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त्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः
हृदयमां धारण करीने संसार समुद्र तरी जाय छे. १०.
सोऽपि त्वया रतिपतिः क्षपितः क्षणेन
पीतं न किं तदपि दुर्द्धरवाडवेन
ज छे केम के जे पाणी अनेक अग्निओने ओलवी नाखे छे ते ज पाणी
समुद्रमां पहोंचतां समुद्रनी मध्यमां रहेला प्रचंड वडवानळथी शोषाई जाय
छे. ११.
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त्वां जन्तवः कथमहो हृदये दधानाः
चिन्त्यो न हन्त महतां यदि वा प्रभावः
संसार समुद्रनो पार घणी सहेलाईथी केवी रीते पामे छे? ए आश्चर्य
छे. एनुं समाधान ए छे के महापुरुषोनो महिमा अचिन्त्य होय छे. १२.
ध्वस्तास्तदा वद कथं किल कर्मचौराः
नीलद्रुमाणि विपिनानि न किं हिमानी
करे छे के जेम हिम ठंडो होवा छतां पण शुं लीलांछम वृक्षोवाळां वनोने
बाळी नथी नाखतो? अर्थात् हिम पडवाथी लीलांछम बधां वृक्ष करमाई
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कर्मोनो नाश करी नाख्यो छे. १३.
छे केम के जेम पवित्र अने निर्मळ कांतिवाळा कमळना बीजनुं उत्पत्तिस्थान
कमळनी कर्णिका ज छे तेम शुद्धात्माने शोधवानुं स्थान हृदयकमळनो
मध्यभाग ज छे. १४.
देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति
चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः
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पत्थररूप छोडीने शीघ्र ज स्वयं स्वर्ण बनी जाय छे तेवी ज रीते हे प्रभो!
आपना (निज शुद्धात्माना) ध्यानथी संसारी जीव तत्क्षण शरीर छोडीने
परमात्म अवस्थाने प्राप्त करे छे. १५.
भव्यै कथं तदपि नाशयसे शरीरम्
यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः
ए बराबर ज छे के मध्यस्थ महानुभावोनो ए स्वभाव ज होय छे के
तेओ विग्रहने शांत ज करी नाखे छे अर्थात् आ शरीरमां रहीने आत्मा
आपनुं (निज शुद्धात्मानुं) ध्यान करे छे अने परिणामे जन्म-मरण जे
शरीरना धर्म छे तेमनाथी आत्माने सदाने माटे मुक्ति मळी जाय छे, ए
ज आपनी मध्यस्थता छे. १६.
ध्यातो जिनेन्द्र ! भवतीह भवत्प्रभावः
किं नाम नो विषविकारमपाकरोति
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ज रीते हे भगवान्! आ संसारमां ज्यारे योगीजनो अभेद बुद्धिथी
आपनुं ध्यान करे छे त्यारे पोताना आत्माने आपनी समान चिंतवीने
आपना जेवा थई जाय छे. १७.
देखे छे तेवी ज रीते हे स्वामी! रागद्वेषादि अंधकाररहित (परम वीतराग
एवा) आपने अन्यमति (मिथ्यात्वादि रोगथी तेमनुं चित्त ग्रसायुं होवाथी)
ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदिनी बुद्धिथी पूजे छे. १८.
किं वा विबोधमुपयाति न जीवलोकः
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जाय छे. अथवा साचुं ज छे के सूर्यनो उदय थतां केवळ मनुष्यो ज जागृत
नथी थता परंतु कमळादि वनस्पति पण पांखडीओनी संकोचरूप निद्रा
छोडीने विकसित थई जाय छे. (आ प्रथम प्रातिहार्यनुं वर्णन छे.) १९.
विष्वक्पतत्यविरला सुरपुष्पवृष्टिः
गच्छन्ति नूनमध एव हि बन्धनानि
आश्चर्यनी वात छे. अथवा ते योग्य ज छे, हे मुनीश! आपनो आत्मामां
साक्षात्कार थतां सुमनसो (स्वच्छ मनवाळा जीवो)ना (रागद्वेष मोहादिरूप)
बंधन निश्चयथी नीचे ज जाय छे अर्थात् नष्ट थई जाय छे. (आ बीजा
प्रातिहार्यनुं वर्णन छे.) २०.
पीयूषतां तव गिरः समुदीरयन्ति
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भव्या व्रजन्ति तरसाप्यजरामरत्वम्
ते साचुं ज छे केम के भव्य जीव तेनुं पान करीने परमानंद पामता थका
बहु ज जल्दी अजरामरपणुं प्राप्त करी ले छे. (आ त्रीजा प्रातिहार्यनुं
वर्णन छे.) २१.
मन्ये वदन्ति शुचयः सुरचामरौघाः
ते नूनमूर्ध्वगतयः खलु शुद्धभावाः
तरफ जतां लोकोने एम कही रह्यां छे के जे विशुद्ध परिणामना धारक
जीव आ मुनिनाथ प्रत्ये नम्रीभूत थईने नमस्कार करे छे ते जीव
निश्चयथी अमारा समान ऊर्ध्वगति जे मोक्ष तेने पामे छे. (आ चोथा
प्रातिहार्यनुं वर्णन छे.) २२.
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भव्य जीवो घणी उत्सुकताथी आपने देखे छे. आपनी दिव्यध्वनि अने
दर्शन पामीने भव्यजीव कृतकृत्य थई जाय छे. (आ पांचमा प्रातिहार्यनुं
वर्णन छे.) २३.
लुप्तच्छदच्छविरशोकतरुबभूव
नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि
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समीपताथी जो वृक्षोनो राग (लालाश) पण जतो रहे छे तो एवो कयो
सचेतन पुरुष होय के जे आपना ध्यान द्वारा आपनी समीपताथी
वीतरागता न पामे? अर्थात् अवश्य पामे. (आ छठ्ठा प्रातिहार्यनुं वर्णन
छे.) २४.
मागत्य निर्वृतिपुरीं प्रति सार्थवाहम्
मन्ये नदन्नभिनभः सुरदुन्दुभिस्ते
प्रमाद छोडीने मोक्षनगरी तरफ लई जता आपना (श्री पार्श्वनाथना) शरणे
आवीने आमनी भक्ति करो. (आ सातमा प्रातिहार्यनुं वर्णन छे.) २५.
तारान्तिवतो विधुरयं विहताधिकारः
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सुशोभित त्रण छत्रोना ब्हाने पोताना जगतने प्रकाशवाना अधिकारथी
भ्रष्ट थईने तारागणोथी विंटळायेल आ चन्द्रमा पोताना त्रण शरीर धारण
करीए निश्चयथी आपनी सेवा करी रह्यो छे. (आ आठमा प्रातिहार्यनुं
वर्णन छे.) २६.
कान्ति प्रतापयशसामिवसञ्चायेन
सालत्रयेण भगवन्नभितो विभासि
कोट नथी पण ए आपनी कांति, प्रताप अने यशना जाणे के त्रण पूंज
छे के जे चारे तरफ संपत्तिथी परिपूर्ण भरेल त्रणे जगतना एक पिंड छे
अर्थात् रत्ननिर्मित प्रथम कोट जाणे के श्री पार्श्वनाथ भगवानना शरीरनी
कांतिनो ज समूह छे, सुवर्ण निर्मित बीजो कोट जाणे के तेमना प्रतापनो
ज पूंज छे अने चांदी निर्मित बीजो कोट जाणे भगवाननी कीर्तिनो ज
समूह छे. २७.
त्वत्सङ्गमे सुमनसो न रमन्त एव
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आपना चरणोनो आश्रय ले छे अथवा योग्य ज छे के आपनो समागम
थतां सुमनसू अर्थात् पुष्पमाळाओ अथवा स्वच्छ मनवाळा भव्य प्राणी
बीजी जग्याए संतोष पामता नथी. २८.
यत्तारयस्यसुमतो निजपृष्ठलग्नान्
चित्रं विभो यदसि कर्मविपाकशून्यः
संसारसमुद्रथी विमुख थई जवा छतां आप आपना अनुयायी भव्यजीवोने
(संसार समुद्रना) किनारे लई जाव छो. पृथ्वीना स्वामी अने संरक्षक एवा
आपने माटे ए योग्य ज छे जेम परिपक्व घटने (माटे जळमांथी तारवानुं
उचित छे तेम.) परंतु हे प्रभु! मोटुं आश्चर्य तो ए छे के आप कर्मोना
विपाकथी शून्य छो. २९.
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समुद्रथी पार उतारी द्यो छो ए ज मोटुं आश्चर्य छे केम के जे घडो विपाक
सहित (पकावेलो) होय ते ज तेना उपर बेठेलाने पाणीमां तारी शके छे
परंतु आप तो विपाकरहित होवा छतां तारो छो ए ज आपनो अचिंत्य
महिमा छे. २९.
किं वाक्षरप्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश
ज्ञानं त्वयि स्फु रति विश्वविकासहेतु
होवा छतां पण त्रण लोकना पदार्थोनो प्रकाश करनार ज्ञान आपनामां
सदैव स्फुरायमान रहे छे. ३०.
अलंकार कहे छे. उपरना श्लोकमां देखाडेल विरोधनो परिहार आ प्रमाणे
छे. हे भगवन् ! आप त्रिभुवननाथ छो अने कठिनताथी जाणी शकाव छो.
एनो बीजो अर्थ आ रीते पण छे
मोक्षस्वरूप छो अने निराकार होवाना कारणे जोई शकाता नथी अथवा
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आपमां सदैव केवळज्ञान स्फुरायमान रहे छे. ३०.
ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा
हणाणी नहोती, आपनो पराजय थवानी वात तो दूर ज रही. ऊल्टुं
हताश बनेल दुष्ट ते कमठ ज ते रजोथी (पापकर्मोथी) घेराई गयो. ३१.
भ्रश्यत्तडिन्मुसलमांसलघोरधारम्
तेनैव तस्य जिन दुस्तर वारिकृत्यम्
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धारे ज्यां भयंकर जळ वरसी रह्युं छे एवी भयंकर वर्षा दूष्ट कमठे आपना
उपर करी, तेमां हे भगवान्! आपनुं तो कांई बगड्युं नहि परंतु ते कमठे
पोताने माटे ते भयंकर जळवृष्टि द्वारा तीक्ष्ण तरवारनुं काम कर्युं अर्थात् आवुं
दुष्कृत्य करवाने कारणे तेणे घोर पापकर्मोनो बंध कर्यो. ३२.
सोऽस्याभवत्प्रतिभवं भवदुःखहेतुः
करनार अने जेमना मोढामांथी आगनी ज्वाळा नीकळी रही छे एवा
पिशाचोने जेणे आपना तरफ दोडाव्या ते पिशाचो पण ते दुष्ट कमठने माटे
जन्मोजन्म सांसारिक दुःखोनुं कारण थया. ३३.
पादद्वयं तव विभो भुवि जन्मभाजः
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विधिपूर्वक आपना बन्ने चरणोनी सवार, बपोर अने सांजे आराधना करे
छे, ते ज जीवो संसारमां धन्य छे. ३४.
मन्ये न मे श्रवणगोचरतां गतोऽसि
किं वा विपद्विषघरी सविधं समेति
पवित्र मंत्र में कानथी सांभळ्यो होत तो शुं आपत्तिरूपी सापण मारी
समीप आवत? अर्थात् न ज आवत. ३५.
मन्ये मया महित मीहितदानदक्षम्
जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम्
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हे मुनिनाथ! आ जन्ममां हुं हृदयने व्यथित करनार तिरस्कारोनुं पात्र
बन्यो छुं. ३६.
पूर्वं विभो सकृदपि प्रविलोकितोऽसि
प्रोद्यत्प्रबन्धगतयः कथमन्यथैते
पूर्ण विश्वास छे. जो में आपना दर्शन कर्या होत तो उत्कटरूपे उत्पन्न
थता, संताननी परंपरा वधारनारा अने मर्मस्थानने भेदनारा आ अनर्थ
(दुःखदायक मोहभाव) मने शा माटे सतावेत? ३७.
कर्या नहि अर्थात् कदी पण आपना ज जेवा मारा शुद्धात्माने जोयो नहि
अने ए ज कारणे मने दुःखदायक मोहभावो सतावी रह्या छे. ३७.
नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या
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यस्मात्क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः
कर्या होय परंतु ए तो निश्चय छे के में आपने भक्तिपूर्वक कदी पण मारा
हृदयमां धारण कर्या नथी. एनुं परिणाम ए आव्युं के हजी सुधी हुं आ
संसारमां दुःखनुं भाजन ज बनी रह्यो छुं कारण के भावरहित क्रिया
फळदायक थती नथी. ३८.
कारुण्यपुण्यवसते वशिनां वरेण्य
दुःखांकुरोद्दलनतत्परतां विधेहि
एवा मारा उपर दया लावीने, मारा दुःखांकुरोनो (मोहभावोनो) समूळ
नाश करवामां तत्पर थाव. ३९.
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वन्घ्योऽस्मि तद्भुवनपावन हा हतोऽस्मि
शरणागतप्रतिपालक, कर्मविजेता, प्रभावधारक! आपना चरणकमळ प्राप्त
करवा छतां पण जो में तेमनुं ध्यान न कर्युं तो हे प्रभो! मारा जेवो
अभागी कोई नथी. ४०.
संसारतारक विभो भुवनाधिनाथ
सीदन्तमद्य भयदव्यसनाम्बुराशेः
मम दुःखियारानी रक्षा करो अने अति भयानक दुःख समुद्रथी मने
बचावो. ४१.
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भक्तेः फलं किमपि सन्ततसञ्चितायाः
स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि
फळ मळे तो हे अशरणोने शरण आपनार! ते एटलुं ज हो के आ लोक
अने परलोकमां पण आप ज मारा स्वामी हो अर्थात् मारो आत्मा
आपना समान शुद्ध अने पूर्ण थई जाय. ४२.
सान्द्रोल्लसत्पुलक कञ्चुकिताङ्गभागाः
ये संस्तवं तव विभो स्वयन्ति भव्याः
प्रभास्वराः स्वर्गसमादो भुक्त्वा
अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते
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दीक्षानाम पण बताव्युं छे.) जे भव्य जीव आपना प्रतिमाना मुखकमल
तरफ एकीटशे जोईने, सघन अने रोमांचरूप वस्त्रोथी पोताना शरीरना
अंग ढांकीने, एकाग्र ध्यानयुक्त बुद्धि द्वारा आपनी स्तुति करे छे,
तेओ स्वर्गलोकना अनेक प्रकारना मनोहर सुखो भोगवीने तथा
आत्मामांथी भावकर्मरूपी मळ दूर करीने अति शीघ्रपणे मोक्षसुखनी
प्राप्ति करे छे. ४३