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जिवाश्रितस्य बहुतापकृतो यथावत्
धारात्रयं प्रवरवारिकृतं क्षिपामि
आगळ विधिपूर्वक उत्तम जळथी निर्मित त्रण धाराओनुं क्षेपण करूं छुं. १. जळधारा.
नाहं सुशीतलमपीह भवामि तद्वत्
त्वत्पादपङ्कजसमाश्रयणं करोति
विचारथी ज जाणे मारा द्वारा भेट करवामां आवेल कपूर मिश्रित ते चन्दन हे
भगवान्! आपना चरणकमळोनो आश्रय करे छे. २. चंदन.
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र्दत्ताधिकृत्य जिनमक्षतमक्षधूतैर्तैः
बद्धः शिरस्यतितरां श्रियमातनोति
छे. बराबर छे
विस्तारतो नथी. ३. अक्षत.
संपूजयामि शुचिपुष्पशरैर्मनोज्ञैः
तत्तत्र रम्यमधिकां कुरुते च लक्ष्मीम्
(ब्रह्मा आदि) कोईनी पण हुं तेमनाथी पूजा करतो नथी. कारण के ते पुष्पशर अर्थात्
कामने आधीन छे. बराबर छे
छे के जिन भगवान पासे पुष्पशर (कामवासना) नथी, तेथी हुं तेनी पुष्पशरोथी
(पुष्पमाळाओथी) पूजा करूं छुं. अन्य हरि, हर अने ब्रह्मा आदि पुष्पशर सहित छे; माटे
तेमनी पुष्पशरोथी पूजा करवामां कांई पण शोभा नथी. ए ज वात पुष्ट करवा माटे एम
पण कही देवामां आव्युं छे के ज्यां जे वस्तु नथी त्यां ज ते वस्तु मूकवाथी शोभा थाय
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ज जगत्विजयी कामदेव रहित होवाना कारणे पुष्पो द्वारा पूजवाने योग्य छे, नहि के उक्त
काम पीडित हरि-हर आदि. कारण ए छे के पूजक जेम कामरहित जिनेन्द्रनी पूजाथी स्वयं
पण कामरहित थई जाय छे तेवी रीते काम पीडित अन्यनी पूजा करवाथी ते कदी पण
तेनाथी रहित थई शकता नथी. ४. पुष्प.
नैवेद्यमिन्द्रियबलप्रदखाद्यमेतत्
शोभां बिभर्ति जगतो नयनोत्सवाय
आगळ स्थित ते नैवेद्य जगत्ना प्राणीओना नेत्रोने आनंददायक शोभा धारण करे
छे. ५. नैवेद्य.
स्वच्छे जिनस्य वपुषि प्रतिबिम्बितं सत्
दग्धुं परिभ्रमति कर्मचयं प्रचण्डः
कर्मसमूहने बाळवा माटे शोधती तीव्र ध्यानरूप अग्नि ज फरी रही होय. ६. दीप.
कुर्वन् मुखेषु चलनैरिह दिग्वधूनाम्
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प्रेङ्खद्वपुर्नटति पश्यत धूपधूमः
पत्रवल्ली (गाल उपर करवामां आवती रचना) ने करतो थको जिन भगवानना
आश्रयथी प्राप्त थयेल हर्षथी नाची ज रह्यो छे. ७. धूप.
नानाफलैर्जिनपतिं परिपूजयामि
मोहेन तत्तदपि याचत एव लोकः
आपे छे, तो पण मनुष्य अज्ञानथी फळनी याचना कर्या करे छे. ८. फळ.
स्तोत्रं च संमदरसाश्रितचित्तवृत्तिः
यच्छामि सर्वजनशान्तिकराय तस्मै
थईने सर्व जीवोने शान्ति प्रदान करनार ते जिनेन्द्रने पुष्पांजलि आपुं छुं. ९. अर्घ.
पूजादिना यदपि ते कृतकृत्यतायाः
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कार्या कृषिः फलकृते न तु भूपकृत्यै
पूजा आदिथी कांई पण प्रयोजन रह्युं नथी, तो पण मनुष्य पोताना कल्याण
माटे तमारी पूजा करे छे. बराबर पण छे
प्रयोजन (कुटुंब परिपालन आदि) ने साधवा माटे ते करे छे. बराबर एवी ज रीते
भक्तजनो जे जिनेन्द्र आदिनी पूजा करे छे ते कांई तेमने प्रसन्न करवा माटे करता नथी,
परंतु पोताना आत्मपरिणामोनी निर्मळता माटे ज करे छे. कारण ए छे के जिन भगवान
तो वीतराग (राग-द्वेष रहित) छे, तेथी तेनाथी तेमनी प्रसन्नता तो संभवती नथी; छतां
पण तेनाथी पूजा करनाराने परिणामोमां जे निर्मळता उत्पन्न थाय छे तेनाथी तेना पापकर्मोनो
रस क्षीण थाय छे अने पुण्यकर्मोनो अनुभाग वृद्धि पामे छे. आ रीते दुःखनो विनाश थईने
तेने सुखनी प्राप्ति स्वयमेव थाय छे. आचार्यप्रवर श्री समन्तभद्र स्वामीए पण एम ज कह्युं
छे
प्रयोजन रह्युं नथी. छतां पण पूजा आदि द्वारा थतुं आपना पवित्र गुणनुं स्मरण अमारा
चित्तने पापरूप कालिमाथी बचावे छे. [स्वयंभू स्तोत्र. ५७]. १०.
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जेथी मारे फरी जन्म न लेवो पडे अर्थात् हुं मुक्त थई जाउं. २.
हुं वारंवार आपने निवेदन करूं छुं. ३.
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पासे पोकारीने कहुं छुं. ४.
छो तो शुं दुष्ट कर्मो द्वारा पीडित मारा उपर दया नहि करो? अर्थात् अवश्य
करशो. ५.
बळेलो छुं अर्थात् पीडित छुं तेथी हुं घणो बकवादी बन्यो छुं. ६.
छुं त्यांसुधी ज सुखी रहुं छुं. ७.
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हुं वधारे शुं कहुं? शरणे आवेला आ जन (मारा) उपर आप दया करो. ८.
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संकेताश्रयवज्जिनेश्वर भवान् सर्वैर्गुणैराश्रितः
संग्राह्या इति गर्वितैः परिहृतो दोषैरशेषैरपि
कर्यो छे; तेथी मने एम लागे छे आपनामां स्थान प्राप्त न थवाथी ‘लोकमां अमे
सर्वत्र संग्रह करवाने योग्य छीए’ ए जातनुं अभिमान पामीने ज जाणे के बधा
दोषोए आपने छोडी दीधा छे.
अंदर एटला बधा गुणो प्रवेशी चुक्या हता के दोषोने माटे त्यां स्थान ज रह्युं नहोतुं. तेथी
जाणे तेमनाथी तिरस्कृत थवाने कारणे दोषोने ए अभिमान ज उत्पन्न थयुं हतुं के लोकमां
अमारो संग्रह तो बधा ज करवा इच्छे छे तो पछी जो आ जिन अमारी उपेक्षा करे छे तो
अमे एमनी पासे कदी पण नहि जईए. आ अभिमानने कारणे ज ते दोषोए जिनेन्द्रदेवने
छोडी दीधा हता. १.
स्तौति प्रभूतकवितागुणगर्वितात्मा
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गन्तुं जिनेन्द्र मतिविभ्रमतो बुधो ऽपि
स्तुति करे छे ते विद्वान होवा छतां पण जाणे बुद्धिनी विपरीतताथी (मूर्खताथी)
आकाशनो अंत पामवा माटे वृक्षना शिखर उपर ज चडे छे.
कवि स्तुति द्वारा तेमना अनंत गुणोनुं कीर्तन करवा इच्छे छे, तो एम समजवुं जोईए के ते पोताना
कवित्व गुणना अभिमानथी ज तेम करवाने उद्यत थयो छे. २.
विद्याधिपस्य भवतो विबुधार्चिताङ्ध्रेः
तच्चित्तमध्यगतभक्ति निवेदनाय
कोईपण समर्थ नथी. छतां पण हे जिनेन्द्र! जे मनुष्य आपनी स्तुति करे छे ते
पोताना चित्तमां रहेती भक्ति प्रगट करवा माटे ज करे छे. ३.
वाग्गोचरत्वमथ येन सुभक्ति भाजा
साध्वी स्तुतिर्भवतु मां किल कात्र चिन्ता
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ज प्रयोजन सिद्ध करनारी थाव. ४.
सेवां करोमि भवतश्चरणद्वयस्य
न त्वामितः परमहं जिन याचयामि
हे जिनेन्द्र! एथी अधिक हुं आपनी पासे बीजुं कांई मागतो नथी. ५.
मोक्षाय वृत्तमपि संप्रति दुर्घटं नः
देवास्ति सैव भवतु क्रमतस्तदर्थम्
अमारे माटे दुर्लभ ज छे. ए ज रीते ते मोक्षना कारणभूत जे चारित्र छे
ते पण शरीरनी दुर्बळताथी आ वखते अमने प्राप्त थई शकतुं नथी ए कारणे
आपना विषयमां जे मारी भक्ति छे ते ज क्रमशः मने मुक्तिनुं कारण
थाव. ६.
दधति दधतु दूरं मन्दतामिन्द्रियाणि
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परमिह जिननाथे भक्ति रेका ममास्तु
थाय छे तो थाव तथा जो विनाश थाय छे तो पण भले थाय. परंतु अहीं
मारी एक मात्र जिनेन्द्रना विषयमां भक्ति बनी रहो. ७.
संबन्धि यान्तु च समस्तदुरीहितानि
नाप्राप्तमस्ति किमपीह यतस्त्रिलोक्याम्
जाव, एथी अधिक हुं आपनी पासे बीजुं कांई नथी मागतो; कारण के त्रणे
लोकमां हजी सुधी जे प्राप्त न थयुं होय एवुं अन्य कांई पण नथी.
सिवाय बीजी कोई पण याचना करवामां आवी नथी. एनुं कारण ए आपवामां आव्युं छे
के अनंतकाळथी आ संसारमां परिभ्रमण करतां प्राणीए इन्द्र अने चक्रवर्ती आदिना पद तो
अनेक वार प्राप्त करी लीधां, परंतु रत्नत्रयनी प्राप्ति तेने हजी सुधी कदी थई नथी. तेथी
ते पूर्वे नहि प्राप्त थयेला रत्नत्रयनी ज अहीं याचना करवामां आवी छे. नीतिकार पण
ए ज कहे के
शान्तो ऽस्मि नष्टविपदस्मि विदस्मि देव
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प्राप्तो ऽस्मि चेदहमतीन्द्रियसौख्यकारि
छुं, आकुळता रहित छुं, शान्त छुं, विपत्तिओ रहित छुं अने ज्ञाता पण छुं. ९.
मूलोत्तरेषु च गुणेष्वथ गुप्तिकार्ये
मिथ्यास्तु नाथ जिनदेव तव प्रसादात्
मारी सदोष प्रवृत्ति थई होय ते आपना प्रसादथी मिथ्या थाव. १०.
प्रमोदितं कारितमत्र यन्मया
तऽस्तु मिथ्या जिन दुष्कृतं मम
होय अथवा प्राणीने पीडा उपजावता जीवने जोईने हर्ष प्रगट कर्यो होय; तेना
आश्रये थनार मारूं ते पाप मिथ्या थाव. ११.
कायात्संवृतिवर्जितादनुचितं कर्मार्जितं यन्मया
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रेषा मोक्षफलप्रदा किल कथं नास्मिन् समर्था भवेत्
अर्थात् सावद्य वचन द्वारा तथा संवर रहित शरीर द्वारा जे में अनुचित (पाप)
कर्म उत्पन्न कर्युं छे ते तमारा चरण-कमळना स्मरणथी नाश पामो. बराबर पण
छे जे तमारा चरण-कमळनुं स्मरण मोक्षरूप फळ आपे छे ते आ (पापविनाश)
कार्यमां केम समर्थ न थाय? अवश्य थशे. १२.
सद्मन्यसौ प्रवरदीपशिखासमाना
कालत्रये प्रकटिताखिलवस्तुतत्त्वा
नागकुमारोथी वंदनीय छे; तथा त्रणे काळनी वस्तुओना स्वरूपने प्रगट करनारी
छे; ते अहीं प्रमाण (सत्य) छे.
दीपक जो प्रभासहित होय छे तो ते वाणी पण अनेकान्तरूप प्रभासहित छे; दीपशिखाने जो
केटलाक मनुष्यो ज वंदन करे छे तो जिनवाणीने मनुष्यो, देवो अने असुरो पण वंदन करे
छे; तथा दीपशिखा जो वर्तमाननी केटलीक ज वस्तुओने प्रगट करे छे तो ते जिनवाणी त्रणेय
काळनी समस्त वस्तुओने प्रगट करे छे. आ रीते दीपशिखा समान होवा छतां पण ते
जिनवाणीनुं स्वरूप अपूर्व ज छे. १३.
यदूनमभवन्मनोवचनकायवैकल्यतः
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कुतोऽत्र किल मा
माता! तुं क्षमा कर. कारण ए छे के अनेक भवोमां उपार्जित अने अज्ञान
उत्पन्न करनार कर्मोनो उदय रहेवाथी मारा जेवा मनुष्यमां तेवी निपुणता
क्यांथी होई शके? अर्थात् होई शके नहि. १४.
नरैः पठयते यैस्त्रिसंध्यं च तेषाम्
न पूर्णा क्रिया सापि पूर्णत्वमेति
पण पूर्ण थई जाय छे. १६.
गतो ऽस्मि शरणं विभो भवभिया भवन्तं प्रति
श्रितं सु
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माटे आ ज तत्त्व बताव्युं छे, तेथी में द्रढचित्त करीने आनुं ज आलंबन लीधुं छे
कारण ए छे के अहीं संसारनो नाश करनार तमे ज छो. १७.
भव्याब्जनन्दिवचनांशुरवेस्तवाग्रे
तद्भूरिभक्ति रभसस्थितमानसेन
मनुष्य अने देव आदि भव्य जीवो रूप कमळोने पोताना वचनरूप किरणो द्वारा
प्रफुल्लित करो छो. आपनी आगळ जे विद्वता विनाना में आ वाचाळता (स्तुति)
करी छे ते केवळ आपनी महान भक्तिना वेगमां मन स्थित होवाथी अर्थात् मनमां
अतिशय भक्ति होवाथी ज करी छे. १८.
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ज्योतिना विषयमां हुं कांईक कहुं छुं . १.
तेनी ज आराधना करे छे, तेना आराध्य (पूजनीय) बीजुं कोई रहेतुं नथी. २.
घणा कर्मोथी पण डरतो नथी. ३.
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हेय छे ज. तेथी मने एवा संसारसुखथी बस थाव
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ज रीते रहे छे. ८.
थई शकतुं नथी. ९.
जाय छे, अर्थात् तेने मोक्ष प्राप्त थई जाय छे. १०.
पण शो डर छे? अर्थात् ते धर्म होतां न तो आपत्तिनी चिन्ता रहे छे अने न
मरणनो डर पण रहे छे. ११.
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बीजं मोक्षतरोरिदं विजयते भव्यात्मभिर्वन्दितम्
सेव्या पण छे. परंतु भगवान आत्मानुं एक अद्वैत ज केवळ दुर्लक्ष्य छे अर्थात्
तेने हजी सुधी जोयो नथी, सांभळ्यो नथी अने सेवन पण कर्युं नथी. भव्य
जीवोथी वंदित मोक्षरूप वृक्षना बीजभूत आ अद्वैत जयवंत हो. १.
वन्दे तां परमात्मनः प्रणयिनीं कृत्यान्तगां स्वस्थताम्
न प्राप्नोति जरादिदुःसहशिखो जन्मोग्रदावानलः