Padmanandi Panchvinshati-Gujarati (Devanagari transliteration). 26. Brahmacharyashtak; Shlok: 1-9 (26. Brahmacharyashtak).

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२६. ब्रह्मचर्याष्टक
[२६. ब्रह्मचर्याष्टकम् ]
(द्रुतविलम्बित)
भवविवर्धनमेव यतो भवेदधिकदुःखकरं चिरमङ्गिनाम्
इति निजाङ्गनयापि न तन्मतं मतिमतां सुरतं किमुतो ऽन्यथा ।।।।
अनुवाद : मैथुन (स्त्रीसेवन) प्राणीओनो संसार वधारीने तेमने चिरकाळ
सुधी अधिक दुःख आपे छे तेथी बुद्धिमान मनुष्योने ज्यां पोतानी स्त्री साथे पण
ते मैथुन कर्म इष्ट नथी तो पछी भला अन्य प्रकारे अर्थात् परस्त्री आदिनी साथे
तो ते तेमने इष्ट केम होय? अर्थात् तेनी तो बुद्धिमान मनुष्य कदी इच्छा ज करता
नथी. १.
(द्रुतविलम्बित)
पशव एव रते रतमानसा इति बुधैः पशुकर्म तदुच्यते
अभिधया ननु सार्थकयानया पशुगतिः पुरतो ऽस्य फलं भवेत् ।।।।
अनुवाद : आ मैथुनकर्ममां पशुओनुं ज मन अनुरक्त रहे छे, तेथी विद्वान
मनुष्य तेने पशुकर्म ए सार्थक नामे कहे छे. तथा आगळना भवमां एनुं फळ पण
पशुगति अर्थात् तिर्यंचगतिनी प्राप्ति थाय छे.
विशेषार्थ : आनो अभिप्राय ए छे के जे मनुष्य निरंतर विषयासक्त रहे छे
ते पशुओथी पण हलकां छे. कारण के पशुओने तो घणुं करीने एने माटे कांईक निश्चित
समय ज रहे छे; परंतु आवा मनुष्योने एना माटे कोई पण समय निश्चित होतो नथी
तेओ निरंतर कामासक्त रहे छे. एनुं फळ ए थाय छे के आगामी भवमां तेमने ते तिर्यंच

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पर्यायनी प्राप्ति ज थाय छे ज्यां घणुं करीने हिताहितनो कोई पण विवेक रहेतो नथी. तेथी
शास्त्रकारोए परस्परना विरोध रहित ज धर्म, अर्थ अने काम
आ त्रणे पुरुषार्थोना सेवननुं
विधान कर्युं छे. २.
(द्रुतविलम्बित)
यदि भवेदबलासु रतिः शुभा किल निजासु सतामिह सर्वथा
किमिति पर्वसु सा परिवर्जिता किमिति वा तपसे सततं बुद्धैः ।।।।
अनुवाद : जो लोकमां सज्जन पुरुषोने पोतानी स्त्रीना विषयमां पण
करवामां आवतो अनुराग श्रेष्ठ लागतो होय तो पछी विद्वान् पर्व (आठम, चौदश
वगेरे) ना दिवसोमां अथवा तपना निमित्ते तेनो निरंतर त्याग केम करावेत? अर्थात्
न करावेत.
विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के परस्त्री आदिनी साथे करवामां आवतुं मैथुनकर्म तो
सर्वथा निन्दनीय छे ज, परंतु स्वस्त्रीनी साथे करवामां आवतुं ते कर्म निन्दनीय ज छे. हा, एटलुं
जरूर छे के ते परस्त्री आदिनी अपेक्षाए कांईक ओछुं निन्दनीय छे. ए ज कारणे विवेकी गृहस्थ
आठम
चौदस वगेरे पर्वना दिवसोमां स्वस्त्रीसेवननो पण त्याग करता रहे छे तथा मुमुक्षु जनो
तो तेनो सर्वथा ज त्याग करीने तपनुं ग्रहण करे छे. ३.
(द्रुतविलम्बित)
रतिपतेरुदयान्नरयोषितोरशुचिनोर्वपुषोः परिघट्टनात्
अशुचि सुष्ठुतरं तदितो भवेत्सुखलवे विदुषः कथमादरः ।।।।
अनुवाद : काम (वेद)ना उदयथी पुरुष अने स्त्रीना अपवित्र शरीरो
(जननेन्द्रियो) घसावाथी जे अत्यंत अपवित्र मैथुनकर्म तथा तेनाथी जे अल्प सुख
थाय छे तेना विषयमां भला विवेकी जीवने केवी रीते आदर थई शके? अर्थात् थई
शकतो नथी. ४.
(द्रुतविलम्बित)
अशुचिनि प्रसभं रतकर्मणि प्रतिशरीरि रतिर्यदपि स्थिता
चिदरिमोहविजृभ्भणदूषणादियमहो भवतीति निबोधिता ।।।।
अनुवाद : प्रत्येक प्राणीमां जे अपवित्र मैथुनकर्मना विषयमां बळपूर्वक

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अनुराग स्थित रहे छे ते चेतनना शत्रुभूत मोहना विस्ताररूप दोषथी थाय छे. एनुं
कारण अविवेक छे. ५.
(द्रुतविलम्बित)
निरवशेषयमद्रुमखण्डने शितकुठारहतिर्ननु मैथुनम्
सततमात्महितं शुभमिच्छता परिहृतिर्व्रतिनास्य विधीयते ।।।।
अनुवाद : निश्चयथी आ मैथुनकर्म समस्त संयमरूप वृक्षने खंडित करवामां
तीक्ष्ण कुहाडीना आघात समान छे. तेथी निरंतर उत्तम आत्महितनी इच्छा करनार
साधु एनो त्याग करे छे. ६.
(द्रुतविलम्बित)
मधु यथा पिबतो विश्रतिस्तथा वृजिनकर्मभृतः सुरते मतिः
न पुनरेतदभीष्टमिहाङ्गिनां न च परत्र यदायति दुःखदम् ।।।।
अनुवाद : जेम मद्य पीनार पुरुषने विकार थाय छे तेवी ज रीते पाप
कर्म धारण करनार प्राणीने मैथुनना विषयमां बुद्धि थाय छे. परंतु ए
प्राणीओने न आ लोकमां इष्ट छे अने न परलोकमां य. कारण के ते भविष्यमां
दुःखदायक छे. ७.
(द्रुतविलम्बित)
रतिनिषेधविधौ यततां भवेच्चपलतां प्रविहाय मनः सदा
विषयसौख्यमिदं विषसंनिभं कुशलमस्ति न भुक्त वतस्तव ।।।।
अनुवाद : हे मन, तुं चंचळता छोडीने निरंतर मैथुनना परित्यागनी विधिमां
प्रयत्न कर, कारण के आ विषयसुख विषसमान दुःखदायक छे. तेथी एने भोगवतां
तारूं कल्याण थई शकशे नहीं.
विशेषार्थ : जेम विषना भक्षणथी प्राणीने मरणजन्य दुःख भोगववुं पडे छे तेवी ज
रीते आ मैथुनविषयक अनुरागथी पण प्राणीने जन्ममरणना अनेक दुःख सहन करवा पडे छे.
तेथी अहीं मनने संबोधित करीने एम कहेवामां आव्युं छे के हे मन! तुं आ लोक अने परलोक
बन्ने य लोकमां दुःख आपनार ते विषयभोगने छोडवानो प्रयत्न कर, नहि तो तारूं अहित
अनिवार्य छे. ८.

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(द्रुतविलम्बित)
युवतिसंगतिवर्जनमष्टकं प्रति मुमुक्षुजनं भणितं मया
सुरतरागसमुद्रगता जनाः कुरुत मा क्रुधमत्र मुनौ मयि ।।।।
अनुवाद : में स्त्री संसर्गना परित्यागविषयक जे आ आठ श्लोकोनुं प्रकरण
रच्युं छे ते मोक्षाभिलाषी जनोनुं लक्ष्य करीने रच्युं छे. तेथी जे प्राणी मैथुनना
अनुरागरूप समुद्रमां मग्न थई रह्या छे, ते मारा (पद्मनन्दि मुनि) उपर क्रोध न
करो. ९.
आ रीते ब्रह्मचर्याष्टक समाप्त थयुं. २६.
आ रीते पद्मनन्दि मुनि द्वारा विरचित ‘पद्मनन्दिपंचविंशति’ ग्रन्थ समाप्त थयो.