Padmanandi Panchvinshati-Gujarati (Devanagari transliteration). 19. Jinpoojashtak; Shlok: 1-10 (19. Jinpoojashtak),1 (20. Karunashtak),2 (20. Karunashtak),3 (20. Karunashtak),4 (20. Karunashtak),5 (20. Karunashtak),6 (20. Karunashtak),7 (20. Karunashtak),8 (20. Karunashtak),1 (21. Kriyakandachoolika),2 (21. Kriyakandachoolika),3 (21. Kriyakandachoolika),4 (21. Kriyakandachoolika),5 (21. Kriyakandachoolika),6 (21. Kriyakandachoolika),7 (21. Kriyakandachoolika),8 (21. Kriyakandachoolika),9 (21. Kriyakandachoolika),10 (21. Kriyakandachoolika),11 (21. Kriyakandachoolika),12 (21. Kriyakandachoolika),13 (21. Kriyakandachoolika),14 (21. Kriyakandachoolika),15 (21. Kriyakandachoolika),16 (21. Kriyakandachoolika),17 (21. Kriyakandachoolika),18 (21. Kriyakandachoolika),1 (22. Aekatvadasak),2 (22. Aekatvadasak),3 (22. Aekatvadasak),4 (22. Aekatvadasak),5 (22. Aekatvadasak),6 (22. Aekatvadasak),7 (22. Aekatvadasak),8 (22. Aekatvadasak),9 (22. Aekatvadasak),10 (22. Aekatvadasak),11 (22. Aekatvadasak),1 (23. Paramarthvinshati),2 (23. Paramarthvinshati); 20. Karunashtak; 21. Kriyakandachoolika; 22. Aekatvadasak; 23. Paramarthvinshati.

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१९. श्रीजिनपूजाष्टक
[१९. श्रीजिनपूजाष्टकम् ]
(वसंततिलका)
जातिर्जरामरणमित्यनलत्रयस्य
जिवाश्रितस्य बहुतापकृतो यथावत्
विध्यापनाय जिनपादयुगाग्रभूमौ
धारात्रयं प्रवरवारिकृतं क्षिपामि
।।।।
अनुवाद : जन्म, जरा अने मरण आ जीवना आश्रये रहेनार त्रण अग्निओ
बहु संताप करनारी छे. हुं तेमने शान्त करवा माटे जिन भगवानना चरण युगल
आगळ विधिपूर्वक उत्तम जळथी निर्मित त्रण धाराओनुं क्षेपण करूं छुं. १. जळधारा.
(वसंततिलका)
यद्वद्वचो जिनपतेर्भवतापहारि
नाहं सुशीतलमपीह भवामि तद्वत्
कर्पूरचन्दनमितीव मयार्पितं सत्
त्वत्पादपङ्कजसमाश्रयणं करोति
।।।।
अनुवाद : जेवी रीते जिन भगवाननी वाणी संसारनो संताप दूर करनारी
छे तेवी रीते शीतळ होवा छतां पण हुं ते संताप दूर करी शकतो नथी, आ जातना
विचारथी ज जाणे मारा द्वारा भेट करवामां आवेल कपूर मिश्रित ते चन्दन हे
भगवान्! आपना चरणकमळोनो आश्रय करे छे. २. चंदन.

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(वसंततिलका)
राजत्यसौ शुचितराक्षतपुज्जराजि-
र्दत्ताधिकृत्य जिनमक्षतमक्षधूतैर्तैः
वीरस्य नेतरजनस्य तु वीरपट्टो
बद्धः शिरस्यतितरां श्रियमातनोति
।।।।
अनुवाद : इन्द्रियरूप धूर्तोद्वारा बाधा नहीं पामेला एवा जिन भगवानना
आश्रये आपवामां आवेली ते अतिशय पवित्र अक्षतना पुंजनी पंक्ति सुशोभित थाय
छे. बराबर छे
पराक्रमी पुरुषना शिर उपर बांधवामां आवेल वीरपट्ट जेम अत्यंत
शोभा विस्तारे छे तेम कायर पुरुषना शिर उपर बांधवामां आवेल तेवी शोभा
विस्तारतो नथी. ३. अक्षत.
(वसंततिलका)
साक्षादपुष्पशर एव जिनस्तदेनं
संपूजयामि शुचिपुष्पशरैर्मनोज्ञैः
नान्यं तदाश्रयतया किल यन्न यत्र
तत्तत्र रम्यमधिकां कुरुते च लक्ष्मीम्
।।।।
अनुवाद : आ जिनेन्द्र प्रत्यक्ष अपुष्पशर अर्थात् पुष्पशर (काम) रहित छे,
तेथी हुं तेनी मनोहर अने पवित्र पुष्पशरो (पुष्पना हारो) थी पूजा करूं छुं. अन्य
(ब्रह्मा आदि) कोईनी पण हुं तेमनाथी पूजा करतो नथी. कारण के ते पुष्पशर अर्थात्
कामने आधीन छे. बराबर छे
जे रमणीय वस्तु ज्यां न होय ते त्यां अधिक शोभा
आपे छे.
विशेषार्थ : पुष्पशरना बे अर्थ थाय छे, पुष्परूप बाणोना धारक कामदेव तथा
पुष्पमाळा. अहींश्लेषनी मुख्यताथी उक्त बन्ने अर्थनी विवक्षा करीने एम बताववामां आव्युं
छे के जिन भगवान पासे पुष्पशर (कामवासना) नथी, तेथी हुं तेनी पुष्पशरोथी
(पुष्पमाळाओथी) पूजा करूं छुं. अन्य हरि, हर अने ब्रह्मा आदि पुष्पशर सहित छे; माटे
तेमनी पुष्पशरोथी पूजा करवामां कांई पण शोभा नथी. ए ज वात पुष्ट करवा माटे एम
पण कही देवामां आव्युं छे के ज्यां जे वस्तु नथी त्यां ज ते वस्तु मूकवाथी शोभा थाय

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छे, नहि के ज्यां ते वस्तु विद्यमान होय त्यां मूकवाथी. तात्पर्य ए छे के जिनेन्द्र भगवान
ज जगत्विजयी कामदेव रहित होवाना कारणे पुष्पो द्वारा पूजवाने योग्य छे, नहि के उक्त
काम पीडित हरि-हर आदि. कारण ए छे के पूजक जेम कामरहित जिनेन्द्रनी पूजाथी स्वयं
पण कामरहित थई जाय छे तेवी रीते काम पीडित अन्यनी पूजा करवाथी ते कदी पण
तेनाथी रहित थई शकता नथी. ४. पुष्प.
(वसंततिलका)
देवो ऽयमिन्द्रियबलप्रलयं करोति
नैवेद्यमिन्द्रियबलप्रदखाद्यमेतत्
चित्रं तथापि पुरतः स्थितमर्हतो ऽस्य
शोभां बिभर्ति जगतो नयनोत्सवाय
।।।।
अनुवाद : आ भगवान इन्द्रियनुं बळ नष्ट करे छे अने आ नैवेद्य इन्द्रियनुं
बळ आपनार खाद्य (भक्ष्य) छे छतां पण आश्चर्य छे के आ अरहंत भगवाननी
आगळ स्थित ते नैवेद्य जगत्ना प्राणीओना नेत्रोने आनंददायक शोभा धारण करे
छे. ५. नैवेद्य.
(वसंततिलका)
आरार्तिकं तरलवह्निशिखं विभाति
स्वच्छे जिनस्य वपुषि प्रतिबिम्बितं सत्
ध्यानानलो मृगयमाण इवावशिष्टं
दग्धुं परिभ्रमति कर्मचयं प्रचण्डः
।।।।
अनुवाद : चंचळ अग्निशिखाथी संयुक्त आरतीनो दीपक जिन भगवानना
स्वच्छ शरीरमां प्रतिबिंबित थईने एवो शोभे छे के जाणे ते बाकी रहेला (अघाति)
कर्मसमूहने बाळवा माटे शोधती तीव्र ध्यानरूप अग्नि ज फरी रही होय. ६. दीप.
(वसंततिलका)
कस्तूरिकारसमयीरिव पत्रवल्लीः
कुर्वन् मुखेषु चलनैरिह दिग्वधूनाम्

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हर्षादिव प्रभुजिनाश्रयणेन वात-
प्रेङ्खद्वपुर्नटति पश्यत धूपधूमः
।।।।
अनुवाद : जुओ, वायुथी कंपता शरीरवाळो धूपनो धूमाडो पोताना कंपनथी
(चंचळताथी) जाणे अहीं दिशाओरूप स्त्रीओना मुखमां कस्तूरीना रसमांथी बनावेली
पत्रवल्ली (गाल उपर करवामां आवती रचना) ने करतो थको जिन भगवानना
आश्रयथी प्राप्त थयेल हर्षथी नाची ज रह्यो छे. ७. धूप.
(वसंततिलका)
उच्चैेंःफलाय परमामृतसंज्ञकाय
नानाफलैर्जिनपतिं परिपूजयामि
तद्भक्तिरेव सकलानि फलानि दत्ते
मोहेन तत्तदपि याचत एव लोकः
।।।।
अनुवाद : हुं उत्कृष्ट अमृत नामनुं उन्नत फळ (मोक्ष) प्राप्त करवा माटे
अनेक फळोथी जिनेन्द्रदेवनी पूजा करूं छुं. जो के जिनेन्द्रनी भक्ति ज समस्त फळो
आपे छे, तो पण मनुष्य अज्ञानथी फळनी याचना कर्या करे छे. ८. फळ.
(वसंततिलका)
पूजाविधिं विधिवदत्र विधाय देवे
स्तोत्रं च संमदरसाश्रितचित्तवृत्तिः
पुष्पाञ्जलिं विमलकेवललोचनाय
यच्छामि सर्वजनशान्तिकराय तस्मै
।।।।
अनुवाद : हर्षरूप जळथी परिपूर्ण मनोव्यापार सहित हुं अहीं विधिपूर्वक
जिनभगवानना विषयमां पूजाविधान अने स्तुति करीने निर्मळ केवळज्ञानरूप नेत्र संयुक्त
थईने सर्व जीवोने शान्ति प्रदान करनार ते जिनेन्द्रने पुष्पांजलि आपुं छुं. ९. अर्घ.
(वसंततिलका)
श्रीपद्मनन्दितगुणौघ न कार्यमस्ति
पूजादिना यदपि ते कृतकृत्यतायाः

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स्वश्रेयसे तदपि तत्कुरुते जनोऽर्हन्
कार्या कृषिः फलकृते न तु भूपकृत्यै
।।१०।।
अनुवाद : मुनि पद्म (पद्मनन्दी) द्वारा जेना गुण समूहनी स्तुति
करवामां आवी छे एवा हे अरहंतदेव! जो के कृतकृत्यता पामी जवाथी तमने
पूजा आदिथी कांई पण प्रयोजन रह्युं नथी, तो पण मनुष्य पोताना कल्याण
माटे तमारी पूजा करे छे. बराबर पण छे
खेती पोतानुं ज प्रयोजन सिद्ध करवा
माटे करवामां आवे छे, नहि के राजानुं प्रयोजन सिद्ध करवा माटे.
विशेषार्थ : जेम खेडूत जे खेती करे छे तेमांथी ते केटलोक भाग जो के कररूपे
राजाने पण आपे छे तो पण ते राजाना निमित्ते कांई खेती करतो नथी परंतु पोताना ज
प्रयोजन (कुटुंब परिपालन आदि) ने साधवा माटे ते करे छे. बराबर एवी ज रीते
भक्तजनो जे जिनेन्द्र आदिनी पूजा करे छे ते कांई तेमने प्रसन्न करवा माटे करता नथी,
परंतु पोताना आत्मपरिणामोनी निर्मळता माटे ज करे छे. कारण ए छे के जिन भगवान
तो वीतराग (राग-द्वेष रहित) छे, तेथी तेनाथी तेमनी प्रसन्नता तो संभवती नथी; छतां
पण तेनाथी पूजा करनाराने परिणामोमां जे निर्मळता उत्पन्न थाय छे तेनाथी तेना पापकर्मोनो
रस क्षीण थाय छे अने पुण्यकर्मोनो अनुभाग वृद्धि पामे छे. आ रीते दुःखनो विनाश थईने
तेने सुखनी प्राप्ति स्वयमेव थाय छे. आचार्यप्रवर श्री समन्तभद्र स्वामीए पण एम ज कह्युं
छे
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवैरे तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनातु चित्तं
दुरिताञ्जनेभ्यः ।। अर्थात् हे भगवन्! आप वीतराग छो तेथी आपने पूजानुं कांई प्रयोजन
रह्युं नथी तथा आप वैरभाव (द्वेष बुद्धि) थी पण रहित छो तेथी निन्दानुं पण आपने कांई
प्रयोजन रह्युं नथी. छतां पण पूजा आदि द्वारा थतुं आपना पवित्र गुणनुं स्मरण अमारा
चित्तने पापरूप कालिमाथी बचावे छे. [स्वयंभू स्तोत्र. ५७]. १०.
आ रीते जिनपूजाष्टक समाप्त थयुं. १९.

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२०. श्री करुणाष्टक
[२०. करुणाष्टम् ]
(आर्या)
त्रिभुवनगुरो जिनेश्वर परमानन्दैककारण कृरुष्व
मयि किंकरेऽत्र करुणां तथा यथा जायते मुक्तिः ।।।।
अनुवाद : त्रणे लोकना गुरु अने उत्कृष्ट सुखना अद्वितीय कारण एवा हे
जिनेश्वर! आ दास उपर एवी कृपा करो के जेथी मने मुक्ति प्राप्त थई जाय. १.
(आर्या )
निर्विण्णो ऽहं नितरामर्हन् बहुदुःखया भवस्थित्या
अपुनर्भवाय भवहर कुरु करुणामत्र मयि दीने ।।।।
अनुवाद : हे संसारना नाशक अरहंत! हुं अनेक दुःख उत्पन्न करनार आ
संसारवासनाथी अत्यंत विरक्त थयो छुं. आप आ दीन उपर एवी कृपा करो के
जेथी मारे फरी जन्म न लेवो पडे अर्थात् हुं मुक्त थई जाउं. २.
(आर्या )
उद्धर मां पतितमतो विषमाद्भवकूपतः कृपां कृत्वा
अर्हन्नलमुद्धरणे त्वमसीति पुनः पुनर्वच्मि ।।।।
अनुवाद : हे अरहंत! आप कृपा करीने आ भयानक संसाररूप कूवामां
पडेला मारो तेनाथी उद्धार करो. आप तेमांथी उद्धार करवा माटे समर्थ छो. तेथी
हुं वारंवार आपने निवेदन करूं छुं. ३.

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(आर्या )
त्वं कारुणिकः स्वामी त्वमेव शरणं जिनेश तेनाहम्
मोहरिपुदलितमानः पूत्कारं तव पुरः कुर्वे ।।।।
अनुवाद : हे जिनेश! तमे ज दयाळु छो, तमे ज प्रभु छो, अने तमे ज
रक्षक छो. तेथी मोहरूप शत्रुद्वारा जेनुं मानमर्दन करवामां आव्युं छे एवो हुं आपनी
पासे पोकारीने कहुं छुं. ४.
(आर्या )
ग्रामपतेरपि करुणा परेण केनाप्युपद्रुते पुंसि
जगतां प्रभोर्न किं तव जिन मयि खलकर्मभिः प्रहते ।।।।
अनुवाद : हे जिन! जे एक गामना स्वामी होय छे ते पण कोई बीजा
द्वारा पीडित मनुष्य उपर दया करे छे. तो पछी जो आप त्रणे य लोकना स्वामी
छो तो शुं दुष्ट कर्मो द्वारा पीडित मारा उपर दया नहि करो? अर्थात् अवश्य
करशो. ५.
(आर्या )
अपहर मम जन्म दयां कृत्वेत्येकत्र वचसि वक्तव्ये
तेनातिदग्ध इति मे देव बभूव प्रलापित्वम् ।।।।
अनुवाद : हे देव! आप कृपा करीने मारा जन्म (जन्ममरणरूप संसार)नो
नाश करो, ए ज एक वात मारे आपने कहेवानी छे. परंतु हुं तो जन्मथी अतिशय
बळेलो छुं अर्थात् पीडित छुं तेथी हुं घणो बकवादी बन्यो छुं. ६.
(आर्या )
तव जिनचरणाब्जयुगं करुणामृतसंगशीतलं यावत्
संसारातपतप्तः करोमि हृदि तावदेव सुखी ।।।।
अनुवाद : हे जिन! संसाररूप तडकाथी संताप पामेलो हुं ज्यांसुधी दयारूप
अमृतनी संगतिथी शीतळता पामेला तमारा बन्ने चरणकमळोने हृदयमां धारण करुं
छुं त्यांसुधी ज सुखी रहुं छुं. ७.

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(आर्या )
जगदेकशरण भगवन्नसमश्रीपद्मनन्दितगुणौघ
किं बहुना कुरु करुणाम् अत्र जने शरणमापन्ने ।।।।
अनुवाद : जगतना प्राणीओना अद्वितीय रक्षक तथा असाधारण लक्ष्मी
संपन्न अने मुनि पद्मनन्दी द्वारा स्तुति करायेल गुणसमूह सहित एवा हे भगवन्!
हुं वधारे शुं कहुं? शरणे आवेला आ जन (मारा) उपर आप दया करो. ८.
आ रीते करुणाष्टक समाप्त थयुं. २०.

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२१. क्रियाकांडचूलिका
[२१. क्रियाकाण्डचूलिका ]
(शार्दूलविक्रीडित)
सम्यग्दर्शनबोधवृ त्तसमताशीलक्षमाद्यैर्घनैः
संकेताश्रयवज्जिनेश्वर भवान् सर्वैर्गुणैराश्रितः
मन्ये त्वय्यवकाशलब्धिरहितैः सर्वत्र लोके वयं
संग्राह्या इति गर्वितैः परिहृतो दोषैरशेषैरपि
।।।।
अनुवाद : हे जिनेश्वर! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, समता,
शील अने क्षमा आदि सर्व गुणोए जे संकेतगृह समान आपनो सघनरूपे आश्रय
कर्यो छे; तेथी मने एम लागे छे आपनामां स्थान प्राप्त न थवाथी ‘लोकमां अमे
सर्वत्र संग्रह करवाने योग्य छीए’ ए जातनुं अभिमान पामीने ज जाणे के बधा
दोषोए आपने छोडी दीधा छे.
विशेषार्थ : जिन भगवानमां सम्यग्दर्शन, आदि बधा उत्तमोत्तम गुणो होय छे.
परंतु दोष तेमनामां एक पण होतो नथी. तेथी ग्रन्थकारे अहीं आ उत्प्रेक्षा करी छे के तेमनी
अंदर एटला बधा गुणो प्रवेशी चुक्या हता के दोषोने माटे त्यां स्थान ज रह्युं नहोतुं. तेथी
जाणे तेमनाथी तिरस्कृत थवाने कारणे दोषोने ए अभिमान ज उत्पन्न थयुं हतुं के लोकमां
अमारो संग्रह तो बधा ज करवा इच्छे छे तो पछी जो आ जिन अमारी उपेक्षा करे छे तो
अमे एमनी पासे कदी पण नहि जईए. आ अभिमानने कारणे ज ते दोषोए जिनेन्द्रदेवने
छोडी दीधा हता. १.
(वसंततिलका)
यस्त्वामनन्तगुणमेकविभुं त्रिलोक्याः
स्तौति प्रभूतकवितागुणगर्वितात्मा

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आरोहति द्रुमशिरः स नरो नभो ऽन्तं
गन्तुं जिनेन्द्र मतिविभ्रमतो बुधो ऽपि
।।।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! कविता करवा योग्य अनेक गुणो होवाथी अभिमान
पामेलो जे मनुष्य अनंत गुणो सहित अने त्रणे लोकना अद्वितीय प्रभुस्वरूप तमारी
स्तुति करे छे ते विद्वान होवा छतां पण जाणे बुद्धिनी विपरीतताथी (मूर्खताथी)
आकाशनो अंत पामवा माटे वृक्षना शिखर उपर ज चडे छे.
विशेषार्थ : जेम अनंत आकाशनो अंत पामवो असंभव छे तेवी ज रीते त्रिलोकीनाथ
(जिनेन्द्र)ना अनंत गुणोनो पण स्तुति द्वारा अंत पामवो असंभव ज छे. छतां पण जे विद्वान
कवि स्तुति द्वारा तेमना अनंत गुणोनुं कीर्तन करवा इच्छे छे, तो एम समजवुं जोईए के ते पोताना
कवित्व गुणना अभिमानथी ज तेम करवाने उद्यत थयो छे. २.
(वसंततिलका)
शक्नोति कर्तुमिह कः स्तवनं समस्त-
विद्याधिपस्य भवतो विबुधार्चिताङ्ध्रेः
तत्रापि तज्जिनपते कुरुते जनो यत्
तच्चित्तमध्यगतभक्ति निवेदनाय
।।।।
अनुवाद : जे समस्त विद्याओना स्वामी छे तथा जेमना चरण देवो द्वारा
पूजवामां आव्या छे एवा आपनी स्तुति करवा माटे अहीं कोण समर्थ छे? अर्थात्
कोईपण समर्थ नथी. छतां पण हे जिनेन्द्र! जे मनुष्य आपनी स्तुति करे छे ते
पोताना चित्तमां रहेती भक्ति प्रगट करवा माटे ज करे छे. ३.
(वसंततिलका)
नामापि देव भवतः स्मृतिगोचरत्वं
वाग्गोचरत्वमथ येन सुभक्ति भाजा
नीतं लभेत स नरो निखिलार्थसिद्धिं
साध्वी स्तुतिर्भवतु मां किल कात्र चिन्ता
।।।।
अनुवाद : हे देव! जे मनुष्य अतिशय भक्तियुक्त थईने आपना नामने

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पण स्मृतिनो विषय अथवा वचननो विषय बनावे छेेमनथी आपना नामनुं चिन्तन
तथा वचनथी केवळ तेनुं उच्चारण ज करे छेतेना सर्व प्रकारना प्रयोजन सिद्ध थाय
छे. एवी हालतमां मारे शी चिन्ता छे? अर्थात् कांई पण नथी. ते उत्तम स्तुति
ज प्रयोजन सिद्ध करनारी थाव. ४.
(वसंततिलका)
एतावतैव मम पूर्यत एव देव
सेवां करोमि भवतश्चरणद्वयस्य
अत्रैव जन्मनि परत्र च सर्वकालं
न त्वामितः परमहं जिन याचयामि
।।।।
अनुवाद : हे देव! हुं आ जन्ममां तथा बीजा जन्ममां पण निरंतर आपना
चरणयुगलनी सेवा करतो रहुं, एटला मात्रथी ज मारूं प्रयोजन पूर्ण थई जाय छे.
हे जिनेन्द्र! एथी अधिक हुं आपनी पासे बीजुं कांई मागतो नथी. ५.
(वसंततिलका)
सर्वागमावगमतः खलु तत्त्वबोधो
मोक्षाय वृत्तमपि संप्रति दुर्घटं नः
जाडयात्तथा कुतनुतस्त्वयि भक्ति रेव
देवास्ति सैव भवतु क्रमतस्तदर्थम्
।।।।
अनुवाद : हे देव! मुक्तिना कारणभूत जे तत्त्वज्ञान छे ते निश्चयथी
समस्त आगमो जाणी लेवाथी प्राप्त थाय छे अने ते अमे जडबुद्धि होवाथी
अमारे माटे दुर्लभ ज छे. ए ज रीते ते मोक्षना कारणभूत जे चारित्र छे
ते पण शरीरनी दुर्बळताथी आ वखते अमने प्राप्त थई शकतुं नथी ए कारणे
आपना विषयमां जे मारी भक्ति छे ते ज क्रमशः मने मुक्तिनुं कारण
थाव. ६.
(मालिनी)
हरति हरतु वृद्धं वार्धकं कायकान्तिं
दधति दधतु दूरं मन्दतामिन्द्रियाणि

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भवति भवतु दुःखं जायतां वा विनाशः
परमिह जिननाथे भक्ति रेका ममास्तु
।।।।
अनुवाद : वृद्धिने प्राप्त थयेल वृद्धावस्था जो शरीरनी कांति नष्ट करे
छे तो करो, जो इन्द्रियो अत्यंत शिथिलता धारण करे छे तो करो, जो दुःख
थाय छे तो थाव तथा जो विनाश थाय छे तो पण भले थाय. परंतु अहीं
मारी एक मात्र जिनेन्द्रना विषयमां भक्ति बनी रहो. ७.
(वसंततिलका)
अस्तु त्रयं मम सुदर्शनबोधवृत्त-
संबन्धि यान्तु च समस्तदुरीहितानि
याचे न किंचिदपरं भगवन् भवन्तं
नाप्राप्तमस्ति किमपीह यतस्त्रिलोक्याम्
।।।।
अनुवाद : हे भगवान्! मने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र
संबंधी त्रण अर्थात् रत्नत्रय प्राप्त थाव. तथा मारी समस्त दुश्चेष्टाओ नष्ट थई
जाव, एथी अधिक हुं आपनी पासे बीजुं कांई नथी मागतो; कारण के त्रणे
लोकमां हजी सुधी जे प्राप्त न थयुं होय एवुं अन्य कांई पण नथी.
विशेषार्थ : अहीं जिनेन्द्र भगवान पासे केवळ एक ए ज याचना करवामां
आवी छे के आपनी कृपाथी मारी दुष्ट वृत्ति नष्ट थईने मने रत्नत्रयनी प्राप्ति थाव, ए
सिवाय बीजी कोई पण याचना करवामां आवी नथी. एनुं कारण ए आपवामां आव्युं छे
के अनंतकाळथी आ संसारमां परिभ्रमण करतां प्राणीए इन्द्र अने चक्रवर्ती आदिना पद तो
अनेक वार प्राप्त करी लीधां, परंतु रत्नत्रयनी प्राप्ति तेने हजी सुधी कदी थई नथी. तेथी
ते पूर्वे नहि प्राप्त थयेला रत्नत्रयनी ज अहीं याचना करवामां आवी छे. नीतिकार पण
ए ज कहे के
लोको ‘ह्यभिनवप्रियः’ अर्थात् जनसमूह नवी नवी वस्तु प्रत्ये ज अनुराग कर्या
करे छे. ८.
(वसंततिलका)
धन्यो ऽस्मि पुण्यनिलयो ऽस्मि निराकुलो ऽस्मि
शान्तो ऽस्मि नष्टविपदस्मि विदस्मि देव

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श्रीमज्जिनेन्द्र भवतो ऽङ्ध्रियुगं शरण्यं
प्राप्तो ऽस्मि चेदहमतीन्द्रियसौख्यकारि
।।।।
अनुवाद : हे श्रीमद् जिनेन्द्रदेव! हुं अतीन्द्रिय सुख (मोक्षसुख) करनार,
आपना चरणयुगलनुं शरण प्राप्त करी चूक्यो छुं; माटे हुं धन्य छुं, पुण्यनुं स्थान
छुं, आकुळता रहित छुं, शान्त छुं, विपत्तिओ रहित छुं अने ज्ञाता पण छुं. ९.
(वसंततिलका)
रत्नत्रये तपसि पङ्क्ति विधे च धर्मे
मूलोत्तरेषु च गुणेष्वथ गुप्तिकार्ये
दर्पात्प्रमादत उतागसि मे प्रवृत्ते
मिथ्यास्तु नाथ जिनदेव तव प्रसादात्
।।१०।।
अनुवाद : हे नाथ! हे जिनदेव! रत्नत्रय, तप, दस प्रकारना धर्म, मूळगुण,
उत्तरगुण अने गुप्तिरूप कार्य; आ बधाना विषयमां अभिमानथी अथवा प्रमादथी
मारी सदोष प्रवृत्ति थई होय ते आपना प्रसादथी मिथ्या थाव. १०.
(उपेन्द्रवज्रा)
मनोवचो ऽङ्गैः कृतमङ्गिपीडनं
प्रमोदितं कारितमत्र यन्मया
प्रमादतो दर्पत एतदाश्रयं
तऽस्तु मिथ्या जिन दुष्कृतं मम
।।११।।
अनुवाद : हे जिन! प्रमादथी अथवा अभिमानथी जे में अहीं मन,
वचन अने शरीरथी प्राणीओनुं पीडन स्वयं कर्युं होय, बीजाओ पासे कराव्युं
होय अथवा प्राणीने पीडा उपजावता जीवने जोईने हर्ष प्रगट कर्यो होय; तेना
आश्रये थनार मारूं ते पाप मिथ्या थाव. ११.
(शार्दूलविक्रीडित)
चिन्तादुष्परिणामसंततिवशादुन्मार्गगाया गिरः
कायात्संवृतिवर्जितादनुचितं कर्मार्जितं यन्मया

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तन्नाशं व्रजतु प्रभो जिनपते त्वत्पादपद्मस्मृते-
रेषा मोक्षफलप्रदा किल कथं नास्मिन् समर्था भवेत्
।।१२।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र प्रभो! चिन्ताने कारणे उत्पन्न थयेल अशुभ
परिणामोने वश थईने अर्थात् मननी दुष्ट वृत्तिथी, कुमार्गमां प्रवृत्त थयेली वाणी
अर्थात् सावद्य वचन द्वारा तथा संवर रहित शरीर द्वारा जे में अनुचित (पाप)
कर्म उत्पन्न कर्युं छे ते तमारा चरण-कमळना स्मरणथी नाश पामो. बराबर पण
छे जे तमारा चरण-कमळनुं स्मरण मोक्षरूप फळ आपे छे ते आ (पापविनाश)
कार्यमां केम समर्थ न थाय? अवश्य थशे. १२.
(वसंततिलका)
वाणी प्रमाणमिह सर्वविदस्त्रिलोकी-
सद्मन्यसौ प्रवरदीपशिखासमाना
स्याद्वादकान्तिकलिता नृसुराहिवन्द्या
कालत्रये प्रकटिताखिलवस्तुतत्त्वा
।।१३।।
अनुवाद : जे सर्वज्ञनी वाणी (जिनवाणी) त्रण लोकरूप घरमां उत्तम
दीपकनी शिखा समान थईने स्याद्वादरूप प्रभा सहित छे; मनुष्य, देव अने
नागकुमारोथी वंदनीय छे; तथा त्रणे काळनी वस्तुओना स्वरूपने प्रगट करनारी
छे; ते अहीं प्रमाण (सत्य) छे.
विशेषार्थ : अहीं जिनवाणीने दीपशिखा समान बतावीने तेना करतां पण तेमां
कांईक विशेषता प्रगट करवामां आवी छे. जेम केदीपशिखा घरनी अंदरनी ज वस्तुओने
प्रकाशित करे छे पण जिनवाणी त्रणे लोकनी अंदरनी बधी ज वस्तुओने प्रकाशित करे छे.
दीपक जो प्रभासहित होय छे तो ते वाणी पण अनेकान्तरूप प्रभासहित छे; दीपशिखाने जो
केटलाक मनुष्यो ज वंदन करे छे तो जिनवाणीने मनुष्यो, देवो अने असुरो पण वंदन करे
छे; तथा दीपशिखा जो वर्तमाननी केटलीक ज वस्तुओने प्रगट करे छे तो ते जिनवाणी त्रणेय
काळनी समस्त वस्तुओने प्रगट करे छे. आ रीते दीपशिखा समान होवा छतां पण ते
जिनवाणीनुं स्वरूप अपूर्व ज छे. १३.
(पृथ्वी)
क्षमस्व मम वाणि तज्जिनपतिश्रुतादिस्तुतौ
यदूनमभवन्मनोवचनकायवैकल्यतः

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अनेकभवसंभवैर्जडिमकारणैः कर्मभिः
कुतोऽत्र किल मा
द्रशे जननि ताद्रशं पाटवम् ।।१४।।
अनुवाद : हे वाणी! जिनेन्द्र अने सरस्वती आदिनी स्तुतिना विषयमां
मन, वचन अने शरीरनी विकळताना कारणे जे कांई खामी रही होय तेने हे
माता! तुं क्षमा कर. कारण ए छे के अनेक भवोमां उपार्जित अने अज्ञान
उत्पन्न करनार कर्मोनो उदय रहेवाथी मारा जेवा मनुष्यमां तेवी निपुणता
क्यांथी होई शके? अर्थात् होई शके नहि. १४.
(अनुष्टुभ)
पल्लवो ऽयं क्रियाकाण्डकल्पशाखाग्रसंगतः
जीयादशेषभव्यानां प्रार्थितार्थफलप्रदः ।।१५।।
अनुवाद : समस्त भव्य जीवोने इष्ट फळ आपनार आ क्रियाकांडरूप
कल्पवृक्षनी शाखाना अग्रभागे लागेल नवीन पत्र जयवंत हो. १५.
(भुजंगयालप्रयात्न)
क्रियाकाण्डसंबन्धिनी चूलिकेयं
नरैः पठयते यैस्त्रिसंध्यं च तेषाम्
वपुर्भारतीचित्तवैकल्यतो या
न पूर्णा क्रिया सापि पूर्णत्वमेति
।।१६।।
अनुवाद : जे मनुष्य क्रियाकांड संबंधी आ चूलिका त्रणे संध्याकाळे भणे छे
तेमनी शरीर, वाणी अने मननी विकळताने कारणे जे क्रिया पूर्ण न थई होय ते
पण पूर्ण थई जाय छे. १६.
(पृथ्वी)
जिनेश्वर नमो ऽस्तु ते त्रिभुवनैकचूडामणे
गतो ऽस्मि शरणं विभो भवभिया भवन्तं प्रति
तदाहतिकृते बुधैरकथि तत्त्वमतन्मया-
श्रितं सु
द्रढचेतसा भवहरस्त्वमेवात्र यत् ।।१७।।

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अनुवाद : हे जिनेश्वर! हे त्रण लोकना चूडामणि विभो! तमने नमस्कार
हो. हुं संसारना भयथी आपना शरणे आव्यो छुं. विद्वानोए ते संसारनो नाश करवा
माटे आ ज तत्त्व बताव्युं छे, तेथी में द्रढचित्त करीने आनुं ज आलंबन लीधुं छे
कारण ए छे के अहीं संसारनो नाश करनार तमे ज छो. १७.
(वसंततिलका)
अर्हन् समाश्रितसमस्तनरामरादि-
भव्याब्जनन्दिवचनांशुरवेस्तवाग्रे
मौखर्यमेतदबुधेन मया कृतं यत्-
तद्भूरिभक्ति रभसस्थितमानसेन
।।१८।।
अनुवाद : हे अरहंत! जेम सूर्य पोताना किरणो द्वारा समस्त कमळोने
प्रफुल्लित करे छे तेवी ज रीते आप पण सभा (समवसरण) मां आवेल समस्त
मनुष्य अने देव आदि भव्य जीवो रूप कमळोने पोताना वचनरूप किरणो द्वारा
प्रफुल्लित करो छो. आपनी आगळ जे विद्वता विनाना में आ वाचाळता (स्तुति)
करी छे ते केवळ आपनी महान भक्तिना वेगमां मन स्थित होवाथी अर्थात् मनमां
अतिशय भक्ति होवाथी ज करी छे. १८.
आ रीते क्रियाकांडचूलिका समाप्त थई. २१.

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२२. एकत्वभावनादशक
[२२. एकत्वभावनादशकम् ]
(अनुष्टुभ् )
स्वानुभूत्यैव यद्गम्यं रम्यं यच्चात्मवेदिनाम्
जल्पे तत्परमं ज्योतिरवाङ्मानसगोचरम् ।।।।
अनुवाद : जे परम ज्योति केवळ स्वानुभवथी ज गम्य (प्राप्त करवा योग्य)
तथा आत्मज्ञानीओने रमणीय छे ते वचन अने मनना अविषयभूत परम (उत्कृष्ट)
ज्योतिना विषयमां हुं कांईक कहुं छुं . १.
(अनुष्टुभ् )
एकत्वैकपदप्राप्तमात्मतत्त्वमवैति यः
आराध्यते स एवान्येस्तस्याराध्यो न विद्यते ।।।।
अनुवाद : जे भव्य जीव एकत्व ( अद्वैत) रूप अद्वितीयपदने पामेल
आत्मतत्त्वने जाणे छे ते पोते ज बीजाओ द्वारा आराधाय छे अर्थात् बीजा प्राणी
तेनी ज आराधना करे छे, तेना आराध्य (पूजनीय) बीजुं कोई रहेतुं नथी. २.
(अनुष्टुभ् )
एकत्वज्ञो बहुभ्यो ऽपि कर्मभ्यो न बिभेति सः
योगी सुनौगतो ऽम्भोधिजलेभ्य इव धीरधीः ।।।।
अनुवाद : जेम उत्कृष्ट नावने प्राप्त थयेल धीरबुद्धि (साहसी) मनुष्य
समुद्रना अपरिमित जळथी डरतो नथी तेवी ज रीते एकत्वनो जाणकार ते योगी
घणा कर्मोथी पण डरतो नथी. ३.

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(अनुष्टुभ् )
चैतन्यैकत्वसंवित्तिर्दुंर्लभा सैव मोक्षदा
लब्धा कथं कथंचिच्चेच्चिन्तनीया मुहुर्मुहुः ।।।।
अनुवाद : चैतन्यरूप एकत्वनुं ज्ञान दुर्लभ छे, परंतु मोक्ष आपनार ते ज छे.
जो ते कोई पण प्रकारे प्राप्त थई जाय तो तेनुं वारंवार चिंतन करवुं जोईए. ४.
(अनुष्टुभ् )
मोक्ष एव सुखं साक्षात्तच्च साध्यं मुमुक्षुभिः
संसारे ऽत्र तु तन्नास्ति यदस्ति खलु तन्न तत् ।।।।
अनुवाद : वास्तविक सुख मोक्षमां छे अने ते मुमुक्षुजनो द्वारा सिद्ध करवा योग्य
छे. अहीं संसारमां ते सुख नथी. अहीं जे सुख छे ते निश्चयथी यथार्थ सुख नथी. ५.
(अनुष्टुभ् )
किंचित्संसारसंबन्धि बन्धुरं नेति निश्चयात्
गुरूपदेशतो ऽस्माकं निःश्रेयसपदं प्रियम् ।।।।
अनुवाद : संसार संबंधी कोई पण वस्तु रमणीय नथी, आ जातनो अमने
गुरुना उपदेशथी निश्चय थई गयो छे. ए ज कारणे अमने मोक्षपद प्यारूं छे. ६.
(अनुष्टुभ् )
मोहोदयविषाक्रान्तमपि स्वर्गसुखं चलम्
का कथापरसौख्यानामलं भवसुखेन मे ।।।।
अनुवाद : मोहना उदयरूप विषथी मिश्रित स्वर्गनुं सुख पण जो नश्वर होय
तो भला बीजा तुच्छ सुखोना संबंधोमां शुं कहेवुं? अर्थात् ते तो अत्यंत विनश्वर अने
हेय छे ज. तेथी मने एवा संसारसुखथी बस थाव
हुं एवुं संसारसुख चाहतो नथी. ७.
(अनुष्टुभ् )
लक्ष्यीकृत्य सदात्मानं शुद्धबोधमयं मुनिः
आस्ते यः सुमतिश्चात्र सो ऽप्यमुत्र चरन्नपि ।।।।

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अनुवाद : जे निर्मळ बुद्धि धारण करनार मुनि आ लोकमां निरंतर शुद्ध
ज्ञानस्वरूप आत्मानुं लक्ष्य राखीने रहे छे ते परलोकमां संचार करवा छतां पण ते
ज रीते रहे छे. ८.
(अनुष्टुभ् )
वीतरागपथे स्वस्थः प्रस्थितो मुनिपुङ्गवः
तस्य मुक्ति सुखप्राप्तेः कः प्रत्यूहो जगत्त्रये ।।।।
अनुवाद : जे श्रेष्ठ मुनि आत्मलीन थईने वीतरागमार्ग अर्थात् मोक्षमार्गमां
प्रस्थान करी रह्यो छे तेने मोक्षसुखनी प्राप्तिमां त्रणे लोकमां कोई पण विघ्न उपस्थित
थई शकतुं नथी. ९.
(अनुष्टुभ् )
इत्येकाग्रमना नित्यं भावयन् भावनापदम्
मोक्षलक्ष्मीकटाक्षालिमालासद्म स जायते ।।१०।।
अनुवाद : आ रीते एकाग्रमन थईने जे मुनि सर्वदा आ भावनापद (एकत्व
भावना) ने भावे छे ते मुक्तिरूप लक्ष्मीनी कटाक्ष पंक्तिओनी माळानुं स्थान बनी
जाय छे, अर्थात् तेने मोक्ष प्राप्त थई जाय छे. १०.
(अनुष्टुभ् )
एतज्जन्मफलं धर्मः स चेदस्ति ममामलः
आपद्यपि कुतश्चिन्ता मृत्योरपि कुतो भयम् ।।११।।
अनुवाद : आ मनुष्य जन्मनुं फळ धर्मनी प्राप्ति छे. ते निर्मळ धर्म जो
मारी पासे छे तो पछी मने आपत्तिना विषयमां पण शी चिन्ता छे तथा मृत्युथी
पण शो डर छे? अर्थात् ते धर्म होतां न तो आपत्तिनी चिन्ता रहे छे अने न
मरणनो डर पण रहे छे. ११.
आ रीते एकत्वभावना दशक अधिकार समाप्त थयो. २२.

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२३. परमार्थविंशति
[२३. परमार्थविंशतिः ]
(शार्दूलविक्रीडित)
मोहद्वेषरतिश्रिता विकृतयो द्रष्टाः श्रुताः सेविताः
वारंवारमनन्तकालविचरत्सर्वाङ्गिभिः संसृतौ
अद्वैतं पुनरात्मनो भगवतो दुर्लक्ष्यमेकं परं
बीजं मोक्षतरोरिदं विजयते भव्यात्मभिर्वन्दितम्
।।।।
अनुवाद : संसारमां अनंतकाळथी विचरण करतां सर्व प्राणीओए मोह,
द्वेष अने रागना निमित्ते थतां विकारो वारंवार जोया छे, सांभळ्या छे अने
सेव्या पण छे. परंतु भगवान आत्मानुं एक अद्वैत ज केवळ दुर्लक्ष्य छे अर्थात्
तेने हजी सुधी जोयो नथी, सांभळ्यो नथी अने सेवन पण कर्युं नथी. भव्य
जीवोथी वंदित मोक्षरूप वृक्षना बीजभूत आ अद्वैत जयवंत हो. १.
(शार्दूलविक्रीडित)
अन्तर्बाह्यविकल्पजालरहितां शुद्धैकचिद्रूपिणीं
वन्दे तां परमात्मनः प्रणयिनीं कृत्यान्तगां स्वस्थताम्
यत्रानन्तचतुष्टयामृतसरित्यात्मानमन्तर्गतं
न प्राप्नोति जरादिदुःसहशिखो जन्मोग्रदावानलः
।।।।
अनुवाद : जे स्वस्थता अंतरंग अने बाह्य विकल्पोना समूह रहित छे,
शुद्ध एक चैतन्यस्वरूप सहित छे, परमात्मानी वल्लभा (प्रियतमा) छे, कृत्य