Panch Stotra-Gujarati (Devanagari transliteration). Kalyanmandir Aparnam Shree Parshvanath Stotra.

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भक्तामरस्तोत्र ][ १३
स्त्रीओ घणाए पुत्रोने जन्म आपे छे; छतां आपना समान पुत्रने तो बीजी
कोई जनेता उत्पन्न करती ज नथी. २२.
त्वामामनंति मुनयः परमं पुमांस
मादित्यवर्णममलं तमसः पुरस्तात्
त्वामेव सम्यपुगलभ्य जयन्ति मृत्युं
नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनींद्रपंथाः
।।२३।।
माने परंपुरुष सर्व मुनि तमोने,
ने अंधकार समीपे रवि शुद्ध जाणे;
पामी तने सुरीत मृत्यु जीते मुनींद्र,
छे ना बीजो कुशळ मोक्ष तणो ज पंथ. २३.
भावार्थ :हे मुनींद्र! आपने मुनिओ परम पुरुष माने छे.
आप अंधकार विनाना होई अथवा अंधकार अर्थात् ज्ञानावरणी आदि
कर्मो आपे नष्ट करी दीधेला होवाथी तथा केवळज्ञान अवस्थामां भामंडळ
समान तेजस्वी होवाथी सूर्य समान तेजस्वी कहेवाओ छो. आप ज
अमल
रागद्वेष रहित होवाथी निर्मळ कहेवाओ छो. अने मन, वचन,
कायानी शुद्धिथी आपनुं आराधन करीने लोको मृत्यु पर विजय प्राप्त करे
छे. हे नाथ! साचुं तो ए छे के आपने सम्यक् प्रकारे पाम्या विना बीजो
कोई मोक्षनो श्रेष्ठ मार्ग छे ज नहीं. २३.
त्वामव्ययं विभुमचिंत्यमसंख्यमाद्यं
ब्रह्माणमीश्वरमनंतमनंगकेतुम्
योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदंति संतः
।।२४।।
तुं आद्य, अव्यय, अचिंत्य, असंख्य, विभु
छे ब्रह्मा, ईश्वर, अनंत, अनंगकेतु;

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१४ ][ पंचस्तोत्र
योगीश्वरं, विदित योग, अनेक एक,
के’छे, तने विमळ ज्ञानस्वरूप संत. २४.
भावार्थ :प्रभो! आपना अनंतज्ञानादिस्वरूप आत्मानो कदि
नाश होतो नथी तेथी योगीजन आपने ‘अव्यय’ कहे छे. आपनुं ज्ञान
त्रणे लोकमां व्याप्त छे तेथी आपने ‘विभु व्यापक अथवा समर्थ कहे छे.
आपनुं स्वरूप कोई चिंतवन करी शकता नथी तेथी आपने ‘अचिंत्य’ कहे
छे. आपना गुणोनी संख्या नहीं होवाथी आपने ‘असंख्य’ कहे छे. एवी
रीते सत्पुरुषो अनेक विशेषणोथी ज्ञानना साक्षात् स्वरूपे वर्णवी आपने
निर्मळ कहे छे. हे प्रभो! आप कर्मोनो नाश करी सिद्ध थया छो. अने
आप अनादि मुक्त नथी तेथी आपने ‘आद्य’ कहे छे अथवा युगनी
आदिमां आपे कर्मभूमिनी रचना करी, अने चोवीश तीर्थंकरोमां आद्य
तीर्थंकर छो तेथी आपने ‘आद्य’ कहे छे. सघळा कर्मोथी आप रहित छो
अथवा आनंदमय छो तेथी आपने ‘ब्रह्मा’ कहे छे. आप कृतकृत्य छो
तेथी आपने ‘ईश्वर’ कहे छे. अनंतज्ञान, अनंतदर्शनादिथी आप युक्त
छो अथवा अनीश्वर छो तेथी आपने ‘अनंत’ कहे छे. संसारनुं कारण
जे काम तेने आप नाश करनार छो तेथी आपने ‘अनंगकेतु’ कहे छे.
योगी अर्थात् सामान्य केवळी या मन, वचन, कायाना व्यापारने
जीतवावाळा जे मुनिजन छे तेना आप स्वामी छो तेथी आपने
‘योगीश्वर’ कहे छे. आपथी चढियातुं बीजुं कोई नथी तेथी आपने ‘एक’
कहे छे. आप केवळज्ञानस्वरूप छो. अर्थात् समग्र कर्मोनो क्षय करीने
आप चित्तस्वरूप थया छो, तेथी आपने ‘ज्ञानस्वरूप’ कहे छे. आप कर्म
मल रहित छो तेथी आपने ‘अमल’ कहे छे. २४.
बुद्धस्त्वमेवविबुधार्चितबुद्धिबोधा
त्त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात्
धातासि धीर ! शिवमार्गविधेर्विधानाद्
व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि
।।२५।।

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भक्तामरस्तोत्र ][ १५
छो बुद्धि बोधथकी हे सुरपूज्य बुद्ध,
छो लोकने सुखद शंकर तेथी शुद्ध;
छो मोक्षमार्ग विधि धारणाथी ज धाता,
छो स्पष्ट आप पुरुषोत्तम स्वामी त्राता. २५.
भावार्थ :प्रभो! आपना केवळज्ञाननी गणधरो तथा स्वर्गना
देवोए पूजा करी छे तेथी आप ज साचा ‘बुद्ध’ छो परंतु जेओ
क्षणिकवादी छे, संसारना पदार्थोने क्षणिक बतावे छे, वळी तेमनामां
केवळज्ञान न होवाथी वस्तुस्वरूपने ठीकठीक जाणता नथी तेथी तेओ साचा
बुद्ध नथी. आप त्रण लोकनुं कल्याण करवावाळा, सुख आपवावाळा छो
तेथी आप ज साचा ‘शंकर’ छो. वळी आप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने
सम्यक्चारित्ररूप सत्यार्थ मोक्षमार्गनो उपदेश आपो छो तेथी आप ज
साचा ‘ब्रह्मा’ छो. नाथ! आप ज साक्षात् ‘पुरुषोत्तम’ अर्थात् पुरुष
श्रेष्ठ श्री नारायण छो. २५.
तुभ्यं नमस्रिभुवनार्तिहराय नाथ !
तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय
तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय
तुभ्यं नमो जिन ! भवोदधिशोषणाय
।।२६।।
त्रैलोक दुःखहर नाथ! तने नमोस्तु,
तुं भूतळे अमलभूषणने नमोस्तु;
त्रलोकना ज परमेश्वरने नमोस्तु,
हे जिन शोषक भवाब्धि! तने नमोस्तु. २६.
भावार्थ :हे नाथ! आप ज त्रणे भुवनोना जीवोना दुःख नाश
करवावाळा छो, पृथ्वीना एक अत्यंत सुंदर भूषण छो अने संसाररूप
समुद्रने सुकाववावाळा छो अर्थात् भव्य जीवोने मोक्ष प्राप्त कराववावाळा
छो तेथी आपने मारा नमस्कार हो. २६.

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१६ ][ पंचस्तोत्र
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषै
स्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश
दोषैरुपात्तविविधाश्रयजातगर्वैः,
स्वप्नांतरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि
।।२७।।
आश्चर्य शुं गुण ज सर्व कदि मुनीश,
तारो ज आश्रय करी वसता हंमेश;
दोषो धरी विविध आश्रय उपजेला,
गर्वादिके न तमने स्वपने दीठेला. २७.
भावार्थ :हे मुनींद्र! तमाम गुणो ज तमारामां परिपूर्ण रीते
आश्रय करीने रहेला छे एमां शुं आश्चर्य छे? केमके अनेक स्थळे आश्रय
मळवाथी जेमने गर्व उत्पन्न थयेलो छे, एवा गर्वादिदोषो तो आपने विषे
स्वप्नांतरे पण जोयेला ज नथी. २७.
उच्चैरशोकतरुसंश्रितमुन्मयूख
माभातिरुपममलं भवतो नितांतम्
स्पष्टोल्लसत्किरणमस्ततमोवितानं
बिंबं रवेरिव पयोधरपार्श्ववर्ति
।।२८।।
ऊंचा अशोकतरु आश्रित कीर्ण ऊंच,
अत्यंत निर्मळ दीसे प्रभु आप रूप;
ते जेम मेघ समीपे रही सूर्यबिंब;
शोभे प्रसारी किरणो हणीने तिमिर. २८.
भावार्थ :हे जिनेश्वर! जेनां किरणो उपरनी तरफ फेलाई रह्यां
छे, एवुं आपनुं उज्ज्वल शरीर, ऊंचा अशोक वृक्षनी नीचे बहु सुंदर
देखाय छे मानो, जेनां किरणो सर्वे दिशाओने प्रकाशित करी रह्या छे अने
अंधकारनो सर्वथा नाश करे छे एवो सूर्य पण मेघोनी आसपास शोभे
तेम आप शोभी रह्या छो. २८.

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भक्तामरस्तोत्र ][ १७
सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे,
विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम्
बिंम्बं वियद्विलसदंशुलतावितानं,
तुंगोदयाद्रिशिरसीव सहस्त्ररश्मेः
।।२९।।
सिंहासने मणि तणा किरणे विचित्र,
शोभे सुवर्ण सम आप शरीर गौर;
ते सूर्यबिंब उदयाचळ शिर टोचे,
आकाशमां किरण जेम प्रसरी शोभे. २९.
भावार्थ :हे भगवन्! जेवी रीते उदयाचळ पर्वतनी उपर
आकाशने विषे प्रकाशमान किरणो रूपी लताओना समूह वडे सूर्यनुं बिंब
शोभे छे तेवी ज रीते हे जिनेन्द्र! मणीओना किरणोनी पंक्तिओ वडे
करीने विचित्र देखाता सिंहासन पर सुवर्ण जेवुं मनोहर आपनुं शरीर
अत्यंत शोभे छे. २९.
कुंदावदातचलचामरचारुशोभं,
विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम्
उद्यघ्छशांकशुचिनिर्झरवारिधार
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौंभम् ।।३०।।
धोळां ढळे अमरकुंद समान एवुं,
शोभे सुवर्णमय रम्य शरीर तारुं;
ते उगता शशिसमा जळ झर्ण धारे,
मेरु तणा कनकना शिर पेठ शोभे. ३०.
भावार्थ :जेम उदय पामेला चंद्रमाना जेवी निर्मळ पाणीना
झरणनी धाराओ वडे, मेरू पर्वतनुं सुवर्णमय ऊंचुं शिखर शोभी रहे छे,
तेम मोगराना पुष्प जेवा धोळा (फरता) वींजाता चामरो वडे, सोनाना जेवुं
मनोहर, आपनुं शरीर शोभी रहेल छे. ३०.

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१८ ][ पंचस्तोत्र
छत्रत्रयं तव विभाति शशांककांत
मुच्चैः स्थितं स्थगितभानुकरप्रतापम्
मुक्ताफलप्रकरजालविवृद्धशोभं
प्रख्यापयन्निजगतः परमेश्वरत्वम्
।।३१।।
ढांके प्रकाश रविनो, शशितुल्य रम्य,
मोती समूह रचनाथी दीपायमान;
एवां प्रभुजी तमने त्रण छत्र शोभे,
त्रैलोकनुं अधिपतिपणुं ते जणावे. ३१.
भावार्थ :हे भगवान्! तारा सहित चंद्रमा जेवा मनोहर,
सूर्यनां किरणना तापनुं निवारण करनार अने मोतीओना समूहनी रचनाथी
शोभायमान, एवा आपना उपर रहेलां त्रण छत्रो शोभी रह्यां छे ते जाणे
जगतमां आपनुं अधिपतिपणुं जाहेर करतां होय एम शोभे छे. ३१.
गंभीरताररवपूरितदिग्विभाग
स्त्रैलोकयलोकशुभसंगमभूतिदक्षः
सद्धर्मराजजयघोषणघोषकः सन्,
खे दुंदुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी
।।३२।।
गंभीर ऊंच स्वरथी पुरी छे दिशाओ,
त्रैलोकने सरस संपद आपनारो;
सद्धर्मराज जयने कथनार खुल्लो,
वागे छे दुंदभी नभे यशवादी तारो. ३२.
भावार्थ :हे नाथ! जेणे पोताना गंभीर अने मनोहर शब्दो
वडे दिशाओने शब्दमय करी दीधी छे, त्रिभुवनना प्राणीओने उत्तर
वस्तुओ प्राप्त कराववामां समर्थ छे, जे सद्धर्मराज अर्थात् परम भट्टारक,
तीर्थंकर भगवाननी संसारमां जयघोषणा करी रह्या छे, अर्थात् ए बतावी

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भक्तामरस्तोत्र ][ १९
रह्या छे के पवित्र धर्मना अधिश्वर अने प्रवर्तक आप ज छो एवी रीते
आपनो जे सुयश प्रगट करी रह्या छे तेना दुंदुभि आकाशने विषे
जयघोषणा करी तेनी गर्जना करी रह्या छे. ३२.
मंदारसुंदरनमेरुसुपारिजात
सन्तानकादिकुसुमोत्करवृष्टिरुद्धा
गंधोदबिंदुशुभमंदमरुत्प्रपाता
दिव्या दिवः पतति ते वचसां ततिर्वा
।।३३।।
मंदार सुंदर नमेरुज पारिजाते,
संतानकादि फुलनी बहु वृष्टि भारे;
पाणीकणे सुरभि मंद समीर प्रेरे,
शुं दिव्य वाणी तुज स्वर्ग थकी पडे ते. ३३.
भावार्थ :मंदार, सुंदर नमेरू, पारिजात अने संतानक इत्यादि
कल्पवृक्षोना फूलोनी जे दिव्य वृष्टि, सुगंधदार पाणीना बिंदुओ वडे शीतळ
अने मंद वायुए प्रेरायेली, स्वर्गमांथी घणी ज पडे छे. ते जाणे आपना
दिव्यध्वनिनी माळा ज पडती होय एम शुं नथी? ३३.
शुंभत्प्रभावलयभूरिविभा विभोस्ते
लोकत्रये द्युतिमतां द्यतिमाक्षिपन्ती
प्रोद्यद्विवाकरनिरंतरभूरिसंख्या
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम्
।।३४।।
शोभे विभो प्रसरती तुज कान्ति हारे,
त्रैलोकना द्युति समूहनी कान्ति भारे;
ते उगता रविसमी बहु छे छतांये,
रात्रि जीते शीतल चंद्र समान तेजे. ३४.
भावार्थ :हे प्रभु! त्रिभुवनना बधा कान्तिवान पदार्थोनी

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२० ][ पंचस्तोत्र
कान्तिने जीतवावाळी, आपनी तेजस्वी प्रभामंडळनी अनंत प्रभा त्रणे
जगतना तेजस्वी पदार्थोना तेजने झांखुं पाडे छे ते आपनी कान्ति
एकसाथ उगेला अनेक सूर्योनी माफक तेजस्वी छे, अने चंद्रना जेवी
शीतळ चांदनी रातने पण पराजित करे तेवी छे अर्थात् आपनी प्रभा
सूर्यथी पण अधिक तेजस्वी होवाथी लोकोने संताप करती नथी अर्थात् ते
बहु ज शीतळ छे. ३४.
स्वर्गापवर्गगममार्गविमार्गणेष्टः
सद्धर्मतत्त्वकथनैकपटुस्त्रिलोक्याः
दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसर्व
भाषास्वभावपरिणामगुणैः प्रयोज्यः ।।३५।।
जे स्वर्ग - मोक्षसम मार्ग ज शोधी आपे,
सद्धर्म तत्त्वकथवे पटु त्रैण लोके;
दिव्यध्वनि तुज थतो विशदार्थ सर्व,
भाषा - स्वभाव - परिणाम गुणोथी युक्त. ३५.
भावार्थ :हे नाथ! स्वर्ग अने मोक्षना मार्गने बतावनारा तथा
त्रिभुवनना लोकोने श्रेष्ठ धर्म तत्त्वनो उपदेश करवामां समर्थ आपनी
दिव्यध्वनि स्वभावथी ज बधी भाषाओमां परिणमी जाय छे तेथी
संसारना बधा प्राणीओ पोतपोतानी भाषाओमां तेने विस्तारपूर्वक समजी
जाय छे ए आपनो अचिंत्य प्रभाव छे. ३५.
उन्निद्रहेमनवपंकजपुंजकांती
पर्युल्लसन्नखमयूखशिखाभिरामौ
पादौ पदानी तव यत्र जिनेंद्र धत्तः
पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति
।।३६।।
खीलेल हेम कमळो सम कान्तिवाळा,
फेली रहेल नखतेज थकी रूपाळा;

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भक्तामरस्तोत्र ][ २१
एवा जिनेन्द्र तुम पाद डगो भरे छे,
त्यां कल्पना कमळनी विबुधो करे छे. ३६.
भावार्थ :हे जिनेन्द्र! सुवर्णना नवा खीलेलां कमळोना समूहनी
कान्ति जेवी प्रसरी रहेला नखोना किरणोनी पंक्ति वडे जे सुंदर देखाय
छे एवा आपना चरणो पृथ्वी उपर ज्यां ज्यां आप धरो छो, ते ते ठेकाणे
देवो सुवर्णकमळनी रचना करे छे. ३६.
इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेंद्र !
धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य
याद्वक् प्रभा दिनकृतः प्रहतांधकारा
ता
द्रक्कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ।।३७।।
एवी जिनेन्द्र थई जे विभूति तमोने,
धर्मोपदेश समये नहि ते बीजाने;
जेवी प्रभा तिमिरहारी रवितणी छे,
तेवी प्रकाशित ग्रहोनी कदि बनी छे? ३७.
भावार्थ :हे जिनेन्द्र! समवसरण वखते जे प्रकारनी संपत्तिओ
धर्मनो उपदेश करती वखते आपने प्रगट थई तेवी अन्य देवो पैकी कोईने
कदी पण थई नहीं. ए साचुं छे के गाढ अंधकारनो नाश करवावाळा
सूर्यनी प्रभा जेवी प्रभा नक्षत्रोनी थती नथी. ३७.
श्च्योतन्मदाविलविलोलकपोलमूल
मत्तभ्रमद्भ्रमरनादविवृद्धकोपम्
ऐरावताभमिमुद्धतमापतंतं,
दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम्
।।३८।।
व्हेता मदे मलिन चंचळ शिर तेवो,
गुंजारवे भ्रमरना बहु क्रोधी एवो;

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२२ ][ पंचस्तोत्र
ऐरावते तुलित उद्धत हाथी सामे,
आवेल जोई तुम आश्रित भो न पामे. ३८.
भावार्थ :जेनुं गंडस्थळ झरता मद वडे करीने खरडायेलुं छे,
वळी जे माथुं धुणाव्या करे छे अने तेनी आजुबाजु भमता उन्मत्त
भमराओना गुंजारव वडे जेनो कोप वृद्धिने पामेलो छे, एवो जे उद्धत
ऐरावत हाथी पण जो कदाच सामो आवे तोपण तेने देखीने आपनो जे
आश्रित होय छे तेने भय उपजतो नथी. ३८.
भिन्नेभकुंभमगलदुज्वलशोणिताक्त
मुक्ताफलप्रकरभूषितभूमिभागः
बद्धत्र्क्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि,
नाक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते
।।३९।।
भेदी गजेन्द्र शिर श्वेत रुधिरवाळा,
मोती समूह थकी भूमि दीपावी एवा;
दोडेल सिंह तणी दोट विषे पडे जे,
ना तुज पादगिरि आश्रयथी मरे ते. ३९.
भावार्थ :जेणे हाथीओना कुंभस्थळ छेदीने (तेमां छेद
पाडीने) तेमांथी गळतां उज्ज्वळ अने लोहीथी खरडायला मोती वडे
पृथ्वी शोभावी छे; एवा बळवान दोडता सिंहना अडफटमां जो माणस
आवी पड्यो होय तो ते पण जो आपना चरणरूपी पर्वतनो आश्रय ले
तो तेने सिंह पण मारी शकतो नथी
आक्रमण करी शकतो नथीपंजामां
लई शकतो नथी. ३९.
कल्पांतकालपवनोद्धतवह्निकल्पं,
दावानलं ज्वलितमुज्जवलमुत्स्फु लिंगम्
विश्वं जिघत्सुभिव संमुखमापतंतं
त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम्
।।४०।।

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भक्तामरस्तोत्र ][ २३
जे जोरमां प्रलयना पवने थयेलो,
ओढा उडे बहु ज अग्नि दवे धीकेलो;
संहारशे जगत सन्मुख तेम आवे,
ते तुज कीर्तनरूपी जळ शांत पाडे. ४०.
भावार्थ :जो प्रलयकाळना पवनथी उद्धत थयेलो अग्नि जेनी
अंदरथी घणा तणखा उडे छे अने घणा ज प्रकाशवाळो छे एवो दावानळ
वननो अग्नि जाणे जगतने बाळी नांखवानी इच्छा करतो होय नहीं, तेवो
जोरमां सळगतो सळगतो अग्नि सन्मुख आवे तो तेने पण आपना
नामनुं कीर्तन
स्तवन रूपी जळ समग्र रीते बुझावी नांखे छे. ४०.
रक्तेक्षणं समदकोकिलकंठनीलं,
क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फ णमापतंतम्
आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशंक
स्त्वन्नामनागदमनी हृदि यस्य पुंसः ।।४१।।
जे रक्तनेत्र, पीककंठ समान काळो,
ऊंची फणे सरप सन्मुख आवनारो;
तेने निःशंक जन तेह उलंघी चाले,
त्वं नाम नागदमनी दिल जेह धारे. ४१.
भावार्थ :लालचोळ आंखोवाळा मदोन्मत्त अने कोयलना कंठ
जेवो काळो अने क्रोधे करीने छंछेडायेलो एवो सर्प ऊंची फेण करीने सामो
धसी आवतो होय तेने पण, जे माणसनी पासे आपना नामरूपी
नागदमनी औषधि होय तो ते माणस निशंकपणे तेने ओळंगी जाय छे
एवो साप पण आपना भक्तने करडी शकतो नथी. ४१.
वल्गत्तुरंगगजगर्जितभीमनाद
माजौ बलं बलवतामपि भूपतीनाम्

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२४ ][ पंचस्तोत्र
उद्यद्विाकरमयुखशिखापविद्धं,
त्वत्कीर्तनात्तम ईवाशु भिदामुपैति
।।४२।।
नाचे तुरंग गज शब्द करे महान,
एवुं रणे नृपतिनुं बळवान सैन्य;
भेदाय छे तिमिर जेम रवि करेथी,
छेदाय शीघ्र त्यम ते तुज कीर्तनेथी. ४२.
भावार्थ :जेनी अंदर घोडाओ कूदी रह्या छे अने हाथीओनी
गर्जनाना भयानक शब्दो गूंजी रह्या छे. एवा रणने विषे रहेला बळवान
राजाना सैन्यने पण, जेम उदय पामेला सूर्यनां किरणोनी शिखाओ वडे,
अंधकारनो नाश करी शकाय छे तेवी रीते आपना कीर्तनथी अने भक्तिथी
जीती शकाय छे. ४२.
कुंताग्रभिन्नगजशोणितवारिवाह
वेगावतारतरणातुरयोधभीमे,
युद्धे जयं विजितदुर्जयजेयपक्षा
स्त्वत्पादपंकजवनाश्रयिणो लभंते ।।४३।।
बर्छी थकी हणित हस्ति रूधिर व्हे छे,
योद्धा प्रवाह थकी आतुर ज्यां तरे छे;
एवा युद्धे अजीत शत्रु जीतेजनो ते
त्वत्पादपंकजरूपी वन शर्ण ले जे. ४३.
भावार्थ :भालाओनी अणीओ वडे छेदाई गयेला हाथीओना
रूधिरनो प्रवाह ज्यां आगळ वहे छे अने ज्यां ते प्रवाहनी अंदर योद्धाओ
तरवामां आतुर थई गया छे एवा भयानक युद्धने विषे, जेने आपना
चरणकमळरूपी वननो आश्रय होय छे तेओ अजित शत्रुओने पण जीती
शके छे. ४३.

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भक्तामरस्तोत्र ][ २५
अंभोनिधौ क्षुभितभीषणनक्रचक्र
पाठीनपीठभयदोल्वणवाडवाग्नौ
रंगतरंगशिखरस्थितयानपात्रा
स्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् वृजन्ति ।।४४।।
ज्यां उछळे मगरमच्छ तरंग झाझा,
ने वाडवाग्नि भयकारी थकी भरेला;
एवा ज सागर विषे स्थित नाव जे छे,
ते निर्भये तुज तणा स्मरणे तरे छे. ४४.
भावार्थ :भयंकर मगमच्छ आदि जळचर प्राणीओ जेनी अंदर
उछळी रह्या छे अने भयानक वडवाग्नि जेनी अंदर वसे छे एवा भयंकर
सागर मध्ये वहाणमांनां माणसो आवी पडेला होय छे ते पण आपना
स्मरणथी निर्भयपणे जोखमाया वगर तरीपार जई शके छे. ४४.
उद्भूतभीषणजलोदरभारभुग्नाः
शोच्यां दशामुपगताश्च्युतजीविताशाः
त्वत्पादपंकजरजोऽमृतदिग्धदेहा
मर्त्या भवंति मकरध्वजतुल्यरुषाः
।।४५।।
जे छे नम्या भयद रोग जलोदरेथी
पाम्या दशा दुःखद आश न देहे तेथी;
त्वत्पादपद्म रज अमृत निज देहे
चोळे बने मनुज काम समान रूपे. ४५.
भावार्थ :प्रभो! जे माणसो भयंकर जळोदर वगेरे दर्दना
भारथी दुःखी थई गया छे, अने जेमनी स्थिति अत्यंत शोचनीय थई
गई छे अथवा जेओ पोताना जीवनथी सर्वथा निराश थई गया छे एवा
मनुष्यो पण आपना चरणकमळोनी रज
धूळ पण पोताना शरीर पर
लगाडवाथी कामदेव जेवा सुंदर थई जाय छे. ४५.

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२६ ][ पंचस्तोत्र
आपादकंठमुरुशृंखलवेष्टितांगा
गाढं बृहन्निगडकोटिनिघृष्टजंघाः
त्वन्नाममंत्रमनिशं मनुजाः स्मरंतः
सद्यः स्वयं विगतबंधभया भवंति
।।४६।।
बेडी जडी पगथी छेक गळा सुधीनी,
तेनी झीणी अणिथी जांग घसाय जेनी;
एवा अहोनिश जपे तुज नाममंत्र,
तो ते जनो तुरत थाय रहित बंध. ४६.
भावार्थ :हे नाथ! जेना पगथी माथा सुधी आखुं शरीर मोटी
मोटी लोढानी सांकळोथी खूब मजबूत जकडाई गयुं छे तथा कठोर, तीक्ष्ण
बेडीओथी जेओनी जांघो खूब घसाई रही छे एवा लोक पण आपना
नामरूपी पवित्र मंत्रनुं निरंतर स्मरण करवाथी बहु जलदीथी ए बंधनना
भयथी मुक्त थई जाय छे. ४६.
मत्तद्विपेंद्रमृगराजदवानलाहि
संग्रामवारिधिमहोदरबंधनोत्थम्
तस्याशु नाशमुपयाति मयं भियेव
यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते
।।४७।।
जे मत्त हस्ति, अहि, सिंह, दवानलाग्नि,
संग्राम, सागर, जलोदर, बंधनोथी;
पेदा थयेल भय ते झट नाश पामे,
त्हारूं करे स्तवन आ मतिमान पाठे. ४७.
भावार्थ :हे नाथ! जे बुद्धिमान मनुष्य आ स्तोत्रनो निरंतर
(हरहंमेश) पाठ करे छे ते उन्मत्त हाथी, सिंह, दावानळ, सर्प, युद्ध,
समुद्र, जलोदर अने बंधन विगेरेथी थता भयथी तुरत ज मुक्त थई जाय
छे. मतलब के एवा लोको आगळथी भय डरी गयो होय तेम नष्ट थई
जाय छे. ४७.

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भक्तामरस्तोत्र ][ २७
स्तोत्रस्त्रजं तव जिनेंद्र गुणैर्निबद्धां,
भक्त्या मया विविधवर्णविचित्रपुष्पाम्
धत्ते जनो य इह कण्ठगतामजस्त्रं,
तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मीः
।।४८।।
आ स्तोत्रमाळ तुजना गुणथी गुंथी मैं
भक्तिथकी विविध वर्णरूपी ज पुष्पे;
तेने जिनेन्द्र! जन जे नित्य कंठ नामे,
ते मानतुंग अवशा शिव लक्ष्मी पामे. ४८.
इति आदिनाथ स्तोत्रं
भावार्थ :हे जिनेन्द्र! आपना पवित्र गुणोथी अथवा प्रसाद
आदि माधूर्य आदि गुणोथी गुंथाएली आ स्तोत्ररूपी माळाने जे मनुष्य
पोताना कंठमां धारण करे छे
सुंदर सुंदर अक्षररूपी विचित्र फूलथी
गुंथाएली पुष्पमाळा धारण करे छे तेवा उन्नत हृदयवाळा लोकोने तथा
आ स्तोत्र रचवावाळा श्री मानतुंग आचार्यने राजवैभव तथा स्वर्ग
मोक्षरूपी लक्ष्मी अवश्य प्राप्त थाय छे. अर्थात् आ पवित्र स्तोत्रनो
हरहंमेश श्रद्धा भक्ति साथे, पाठ करनार लोकोने धन संपत्ति, राज वैभव,
स्वर्ग विगेरे विभूति कोईपण जातना कष्ट भोगव्या सिवाय प्राप्त थाय
छे. आ मंत्रना प्रभावथी राज्य, धन, वैभव, ऐश्वर्य, पुत्र, निरोगता
आदि प्राप्त थाय छे ए तो स्तोत्रना अनुषांगिक
कोईपण जातना कष्ठ
विना मळी जाय एवुं फळ छे. परंतु आ स्तोत्रनुं मुख्य फळ तो सर्वत्र
मोक्ष पदनी प्राप्ति होईने मोक्षलक्ष्मी प्राप्त करे छे. राजवैभव
धनसंपत्ति
आदि मळवुं ए एनुं अनुषांगिक फळ छे. ४८.
स्तोत्र कर्तानी इच्छा छे के भव्यजनो आ स्तोत्रनो निरंतर पाठ करी
धर्मलाभ उठावी पोताना आत्मानुं कल्याण करे.
इति श्री मानतुंगआचार्यविरचित श्री आदिनाथस्तोत्र......

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श्री पार्श्वनाथाय नमः ।
कल्याणमंदिर अपरनाम श्री पार्श्वनाथ स्तोत्र
अर्थसहित
तार्किकचक्रचूडामणि श्री कुमुदचन्द्राचार्य
अपरनाम श्री सिद्धसेन दिवाकर विरचित
(वसंततिलिका)
कल्याणमन्दिर मुदारमवद्यभेदि
भीताभयप्रदमनिन्दितमङ्घ्रिपद्मम्
संसारसागरनिमज्जदशेषजंतु
पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ।।।।
यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः
स्तोत्रं सुविस्तृतमतिर्न विभुर्विधातुम्
तीर्थेश्वरस्य कमठस्मयधूमकेतो
स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये ।।।। युग्मम् ।।
(मंदाक्रांता)
कल्याणोना महान वळी जे पापभेदी उदार;
ते भीतोने अभयप्रद जे जे अनिन्दित सार;
जन्माब्धिमां डुबत सघळा जंतुने नाव छे जे,
जिनेंदाना चरणकमळो एहवा वंदीने ते. १.
जेना मोटा महिमजलधि केरूं सुस्तोत्र अत्र,
सुमेधावी सुरगुरु स्वयं गुंथवा नांहि शक्त,
जे तीर्थेशा कमठमदने धूमकेतु जगीश,
एवा तेनुं स्तवन वर आ निश्चये हुं करीश. (युग्म)

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कल्याणमंदिरस्तोत्र ][ २९
अर्थ :कल्याणोना मंदिर, उदार, पापोनो नाश करनार,
संसारना दुःखोथी डरनाराओने निर्भय पद आपनार, अनिंद्य (अतिशय
सुंदर) अने संसार
- समुद्रमां डूबता सर्व जीवोनो उद्धार करवामां जहाज
समान जिनेन्द्र भगवानना चरणकमळोने नमस्कार करीने, जे साक्षात्
महिमाना समुद्र छे, जेमनी स्तुति करवाने स्वयं विशाळबुद्धि (बार
अंगना ज्ञाता) बृहस्पति पण समर्थ नथी, जेमणे कर्मठनो गर्व
भस्मीभूत कर्यो हतो ते पार्श्वनाथ तीर्थंकरनी आश्चर्यनी वात छे के हुं
स्तुति करुं छुं. १
२.
सामान्यतोऽपि तव वर्णयितु स्वरूप -
मस्मादृशाः कथमधीश ! भवन्त्यधीशाः
धृष्ठोऽपि कौशिकशिशुर्यदि वा दिवान्धो,
रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः
।।।।
(मंदाक्रांता)
सामान्येथी पण स्वरूप तो वर्णवा तारुं अत्र,
केवी रीते अम सरिखडा नाथ हे! थाय शकत?
धीठो तोये घुवड शिशु रे! दिवसे आंधळो जे,
शुं भानुनुं स्वरूप प्ररूपे निश्चये एहवो ते? ३.
अर्थ :हे स्वामी! मारा जेवो अल्पबुद्धि सामान्यपणे पण
आपना गुणोनुं वर्णन करवा केवी रीते समर्थ थई शके? अर्थात् थई शके
नहि, जेम दिवसे जे देखी शकतुं नथी एवुं घुवडनुं बच्चुं धीठ थईने पण
शुं सूर्यना बिंबनुं वर्णन करी शके छे? ३.
मोहक्षयादनुभवन्नपि नाथ ! मर्त्यो,
नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत
कल्पान्तवान्तपयसः प्रकटोऽपि यस्मा -
न्मीयेत केन जवधेर्ननु रत्नराशिः ।।।।

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३० ][ पंचस्तोत्र
हे जिनेंदा! अनुभव करे मोहविनाश द्वारा,
तोये मर्त्यो समरथ नथी गुणवा गुण त्हारा;
कल्पांते ज्यां नीरनिधितणुं नीर निश्चे वमाय,
कोनाथी त्यां प्रकट पण रे! रत्नराशि मपाय? ४.
अर्थ :हे नाथ! मनुष्य, मोहनो क्षय थवाथी अनुभव करवा
छतां पण आपना गुणो गणवाने समर्थ थई शकतो नथी जेम प्रलय समये
समुद्र पोतानुं बधुं जळ बहार फेंकीने बिल्कुल खाली थई जाय छे अने
ते वखते तेमां रहेल रत्नो स्पष्टपणे प्रगट थवा छतां तेने कोई गणी शकतुं
नथी. ४.
अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जड़ाशयोऽपि,
कर्तुं स्तवं लसदसंख्यगुणाकरस्य
बालोऽपि किं न निज बाहुयुगं वितत्य,
विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः
।।।।
संख्यातीता महद् गुणनी खाण एवा तमारुं,
स्तोत्र स्वामी! जडमति छतां गुंथवा बुद्धि धारूं!
भाखे ना शुं शिशुय जलधि केरी विस्तिर्णताने,
ह्यां विस्तारी स्वभुजयुगने निज बुद्धि प्रमाणे! ५.
अर्थ :हे भगवान्! जो के हुं जडबुद्धि छुं तो पण असंख्य
गुणोथी सुशोभित एवा आपनो महिमा गावाने तैयार थयो छुं जेम
बाळक पण पोतानी बुद्धि प्रमाणे पोताना बन्ने हाथ फेलावीने समुद्रनी
विशाळता बतावे छे के समुद्र आवडो मोटो छे. ५.
ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश !
वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः
जाता तदेवमसमीक्षितकारितेयं,
जल्पन्ति वा निजगिरा ननु पक्षिणोऽपि
।।।।

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कल्याणमंदिरस्तोत्र ][ ३१
योगीओने पण तुज गुणो गम्य जे होय नांहि,
ते कहेवामां क्यम प्रसर रे! माहरो थाय आंही!
तेथी आ तो थई वगर विचारी प्रवृत्ति आहा!
वा जल्पे जे खगगण खरे! निज केरी गिरामां. ६.
अर्थ :हे स्वामी! ज्यां योगीओ पण आपना गुणोनुं व्याख्यान
करी शकता नथी त्यां हुं तेमनुं वर्णन केवी रीते करी शकुं? तेथी आ
प्रकारनी स्तुति विचार कर्या विना थई छे केम के ज्यां कथन करवानी शक्ति
ज नथी त्यां करवामां आवेली कोई पण स्तुति विचार रहित ज गणाय.
छतां पण जेम पक्षीओ मनुष्यनी भाषामां बोलवा असमर्थ होवा छतां
पोतानी भाषामां बोल्या करता होय छे तेम हुं पण स्तुति करवाने प्रवृत्त
थयो छुं. ६.
आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन - संस्तवस्ते,
नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति
तीव्रातपोपहतपान्थजनान्निदाधे,
प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि
।।।।
दूरे तारूं स्तव जिन! अचिंत्य प्रभावी रहोने!
रक्षे नामे पण तमपणुं जन्मथी भुवनोने;
वायु रूडो कमलसरनो सुरसीलो वहे जे,
तीव्रोत्तापे हत पथिकने ग्रीष्ममां रीझवे ते. ७.
अर्थ :हे जिनेन्द्र! अचिन्त्य महिमा धारण करनार आपनी
स्तुति तो दूर ज रहो, आपनुं नाम मात्र पण संसारना प्राणीओने
दुःखोथी बचावी ले छे. जेम गरमीनी ॠतुमां असह्य तापथी व्याकुळ
बनेला मुसाफरोने केवळ कमळवाळा सरोवर ज सुख आपतां नथी परंतु
तेमना सूक्ष्म जळकणोथी मळेलो पवन पण सुख आपे छे. ७.

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३२ ][ पंचस्तोत्र
हृद्वर्तिनि त्वयि विभो ! शिथिलीभवन्ति,
जन्तोः क्षणेन निबिडा अपि कर्मबन्धाः
सद्यो भुजङ्गममया इव मध्यभाग
मभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य ।।।।
प्राणीओना निबिड पण ते कर्मबंधो अहा! ह्यां,
विभु थाये शिथिल क्षणमां वर्तता तुं हृदामां;
रे! शिखंडी सुखडवननी मध्यमां आवी जातां,
जेवी रीते भुजगमय ते शीघ्र शिथिल थातां. ८.
अर्थ :जेम मोरना आगमनमात्रथी ज चंदनना वृक्षोने
विंटळायेला सर्पोनी पकड तत्काल ढीली थई जाय छे तेवी ज रीते हे
प्रभो! आप ज्यारे भव्य जीवोना मनमंदिरमां निवास करो छो त्यारे
तेमना द्रढ कर्मोना बंधन पण तत्क्षण ढीलां पडी जाय छे. ८.
मुच्यन्त एव मनुजाः सहसां जिनेन्द्र, !
रौद्रेरूपद्रवशतैस्त्वयि वीक्षितेऽपि
गोस्वामिनि स्फु रिततेजसि दृष्टमात्रेः
चोरैरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः
।।।।
मूकाये छे मनुज सहसा रौद्र उपद्रवोथी,
अत्रे स्वामी! जिनपति! तने मात्र निरीक्षवाथी;
गोस्वामीने स्फुरित प्रभने मात्र अत्रे दीठाथी,
जेवी रीते झट पशुगणो भागता चोरटाथी. ९.
अर्थ :जेम गोस्वामीने (तेजस्वी सूर्य, प्रतापी राजा अथवा
बळवान गोवाळियाओने) देखतां ज भयभीत थईने शीघ्र भागी जता
चोरोना पंजामांथी गाय, भेंस आदि पशुओ मुक्त थई जाय छे तेवी ज
रीते हे जिनेन्द्र! आपना सम्यक् प्रकारे दर्शन करतां ज मनुष्यो महा
भयानक सेंकडो उपद्रवोथी तत्काल मुक्ति पामे छे. ९.