Padmanandi Panchvinshati-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 55-60 (13. Rhushabha Stoatra),1 (14. Jinavar Stavan),2 (14. Jinavar Stavan),3 (14. Jinavar Stavan),4 (14. Jinavar Stavan),5 (14. Jinavar Stavan),6 (14. Jinavar Stavan),7 (14. Jinavar Stavan),8 (14. Jinavar Stavan),9 (14. Jinavar Stavan),10 (14. Jinavar Stavan),11 (14. Jinavar Stavan),12 (14. Jinavar Stavan),13 (14. Jinavar Stavan),14 (14. Jinavar Stavan),15 (14. Jinavar Stavan),16 (14. Jinavar Stavan),17 (14. Jinavar Stavan),18 (14. Jinavar Stavan),19 (14. Jinavar Stavan),20 (14. Jinavar Stavan),21 (14. Jinavar Stavan),22 (14. Jinavar Stavan),23 (14. Jinavar Stavan),24 (14. Jinavar Stavan),25 (14. Jinavar Stavan),26 (14. Jinavar Stavan),27 (14. Jinavar Stavan),28 (14. Jinavar Stavan),29 (14. Jinavar Stavan),30 (14. Jinavar Stavan),31 (14. Jinavar Stavan),32 (14. Jinavar Stavan),33 (14. Jinavar Stavan),34 (14. Jinavar Stavan),1 (15. Shrutdevata Stuti),2 (15. Shrutdevata Stuti),3 (15. Shrutdevata Stuti),4 (15. Shrutdevata Stuti),5 (15. Shrutdevata Stuti),6 (15. Shrutdevata Stuti),7 (15. Shrutdevata Stuti),8 (15. Shrutdevata Stuti),9 (15. Shrutdevata Stuti),10 (15. Shrutdevata Stuti),11 (15. Shrutdevata Stuti),12 (15. Shrutdevata Stuti),13 (15. Shrutdevata Stuti),14 (15. Shrutdevata Stuti),15 (15. Shrutdevata Stuti),16 (15. Shrutdevata Stuti),17 (15. Shrutdevata Stuti),18 (15. Shrutdevata Stuti),19 (15. Shrutdevata Stuti),20 (15. Shrutdevata Stuti),21 (15. Shrutdevata Stuti),22 (15. Shrutdevata Stuti),23 (15. Shrutdevata Stuti),24 (15. Shrutdevata Stuti),25 (15. Shrutdevata Stuti),26 (15. Shrutdevata Stuti); 14. Jinavar Stavan; 15. Shrutdevata Stuti.

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(आर्या )
णीसेसवत्थुसत्थे हेयमहेयं णिरूवमाणस्स
तं परमप्पा सारो सेसमसारं पलालं वा ।।५५।।
अनुवादःहे भगवन्! समस्त वस्तुओना समूहमां आ हेय छे अने आ
उपादेय छे, एवुं निरूपण करनार शास्त्रनो सार तमे परमात्मा ज छो, बाकी बधु
पराळ (पूळा) समान निःसार छे. ५५.
(आर्या )
धरइ परमाणुलीलं जग्गब्भे तिहुयणं पि तं पि णहं
अंतो णाणस्स तुह इयरस्स ण एरिसी महिमा ।।५६।।
अनुवादःहे सर्वज्ञ! जे आकाशना गर्भमां त्रणे य लोक परमाणुनी लीला
धारण करे छे अर्थात् परमाणु समान जणाय छे, ते आकाश पण आपना ज्ञानमां
परमाणु जेवुं लागे छे. आवो महिमा ब्रह्मा-विष्णु वगेरे कोई बीजानो नथी. ५६.
(आर्या )
भुवणत्थुय थुणइ जइ जए सरस्सई संतयं तुहं तह वि
ण गुणंतं लहइ तहिं को तरइ जडो जणो अण्णो ।।५७।।
अनुवादःहे भुवनस्तुत! जो संसारमां तमारी स्तुति सरस्वती पण निरंतर
करे तो पण ते जो तमारा गुणोनो अंत पामती नथी तो पछी बीजो क्यो मूर्ख
मनुष्य ते गुणसमुद्रमां तरी शके? अर्थात् आपना सर्व गुणोनी स्तुति कोई पण करी
शकतुं नथी. ५७.
(आर्या )
खयरि व्व संचरंती तिहुयणगुरु तुह गुणोहगयणम्मि
दूरं पि गया सुइरं कस्स गिरा पत्तपेरंता ।।५८।।
अनुवादःहे त्रिभुवनपते! आपना गुणसमूहरूप आकाशमां पक्षिणी
(अथवा विद्याधरी) समान चिरकाळथी संचार करनारी कोईनी वाणीए दूर जईने
पण शुं तेनो (आकाशनो, गुणसमूहनो) अंत मेळव्यो छे? अभिप्राय ए छे के जेम

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पक्षी चिरकाळ सुधी गमन करीने पण आकाशनो अंत पामतुं नथी तेवी ज रीते
चिरकाळ सुधी स्तुति करीने पण कोईनी वाणी आपना गुणोनो अंत पामी शकती
नथी. ५८.
(आर्या )
जत्थ असक्को सक्को अणीसरो ईसरो फणीसो वि
तुह थोत्ते तत्थ कई अहममई तं खमिज्जासु ।।५९।।
अनुवादःहे भगवन्! तमारा जे स्तोत्रना विषयमां इन्द्र अशक्त छे,
इश्वर (महादेव) अनीश्वर (असमर्थ) छे तथा धरणेन्द्र पण असमर्थ छे; ते तारा
स्तोत्रना विषयमां हुं निर्बुद्धि कवि (केवी रीते) समर्थ थई शकुं? अर्थात् थई शकुं
नहि. तेथी क्षमा करो. ५९.
(आर्या )
तं भव्वपोमणंदी तेयणिही णेसरु व्व णिद्दोसो
मोहंधयारहरणे तुह पाया मम पसीयंतु ।।६०।।
अनुवादःहे जिन! तमे सूर्य समान पद्मनन्दी अर्थात् भव्यजीवोरूप
कमळोने आनंदित करनार, तेजना भंडार अने निर्दोष अर्थात् अज्ञानादि दोषरहित
(सूर्यना पक्षे
दोषो रहित) छो. तमारा पाद (चरण) सूर्यना पाद (किरणो) समान
मारा मोहरूप अंधकारनो नाश करवामां प्रसन्न थाव. ६०.
आ रीते ॠषभस्तोत्र समाप्त थयुं. १३.

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१४. जिनवर स्तवन
[१४. जिनवरस्तवनम् ]
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर सहलीहूआइं मज्झ णयणाइं
चित्तं गत्त च लहुं अमिएण व सिंचियं जायं ।।।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपना दर्शन थतां मारा नेत्र सफळ थई गया तथा
मन अने शरीर तरत ज अमृत सिंचाई गया होय तेम शान्त थई गया छे. १.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर दिट्ठिहरासेसमोहतिमिरेण
तह णट्ठं जइ दिट्ठं जहट्ठियं तं मए तच्चं ।।।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपना दर्शन थतां दर्शनमां बाधा पहोंचाडनार
समस्त मोह (दर्शनमोह) रूप अंधकार एवी रीते नष्ट थई गयो छे के जेथी में
जेवुं छे तेवुं तत्त्व जोई लीधुं छे
सम्यग्दर्शन प्राप्त करी लीधुं छे. २.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर परमाणंदेण पूरियं हिययं
मज्झ तहा जह मण्णे मोक्खं पिव पत्तमप्पाणं ।।।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपनुं दर्शन थतां मारूं अंतःकरण एवा उत्कृष्ट
आनंदथी परिपूर्ण थई गयुं छे के जेथी हुं मने मुक्ति प्राप्त थयेल ज समजुं
छुं. ३.

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(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर णट्ठं चिय मण्णियं महापावं
रविउग्ग्मे णिसाए ठाइ तमो कित्तियं कालं ।।।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपनुं दर्शन थतां हुं महापापने नष्ट थयेलुं ज
मानुं छुं. बराबर छेसूर्यनो उदय थतां रात्रिनो अंधकार भला केटलो वखत टकी
शके छे? अर्थात् टकतो नथी, ते सूर्यनो उदय थतां ज नष्ट थई जाय छे. ४.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर सिज्झइ सो को वि पुण्णपब्भारो
होइ जणो जेण पहु इहपरलोयत्थसिद्धीणं ।।।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपनुं दर्शन थतां एवो कोई अपूर्व पुण्यनो समूह
सिद्ध थाय छे के जेथी प्राणी आ लोक अने परलोक संबंधी इष्ट सिद्धिओनो स्वामी
बनी जाय छे. ५.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर मण्णे तं अप्पणो सुकयलाहं
होही सो जेणासरिससुहणिही अक्खओ मोक्खो ।।।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपना दर्शन थतां हुं मने एवा पुण्यलाभवाळो मानुं
छुं के जेथी मने अनुपम सुखना भंडारस्वरूप ते अविनश्वर मोक्ष प्राप्त थशे. ६.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर संतोसो मज्झ तह परो जाओ
इंदविहवो वि जणइ ण तण्हालेसं पि जह हियए ।।।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपनुं दर्शन थतां मने एवो उत्कृष्ट संतोष उत्पन्न
थयो छे के जेथी मारा हृदयमां इन्द्रनो वैभव पण लेशमात्र तृष्णा उत्पन्न करतो
नथी. ७.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर वियारपडिवज्जिए परमसंते
जस्स ण हिट्ठी दिट्ठी तस्स ण णवजम्मविच्छेओ ।।।।

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अनुवाद : हे जिनेन्द्र! रागादि विकार रहित अने अतिशय शांत एवा
आपना दर्शन थतां जेनी द्रष्टि हर्ष पामती नथी तेने नवीन जन्मनो नाश थई शकतो
नथी अर्थात् तेनी संसार परंपरा चालती ज रहेशे. ८.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर जं मह कज्जंतराउलं हिययं
कइया वि हवइ पुव्वज्जियस्य कम्मस्स सो दोसो ।।।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपनुं दर्शन थया पछी य जो मारुं हृदय कोईवार
बीजा कोई महान् कार्यथी व्याकुळ थाय छे तो ते पूर्वोपार्जित कर्मना दोषथी थाय
छे. ९.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर अच्छउ जम्मंतरं ममेहावि
सहसा सुहेहिं घडियं दुक्खेहिं पलाइयं दूरं ।।१०।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपना दर्शन थतां अन्य जन्मना सुखनी इच्छा
तो दूर रहो, परंतु तेनाथी आ लोकमां पण मने अकस्मात् सुख प्राप्त थयुं छे अने
सर्व दुःखो दूर भागी गया छे. १०.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर बज्झइ पट्टो दिणम्मि अज्जयणे
सहलत्तणेण मज्झे सव्वदिणाणं पि सेसाणं ।।११।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपना दर्शन थतां बाकीना बधा ज दिवसोमां
आजना दिवसे सफळतानो पट्ट बांधवामां आव्यो छे. अभिप्राय एम छे के आटला
दिवसोमां आजनो आ मारो दिवस सफळ थयो छे कारण के आज मने चिरसंचित
पापनो नाश करनारूं आपनुं दर्शन प्राप्त थयुं छे. ११.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर भवणमिणं तुज्झ मह महग्धतरं
सव्वाणं पि सिरीणं संकेयघरं व पडिहाइ ।।१२।।

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अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपनुं दर्शन थतां आ तमारूं महा-मूल्यवान घर
(जिनमंदिर) मने बधी लक्ष्मीओना संकेतगृह समान प्रतिभासे छे. अभिप्राय ए
के अहीं दर्शन करतां मने सर्व प्रकारनी लक्ष्मी प्राप्त थशे. १२.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर भत्तिजलोल्लं समासियं छेत्तं
जं तं पुलयमिसा पुण्यबीयमंकुरियमिव सहइ ।।१३।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपनुं दर्शन थतां भक्तिरूप जळथी भींजायेला
खेतर (शरीर) ने जे पुण्यरूप बीज प्राप्त थयुं हतुं ते जाणे रोमांचना ब्हाने अंकुरित
थईने ज शोभी रह्युं छे. १३.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर समयामयसायरे गहीरम्मि
रायाइदोसकलुसे देवे को मण्णए सयाणो ।।१४।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! सिद्धान्तरूप अमृतना समुद्र अने गंभीर एवा
आपना दर्शन थतां क्यो बुद्धिमान मनुष्य रागादि-दोषोथी मलिनताने प्राप्त थयेल
देवोने माने? अर्थात् कोई पण बुद्धिमान मनुष्य तेमने देव मानतो नथी. १४.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर मोक्खो अइदुल्लहो वि संपडइ
मिच्छत्तमलकलंकी मणो ण जइ होइ पुरिसस्स ।।१५।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! जो पुरुषनुं मन मिथ्यात्वरूप मळथी मलिन न होय
तो आपनुं दर्शन थतां अत्यंत दुर्लभ मोक्ष पण प्राप्त थई शके छे. १५.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर चम्ममएणच्छिणा वि तं पुण्णं
जं जणइ पुरो केवलदंसणणाणाइं णयणाइं ।।१६।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! चर्ममय नेत्रथी पण आपनुं दर्शन थतां ते पुण्य प्राप्त
थाय छे के जे भविष्यमां केवळदर्शन अने केवळज्ञानरूप नेत्रोने उत्पन्न करे छे. १६.

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(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर सुकयत्थो मण्णिओ ण जेणप्पा
सो बहुयबुणुब्बुणाइं भवसायरे काही ।।१७।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपनुं दर्शन थतां जे जीव पोताने अतिशय कृतार्थ
(कृतकृत्य) मानतो नथी ते संसाररूप समुद्रमां अनेकवार गोथा खाशे. १७.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर णिच्छयदिट्ठीए होइ जं किं पि
ण गिराए गोचरं तं साणुभवत्थं पि किं भणिमो ।।१८।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपनुं दर्शन थतां जे कांई पण थाय छे ते
निश्चयद्रष्टिए वचननो विषय नथी, ते तो केवळ स्वानुभवनो ज विषय छे. तेथी
ते विषयमां भला अमे शुं कही शकीए? अर्थात् कांई कही शकता नथी
ते
अनिर्वचनीय छे. १८.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर दट्ठव्वावहिविसेसरूवम्मि
दंसणसुद्धीए गयं दाणिं मह णत्थि सव्वत्था ।।१९।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! देखवा योग्य पदार्थोना सीमाविशेष स्वरूप (सर्वथी
अधिक दर्शनीय) आपनुं दर्शन थतां जे दर्शनविशुद्धि थई छे तेनाथी आ वखते ए
निश्चय थयो छे के सर्व बाह्य पदार्थ मारा नथी. १९.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर अहियं सुहिया समुज्जलो होइ
जणदिट्ठी को पेच्छइ तद्दंसणसुहयरं सूरं ।।२०।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपनुं दर्शन थतां लोकोनी द्रष्टि अतिशय सुखयुक्त
अने उज्ज्वळ थई जाय छे. पछी भला क्यो बुद्धिमान मनुष्य ते द्रष्टिने सुखकारक
एवा सूर्यनुं दर्शन करे? अर्थात् कोई करे नहि. २०.

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(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर बुहम्मि दोसोज्झियम्मि वीरम्मि
कस्स किर रमइ दिट्ठी जडम्मि दोसायरे खत्थे ।।२१।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! ज्ञानी, दोषरहित अने वीर एवा आपने जोई लीधा
पछी कोनी द्रष्टि चन्द्रमा तरफ रमे? अर्थात् आपनुं दर्शन करीने पछी कोईने य
चन्द्रमाना दर्शननी इच्छा रहेती नथी. कारण के तेनुं स्वरूप आपनाथी विपरीत छे
आप ज्ञानी छो, परंतु ते जड (मूर्ख, शीतळ) छे. आप दोषोज्झित अर्थात्, अज्ञानादि
दोषोथी रहित छो. परंतु ते दोषाकर (दोषोनी खाण, रात्रि करनार) छे तथा आप
वीर अर्थात् कर्मशत्रुओने जीतनार सुभट छो परंतु ते खस्थ (आकाशमां स्थित)
अर्थात् भयभीत थईने आकाशमां छुपाईने रहेनार छे. २१.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर चिंतामणिकामधेणुकप्पतरु
खज्जोय व्व पहाए मज्झ मणे णिप्पहा जाया ।।२२।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपनुं दर्शन थतां मारा मनमां चिंतामणी, कामधेनु
अने कल्पवृक्ष पण एवी रीते कान्तिहीन (फीक्का) थई गया छे जेम प्रभात थई
जतां आगिया कान्तिहीन थई जाय छे. २२.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर रहसरसो मह मणम्मि जो जाओ
आणंदंसुमिसा सो तत्तो णीहरइ बहिरंतो ।।२३।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपनुं दर्शन थतां मारा मनमां जे हर्षरूप जळ
उत्पन्न थयुं छे ते जाणे हर्षना कारणे उत्पन्न थयेल आंसुओना बहाने अंदरनी
बहार ज नीकळी रह्युं छे. २३.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर कल्लाणपरंपरा पुरो पुरिसे
संचरइ अणाहूया वि ससहरे किरणमाल व्व ।।२४।।

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अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपनुं दर्शन थतां कल्याणनी परंपरा (समूह)
बोलाव्या विना ज पुरुषनी आगळ एवी रीते चाले छे जेम चन्द्रमानी आगळ तेना
किरणोनो समूह चाले छे. २४.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर दिसवल्लीओ फलंति सव्वाओ
इट्ठं अहुल्लिया वि हु वरिसइ सुण्णं पि रयणेहिं ।।२५।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपनुं दर्शन थतां सर्व दिशाओरूप वेल फूलो विना
पण इष्ट फळ आपे छे तथा खाली आकाश पण रत्नोनी वर्षा करे छे. २५.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर भव्वो भयवज्जिओ हवे णवरं
गयणिद्दं चिय जायइ जोण्हापसरे सरे कुमुयं ।।२६।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपनुं दर्शन थतां भव्य जीव सहसा भय अने
निद्राथी ए रीते रहित (प्रबुद्ध) थई जाय छे, जेम चांदनीनो विस्तार थतां सरोवरमां
कुमुद (सफेदकमळ) निद्रारहित (प्रफुल्लित) थई जाय छे. २६.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर हियएणं मह सुहं समुल्लसियं
सरिणाहेणिव सहसा उग्गमिए पुण्णिमाइंदे ।।२७।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपनुं दर्शन थतां मारूं हृदय सहसा एवी रीते
सुखपूर्वक हर्ष पाम्युं छे जेम पूर्णिमाना चन्द्रनो उदय थतां समुद्र आनंद (वृद्धि) पामे
छे. २७.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर दोहिमि चक्खूहिं तह सुही अहिय
हियए जह सहसच्छोहोमि त्ति मणोरहो जाओ ।।२८।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! बे ज आंखो वडे आपना दर्शन थतां हुं एटलो
बधो सुखी थयो छुं के जेथी मारा हृदयमां एवो मनोरथ उत्पन्न थयो छे के हुं
सहस्राक्ष (हजार नेत्रोवाळो) अर्थात् इन्द्र बनीश. २८.

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(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर भवो वि मित्तत्तणं गओ एसो
एयम्मि ठियस्स जओ जायं तुह दंसणं मज्झ ।।२९।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपनुं दर्शन थतां आ संसार पण मित्रताने प्राप्त
थयो छे. एनुं कारण ए छे के तेमां स्थित रहेवा छतां पण मने आपनुं दर्शन प्राप्त
थयुं छे. २९.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर भव्वाणं भूरिभत्तिजुत्ताणं
सव्वाओ सिद्धिओ होंति पुरो एक्कलीलाए ।।३०।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपनुं दर्शन थतां अतिशय भक्तियुक्त भव्य जीवो
पासे बधी सिद्धिओ एक रमत मात्रमां ज (अनायासे ज) आवीने प्राप्त थाय छे. ३०.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर सुहगइसंसाहणेक्कबीयम्मि
कंठगयजीवियस्स वि धीरं संपज्जए परमं ।।३१।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! शुभ गति साधवामां अनुपम बीजभूत एवा आपनुं
दर्शन थतां मरणोन्मुख प्राणीने पण उत्कृष्ट धैर्य प्राप्त थाय छे. ३१.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर कमम्मि सिद्धे ण किं पुणो सिद्धं
सिद्धियरं को णाणी महइ ण तुह दंसणं तम्हा ।।३२।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपना दर्शनथी आपना चरण सिद्ध थतां शुं न
सिद्ध थयुं? अर्थात् आपना चरणोना प्रसादथी बधुं ज सिद्ध थई जाय छे तेथी क्यो
ज्ञानी पुरुष सिद्धि आपनार आपना दर्शनने चाहतो नथी? अर्थात् बधा ज
विवेकीजनो आपना दर्शननी अभिलाषा करे छे. ३२.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर पोम्मकयं दंसणत्थुइं तुज्झ
जो पहु पढइ तियालं भवजालं सो समोसरइ ।।३३।।

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अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आपनुं दर्शन थतां जे भव्य जीव पद्मनन्दी मुनिद्वारा
रचवामां आवेली आपनी आ दर्शन स्तुति त्रणे संध्याकाळे वांचे छे, ते हे प्रभो!
पोताना संसार समूहनो नाश करे छे. ३३.
(आर्या )
दिट्ठे तुमम्मि जिणवर भणियमिणं जणियजणमणाणंदं
सव्वेहिं पढिज्जंतं णंदउ सुइरं धरावीढे ।।३४।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र ! आपना दर्शन करीने में भव्यजनोना मनने आनंदित
करनार जे दर्शन स्तोत्र कह्युं छे ते सर्वने वांचवानो विषय बनीने पृथ्वीतळ उपर
चिरकाळ सुधी समृद्धि पामो. ३४.
आ रीते जिनदर्शनस्तुति समाप्त थई. १४.

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१५. श्रुतदेवता स्तुति
[१५. श्रुतदेवतास्तुति ]
(वंशस्थ)
जयत्यशेषामरमौलिलालितं सरस्वति त्वत्पदपङ्कजद्वयम्
हृदि स्थितं यज्जनजाडयनाशनं रजोविमुक्तं श्रयतीत्यपूर्वताम् ।।।।
अनुवाद : हे सरस्वती! जे तारां बन्ने चरण-कमळ हृदयमां स्थित थईने
लोकोनी जडता (अज्ञान) नष्ट करनार तथा रज (पापरूप धूळ) रहित थतां थकां
ते जड अने धूळवाळा कमळनी अपेक्षाए अपूर्वता (विशेषता) पामे छे ते तारां बन्ने
चरणकमळ सर्व देवोना मुकुटोथी स्पर्शित थया थका जयवंत हो. १.
(वंशस्थ)
अपेक्षते यन्न दिनं न यामिनीं न चान्तरं नैव बहिश्च भारति
न तापकृज्जाडयकरं न तन्महः स्तुवे भवत्याः सकलप्रकाशकम् ।।।।
अनुवाद : हे सरस्वती! जे तारूं तेज न दिवसनी अपेक्षा राखे छे के न
रात्रिनी य अपेक्षा राखे छे, न अभ्यंतरनी अपेक्षा राखे छे अने न बाह्यनी पण
अपेक्षा राखे छे, तथा न संताप करे छे न जडता पण करे छे; ते समस्त पदार्थोने
प्रकाशित करनार तारा तेजनी हुं स्तुति करूं छुं.
विशेषार्थ :ó अभिप्राय ए छे के सरस्वतीनुं तेज सूर्य अने चन्द्रना तेजनी अपेक्षाए
अधिक श्रेष्ठ छे. एनुं कारण ए छे के सूर्यनुं तेज ज्यां दिवसनी अपेक्षा राखे छे त्यां चन्द्रमानुं
तेज रात्रिनी अपेक्षा राखे छे, एवी ज रीते सूर्यनुं तेज जो संताप करे छे तो चन्द्रनुं तेज जडता
(शीतळता) करे छे. ए सिवाय आ बन्नेय तेज केवळ बाह्य अर्थने अने तेने पण अल्प मात्रामां
ज प्रकाशित करे छे, नहि के अंतः तत्त्वने. परंतु सरस्वतीनुं तेज दिवस अने रात्रिनी अपेक्षा न
करतां सर्वदा वस्तुओने प्रकाशित करे छे. ते न तो सूर्यप्रकाश समान मनुष्यने संतप्त करे छे अने



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न चन्द्रप्रकाश समान जडता य करे छे, परंतु ते लोकोनो संताप नष्ट करीने तेमनी जडता (अज्ञान)
पण दूर करे छे. ए सिवाय ते जेवी रीते बाह्य पदार्थोने प्रकाशित करे छे तेवी ज रीते अंतःतत्त्वने
पण प्रगट करे छे. तेथी ते सरस्वतीनुं तेज सूर्य अने चन्द्रना तेजनी अपेक्षाए अधिक श्रेष्ठ होवाना
कारणे स्तुति करवा योग्य छे. २.
(वंशस्थ)
तव स्तवे यत्कविरस्मि सांप्रतं भवत्प्रसादादपि लब्धपाटवः
सवित्रि गङ्गासरिते ऽर्घदायको भवामि तत्तज्जलपूरिताञ्जलिः ।।।।
अनुवाद : हे सरस्वती माता! तारा ज प्रसादथी निपुणता प्राप्त करीने जे
हुं आ वखते तारी स्तुतिना विषयमां कवि थयो छुं अर्थात् कविता करवाने उद्यत
थयो छुं ते आ प्रमाणे छे के जेम जाणे हुं गंगा नदीनुं पाणी खोबामां भरीने
तेनाथी ते ज गंगा नदीने अर्घ्य आपवा माटे ज उद्यत थयो होउं. ३.
(वंशस्थ)
श्रुतादिकेवल्यपि तावकीं श्रियं स्तुवन्नशक्तो ऽहमिति प्रपद्यते
जयेति वर्णद्वयमेव मादृशा वदन्ति यद्देवि तदेव साहसम् ।।।।
अनुवाद : हे देवी! ज्यारे तारी लक्ष्मीनी स्तुति करतां श्रुतकेवळीओ पण
ए स्वीकार करे छे के ‘अमे स्तुति करवामां असमर्थ छीए’ तो पछी मारा जेवो
अल्पज्ञ मनुष्य जे तारा विषयमां ‘जय’ अर्थात् ‘तुं जयवंत हो’ एवा बे ज अक्षर
कहे छे तेने पण साहस ज समजवुं जोईए. ४.
(वंशस्थ)
त्वमत्र लोकत्रयसद्मनि स्थिता प्रदीपिका बोधमयी सरस्वती
तदन्तरस्थाखिलवस्तुसंचयं जनाः प्रपश्यन्ति सदृष्टयो ऽप्यतः ।।।।
अनुवाद : हे सरस्वती! तमे त्रण लोकरूप भवनमां स्थित ते ज्ञानमय दीपक
छो के जेना द्वारा द्रष्टिहीन (अंध) मनुष्योनी साथे द्रष्टियुक्त (देखता) मनुष्य पण
उक्त त्रणे लोकरूप भवनमां स्थित समस्त वस्तुओना समूहने देखे छे.
विशेषार्थ : अहीं सरस्वतीने दीपकनी उपमा आपीने तेनाथी पण कांईक विशेषता
प्रगट करवामां आवी छे. ते आ रीतेदीपक द्वारा केवळ सद्रष्टि (आंखोवाळा) प्राणीओने ज

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पदार्थनुं दर्शन थाय छे, नहि के द्रष्टिहीन मनुष्योने पण. परंतु सरस्वतीमां आ विशेषता छे
के तेना प्रसादथी जेवी रीते द्रष्टियुक्त मनुष्य पदार्थनुं ज्ञान प्राप्त करे छे तेवी ज रीते द्रष्टिहीन
(अंध) मनुष्य पण तेना द्वारा ज्ञान प्राप्त करे छे. त्यां सुधी के सरस्वतीनी उत्कर्षताथी
केवळज्ञान प्राप्त करीने जीव समस्त विश्वने पण देखवामां समर्थ बनी जाय छे के जे दीपक
द्वारा संभव नथी. ५.
(वंशस्थ)
नभःसमं वर्त्म तवातिनिर्मलं पृथु प्रयातं विबुधैर्न कैरिह
तथापि देवि प्रतिभासते तरां यदेतदक्षुण्णमिव क्षणेन तु ।।।।
अनुवाद : हे देवी! तारो मार्ग आकाश समान अत्यंत निर्मळ अने विस्तृत
छे, आ मार्गे क्या विद्वाने गमन नथी कर्युं? अर्थात् ते मार्गे अनेक विद्वानो चालता
रह्या छे. छतां पण ए क्षण वार माटे अतिशय अनभ्यस्त जेवो (परिचय न होय
तेवो) ज प्रतिभासे छे.
विशेषार्थ : ज्यारे कोई विशिष्ट नगर आदिना पार्थिव रस्ते जनसमूह गमनागमन
करे छे त्यारे ते अक्षुण्ण न रहेतां तेमना पगलां आदिथी अंकित थई जाय छे, ते सिवाय ते
संकुचित थवाथी थोडा ज मनुष्य तेना उपरथी आवी जई शके छे, एक साथे अनेक माणसो नहि.
परंतु सरस्वतीनो मार्ग आकाश समान निर्मळ अने विशाळ छे. जेम आकाश मार्गे जो के अनेक
विबुध (देवो) अने पक्षी आदि एकी साथे प्रतिदिन निर्बाधपणे गमनागमन करे छे, तो पण ते
तूट-फूटथी रहित होवाने कारणे विकृत थतो नथी, अने तेथी एवुं लागे छे के जाणे अहींथी कोईनो
संचार ज थयो नथी. एवी ज रीते सरस्वतीनो पण मार्ग एटलो विशाळ छे के तेना उपरथी
अनेक विद्वानो केटले य दूर केम न जाय छतां पण तेनो न तो अंत आवे छे अने न तेमां कोई
प्रकारनो विकार पण थई जाय छे. तेथी ते सदाय अक्षुण्ण बनी रहे छे. ६.
(वंशस्थ)
तदस्तु तावत्कवितादिकं नृणां तव प्रभावात्कृतलोकविस्मयम्
भवेत्तदप्याशु पदं यदीक्षते तपोभिरुग्रैर्मुनिभिर्महात्मभिः ।।।।
अनुवाद : हे देवी! तारा प्रभावथी मनुष्य जे लोकोने आश्चर्य उत्पन्न
करनारी कविता आदि करे छे ते तो दूर ज रहो, कारण के तेनाथी तो ते पद (मोक्ष)
पण शीघ्र प्राप्त थई जाय छे के जेने महात्मा मुनिजनो तीव्र तपश्चरण द्वारा देखी
शके छे. ७.

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(वंशस्थ)
भवत्कला यत्र न वाणि मानुषे न वेत्ति शास्त्रं स चिरं पठन्नपि
मनागपि प्रीतियुतेन चक्षुषा यमीक्षसे कैर्न गुणैः स भूष्यते ।।।।
अनुवाद : हे वाणी! जे मनुष्यमां आपनी कळा नथी ते चिरकाळ सुधी
वांचवा छतां पण शास्त्र जाणी शकतो नथी अने तमे जेनी तरफ प्रीतियुक्त नेत्रथी
जराक पण देखो छो ते क्या क्या गुणोथी विभूषित नथी थता? अर्थात् ते अनेक
गुणोथी सुशोभित थई जाय छे. ८.
(वंशस्थ)
स सर्ववित्पश्यति वेत्ति चाखिलं न वा भवत्या रहितो ऽपि बुध्यते
तदत्र तस्यापि जगत्त्रयप्रभोस्त्वमेव देवि प्रतिपत्तिकारणम् ।।।।
अनुवाद : हे देवी! जे सर्वज्ञ समस्त पदार्थोने देखे अने जाणे छे ते पण
तमारा विना रहीने नथी देखताजाणता. तेथी त्रणे लोकना अधिपति ते सर्वज्ञने
पण ज्ञाननुं कारण तमे ज छो. ९.
(वंशस्थ)
चिरादतिक्लेशशतैर्भवाम्बुधौ परिभ्रमन् भूरि नरत्वमश्नुते
तनूभृदेतत्पुरुषार्थसाधनं त्वया विना देवि पुनः प्रणश्यति ।।१०।।
अनुवाद : हे देवी! दीर्घकाळथी संसाररूप समुद्रमां परिभ्रमण करतां प्राणी
सेंकडो महान कष्टो सहन करीने पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम अने मोक्ष)ना साधनरूप
जे मनुष्यपर्याय प्राप्त करे छे ते पण तारा विना नष्ट थई जाय छे. १०.
(वंशस्थ)
कदाचिदम्ब त्वदनुग्रहं विना श्रुते ह्यधीते ऽपि न तत्त्वनिश्चयः
ततः कुतः पुंसि भवद्विवेकिता त्वया विमुक्तस्य तु जन्म निष्फलम् ।।११।।
अनुवाद : हे माता! जो कदाच मनुष्य तारा अनुग्रह विना शास्त्रनुं अध्ययन
पण करे तो पण तेने तत्त्वनो निश्चय थई शकतो नथी. तो आवी अवस्थामां भला
तेने विवेक बुद्धि क्यांथी थई शके? अर्थात् थई शकती नथी. हे देवी! तारा विना
तो प्राणीनो जन्म निष्फळ थाय छे. ११.

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(वंशस्थ)
विधाय मातः प्रथमं त्वदाश्रयं श्रयन्ति तन्मोक्षपदं महर्षयः
प्रदीपमाश्रित्य गृहे तमस्तते यदीप्सितं वस्तु लभेत मानवः ।।१२।।
अनुवाद : हे माता! महामुनि ज्यारे पहेलां तारूं अवलंबन ले छे त्यारे
ज ते मोक्षपदनो आश्रय ले छे. बराबर छेमनुष्य अंधकारथी व्याप्त घरमां दीपकनो
आश्रय लईने ज इच्छित वस्तु प्राप्त करे छे. १२.
(वंशस्थ)
त्वयि प्रभूतानि पदानि देहिनां पदं तदेकं तदपि पयच्छसि
समस्तशुक्लापि सुवर्णविग्रहा त्वमत्र मातः कृतचित्रचेष्टिता ।।१३।।
अनुवाद : हे माता! तमारा विषयमां प्राणीओनां अनेक पद छे, अर्थात् प्राणी
अनेक पदो द्वारा तमारी स्तुति करे छे, तो पण तमे तेमने ते एक ज पद (मोक्ष) आपो
छो. तमे सम्पूर्ण रीते श्वेत होवा छतां पण उत्तम वर्णमय (अकारादि अक्षर स्वरूप)
शरीरवाळा छो. हे देवी! तमारी आ प्रवृत्ति अहीं आश्चर्य उत्पन्न करे छे.
विशेषार्थ : सरस्वती पासे मनुष्यनां अनेक पद छे, परंतु ते तेमने एक ज पद
आपे छे; आ रीते जो के अहीं शब्दथी विरोध लागे छे, परंतु यथार्थपणे विरोध नथी. कारण
ए के अहीं ‘पद’ शब्दना बे अर्थ छे.
शब्द अने स्थान. तेथी अहीं ए भाव नीकळे छे के
मनुष्य अनेक शब्दो द्वारा जे सरस्वतीनी स्तुति करे छे तेथी ते तेमने अद्वितीय मोक्षपदनुं प्रदान
करे छे. एवी ज रीते सरस्वती पूर्णपणे धवल (श्वेत) छे ते सुवर्ण जेवा शरीरवाळी केवी रीते
होई शके? ए पण जो के विरोध लागे छे, परंतु वास्तवमां विरोध अहीं कांई पण नथी.
कारण ए के शुक्ल शब्दथी अभिप्राय अहीं निर्मळनो अने वर्ण शब्दथी अभिप्राय अकारादि
अक्षरोनो छे. तेथी ज एनो भाव ए थयो के अकारादि उत्तम वर्णोरूप शरीरवाळी ते सरस्वती
पूर्णपणे निर्मळ छे. १३.
(वंशस्थ)
समुद्रघोषाकृतिरर्हति प्रभौ यदा त्वमुत्कर्षमुपागता भृशम्
अशेषभाषात्मतया त्वया तदा कृतं न केषां हृदि मातरद्भुतम् ।।१४।।
अनुवाद : हे माता! ज्यारे तमे अर्हंत् भगवानना विषयमां समुद्रना शब्द
समान आकार धारण करीने अतिशय उत्कर्ष पामो छो त्यारे समस्त भाषाओमां

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परिणमीने तमे क्या जीवोना हृदयमां आश्चर्य नथी करता? अर्थात् सर्वे जीवोने
आश्चर्यचकित करो छो.
विशेषार्थ : जिनेन्द्र भगवाननी जे समुद्रना शब्द समान गंभीर दिव्यध्वनि खरे
छे ए ज वास्तवमां सरस्वतीनी सर्वोत्कृष्टता छे. एने ज गणधरदेव बार अंगोमां गूंथे
छे, तेमां आ अतिशय विशेष छे के जेनाथी ते समुद्रना शब्द समान अक्षरमय न होवा
छतां पण श्रोताजनोनेे पोतपोतानी भाषा स्वरूपे प्रतीत थाय छे अने तेथी तेने सर्वभाषात्मक
कहेवामां आवे छे. १४.
(वंशस्थ)
सचक्षुरप्येष जनस्त्वया विना यदन्ध एवेति विभाव्यते बुधैः
तदस्य लोयत्रितयस्य लोचनं सरस्वति त्वं परमार्थदर्शने ।।१५।।
अनुवाद : हे सरस्वती! आ मनुष्य तमारा विना आंखो सहित होवा छतां
पण विद्वानो द्वारा अंध (अज्ञानी) ज गणाय छे. तेथी त्रणे लोकना प्राणीओने यथार्थ
तत्त्वनुं दर्शन (ज्ञान) कराववामां तमे अनुपम नेत्र समान छो. १५.
(वंशस्थ)
गिरा नरप्राणितमेति सारतां कवित्ववक्तृत्वगुणेन सा च गीः
इदं द्वयं दुर्लभमेव ते पुनः प्रसादलेशादपि जायते नृणाम् ।।१६।।
अनुवाद : जेम वाणी द्वारा मनुष्योनुं जीवन श्रेष्ठत्व पामे छे तेवी ज रीते
ते वाणी पण कवित्व अने वक्तृत्व गुणो द्वारा श्रेष्ठता पामे छे. आ बन्ने (कवित्व
अने वकतृत्व) जो के दुर्लभ ज छे, तो पण हे देवी! तारी थोडीक प्रसन्नताथी य
ते बन्ने गुण मनुष्योने प्राप्त थई जाय छे. १६.
(वंशस्थ)
नृणां भवत्संनिधिसंस्कृतं श्रवो विहाय नान्यद्धितमक्षयं च तत्
भवेद्विवेकार्थमिद परं पुनर्विमूढतार्थं विषयं स्वमर्पयत् ।।१७।।
अनुवाद : हे सरस्वती! तमारी समीपताथी संस्कार पामेला श्रवण (कान)
सिवाय मनुष्योनुं बीजुं कोई अविनश्वर हित नथी. तमारी समीपताथी संस्कार
पामेल आ श्रवण विवेकनुं कारण थाय छे अने पोताने विषय तरफ प्रवृत्ति
करावनारा बीजुं श्रवण अविवेकनुं कारण थाय छे.

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विशेषार्थ : अभिप्राय आनो ए छे के जे मनुष्य पोताना काने जिनवाणीनुं श्रवण करे
छे तेमना कान सफळ छे. एनाथी तेमने अविनश्वर सुखनी प्राप्ति थाय छे. परंतु जे मनुष्य ते
कानोथी जिनवाणी न सांभळतां अन्य रागवर्धक कथा आदि सांभळे छे ते विवेक रहित बनीने
विषयभोगमां प्रवृत्त थाय छे अने आ रीते अंते असह्य दुःख भोगवे छे. १७.
(वंशस्थ)
कृतापि ताल्वोष्ठपुटादिभिर्नृणां त्वमादिपर्यन्तविवर्जितस्थितः
इति त्वयापिदृशधर्मयुक्त्या स सर्वथैकान्तविधिर्विचूर्णितः ।।१८।।
अनुवाद : हे भारती! जो के तुं मनुष्योना ताळवुं अने होठ आदि द्वारा
उत्पन्न करायेली छे तो पण तारी स्थिति आदि अंत रहित छे, अर्थात् तुं
अनादिनिधन छे. आ जातना धर्म (अनेकान्त) युक्त ते सर्वथा एकान्तविधानने नष्ट
करी नाख्युं छे.
विशेषार्थ : वाणी कथंचित् नित्य अने कथंचित् अनित्य पण छे. ते वर्ण-
पद वाक्यरूप वाणी ताळवुं अने होठ आदि स्थानोमांथी उत्पन्न थाय छे तेथी ज
पर्याय स्वरूपे अनित्य छे. साथे ज द्रव्यस्वरूपे तेनो विनाश संभवित नथी तेथी
द्रव्यस्वरूपे अथवा अनादिप्रवाहथी ते नित्य पण छे. आ रीते अनेकान्तस्वरूप ते वाणी
समस्त एकान्तमतोनुं निराकरण करे छे. १८.
(वंशस्थ)
अपि प्रयाता वशमेकजन्मनिद्युधेनुचिन्तामणिकल्पपादपाः
फलन्ति हि त्वं पुनरत्र वा परे भवे कथं तैरुपमीयसे बुधैः ।।१९।।
अनुवाद : कामधेनु, चिन्तामणि अने कल्पवृक्ष ए आधीन थईने एक
जन्ममां ज फळ आपे छे, परंतु हे देवी! तुं आ भवमां अने परभवमां पण फळ
आपे छे. तो पछी भला विद्वान मनुष्यो तने आमनी उपमा केवी रीते आपे? अर्थात्
तुं एमनी उपमाने योग्य नथी
तेमनाथी श्रेष्ठ छे. १९.
(वंशस्थ)
अगोचरो वासरकृन्निशाकृतोर्जनस्य यच्चेतसि वर्तते तमः
विभिद्यते वागधिदेवते त्वया त्वमुत्तमज्योतिरिति प्रणीयसे ।।२०।।

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अनुवाद : हे वागधिदेवते! लोकोना चित्तमां जे अंधकार (अज्ञान) स्थित
छे ते सूर्य अने चन्द्रनो विषय नथी अर्थात् तेने न तो सूर्य नष्ट करी शके छे अने
न चन्द्र पण. परंतु हे देवी! तेने (अज्ञान अंधकारने) तुं नष्ट करे छे. तेथी तने
‘उत्तम ज्योति’ अर्थात् सूर्य
चन्द्रथी पण श्रेष्ठ दीप्ति धारण करनार कहेवामां आवे
छे. २०.
(वंशस्थ)
जिनेश्वरस्वच्छसरः सरोजिनी त्वमङ्गपूर्वादिसरोजराजिता
गणेशहंसव्रजसेविता सदा करोषि केषां न मुदं परामिह ।।२१।।
अनुवाद : हे सरस्वती! तमे जिनेन्द्ररूप सरोवरनी कमलिनी थईने
अंगपूर्वादिरूप कमळोथी शोभायमान अने निरंतर गणधररूप हंसोना समूहनी सेवा
पामती थकी अहीं क्या जीवोने उत्कृष्ट हर्ष नथी आपती? अर्थात् सर्व जीवोने
आनंदित करो छो. २१.
(वंशस्थ)
परात्मतत्त्वप्रतिपत्तिपूर्वकं परं पदं यत्र सति प्रसिद्धयति
कियत्ततस्ते स्फु रतः प्रभावतो नृपत्वसौभाग्यवराङ्गनादिकम् ।।२२।।
अनुवाद : हे देवी! ज्यां तारा प्रभावथी आत्मा अने पर (शरीरादि)नुं
ज्ञान थई जवाथी प्राणीने उत्कृष्ट पद (मोक्ष) सिद्ध थई जाय छे त्यां ते तारा
देदीप्यमान प्रभाव आगळ राजापणुं, सौभाग्य अने सुंदर स्त्री आदि शी वस्तु छे?
अर्थात् कांई पण नथी.
विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के जिनवाणीनी उपासनाथी जीवने हित अने अहितनो
विवेक उत्पन्न थाय छे अने एथी तेने सर्वोत्कृष्ट मोक्षपद पण प्राप्त थई जाय छे. आवी अवस्थामां
तेनी उपासनाथी राज्यपद आदि प्राप्त थवामां भला शी कठिनाई होय? कांई पण नहि. २२.
(वंशस्थ)
त्वदङ्ध्रिपद्मद्बयभक्तिभाविते तृतीयमुन्मीलति बोधलोचनम्
गिरामधीशे सह केवलेन यत् समाश्रितं स्पर्धमिवेक्षते ऽखिलम् ।।२३।।
अनुवाद : हे वचनोनी अधीश्वरी! जे तारा बन्ने चरणोरूप कमळोनी

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भक्तिथी परिपूर्ण छे तेने पूर्ण श्रुतज्ञानरूप ते त्रीजुं नेत्र प्रगट थाय छे के जे जाणे
केवळज्ञान साथे स्पर्धा पामीने ज तेना विषयभूत समस्त विश्वने देखे छे.
विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के जिनवाणीनी आराधनाथी द्वादशांगरूप पूर्ण श्रुतनुं ज्ञान
प्राप्त थाय छे जे विषयनी अपेक्षाए केवळज्ञाननी समान ज छे. विशेषता बन्नेमां केवल ए ज
छे के ज्यां श्रुतज्ञान ते बधा पदार्थोने परोक्ष (अविशद) स्वरूपे जाणे छे. त्यां केवळज्ञान तेमने
प्रत्यक्ष (विशद) स्वरूपे जाणे छे. आ ज वातने लक्ष्यमां राखीने एम कहेवामां आव्युं छे के ते
श्रुतज्ञानरूप त्रीजुं नेत्र जाणे केवळज्ञान साथे स्पर्धा ज करे छे. २३.
(वंशस्थ)
त्वमेव तीर्थं शुचिबोधवारिमत् समस्तलोकत्रयशुद्धिकारणम्
त्वमेव चानन्दसमुद्रवर्धने मृगाङ्कमूर्तिः परमार्थदर्शिनाम् ।।२४।।
अनुवाद : हे देवी! निर्मळ ज्ञानरूपजळथी परिपूर्ण तमे ज ते तीर्थ छो के जे
त्रणे लोकना समस्त प्राणीओने शुद्ध करे छे. तथा तत्त्वना यथार्थस्वरूपने देखनार जीवोना
आनन्दरूप समुद्रने वधारवामां चन्द्रमानी मूर्ति धारण करनार पण तमे ज छो. २४.
(वंशस्थ)
त्वयादिबोधः खलु संस्कृतो व्रजेत् परेषु बोधेष्वखिलेसु हेतुताम्
त्वमक्षि पुंसामतिदूरदर्शने त्वमेव संसारतरोः कुठारिका ।।२५।।
अनुवाद : हे वाणी! तमारा द्वारा संस्कार पामेल प्रथमज्ञान (मतिज्ञान)
अथवा अक्षरबोध बीजा समस्त (श्रुतज्ञानादि) ज्ञानोमां कारण बने छे. हे देवी!
तमे मनुष्योने दूर क्षेत्रे रहेली वस्तुओ देखाडवामां नेत्र समान बनीने तेमनुं संसाररूप
वृक्ष कापवा माटे कुहाडीनुं काम करो छो. २५.
(वंशस्थ)
यथाविधानं त्वमनुस्मृता सती गुरूपदेशो ऽयमवर्णभेदतः
न ताः श्रियस्ते न गुणा न तत्पदं यच्छसि प्राणभृते न यच्छुभे ।।२६।।
अनुवाद : हे शुभे! जे प्राणी तारूं विधिपूर्वक स्मरण करे छेअध्ययन करे
छेतेने एवी कोई लक्ष्मी नथी, एवा कोई गुण नथी तथा एवुं कोई पद नथी,
जेने तुं वर्णभेद विनाब्राह्मणत्व आदिनी अपेक्षा न करतांन आपती हो. आ गुरुनो