Padmanandi Panchvinshati-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 27-30 (15. Shrutdevata Stuti),1 (16. Svayambhoo Stuti),2 (16. Svayambhoo Stuti),3 (16. Svayambhoo Stuti),4 (16. Svayambhoo Stuti),5 (16. Svayambhoo Stuti),6 (16. Svayambhoo Stuti),7 (16. Svayambhoo Stuti),8 (16. Svayambhoo Stuti),9 (16. Svayambhoo Stuti),10 (16. Svayambhoo Stuti),11 (16. Svayambhoo Stuti),12 (16. Svayambhoo Stuti),13 (16. Svayambhoo Stuti),14 (16. Svayambhoo Stuti),15 (16. Svayambhoo Stuti),16 (16. Svayambhoo Stuti),17 (16. Svayambhoo Stuti),18 (16. Svayambhoo Stuti),19 (16. Svayambhoo Stuti),20 (16. Svayambhoo Stuti),21 (16. Svayambhoo Stuti),22 (16. Svayambhoo Stuti),23 (16. Svayambhoo Stuti),24 (16. Svayambhoo Stuti),1 (17. Suprabhatashtak),2 (17. Suprabhatashtak),3 (17. Suprabhatashtak),4 (17. Suprabhatashtak),5 (17. Suprabhatashtak),6 (17. Suprabhatashtak),7 (17. Suprabhatashtak),8 (17. Suprabhatashtak),1 (18. Shantinath Stotra),2 (18. Shantinath Stotra),3 (18. Shantinath Stotra),4 (18. Shantinath Stotra),5 (18. Shantinath Stotra),6 (18. Shantinath Stotra),7 (18. Shantinath Stotra),8 (18. Shantinath Stotra),9 (18. Shantinath Stotra); 16. Svayambhoo Stuti; 17. Suprabhatashtak; 18. Shantinath Stotra.

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उपदेश छे. अभिप्राय ए छे के तुं तारूं स्मरण करनारा (जिनवाणीना भक्तो)ने
समानरूपे अनेक प्रकारनी लक्ष्मी, अनेक गुणो अने उत्तमपदनुं प्रदान करे छे. २६.
(वंशस्थ)
अनेकजन्मार्जितपापपर्वतो विवेकवज्रेण स येन भिद्यते
भवद्वपुःशास्त्रघनान्निरेति तत्सदथवाक्यामृतभारमेदुरात् ।।२७।।
अनुवाद : हे भारती! जे विवेकरूप वज्रद्वारा अनेक जन्मोमां कमायेल ते
पापरूप पर्वत खंडित कराय छे ते विवेकरूप वज्र समीचीन अर्थ संपन्न वाक्यो रूप
अमृतना भारथी परिपूर्ण एवा तारा श्रुतमय शरीर मेघ वडे प्रगटे छे.
विशेषार्थ : अहीं विवेकमां वज्रनो आरोप करीने एम बताववामां आव्युं छे के जेवी
रीते वज्र द्वारा मोटा मोटा पर्वत खंडित करवामां आवे छे तेवी ज रीते विवेकरूप वज्र द्वारा
बळवान् कर्मरूप पर्वत नष्ट करवामां आवे छे. वज्र जेम जळ भरपूर वादळामां उत्पन्न थाय छे
तेवी ज रीते आ विवेक पण समीचीन अर्थना बोधक वाक्यरूप जळथी परिपूर्ण एवा सरस्वतीना
शरीरभूत शास्त्ररूप मेघमांथी उत्पन्न थाय छे. तात्पर्य ए छे के जिनवाणीना परिशीलनथी ते
विवेकबुद्धि प्रगट थाय छे जेना प्रभावथी नवीन कर्मोनो संवर अने पूर्वसंचित कर्मोनी निर्जरा थईने
अविनश्वर सुख प्राप्त थई जाय छे. २७.
(वंशस्थ)
तमांसि तेजांसि विजित्य वाङ्मयं प्रकाशयद्यत्परमं महन्महः
न लुप्यते तैर्न च तैः प्रकाश्यते स्वतः प्रकाशात्मकमेव नन्दतु ।।२८।।
अनुवाद : शब्दमय शास्त्र (द्रव्यश्रुत) अंधकार अने तेज (सूर्यचन्द्रादिनी
प्रभा) ने जीती ने जे उत्कृष्ट महान् तेज प्रगट करे छे ते न अंधकार द्वारा लुप्त
करी शकाय छे अने न अन्य तेज द्वारा प्रकाशित पण करी शकाय छे. ते
स्वसंवेदनस्वरूप तेज वृद्धि पामो.
विशेषार्थ : जिनवाणीना अभ्यासथी अज्ञानभाव नष्ट थईने केवळज्ञानरूप जे अपूर्व
ज्योति प्रगट थाय छे ते सूर्यचन्द्रादिना प्रकाशनी अपेक्षाए उत्कृष्ट छे. एनुं कारण ए छे के
सूर्यचन्द्रादिनो प्रकाश नियमित (क्रमशः दिवस अने रात्रि) समयमां रहीने सीमित पदार्थोने ज
प्रगट करे छे. परंतु ते केवळज्ञानरूप प्रकाश दिवस अने रात्रिनी अपेक्षा न करतांसर्वकाळे रहीने
त्रणे लोक अने त्रणे काळनां समस्त पदार्थोने प्रगट करे छे. आ केवळज्ञानरूप प्रकाशने नष्ट करवामां
अंधकार (कर्म) समर्थ नथी
ते स्वपरप्रकाशकस्वरूपे सदा स्थिर रहे छे. २८.

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(वंशस्थ)
तव प्रसादः कवितां करोत्यतः कथं जडस्तत्र घटेत मादृशः
प्रसीद तत्रापि मयि स्वनन्दने न जातु माता विगुणे ऽपि निष्ठुरा ।।२९।।
अनुवाद : हे सरस्वती! तारी प्रसन्नता ज कविता करे छे कारण के मारा
जेवो मूर्ख मनुष्य भला ते कविता करवा केवी रीते योग्य थई शके? थई शकतो
नथी. तेथी तुं मूर्ख एवा मारा उपर पण प्रसन्न था, कारण के माता पोताना
गुण विनाना पुत्र प्रत्ये पण कठोर थती नथी. २९.
(वंशस्थ)
इमामधीते श्रुतदेवतास्तुतिं कृतिं पुमान् यो मुनिपद्मनन्दिनः
स याति परां कवितादिसद्गुणप्रबन्धसिन्धोः क्रमतो भवस्य च ।।३०।।
अनुवाद : जे मनुष्य पद्मनन्दी मुनिनी कृतिस्वरूप आ श्रुतदेवीनी स्तुति वांचे
छे ते कवितादि उत्तमोत्तम गुणोना विस्ताररूप समुद्रना तथा क्रमे करीने संसारना
पण पारने प्राप्त थई जाय छे. ३०.
(शार्दूलविक्रीडित)
कुण्ठास्ते ऽपि बृहस्पतिप्रभृतयो यास्मन् भवन्ति ध्रुवं
तस्मिन् देवि तव स्तुतिव्यतिकरे मन्दा नराः के वयम्
तद्वाक्चापलमेतदश्रुतवतामस्माकमम्ब त्वया
क्षन्तव्यं मुखरत्वकारणमसौ येनातिभक्तिग्रहः
।।३१।।
अनुवाद : हे देवी! जे तारा स्तुति समूहनी बाबतमां निश्चयथी ते बृहस्पति
आदि पण कुंठित (असमर्थ) थई जाय छे तेना विषयमां अमारा जेवा मंदबुद्धि मनुष्य
कोण होय? अर्थात् अमारा जेवा तो तारी स्तुति करवामां सर्वथा असमर्थ छे. तेथी हे
माता! शास्त्रज्ञान रहित अमारी जे आ वचनोनी चंचळता, अर्थात् स्तुतिरूप वचनप्रवृत्ति
छे, तेने तुं क्षमा कर. कारण ए छे के आ वाचाळता (बकवाद)नुं कारण ते तारी अतिशय
भक्तिरूप ग्रह (पिशाच) छे. अभिप्राय ए के हुं एने योग्य न होवा छतां पण जे आ
स्तुति करी छे ते केवळ तारी भक्तिने वश थईने ज करी छे. ३१.
आ रीते सरस्वतीस्तोत्र समाप्त थयुं. १५.

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१६. स्वयंभूस्तुति
[१६. स्वयंभूस्तुति ]
(वंशस्थ)
स्वयंभुवा येन समुद्धतं जगज्जडत्वकूपे पतितं प्रमादतः
परात्मतत्त्वप्रतिपादनोल्लसद्वचोगुणैरादिजिनः स सेव्यताम् ।।।।
अनुवाद : स्वयंभू अर्थात् पोते ज प्रबोधने प्राप्त थयेला जे आदि
(ॠषभ) जिनेन्द्रे, प्रमादने वश थईने अज्ञानतारूप कूवामां पडेला जगतना
प्राणीओनो परतत्त्व अने आत्मतत्त्व (अथवा उत्कृष्ट आत्मतत्त्व)ना उपदेशमां
शोभायमान वचनरूप गुणोथी उद्धार कर्यो छे, ते आदि जिनेन्द्रनी आराधना करवी
जोईए.
विशेषार्थ : अहीं श्लोकमां योजायेली गुण शब्दना बे अर्थ छेहितकारत्व आदि
गुण अने दोरडुं. तेनो अभिप्राय ए छे के जेम कोई मनुष्य जो असावधानीथी कूवामां पडी
जाय छे तो बीजा दयाळु मनुष्य कूवामां दोरडुं नाखीने तेनी मददथी तेमने बहार काढी ले
छे. ए ज रीते भगवान आदि जिनेन्द्रे जे अनेक प्राणी अज्ञान वश थईने धर्मना मार्गथी
विमुख थई रह्या थका कष्ट भोगवी रह्या हता तेमनो हितोपदेश द्वारा उद्धार कर्यो हतो
तेमने मोक्षमार्गमां लगाव्या हता. तेमणे तेमने एवा वचनो द्वारा पदार्थनुं स्वरूप समजाव्युं
हतुं के जे हितकारक होवा उपरांत तेमने मनोहर पण लागतुं हतुं.
‘हितं मनोहारि च दुर्लभं
वचः’ आ कथन अनुसार ए सर्व साधारणने सुलभ नथी. १.
(वंशस्थ)
भवारिरेको न पराऽस्ति देहिनां सुहृच्च रत्नत्रयमेक एव हि
स दुर्जयो येन जितस्तदाश्रयात्ततोऽजितान्मे जिनतोऽस्तु सत्सुखम् ।।।।
अनुवाद : प्राणीओनो संसार ज एक उत्कृष्ट शत्रु तथा रत्नत्रय ज एक

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उत्कृष्ट मित्र छे. एना सिवाय बीजा कोई शत्रु अथवा मित्र नथी. जेणे ते
रत्नत्रयरूप मित्रना अवलंबनथी ते दुर्जय संसाररूप शत्रुने जीती लीधो छे ते
अजित जिनेन्द्रथी मने समीचीन सुख प्राप्त थाव. २.
(वंशस्थ)
पुनातु नः संभवतीर्थकृज्जिनः पुनः पुनः संभवदुःखदुःखिताः
तदर्तिनाशाय विमुक्तिवर्त्मनः प्रकाशकं यं शरणं प्रपेदिरे ।।।।
अनुवाद : वारंवार जन्ममरणरूप संसारना दुःखथी पीडित प्राणी ते पीडा
दूर करवा माटे मोक्षमार्ग प्रकाशित करनार जे संभवनाथ तीर्थंकरना शरणने पाम्या
हता ते संभव जिनेन्द्र अमने पवित्र करो. ३.
(वंशस्थ)
निजैर्गुणैरप्रतिमैर्महानजो न तु त्रिलोकीजनतार्चनेन यः
यतो हि विश्वं लघु तं विमुक्तये नमामि साक्षादभिनन्दनं जिनम् ।।।।
अनुवाद : अज अर्थात् जन्ममरण रहित जे अभिनन्दन जिनेन्द्र पोताना
अनुपम गुणो द्वारा महिमा पाम्या छे, नहि के त्रणे लोकना प्राणीओ द्वारा करवामां
आवती पूजाथी; तथा जेनी आगळ विश्व तुच्छ छे अर्थात् जे पोताना अनन्तज्ञान
द्वारा समस्त विश्वने साक्षात् जाणे
देखे छे ते अभिनंदन जिनने हुं मुक्तिनी प्राप्ति
माटे नमस्कार करुं छुं. ४.
(वंशस्थ)
नयप्रमाणादिविधानसद्घटं प्रकाशितं त तत्त्वमतीव निर्मलम्
यतस्त्वया तत्सुमतेऽत्र तावकं तदन्वयं नाम नमो ऽस्तु ते जिनः ।।।।
अनुवाद : हे सुमति जिनेन्द्र! आपे नय अने प्रमाण आदिनी विधिथी संगत
तत्त्व (वस्तु स्वरूप) अतिशय निर्दोष रीते प्रकाशित कर्युं हतुं, माटे ज आपनुं सुमति
(
सु शोभना मतिर्यस्यासौ सुमतिः=उत्तम बुद्धिमान) ए नाम सार्थक छे. हे जिन! आपने
नमस्कार हो. ५.
(वंशस्थ)
रराज पद्मप्रभतीर्थकृत्सदस्यशेषलोकत्रयलोकमध्यगः
नभस्युडुव्रातयुतः शशी यथा वचो ऽमृतैर्वर्षति यः स पातुनः ।।।।

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अनुवाद : जेम आकाशमां ताराओना समूहथी युक्त थईने चंद्र शोभे छे
तेवी ज रीते जे पद्मप्रभ तीर्थंकरना समवसरण सभामां त्रणे लोकना समस्त
प्राणीओनी वच्चे स्थित थईने शोभायमान थया हता तथा जेमणे त्यां वचनरूपी
अमृतनी वर्षा करी हती ते पद्मप्रभ जिनेन्द्र अमारी रक्षा करो. ६.
(वंशस्थ)
नरामराहीश्वरपीडने जयी धृतायुधो धीरमना झषध्वजः
विनापि शस्त्रैर्ननु येन निर्जितो जिनं सुपार्श्वं प्रणमामि तं सदा ।।।।
अनुवाद : जे साहसी मीनकेतु (कामदेव) शस्त्र धारण करी चक्रवर्ती, इन्द्र अने
धरणेन्द्रने पण पीडित करीने तेमना उपर विजय मेळवे छे एवा ते कामदेव सुभटने पण
जेमणे शस्त्र विना ज जीती लीधो ते सुपार्श्व जिनने हुं सदा प्रणाम करुं छुं.
विशेषार्थ : संसारमां कामदेव (विषय वासना) अत्यंत प्रबळ मनाय छे. बीजाओनी
तो वात ज शी छे? परंतु इन्द्र, धरणेन्द्र अने चक्रवर्ती आदि पण तेने वश (थयेला) देखवामां
आवे छे. एवा सुभट ते कामदेव उपर तेओ ज विजय मेळवी शके छे जेमना हृदयमां आत्म
परनो विवेक जागृत छे. भगवान सुपार्श्व एवा ज विवेकी महापुरुष हता. तेथी तेमने उक्त कामदेव
उपर विजय मेळववा माटे कोई शस्त्रादिनी पण जरूर न पडी. तेमणे एक मात्र विवेकबुद्धिथी तेने
हरावी दीधो हतो. माटे ते नमस्कार करवाने योग्य छे. ७.
(वंशस्थ)
शशिप्रभो वागमृतांशुभिः शशी परं कदाचिन्न कलङ्कसंगतः
न चापि दोषाकरतां ययौ यतिर्जयत्यसौ संसृतितापनाशनः ।।।।
अनुवाद : चन्द्रमा समान प्रभावाळा चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र जो के वचनरूप
अमृतना किरणोथी चन्द्रमा हता, परंतु जेम चन्द्रमा कलंक (काळा चिह्न) सहित छे
तेम तेओ कलंक (पाप
मळ) सहित कदी नहोता, तथा जेम चन्द्रमा दोषकर (रात्रि
करनार) छे तेम तेओ दोषकर (दोषोनी खाण) नहोता. अर्थात् तेओ अज्ञानादि सर्व
दोषरहित हता. ते संसारनो संताप नष्ट करनार चन्द्रप्रभ मुनीन्द्र जयवंत हो. ८.
(वंशस्थ)
यदीयपादद्वितयप्रणामतः पतत्यधो मोहनधूलिरङ्किनाम्
शिरोगता मोहठकप्रयोगतः स पुष्पदंतः सततं प्रणम्यते ।।।।

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अनुवाद : जेना बन्ने चरणोमां नमस्कार करती वखते मोहरूप ठगना
प्रयत्नथी प्राणीओना शिरमां स्थित थयेल मोहन धूळ (मोहजनक पापरज) नीचे
पडी जाय छे ते पुष्पदंत भगवानने हुं निरन्तर प्रणाम करूं छुं.
विशेषार्थ : प्राणीओना मस्तकमां जे अज्ञानताने कारणे अनेक प्रकारना दुर्विचार उत्पन्न
थाय छे ते जिनेन्द्र भगवानना नामस्मरण, चिन्तन अने वंदनथी नष्ट थई जाय छे. अहीं उपर्युक्त
दुर्विचारोमां मोह द्वारा स्थापित धूळनो आरोप करीने आ उत्प्रेक्षा करवामां आवी छे के मोहद्वारा
जे प्राणीओना मस्तक उपर मोहनधूळ स्थापवामां आवे छे ते जाणे के पुष्पदंत जिनेन्द्रने प्रणाम
करवाथी (मस्तक नमाववाथी) अनायासे ज नष्ट थई जाय छे. ९.
(वंशस्थ)
सतां यदीयं वचनं सुशीतलं यदेव चन्द्रादपि चन्दनादपि
तदत्र लोके भवतापहारि यत् प्रणम्यते किं न स शीतलो जिनः ।।१०।।
अनुवाद : लोकमां जेमना वचन सज्जन पुरुषोने माटे चन्द्र अने चन्दनथी
पण अधिक शीतळ तथा संसारनो ताप नष्ट करनार छे ते शीतल जिनने शुं प्रणाम
न करवा जोईए? अर्थात् अवश्य ज ते प्रणाम करवा योग्य छे. १०.
(वंशस्थ)
जगत्त्रये श्रेय इतो ह्ययादिति प्रसिद्धनामा जिन एष वन्द्यते
यतो जनानां बहुभक्तिशालिनां भवन्ति सर्वे सफला मनोरथाः ।।११।।
अनुवाद : त्रणे लोकमां प्राणीओ आ श्रेयांस जिन द्वारा श्रेय अर्थात्
कल्याणने प्राप्त थया छे, तेथी जे ‘श्रेयान्’ एवा सार्थक नामे प्रसिद्ध छे तथा जेना
निमित्ते अनेक भक्ति करनार मनुष्योना सर्व मनोरथ (अभिलाषाओ) सफळ थाय
छे ते श्रेयांस जिनेन्द्रने प्रणाम करूं छुं. ११.
(वंशस्थ)
पदाब्जयुग्मे तव वासुपूज्य तज्जनस्य पुण्यं प्रणतस्य तद्भवेत्
यतो न सा श्रीरिह हि त्रिविष्टपे न तत्सुखं यन्न पुरः प्रधावति ।।१२।।
अनुवाद : हे वासुपूज्य! तारा चरण युगलमां प्रणाम करतां प्राणीने ते
पुण्य उत्पन्न थाय छे जेनाथी त्रणे लोकमां अहीं एवी कोई लक्ष्मी नथी अने एवुं
कोई सुख पण नथी के जे तेनी आगळ दोडतुं न होय.

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विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के वासुपूज्य जिनेन्द्रना चरणकमळमां नमस्कार करवाथी
जे पुण्यबंध थाय छे तेनाथी सर्व प्रकारनी लक्ष्मी अने उत्तम सुख प्राप्त थाय छे. १२.
(वंशस्थ)
मलेर्विमुक्तो विमलो न कैर्जिनो यथार्थनामा भुवने नमस्कृतः
तदस्य नामस्मृतिरप्यसंशयं करोति वैमल्यमघात्मनामपि ।।१३।।
अनुवाद : जे विमळ जिनेन्द्र कर्ममळ रहित थईने ‘विमळ’ एवुं सार्थक नाम
धारण करे छे तेमने लोकमां भला क्या भव्य जीवोए नमस्कार नथी कर्या? अर्थात् बधा
भव्य जीवोए तेमने नमस्कार कर्या छे. तेथी तेमना नामनुं स्मरण पण निश्चयथी पापी
जीवोने पण ते पाप
मळ नष्ट करीने तेमने विमळ (निर्मळ) करे छे. १३.
(वंशस्थ)
अनन्तबोधादिचतुष्टयात्मकं दधाम्यनन्तं हृदि तद्गुणाशया
भवेद्यदर्थी ननु तेन सेव्यते तदन्वितो भूरितृषेव सत्सरः ।।१४।।
अनुवाद : जे अनंतजिन अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख अने अनंतवीर्य
आ अनंतचतुष्टयस्वरूप छे तेने हुं ते ज गुणो (अनंतचतुष्टय) प्राप्त करवानी इच्छाथी
हृदयमां धारण करुं छुं. बराबर पण छे
जे जे गुणना अभिलाषी होय छे ते ते
ज गुणयुक्त मनुष्यनी सेवा करे छे. जेम केअतिशय तरसवाळो अर्थात् पाणीनो
अभिलाषी मनुष्य उत्तम तळावनी सेवा करे छे. १४.
(वंशस्थ)
नमोऽस्तु धर्माय जिनाय मुक्तये सुधर्मतीर्थप्रविधायिने सदा
यमाश्रितो भव्यजनो ऽतिदुर्लभां लभेत कल्याणपरंपरां पराम् ।।१५।।
अनुवाद : जे धर्मनाथ जिनेन्द्रना शरणे गयेला भव्य जीव अतिशय दुर्लभ
उत्कृष्ट कल्याणनी परंपरा प्राप्त करे छे एवा ते उत्तम धर्मतीर्थना प्रवर्तक धर्मनाथ
जिनेन्द्रने हुं मुक्तिप्राप्तिनी इच्छाथी नमस्कार करूं छुं. १५.
(वंशस्थ)
विधाय कर्मक्षयमात्मशान्तिकृज्जगत्सु यः शान्तिकरस्ततो ऽभवत्
इति स्वमन्यं प्रति शान्तिकारणं नमामि शान्तिं जिनमुन्नतश्रियम् ।।१६।।

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अनुवाद : जे शान्तिनाथ जिनेन्द्र कर्मोनो नाश करीने प्रथम तो पोते पोतानी
शान्ति करनार थया अने त्यार पछी जगत्ना बीजा प्राणीओने पण शान्तिनुं कारण
थया. आ रीते जे स्व अने पर बन्नेनी य शान्तिनुं कारण छे ते उत्कृष्ट लक्ष्मी
(समवसरणादिरूप बाह्य तथा अनंतचतुष्टयस्वरूप अंतरंग लक्ष्मी) युक्त शान्तिनाथ
जिनेन्द्रने हुं नमस्कार करूं छुं. १६.
(वंशस्थ)
दयाङ्गिनां चिद् द्वितयं विमुक्तये परिग्रहद्वन्द्वविमोचनेन तत्
विशुद्धमासीदिह यस्य मादृशां स कुन्थुनाथो ऽस्तु भवप्रशान्तये ।।१७।।
अनुवाद : संसारमां जे कुन्थुनाथ जिनेन्द्रने मुक्ति माटे अंतरंग अने बाह्य
बन्ने य प्रकारना परिग्रह छोडी देवाथी प्राणीओनी दया अने चैतन्य (केवळज्ञान)
आ बे विशुद्ध गुण प्रगट थया हता ते कुंथुनाथ जिनेन्द्र मारा जेवा छद्मस्थ प्राणीओने
संसारनी शान्ति (नाश)नुं कारण थाव. १७.
(वंशस्थ)
विभान्ति यस्याङ्घ्रिनखा नमत्सुरस्फु रच्छिरोरत्नमहो ऽधिकप्रभाः
जगद्गृहे पापतमोविनाशना इव प्रदीपाः स जिनो जयत्यरः ।।१८।।
अनुवाद : नमस्कार करता देवोना प्रकाशमान शिरोरत्न (चूडामणि)नी कान्तिथी
अधिक कान्तिवाळा जेना पगोना नख, संसाररूप घरमां पापरूप अंधकार नष्ट करनार
दीपक समान शोभायमान थाय छे ते अरनाथ जिनेन्द्र जयवंत हो. १८.
(वंशस्थ)
सुहृत्सुखी स्यादहितः सुदुःखितः स्वतो ऽप्युदासीनतमादपि प्रभोः
यतः स जीयाज्जिनमल्लिरेकतां गतो जगद्विस्मयकारिचेष्टितः ।।१९।।
अनुवाद : अत्यंत उदासीनता (वीतरागता) ने प्राप्त थयेल होवा छतां पण
जे मल्लि प्रभुना निमित्ते मित्र स्वयं सुखी अने शत्रु स्वयं अतिशय दुःखी थाय
छे, आ रीते जेमनी प्रवृत्ति विश्वने माटे आश्चर्यजनक छे तथा जे अद्वैतभावने प्राप्त
थया छे ते मल्लि जिनेन्द्र जयवंत थाव.

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विशेषार्थ : जे प्राणी शत्रुने दुःखी अने मित्रने सुखी करे छे ते कदी उदासीन रही
शकतो नथी. परंतु मल्लि जिनेन्द्र न तो शत्रु प्रत्ये द्वेष राखता हता अने न मित्र प्रत्ये अनुराग.
छतां पण तेमनो उत्कर्ष जोईने तेओ स्वभावथी ज क्रमशः दुःखी अने सुखी थता हता. तेथी
अहीं तेमनी प्रवृत्तिने आश्चर्यकारी कहेवामां आवी छे. १९.
(वंशस्थ)
विहाय नूनं तृणवत्स्वसंपदं मुनिर्व्रतैर्यो ऽभवदत्र सुव्रतः
जगाम तद्धाम विरामवर्जितं सुबोधदृङ्मे स जिनः प्रसीदतु ।।२०।।
अनुवाद : जे मुनिसुव्रत अहीं पोतानी संपत्ति तृण समान छोडीने व्रतो
(महाव्रतो) द्वारा सुव्रत (उत्तम व्रतोना धारक) मुनि थया हता अने त्यारपछी ते
अविनश्वर पद (मोक्ष) पण पाम्या हता ते सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्दर्शनथी विभूषित
मुनिसुव्रत जिनेन्द्र मारा उपर प्रसन्न थाव. २०.
(वंशस्थ)
परं परायत्ततयातिदुर्बलं चलं खसौख्यं यदसौख्यमेव तत्
अदः प्रमुच्यात्मसुखे कृतादरो नमिर्जिनो यः स ममास्तु मुक्तये ।।२१।।
अनुवाद : जे इन्द्रियसुख पर (कर्म) ने आधीन होवाना कारणे आत्माथी
पर अर्थात् भिन्न छे, अतिशय दुर्बळ छे तथा विनश्वर छे ते वास्तवमां दुःखरूप
ज छे. जेणे ते इन्द्रियसुख छोडीने आत्मिक सुखना विषयमां आदर कर्यो हतो ते
नेमिनाथ जिनेन्द्र मारा माटे मुक्तिनुं कारण थाव. २१.
(वंशस्थ)
अरिष्टसंकर्तनचक्रनेमिताम् उपागतो भव्यजनेषु यो जिनः
अरिष्टनेमिर्जगतीति विश्रुतः स ऊर्जयन्ते जयतादितः शिवम् ।।२२।।
अनुवाद : जे अशुभकर्म कापवा माटे चक्रनी धार समान होवाथी जगतमां
भव्य जीवो वच्चे ‘अरिष्टनेमि’ एवा सार्थक नामथी प्रसिद्ध थईने गिरनार पर्वत
उपरथी मुक्ति पाम्या छे ते नेमिनाथ जिनेन्द्र जयवंत हो. २२.
(वंशस्थ)
यदूर्ध्वदेशे नभसि क्षणादहिप्रभोः फणारत्नकरैः प्रधावितम्
पदातिभिर्वा कमठाहतेः कृते करोतु पार्श्वः स जिनो ममामृतम् ।।२३।।

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अनुवाद : जेनी उपर आकाशमां धरणेन्द्रनी फेणो संबंधी रत्नोना किरण
कमठना आघात माटे अर्थात् तेनो उपद्रव व्यर्थ करवा माटे क्षणमात्रमां पायदळ
सेनानी जेम दोड्या हता ते पार्श्वनाथ जिनेन्द्र मने अमृत अर्थात् मोक्ष आपो. २३.
(वंशस्थ)
त्रिलोकलोकेश्वरतां गतो ऽपि यः स्वकीयकायेऽपि तथापि निःस्पृहः
स वर्धमानो ऽन्त्यजिनो नताय मे ददातु मोक्षं मुनिपद्मनन्दिने ।।२४।।
अनुवाद : त्रण लोकना प्राणीओमां प्रभुताने प्राप्त होवा छतां पण जे
पोताना शरीरना विषयमां पण ममत्व भाव रहित छे ते वर्धमान अंतिम तीर्थंकर
नम्रीभूत थयेल मने पद्मनन्दीने मोक्ष प्रदान करो. २४.
आ रीते स्वयंभूस्तोत्र समाप्त थयुं. १६.

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१७. सुप्रभाताष्टकम्
[१७. सुप्रभाताष्टकम् ]
(शार्दूलविक्रीडित)
निःशेषावरणद्वयस्थितिनिशाप्रान्ते ऽन्तरायक्षया[यो]-
द्द्योते मोहकृते गते च सहसा निद्राभरे दूरतः
सम्यग्ज्ञानदृगक्षियुग्ममभिता विस्फारितं यत्र त-
ल्लब्धं यैरिह सुप्रभातमचलं तेभ्यो जिनेभ्यो नमः
।।।।
अनुवाद : जे सुप्रभातमां समस्त ज्ञानावरण अने दर्शनावरण आ बे
आवरण कर्मोनी स्थितिरूप रात्रिनो अंत थईने अन्तराय कर्मना क्षयरूपी प्रकाश थई
जतां तथा शीघ्र ज मोहकर्मथी निर्मित निद्राभार सहसा दूर थई जतां समीचीन
ज्ञान अने दर्शनरूप नेत्रयुगल सर्व तरफ विस्तार पाम्या छे अर्थात् खूली गयां छे
एवा ते स्थिर सुप्रभातने जेमणे प्राप्त करी लीधुं छे ते जिनेन्द्रदेवोने नमस्कार हो.
विशेषार्थ : जेम प्रभात थई जतां रात्रिनो अंत थईने धीरे धीरे सूर्यनो प्रकाश फेलावा
मांडे छे तथा लोकोनी निद्रा दूर थईने तेमना नेत्रयुगल खुली जाय छे के जेथी ते सर्व तरफ जोवा
लागी जाय छे. बराबर ए ज रीते जिनेन्द्रदेवोने जे अपूर्व प्रभातनो लाभ थया करे छे तेमां
रात्रि समान तेमना ज्ञानावरण अने दर्शनावरण कर्मोनी स्थितिनो अंत थाय छे, अंतरायकर्मनो क्षय
ज प्रकाश छे, मोहकर्मजनित अविवेकरूप निद्रानो भार नष्ट थई जाय छे. त्यारे तेमना केवळज्ञान
अने केवळदर्शनरूप बन्ने नेत्रो खुली जाय छे जेथी तेओ समस्त विश्वने स्पष्टपणे जाणवा अने
देखवा लागे छे. एवा ते अलौकिक, अविनश्वर सुप्रभातने प्राप्त करनार जिनेन्द्रोने अहीं नमस्कार
करवामां आव्या छे. १.
(शार्दूलविक्रीडित)
यत्सच्चक्रसुखप्रदं यदमलं ज्ञानप्रभाभासुरं
लोकालोकपदप्रकाशनविधिप्रौढं प्रकृष्टं सकृत्

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उद्भूते सति यत्र जीवितमिव प्राप्तं परं प्राणिभिः
त्रैलोक्याधिपतेर्जिनस्य सततं तत्सुप्रभातं स्तुवे
।।।।
अनुवाद : जे सुप्रभात सत्चक्र अर्थात् सज्जनोने सुख आपनार (अथवा
उत्तम चक्रवाक पक्षीओने सुख आपनार अथवा समीचीन चक्ररत्न धारण करनार
चक्रवर्तीने सुख आपनार), निर्मळ, ज्ञाननी प्रभाथी प्रकाशमान, लोक अने अलोकरूप
स्थानने प्रकाशित करवानी विधिमां चतुर अने उत्कृष्ट छे तथा जे एकवार प्रगट थतां
जाणे प्राणी उत्कृष्ट जीवनने ज प्राप्त करी ले छे; एवा ते त्रण लोकना अधिपतिस्वरूप
जिनेन्द्र भगवानना सुप्रभातनी हुं निरंतर स्तुति करूं छुं. २.
(शार्दूलविक्रीडित)
एकान्तोद्धतवादिकौशिकशतैर्नष्टं भयादाकुले-
र्जातं यत्र विशुद्धखेचरनुतिव्याहारकोलाहलम्
यत्सद्धर्मविधिप्रवर्धनकरं तत्सुप्रभातं परं
मन्ये ऽर्हत्परमेष्टिनो निरुपमं संसारसंतापहृत्
।।।।
अनुवाद : जे सुप्रभातमां सर्वथा एकान्तवादथी उद्धत सेंकडो प्रवादीरूप घूवड
पक्षी भयथी व्याकुळ थईने नष्ट थई गया छे, जे आकाशगामी विद्याधरो अने देवो द्वारा
करवामां आवती विशुद्ध स्तुतिना शब्दथी शब्दायमान छे, जे समीचीन धर्मविधिने
वधारनार छे, उपमा सहित अर्थात् अनुपम छे अने संसारनो संताप नष्ट करनार छे,
एवा ते अरहंत परमेष्ठीना सुप्रभातने ज हुं उत्कृष्ट सुप्रभात मानुं छुं. ३.
(शार्दूलविक्रीडित)
सानन्दं सुरसुन्दरीभिरभितः शक्रैर्यदा गीयते
प्रातः प्रतरधीश्वरं यदतुलं वैतालिकैः पठयते
यच्चाश्रावि नभश्चरैश्च फणिभिः कन्याजनाद्गायत-
स्तद्वन्दे जिनसुप्रभातमखिलत्रैलोक्यहर्षप्रदम्
।।।।
अनुवाद : इन्द्रो साथे देवांगनाओ जे सुप्रभातनुं आनंदपूर्वक सर्व तरफ गान

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करे छे, भाटचारणो पोताना स्वामीनुं लक्ष्य राखीने जे अनुपम सुप्रभातनी स्तुति
करे छे तथा जे सुप्रभात विषे विद्याधर अने नागकुमार जातिना देव गाती कन्याओ
पासेथी सांभळे छे; आ रीते समस्त त्रणे लोकने हर्षित करनार ते जिन भगवानना
सुप्रभातने हुं वंदन करूं छुं. ४.
(शार्दूलविक्रीडित)
उद्दयोते सति यत्र नश्यति तरां लोके ऽघचौरो ऽचिरं
दोषेशो ऽन्तरतीव यत्र मलिनो मन्दप्रभो जायते
यत्रानीतितमस्ततेर्विघटनाज्जाता दिशो निर्मला
वन्द्यं नन्दतु शाश्वतं जिनपतेस्तत्सुप्रभातं परम्
।।।।
अनुवाद : जे सुप्रभातनो प्रकाश थतां लोकमां पापरूपी चोर अत्यंत जल्दी
नष्ट थई जाय छे, जे सुप्रभातना प्रकाशमां दोषेश अर्थात् मोहरूप चन्द्रमा अंदर
अतिशय मलिन थईने मन्द तेजवाळो थई जाय छे तथा जे सुप्रभात थतां अन्यायरूप
अंधकारनो समूह न थई जवाथी दिशाओ निर्मळ थई जाय छे; एवा ते वंदनीय
अने अविनश्वर जिन भगवाननुं उत्कृष्ट सुप्रभात वृद्धिने प्राप्त थाव.
विशेषार्थ : प्रभातनो समय थतां रात्रे संचार करनार चोर भागी जाय छे, दोषेश
(रात्रिनो स्वामी चन्द्रमा) मलिन अने झांखा प्रकाशवाळो (फीक्को) थई जाय छे अने रात्रिजनित
अंधकार नष्ट थई जवाथी दिशाओ निर्मळ थई जाय छे. ए ज रीते जिन भगवानने जे अनुपम
सुप्रभातनो लाभ थाय छे ते थतां चोर समान चिरकालीन पाप तरत ज नष्ट थई जाय छे, दोषेश
(दोषोना स्वामी मोह) कान्तिहीन थईने दूर भागी जाय छे तथा अन्याय अने अत्याचार नष्ट
थई जवाथी बधी बाजुए प्रसन्नता छवाई जाय छे. ते जिनेन्द्रदेवनुं सुप्रभात वंदनीय छे. ५.
(शार्दूलविक्रीडित)
मार्गं यत्प्रकटीकरोति हरते दोषानुषङ्गस्थितिं
लोकानां विदधाति दृष्टिमचिरादर्थावलोकक्षमाम्
कामासक्तधियामपि कृशयति प्रीतिं प्रियायामिति
प्रातस्तुल्यतयापि को ऽपि महिमापूर्वः प्रभातो ऽर्हताम्
।।।।
अनुवाद : अरहंतोनुं प्रभात मार्ग प्रगट करे छे. दोषोना संबंधनी स्थिति

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नष्ट करे छे, लोकोनी द्रष्टि तरत ज पदार्थोने देखवामां समर्थ बनावे छे तथा
विषयभोगमां आसक्त बुद्धिवाळा प्राणीओनी स्त्रीविषयक प्रीति कृश (निर्बळ) करे
छे. आ रीते ते अरहंतोनुं प्रभात जो के प्रभातकाळ तुल्य ज छे, छतां पण तेनो
कोई अपूर्व ज महिमा छे.
विशेषार्थ : जेवी रीते प्रभात थतां मार्ग प्रगट देखावा मांडे छे तेवी ज रीते अरहंतोना
आ प्रभातमां प्राणीओने मोक्षनो मार्ग देखावा लागे छे, जेम प्रभात दोषा (रात्रिना) संगनो नाश
करे छे तेवी ज रीते आ अरहंतोनुं प्रभात रागद्वेषादिरूप दोषोनी संगति नष्ट करे छे. जेम प्रभात
लोकोनी द्रष्टिने तरत ज घट
पटादि पदार्थो देखवामां समर्थ करी दे छे तेवी ज रीते आ अरहंतोनुं
प्रभात प्राणीओनी द्रष्टि (ज्ञान) ने जीवादि सात तत्वोनुं यथार्थ स्वरूप देखवाजाणवामां समर्थ
करी दे छे तथा जेम प्रभात थई जतां कामी जननी स्त्रीविषयक प्रीति ओछी
थई जाय छे तेवी ज रीते ते अरहंतोना प्रभातमां पण कामीजननी विषयेच्छा ओछी थई जाय
छे. आ रीते अरहंतोनुं ते प्रभात प्रसिद्ध प्रभात समान होईने पण अपूर्व ज महिमा धारण
करे छे. ६.
(शार्दूलविक्रीडित)
यद्भानोरपि गोचरं न गतवान् चित्ते स्थितं तत्तमो
भव्यानां दलयत्तथा कुवलये कुर्याद्विकाशश्रियम्
तेजः सौख्यहतेरकर्तृ यदिदं नक्तंचराणामपि
क्षेमं वो विदधातु जैनमसमं श्रीसुप्रभातं सदा
।।।।
अनुवाद : भव्य जीवोना हृदयमां स्थित जे अंधकार सूर्यगोचर थयो नथी
अर्थात् जेने सूर्य पण नष्ट करी शक्यो नथी तेने जे जिन भगवाननुं सुप्रभात नष्ट
करे छे, जे कुवलय (भूमंडळ) ना विषयमां विकासलक्ष्मी (प्रमोद) करे छे
लोकना सर्वे
प्राणीओने हर्षित करे छे तथा जे निशाचरो (चन्द्र अने राक्षस आदि) ना पण तेज
अने सुखनो घात करतुं नथी; ते जिन भगवाननुं अनुपम सुप्रभात सर्वदा आप
सौनुं कल्याण करो.
विशेषार्थ : लोकप्रसिद्ध प्रभातनी अपेक्षाए जिनभगवानना आ सुप्रभातमां अपूर्वता
छे. ते आ रीतेप्रभातनो समय केवळ रात्रिनो अंधकार नष्ट करे छे, ते जीवोना अभ्यंतर अंधकार
(अज्ञान) ने नष्ट करी शकतो नथी; परंतु जिन भगवाननुं ते सुप्रभात भव्य जीवोना हृदयमां स्थित
ते अज्ञानान्धकारने पण नष्ट करे छे, लोकप्रसिद्ध प्रभात कुवलय (सफेद कमळ) ने विकसित नथी

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करतुं पण मुकुलित ज करे छे (बीडाई जाय छे); परंतु जिन भगवाननुं सुप्रभात ते कुवलय
(भूमंडळना समस्त जीवो) ने विकसित (प्रमुदित) ज करे छे. लोकप्रसिद्ध प्रभात निशाचरो (चन्द्र,
चोर अने घूवड वगेरे)ना तेज अने सुखनो नाश करे छे परंतु जिन भगवाननुं ते सुप्रभात तेमना
तेज अने सुखनो नाश नथी करतुं. आ रीते ते जिन भगवाननुं अपूर्व सुप्रभात सर्व प्राणीओने
माटे कल्याणकारी छे. ७.
(शार्दूलविक्रीडित)
भव्याम्भोरुहनन्दिकेवलरविः प्राप्नोति यत्रोदयं
दुष्कर्मोदयनिद्रया परिहृतं जागर्ति सर्वं जगत्
नित्यं यैः परिपठयते जिनपतेरेतत्प्रभाताष्टकं
तेषामाशु विनाशमेति दुरितं धर्मः सुखं वर्धते
।।।।
अनुवाद : जे सुप्रभातमां भव्यजीवोरूप कमळोने आनंदित करनार
केवळज्ञानरूप सूर्य उदय पामे छे तथा संपूर्ण जगत् (जगतना जीव) पापकर्मना
उदयरूप निद्राथी छूटकारो पामीने जागे छे अर्थात् प्रबोध पामे छे ते जिन
भगवानना सुप्रभातनी स्तुति स्वरूप आ प्रभाताष्टक जे जीव निरंतर भणे छे तेमना
पाप तरत ज नाश पामे छे तथा धर्म अने सुख वृद्धि पामे छे.
विशेषार्थ : जेम सुप्रभात थतां कमळोने प्रफुल्लित करनार सूर्य उदय पामे छे तेवी
ज रीते जिन भगवानना ते सुप्रभातमां भव्य जीवोने प्रफुल्लित करनार केवळज्ञानरूप सूर्य उदय
पामे छे तथा जेम प्रभात थता जगतना प्राणी निद्रा रहित थईने जागी उठे छे तेवी ज रीते
जिन भगवानना प्रभातमां जगतना सर्व प्राणी पापकर्मना उदयस्वरूप निद्रारहित थईने जागी जाय
छे
प्रबोध पामी जाय छे आ रीते आ जिन भगवाननुं सुप्रभात अनुपम छे. तेना विषयमां जे
श्री पद्मनन्दी मुनिए आठ श्लोकोमां आ स्तुति करी छे ते वांचवाथी प्राणीओना पापनो विनाश
अने धर्म तथा सुखनी अभिवृद्धि थाय छे. ८.
आ रीते सुप्रभाताष्टक समाप्त थयुं. १७.

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१८. शान्तिनाथ स्तोत्र
[१८. शान्तिनाथ स्तोत्रम् ]
(शार्दूलविक्रीडित)
त्रैलोक्याधिपतित्वसूचनपरं लोकेश्वरैरुद्धृतं
यस्योपर्युपरीन्दुमण्डलनिभं छत्रत्रयं राजते
अश्रान्तोद्गतकेवलोज्ज्वलरुचा निर्भर्त्सितार्कप्रभं
सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा
।।।।
अनुवाद : जे शान्तिनाथ भगवानना एक एक उपर इन्द्रो द्वारा धारण
करवामां आवता चन्द्रमंडळ समान त्रण छत्र त्रणे लोकनी प्रभुता सूचित करता
निरन्तर उदयमान रहेनार केवळज्ञानरूप निर्मळ ज्योति द्वारा सूर्यना प्रकाशने
तिरस्कृत करीने सुशोभित थाय छे ते पापरूप कालिमांथी रहित श्री शान्तिनाथ
जिनेन्द्र आपणी सदा रक्षा करो. १.
(शार्दूलविक्रीडित)
देवः सर्वविदेष एष परमो नान्यस्त्रिलोकीपतिः
सन्त्यस्यैव समस्ततत्त्वविषया वाचः सतां संमताः
एतद्घोषयतीव यस्य विबुधैरास्फालितो दुन्दुभिः
सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा
।।।।
अनुवाद : जेनी भेरी देवो द्वारा ताडित थईने जाणे ए ज घोषणा करे
छे के त्रणे लोकना स्वामी अने सर्वज्ञ आ शान्तिनाथ जिनेन्द्र ज उत्कृष्ट देव छे
अने बीजा नथी; तथा समस्त तत्त्वोनुं यथार्थ स्वरूप प्रगट करनार एमना ज

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वचन सज्जनोने इष्ट छे, बीजा कोईना य वचन तेमने इष्ट नथी; ते पापरूप
कालिमा रहित श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र आपणी सदा रक्षा करो. २.
(शार्दूलविक्रीडित)
दिव्यस्त्रीमुखपङ्कजैकमुकुरप्रोल्लासिनानामणि-
स्फारीभूतविचित्ररश्मिरचितानम्रामरेन्द्रायुधैः
सच्चित्रीकृतवातवर्त्मनि लसत्सिंहासने यः स्थितः
सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा
।।।।
अनुवाद : जे शान्तिनाथ जिनेन्द्र देवांगनाओना मुखकमळरूप अनुपम
दर्पणमां देदीप्यमान अनेक मणिओना फेलातां विचित्र किरणो द्वारा रचवामां आवेला
केटलाक नम्रीभूत मेघधनुष्यो द्वारा आकाशने समीचीनपणे विचित्र (अनेक वर्णमय)
करनार सिंहासन उपर स्थित छे ते पापरूप कालिमा रहित श्री शान्तिनाथ भगवान
सदा आपणी रक्षा करो. ३.
(शार्दूलविक्रीडित)
गन्धाकृष्टमधुव्रतजरुतैर्व्यापारिता कुर्वती
स्तोत्राणीव दिवः सुरः सुमनसां वृद्धिर्यदग्रे ऽभवत्
सेवायातसमस्तविष्टपपतिस्तुत्याश्रयस्पर्द्धया
सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा
।।।।
अनुवाद : जे शान्तिनाथ जिनेन्द्रनी आगळ देवो द्वारा व्यापारित थयेली
अर्थात् करवामां आवती जे आकाशमांथी फूलोनी वर्षा थई हती ते गन्धद्वारा आकर्षेला
भ्रमरसमूहना शब्दोथी जाणे सेवाना निमित्ते आवेला समस्त लोकना स्वामी द्वारा
करवामां आवती स्तुतिना निमित्त स्पर्धा पामीने स्तुतिओ ज करी रही हती, ते
पापरूप कालिमा रहित श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र आपणी सदा रक्षा करो. ४.
(शार्दूलविक्रीडित)
खद्योतौ किमुतानलस्य कणिके शुभ्राभ्रलेशावथ
सूर्याचन्द्रमसाविति प्रगुणितौ लोकाक्षियुग्मैः सुरैः

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तर्क्येते हि यदग्रतो ऽतिविशदं तद्यस्य भामण्डलं
सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा
।।।।
अनुवाद : जे शान्तिनाथ भगवाननुं अत्यंत निर्मळ ते भामंडळ छे के
जेनी आगळ लोकोना बन्ने नेत्र तथा देव सूर्य अने चन्द्रना विषयमां एवी कल्पना
करे छे के आ शुं बे आगिया छे अथवा अग्निना बे तणखा छे, अथवा सफेद
वादळना बे टूकडा छे, ते पापरूप कालिमा रहित श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र आपणी
सदा रक्षा करो.
विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के भगवान शान्तिनाथ जिनेन्द्रनुं प्रभामंडळ एटलुं निर्मळ
अने देदीप्यमान हतुं के तेनी आगळ सूर्यचन्द्र लोकोने आगिया, अग्निकण अथवा सफेद वादळाना
टूकडा समान कान्तिहीन लागता हता. ५.
(शार्दूलविक्रीडित)
यस्याशोकतरुर्विनिद्रसुमनोगुच्छप्रसक्तैः क्वणद्-
भृङ्गैर्भक्तियुतः प्रभोरहरहर्गायन्निवास्ते यशः
शुभ्रं साभिनयो मरुच्चललतापर्यन्तपाणिश्रिया
सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा
।।।।
अनुवाद : जे श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्रनुं अशोकवृक्ष विकसित पुष्पोना गुच्छोमां
आसक्त थईने शब्द करनार भमरा द्वारा जाणे भक्तियुत थईने प्रतिदिन प्रभुना
धवल यशनुं गान करतुं तथा वायुथी चंचळ लताओना पर्यन्तभागरूप भुजाओनी
शोभाथी जाणे अभिनय (नृत्य) करतुं स्थित छे ते पापरूप कालिमारहित श्री
शान्तिनाथ जिनेन्द्र आपणी सदा रक्षा करो. ६.
(शार्दूलविक्रीडित)
विस्तीर्णाखिलवस्तुतत्त्वकथनापारप्रवाहोज्ज्वला
निःशेषार्थिषेवितातिशिशिरा शैलादिवोत्तुङ्गतः
प्रोदभूता हि सरस्वती सुरनुता विश्वं पुनाना यतः
सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा
।।।।

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अनुवाद : उन्नत पर्वत समान जे शान्तिनाथ जिनेन्द्रथी उत्पन्न थयेली
दिव्य वाणीरूप सरस्वती नामनी नदी (अथवा गंगा) विस्तीर्ण समस्त वस्तुस्वरूपना
व्याख्यानरूप अपार प्रवाहथी उज्ज्वळ, सर्व याचको वडे सेवित, अतिशय शीतळ,
देवोथी स्तुति पामेल अने विश्वने पवित्र करनारी छे; ते पापरूप कालिमा रहित
श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र आपणी सदा रक्षा करो.
विशेषार्थ : अहीं भगवान शान्तिनाथनी वाणीनी सरस्वती नदी साथे तुलना करतां
एम बताववामां आव्युं छे के जेवी रीते सरस्वती नदी अपार निर्मळ जळप्रवाहथी युक्त छे
तेवी ज रीते भगवाननी वाणी विस्तीर्ण समस्त पदार्थोना स्वरूपना कथनरूप प्रवाहथी संयुक्त
छे, जेम स्नानादिना अभिलाषी जनो ते नदीनी सेवा करे छे तेवी ज रीते तत्त्वना जिज्ञासु
जीवो भगवाननी ते वाणीनी पण सेवा करे छे, जेम नदी गरमीथी पिडायेला प्राणीओने
स्वभावथी शीतळ करनारी छे तेवी ज रीते भगवाननी ते वाणी पण प्राणीओना संसाररूप
संतापनो नाश करीने तेमने शीतळ करनारी छे, नदी जो ऊंचा पर्वत उपरथी उत्पन्न थाय
छे तो ते वाणी पर्वत समान गुणोथी उन्नति पामेला जिनेन्द्र भगवानथी उत्पन्न थई छे,
जो देव नदीनी स्तुति करे छे तो तेओ भगवाननी ते वाणीनी पण स्तुति करे छे; तथा जो
नदी शारीरिक बाह्य मळ दूर करीने विश्वने पवित्र करे छे तो ते भगवाननी वाणी प्राणीओना
अभ्यंतर मळ (अज्ञान अने राग
द्वेष) ने दूर करीने तेमने पवित्र करे छे. आ रीते ते
शान्तिनाथ जिनेन्द्रनी वाणी नदी समान होवा छतां पण तेनाथी उत्कृष्ट छे, कारण के ते तो
केवळ प्राणीओना बाह्य मळ ज दूर करी शके छे परंतु ते भगवाननी वाणी तेमनो अभ्यंतर
मळ पण दूर करे छे. ७.
(शार्दूलविक्रीडित)
लीलोद्वेलितबाहुकङ्कणरणत्कारप्रहृष्टैः सुरैः
चञ्चच्चन्द्रमरीचिसंचयसमाकारैश्चलच्चामरैः
नित्यं यः परिवीज्यते त्रिजगतां नाथस्तथाप्यस्पृहः
सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा
।।।।
अनुवाद : त्रणे लोकोना स्वामी जे शान्तिनाथ जिनेन्द्रनी उपर
रमतमात्रमां उंचकेली भुजाओमां स्थित कंकणना शब्दथी हर्ष पामेला देव सदा
प्रकाशमान चन्द्रकिरणोना समूह समान आकारवाळा चंचळ चामरो ढोळे छे, तो
पण जे इच्छारहित छे; ते पापरूप कालिमा रहित श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र आपणी
सदा रक्षा करो. ८.

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(शार्दूलविक्रीडित)
निःशेषश्रुतबोधवृद्धमतिभिः पायैरुदारैरपि
स्तोत्रैर्यस्य गुणार्णवस्य हरिभिः पारो न संप्राप्यते
भव्याभ्भोरुहनन्दिकेवलरविर्भक्त्या मयापि स्तुतः
सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा
।।।।
अनुवाद : समस्त शास्त्रज्ञानथी वृद्धि पामेली बुद्धिवाळा इन्द्रो पण अनेक
महान स्तोत्रो द्वारा जे शान्तिनाथ जिनेन्द्रना गुणसमूहनो पार पामता नथी ते
भव्य जीवोरूप कमळोने प्रफुल्लित करनार एवा केवळज्ञानरूप सूर्य संयुक्त
जिनेन्द्रनी में जे स्तुति करी छे ते केवळ भक्तिने वश थईने ज करी छे. ते पापरूप
कालिमा रहित श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र आपणी सदा रक्षा करो. ९.
आ रीते शान्तिनाथ स्तोत्र समाप्त थयुं. १८.