Panch Stotra-Gujarati (Devanagari transliteration). Panchstotra-Sangrah: ,; Introduction; Aavrutti; Pujya Gurudevshree Kanjiswami; Prakashkiy; Gurudevshree Vachanamrut Bol No. 12, Benshreena Vachanamrut Bol No. 342: ; Anukramanika; Bhaktamar Stotra.

Next Page >


Combined PDF/HTML Page 1 of 6

 


Page -6 of 105
PDF/HTML Page 2 of 113
single page version

background image
भगवान श्री कुंदकुंदकहानजैनशास्त्रमाळा पुष्प१७५
परमात्मने नमः।
पंचस्तोत्र-संग्रह
-ः अनुवादकः-
ब्र. व्रजलाल गीरधारलाल शाह, वढवाण
-ः प्रकाशकः-
श्री दिगंबर जैन स्वाधयायमंदिर ट्रस्ट,
सोनगढ३६४ २५०.

Page -5 of 105
PDF/HTML Page 3 of 113
single page version

background image
प्रथम आवृत्तिप्रत २०००वीर सं. २०४५
द्वितीय आवृत्तिप्रत १०००वीर सं. २०६४
[ २ ]
पंचस्तोत्र-संग्रह (गुजराती)ना


स्थायी प्रकाशन-पुरस्कर्ता

डॉ. श्री प्रविणाबेन डॉ. उपेन्द्रभाई कोठारी
ह. विश्रुत उपेन्द्रभाई कोठारी, जामनगर
आ शास्त्रनी पडतर किंमत रूा २१=०० थाय छे. अनेक
मुमुक्षुओनी आर्थिक सहायथी आ आवृत्तिनी किंमत रूा २०-=००
थाय छे. तेमांथी ५०
% श्री कुंदकुंद-कहान पारमार्थिक ट्रस्ट हस्ते स्व.
श्री शांतिलाल रतिलाल शाह परिवार तरफथी किंमत घटाडवामां
आवता आ शास्त्रनी किंमत रूा १०=०० राखवामां आवी छे.
किंमत रुा. १०=००
मुद्रक
कहान मुद्रणालय
जैन विद्यार्थी गृह कम्पाउन्ड
सोनगढ (सौराष्ट्र)
(02846) 244081


Page -3 of 105
PDF/HTML Page 5 of 113
single page version

background image
प्रकाशकीय
धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे; अने ते विपरीताभिनिवेष रहित
भूतार्थस्वभावना ग्रहणपूर्वक तत्त्वार्थश्रद्धान थतां थाय छे. सम्यक्त्व थतां
‘हुं सिद्ध समान शुद्ध छुं’ एवुं द्रढ श्रद्धान थाय छे; ते साथे, पोतानी
वर्तमान दशा तो अपूर्ण
अशुद्धतामय छे, एवुं ज्ञान होवाथी, सम्यग्द्रष्टिने
सहेजे साचा देवगुरुधर्म प्रत्ये भक्तिनी सहृदय भावना होय छे.
अविरति धर्मात्मा तो शुं, मुनिराजने पण आवो भाव आवे छे. आम
‘सम्यग्दर्शन’ अने समकितीना सहज परिणमन विषे आ युगमां जे कांई
स्पष्टता थयेल देखाय छे, ते सर्व पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामीना पुनित
प्रतापे ज छे. वळी आजे पूज्य गुरुदेव द्वारा प्रदर्शित जे स्वानुभवप्रधान
अध्यात्ममार्ग वृद्धिंगत स्थितिमां छे ते तेमना परमभक्त स्वानुभवपरिणत
पूज्य बहेनश्री चंपाबेनना मंगलप्रतापे छे.
वळी आवा ज्ञानी धर्मात्माओनुं आवुं जीवन प्राचीन आचार्योनी
रचनाओ उपरथी पण स्पष्ट थाय छे. ते पैकीना दिग्गजजैनाचार्य श्री
मानतुंगाचार्य, श्री कुमुदचन्द्रस्वामी, श्री वादिराजसूरि आदि जेवा महान
आचार्य मुनिभगवंत पण आत्मिक रत्नत्रयरूप प्रगाढ शुद्धतामां महालता
हता; ते साथे भक्तिनो उमळको पण तेमने एवो ज हतो, जाणे
भगवाननी स्तुति करवानुं तेमने व्यसन न होय! तेमांथी जुदा जुदा
आचार्य, मुनि अने कविओनां पांच स्तोत्रो
१. श्री भकतामरस्तोत्र, २.
श्री कल्याणमंदिरस्तोत्र, ३. श्री कल्याण कल्पद्रुम अपरनाम
एकीभाव स्तोत्र, ४. विषापहारस्तोत्र, ५. जिनचतुÆवशतिकास्तोत्रनो
गुजराती अर्थ सहित प्रथमवार ज ‘पंचस्तोत्रसंग्रह’ना नामे ‘पूज्य
कहानगुरुजन्मशताब्दी’ वर्षमां (वि.सं. २०४५४६) प्रकाशित करता
अति हर्ष थाय छे.
आ पुस्तकना अनुवादमां श्री भक्तामरस्तोत्र माटे श्री दिगम्बर
जैन पुस्तकालय, सुरत छपायेल भक्तामरस्तोत्रनो; कल्याणमंदिरस्तोत्र,
[ ३ ]

Page -2 of 105
PDF/HTML Page 6 of 113
single page version

background image
विषापहारस्तोत्र अने जिनचतुर्विंशतिका माटे पाटनी दि. जैन ग्रंथमाला,
मारोठथी छपायेल ‘स्तोत्रत्रयी’साथनो अने एकीभावस्तोत्र माटे भारतीय
ज्ञानपीठ प्रकाशनथी प्रकाशित कल्याणकल्पद्रुमनो आधार लेवामां आवेल छे
अने ते माटे संस्था उक्त त्रणेय प्रकाशकोनी आभारी छे. वळी आ
पुस्तकमां चार स्तोत्रना संस्कृतनो पद्यानुवाद पण छापवामां आवेल छे,
ते आ ट्रस्टथी छपायेल जिनेन्द्रस्तवनमंजरी अने जिनेन्द्रस्तवनमाळामां
छपायेल स्तवनोना आधारे छे. तेमां कल्याणमंदिरस्तोत्रमांनी २८मी कडीनो
गुजराती पद्यानुवाद उपलब्ध नहीं होवाथी पंडितरत्न श्री हिंमतलाल
जेठालाल शाहे ते कडीनो पद्यानुवाद आचार्यश्रीना हृदयना भावोने स्पर्शीने
करी आप्यो छे, ते बदल ट्रस्ट तेमनुं घणुं ज आभारी छे.
आ अनुवाद ब्र. वृजलाल गीरधरलाल शाहे तद्दन निस्पृहभावे
मात्र देवगुरुधर्मनी भक्तिथी प्रेराईने, करी आपेल छे, ते बदल ट्रस्ट
तेमनुं आभारी छे.
श्री कहान मुद्रणालये आ पुस्तकनुं सुंदर मुद्रण करी आप्युं छे. ते
बदल ट्रस्ट तेमनुं आभारी छे.
अंतमां आ ‘पंचस्तोत्र’ना स्वाध्यायथी सर्व जीवो देवगुरुधर्मना
महिमामय आ स्तोत्रोमां दर्शावेल तत्त्वस्वरूपने समजी यथार्थ श्रद्धाने पामो
एवी भावना.
बहेनश्री चंपाबेननी
७६मी जन्मजयंती
श्रा. व. २, वि.सं. २०४५
ता. १८-८-८९
साहित्यप्रकाशनसमिति
श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट
सोनगढ-
[ ४ ]

Page -1 of 105
PDF/HTML Page 7 of 113
single page version

background image
भक्ति एटले भजवुं. कोने भजवुं? पोताना स्वरूपने
भजवुं. मारुं स्वरूप निर्मळ अने निर्विकारीसिद्ध जेवुंछे
तेनुं यथार्थ भान करीने तेने भजवुं ते ज निश्चय भक्ति छे, ने
ते ज परमार्थ स्तुति छे. नीचली भूमिकामां देव-शास्त्र-गुरुनी
भक्तिनो भाव आवे ते व्यवहार छे, शुभ राग छे. कोई कहेशे
के आ वात अघरी पडे छे. पण भाई! अनंता धर्मात्मा क्षणमां
भिन्न तत्त्वोनुं भान करी
, स्वरूपमां ठरीस्वरूपनी निश्चय
भक्ति करीमोक्ष गया छे, वर्तमानमां केटलाक जाय छे अने
भविष्यमां अनंता जीवो तेवी ज रीते जशे.
गुरुदेवश्रीनां वचनामृत बोल नं. १२
अंतरमां तुं तारा आत्मा साथे प्रयोजन राख अने बहारमां
देव-शास्त्र-गुरु साथे; बस, अन्य साथे तारे शुं प्रयोजन छे?
जे व्यवहारे साधनरूप कहेवाय छे, जेमनुं आलंबन
साधकने आव्या विना रहेतुं नथीएवां देव-शास्त्र-गुरुना
आलंबनरूप शुभ भाव ते पण परमार्थे हेय छे, तो पछी अन्य
पदार्थो के अशुभ भावोनी तो वात ज शी? तेमनाथी तारे शुं
प्रयोजन छे?
आत्मानी मुख्यतापूर्वक देव-शास्त्र-गुरुनुं आलंबन साधकने
आवे छे. मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवे पण कह्युं छे के ‘हे
जिनेंद्र! हुं गमे ते स्थळे होउं पण फरीफरीने आपनां
पादपंकजनी भक्ति हो
’!आवा भाव साधकदशामां आवे छे,
अने साथे साथे आत्मानी मुख्यता तो सतत रह्या ज करे छे.
बहेनश्रीनां वचनामृत बोल नं. ३४२

Page 0 of 105
PDF/HTML Page 8 of 113
single page version

background image
अ....नु.....क्र.....म.....णि......का
विषयपृष्ठ
१.श्री भक्तामरस्तोत्रश्री मानतुंगाचार्य विरचित ---------------- १
२.श्री कल्याणमंदिर अपरनाम श्री पार्श्वनाथस्तोत्र
श्री कुमुदचन्द्राचार्य अपरनाम श्री सिद्धसेन
दिवाकर विरचित ---------------------------------------------- २९
३.श्री कल्याणकल्पद्रुम अपरनाम एकीभावस्तोत्र
श्रीमद् वादिराजआचार्य विरचित ----------------------------- ५५
४.श्री विषापहारस्तोत्रश्री महाकवि धनंजयरचित ------------- ७१
५.श्री जिनचतुर्विंशतिकाश्री भूपालकवि रचित ----------------- ८९
[ ५ ]

Page 1 of 105
PDF/HTML Page 9 of 113
single page version

background image
श्री ॠषभदेवाय नमः
श्री पंचस्तोत्रसंग्रह
श्री मानतुंगाचार्य विरचित
भक्तामर स्तोत्र
(श्री ॠषभदेवस्तुति)
(वसंततिलका छंद)
भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रभाणा
मुद्योतकं दलितपापतमोवितानम्
सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा
बालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ।।।।
भक्तामरो लचित ताजमणिप्रभाना,
उद्योतकार, हर पापतमो जथाना;
आधाररूप भवसागरना जनोने,
एवा युगादि प्रभु पादयुगेनमीने. १.
यः संस्तुतः सकलवाङ्मयतत्त्वबोधा
दुद्भूतबुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः
स्तोत्रैर्जगत्त्रितयचित्तहरैरुदारैः
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्
।।।। (युग्मं)
कीधी स्तुति सकलशास्त्रजतत्त्वबोधे,
पामेल बुद्धिपटुथी सुरलोकनाथे;
त्रैलोक चित्तहर चारु उदार स्तोत्रे,
हुंये खरे स्तवीश आदि जिनेन्द्रने ते. २.

Page 2 of 105
PDF/HTML Page 10 of 113
single page version

background image
२ ][ पंचस्तोत्र
भावार्थ :भक्ति करनारा देवो पगे लागे छे ते वखते तेमना
नमेला मुगटनी अंदर रहेला मणिओनी कांतिने पण प्रकाश आपनार,
पापरूपी अंधकारना समूहोनो नाश करनार अने युगादिथी संसाररूपी
समुद्रमां पडेला माणसोना आश्रयरूप एवा श्री आदिनाथ जिनेन्द्रस्वामीना
बन्ने चरणने रूडे प्रकारे नमस्कार करी हुं प्रथम जिनेन्द्र श्री आदिनाथ
भगवाननी स्तुति करुं छुं. इन्द्रदेवे पण तमाम शास्त्रोनुं तत्त्वज्ञान
जाणवाथी उत्पन्न थयेली निपुण बुद्धि वडे त्रणलोकनुं चित्त हरण करे एवा
उदार स्तोत्रथी पण तेमनी स्तुति करी छे, एवा जिनेन्द्र आदिनाथस्वामीनी
हुं पण स्तुति करीश. १-२.
बुद्धया विनाऽपि विबुधार्चितपादपीठ !
स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगतत्रपोऽहम्
बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब
मन्यः क इच्छति जनः सहसा गृहीतुम् ।।।।
बुद्धि विना ज सुरपूजीतपादपीठ!
में प्रेरी बुद्धि स्तुतिमां तजी लाज शुद्ध!
लेवा शिशु विण जळे स्थित चंद्रबिंब,
इच्छा करे ज सहसा जन कोण अन्य. ३.
भावार्थ :हे देवो द्वारा पूज्यनीय! मने चरणबुद्धि नथी तोपण
में जे आपनी स्तुति करवा मांडी छे ए मारी निर्लजता छे. हे नाथ!
बाळक सिवाय बीजुं कोण पाणीमां पडेला चंद्रमांना पडछायाने हाथोथी
पकडवानी इच्छा करी शके छे? अर्थात् मारो आ प्रयत्न बाळकना जेवो
छे. ३.
वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र ! शशाङ्ककांतान्
कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्धया
कल्पान्तकालपवनोद्धतनक्रचक्र
को वा तरीतुमलमंबुनिधिं भुजाभ्याम्
।।।।

Page 3 of 105
PDF/HTML Page 11 of 113
single page version

background image
भक्तामरस्तोत्र ][ ३
के’वा गुणो गुणनिधि! तुज चंद्रकांत,
छे बुद्धिथी सुरगुरुसम को समर्थ?
ज्यां उछळे मगरमच्छ महान वाते,
रे कोण ते तरी शके ज समुद्र हाथे? ४.
भावार्थ :हे गुणसमुद्र! ब्रहस्पति समान बुद्धि धारण
करवावाळा पण चंद्रमा जेवा आपना मनोहर गुणोनुं वर्णन करवा समर्थ
नथी तो मारा जेवा अल्पज्ञानीनी तो वात ज शी करवी? हे नाथ! जे
समुद्रमां प्रलयकाळना वायुना कारणथी मगरमच्छ आदि भयंकर जीवो
प्रचंडता धारण करी रह्या छे, तेवा समुद्रने पोताना बेउ हाथो द्वारा कोण
तरी शके? ४.
सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश !
कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः
।।
प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगी मृगेंद्रम्
नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम्
।।।।
तेवो तथापि तुज भक्ति वडे मुनीश!
शक्तिरहित पण हुं स्तुतिने करीश;
प्रीते विचार बळनो तजी सिंह सामे,
ना थाय शुं मृगी शिशु निज रक्षवाने? ५.
भावार्थ :हे मुनीश! मारामा आपनी स्तुति करवानी शक्ति
नथी तोपण हुं आपनी जे स्तुति करुं छुं ए केवळ आपनी भक्तिने
वश थईने करुं छुं. पोतानी शक्तिनो विचार कर्या वगर हरणी शुं
पोताना बच्चाने सिंहथी बचाववा तेनी सामे थती नथी? अर्थात् सामे
थाय छे. ५.
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम
त्त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरूते बलान्माम्
।।

Page 4 of 105
PDF/HTML Page 12 of 113
single page version

background image
४ ][ पंचस्तोत्र
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति
तच्चाम्रचारूकलिकानिकरैकहेतुः
।।।।
शास्त्रज्ञ अज्ञ गणीने हसतां छतांये,
भक्ति तमारी ज मने बळथी वदावे!
जे कोकिला मधुर चैत्र विषे उचारे,
ते मात्र आम्रतरुमहोर तणा प्रभावे! ६.
भावार्थ :प्रभो! मारुं शास्त्रज्ञान घणुं थोडुं छे तेथी विद्वानो
समक्ष हुं हांसीने पात्र छुं तोपण आपनी भक्ति ज मने आपनी स्तुति
करवा बळात्कारथी प्रवर्तावे छे. जेम चैत्र मासने विषे आंबाना महोरना
प्रभावथी कोयल मधुर शब्दो उच्चारे छे ते प्रमाणे आपनी भक्ति ज मने
आपनी स्तुति करवाने प्रेरे छे. ६.
त्वत्संस्तवेन भवसन्ततिसन्निबद्धं
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम्
।।
आक्रान्तलोकमलिनीलमशेषमाशु
सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम्
।।।।
बांधेल पाप जननां भव सर्व जेह;
तारी स्तुतिथी क्षणमां क्षय थाय तेह;
आ लोकव्याप्त निशिनुं भमरा समान,
अंधारूं सूर्यकिरणोथी हणाय जेम. ७.
भावार्थ :नाथ! जेम सूर्यनां किरणोथी त्रण जगतमां फेलायेला
भमरा समान काळो अंधकार नष्ट थई जाय छे, तेम आपनी स्तुति
करवाथी जन्मोजन्ममां एकठां थयेलां जीवोना पापो क्षणभरमां नष्ट थई
जाय छे. ७.

Page 5 of 105
PDF/HTML Page 13 of 113
single page version

background image
भक्तामरस्तोत्र ][ ५
मत्वेति नाथ ! तव संस्तवनं मयेद
मारभ्यते तनुधियाऽपि तव प्रभावात्
चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु
मुक्ताफलद्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः
।।।।
मानीज तेम स्तुति नाथ! तमारी आ में,
आरंभी अल्पमतिथी प्रभुना प्रभावे;
ते चित्त सज्जन हरे ज्यम बिंदु पामे
मोती तणी कमळपत्र विषे प्रभाने. ८.
भावार्थ :हे नाथ! एवुं समजीने पण ओछी बुद्धिवाळो होवा
छतां पण हुं जे आपनी स्तुति करुं छुं ए पण आपना प्रभावथी
सज्जनोना चित्त तो हरण करशे ज; जेमके कमळना पांदडां पर पडेलुं
पाणीनुं टीपुं मोती जेवुं सुंदर देखाईने लोकोना चित्तने हरण करे छे. ८.
आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं
त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति
दूरे सहस्रकिरणः कुरूते प्रभैव
पद्माकरेषु जलजानि विकाश भाञ्जि
।।।।
दूरे रहो रहित दोष स्तुति तमारी,
त्हारी कथा पण अहो! जनपापहारी;
दूर रहे रवि तथापि तस प्रभाए,
खीले सरोवर विषे कमळो घणांए! ९.
भावार्थ :प्रभो! आपनी निर्दोष स्तुति तो क्यां रही! आपनी
पवित्र कथाथी पण जीवोने संसारनां बधां पापो नष्ट थई जाय छे. ए
साची वात छे के सूर्य घणो दूर होवा छतां तेनां किरणो सरोवरमांनां
कमळोने प्रफुल्लित करे छे. ९.

Page 6 of 105
PDF/HTML Page 14 of 113
single page version

background image
६ ][ पंचस्तोत्र
नात्यद्भूतं भुवनभूषण ! भूतनाथ !
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति
।।१०।।
आश्चर्य ना भुवनभूषण! भूतनाथ!
रूपे गुणे तुज स्तुति करनार साथ,
ते तुल्य थाय तुजनी, धनिको शुं पोते,
पैसे समान करता नथी आश्रितोने? १०.
भावार्थ :हे संसारना भूषण! हे जीवोना स्वामी! ए कांई
आश्चर्यनी वात नथी के आपना सत्यार्थ गुणोनी स्तुति करवावाळा पुरुषो
संसारमां आपना समान थाय; अथवा ते स्वामीथी शुं प्रयोजन छे? के
जे आ लोकमां पोताना आश्रितोने सम्पत्ति वडे पोताना बराबर करता
नथी. १०.
दृष्ट्वा भवन्तमनिमेषविलोकनीयं
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः
पीत्वा पयः शशिकरद्युतिदुग्धसिन्धोः
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत्
।।११।।
जो दर्शनीय प्रभु एक टसेथी देखे,
संतोषथी नहि बीजे जन - नेत्र पेखे;
पी चन्द्रकान्त पय क्षीरसमुद्र केरूं,
पीशे पछी जळनिधि जळ कोण खारूं? ११.
भावार्थ :हे नाथ! एक्की नजरे जोई रहेवा योग्य आपनुं
स्वरूप एकवार जोया पछी, माणसनां नेत्र बीजे कोई ठेकाणे संतोष
पामता नथी केमके चंद्रना किरण जेवुं उज्ज्वळ क्षीरसागरनुं दूध जेवुं जळ
पीधा पछी समुद्रना खारा पाणीने पीवाने कोण इच्छे? कोई ज नहीं. ११.

Page 7 of 105
PDF/HTML Page 15 of 113
single page version

background image
भक्तामरस्तोत्र ][ ७
यैः शान्तरागरूचिभिः परमाणुभिस्त्वं
निर्मापितस्त्रिभुवनैकललामभूत !
तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां
यत्ते समानमपरं नहि रुपमस्ति
।।१२।।
जे शांतराग रुचिनां परमाणु मात्र,
ते तेटलां ज भुवि आप थयेल गात्र;
ए हेतुथी त्रिभुवने शणगार रूप,
त्हारा समान नहि अन्यतणुं स्वरूप. १२.
भावार्थ :हे, त्रिभुवनना एक भूषण! जे राग रहित
परमाणुओथी आपनुं शरीर बन्युं छे, ते परमाणुओ संसारमां एटला
ज छे. तेथी ज संसारमां आपना समान सुंदर बीजुं कोईनुं रूप होतुं ज
नथी. १२.
वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारि
निःशेषनिर्जितजगत्त्रितयोपमानम्
बिंबं कलङ्कमलिनं क्व निशाकरस्य
यद्वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम्
।।१३।।
त्रैलोक सर्व उपमाने जे जीतनारुं,
ने नेत्र, देवनरउरग हारी तारुं,
क्यां मुख क्यां वळी कलंकित चंद्रबिंब,
जे दिवसे पीळचटुं पडी जाय खूब. १३.
भावार्थ :हे गुणसमुद्र! दुनियानी सर्वे उपमाने जीतवावाळा,
एवा सुंदर के जेनी उपमा दुनियाना कोई पण पदार्थथी आपी शकाय नहीं;
वळी जेने देव, मनुष्य, धरणेंद्र वगेरेनी आंखोने पोतानी तरफ आकर्षित
करवावाळा पण घणी उत्कंठाथी जुए छे एवुं आपनुं त्रण भुवनमां अति
सुंदर मुख क्यां अने कलंकित चंद्रमा क्यां? के जे दिवसमां फिक्को पडी

Page 8 of 105
PDF/HTML Page 16 of 113
single page version

background image
८ ][ पंचस्तोत्र
जाय छे, शोभा रहित थई जाय छे. (घणा लोको आपना मुखने चंद्रमानी
उपमा आपे छे, पण ए बराबर नथी, कारण के आपनी शोभा स्थायी
छे अने चंद्रमानी शोभा अस्थायी छे. ए सिवाय ए कलंकी छे ने आप
निष्कलंकी छो.) १३.
संपूर्णमंडलशशाङ्गकलाकलाप
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लङ्घयन्ति
ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वरनाथमेकं
कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम्
।।१४।।
संपूर्ण चंद्रतणी कान्ति समान तारा,
रूडा गुणो भुवन त्रैण उलंघनारा;
त्रैलोकनाथ तुज आश्रित एक तेने,
स्वेच्छा थकी विचरतां कदि कोण रोके? १४.
भावार्थ :हे प्रभो! पूर्ण चंद्रमानी कळानी माफक निर्मळ एवा
आपना गुणो फेलाई गया छे; केमके त्रणे जगत्ना आप एकला ज स्वामी
छो तेथी आपना आश्रये रहेला ते गुणोने इच्छा प्रमाणे वर्ततां कोण
अटकावी शके एम छे? १४.
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्गनाभि
र्नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गम्
कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन
किं मंदराद्रिशिखरं चलितं कदाचित्
।।१५।।
आश्चर्य शुं प्रभुतणा मनमां विकार
देवांगना न कदि लवी शकी लगार;
संहारकाळ पवने गिरि सर्व डोले,
मेरु गिरि शिखर शुं कदि तोय डोले? १५.

Page 9 of 105
PDF/HTML Page 17 of 113
single page version

background image
भक्तामरस्तोत्र ][ ९
भावार्थ :हे नाथ! देवांगना आपना मनमां रंचमात्र विकार
पेदा करी शकी नहीं ए कंई आश्चर्यनी वात नथी जेमके प्रलय काळना
पवनथी अन्य पर्वतो हली शके छे, परंतु सुमेरू पर्वतने चलायमन करी
शकातो नथी. १५.
निर्धूमवर्तिरपवर्जिततैलपूरः
कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि
गम्यो न जातु मरूतां चलिताचलानां
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाशः
।।१६।।
धूम्रे रहित, नहि वाट, न तेलवाळो,
ने आ समग्र त्रण लोक प्रकाशनारो;
डोलावनार गिरि वायु न जाय पासे,
तुं नाथ छो अपर दीप जगत्प्रकाशे. १६.
भावार्थ :हे नाथ! आप समग्र संसारने प्रकाशित करवावाळा
अपूर्व दीपक छो, ते ए प्रमाणे के बीजा दीवाओनी बत्तीमांथी धूमाडा
नीकळे छे अने आपनो प्रकाश निर्धूम छे, धूमाडा वगरनो छे, पापरहित
छे. बीजा दीवाओमां तेलनी जरूर रहे छे परंतु आपमां तेनी तेनी जरूर
रहेती नथी. बीजा दीवाओ बहु ज थोडी जग्या प्रकाशित करे छे; ज्यारे
आप समग्र त्रण लोकने प्रकाशित करो छो; ए सिवाय बीजा दीवाओ
एक साधारण हवानी झपटथी बुझाई जाय छे, परंतु आपना प्रकाशने
तो मोटा मोटा पर्वतो हलावी नांखे एवी हवा पण कंई बगाड करी शकती
नथी. १६.
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति
नांभोधरोदरनिरूद्धमहाप्रभावः
सूर्यातिशायिमहिमासि मुनींद्र ! लोके
।।१७।।

Page 10 of 105
PDF/HTML Page 18 of 113
single page version

background image
१० ][ पंचस्तोत्र
घेरी शके कदी न राहु, न अस्त थाय,
साथे प्रकाश त्रण लोक विषे कराय;
तुं हे मुनींद्र, नहीं मेघवडे छवाय,
लोके प्रभाव रविथी अदको गणाय. १७.
भावार्थ :हे जिनेन्द्र! आपनो महिमा सूर्यथी पण अति घणो
छे. जुओ, सूरजने राहु ग्रहण करी घेरी शके छे, परंतु आपने ते ग्रहण
करी शकतो नथी. सूर्य तो दिवसमां क्रमक्रमथी तथा मध्य लोकमां ज प्रकाश
करे छे. परंतु आप तो सदा, एकसाथे त्रण जगतने प्रकाशित करो छो.
सूर्यनां तेजने वादळ ढांकी दे छे, परंतु आपना प्रभावने तो कोई ढांकी
शकतुं नथी. १७.
नित्योदयं दलितमोहमहांधकारम्
गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम्
विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्ति,
विद्योतयज्जगदपूर्वशशांकबिम्बम्
।।१८।।
मोहांधकार दळनार सदा प्रकाशी,
राहु मुखे ग्रसित ना, नहि मेघराशी;
शोभे तमारुं मुखपद्म अपार रूपे,
जेवो अपूर्व शशि लोक विषे प्रकाशे. १८.
भावार्थ :हे नाथ! आपनुं अत्यंत कांतिवान मुखकमळ आखा
संसारने प्रकाशित करवावाळा अपूर्व चंद्रमा समान छे, चंद्रमाथी पण ते
अधिकतर छे कारण के चंद्रमानो उदय निरंतर रहेतो नथी परंतु आपनुं
मुखचंद्र सदा उदीत
उज्ज्वळ ज रहे छे. चंद्रमा अंधकार नष्ट करी शके
छे परंतुमोहांधकार नष्ट करी शकतो नथी ने आपनुं मुखचंद्र तो बन्नेने
नष्ट करवावाळुं छे. चंद्रमाने राहु अने मेघ दबावी शके छे परंतु आपना
मुख
- चंद्रने कोई कंई करी शकतुं नथी. १८.

Page 11 of 105
PDF/HTML Page 19 of 113
single page version

background image
भक्तामरस्तोत्र ][ ११
किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा
युष्मन्मुखेंदुदलितेषु तमःसु नाथ
निष्पन्नशालिवनशालिनि जीवलोके,
कार्यं कियज्जलधरैर्जलभारनम्रैः
।।१९।।
शुं रात्रिमां शशि थकी दिवसे रविथी,
अंधारुं तुज मुखचंद्र हरे पछीथी;
शाली सुशोभित रही नीपजी धरामां,
शी मेघनी गरज होय ज आभलामां. १९.
भावार्थ :प्रभो! जो आपनुं मुखचंद्र ज अंधकारने नष्ट करे
छे तो रात्रे चंद्रमा अने दिवसे सूर्यनुं काम शुं छे? जेम के संसारमां,
धान्य पाकी गया पछी
खेतरमां पाक पाकी गया पछी पाणीना भरेला
वादळोथी कंई लाभ नथी. १९.
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं
नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु
तेजः स्फु रन्मणिषु याति यथा महत्वं
नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि
।।२०।।
शोभे प्रकाश करी ज्ञान तमो विषे जे,
तेवुं नहीं हरिहरादिकना विषे ते;
रत्नो विषे स्फुरित तेज महत्व भासे,
तेवुं न काच कटके उजळे जणाशे. २०.
भावार्थ :हे नाथ! लोक अने परलोकनो प्रकाशक जे ज्ञान
परिपूर्ण रीते आपने प्राप्त थयुं छे तेवुं हरिहर, ब्रह्मा इत्यादिक देवोने
विषे प्राप्त थयुं नथी केम के प्रकाशमान महामणिना समूहने विषे जेवुं
तेजनुं प्राबल्य छे तेवुं तेज काचना ककडाने विषे जणातुं ज नथी. २०.

Page 12 of 105
PDF/HTML Page 20 of 113
single page version

background image
१२ ][ पंचस्तोत्र
मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः
कश्चिन्मनो हरति नाथ भवांतरेऽपि
।।२१।।
मानुं रूडुं हरिहरादिकने दीठा ते,
दीठे छते हृदय आप विषे ठरे छे;
जोवा थकी जगतमां प्रभुनो प्रकाश,
जन्मान्तरे न हरशे मन कोई नाथ. २१.
भावार्थ :हे प्रभो! हरीहर, ब्रह्मा आदि देवो मारी द्रष्टिए
पड्या ए सारुं ज थयुं छे, केम के आपने जोवाथी मारुं हृदय संतोष
पाम्युं छे एनुं कारण ए छे के ए देवो राग
द्वेष सहित छे, अने आप
रागद्वेष रहित वीतराग छो. माटे हे नाथ! आ लोकमां आपने जोवाथी
मने लाभ थयो छे ते एटलो ज के भवान्तरने विषे पण अन्य कोई देव
मारुं मन हरण करी शकनार नथी.
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रा -
न्नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्त्ररश्मिं
प्राच्येव दिग्जनयति स्कुरदंशुजालम्
।।२२।।
स्त्री सेंकडो प्रसवती कदि पुत्र झाझा,
ना अन्य आप सम को प्रसवे जनेता;
तारा अनेक धरती ज दिशा बधीय,
तेजे स्फुरित रविने प्रसवे ज पूर्व. २२.
भावार्थ :जेम ताराओना समूहोने सर्वे दिशाओ धारण करे छे
पण तेजस्वी सूर्यने तो मात्र पूर्व दिशा ज जन्म आपे छे; तेमज सेंकडो