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कोई जनेता उत्पन्न करती ज नथी. २२.
नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनींद्रपंथाः
कर्मो आपे नष्ट करी दीधेला होवाथी तथा केवळज्ञान अवस्थामां भामंडळ
समान तेजस्वी होवाथी सूर्य समान तेजस्वी कहेवाओ छो. आप ज
अमल
छे. हे नाथ! साचुं तो ए छे के आपने सम्यक् प्रकारे पाम्या विना बीजो
कोई मोक्षनो श्रेष्ठ मार्ग छे ज नहीं. २३.
ब्रह्माणमीश्वरमनंतमनंगकेतुम्
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदंति संतः
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त्रणे लोकमां व्याप्त छे तेथी आपने ‘विभु व्यापक अथवा समर्थ कहे छे.
आपनुं स्वरूप कोई चिंतवन करी शकता नथी तेथी आपने ‘अचिंत्य’ कहे
छे. आपना गुणोनी संख्या नहीं होवाथी आपने ‘असंख्य’ कहे छे. एवी
रीते सत्पुरुषो अनेक विशेषणोथी ज्ञानना साक्षात् स्वरूपे वर्णवी आपने
निर्मळ कहे छे. हे प्रभो! आप कर्मोनो नाश करी सिद्ध थया छो. अने
आप अनादि मुक्त नथी तेथी आपने ‘आद्य’ कहे छे अथवा युगनी
आदिमां आपे कर्मभूमिनी रचना करी, अने चोवीश तीर्थंकरोमां आद्य
तीर्थंकर छो तेथी आपने ‘आद्य’ कहे छे. सघळा कर्मोथी आप रहित छो
अथवा आनंदमय छो तेथी आपने ‘ब्रह्मा’ कहे छे. आप कृतकृत्य छो
तेथी आपने ‘ईश्वर’ कहे छे. अनंतज्ञान, अनंतदर्शनादिथी आप युक्त
छो अथवा अनीश्वर छो तेथी आपने ‘अनंत’ कहे छे. संसारनुं कारण
जे काम तेने आप नाश करनार छो तेथी आपने ‘अनंगकेतु’ कहे छे.
योगी अर्थात् सामान्य केवळी या मन, वचन, कायाना व्यापारने
जीतवावाळा जे मुनिजन छे तेना आप स्वामी छो तेथी आपने
‘योगीश्वर’ कहे छे. आपथी चढियातुं बीजुं कोई नथी तेथी आपने ‘एक’
कहे छे. आप केवळज्ञानस्वरूप छो. अर्थात् समग्र कर्मोनो क्षय करीने
आप चित्तस्वरूप थया छो, तेथी आपने ‘ज्ञानस्वरूप’ कहे छे. आप कर्म
मल रहित छो तेथी आपने ‘अमल’ कहे छे. २४.
व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि
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क्षणिकवादी छे, संसारना पदार्थोने क्षणिक बतावे छे, वळी तेमनामां
केवळज्ञान न होवाथी वस्तुस्वरूपने ठीकठीक जाणता नथी तेथी तेओ साचा
बुद्ध नथी. आप त्रण लोकनुं कल्याण करवावाळा, सुख आपवावाळा छो
तेथी आप ज साचा ‘शंकर’ छो. वळी आप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने
सम्यक्चारित्ररूप सत्यार्थ मोक्षमार्गनो उपदेश आपो छो तेथी आप ज
साचा ‘ब्रह्मा’ छो. नाथ! आप ज साक्षात् ‘पुरुषोत्तम’ अर्थात् पुरुष
तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय
तुभ्यं नमो जिन ! भवोदधिशोषणाय
समुद्रने सुकाववावाळा छो अर्थात् भव्य जीवोने मोक्ष प्राप्त कराववावाळा
छो तेथी आपने मारा नमस्कार हो. २६.
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स्वप्नांतरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि
मळवाथी जेमने गर्व उत्पन्न थयेलो छे, एवा गर्वादिदोषो तो आपने विषे
स्वप्नांतरे पण जोयेला ज नथी. २७.
बिंबं रवेरिव पयोधरपार्श्ववर्ति
देखाय छे मानो, जेनां किरणो सर्वे दिशाओने प्रकाशित करी रह्या छे अने
अंधकारनो सर्वथा नाश करे छे एवो सूर्य पण मेघोनी आसपास शोभे
तेम आप शोभी रह्या छो. २८.
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विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम्
तुंगोदयाद्रिशिरसीव सहस्त्ररश्मेः
शोभे छे तेवी ज रीते हे जिनेन्द्र! मणीओना किरणोनी पंक्तिओ वडे
करीने विचित्र देखाता सिंहासन पर सुवर्ण जेवुं मनोहर आपनुं शरीर
अत्यंत शोभे छे. २९.
विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम्
तेम मोगराना पुष्प जेवा धोळा (फरता) वींजाता चामरो वडे, सोनाना जेवुं
मनोहर, आपनुं शरीर शोभी रहेल छे. ३०.
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प्रख्यापयन्निजगतः परमेश्वरत्वम्
शोभायमान, एवा आपना उपर रहेलां त्रण छत्रो शोभी रह्यां छे ते जाणे
जगतमां आपनुं अधिपतिपणुं जाहेर करतां होय एम शोभे छे. ३१.
खे दुंदुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी
वस्तुओ प्राप्त कराववामां समर्थ छे, जे सद्धर्मराज अर्थात् परम भट्टारक,
तीर्थंकर भगवाननी संसारमां जयघोषणा करी रह्या छे, अर्थात् ए बतावी
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आपनो जे सुयश प्रगट करी रह्या छे तेना दुंदुभि आकाशने विषे
जयघोषणा करी तेनी गर्जना करी रह्या छे. ३२.
दिव्या दिवः पतति ते वचसां ततिर्वा
अने मंद वायुए प्रेरायेली, स्वर्गमांथी घणी ज पडे छे. ते जाणे आपना
दिव्यध्वनिनी माळा ज पडती होय एम शुं नथी? ३३.
लोकत्रये द्युतिमतां द्यतिमाक्षिपन्ती
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम्
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जगतना तेजस्वी पदार्थोना तेजने झांखुं पाडे छे ते आपनी कान्ति
एकसाथ उगेला अनेक सूर्योनी माफक तेजस्वी छे, अने चंद्रना जेवी
शीतळ चांदनी रातने पण पराजित करे तेवी छे अर्थात् आपनी प्रभा
सूर्यथी पण अधिक तेजस्वी होवाथी लोकोने संताप करती नथी अर्थात् ते
बहु ज शीतळ छे. ३४.
सद्धर्मतत्त्वकथनैकपटुस्त्रिलोक्याः
दिव्यध्वनि स्वभावथी ज बधी भाषाओमां परिणमी जाय छे तेथी
संसारना बधा प्राणीओ पोतपोतानी भाषाओमां तेने विस्तारपूर्वक समजी
जाय छे ए आपनो अचिंत्य प्रभाव छे. ३५.
पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति
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छे एवा आपना चरणो पृथ्वी उपर ज्यां ज्यां आप धरो छो, ते ते ठेकाणे
देवो सुवर्णकमळनी रचना करे छे. ३६.
धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य
ता
कदी पण थई नहीं. ए साचुं छे के गाढ अंधकारनो नाश करवावाळा
सूर्यनी प्रभा जेवी प्रभा नक्षत्रोनी थती नथी. ३७.
दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम्
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भमराओना गुंजारव वडे जेनो कोप वृद्धिने पामेलो छे, एवो जे उद्धत
ऐरावत हाथी पण जो कदाच सामो आवे तोपण तेने देखीने आपनो जे
आश्रित होय छे तेने भय उपजतो नथी. ३८.
नाक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते
पृथ्वी शोभावी छे; एवा बळवान दोडता सिंहना अडफटमां जो माणस
आवी पड्यो होय तो ते पण जो आपना चरणरूपी पर्वतनो आश्रय ले
तो तेने सिंह पण मारी शकतो नथी
दावानलं ज्वलितमुज्जवलमुत्स्फु लिंगम्
त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम्
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वननो अग्नि जाणे जगतने बाळी नांखवानी इच्छा करतो होय नहीं, तेवो
जोरमां सळगतो सळगतो अग्नि सन्मुख आवे तो तेने पण आपना
नामनुं कीर्तन
क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फ णमापतंतम्
धसी आवतो होय तेने पण, जे माणसनी पासे आपना नामरूपी
नागदमनी औषधि होय तो ते माणस निशंकपणे तेने ओळंगी जाय छे
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त्वत्कीर्तनात्तम ईवाशु भिदामुपैति
राजाना सैन्यने पण, जेम उदय पामेला सूर्यनां किरणोनी शिखाओ वडे,
अंधकारनो नाश करी शकाय छे तेवी रीते आपना कीर्तनथी अने भक्तिथी
जीती शकाय छे. ४२.
युद्धे जयं विजितदुर्जयजेयपक्षा
तरवामां आतुर थई गया छे एवा भयानक युद्धने विषे, जेने आपना
चरणकमळरूपी वननो आश्रय होय छे तेओ अजित शत्रुओने पण जीती
शके छे. ४३.
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सागर मध्ये वहाणमांनां माणसो आवी पडेला होय छे ते पण आपना
स्मरणथी निर्भयपणे जोखमाया वगर तरीपार जई शके छे. ४४.
शोच्यां दशामुपगताश्च्युतजीविताशाः
मर्त्या भवंति मकरध्वजतुल्यरुषाः
गई छे अथवा जेओ पोताना जीवनथी सर्वथा निराश थई गया छे एवा
मनुष्यो पण आपना चरणकमळोनी रज
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गाढं बृहन्निगडकोटिनिघृष्टजंघाः
सद्यः स्वयं विगतबंधभया भवंति
बेडीओथी जेओनी जांघो खूब घसाई रही छे एवा लोक पण आपना
नामरूपी पवित्र मंत्रनुं निरंतर स्मरण करवाथी बहु जलदीथी ए बंधनना
भयथी मुक्त थई जाय छे. ४६.
यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते
समुद्र, जलोदर अने बंधन विगेरेथी थता भयथी तुरत ज मुक्त थई जाय
छे. मतलब के एवा लोको आगळथी भय डरी गयो होय तेम नष्ट थई
जाय छे. ४७.
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भक्त्या मया विविधवर्णविचित्रपुष्पाम्
तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मीः
पोताना कंठमां धारण करे छे
आ स्तोत्र रचवावाळा श्री मानतुंग आचार्यने राजवैभव तथा स्वर्ग
मोक्षरूपी लक्ष्मी अवश्य प्राप्त थाय छे. अर्थात् आ पवित्र स्तोत्रनो
हरहंमेश श्रद्धा भक्ति साथे, पाठ करनार लोकोने धन संपत्ति, राज वैभव,
स्वर्ग विगेरे विभूति कोईपण जातना कष्ट भोगव्या सिवाय प्राप्त थाय
छे. आ मंत्रना प्रभावथी राज्य, धन, वैभव, ऐश्वर्य, पुत्र, निरोगता
आदि प्राप्त थाय छे ए तो स्तोत्रना अनुषांगिक
मोक्ष पदनी प्राप्ति होईने मोक्षलक्ष्मी प्राप्त करे छे. राजवैभव
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भीताभयप्रदमनिन्दितमङ्घ्रिपद्मम्
स्तोत्रं सुविस्तृतमतिर्न विभुर्विधातुम्
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सुंदर) अने संसार
महिमाना समुद्र छे, जेमनी स्तुति करवाने स्वयं विशाळबुद्धि (बार
अंगना ज्ञाता) बृहस्पति पण समर्थ नथी, जेमणे कर्मठनो गर्व
भस्मीभूत कर्यो हतो ते पार्श्वनाथ तीर्थंकरनी आश्चर्यनी वात छे के हुं
स्तुति करुं छुं. १
रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः
नहि, जेम दिवसे जे देखी शकतुं नथी एवुं घुवडनुं बच्चुं धीठ थईने पण
शुं सूर्यना बिंबनुं वर्णन करी शके छे? ३.
नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत
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समुद्र पोतानुं बधुं जळ बहार फेंकीने बिल्कुल खाली थई जाय छे अने
ते वखते तेमां रहेल रत्नो स्पष्टपणे प्रगट थवा छतां तेने कोई गणी शकतुं
नथी. ४.
कर्तुं स्तवं लसदसंख्यगुणाकरस्य
विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः
बाळक पण पोतानी बुद्धि प्रमाणे पोताना बन्ने हाथ फेलावीने समुद्रनी
विशाळता बतावे छे के समुद्र आवडो मोटो छे. ५.
वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः
जल्पन्ति वा निजगिरा ननु पक्षिणोऽपि
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प्रकारनी स्तुति विचार कर्या विना थई छे केम के ज्यां कथन करवानी शक्ति
ज नथी त्यां करवामां आवेली कोई पण स्तुति विचार रहित ज गणाय.
छतां पण जेम पक्षीओ मनुष्यनी भाषामां बोलवा असमर्थ होवा छतां
पोतानी भाषामां बोल्या करता होय छे तेम हुं पण स्तुति करवाने प्रवृत्त
थयो छुं. ६.
प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि
दुःखोथी बचावी ले छे. जेम गरमीनी ॠतुमां असह्य तापथी व्याकुळ
बनेला मुसाफरोने केवळ कमळवाळा सरोवर ज सुख आपतां नथी परंतु
तेमना सूक्ष्म जळकणोथी मळेलो पवन पण सुख आपे छे. ७.
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जन्तोः क्षणेन निबिडा अपि कर्मबन्धाः
प्रभो! आप ज्यारे भव्य जीवोना मनमंदिरमां निवास करो छो त्यारे
तेमना द्रढ कर्मोना बंधन पण तत्क्षण ढीलां पडी जाय छे. ८.
रौद्रेरूपद्रवशतैस्त्वयि वीक्षितेऽपि
चोरैरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः
चोरोना पंजामांथी गाय, भेंस आदि पशुओ मुक्त थई जाय छे तेवी ज
रीते हे जिनेन्द्र! आपना सम्यक् प्रकारे दर्शन करतां ज मनुष्यो महा
भयानक सेंकडो उपद्रवोथी तत्काल मुक्ति पामे छे. ९.