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समानरूपे अनेक प्रकारनी लक्ष्मी, अनेक गुणो अने उत्तमपदनुं प्रदान करे छे. २६.
अमृतना भारथी परिपूर्ण एवा तारा श्रुतमय शरीर मेघ वडे प्रगटे छे.
बळवान् कर्मरूप पर्वत नष्ट करवामां आवे छे. वज्र जेम जळ भरपूर वादळामां उत्पन्न थाय छे
तेवी ज रीते आ विवेक पण समीचीन अर्थना बोधक वाक्यरूप जळथी परिपूर्ण एवा सरस्वतीना
शरीरभूत शास्त्ररूप मेघमांथी उत्पन्न थाय छे. तात्पर्य ए छे के जिनवाणीना परिशीलनथी ते
विवेकबुद्धि प्रगट थाय छे जेना प्रभावथी नवीन कर्मोनो संवर अने पूर्वसंचित कर्मोनी निर्जरा थईने
अविनश्वर सुख प्राप्त थई जाय छे. २७.
करी शकाय छे अने न अन्य तेज द्वारा प्रकाशित पण करी शकाय छे. ते
स्वसंवेदनस्वरूप तेज वृद्धि पामो.
अंधकार (कर्म) समर्थ नथी
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नथी. तेथी तुं मूर्ख एवा मारा उपर पण प्रसन्न था, कारण के माता पोताना
गुण विनाना पुत्र प्रत्ये पण कठोर थती नथी. २९.
पण पारने प्राप्त थई जाय छे. ३०.
तस्मिन् देवि तव स्तुतिव्यतिकरे मन्दा नराः के वयम्
क्षन्तव्यं मुखरत्वकारणमसौ येनातिभक्तिग्रहः
कोण होय? अर्थात् अमारा जेवा तो तारी स्तुति करवामां सर्वथा असमर्थ छे. तेथी हे
माता! शास्त्रज्ञान रहित अमारी जे आ वचनोनी चंचळता, अर्थात् स्तुतिरूप वचनप्रवृत्ति
छे, तेने तुं क्षमा कर. कारण ए छे के आ वाचाळता (बकवाद)नुं कारण ते तारी अतिशय
भक्तिरूप ग्रह (पिशाच) छे. अभिप्राय ए के हुं एने योग्य न होवा छतां पण जे आ
स्तुति करी छे ते केवळ तारी भक्तिने वश थईने ज करी छे. ३१.
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प्राणीओनो परतत्त्व अने आत्मतत्त्व (अथवा उत्कृष्ट आत्मतत्त्व)ना उपदेशमां
शोभायमान वचनरूप गुणोथी उद्धार कर्यो छे, ते आदि जिनेन्द्रनी आराधना करवी
जोईए.
जाय छे तो बीजा दयाळु मनुष्य कूवामां दोरडुं नाखीने तेनी मददथी तेमने बहार काढी ले
छे. ए ज रीते भगवान आदि जिनेन्द्रे जे अनेक प्राणी अज्ञान वश थईने धर्मना मार्गथी
विमुख थई रह्या थका कष्ट भोगवी रह्या हता तेमनो हितोपदेश द्वारा उद्धार कर्यो हतो
हतुं के जे हितकारक होवा उपरांत तेमने मनोहर पण लागतुं हतुं.
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रत्नत्रयरूप मित्रना अवलंबनथी ते दुर्जय संसाररूप शत्रुने जीती लीधो छे ते
अजित जिनेन्द्रथी मने समीचीन सुख प्राप्त थाव. २.
हता ते संभव जिनेन्द्र अमने पवित्र करो. ३.
आवती पूजाथी; तथा जेनी आगळ विश्व तुच्छ छे अर्थात् जे पोताना अनन्तज्ञान
द्वारा समस्त विश्वने साक्षात् जाणे
(
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प्राणीओनी वच्चे स्थित थईने शोभायमान थया हता तथा जेमणे त्यां वचनरूपी
अमृतनी वर्षा करी हती ते पद्मप्रभ जिनेन्द्र अमारी रक्षा करो. ६.
जेमणे शस्त्र विना ज जीती लीधो ते सुपार्श्व जिनने हुं सदा प्रणाम करुं छुं.
आवे छे. एवा सुभट ते कामदेव उपर तेओ ज विजय मेळवी शके छे जेमना हृदयमां आत्म
उपर विजय मेळववा माटे कोई शस्त्रादिनी पण जरूर न पडी. तेमणे एक मात्र विवेकबुद्धिथी तेने
हरावी दीधो हतो. माटे ते नमस्कार करवाने योग्य छे. ७.
तेम तेओ कलंक (पाप
दोषरहित हता. ते संसारनो संताप नष्ट करनार चन्द्रप्रभ मुनीन्द्र जयवंत हो. ८.
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पडी जाय छे ते पुष्पदंत भगवानने हुं निरन्तर प्रणाम करूं छुं.
दुर्विचारोमां मोह द्वारा स्थापित धूळनो आरोप करीने आ उत्प्रेक्षा करवामां आवी छे के मोहद्वारा
जे प्राणीओना मस्तक उपर मोहनधूळ स्थापवामां आवे छे ते जाणे के पुष्पदंत जिनेन्द्रने प्रणाम
करवाथी (मस्तक नमाववाथी) अनायासे ज नष्ट थई जाय छे. ९.
न करवा जोईए? अर्थात् अवश्य ज ते प्रणाम करवा योग्य छे. १०.
निमित्ते अनेक भक्ति करनार मनुष्योना सर्व मनोरथ (अभिलाषाओ) सफळ थाय
छे ते श्रेयांस जिनेन्द्रने प्रणाम करूं छुं. ११.
कोई सुख पण नथी के जे तेनी आगळ दोडतुं न होय.
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भव्य जीवोए तेमने नमस्कार कर्या छे. तेथी तेमना नामनुं स्मरण पण निश्चयथी पापी
जीवोने पण ते पाप
हृदयमां धारण करुं छुं. बराबर पण छे
जिनेन्द्रने हुं मुक्तिप्राप्तिनी इच्छाथी नमस्कार करूं छुं. १५.
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थया. आ रीते जे स्व अने पर बन्नेनी य शान्तिनुं कारण छे ते उत्कृष्ट लक्ष्मी
(समवसरणादिरूप बाह्य तथा अनंतचतुष्टयस्वरूप अंतरंग लक्ष्मी) युक्त शान्तिनाथ
जिनेन्द्रने हुं नमस्कार करूं छुं. १६.
आ बे विशुद्ध गुण प्रगट थया हता ते कुंथुनाथ जिनेन्द्र मारा जेवा छद्मस्थ प्राणीओने
संसारनी शान्ति (नाश)नुं कारण थाव. १७.
दीपक समान शोभायमान थाय छे ते अरनाथ जिनेन्द्र जयवंत हो. १८.
छे, आ रीते जेमनी प्रवृत्ति विश्वने माटे आश्चर्यजनक छे तथा जे अद्वैतभावने प्राप्त
थया छे ते मल्लि जिनेन्द्र जयवंत थाव.
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छतां पण तेमनो उत्कर्ष जोईने तेओ स्वभावथी ज क्रमशः दुःखी अने सुखी थता हता. तेथी
अहीं तेमनी प्रवृत्तिने आश्चर्यकारी कहेवामां आवी छे. १९.
अविनश्वर पद (मोक्ष) पण पाम्या हता ते सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्दर्शनथी विभूषित
मुनिसुव्रत जिनेन्द्र मारा उपर प्रसन्न थाव. २०.
ज छे. जेणे ते इन्द्रियसुख छोडीने आत्मिक सुखना विषयमां आदर कर्यो हतो ते
नेमिनाथ जिनेन्द्र मारा माटे मुक्तिनुं कारण थाव. २१.
उपरथी मुक्ति पाम्या छे ते नेमिनाथ जिनेन्द्र जयवंत हो. २२.
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सेनानी जेम दोड्या हता ते पार्श्वनाथ जिनेन्द्र मने अमृत अर्थात् मोक्ष आपो. २३.
नम्रीभूत थयेल मने पद्मनन्दीने मोक्ष प्रदान करो. २४.
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द्द्योते मोहकृते गते च सहसा निद्राभरे दूरतः
ल्लब्धं यैरिह सुप्रभातमचलं तेभ्यो जिनेभ्यो नमः
जतां तथा शीघ्र ज मोहकर्मथी निर्मित निद्राभार सहसा दूर थई जतां समीचीन
ज्ञान अने दर्शनरूप नेत्रयुगल सर्व तरफ विस्तार पाम्या छे अर्थात् खूली गयां छे
एवा ते स्थिर सुप्रभातने जेमणे प्राप्त करी लीधुं छे ते जिनेन्द्रदेवोने नमस्कार हो.
लागी जाय छे. बराबर ए ज रीते जिनेन्द्रदेवोने जे अपूर्व प्रभातनो लाभ थया करे छे तेमां
रात्रि समान तेमना ज्ञानावरण अने दर्शनावरण कर्मोनी स्थितिनो अंत थाय छे, अंतरायकर्मनो क्षय
ज प्रकाश छे, मोहकर्मजनित अविवेकरूप निद्रानो भार नष्ट थई जाय छे. त्यारे तेमना केवळज्ञान
अने केवळदर्शनरूप बन्ने नेत्रो खुली जाय छे जेथी तेओ समस्त विश्वने स्पष्टपणे जाणवा अने
देखवा लागे छे. एवा ते अलौकिक, अविनश्वर सुप्रभातने प्राप्त करनार जिनेन्द्रोने अहीं नमस्कार
करवामां आव्या छे. १.
लोकालोकपदप्रकाशनविधिप्रौढं प्रकृष्टं सकृत्
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त्रैलोक्याधिपतेर्जिनस्य सततं तत्सुप्रभातं स्तुवे
चक्रवर्तीने सुख आपनार), निर्मळ, ज्ञाननी प्रभाथी प्रकाशमान, लोक अने अलोकरूप
स्थानने प्रकाशित करवानी विधिमां चतुर अने उत्कृष्ट छे तथा जे एकवार प्रगट थतां
जाणे प्राणी उत्कृष्ट जीवनने ज प्राप्त करी ले छे; एवा ते त्रण लोकना अधिपतिस्वरूप
जिनेन्द्र भगवानना सुप्रभातनी हुं निरंतर स्तुति करूं छुं. २.
र्जातं यत्र विशुद्धखेचरनुतिव्याहारकोलाहलम्
मन्ये ऽर्हत्परमेष्टिनो निरुपमं संसारसंतापहृत्
करवामां आवती विशुद्ध स्तुतिना शब्दथी शब्दायमान छे, जे समीचीन धर्मविधिने
वधारनार छे, उपमा सहित अर्थात् अनुपम छे अने संसारनो संताप नष्ट करनार छे,
एवा ते अरहंत परमेष्ठीना सुप्रभातने ज हुं उत्कृष्ट सुप्रभात मानुं छुं. ३.
प्रातः प्रतरधीश्वरं यदतुलं वैतालिकैः पठयते
स्तद्वन्दे जिनसुप्रभातमखिलत्रैलोक्यहर्षप्रदम्
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करे छे तथा जे सुप्रभात विषे विद्याधर अने नागकुमार जातिना देव गाती कन्याओ
पासेथी सांभळे छे; आ रीते समस्त त्रणे लोकने हर्षित करनार ते जिन भगवानना
सुप्रभातने हुं वंदन करूं छुं. ४.
दोषेशो ऽन्तरतीव यत्र मलिनो मन्दप्रभो जायते
वन्द्यं नन्दतु शाश्वतं जिनपतेस्तत्सुप्रभातं परम्
अतिशय मलिन थईने मन्द तेजवाळो थई जाय छे तथा जे सुप्रभात थतां अन्यायरूप
अंधकारनो समूह न थई जवाथी दिशाओ निर्मळ थई जाय छे; एवा ते वंदनीय
अने अविनश्वर जिन भगवाननुं उत्कृष्ट सुप्रभात वृद्धिने प्राप्त थाव.
अंधकार नष्ट थई जवाथी दिशाओ निर्मळ थई जाय छे. ए ज रीते जिन भगवानने जे अनुपम
सुप्रभातनो लाभ थाय छे ते थतां चोर समान चिरकालीन पाप तरत ज नष्ट थई जाय छे, दोषेश
(दोषोना स्वामी मोह) कान्तिहीन थईने दूर भागी जाय छे तथा अन्याय अने अत्याचार नष्ट
थई जवाथी बधी बाजुए प्रसन्नता छवाई जाय छे. ते जिनेन्द्रदेवनुं सुप्रभात वंदनीय छे. ५.
लोकानां विदधाति दृष्टिमचिरादर्थावलोकक्षमाम्
प्रातस्तुल्यतयापि को ऽपि महिमापूर्वः प्रभातो ऽर्हताम्
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विषयभोगमां आसक्त बुद्धिवाळा प्राणीओनी स्त्रीविषयक प्रीति कृश (निर्बळ) करे
छे. आ रीते ते अरहंतोनुं प्रभात जो के प्रभातकाळ तुल्य ज छे, छतां पण तेनो
कोई अपूर्व ज महिमा छे.
करे छे तेवी ज रीते आ अरहंतोनुं प्रभात रागद्वेषादिरूप दोषोनी संगति नष्ट करे छे. जेम प्रभात
लोकोनी द्रष्टिने तरत ज घट
थई जाय छे तेवी ज रीते ते अरहंतोना प्रभातमां पण कामीजननी विषयेच्छा ओछी थई जाय
छे. आ रीते अरहंतोनुं ते प्रभात प्रसिद्ध प्रभात समान होईने पण अपूर्व ज महिमा धारण
करे छे. ६.
भव्यानां दलयत्तथा कुवलये कुर्याद्विकाशश्रियम्
क्षेमं वो विदधातु जैनमसमं श्रीसुप्रभातं सदा
करे छे, जे कुवलय (भूमंडळ) ना विषयमां विकासलक्ष्मी (प्रमोद) करे छे
अने सुखनो घात करतुं नथी; ते जिन भगवाननुं अनुपम सुप्रभात सर्वदा आप
सौनुं कल्याण करो.
ते अज्ञानान्धकारने पण नष्ट करे छे, लोकप्रसिद्ध प्रभात कुवलय (सफेद कमळ) ने विकसित नथी
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(भूमंडळना समस्त जीवो) ने विकसित (प्रमुदित) ज करे छे. लोकप्रसिद्ध प्रभात निशाचरो (चन्द्र,
चोर अने घूवड वगेरे)ना तेज अने सुखनो नाश करे छे परंतु जिन भगवाननुं ते सुप्रभात तेमना
तेज अने सुखनो नाश नथी करतुं. आ रीते ते जिन भगवाननुं अपूर्व सुप्रभात सर्व प्राणीओने
माटे कल्याणकारी छे. ७.
दुष्कर्मोदयनिद्रया परिहृतं जागर्ति सर्वं जगत्
तेषामाशु विनाशमेति दुरितं धर्मः सुखं वर्धते
उदयरूप निद्राथी छूटकारो पामीने जागे छे अर्थात् प्रबोध पामे छे ते जिन
भगवानना सुप्रभातनी स्तुति स्वरूप आ प्रभाताष्टक जे जीव निरंतर भणे छे तेमना
पाप तरत ज नाश पामे छे तथा धर्म अने सुख वृद्धि पामे छे.
पामे छे तथा जेम प्रभात थता जगतना प्राणी निद्रा रहित थईने जागी उठे छे तेवी ज रीते
जिन भगवानना प्रभातमां जगतना सर्व प्राणी पापकर्मना उदयस्वरूप निद्रारहित थईने जागी जाय
छे
अने धर्म तथा सुखनी अभिवृद्धि थाय छे. ८.
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यस्योपर्युपरीन्दुमण्डलनिभं छत्रत्रयं राजते
सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा
निरन्तर उदयमान रहेनार केवळज्ञानरूप निर्मळ ज्योति द्वारा सूर्यना प्रकाशने
तिरस्कृत करीने सुशोभित थाय छे ते पापरूप कालिमांथी रहित श्री शान्तिनाथ
जिनेन्द्र आपणी सदा रक्षा करो. १.
सन्त्यस्यैव समस्ततत्त्वविषया वाचः सतां संमताः
सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा
अने बीजा नथी; तथा समस्त तत्त्वोनुं यथार्थ स्वरूप प्रगट करनार एमना ज
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कालिमा रहित श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र आपणी सदा रक्षा करो. २.
स्फारीभूतविचित्ररश्मिरचितानम्रामरेन्द्रायुधैः
सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा
केटलाक नम्रीभूत मेघधनुष्यो द्वारा आकाशने समीचीनपणे विचित्र (अनेक वर्णमय)
करनार सिंहासन उपर स्थित छे ते पापरूप कालिमा रहित श्री शान्तिनाथ भगवान
सदा आपणी रक्षा करो. ३.
स्तोत्राणीव दिवः सुरः सुमनसां वृद्धिर्यदग्रे ऽभवत्
सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा
भ्रमरसमूहना शब्दोथी जाणे सेवाना निमित्ते आवेला समस्त लोकना स्वामी द्वारा
करवामां आवती स्तुतिना निमित्त स्पर्धा पामीने स्तुतिओ ज करी रही हती, ते
पापरूप कालिमा रहित श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र आपणी सदा रक्षा करो. ४.
सूर्याचन्द्रमसाविति प्रगुणितौ लोकाक्षियुग्मैः सुरैः
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सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा
करे छे के आ शुं बे आगिया छे अथवा अग्निना बे तणखा छे, अथवा सफेद
वादळना बे टूकडा छे, ते पापरूप कालिमा रहित श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र आपणी
सदा रक्षा करो.
भृङ्गैर्भक्तियुतः प्रभोरहरहर्गायन्निवास्ते यशः
सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा
धवल यशनुं गान करतुं तथा वायुथी चंचळ लताओना पर्यन्तभागरूप भुजाओनी
शोभाथी जाणे अभिनय (नृत्य) करतुं स्थित छे ते पापरूप कालिमारहित श्री
शान्तिनाथ जिनेन्द्र आपणी सदा रक्षा करो. ६.
निःशेषार्थिषेवितातिशिशिरा शैलादिवोत्तुङ्गतः
सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा
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व्याख्यानरूप अपार प्रवाहथी उज्ज्वळ, सर्व याचको वडे सेवित, अतिशय शीतळ,
देवोथी स्तुति पामेल अने विश्वने पवित्र करनारी छे; ते पापरूप कालिमा रहित
श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र आपणी सदा रक्षा करो.
तेवी ज रीते भगवाननी वाणी विस्तीर्ण समस्त पदार्थोना स्वरूपना कथनरूप प्रवाहथी संयुक्त
छे, जेम स्नानादिना अभिलाषी जनो ते नदीनी सेवा करे छे तेवी ज रीते तत्त्वना जिज्ञासु
जीवो भगवाननी ते वाणीनी पण सेवा करे छे, जेम नदी गरमीथी पिडायेला प्राणीओने
स्वभावथी शीतळ करनारी छे तेवी ज रीते भगवाननी ते वाणी पण प्राणीओना संसाररूप
संतापनो नाश करीने तेमने शीतळ करनारी छे, नदी जो ऊंचा पर्वत उपरथी उत्पन्न थाय
छे तो ते वाणी पर्वत समान गुणोथी उन्नति पामेला जिनेन्द्र भगवानथी उत्पन्न थई छे,
जो देव नदीनी स्तुति करे छे तो तेओ भगवाननी ते वाणीनी पण स्तुति करे छे; तथा जो
नदी शारीरिक बाह्य मळ दूर करीने विश्वने पवित्र करे छे तो ते भगवाननी वाणी प्राणीओना
अभ्यंतर मळ (अज्ञान अने राग
केवळ प्राणीओना बाह्य मळ ज दूर करी शके छे परंतु ते भगवाननी वाणी तेमनो अभ्यंतर
मळ पण दूर करे छे. ७.
चञ्चच्चन्द्रमरीचिसंचयसमाकारैश्चलच्चामरैः
सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा
प्रकाशमान चन्द्रकिरणोना समूह समान आकारवाळा चंचळ चामरो ढोळे छे, तो
पण जे इच्छारहित छे; ते पापरूप कालिमा रहित श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र आपणी
सदा रक्षा करो. ८.
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स्तोत्रैर्यस्य गुणार्णवस्य हरिभिः पारो न संप्राप्यते
सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा
भव्य जीवोरूप कमळोने प्रफुल्लित करनार एवा केवळज्ञानरूप सूर्य संयुक्त
जिनेन्द्रनी में जे स्तुति करी छे ते केवळ भक्तिने वश थईने ज करी छे. ते पापरूप
कालिमा रहित श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र आपणी सदा रक्षा करो. ९.