Padmanandi Panchvinshati-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 3-20 (23. Paramarthvinshati),1 (24. Sharirashtak),2 (24. Sharirashtak),3 (24. Sharirashtak),4 (24. Sharirashtak),5 (24. Sharirashtak),6 (24. Sharirashtak),7 (24. Sharirashtak),8 (24. Sharirashtak),1 (25. Snanashtak),2 (25. Snanashtak),3 (25. Snanashtak),4 (25. Snanashtak),5 (25. Snanashtak),6 (25. Snanashtak),7 (25. Snanashtak),8 (25. Snanashtak); 24. Sharirashtak; 25. Snanashtak.

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(कार्य) नो अंत पामी चूकी छे अर्थात् कृतकृत्य छे तथा अनंतचतुष्टयरूप अमृतनी
नदी समान होवाथी जेनी अंदर प्राप्त थयेल आत्माने जरा (वृद्धत्व) आदिरूप
असह्य ज्वाळावाळी जन्म (संसार) रूप तीक्ष्ण वनाग्नि प्राप्त थती नथी; एवी
ते अनंतचतुष्टयस्वरूप स्वस्थताने हुं नमस्कार करुं छुं. २.
(शार्दूलविक्रीडित)
एकत्वस्थितये मतिर्यदनिशं संजायते मे तया-
प्यानन्दः परमात्मसंनिधिगतः किंचित्समुन्मीलति
किंचित्कालमवाप्य सैव सकलैः शीलैर्गुणैराश्रितां
तामानन्दकलां विशालविलसद्बोधां करिष्यत्यसौ
।।।।
अनुवाद : एकत्व (अद्वैत) मां स्थिति, माटे जे मारी निरंतर बुद्धि थाय
छे तेना निमित्ते परमात्मानी समीपताने प्राप्त थयेल आनंद थोडो एक प्रगट
थाय छे. ते ज बुद्धि थोडो काळ पामीने अर्थात् थोडा ज समयमां समस्त शील
अने गुणोना आधारभूत अने प्रगट थयेल विपुल ज्ञान (केवळज्ञान) संपन्न ते
आनंदनी कळा उत्पन्न करशे. ३.
(शार्दूलविक्रीडित)
केनाप्यस्ति न कार्यमाश्रितवता मित्रेण चान्येन वा
प्रेमाङ्गे ऽपि न मेऽस्ति संप्रति सुखी तिष्ठाम्यहं केवलः
संयोगेन यदत्र कष्टमभवत्संसारचक्रे चिरं
निर्विण्णः खलु तेन तेन नितरामेकाकिता रोचते
।।।।
अनुवाद : मारे आश्रयमां प्राप्त थयेल कोई पण मित्र अथवा शत्रुनुं
प्रयोजन नथी, मने आ शरीरमां पण प्रेम रह्यो नथी, अत्यारे हुं एकलो ज
सुखी छुं. अहीं संसार परिभ्रमणमां चिरकाळथी जे मने संयोगना निमित्ते कष्ट
थयुं छे तेनाथी हुं विरक्त थयो छुं तेथी हवे मने एकाकीपणुं (अद्वैत) अत्यंत
रुचे छे. ४.

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(शार्दूलविक्रीडित)
यो जानाति स एव पश्यति सदा चिद्रूपतां न त्यजेत्
सो ऽहं नापरमस्ति किंचिदपि मे तत्त्वं सदेतत्परम्
यच्चान्यत्तदशेषमन्यजनितं क्रोधादि कायादि वा
श्रुत्वा शास्त्रशतानि संप्रति मनस्येतच्छुतं वर्तते
।।।।
अनुवाद : जे जाणे छे ते ज देखे छे अने ते निरंतर चैतन्यस्वरूपने छोडतो
नथी. ते ज हुं छुं, एनाथी भिन्न बीजुं मारूं कोई स्वरूप नथी. आ समीचीन उत्कृष्ट
तत्त्व छे. चैतन्यस्वरूपथी भिन्न जे क्रोधादि विभावभाव अथवा शरीर आदि छे ते
सर्व अन्य अर्थात् कर्मथी उत्पन्न थया छे. सेंकडो शास्त्रो सांभळीने अत्यारे मारा
मनमां आ ज एक शास्त्र (अद्वैत तत्त्व) वर्तमान छे. ५.
(शार्दूलविक्रीडित)
हीनं संहननं परीषहसहं नाभूदिदं सांप्रतं
काले दुःख[ष]मसंज्ञके ऽत्र यदपि प्रायो न तीव्रं तपः
कश्चिन्नातिशयस्तथापि यदसावार्तं हि दुष्कर्मणा-
मन्तः शुद्धचिदात्मगुप्तमनसः सर्वं परं तेन किम्
।।।।
अनुवाद : जो के अत्यारे आ संहनन (हाडकानुं बंधन) परीषहो (क्षुधा,
तृषा आदि) सहन करी शकतुं नथी अने आ दुःषमा नामना पांचमा काळे तीव्र
तप पण संभवित नथी, तो पण ए कोई खेदनी वात नथी, केम के ए अशुभ
कर्मोनी पीडा छे. अंदर शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मामां मनने सुरक्षित करनार मने
ते कर्मकृत पीडाथी शुं प्रयोजन छे? अर्थात् कांई पण नथी. ६.
(शार्दूलविक्रीडित)
सद्द्रग्बोधमयं विहाय परमानन्दस्वरूपं परं
ज्योतिर्नान्यदहं विचित्रविलसत्कर्मैकतायामपि
कार्ष्णो कृष्णपदार्थसंनिधिवशाज्जाते मणौ स्फाटिके
यत्तस्मात्पृथगेव स द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्
।।।।

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अनुवाद : अनेक प्रकारना विलासवाळा कर्मो साथे मारी एकता होवा
छतां पण जे उत्कृष्ट ज्योति सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने उत्कृष्ट आनंदस्वरूप
छे ते ज हुं छुं, तेना सिवाय हुं बीजुं नथी. बराबर पण छे
स्फटिकमणिमां
काळा पदार्थना संबंधथी काळाश उत्पन्न थवा छतां पण ते ते मणिथी भिन्न
ज होय छे. कारण ए छे के लोकमां जे कांई विकार थाय छे ते बे पदार्थोना
निमित्ते ज थाय छे.
विशेषार्थ : जो के स्फटिकमणिमां कोई बीजा काळा पदार्थना निमित्ते कालिमा अने
जपापुष्पना संसर्गथी लालिमा अवश्य जोवामां आवे छे परंतु ते वास्तविक रीते तेनी नथी
होती ते स्वभावथी निर्मळ अने श्वेतवर्णनो ज रहे छे. ज्यां सुधी तेनी पासे कोई अन्य
रंगनी वस्तु रहे छे त्यां सुधी तेमां बीजो रंग जोवामां आवे छे अने ते त्यांथी खसी
जतां पछी स्फटिकमणिमां ते विकृत रंग रहेतो नथी. बराबर ए ज रीते आत्मानी साथे
ज्ञानावरणादि अनेक कर्मोनो संयोग रहे त्यांसुधी ज तेमां अज्ञान अने राग-द्वेष आदि
विकारभाव जोवामां आवे छे. परंतु ते वास्तवमां तेना नथी, ते तो स्वभावथी शुद्ध ज्ञान
दर्शनस्वरूप ज छे. वस्तुमां जे विकारभाव थाय छे ते कोई बीजा पदार्थना निमित्ते ज
थाय छे. माटे ते तेनो कही शकातो नथी, कारण के ते थोडा ज वखत सुधी रहे छे जेम
अग्निना संयोगथी जळमां रहेती उष्णता थोडा समय (अग्नि संयोग) सुधी ज रहे छे,
त्यारपछी शीतळता ज तेमां रहे छे, जे सदा रहेनारी छे. ७.
(शार्दूलविक्रीडित)
आपत्सापि यतेः परेण सह यः संगो भवेत्केनचित्
सापत्सुष्ठु गरीयसी पुनरहो यः श्रीमतां संगमः
यस्तु श्रीमदमद्यपानविकलैरुतानितास्यैर्नृपैः
संपर्कः स मुमुक्षुचेतसि सदा मृत्योरपि क्लेशकृत
।।।।
अनुवाद : साधुने कोई परवस्तु साथे जे संयोग थाय छे ते पण तेमने
आपत्तिस्वरूप लागे छे, वळी जे श्रीमानो (धनवानो) साथे तेमनो समागम थाय
छे ते तो तेमने अतिशय महान आपत्तिस्वरूप लागे छे. ए उपरांत संपत्तिना
अभिमानरूप मद्यपानथी विकळ थईने ऊंचुं मुख राखनारा एवा राजाओ साथे जे
संयोग थाय छे ते तो ते मोक्षाभिलाषी साधुना मनमां निरंतर मृत्युथी पण अधिक
कष्टकारक होय छे. ८.

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(शार्दूलविक्रीडित)
स्निग्धा मा मुनयो भवन्तु गृहिणो यच्छन्तु मा भोजनं
मा किंचिद्धनमस्तु मा वपुरिदं रुग्वर्जितं जायताम्
नग्नं मामवलोक्य निन्दतु जनस्तत्रापि खेदो न मे
नित्यानन्दपदप्रदं गुरुवचो जागर्ति चेच्चेतसि
।।।।
अनुवाद : जो मारा हृदयमां नित्य आनंदप्रद अर्थात् मोक्षपद आपनारी
गुरुनी वाणी जागे छे तो मुनिजनो स्नेह करनार भले न होय, गृहस्थो जो भोजन
न आपे तो न आपो, मारी पासे कांई पण धन न होय, आ शरीर रोग रहित
न हो अर्थात् रोगवाळु पण हो तथा मने नग्न जोईने लोको निन्दा पण करो; तो
पण मने तेमां जराय खेद नहि थाय. ९.
(शार्दूलविक्रीडित)
दुःखघ्यालसमाकुले भववने हिंसादिदोषद्रुमे
नित्यं दुर्गतिपल्लिपातिकुपथे भ्राम्यन्ति सर्वे ऽङ्गिनः
तन्मध्ये सुगुरुप्रकाशितपथे प्रारब्धयानो जनः
यात्यानन्दकरं परं स्थिरतरं निर्वाणमेकं परम्
।।१०।।
अनुवाद : जे संसाररूपी वन दुःखोरूप सर्पो (अथवा हाथीओ) थी व्याप्त
छे. हिंसा आदि दोषरूप वृक्षो सहित छे तथा नरकादि दुर्गतिरूप भील वस्ती तरफ
जता कुमार्गथी युक्त छे, तेमां सर्व प्राणी सदा परिभ्रमण करे छे. उक्त संसाररूपी
वननी अंदर जे मनुष्य उत्तम गुरु द्वारा बताववामां आवेला मार्गे (मोक्षमार्गमां)
गमन शरू करी दे छे ते ते अद्वितीय मोक्षरूप नगरने प्राप्त थाय छे, जे आनंद
आपनार छे, उत्कृष्ट छे तथा अत्यंत स्थिर (अविनश्वर) पण छे. १०.
(शार्दूलविक्रीडित)
यत्सातं यदसातमङ्गिषु भवेत्तत्कर्मकार्यं तत-
स्तत्कर्मैव तदन्यदात्मन इदं जानन्ति ये योगिनः
द्रग्भेदविभावनाश्रितधियां तेषां कुतो ऽहं सुखी
दुःखी चेति विकल्पकल्मषकला कुर्यात्पदं चेतसि ।।११।।

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अनुवाद : प्राणीओने जे सुख-दुःखनो अनुभव थाय छे ते कर्म (शाता अने
अशाता वेदनीय)नुं कार्य छे तेथी ते कर्म ज छे अने ते आत्माथी भिन्न छे आ
वात जे योगी जाणे छे तथा जेमनी बुद्धि आ जातना भेदनी भावनानो आश्रय
लई चूकी छे ते योगीओना मनमां ‘हुं सुखी छुं. अथवा हुं दुःखी छुं’ आ प्रकारना
विकल्पथी मलिन कळा क्यांथी स्थान प्राप्त करी शके? अर्थात् ते योगीओना मनमां
तेवो विकल्प कदी उत्पन्न थतो नथी. ११.
(शार्दूलविक्रीडित)
देवं तत्प्रतिमां गुरुं मुनिजनं शास्त्रादि मन्यामहे
सर्वं भक्ति परा वयं व्यवहृते मार्गे स्थिता निश्चयात्
अस्माकं पुनरेकताश्रयणतो व्यक्तीभवच्चिद्गुण-
स्फारीभूतमतिप्रबन्धमहसामात्मैव तत्त्वं परम्
।।१२।।
अनुवाद : व्यवहारमार्गमां स्थित अमे भक्तिमां तत्पर थईने जिनदेव,
जिनप्रतिमा, गुरु, मुनिजन अने शास्त्र आदि सर्वेने मानीए छीए. परंतु
निश्चयथी अभेद (अद्वैत)नो आश्रय लेवाथी प्रगट थयेल चैतन्यगुणथी प्रकाशमां
आवेली बुद्धिना विस्ताररूप तेज सहित अमारे माटे केवळ आत्मा ज उत्कृष्ट
तत्त्व रहे छे.
विशेषार्थ : जीव ज्यांसुधी व्यवहारमार्गमां स्थित रहे छे त्यां सुधी ते जिन
भगवान अने तेमनी प्रतिमा आदिने पूज्य मानीने यथायोग्य तेमनी पूजा आदि करे छे.
एथी तेने पुण्यकर्मनो बंध थाय छे जे निश्चयमार्गनी प्राप्तिनुं साधन थाय छे. पछी ज्यारे
ते निश्चयमार्ग उपर आरूढ थई जाय छे त्यारे तेनी बुद्धि अभेद (अद्वैत)नो आश्रय लई
ले छे. ते एम समजवा लागे छे के स्त्री, पुत्र अने मित्र तथा जे शरीर निरंतर आत्मा
साथे संबंधवाळुं रहे छे ते पण मारूं नथी; हुं चैतन्यनो एक पिंड छुं
तेना सिवाय अन्य
कांई पण मारुं नथी. आ अवस्थामां तेने पूज्यपूजकभावनुं द्वैत पण रहेतुं नथी. कारण
ए छे के पूज्यपूजकभावरूप बुद्धि पण रागनी परिणति छे जे पुण्यबंधनुं कारण थाय छे.
आ पुण्यकर्म पण जीवने देवेन्द्र अने चक्रवर्ती आदिना पदोमां स्थित करीने संसारमां ज
परतंत्र राखे छे. माटे आ द्रष्टिए ते पूज्य
पूजकभाव पण हेय छे. उपादेय केवळ एक
सच्चिदानंदमय आत्मा ज छे. परंतु ज्यांसुधी प्राणीने आ प्रकारनी द्रढता प्राप्त नथी थती
त्यांसुधी तेणे व्यवहारमार्गनुं आलंबन लईने जिनपूजनादि शुभ कार्यो करवा ज जोईए, नहि
तो तेनो संसार दीर्घ थई शके छे. १२.

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(शार्दूलविक्रीडित)
वर्षं हर्षमपाकरोतु तुदतु स्फीता हिमानी तनुं
घर्मः शर्महरो ऽस्तु दंशमशकं क्लेशाय संपद्यताम्
अन्यैर्वा बहुभिः परीषहभटैरारभ्यतां मे मृति-
र्मोक्षं प्रत्युपदेशनिश्चलमतेर्नात्रापि किंचिद्भयम्
।।१३।।
अनुवाद : जो हुं मोक्षविषयक उपदेशथी बुद्धिनी स्थिरता प्राप्त करी
लउं छुं तो भले वर्षाकाळ मारो हर्ष नष्ट करे, विस्तृत महान् शीत शरीरने
पीडित करे, घाम (सूर्यनो ताप) सुखनुं अपहरण करे, डांस
मच्छर क्लेशनुं
कारण थाय अथवा बीजा पण अनेक परीषहरूप सुभट मारा मरणनी पण
शरूआत करी दे; तो पण एमनो मने कांई पण भय नथी. १३.
(शार्दूलविक्रीडित)
चक्षुर्मुख्यहृषीक कर्षकमयो ग्रामो मृतो मन्यते
चेद्रूपादिकृषिक्षमां बलवता बोधारिणा त्याजितः
तच्चिन्तां न च सो ऽपि संप्रति करोत्यात्मा प्रभुः शक्ति मान्
यत्किंचिद्भवितात्र तेन च भवो ऽप्यालोक्यते नष्टवत्
।।१४।।
अनुवाद : जे शक्तिशाळी आत्मारूप प्रभु चक्षु आदि इन्द्रियोरूप
किसानोथी निर्मित गामने मरेलुं समजे छे तथा जे ज्ञानरूप बळवान शत्रु द्वारा
रूपादि विषयरूप खेतीनी भूमिथी भ्रष्ट करवामां आव्युं छे, छतां पण जे कांई
थवानुं छे तेना विषयमां अत्यारे चिन्ता करतो नथी. आ रीते संसारने नष्ट थया
समान देखे छे.
विशेषार्थ : जेम कोई शक्तिशाळी गामना स्वामीनी जो अन्य प्रबळ शत्रु द्वारा
खेती योग्य जमीन छीनवी लेवामां आवे तो ते पोताना खेडूतोथी परिपूर्ण ते गामने मरेला
जेवुं माने छे. छतां पण ते भवितव्यने मुख्य मानीने तेनी कांई चिंता करतो नथी. बराबर
ए ज प्रमाणे सर्व शक्तिमान आत्माने ज्यारे सम्यग्ज्ञानरूप शत्रु द्वारा रूप
रसादिरूप खेती
योग्य भूमिथी भ्रष्ट करी देवामां आवे छेविवेकबुद्धि उत्पन्न थतां ज्यारे ते रूप-रसादिस्वरूप
इन्द्रियविषयोमां अनुराग रहित थई जाय छे, त्यारे ते पण ते इन्द्रियरूप किसानोना गामने
मरेलुं समजे छे अने तेनी कांई पण चिंता करतो नथी. परंतु त्यारे ते पोताना संसारने नष्ट

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थयेला जेवो समजवा लागे छे. तात्पर्य ए छे के एकत्वबुद्धि उत्पन्न थतां जीवने इन्द्रिय
विषयोमां अनुराग रहेतो नथी. ते वखते ते इन्द्रियोने नष्ट थया समान मानीने मुक्तिने हाथमां
आवेली ज समजे छे. १४.
(शार्दूलविक्रीडित)
कर्मक्षत्युपशान्तिकारणवशात्सद्देशनाया गुरो-
रात्मैकत्वविशुद्धबोधनिलयो निःशेषसंगोज्झितः
शश्वत्तद्गतभावनाश्रितमना लोके वसन् संयमी
नावद्येन स लिप्यते ऽब्जदलवत्तोयेन पद्माकरे
।।१५।।
अनुवाद : जे संयमी कर्मना क्षय अथवा उपशमना कारण वशे तथा गुरुना
सदुपदेशथी आत्मानी एकता विषय निर्मळ ज्ञाननुं स्थान बनी गया छे, जेमणे समस्त
परिग्रहनो परित्याग करी दीधो छे तथा जेमनुं मन निरंतर आत्मानी एकतानी भावनाने
आश्रित रहे छे; ते संयमी पुरुष लोकमां रहेवा छतां पण ए रीते पापथी लेपाता नथी
जेवी रीते तळावमां स्थित कमळपत्र पाणीथी लेपातुं नथी. १५.
(शार्दूलविक्रीडित)
गुर्वङ्ध्रिद्वयदत्तमुक्ति पदवीप्राप्त्यर्थनिर्ग्रन्थता-
जातानन्दवशान्ममेन्द्रियसुखं दुःखं मनो मन्यते
सुस्वादुः प्रतिभासते किल खलस्तावत्समासादितो
यावन्नो सितशर्करातिमधुरा संतर्पिणी लभ्यते
।।१६।।
अनुवाद : गुरुना चरणयुगल द्वारा मुक्ति पदवी प्राप्त करवा माटे जे
निर्ग्रन्थता (दिगंबरत्व) आपवामां आव्युं छे तेना निमित्ते उत्पन्न थयेल आनंदना
प्रभावथी मारूं मन इन्द्रियविषयजनित सुखने दुःखरूप ज माने छे. बराबर छे
प्राप्त थयेलो खोळ (तेल काढी लीधा पछी जे तल आदिनो भाग शेष रहे छे) त्यां
सुधी ज स्वादिष्ट लागे छे ज्यांसुधी अतिशय मीठी सफेद साकर (मिश्री) तृप्त करनार
प्राप्त थती नथी. १६.
(शार्दूलविक्रीडित)
निर्ग्रन्थत्वमुदा ममोज्ज्वलतरध्यानाश्रितस्फीतया
दुर्घ्यानाक्षसुखं पुनः स्मृतिपथप्रस्थाय्यपि स्यात्कुतः

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निर्गत्योद्गतवातबोधितशिखिज्वालाकरालाद्गृहा-
च्छीतां प्राप्य च वापिकां विशति कस्तत्रैव धीमान् नरः
।।१७।।
अनुवाद : अतिशय निर्मळ ध्यानना आश्रये विस्तार पामेल निर्ग्रन्थता
जनित आनंद प्राप्त थई जतां खोटा ध्यानथी इन्द्रियसुख स्मरणनो विषय क्यांथी
थई शके? अर्थात् निर्ग्रन्थताजन्य सुखनी सामे इन्द्रियविषयजन्य सुख तुच्छ लागे
छे, तेथी तेनी चाह नष्ट थई जाय छे. बराबर छे
उत्पन्न थयेल वायु द्वारा प्रगट
करवामां आवेल अग्निनी ज्वाळाथी भयानक एवा घरनी अंदरथी नीकळीने शीतळ
वावने प्राप्त करतो क्यो बुद्धिमान पुरुष फरीथी ते ज जलता घरमां प्रवेश करे?
अर्थात् कोई करतो नथी. १७.
(शार्दूलविक्रीडित)
जायेतोद्गतमोहतो ऽभिलषिता मोक्षे ऽपि सा सिद्धिहृत्
तद्भूतार्थपरिग्रहो भवति किं क्वापि स्पृहालुर्मुनिः
इत्यालोचनसंगतैकमनसा शुद्धात्मसंबन्धिना
तत्त्वज्ञानपरायणेन सततं स्थात्व्यमग्राहिणा
।।१८।।
अनुवाद : मोहना उदयथी जे मोक्षना विषयमां पण अभिलाषा थाय छे
ते सिद्धि (मुक्ति)ने नष्ट करे छे तेथी भूतार्थ (सत्यार्थ) अर्थात् निश्चयनयने ग्रहण
करनार मुनि शुं कोई पण पदार्थना विषयमां इच्छायुक्त होय छे? अर्थात् नथी होतो.
आ रीते मनमां उपर्युक्त विचार करीने शुद्ध आत्मा साथे संबंध राखता मुनिए
परिग्रह रहित थईने निरंतर तत्त्वज्ञानमां तत्पर रहेवुं जोईए. १८.
(शार्दूलविक्रीडित)
जायन्ते विरसा रसा विघटते गोष्ठीकथाकौतुकं
शीर्यन्ते विषयास्तथा विरमति प्रीतिः शरीरे ऽपि च
मौनं च प्रतिभासते ऽपि च रहः प्रायो मुमुक्षोश्चितः
चिन्तायामपि यातुमिच्छति समं दोषेर्मनः पञ्चताम्
।।१९।।
अनुवाद : चैतन्यस्वरूप आत्माना चिंतनमां मुमुक्षु जनोना रस नीरस थई

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जाय छे, भेगा मळीने परस्पर चालती कथाओनुं कुतूहल नष्ट थई जाय छे,
इन्द्रियविषय विलीन थई जाय छे, शरीरनी बाबतमां पण प्रेमनो अंत आवी जाय
छे, एकांतमां मौन प्रतिभासित थाय छे तथा तेवी दशामां दोषोनी साथे मन पण
मरवानी इच्छा करे छे.
विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के ज्यांसुधी प्राणीनुं आत्मस्वरूप तरफ लक्ष्य नथी होतुं
त्यांसुधी तेने संगीत सांभळवामां, नृत्य परिपूर्ण नाटक आदि देखवामां, परस्पर कथावार्ता
करवामां तथा शृंगारादिपूर्ण नवलकथा आदि वांचवासांभळवामां आनंद आवे छे. परंतु जेवो तेना
हृदयमां आत्मस्वरूपनो बोध उदय पामे छे तेवो ज तेने उपर्युक्त इन्द्रियविषयोना निमित्ते प्राप्त
थतो रस (आनंद) नीरस प्रतिभासवा लागे छे. अन्य इन्द्रिय विषयोनी तो वात ज शुं, परंतु
ते वखते तेने पोताना शरीर उपर पण अनुराग रहेतो नथी. ते एकांतस्थानमां मौनपूर्वक स्थित
थईने आत्मानंदमां मग्न रहे छे अने आ रीते ते अज्ञानादि दोषो अने समस्त मानसिक विकल्पोथी
रहित थईने अजर-अमर बनी जाय छे. १९.
(शार्दूलविक्रीडित)
तत्त्वं वागतिवर्ति शुद्धनयतो यत्सर्वपक्षच्युतं
तद्वाच्यं व्यवहारमार्गपतितं शिष्यार्पणे जायते
प्रागल्भ्यं न तथास्ति तत्र विवृतौ बोधो न ताद्रग्विघः
तेनायं ननु माद्रशो जडमतिर्मौनाश्रितस्तिष्ठति ।।२०।।
अनुवाद : जे तत्त्व शुद्धनिश्चयनयनी अपेक्षाए वचननो अविषय (अवक्तव्य)
तथा नित्यत्वादि सर्व विकल्पो रहित छे ते ज शिष्योने आपवाना विषयमां अर्थात्
शिष्योने प्रबोध कराववा माटे व्यवहारमार्गमां पडीने वचननो विषय पण थाय छे.
ते आत्मतत्त्वनुं विवरण करवा माटे न तो मारामां तेवी प्रतिभाशालिता (निपुणता)
छे अने न ते प्रकारनुं ज्ञानेय छे. माटे मारा जेवो मन्दबुद्धि मनुष्य मौननुं अवलंबन
लईने ज स्थित रहे छे.
विशेषार्थ : जो शुद्ध निश्चयनयनी अपेक्षाए वस्तुना शुद्ध स्वरूपनो विचार करवामां
आवे तो ते वचनो द्वारा कही ज शकातुं नथी. परंतु तेनुं परिज्ञान शिष्योने प्राप्त थाय,
ते माटे वचनोनो आश्रय लईने तेमना द्वारा तेमने बोध कराववामां आवे छे. आ
व्यवहारमार्ग छे, कारण के वाच्य
वाचकनो आ द्वैतभाव त्यां ज संभवे छे, नहि के
निश्चयमार्गमां. ग्रन्थकर्ता श्री पद्मनन्दि मुनि पोतानी लघुता प्रगट करतां अहीं कहे छे के

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व्यवहारमार्गनुं अवलंबन लईने पण जे प्रतिभा अथवा ज्ञान द्वारा शिष्योने ते आत्मतत्त्वनो
बोध करावी शकाय छे ते मारामां नथी, तेथी हुं तेनुं विशेष विवरण न करतां मौननो ज
आश्रय लउं छुं. २०.
आ रीते परमार्थविंशति अधिकार समाप्त थयो. २३.

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२४. शरीराष्टक
[२४. शरीराष्टकम् ]
(शार्दूलविक्रीडित)
दुर्गन्धाशुचिधातुभित्तिकलितं संछादितं चर्मणा
विष्मूत्रादिभृतं क्षुधादिविलसद्दुःखाखुभिश्छिद्रितम्
क्लिष्टं कायकुटीरकं स्वयमपि प्राप्तं जरावह्निना
चेदेतत्तदपि स्थिरं शुचितरं मूढो जनो मन्यते
।।।।
अनुवाद : जे शरीररूपी झूंपडी दुर्गंधयुक्त अपवित्र रस, रुधिर अने अस्थि
आदि धातुओरूप भींतो (दीवालो) ने आश्रित छे, चामडाथी विंटळायेल छे, विष्टा अने
मूत्रादिथी परिपूर्ण छे तथा प्रगट थयेल भूख, तरस आदि दुःखोरूप उंदरोद्वारा
छिद्रोवाळी करवामां आवी छे; आवी ते शरीररूप झूंपडी जो के पोते ज वृद्धत्वरूप अग्नि
द्वारा प्राप्त कराय छे तो पण अज्ञानी मनुष्य तेने स्थिर अने अतिशय पवित्र माने छे.
विशेषार्थ : अहीं शरीरने झुंपडीनी उपमा आपीने एम बताव्युं छे के जेम वांस
आदिथी निर्मित भींतोना आश्रये रहेती झुंपडी घास के पांदडाओथी ढंकायेली रहे छे. एमां उंदरो
द्वारा जे अहीं तहीं छिद्रो करवामां आवे छे तेनाथी ते नबळी थई जाय छे. तेमां जो कदाच
आग लागी जाय तो ते जोतजोतामां ज भस्म थई जाय छे. बराबर ए ज जातनुं आ शरीर
पण छे
एमां भींतोना स्थाने दुर्गंधवाळी अने अपवित्र रस-रुधिरादि धातुओ छे, घास आदिना
स्थाने एने ढांकनार चामडुं छे. तथा अहीं उंदरोना स्थाने भूखतरस आदिथी थतुं विपुल दुःख
छे जे तेने निरंतर निर्बळ बनावे छे. आ रीते झुंपडी समान होवा छतां पण तेना करतां शरीरमां
ए विशेषता छे के ते तो समय प्रमाणे नियमथी वृद्धत्व (बुढापा) थी व्याप्त थईने नाश पामवानुं
छे. परंतु ते झुंपडी तो कदाच ज असावधानीने कारणे अग्नि आदिथी व्याप्त थईने नष्ट थाय

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छे. आवी अवस्था होवा छतां पण आश्चर्य ए ज के अज्ञानी प्राणी तेने स्थिर अने पवित्र समजीने
तेना निमित्ते अनेक प्रकारनां दुःखो सहन करे छे. १.
(शार्दूलविक्रीडित)
दुर्गन्धं कृमिकीटजालकलितं नित्यं स्रवद्दूरसं
शौचस्नानविधानवारिविहितप्रक्षालनं रुग्भूतम्
मानुष्यं वपुराहुरुन्नतधियो नाडीव्रणं भेषजं
तत्रान्नं वसनानि पट्टकमहो तत्रापि रागी जनः
।।।।
अनुवाद : जे आ मनुष्यनुं शरीर दुर्गन्ध सहित छे, लट अने क्षुद्र
जंतुओना समूहथी व्याप्त छे, निरंतर वहेता परसेवा अने नाक आदिना दूषित
रसथी परिपूर्ण छे, पवित्रता सूचक स्नानने सिद्ध करनार जळथी जेने धोवामां
आवे छे, छतां पण जे रोगोथी परिपूर्ण छे; एवा ते मनुष्यना शरीरने उत्कृष्ट
बुद्धिना धारक विद्वानो नस साथे संबंधवाळा गूमडा आदिना जख्म समान बतावे
छे. तेमां अन्न (आहार) तो औषध समान छे अने वस्त्र पाटा समान छे छतां
पण आश्चर्य छे के तेमां पण मनुष्य अनुराग करे छे.
विशेषार्थ : अहीं मनुष्यना शरीरने जख्म समान बतावीने बन्नेमां समानता
बताववामां आवी छे. जेम केजेवी रीते घाव दुर्गंधसहित होय छे तेवी ज रीते आ शरीर
पण दुर्गन्ध युक्त छे, घावमां जेवी रीते कृमि अने बीजा नाना नाना जंतुओनो समूह रहे
छे तेवी ज रीते शरीरमां पण ते रहे ज छे. घावमांथी जो निरंतर परू अने लोही वगेरे
वह्या करे छे तो आ शरीरमांथी पण निरंतर परसेवो वगेरे वह्या ज करे छे. घावने जो
जळथी धोईने स्वच्छ करवामां आवे छे तो आ शरीरने पण जळथी स्नान करावीने स्वच्छ
करवामां आवे छे, घाव जेम रोगथी पूर्ण छे तेवी ज रीते शरीर पण रोगोथी परिपूर्ण छे.
घावने रुझववा माटे जो दवा लगाडवामां आवे छे तो शरीरने भोजन आपवामां आवे छे,
तथा जो घावने पाटाथी बांधवामां आवे छे तो आ शरीरने पण वस्त्रोथी ढांकवामां आवे छे.
आ रीते शरीरमां घावनी समानता होवा छतां पण आश्चर्य एक ए ज छे के घावने तो
मनुष्य इच्छतो नथी परंतु आ शरीरमां ते अनुराग करे छे. २.
(उपजाति)
नृणामशेषाणि सदैव सर्वथा वपूंषि सर्वाशुचिभाञ्जि निश्चितम्
ततः क एतेषु बुधः प्रपद्यते शुचित्वमम्बुप्लुतिचन्दनादिभिः ।।।।

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अनुवाद : मनुष्योना समस्त शरीर सदा अने सर्व प्रकारे नियमथी अपवित्र
रहे छे. तेथी आ शरीरोना विषयमां क्यो बुद्धिमान मनुष्य जळनिर्मित स्नान अने
चन्दन आदि द्वारा पवित्रतानो स्वीकार करे? अर्थात् कोई पण बुद्धिमान मनुष्य
स्वभावथी अपवित्र ते मनुष्य शरीरने स्नानादि द्वारा शुद्ध मानी शकता नथी. ३.
(शार्दूलविक्रीडित)
तिक्तेष्वा [क्ष्वा]कुफलोपमं वपुरिदं नैवोपभोग्यं नृणां
स्याच्चेन्मोहकुजन्मरन्ध्ररहितं शुष्कं तपोघर्मतः
नान्तर्गौरवितं तदा भवनदीतारे क्षमं जायते
तत्तत्तत्र नियोजितं वरमथासारं सदा सर्वथा
।।।।
अनुवाद : आ मनुष्योनुं शरीर कडवी तुंबडी समान छे, तेथी ते उपभोग
योग्य नथी, जो ते मोह अने कुजन्मरूप छिद्रोरहित, तपरूप घाम(तडका) थी शुष्क
(सूकायेल) अने अंदर गुरुता रहित होय तो संसाररूप नदी पार कराववामां समर्थ
थाय छे. माटे तेने मोह अने कुजन्मरहित करीने तपमां लगाववुं ते उत्तम छे. ए
विना ते सदा अने सर्व प्रकारे निःसार छे.
विशेषार्थ : अहीं मनुष्यना शरीरने कडवी तुंबडीनी उपमा आपीने एम बताव्युं छे
के जेम कडवी तुंबडी खावा योग्य होती नथी तेवी ज रीते आ शरीर पण अनुराग योग्य नथी.
जो ते तुंबडी छेद रहित, तडकामां सूकवेली अने वचमां गौरव (भारेपणा) रहित होय तो नदीमां
तरवाना काममां आवे छे. बराबर ए ज रीते जो आ शरीर पण मोह अने दुष्कुळरूप छेद रहित,
तपथी क्षीण अने गौरव (अभिमान) रहित होय तो ते संसाररूपी नदी पार थवामां सहायक
थाय छे. तेथी जे भव्य प्राणी संसाररूप नदीथी पार थईने शाश्वत सुख प्राप्त करवा इच्छे छे
तेमणे आ दुर्लभ मनुष्य शरीरने तप आदिमां लगाववुं जोईए. नहितर तेने फरीथी प्राप्त करवुं
बहु मुश्केल थशे. ४.
(मालिनी)
भवतु भवतु याद्रक् ताद्रगेतद्वपुर्मे
हृदि गुरुवचनं चेदस्ति तत्तत्वदर्शि
त्वरितमसमसारानन्दकन्दायमाना
भवति यदनुभावादक्षया मोक्षलक्ष्मीः
।।।।

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अनुवाद : जो हृदयमां जीवादि पदार्थोना यथार्थ स्वरूपने प्रगट करनार
गुरुनो उपदेश स्थित होय तो मारूं जेवुं आ शरीर होय ते तेवुं बनी रहो अर्थात्
तेनाथी मने कोई जातनो खेद नथी. एनुं कारण ए छे के उक्त गुरुना उपदेशना
प्रभावथी असाधारण अने उत्कृष्ट आनंदना कारणभूत अविनश्वर मोक्षलक्ष्मी शीघ्र
ज प्राप्त थाय छे. ५.
(शार्दूलविक्रीडित)
पर्यन्ते कृमयो ऽथ वह्निवशतो भस्मैव मत्स्यादनात्
विष्टा स्यादथवा वपुःपरिणतिस्तस्ये
द्रशी जायते
नित्यं नैव रसायनादिभिरपि क्षय्येव यत्तत्कृते
कः पापं कुरुते बुधो ऽत्र भविता कष्टा यतो दुर्गतिः
।।।।
अनुवाद : आ शरीर अंते अर्थात् प्राणरहित थतां कीडास्वरूप अथवा
अग्निने वश थईने भस्मस्वरूप अथवा माछलीओए खावाथी विष्ठा (मळ) स्वरूप
थई जाय छे, ते शरीरनुं परिणमन एवुं ज थाय छे. औषधि आदि द्वारा पण नित्य
नथी. परंतु विनश्वर ज छे, तो भला क्यो विद्वान् मनुष्य एना विषयमां पापकार्य
करे? अर्थात् कोई पण विद्वान् तेना निमित्ते पापकर्म करतो नथी. कारण ए छे के
ते पापथी नरकादि दुर्गति ज प्राप्त थाय छे. ६.
(शार्दूलविक्रीडित)
संसारस्तनुयोग एष विषयो दुःखान्यतो देहिनो
वह्नेर्लोहसमाश्रितस्य घनतो घाताद्यतो निष्ठुरात्
त्याज्या तेन तनुर्मुमुक्षुभिरियं युक्त्वा महत्या तया
नो भूयो ऽपि ययात्मनो भवकृते तत्संनिधिर्जायते
।।।।
अनुवाद : आ शरीरनो संबंध ज संसार छे, तेनाथी विषयमां प्रवृत्ति थाय
छे जेथी प्राणीने दुःख थाय छे. बराबर छेलोढानो आश्रय लेनार अग्निने कठोर
घणना घा सहन करवा पडे छे. तेथी मोक्षार्थी भव्य जीवोए आ शरीर एवी महान्
युक्तिथी छोडवुं जोईए के जेथी संसारना कारणभूत ते शरीरनो संबंध आत्मा साथे
फरीथी न थई शके.

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विशेषार्थ : पहेलां लोढाने अग्निमां खूब तपाववामां आवे छे. पछी तेने घणथी
टीपीटीपीने तेना साधनो बनाववामां आवे छे. आ कार्यमां जेम लोढानी संगतिथी नकामा
ज अग्निने पण घणथी कराता घा सहेवा पडे छे तेवी ज रीते शरीरनी संगतिथी आत्माने
पण तेनी साथे अनेक प्रकारना दुःख सहेवा पडे छे. तेथी ग्रन्थकार कहे छे के तप आदि
द्वारा ते शरीरने आ रीते छोडवानो प्रयास करवो जोईए. के जेथी फरीथी तेनी प्राप्ति न
थाय. कारण ए छे के आ मनुष्य शरीरनी प्राप्ति करीने जो तेना द्वारा साध्य संयम अने
तप आदिनुं आचरण न कर्युं तो प्राणीने ते शरीर फरी फरी प्राप्त थतुं ज रहेशे अने तेथी
शरीरनी साथे कष्टो पण सहन करवा ज पडशे. ७.
(शार्दूलविक्रीडित)
रक्षापोषविधौ जनो ऽस्य वपुषः सर्वः सदैवोद्यतः
कालदिष्टजरा करोत्यनुदिनं तज्जर्जरं चानयोः
स्पर्धामाश्रितयोर्द्वयोर्विजयिनी सैका जरा जायते
साक्षात्कालपुरःसरा यदि तदा कास्था स्थिरत्वे नृणाम्
।।।।
अनुवाद : सर्व प्राणी आ शरीरना रक्षण अने पोषणमां निरंतर
प्रयत्नशील रहे छे, त्यां काळद्वारा आदिष्ट जरामृत्युथी प्रेरित वृद्धावस्था तेने
प्रतिदिन निर्बळ करे छे. आ रीते जाणे परस्पर स्पर्धा पामेला ज आ बन्नेमां
एक पेली वृद्धावस्था ज विजयी थाय छे कारण के तेनी आगळ साक्षात् काळ
(यमराज) स्थित छे. आवी हालतमां ज्यां शरीरनी आ स्थिति छे तो पछी
तेनी स्थिरतामां मनुष्योनो क्यो प्रयत्न चाली शके? अर्थात् तेनो कोई पण प्रयत्न
चाली शकतो नथी. ८.
आ रीते शरीराष्टक अधिकार समाप्त थयो. २४.

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२५. स्नानाष्टक
[२५. स्नानाष्टकम् ]
(शार्दूलविक्रीडित)
सन्माल्यादि यदीयसंनिधिवशादस्पृश्यतामाश्चयेद्
विष्मूत्रादिभृतं रसादिघटितं बीभत्सु यत्पूति च
आत्मानं मलिनं करोत्यपि शुचिं सर्वाशुचिनामिदं
संकेतैकगृहं नृणां वपुरपां स्नानात्कथं शुद्धयति
।।।।
अनुवाद : जे शरीरनी समीपताने कारणे उत्तम माळा आदि अडवाने पण
योग्य रहेतां नथी, जे मळ अने मूत्र आदिथी भरेलुं छे, रस अने रुधिर आदि
सात धातुओथी रचायेलुं छे, भयानक छे; दुर्गन्धयुक्त छे अने जे निर्मळ आत्माने
पण मलिन करे छे; एवुं समस्त अपवित्रताओना एक संकेतगृह समान आ मनुष्योनुं
शरीर जळना स्नानथी केवी रीते शुद्ध थई शके? अर्थात् थई शके नहि. १.
(शार्दूलविक्रीडित)
आत्मातीव शुचिः स्वभावत इति स्नानं वृथास्मिन् परे
कायश्चाशुचिरेव तेन शुचितामभ्येति नो जातुचित्
स्नानस्योभयथेत्यभूद्बिफलता ये कुर्वते तत्पुनस्-
तेषां भूजलकीटकोटिहननात्पापाय रागाय च
।।।।
अनुवाद : आत्मा तो स्वभावथी अत्यंत पवित्र छे, तेथी ते उत्कृष्ट आत्माना
विषयमां स्नान व्यर्थ ज छे; तथा शरीर स्वभावथी अपवित्र ज छे. तेथी ते पण
कदी ते स्नान द्वारा पवित्र थई शकतुं नथी. आ रीते स्नाननी व्यर्थता बन्नेय प्रकारे
सिद्ध थाय छे. छतां पण जे लोको ते स्नान करे छे ते तेने माटे करोडो पृथ्वीकायिक,

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जळकायिक अने अन्य जंतुओनी हिंसानुं कारण होवाथी पाप अने रागनुं ज कारण
थाय छे.
विशेषार्थ : अहीं स्नान आवश्यकतानो विचार करतां आ प्रश्न उपस्थित थाय छे के
तेनाथी शुं आत्मा पवित्र थाय छे के शरीर? तेना उत्तरमां विचार करतां ए चोक्कस प्रतीत थाय
छे के उक्त स्नान द्वारा आत्मा तो पवित्र थतो नथी कारण के ते पोते ज पवित्र छे. वळी तेनाथी
शरीरनी शुद्धि थती होय, तो ए पण कही शकातुं नथी; कारण के ते स्वभावथी ज अपवित्र छे.
जेम कोलसाने पाणीथी घसी घसीने धोवा छतां पण ते कदी काळापणुं छोडी शकतो नथी अथवा
मळथी भरेलो घडो कदी बहार साफ करवाथी शुद्ध थई शकतो नथी. तेवी ज रीते मळ
मूत्रादिथी
परिपूर्ण आ सप्तधातुमय शरीर पण कदी स्नान द्वारा शुद्ध थई शकतुं नथी. आ रीते बन्नेय प्रकारे
स्नाननी व्यर्थता सिद्ध थाय छे. छतां पण जे लोको स्नान करे छे तेओ जळकायिक, पृथ्वीकायिक
अने अन्य त्रस जीवोनो पण तेना द्वारा घात करे छे; माटे ते केवळ हिंसाजनित पापना भागीदार
थाय छे. ते सिवाय तेओ शरीरनी बाह्य स्वच्छतामां राग पण राखे छे, ए पण पापनुं ज कारण
छे. अभिप्राय ए छे के निश्चयद्रष्टिथी विचार करतां स्नान द्वारा शरीर तो शुद्ध थतुं नथी, उल्टुं
जीवहिंसा अने आरंभ आदि ज तेनाथी थाय छे. ए ज कारणे मुनिओना मूळगुणोमां ज तेनो
निषेध करवामां आव्यो छे. परंतु व्यवहारनी अपेक्षाए ते अनावश्यक नथी, परंतु गृहस्थने माटे
ते आवश्यक पण छे. कारण के तेना विना शरीर तो मलिन रहे ज छे. साथे मन पण मलिन
रहे छे. स्नान विना जिनपूजादि शुभ कार्योमां प्रसन्नता पण रहेती नथी. हा, ए अवश्य छे के
बाह्य शुद्धिनी साथे ज अभ्यंतर शुद्धिनुं पण ध्यान जरूर राखवुं जोईए. जो अंतरंगमां मद
मात्सर्यादि भाव होय तो केवळ आ बाह्य शुद्धि कार्यकारी नहि थाय. २.
(शार्दूलविक्रीडित)
चित्ते प्राग्भवकोटिसंचितरजःसंबन्धिताविर्भवन्-
मिथ्यात्वादिमलव्यपायजनकः स्नानं विवेकः सताम्
अन्यद्वारिकृतं तु जन्तुनिकरव्यापादनात्पापकृ-
न्नो धर्मो न पवित्रता खलु ततः काये स्वभावाशुचौ
।।।।
अनुवाद : चित्तमां पूर्वना करोडो भवोमां संचित थयेली पापकर्मरूपी धूळना
संबंधथी प्रगट थता मिथ्यात्व आदिरूप मळने नष्ट करनार जे विवेकबुद्धि उत्पन्न
थाय छे ते ज वास्तवमां सज्जन पुरुषोनुं स्नान छे. एनाथी भिन्न जे जळकृत स्नान
छे ते प्राणीसमूहने पीडाजनक होवाथी पाप करनार छे. तेनाथी न तो धर्म संभवे
छे अने न स्वभावथी अपवित्र शरीरनी पवित्रता पण संभवे छे. ३.

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(शार्दूलविक्रीडित)
सम्यग्बोधविशुद्धवारिणि लसत्सद्दर्शनोर्मिव्रजे
नित्यानन्दविशेषशैत्यसुभगे निःशेषपापद्रुहि
सत्तीर्थे परमात्मनामनि सदा स्नानं कुरुध्वं बुधाः
शुद्धयर्थं किमु धावत त्रिपथगामालपयासाकुलाः
।।।।
अनुवाद : हे विद्वानो! जे परमात्मा नामनुं समीचीन तीर्थ सम्यग्ज्ञानरूप
निर्मळ जळथी परिपूर्ण छे, शोभायमान सम्यक्दर्शनरूप लहेरोना समूहथी व्याप्त छे,
अविनश्वर आनंदविशेषरूप (अनंतसुख) शैत्यथी मनोहर छे तथा समस्त पापोने नष्ट
करनार छे. तेमां तमे निरंतर स्नान करो. व्यर्थ परिश्रमथी व्याकुळ थईने शुद्धि माटे
गंगा तरफ केम दोडो छो? अर्थात् गंगा आदिमां स्नान करवाथी कांई अंतरंग शुद्धि
थई शकती नथी, ते तो परमात्माना स्मरण अने तेना स्वरूप चिंतन आदिथी ज
थई शके छे, माटे तेमां ज अवगाहन करवुं जोईए. ४.
(शार्दूलविक्रीडित)
नो द्रष्टः शुचितत्त्वनिश्चयनदो न ज्ञानरत्नाकरः
पापैः क्वापि न द्रश्यते च समतानामातिशुद्धो नदी
तेनैतानि विहाय पापहरणे सत्यानि तीर्थानि ते
तीर्थाभाससुरापगादिषु जडा मज्जन्ति तुष्यन्ति च
।।।।
अनुवाद : पापी जीवोए न तत्त्वना निश्चयरूप पवित्र नद (विशेष नदी)
जोयेल छे अने न ज्ञानरूप समुद्र पण जोयो छे तेओ समता नामनी अतिशय पवित्र
नदी पण क्यांक जोता नथी तेथी ते मूर्खाओ पापनो नाश करवाना विषयमां
यथार्थभूत आ समीचीन तीर्थो छोडीने तीर्थ जेवा जणाता गंगा आदि तीर्थाभासोमां
स्नान करीने संतुष्ट थाय छे. ५.
(शार्दूलविक्रीडित)
नो तीर्थं न जलं तदस्ति भुवने नान्यत्किमप्यस्ति तत्
निःशेषाशुचि येन मानुषवपुः साक्षादिदं शुद्धयति

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आधिव्याधि जरामृतिप्रभृतिभिर्व्याप्तं तथैतत्पुनः
शश्वत्तापकरं यथास्य वपुषो नामाप्यसह्यं सताम्
।।।।
अनुवाद : संसारमां एवुं कोई तीर्थ नथी, एवुं कोई जळ नथी तथा अन्य
पण एवी कोई वस्तु नथी; जेना द्वारा पूर्णपणे अपवित्र आ मनुष्यनुं शरीर प्रत्यक्षमां
शुद्ध थई शके, आधि (मानसिक कष्ट), व्याधि ( शारीरिक कष्ट), घडपण (वृद्धावस्था)
अने मरण आदिथी व्याप्त आ शरीर निरंतर एटलुं संतापकारक छे के सज्जनोने
तेनुं नाम लेवुं पण असह्य लागे छे. ६.
(शार्दूलविक्रीडित)
सर्वैस्तीर्थजलैरपि प्रतिदिनं स्नातं न शुद्धं भवेत्
कर्पूरादिविलेपनैरपि सदा लिप्तं च दुर्गन्धभृत्
यत्नेनापि च रक्षितं क्षयपथप्रस्थायि दुःखप्रदं
यत्तस्माद्वपुषः किमन्यदशुभं कष्टं च किं प्राणिनाम्
।।।।
अनुवाद : जो आ शरीरने प्रतिदिन समस्त तीर्थोना जळथी पण स्नान
कराववामां आवे तो पण ते शुद्ध थई शकतुं नथी, जो एने कपूर अने कुंकुम आदि
सुगंधी लेपो द्वारा लेप पण करवामां आवे तो पण ते दुर्गन्ध धारण करे छे तथा
जो एनुं प्रयत्नपूर्वक रक्षण पण करवामां आवे तो पण ते क्षयना मार्गे ज प्रस्थान
करशे अर्थात् नष्ट थशे. आ रीते जे शरीर सर्व प्रकारे दुःख आपे छे तेनाथी वधारे
प्राणीओने बीजुं क्युं अशुभ अने कष्ट होई शके? अर्थात् प्राणीओने सौथी अधिक
अशुभ अने कष्ट आपनार आ शरीर ज छे, अन्य कोई नथी. ७.
(शार्दूलविक्रीडित)
भव्या भुरिभवार्जितोदितमहद्द्रङ्मोहसर्पोल्लसन-
मिथ्याबोधविषप्रसंगविकला मन्दीभवद्द्रष्टयः
श्रीमत्पङ्कजनन्दिवक्तशशभृद्विम्बप्रसूतं परं
पीत्वा कर्णपुटेर्भवन्तु सुखिनः स्नानाष्टकाख्यामृतम्
।।।।
अनुवाद : जे भव्य जीव अनेक जन्मोमां उपार्जित थईने उदयने प्राप्त थयेल

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एवा दर्शनमोहनीयरूप महासर्पथी प्रगट थयेल मिथ्याज्ञानरूप विषना संसर्गथी
व्याकुळ छे, तथा ए ज कारणे जेमनी सम्यग्दर्शनरूप द्रष्टि अतिशय मंद थई गई
छे ते भव्य जीव श्रीमान् पद्मनन्दि मुनिना मुखरूप चंद्रबिंबथी उत्पन्न थयेल आ
उत्कृष्ट ‘स्नानाष्टक’ नामनुं अमृत कानवडे पीने सुखी थाव.
विशेषार्थ : जो कोई वार कोई प्राणीने झेरी सर्प करडी जाय छे तो ते शरीरमां फेलाता
तेना विषथी अत्यंत व्याकुळ थई जाय छे तथा तेनी द्रष्टि (नजर) मंद पडी जाय छे. सौभाग्यवशे
जो ते वखते चंद्रबिंबमांथी उत्पन्न थयेल अमृतनी प्राप्ति थई जाय, तो ते तेने पीने विषरहित
थयो थको पूर्व चेतना प्राप्त करी ले छे. बराबर एवी ज रीते जे प्राणी सर्प समान अनेक भवोमां
उपार्जित दर्शनमोहनीयना उदयथी मिथ्याभावने प्राप्त थयेल ज्ञान (मिथ्याज्ञान) द्वारा विवेकशून्य
थई गया छे तथा जेमनुं सम्यग्दर्शन मंद पडी गयुं छे तेओ जो पद्मनन्दि मुनिए रचेल आ
‘स्नानाष्टक’ प्रकरण कानो वडे सांभळे तो अविवेक नष्ट थई जवाथी तेओ अवश्यमेव प्रबोध पामे,
कारण के आ स्नानाष्टक प्रकरण अमृत समान सुख आपनार छे. ८.
आ रीते स्नानाष्टक अधिकार समाप्त थयो. २५.