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नदी समान होवाथी जेनी अंदर प्राप्त थयेल आत्माने जरा (वृद्धत्व) आदिरूप
असह्य ज्वाळावाळी जन्म (संसार) रूप तीक्ष्ण वनाग्नि प्राप्त थती नथी; एवी
ते अनंतचतुष्टयस्वरूप स्वस्थताने हुं नमस्कार करुं छुं. २.
प्यानन्दः परमात्मसंनिधिगतः किंचित्समुन्मीलति
तामानन्दकलां विशालविलसद्बोधां करिष्यत्यसौ
थाय छे. ते ज बुद्धि थोडो काळ पामीने अर्थात् थोडा ज समयमां समस्त शील
अने गुणोना आधारभूत अने प्रगट थयेल विपुल ज्ञान (केवळज्ञान) संपन्न ते
आनंदनी कळा उत्पन्न करशे. ३.
प्रेमाङ्गे ऽपि न मेऽस्ति संप्रति सुखी तिष्ठाम्यहं केवलः
निर्विण्णः खलु तेन तेन नितरामेकाकिता रोचते
सुखी छुं. अहीं संसार परिभ्रमणमां चिरकाळथी जे मने संयोगना निमित्ते कष्ट
थयुं छे तेनाथी हुं विरक्त थयो छुं तेथी हवे मने एकाकीपणुं (अद्वैत) अत्यंत
रुचे छे. ४.
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सो ऽहं नापरमस्ति किंचिदपि मे तत्त्वं सदेतत्परम्
श्रुत्वा शास्त्रशतानि संप्रति मनस्येतच्छुतं वर्तते
तत्त्व छे. चैतन्यस्वरूपथी भिन्न जे क्रोधादि विभावभाव अथवा शरीर आदि छे ते
सर्व अन्य अर्थात् कर्मथी उत्पन्न थया छे. सेंकडो शास्त्रो सांभळीने अत्यारे मारा
मनमां आ ज एक शास्त्र (अद्वैत तत्त्व) वर्तमान छे. ५.
काले दुःख[ष]मसंज्ञके ऽत्र यदपि प्रायो न तीव्रं तपः
मन्तः शुद्धचिदात्मगुप्तमनसः सर्वं परं तेन किम्
तप पण संभवित नथी, तो पण ए कोई खेदनी वात नथी, केम के ए अशुभ
कर्मोनी पीडा छे. अंदर शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मामां मनने सुरक्षित करनार मने
ते कर्मकृत पीडाथी शुं प्रयोजन छे? अर्थात् कांई पण नथी. ६.
यत्तस्मात्पृथगेव स द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्
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छे ते ज हुं छुं, तेना सिवाय हुं बीजुं नथी. बराबर पण छे
ज होय छे. कारण ए छे के लोकमां जे कांई विकार थाय छे ते बे पदार्थोना
निमित्ते ज थाय छे.
होती ते स्वभावथी निर्मळ अने श्वेतवर्णनो ज रहे छे. ज्यां सुधी तेनी पासे कोई अन्य
रंगनी वस्तु रहे छे त्यां सुधी तेमां बीजो रंग जोवामां आवे छे अने ते त्यांथी खसी
जतां पछी स्फटिकमणिमां ते विकृत रंग रहेतो नथी. बराबर ए ज रीते आत्मानी साथे
ज्ञानावरणादि अनेक कर्मोनो संयोग रहे त्यांसुधी ज तेमां अज्ञान अने राग-द्वेष आदि
विकारभाव जोवामां आवे छे. परंतु ते वास्तवमां तेना नथी, ते तो स्वभावथी शुद्ध ज्ञान
त्यारपछी शीतळता ज तेमां रहे छे, जे सदा रहेनारी छे. ७.
सापत्सुष्ठु गरीयसी पुनरहो यः श्रीमतां संगमः
संपर्कः स मुमुक्षुचेतसि सदा मृत्योरपि क्लेशकृत
छे ते तो तेमने अतिशय महान आपत्तिस्वरूप लागे छे. ए उपरांत संपत्तिना
अभिमानरूप मद्यपानथी विकळ थईने ऊंचुं मुख राखनारा एवा राजाओ साथे जे
संयोग थाय छे ते तो ते मोक्षाभिलाषी साधुना मनमां निरंतर मृत्युथी पण अधिक
कष्टकारक होय छे. ८.
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मा किंचिद्धनमस्तु मा वपुरिदं रुग्वर्जितं जायताम्
नित्यानन्दपदप्रदं गुरुवचो जागर्ति चेच्चेतसि
न आपे तो न आपो, मारी पासे कांई पण धन न होय, आ शरीर रोग रहित
न हो अर्थात् रोगवाळु पण हो तथा मने नग्न जोईने लोको निन्दा पण करो; तो
पण मने तेमां जराय खेद नहि थाय. ९.
नित्यं दुर्गतिपल्लिपातिकुपथे भ्राम्यन्ति सर्वे ऽङ्गिनः
यात्यानन्दकरं परं स्थिरतरं निर्वाणमेकं परम्
जता कुमार्गथी युक्त छे, तेमां सर्व प्राणी सदा परिभ्रमण करे छे. उक्त संसाररूपी
वननी अंदर जे मनुष्य उत्तम गुरु द्वारा बताववामां आवेला मार्गे (मोक्षमार्गमां)
गमन शरू करी दे छे ते ते अद्वितीय मोक्षरूप नगरने प्राप्त थाय छे, जे आनंद
आपनार छे, उत्कृष्ट छे तथा अत्यंत स्थिर (अविनश्वर) पण छे. १०.
स्तत्कर्मैव तदन्यदात्मन इदं जानन्ति ये योगिनः
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वात जे योगी जाणे छे तथा जेमनी बुद्धि आ जातना भेदनी भावनानो आश्रय
लई चूकी छे ते योगीओना मनमां ‘हुं सुखी छुं. अथवा हुं दुःखी छुं’ आ प्रकारना
विकल्पथी मलिन कळा क्यांथी स्थान प्राप्त करी शके? अर्थात् ते योगीओना मनमां
तेवो विकल्प कदी उत्पन्न थतो नथी. ११.
सर्वं भक्ति परा वयं व्यवहृते मार्गे स्थिता निश्चयात्
स्फारीभूतमतिप्रबन्धमहसामात्मैव तत्त्वं परम्
निश्चयथी अभेद (अद्वैत)नो आश्रय लेवाथी प्रगट थयेल चैतन्यगुणथी प्रकाशमां
आवेली बुद्धिना विस्ताररूप तेज सहित अमारे माटे केवळ आत्मा ज उत्कृष्ट
तत्त्व रहे छे.
एथी तेने पुण्यकर्मनो बंध थाय छे जे निश्चयमार्गनी प्राप्तिनुं साधन थाय छे. पछी ज्यारे
ते निश्चयमार्ग उपर आरूढ थई जाय छे त्यारे तेनी बुद्धि अभेद (अद्वैत)नो आश्रय लई
ले छे. ते एम समजवा लागे छे के स्त्री, पुत्र अने मित्र तथा जे शरीर निरंतर आत्मा
साथे संबंधवाळुं रहे छे ते पण मारूं नथी; हुं चैतन्यनो एक पिंड छुं
परतंत्र राखे छे. माटे आ द्रष्टिए ते पूज्य
त्यांसुधी तेणे व्यवहारमार्गनुं आलंबन लईने जिनपूजनादि शुभ कार्यो करवा ज जोईए, नहि
तो तेनो संसार दीर्घ थई शके छे. १२.
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घर्मः शर्महरो ऽस्तु दंशमशकं क्लेशाय संपद्यताम्
र्मोक्षं प्रत्युपदेशनिश्चलमतेर्नात्रापि किंचिद्भयम्
पीडित करे, घाम (सूर्यनो ताप) सुखनुं अपहरण करे, डांस
शरूआत करी दे; तो पण एमनो मने कांई पण भय नथी. १३.
चेद्रूपादिकृषिक्षमां बलवता बोधारिणा त्याजितः
यत्किंचिद्भवितात्र तेन च भवो ऽप्यालोक्यते नष्टवत्
रूपादि विषयरूप खेतीनी भूमिथी भ्रष्ट करवामां आव्युं छे, छतां पण जे कांई
थवानुं छे तेना विषयमां अत्यारे चिन्ता करतो नथी. आ रीते संसारने नष्ट थया
समान देखे छे.
जेवुं माने छे. छतां पण ते भवितव्यने मुख्य मानीने तेनी कांई चिंता करतो नथी. बराबर
ए ज प्रमाणे सर्व शक्तिमान आत्माने ज्यारे सम्यग्ज्ञानरूप शत्रु द्वारा रूप
मरेलुं समजे छे अने तेनी कांई पण चिंता करतो नथी. परंतु त्यारे ते पोताना संसारने नष्ट
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विषयोमां अनुराग रहेतो नथी. ते वखते ते इन्द्रियोने नष्ट थया समान मानीने मुक्तिने हाथमां
आवेली ज समजे छे. १४.
रात्मैकत्वविशुद्धबोधनिलयो निःशेषसंगोज्झितः
नावद्येन स लिप्यते ऽब्जदलवत्तोयेन पद्माकरे
परिग्रहनो परित्याग करी दीधो छे तथा जेमनुं मन निरंतर आत्मानी एकतानी भावनाने
आश्रित रहे छे; ते संयमी पुरुष लोकमां रहेवा छतां पण ए रीते पापथी लेपाता नथी
जेवी रीते तळावमां स्थित कमळपत्र पाणीथी लेपातुं नथी. १५.
जातानन्दवशान्ममेन्द्रियसुखं दुःखं मनो मन्यते
यावन्नो सितशर्करातिमधुरा संतर्पिणी लभ्यते
प्रभावथी मारूं मन इन्द्रियविषयजनित सुखने दुःखरूप ज माने छे. बराबर छे
सुधी ज स्वादिष्ट लागे छे ज्यांसुधी अतिशय मीठी सफेद साकर (मिश्री) तृप्त करनार
प्राप्त थती नथी. १६.
दुर्घ्यानाक्षसुखं पुनः स्मृतिपथप्रस्थाय्यपि स्यात्कुतः
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च्छीतां प्राप्य च वापिकां विशति कस्तत्रैव धीमान् नरः
थई शके? अर्थात् निर्ग्रन्थताजन्य सुखनी सामे इन्द्रियविषयजन्य सुख तुच्छ लागे
छे, तेथी तेनी चाह नष्ट थई जाय छे. बराबर छे
वावने प्राप्त करतो क्यो बुद्धिमान पुरुष फरीथी ते ज जलता घरमां प्रवेश करे?
अर्थात् कोई करतो नथी. १७.
तद्भूतार्थपरिग्रहो भवति किं क्वापि स्पृहालुर्मुनिः
तत्त्वज्ञानपरायणेन सततं स्थात्व्यमग्राहिणा
करनार मुनि शुं कोई पण पदार्थना विषयमां इच्छायुक्त होय छे? अर्थात् नथी होतो.
आ रीते मनमां उपर्युक्त विचार करीने शुद्ध आत्मा साथे संबंध राखता मुनिए
परिग्रह रहित थईने निरंतर तत्त्वज्ञानमां तत्पर रहेवुं जोईए. १८.
शीर्यन्ते विषयास्तथा विरमति प्रीतिः शरीरे ऽपि च
चिन्तायामपि यातुमिच्छति समं दोषेर्मनः पञ्चताम्
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इन्द्रियविषय विलीन थई जाय छे, शरीरनी बाबतमां पण प्रेमनो अंत आवी जाय
छे, एकांतमां मौन प्रतिभासित थाय छे तथा तेवी दशामां दोषोनी साथे मन पण
मरवानी इच्छा करे छे.
थतो रस (आनंद) नीरस प्रतिभासवा लागे छे. अन्य इन्द्रिय विषयोनी तो वात ज शुं, परंतु
ते वखते तेने पोताना शरीर उपर पण अनुराग रहेतो नथी. ते एकांतस्थानमां मौनपूर्वक स्थित
थईने आत्मानंदमां मग्न रहे छे अने आ रीते ते अज्ञानादि दोषो अने समस्त मानसिक विकल्पोथी
रहित थईने अजर-अमर बनी जाय छे. १९.
तद्वाच्यं व्यवहारमार्गपतितं शिष्यार्पणे जायते
शिष्योने प्रबोध कराववा माटे व्यवहारमार्गमां पडीने वचननो विषय पण थाय छे.
ते आत्मतत्त्वनुं विवरण करवा माटे न तो मारामां तेवी प्रतिभाशालिता (निपुणता)
छे अने न ते प्रकारनुं ज्ञानेय छे. माटे मारा जेवो मन्दबुद्धि मनुष्य मौननुं अवलंबन
लईने ज स्थित रहे छे.
ते माटे वचनोनो आश्रय लईने तेमना द्वारा तेमने बोध कराववामां आवे छे. आ
व्यवहारमार्ग छे, कारण के वाच्य
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बोध करावी शकाय छे ते मारामां नथी, तेथी हुं तेनुं विशेष विवरण न करतां मौननो ज
आश्रय लउं छुं. २०.
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विष्मूत्रादिभृतं क्षुधादिविलसद्दुःखाखुभिश्छिद्रितम्
चेदेतत्तदपि स्थिरं शुचितरं मूढो जनो मन्यते
मूत्रादिथी परिपूर्ण छे तथा प्रगट थयेल भूख, तरस आदि दुःखोरूप उंदरोद्वारा
छिद्रोवाळी करवामां आवी छे; आवी ते शरीररूप झूंपडी जो के पोते ज वृद्धत्वरूप अग्नि
द्वारा प्राप्त कराय छे तो पण अज्ञानी मनुष्य तेने स्थिर अने अतिशय पवित्र माने छे.
द्वारा जे अहीं तहीं छिद्रो करवामां आवे छे तेनाथी ते नबळी थई जाय छे. तेमां जो कदाच
आग लागी जाय तो ते जोतजोतामां ज भस्म थई जाय छे. बराबर ए ज जातनुं आ शरीर
पण छे
ए विशेषता छे के ते तो समय प्रमाणे नियमथी वृद्धत्व (बुढापा) थी व्याप्त थईने नाश पामवानुं
छे. परंतु ते झुंपडी तो कदाच ज असावधानीने कारणे अग्नि आदिथी व्याप्त थईने नष्ट थाय
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तेना निमित्ते अनेक प्रकारनां दुःखो सहन करे छे. १.
शौचस्नानविधानवारिविहितप्रक्षालनं रुग्भूतम्
तत्रान्नं वसनानि पट्टकमहो तत्रापि रागी जनः
रसथी परिपूर्ण छे, पवित्रता सूचक स्नानने सिद्ध करनार जळथी जेने धोवामां
आवे छे, छतां पण जे रोगोथी परिपूर्ण छे; एवा ते मनुष्यना शरीरने उत्कृष्ट
बुद्धिना धारक विद्वानो नस साथे संबंधवाळा गूमडा आदिना जख्म समान बतावे
छे. तेमां अन्न (आहार) तो औषध समान छे अने वस्त्र पाटा समान छे छतां
पण आश्चर्य छे के तेमां पण मनुष्य अनुराग करे छे.
छे तेवी ज रीते शरीरमां पण ते रहे ज छे. घावमांथी जो निरंतर परू अने लोही वगेरे
वह्या करे छे तो आ शरीरमांथी पण निरंतर परसेवो वगेरे वह्या ज करे छे. घावने जो
जळथी धोईने स्वच्छ करवामां आवे छे तो आ शरीरने पण जळथी स्नान करावीने स्वच्छ
करवामां आवे छे, घाव जेम रोगथी पूर्ण छे तेवी ज रीते शरीर पण रोगोथी परिपूर्ण छे.
घावने रुझववा माटे जो दवा लगाडवामां आवे छे तो शरीरने भोजन आपवामां आवे छे,
तथा जो घावने पाटाथी बांधवामां आवे छे तो आ शरीरने पण वस्त्रोथी ढांकवामां आवे छे.
आ रीते शरीरमां घावनी समानता होवा छतां पण आश्चर्य एक ए ज छे के घावने तो
मनुष्य इच्छतो नथी परंतु आ शरीरमां ते अनुराग करे छे. २.
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चन्दन आदि द्वारा पवित्रतानो स्वीकार करे? अर्थात् कोई पण बुद्धिमान मनुष्य
स्वभावथी अपवित्र ते मनुष्य शरीरने स्नानादि द्वारा शुद्ध मानी शकता नथी. ३.
स्याच्चेन्मोहकुजन्मरन्ध्ररहितं शुष्कं तपोघर्मतः
तत्तत्तत्र नियोजितं वरमथासारं सदा सर्वथा
(सूकायेल) अने अंदर गुरुता रहित होय तो संसाररूप नदी पार कराववामां समर्थ
थाय छे. माटे तेने मोह अने कुजन्मरहित करीने तपमां लगाववुं ते उत्तम छे. ए
विना ते सदा अने सर्व प्रकारे निःसार छे.
जो ते तुंबडी छेद रहित, तडकामां सूकवेली अने वचमां गौरव (भारेपणा) रहित होय तो नदीमां
तरवाना काममां आवे छे. बराबर ए ज रीते जो आ शरीर पण मोह अने दुष्कुळरूप छेद रहित,
तपथी क्षीण अने गौरव (अभिमान) रहित होय तो ते संसाररूपी नदी पार थवामां सहायक
थाय छे. तेथी जे भव्य प्राणी संसाररूप नदीथी पार थईने शाश्वत सुख प्राप्त करवा इच्छे छे
तेमणे आ दुर्लभ मनुष्य शरीरने तप आदिमां लगाववुं जोईए. नहितर तेने फरीथी प्राप्त करवुं
बहु मुश्केल थशे. ४.
भवति यदनुभावादक्षया मोक्षलक्ष्मीः
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तेनाथी मने कोई जातनो खेद नथी. एनुं कारण ए छे के उक्त गुरुना उपदेशना
प्रभावथी असाधारण अने उत्कृष्ट आनंदना कारणभूत अविनश्वर मोक्षलक्ष्मी शीघ्र
ज प्राप्त थाय छे. ५.
विष्टा स्यादथवा वपुःपरिणतिस्तस्ये
कः पापं कुरुते बुधो ऽत्र भविता कष्टा यतो दुर्गतिः
थई जाय छे, ते शरीरनुं परिणमन एवुं ज थाय छे. औषधि आदि द्वारा पण नित्य
नथी. परंतु विनश्वर ज छे, तो भला क्यो विद्वान् मनुष्य एना विषयमां पापकार्य
करे? अर्थात् कोई पण विद्वान् तेना निमित्ते पापकर्म करतो नथी. कारण ए छे के
ते पापथी नरकादि दुर्गति ज प्राप्त थाय छे. ६.
वह्नेर्लोहसमाश्रितस्य घनतो घाताद्यतो निष्ठुरात्
नो भूयो ऽपि ययात्मनो भवकृते तत्संनिधिर्जायते
युक्तिथी छोडवुं जोईए के जेथी संसारना कारणभूत ते शरीरनो संबंध आत्मा साथे
फरीथी न थई शके.
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पण तेनी साथे अनेक प्रकारना दुःख सहेवा पडे छे. तेथी ग्रन्थकार कहे छे के तप आदि
द्वारा ते शरीरने आ रीते छोडवानो प्रयास करवो जोईए. के जेथी फरीथी तेनी प्राप्ति न
थाय. कारण ए छे के आ मनुष्य शरीरनी प्राप्ति करीने जो तेना द्वारा साध्य संयम अने
तप आदिनुं आचरण न कर्युं तो प्राणीने ते शरीर फरी फरी प्राप्त थतुं ज रहेशे अने तेथी
शरीरनी साथे कष्टो पण सहन करवा ज पडशे. ७.
कालदिष्टजरा करोत्यनुदिनं तज्जर्जरं चानयोः
साक्षात्कालपुरःसरा यदि तदा कास्था स्थिरत्वे नृणाम्
एक पेली वृद्धावस्था ज विजयी थाय छे कारण के तेनी आगळ साक्षात् काळ
(यमराज) स्थित छे. आवी हालतमां ज्यां शरीरनी आ स्थिति छे तो पछी
तेनी स्थिरतामां मनुष्योनो क्यो प्रयत्न चाली शके? अर्थात् तेनो कोई पण प्रयत्न
चाली शकतो नथी. ८.
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विष्मूत्रादिभृतं रसादिघटितं बीभत्सु यत्पूति च
संकेतैकगृहं नृणां वपुरपां स्नानात्कथं शुद्धयति
सात धातुओथी रचायेलुं छे, भयानक छे; दुर्गन्धयुक्त छे अने जे निर्मळ आत्माने
पण मलिन करे छे; एवुं समस्त अपवित्रताओना एक संकेतगृह समान आ मनुष्योनुं
शरीर जळना स्नानथी केवी रीते शुद्ध थई शके? अर्थात् थई शके नहि. १.
कायश्चाशुचिरेव तेन शुचितामभ्येति नो जातुचित्
तेषां भूजलकीटकोटिहननात्पापाय रागाय च
कदी ते स्नान द्वारा पवित्र थई शकतुं नथी. आ रीते स्नाननी व्यर्थता बन्नेय प्रकारे
सिद्ध थाय छे. छतां पण जे लोको ते स्नान करे छे ते तेने माटे करोडो पृथ्वीकायिक,
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थाय छे.
छे के उक्त स्नान द्वारा आत्मा तो पवित्र थतो नथी कारण के ते पोते ज पवित्र छे. वळी तेनाथी
शरीरनी शुद्धि थती होय, तो ए पण कही शकातुं नथी; कारण के ते स्वभावथी ज अपवित्र छे.
जेम कोलसाने पाणीथी घसी घसीने धोवा छतां पण ते कदी काळापणुं छोडी शकतो नथी अथवा
मळथी भरेलो घडो कदी बहार साफ करवाथी शुद्ध थई शकतो नथी. तेवी ज रीते मळ
स्नाननी व्यर्थता सिद्ध थाय छे. छतां पण जे लोको स्नान करे छे तेओ जळकायिक, पृथ्वीकायिक
अने अन्य त्रस जीवोनो पण तेना द्वारा घात करे छे; माटे ते केवळ हिंसाजनित पापना भागीदार
थाय छे. ते सिवाय तेओ शरीरनी बाह्य स्वच्छतामां राग पण राखे छे, ए पण पापनुं ज कारण
छे. अभिप्राय ए छे के निश्चयद्रष्टिथी विचार करतां स्नान द्वारा शरीर तो शुद्ध थतुं नथी, उल्टुं
जीवहिंसा अने आरंभ आदि ज तेनाथी थाय छे. ए ज कारणे मुनिओना मूळगुणोमां ज तेनो
निषेध करवामां आव्यो छे. परंतु व्यवहारनी अपेक्षाए ते अनावश्यक नथी, परंतु गृहस्थने माटे
ते आवश्यक पण छे. कारण के तेना विना शरीर तो मलिन रहे ज छे. साथे मन पण मलिन
रहे छे. स्नान विना जिनपूजादि शुभ कार्योमां प्रसन्नता पण रहेती नथी. हा, ए अवश्य छे के
बाह्य शुद्धिनी साथे ज अभ्यंतर शुद्धिनुं पण ध्यान जरूर राखवुं जोईए. जो अंतरंगमां मद
मिथ्यात्वादिमलव्यपायजनकः स्नानं विवेकः सताम्
न्नो धर्मो न पवित्रता खलु ततः काये स्वभावाशुचौ
थाय छे ते ज वास्तवमां सज्जन पुरुषोनुं स्नान छे. एनाथी भिन्न जे जळकृत स्नान
छे ते प्राणीसमूहने पीडाजनक होवाथी पाप करनार छे. तेनाथी न तो धर्म संभवे
छे अने न स्वभावथी अपवित्र शरीरनी पवित्रता पण संभवे छे. ३.
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नित्यानन्दविशेषशैत्यसुभगे निःशेषपापद्रुहि
शुद्धयर्थं किमु धावत त्रिपथगामालपयासाकुलाः
अविनश्वर आनंदविशेषरूप (अनंतसुख) शैत्यथी मनोहर छे तथा समस्त पापोने नष्ट
करनार छे. तेमां तमे निरंतर स्नान करो. व्यर्थ परिश्रमथी व्याकुळ थईने शुद्धि माटे
गंगा तरफ केम दोडो छो? अर्थात् गंगा आदिमां स्नान करवाथी कांई अंतरंग शुद्धि
थई शकती नथी, ते तो परमात्माना स्मरण अने तेना स्वरूप चिंतन आदिथी ज
थई शके छे, माटे तेमां ज अवगाहन करवुं जोईए. ४.
तीर्थाभाससुरापगादिषु जडा मज्जन्ति तुष्यन्ति च
नदी पण क्यांक जोता नथी तेथी ते मूर्खाओ पापनो नाश करवाना विषयमां
यथार्थभूत आ समीचीन तीर्थो छोडीने तीर्थ जेवा जणाता गंगा आदि तीर्थाभासोमां
स्नान करीने संतुष्ट थाय छे. ५.
निःशेषाशुचि येन मानुषवपुः साक्षादिदं शुद्धयति
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शश्वत्तापकरं यथास्य वपुषो नामाप्यसह्यं सताम्
शुद्ध थई शके, आधि (मानसिक कष्ट), व्याधि ( शारीरिक कष्ट), घडपण (वृद्धावस्था)
अने मरण आदिथी व्याप्त आ शरीर निरंतर एटलुं संतापकारक छे के सज्जनोने
तेनुं नाम लेवुं पण असह्य लागे छे. ६.
कर्पूरादिविलेपनैरपि सदा लिप्तं च दुर्गन्धभृत्
यत्तस्माद्वपुषः किमन्यदशुभं कष्टं च किं प्राणिनाम्
सुगंधी लेपो द्वारा लेप पण करवामां आवे तो पण ते दुर्गन्ध धारण करे छे तथा
जो एनुं प्रयत्नपूर्वक रक्षण पण करवामां आवे तो पण ते क्षयना मार्गे ज प्रस्थान
करशे अर्थात् नष्ट थशे. आ रीते जे शरीर सर्व प्रकारे दुःख आपे छे तेनाथी वधारे
प्राणीओने बीजुं क्युं अशुभ अने कष्ट होई शके? अर्थात् प्राणीओने सौथी अधिक
अशुभ अने कष्ट आपनार आ शरीर ज छे, अन्य कोई नथी. ७.
पीत्वा कर्णपुटेर्भवन्तु सुखिनः स्नानाष्टकाख्यामृतम्
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व्याकुळ छे, तथा ए ज कारणे जेमनी सम्यग्दर्शनरूप द्रष्टि अतिशय मंद थई गई
छे ते भव्य जीव श्रीमान् पद्मनन्दि मुनिना मुखरूप चंद्रबिंबथी उत्पन्न थयेल आ
उत्कृष्ट ‘स्नानाष्टक’ नामनुं अमृत कानवडे पीने सुखी थाव.
जो ते वखते चंद्रबिंबमांथी उत्पन्न थयेल अमृतनी प्राप्ति थई जाय, तो ते तेने पीने विषरहित
थयो थको पूर्व चेतना प्राप्त करी ले छे. बराबर एवी ज रीते जे प्राणी सर्प समान अनेक भवोमां
उपार्जित दर्शनमोहनीयना उदयथी मिथ्याभावने प्राप्त थयेल ज्ञान (मिथ्याज्ञान) द्वारा विवेकशून्य
थई गया छे तथा जेमनुं सम्यग्दर्शन मंद पडी गयुं छे तेओ जो पद्मनन्दि मुनिए रचेल आ
‘स्नानाष्टक’ प्रकरण कानो वडे सांभळे तो अविवेक नष्ट थई जवाथी तेओ अवश्यमेव प्रबोध पामे,
कारण के आ स्नानाष्टक प्रकरण अमृत समान सुख आपनार छे. ८.