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पराळ (पूळा) समान निःसार छे. ५५.
परमाणु जेवुं लागे छे. आवो महिमा ब्रह्मा-विष्णु वगेरे कोई बीजानो नथी. ५६.
मनुष्य ते गुणसमुद्रमां तरी शके? अर्थात् आपना सर्व गुणोनी स्तुति कोई पण करी
शकतुं नथी. ५७.
पण शुं तेनो (आकाशनो, गुणसमूहनो) अंत मेळव्यो छे? अभिप्राय ए छे के जेम
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चिरकाळ सुधी स्तुति करीने पण कोईनी वाणी आपना गुणोनो अंत पामी शकती
नथी. ५८.
स्तोत्रना विषयमां हुं निर्बुद्धि कवि (केवी रीते) समर्थ थई शकुं? अर्थात् थई शकुं
नहि. तेथी क्षमा करो. ५९.
(सूर्यना पक्षे
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जेवुं छे तेवुं तत्त्व जोई लीधुं छे
छुं. ३.
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बनी जाय छे. ५.
नथी. ७.
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नथी अर्थात् तेनी संसार परंपरा चालती ज रहेशे. ८.
छे. ९.
सर्व दुःखो दूर भागी गया छे. १०.
दिवसोमां आजनो आ मारो दिवस सफळ थयो छे कारण के आज मने चिरसंचित
पापनो नाश करनारूं आपनुं दर्शन प्राप्त थयुं छे. ११.
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के अहीं दर्शन करतां मने सर्व प्रकारनी लक्ष्मी प्राप्त थशे. १२.
थईने ज शोभी रह्युं छे. १३.
देवोने माने? अर्थात् कोई पण बुद्धिमान मनुष्य तेमने देव मानतो नथी. १४.
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ते विषयमां भला अमे शुं कही शकीए? अर्थात् कांई कही शकता नथी
निश्चय थयो छे के सर्व बाह्य पदार्थ मारा नथी. १९.
एवा सूर्यनुं दर्शन करे? अर्थात् कोई करे नहि. २०.
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चन्द्रमाना दर्शननी इच्छा रहेती नथी. कारण के तेनुं स्वरूप आपनाथी विपरीत छे
दोषोथी रहित छो. परंतु ते दोषाकर (दोषोनी खाण, रात्रि करनार) छे तथा आप
वीर अर्थात् कर्मशत्रुओने जीतनार सुभट छो परंतु ते खस्थ (आकाशमां स्थित)
अर्थात् भयभीत थईने आकाशमां छुपाईने रहेनार छे. २१.
जतां आगिया कान्तिहीन थई जाय छे. २२.
बहार ज नीकळी रह्युं छे. २३.
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किरणोनो समूह चाले छे. २४.
कुमुद (सफेदकमळ) निद्रारहित (प्रफुल्लित) थई जाय छे. २६.
छे. २७.
सहस्राक्ष (हजार नेत्रोवाळो) अर्थात् इन्द्र बनीश. २८.
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थयुं छे. २९.
ज्ञानी पुरुष सिद्धि आपनार आपना दर्शनने चाहतो नथी? अर्थात् बधा ज
विवेकीजनो आपना दर्शननी अभिलाषा करे छे. ३२.
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पोताना संसार समूहनो नाश करे छे. ३३.
चिरकाळ सुधी समृद्धि पामो. ३४.
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ते जड अने धूळवाळा कमळनी अपेक्षाए अपूर्वता (विशेषता) पामे छे ते तारां बन्ने
चरणकमळ सर्व देवोना मुकुटोथी स्पर्शित थया थका जयवंत हो. १.
अपेक्षा राखे छे, तथा न संताप करे छे न जडता पण करे छे; ते समस्त पदार्थोने
प्रकाशित करनार तारा तेजनी हुं स्तुति करूं छुं.
तेज रात्रिनी अपेक्षा राखे छे, एवी ज रीते सूर्यनुं तेज जो संताप करे छे तो चन्द्रनुं तेज जडता
(शीतळता) करे छे. ए सिवाय आ बन्नेय तेज केवळ बाह्य अर्थने अने तेने पण अल्प मात्रामां
ज प्रकाशित करे छे, नहि के अंतः तत्त्वने. परंतु सरस्वतीनुं तेज दिवस अने रात्रिनी अपेक्षा न
करतां सर्वदा वस्तुओने प्रकाशित करे छे. ते न तो सूर्यप्रकाश समान मनुष्यने संतप्त करे छे अने
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पण दूर करे छे. ए सिवाय ते जेवी रीते बाह्य पदार्थोने प्रकाशित करे छे तेवी ज रीते अंतःतत्त्वने
पण प्रगट करे छे. तेथी ते सरस्वतीनुं तेज सूर्य अने चन्द्रना तेजनी अपेक्षाए अधिक श्रेष्ठ होवाना
कारणे स्तुति करवा योग्य छे. २.
थयो छुं ते आ प्रमाणे छे के जेम जाणे हुं गंगा नदीनुं पाणी खोबामां भरीने
तेनाथी ते ज गंगा नदीने अर्घ्य आपवा माटे ज उद्यत थयो होउं. ३.
अल्पज्ञ मनुष्य जे तारा विषयमां ‘जय’ अर्थात् ‘तुं जयवंत हो’ एवा बे ज अक्षर
कहे छे तेने पण साहस ज समजवुं जोईए. ४.
उक्त त्रणे लोकरूप भवनमां स्थित समस्त वस्तुओना समूहने देखे छे.
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के तेना प्रसादथी जेवी रीते द्रष्टियुक्त मनुष्य पदार्थनुं ज्ञान प्राप्त करे छे तेवी ज रीते द्रष्टिहीन
(अंध) मनुष्य पण तेना द्वारा ज्ञान प्राप्त करे छे. त्यां सुधी के सरस्वतीनी उत्कर्षताथी
केवळज्ञान प्राप्त करीने जीव समस्त विश्वने पण देखवामां समर्थ बनी जाय छे के जे दीपक
द्वारा संभव नथी. ५.
रह्या छे. छतां पण ए क्षण वार माटे अतिशय अनभ्यस्त जेवो (परिचय न होय
तेवो) ज प्रतिभासे छे.
संकुचित थवाथी थोडा ज मनुष्य तेना उपरथी आवी जई शके छे, एक साथे अनेक माणसो नहि.
परंतु सरस्वतीनो मार्ग आकाश समान निर्मळ अने विशाळ छे. जेम आकाश मार्गे जो के अनेक
विबुध (देवो) अने पक्षी आदि एकी साथे प्रतिदिन निर्बाधपणे गमनागमन करे छे, तो पण ते
तूट-फूटथी रहित होवाने कारणे विकृत थतो नथी, अने तेथी एवुं लागे छे के जाणे अहींथी कोईनो
संचार ज थयो नथी. एवी ज रीते सरस्वतीनो पण मार्ग एटलो विशाळ छे के तेना उपरथी
अनेक विद्वानो केटले य दूर केम न जाय छतां पण तेनो न तो अंत आवे छे अने न तेमां कोई
प्रकारनो विकार पण थई जाय छे. तेथी ते सदाय अक्षुण्ण बनी रहे छे. ६.
पण शीघ्र प्राप्त थई जाय छे के जेने महात्मा मुनिजनो तीव्र तपश्चरण द्वारा देखी
शके छे. ७.
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जराक पण देखो छो ते क्या क्या गुणोथी विभूषित नथी थता? अर्थात् ते अनेक
गुणोथी सुशोभित थई जाय छे. ८.
जे मनुष्यपर्याय प्राप्त करे छे ते पण तारा विना नष्ट थई जाय छे. १०.
तेने विवेक बुद्धि क्यांथी थई शके? अर्थात् थई शकती नथी. हे देवी! तारा विना
तो प्राणीनो जन्म निष्फळ थाय छे. ११.
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छो. तमे सम्पूर्ण रीते श्वेत होवा छतां पण उत्तम वर्णमय (अकारादि अक्षर स्वरूप)
शरीरवाळा छो. हे देवी! तमारी आ प्रवृत्ति अहीं आश्चर्य उत्पन्न करे छे.
ए के अहीं ‘पद’ शब्दना बे अर्थ छे.
करे छे. एवी ज रीते सरस्वती पूर्णपणे धवल (श्वेत) छे ते सुवर्ण जेवा शरीरवाळी केवी रीते
होई शके? ए पण जो के विरोध लागे छे, परंतु वास्तवमां विरोध अहीं कांई पण नथी.
कारण ए के शुक्ल शब्दथी अभिप्राय अहीं निर्मळनो अने वर्ण शब्दथी अभिप्राय अकारादि
अक्षरोनो छे. तेथी ज एनो भाव ए थयो के अकारादि उत्तम वर्णोरूप शरीरवाळी ते सरस्वती
पूर्णपणे निर्मळ छे. १३.
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आश्चर्यचकित करो छो.
छे, तेमां आ अतिशय विशेष छे के जेनाथी ते समुद्रना शब्द समान अक्षरमय न होवा
छतां पण श्रोताजनोनेे पोतपोतानी भाषा स्वरूपे प्रतीत थाय छे अने तेथी तेने सर्वभाषात्मक
कहेवामां आवे छे. १४.
तत्त्वनुं दर्शन (ज्ञान) कराववामां तमे अनुपम नेत्र समान छो. १५.
अने वकतृत्व) जो के दुर्लभ ज छे, तो पण हे देवी! तारी थोडीक प्रसन्नताथी य
ते बन्ने गुण मनुष्योने प्राप्त थई जाय छे. १६.
पामेल आ श्रवण विवेकनुं कारण थाय छे अने पोताने विषय तरफ प्रवृत्ति
करावनारा बीजुं श्रवण अविवेकनुं कारण थाय छे.
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कानोथी जिनवाणी न सांभळतां अन्य रागवर्धक कथा आदि सांभळे छे ते विवेक रहित बनीने
विषयभोगमां प्रवृत्त थाय छे अने आ रीते अंते असह्य दुःख भोगवे छे. १७.
अनादिनिधन छे. आ जातना धर्म (अनेकान्त) युक्त ते सर्वथा एकान्तविधानने नष्ट
करी नाख्युं छे.
पर्याय स्वरूपे अनित्य छे. साथे ज द्रव्यस्वरूपे तेनो विनाश संभवित नथी तेथी
द्रव्यस्वरूपे अथवा अनादिप्रवाहथी ते नित्य पण छे. आ रीते अनेकान्तस्वरूप ते वाणी
समस्त एकान्तमतोनुं निराकरण करे छे. १८.
आपे छे. तो पछी भला विद्वान मनुष्यो तने आमनी उपमा केवी रीते आपे? अर्थात्
तुं एमनी उपमाने योग्य नथी
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न चन्द्र पण. परंतु हे देवी! तेने (अज्ञान अंधकारने) तुं नष्ट करे छे. तेथी तने
‘उत्तम ज्योति’ अर्थात् सूर्य
पामती थकी अहीं क्या जीवोने उत्कृष्ट हर्ष नथी आपती? अर्थात् सर्व जीवोने
आनंदित करो छो. २१.
देदीप्यमान प्रभाव आगळ राजापणुं, सौभाग्य अने सुंदर स्त्री आदि शी वस्तु छे?
अर्थात् कांई पण नथी.
तेनी उपासनाथी राज्यपद आदि प्राप्त थवामां भला शी कठिनाई होय? कांई पण नहि. २२.
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केवळज्ञान साथे स्पर्धा पामीने ज तेना विषयभूत समस्त विश्वने देखे छे.
छे के ज्यां श्रुतज्ञान ते बधा पदार्थोने परोक्ष (अविशद) स्वरूपे जाणे छे. त्यां केवळज्ञान तेमने
प्रत्यक्ष (विशद) स्वरूपे जाणे छे. आ ज वातने लक्ष्यमां राखीने एम कहेवामां आव्युं छे के ते
श्रुतज्ञानरूप त्रीजुं नेत्र जाणे केवळज्ञान साथे स्पर्धा ज करे छे. २३.
आनन्दरूप समुद्रने वधारवामां चन्द्रमानी मूर्ति धारण करनार पण तमे ज छो. २४.
तमे मनुष्योने दूर क्षेत्रे रहेली वस्तुओ देखाडवामां नेत्र समान बनीने तेमनुं संसाररूप
वृक्ष कापवा माटे कुहाडीनुं काम करो छो. २५.