) कर्या करे छे. ४९.
(आर्या )
वियलइ मोहणधूली तुह पुरओ मोहठगपरिट्ठविया
पणवियसीसाओ तआ पणवियसीसा बुहा होंति ।।५०।।
अनुवादःहे जिनेन्द्र! तमारी आगळ नम्रीभूत थयेला शिरथी मोहरूप
ठग द्वारा स्थापित करवामां आवेली मोहनधूळ (मोह पमाडनारी धूळ) नाश पामी
जाय छे, तेथी विद्वानो शिर नमावीने आपने नमस्कार करे छे. ५०.
(आर्या )
बंभप्पमुहा सण्णा सव्वा तुह जे भणंति अण्णस्स
ससिजोण्हा खज्जोए जडेहि जोडिज्जए तेहिं ।।५१।।

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अनुवादःहे भगवन्! जे लोको आपना ब्रह्मा आदि सर्व नामोने बीजा
(विधाता आदि) ना बतावे छे ते मूर्ख जाणे चन्द्रनी चांदनीने आगिया साथे जोडे छे.
विशेषार्थःजेम आगियानो प्रकाश कदी चांदनी समान थई शकतो नथी तेवी ज रीते
ब्रह्मा, विष्णु अने महेश इत्यादि जे आपना सार्थक नाम छे ते देवरूपे मनाता बीजाओना कदी
थई शकता नथी. ते सर्व तो आपना ज नाम छे. जेम के
त्वामव्यय विभुमचिन्त्संख्यमाद्यं
ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनङ्गकेतुम् ! योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ।। बुद्धस्त्वमेव
विबुधार्चितबुद्धिबोधात्त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् धातासि धीर शिवमार्गविधेर्विधानाद् व्यक्तं त्वमेव
भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि [भक्तामर० २४-२५] ।। ५१.
(आर्या )
तं चेव मोक्खपयवी तं चिय सरणं जणस्स सव्वस्स
तं णिक्वारणविज्जो जाइजरामरणवाहिहरो ।।५२।।
अनुवादःहे जिनेन्द्र! तमे ज मोक्षमार्ग छो. तमे ज सर्व प्राणीओने
शरणभूत छो; तथा तमे ज जन्म, जरा अने मरणरूप व्याधिने नष्ट करनार निस्वार्थ
वैद्य छो. ५२.
(आर्या )
किच्छाहिं समुवलद्धे कयकिच्चा जम्मि जोइणो होंति
तं परमकारणं जिण ण तुमाहिंतो परो अस्थि ।।५३।।
अनुवादःहे अर्हन्! जे आपने कष्टपूर्वक प्राप्त करीने (जाणीने) योगीजन
कृतकृत्य थई जाय छे ते तमे ज ते कृतकृत्यताना उत्कृष्ट कारण छो, तमारा सिवाय
बीजा कोई तेनुं कारण थई शकतुं नथी. ५३.
(आर्या )
सुहमो सि तह ण दीससि जह पहु परमाणुपेच्छएहिं पि
गुरुवो तह बोहमए जह तइ सव्वं पि संमायं ।।५४।।
अनुवादःहे प्रभो! तमे एवा सूक्ष्म छो के जेथी परमाणुने देखनारा पण
तमने देखी शकता नथी तथा तमे एवा स्थूळ छो के जेथी अनंत ज्ञानस्वरूप आपमां
आखुं य विश्व समाई जाय छे. ५४.