Panch Stotra-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कल्याणमंदिरस्तोत्र ][ ३३
त्वं तारको जिन कथं भविनां त एव,
त्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः
यद्वा दृतिस्तरति यज्जलमेष नून
मन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ।।१०।।
केवी रीते भविजन तणो जिन! तुं तारनार?
धारे तेओ हृदमहिं तने ऊतरे जेथी पार;
वा एही जे मशक तीरनी नीरने नक्की साव,
छे ते अंतर्गत मरुतनो निश्चये ज प्रभाव. १०.
अर्थ :जेम पोतानी अंदर भरेला पवनना बळथी मशक
पाणीमां तरे छे तेवी ज रीते हे जिनवर! भव्य जीव आपने पोताना
हृदयमां धारण करीने संसार समुद्र तरी जाय छे. १०.
यस्मिन्हरप्रभृतयोऽपि हतप्रभावाः,
सोऽपि त्वया रतिपतिः क्षपितः क्षणेन
विध्यापिता हुतभुजः पयसाथ येन,
पीतं न किं तदपि दुर्द्धरवाडवेन
।।११।।
जेनी पासे शिवप्रमुख सौ छे प्रभावे विहीन,
तुंथी तेह रतिपति क्षणे सर्वथा कीध क्षीण;
अग्निओ जे जल थकी अहो! निश्चये बूझवाय,
रे! शुं तेह दुःसह वडवावह्निथी ना पीवाय! ११.
अर्थ :जे कामदेवे हरि, हरादि प्रमुख देवोने पण शक्ति हीन
करी नाख्या हता ते कामदेवनो पण आपे क्षणवारमां नाश कर्यो. ते योग्य
ज छे केम के जे पाणी अनेक अग्निओने ओलवी नाखे छे ते ज पाणी
समुद्रमां पहोंचतां समुद्रनी मध्यमां रहेला प्रचंड वडवानळथी शोषाई जाय
छे. ११.

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३४ ][ पंचस्तोत्र
स्वामिन्ननल्पगरिमाणमपि प्रपन्नाः
त्वां जन्तवः कथमहो हृदये दधानाः
जन्मोदधिं लघु तरन्त्यतिलाघवेन,
चिन्त्यो न हन्त महतां यदि वा प्रभावः
।।१२।।
स्वामी! तुंने बहुज गुरुतावंतने आश्रनारा,
सत्त्वो सर्वे हृदमहिं तने धारीने कया प्रकारा;
जन्माब्धिने अति लघुपणे रे! तेरे शीघ्र साव,
वा अत्रे तो महद्जननो छे अचिन्त्य प्रभाव. १२.
अर्थ :हे जगत्पति! अति गौरववान (अनंत गुणरूप
महाभार सहित) एवा आपने हृदयमां धारण करनारा जीवो शीघ्रपणे
संसार समुद्रनो पार घणी सहेलाईथी केवी रीते पामे छे? ए आश्चर्य
छे. एनुं समाधान ए छे के महापुरुषोनो महिमा अचिन्त्य होय छे. १२.
क्रोधस्त्वया यदि विभो ! प्रथमं निरस्तो,
ध्वस्तास्तदा वद कथं किल कर्मचौराः
प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके,
नीलद्रुमाणि विपिनानि न किं हिमानी
।।१३।।
जो विभु हे! प्रथमथी ज तें क्रोध कीधो निरस्त,
तो कीधा तें कई ज रीतथी कर्मचोरो विनष्ट?
लीला वृक्षो युत वनगणोने अहो! लोकमांही,
ना बाळे शुं शिशिर पण रे! हिमराशिय आंही? १३.
अर्थ :हे स्वामी! जो आपे क्रोधनो पहेलां ज नाश कर्यो तो
पछी बतावो के आपे कर्मरूपी चोरोनो नाश केवी रीते कर्यो? तेनुं समाधान
करे छे के जेम हिम ठंडो होवा छतां पण शुं लीलांछम वृक्षोवाळां वनोने
बाळी नथी नाखतो? अर्थात् हिम पडवाथी लीलांछम बधां वृक्ष करमाई

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कल्याणमंदिरस्तोत्र ][ ३५
जाय छे तेवी ज रीते स्वभावनी महाशांतिमां मग्न रहीने पण आपे
कर्मोनो नाश करी नाख्यो छे. १३.
त्वां योगिनो जिन सदा परमात्मरूप
मन्वेषयन्ति हृदयाम्बुजकोशदेशे
पूतस्य निर्मलरुचेर्यदि वा किमन्य
दक्षस्य संभवपदं ननु कर्णिकायाः ।।१४।।
योगीओ तो जिनपति! सदा तुं परात्मारूपीने,
रे! शोधे छे हृदयकजना कोशदेशे फरीने;
शुं कर्णिका विण अपर रे! संभवे छे अनेरूं,
स्थान ह्यां तो पुनित अमला अब्जना बीज केरूं? १४.
अर्थ :हे जिनेश! महर्षिओ सदा परमात्मस्वरूप आपने
पोताना हृदयकमळना मध्यभागमां (ज्ञाननेत्रद्वारा) शोधे छे. ते योग्य ज
छे केम के जेम पवित्र अने निर्मळ कांतिवाळा कमळना बीजनुं उत्पत्तिस्थान
कमळनी कर्णिका ज छे तेम शुद्धात्माने शोधवानुं स्थान हृदयकमळनो
मध्यभाग ज छे. १४.
ध्यानाज्जिनेश भवतो भविनः क्षणेन,
देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति
तीव्रानलादुपलभावमपास्य लोके,
चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः
।।१५।।
पामे भव्यो क्षणमहिं प्रभु हे! परात्मादशाने,
जिनेशा हे! शरीर तजीने आपश्रीना ज ध्याने;
तीव्राग्निथी तजी दई अहो! भाव पाषाण केरो,
पामे लोके झट कनकता जे रीते धातुभेदो. १५.
अर्थ :हे स्वामी! जेम लोकमां तीव्र अग्निना संबंधथी जुदा

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३६ ][ पंचस्तोत्र
जुदा प्रकारनी धातुओ (जेमां सोनुं बनवानी योग्यता छे ते पोतानुं
पत्थररूप छोडीने शीघ्र ज स्वयं स्वर्ण बनी जाय छे तेवी ज रीते हे प्रभो!
आपना (निज शुद्धात्माना) ध्यानथी संसारी जीव तत्क्षण शरीर छोडीने
परमात्म अवस्थाने प्राप्त करे छे. १५.
अन्तः सदैव जिन यस्य विभाव्यसे त्वं,
भव्यै कथं तदपि नाशयसे शरीरम्
एतत्स्वरूपमथ मध्यविवर्तिनो हि,
यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः
।।१६।।
जेनी अंतः भवि थकी सदा तुं विभावाय भावे,
जिनेशा हे! शरीर पण ते नाश कां तुं करावे?
वा वर्त्ते आ नकी अहीं अरे! मध्यवर्त्ति स्वरूप,
म्हानुभावो विग्रह शमवे सर्वथा जिनभूप! १६.
अर्थ :हे देवाधिदेव! भव्य प्राणीओ जे शरीरनी मध्यमां सदैव
आपनुं ध्यान करे छे ते शरीरनो ज आप केम नाश करावो छो? अथवा
ए बराबर ज छे के मध्यस्थ महानुभावोनो ए स्वभाव ज होय छे के
तेओ विग्रहने शांत ज करी नाखे छे अर्थात् आ शरीरमां रहीने आत्मा
आपनुं (निज शुद्धात्मानुं) ध्यान करे छे अने परिणामे जन्म-मरण जे
शरीरना धर्म छे तेमनाथी आत्माने सदाने माटे मुक्ति मळी जाय छे, ए
ज आपनी मध्यस्थता छे. १६.
आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेदबुद्धया,
ध्यातो जिनेन्द्र ! भवतीह भवत्प्रभावः
पानीयमप्यमृतमित्यनुचिन्त्यमानं,
किं नाम नो विषविकारमपाकरोति
।।१७।।
आ आत्मा तो मनीषि जनथी तुंथी निर्भेद भावे,
ध्यायाथी हे जिनवर! बने तुज जेवो प्रभावे.

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कल्याणमंदिरस्तोत्र ][ ३७
अत्रे पाणी पण अमृत आ एम रे! चिंतवातुं,
निश्चेथी शुं विषविकृतिने टाळनारुं न थातुं? १७.
अर्थ :जेम पाणी पण ‘आ अमृत छे’ एवी अतूट श्रद्धा
राखवाथी विषना विकारथी उत्पन्न थती पीडानो नाश करी नाखे छे तेवी
ज रीते हे भगवान्! आ संसारमां ज्यारे योगीजनो अभेद बुद्धिथी
आपनुं ध्यान करे छे त्यारे पोताना आत्माने आपनी समान चिंतवीने
आपना जेवा थई जाय छे. १७.
त्वामेव वीततमसं परवादिनोऽपि,
नूनं विभो हरिहरादिधिया प्रपन्नाः
किं काचकामलिभिरीश सितोऽपि शंखो,
नो गृह्यते विविधवर्णविपर्ययेण ।।१८।।
विभु तुंही तमरहितने वादीओए अनेरा,
निश्वे शंभु हरि प्रमुखनी धीथी मानी रहेला;
धोळो शंखे तदपि कमळायुक्तथी जिनराय!
नाना वर्णे विपरीत मतिए न शुं ते ग्रहाय? १८.
अर्थ :जेम कमळानो रोग जेने थयो होय ते व्यक्ति सफेद
वर्णवाळा शंखने पण लीला, पीळा वगेरे विपरीत वर्णोवाळो कल्पनाबुद्धिथी
देखे छे तेवी ज रीते हे स्वामी! रागद्वेषादि अंधकाररहित (परम वीतराग
एवा) आपने अन्यमति (मिथ्यात्वादि रोगथी तेमनुं चित्त ग्रसायुं होवाथी)
ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदिनी बुद्धिथी पूजे छे. १८.
धर्मोपदेशसमये सविघानुभावा
दास्तां जनो भवति ते तरुरप्यशोकः
अभ्युद्गते दिनपतौ समहीरुहोऽपि,
किं वा विबोधमुपयाति न जीवलोकः
।।१९।।

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३८ ][ पंचस्तोत्र
सान्निध्येथी तुज धरमना बोधवेळा विलोक!
दूरे लोको! तरू पण अहो! थाय अत्रे ‘अशोक’;
भानुकेरो समुदय थये नाथ! आ जीवलोक,
शुं विबोध त्यम नहि लहे साथमां वृक्षथोक? १९.
अर्थ :हे जिनेश्वर! धर्मोपदेश समये आपनी समीपताना
प्रभावथी मनुष्यनी तो वात ज शी, वृक्ष पण अशोक (शोक रहित) थई
जाय छे. अथवा साचुं ज छे के सूर्यनो उदय थतां केवळ मनुष्यो ज जागृत
नथी थता परंतु कमळादि वनस्पति पण पांखडीओनी संकोचरूप निद्रा
छोडीने विकसित थई जाय छे. (आ प्रथम प्रातिहार्यनुं वर्णन छे.) १९.
चित्रं विभो ! कथमवाङ्मुखवृन्तमेव,
विष्वक्पतत्यविरला सुरपुष्पवृष्टिः
त्वद्गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश,
गच्छन्ति नूनमध एव हि बन्धनानि
।।२०।।
रे! चोपासे विमुख डिटडे मात्र शाने पडे छे
वृष्टि भारी सुरकुसुमनी? हे विभु! चित्र ए छे!
वा त्हारा रे! दरशन पथे प्राप्त थातां ज निश्चे,
मुनीशा हे! सुमन गणना बंधनो जाय नीचे. २०.
अर्थ :हे मुनिनाथ! देवो द्वारा चारे तरफ जे सघन पुष्पवृष्टि
थाय छे तेना डींटिया नीचे अने पांखडीओ उपर केम रहे छे? ए
आश्चर्यनी वात छे. अथवा ते योग्य ज छे, हे मुनीश! आपनो आत्मामां
साक्षात्कार थतां सुमनसो (स्वच्छ मनवाळा जीवो)ना (रागद्वेष मोहादिरूप)
बंधन निश्चयथी नीचे ज जाय छे अर्थात् नष्ट थई जाय छे. (आ बीजा
प्रातिहार्यनुं वर्णन छे.) २०.
स्थाने गंभीरहृदयोदधिसम्भवायाः,
पीयूषतां तव गिरः समुदीरयन्ति

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कल्याणमंदिरस्तोत्र ][ ३९
पीत्वा यतः परमसंमदसङ्गभाजा,
भव्या व्रजन्ति तरसाप्यजरामरत्वम्
।।२१।।
स्थाने छे आ गंभीर हृदयाब्धि थकी उद्भवेली,
त्हारी वाणी तणी पीयूषता छे जनोए कथेली;
तेने पीने पर प्रमदना संगभागी विरामे,
निश्चे भव्यो अजर अमराभावने शीघ्र पामे. २१.
अर्थ :हे त्रिभुवनपते! आपनी वाणी (दिव्यध्वनि) जे अति
अगाध हृदयरूपी समुद्रमांथी नीकळी छे तेमां लोको अमृतत्त्व बतावे छे
ते साचुं ज छे केम के भव्य जीव तेनुं पान करीने परमानंद पामता थका
बहु ज जल्दी अजरामरपणुं प्राप्त करी ले छे. (आ त्रीजा प्रातिहार्यनुं
वर्णन छे.) २१.
स्वामिन् ! सुदूरमवनम्य समुत्पतन्तो,
मन्ये वदन्ति शुचयः सुरचामरौघाः
येऽस्मै नतिं विदधते मुनिपुङ्गवाय,
ते नूनमूर्ध्वगतयः खलु शुद्धभावाः
।।२२।।
हे, स्वामिश्री! अति दूर नमी ने उंचे ऊछळंता,
मानुं शुचि सुरचमरना वृंद आवुं वंदता
‘‘जेओ एही यतिपति प्रभु रे! प्रणामो करे छे,
निश्चे तेओ उरध गतिने शुद्धभावे लहे छे.’’ २२.
अर्थ :हे भगवान्! हुं एम मानुं छुं के पवित्र देवताओना
चामर समूह आपनी उपर ढोळती वखते अतिशय नीचे नमीने उपर
तरफ जतां लोकोने एम कही रह्यां छे के जे विशुद्ध परिणामना धारक
जीव आ मुनिनाथ प्रत्ये नम्रीभूत थईने नमस्कार करे छे ते जीव
निश्चयथी अमारा समान ऊर्ध्वगति जे मोक्ष तेने पामे छे. (आ चोथा
प्रातिहार्यनुं वर्णन छे.) २२.

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४० ][ पंचस्तोत्र
श्यामं गंभीरगिरमुज्जवणहेमरत्न
सिंहासनस्थमिह भव्यशिखण्डिनस्त्वाम्
आलोकयन्ति रभसेन नदन्तमुच्चै
श्चामीकराद्रिशीरसीव नवाम्बुवाहम् ।।२३।।
बिराजेला कनकमणिना शुभ्र सिंहासने ने,
‘ह्यां गर्जंता गंभीर गिरथी, नीलवर्णा तमोने;
उत्कंठाथी भविजन रूपी मोरलाओ निहाळे,
सुवर्णादि शिखरपर जाणे नवो मेघ भाळे! २३.
अर्थ :हे जिनेन्द्र! उज्ज्वळ सुवर्णना बनेला अने अनेक रत्नो
जडेला सिंहासन उपर बिराजेलुं आपनुं श्यामवर्ण शरीरके जेमांथी
गंभीर दिव्यध्वनि थई रही छेएवुं लागे छे के जाणे सुवर्णमय सुमेरु
पर्वत उपर नवीन वर्षाकाळना काळां वादळां गर्जना करी रह्यां छे अने
ते वादळाओने जाणे मोर घणी उत्सुकताथी नीरखी रह्या छे. एवी ज रीते
भव्य जीवो घणी उत्सुकताथी आपने देखे छे. आपनी दिव्यध्वनि अने
दर्शन पामीने भव्यजीव कृतकृत्य थई जाय छे. (आ पांचमा प्रातिहार्यनुं
वर्णन छे.) २३.
उद्गच्छता तव शितिद्युतिमण्डलेन,
लुप्तच्छदच्छविरशोकतरुबभूव
सांन्निध्यतोऽपि यदि वा तव वीतराग,
नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि
।।२४।।
उंचे जाता तुज नील प्रभामंडलेथी विलोक!
पत्रो केरी द्युतिथकी थयो हीन अत्रे अशोक;
वा नीरागी! भगवान! वळी आपना सन्निधाने,
नीरागिता नहिं अहीं कियो चेतनावंत पामे? २४.
अर्थ :हे नाथ! जो आपना देदीप्यमान भामंडळना तेज द्वारा

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कल्याणमंदिरस्तोत्र ][ ४१
अशोक वृक्षना पांदडाओनी लालाश दूर थई जाय छे अर्थात् आपनी
समीपताथी जो वृक्षोनो राग (लालाश) पण जतो रहे छे तो एवो कयो
सचेतन पुरुष होय के जे आपना ध्यान द्वारा आपनी समीपताथी
वीतरागता न पामे? अर्थात् अवश्य पामे. (आ छठ्ठा प्रातिहार्यनुं वर्णन
छे.) २४.
भो भोः प्रमादमवधूय भजध्वमेन
मागत्य निर्वृतिपुरीं प्रति सार्थवाहम्
एतन्निवेदयति देव जगत्त्रयाय,
मन्ये नदन्नभिनभः सुरदुन्दुभिस्ते
।।२५।।
‘‘भो भो भव्यो! अवधूणी तमारा प्रमादो सहुने,
आवी सेवा शिवपुरीतणा सार्थवाह प्रभुने.’’
मानुं आवुं त्रण जगतने देव! निवेदनारो,
व्यापी व्योमे गरजत अति देवदुंदुभि त्हारो. २५.
अर्थ :हे विभो! हुं एम मानुं छुं के आकाशमां देवो द्वारा
गरजतो दुंदुभिनाद त्रणे लोकने एम सूचित करे छे के हे जगतना जनो!
प्रमाद छोडीने मोक्षनगरी तरफ लई जता आपना (श्री पार्श्वनाथना) शरणे
आवीने आमनी भक्ति करो. (आ सातमा प्रातिहार्यनुं वर्णन छे.) २५.
उद्योतितेषु भवता भुवनेषु नाथ,
तारान्तिवतो विधुरयं विहताधिकारः
मुक्ताकलापकलितोल्लसितातपत्र
व्याजात्त्रिधा धृततनुध्रुवमभ्युपेतः ।।२६।।
त्हारा द्वारा सकल भुवनो आ प्रकाशित थातां,
तारावृंदो सहित शशि आ स्वाधिकारे हणातां;
मौक्तिकोना गणयुत उघाडेल त्रि छत्र ब्हाने,
आव्यो पासे त्रिविध तनुने धारी निश्चे ज जाणे. २६.

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४२ ][ पंचस्तोत्र
अर्थ :हे प्रभुवर! आपे त्रणे लोकोने प्रकाशित करी नाख्या छे
हवे चन्द्र कोने प्रकाशित करशे? एटले ज जाणे के मोतीओनी झालरथी
सुशोभित त्रण छत्रोना ब्हाने पोताना जगतने प्रकाशवाना अधिकारथी
भ्रष्ट थईने तारागणोथी विंटळायेल आ चन्द्रमा पोताना त्रण शरीर धारण
करीए निश्चयथी आपनी सेवा करी रह्यो छे. (आ आठमा प्रातिहार्यनुं
वर्णन छे.) २६.
स्बेन प्रपूरितजगत्त्रयपिण्डितेन,
कान्ति प्रतापयशसामिवसञ्चायेन
माणिक्यहेमरजतप्रविनिर्मितेन,
सालत्रयेण भगवन्नभितो विभासि
।।२७।।
त्रिलोकोने बहु बहु भरी पिंडरूपी थयेला,
जाणे कातिप्रतपयशना संचथी निज केरा?
माणि कयो ने कनक रजते ए रचेला गढोथी,
विभासे छे भगवन अहो! तुं ही सर्वे दिशोथी. २७.
अर्थ :हे भगवान! आप (समवसरण भूमिमां) माणेक, सुवर्ण
अने चांदीना बनेला त्रण कोटोथी शोभी रह्या छो. हे प्रभो! आ त्रण
कोट नथी पण ए आपनी कांति, प्रताप अने यशना जाणे के त्रण पूंज
छे के जे चारे तरफ संपत्तिथी परिपूर्ण भरेल त्रणे जगतना एक पिंड छे
अर्थात् रत्ननिर्मित प्रथम कोट जाणे के श्री पार्श्वनाथ भगवानना शरीरनी
कांतिनो ज समूह छे, सुवर्ण निर्मित बीजो कोट जाणे के तेमना प्रतापनो
ज पूंज छे अने चांदी निर्मित बीजो कोट जाणे भगवाननी कीर्तिनो ज
समूह छे. २७.
दिव्यस्रजो जिन नमत्त्रिदशाधिपाना
मुत्सृज्य रत्नरचितानपि मौलिबन्धान्
पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वापरत्र,
त्वत्सङ्गमे सुमनसो न रमन्त एव
।।२८।।

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कल्याणमंदिरस्तोत्र ][ ४३
*तारा प्रादे नमन करता इन्द्रना शेखरोने,
छोडी, रत्ने विरचित छतां, इन्द्रनी पुष्पमाळा;
सेवे तारा पदयुगलने, तो पछी भव्य सुमना,
तारा संगे, जरूर जिनजी! अन्य स्थाने रमे ना. २८.
अर्थ :हे देवाधिदेव! दिव्यपुष्पोनी माळाओ आपना चरणोमां
प्रणाम करता देवेन्द्रोना रत्नोथी जडेला मुकुटोनां बंधनो पण छोडीने
आपना चरणोनो आश्रय ले छे अथवा योग्य ज छे के आपनो समागम
थतां सुमनसू अर्थात् पुष्पमाळाओ अथवा स्वच्छ मनवाळा भव्य प्राणी
बीजी जग्याए संतोष पामता नथी. २८.
त्वं नाथ जन्मजलधेर्विपराङ्मुखोऽपि,
यत्तारयस्यसुमतो निजपृष्ठलग्नान्
युक्तं हि पार्थिवनिपस्य सतस्तवैव,
चित्रं विभो यदसि कर्मविपाकशून्यः
।।२९।।
जन्माब्धिथी विमुख वरते तोय तुं जिनराज?
तारे छे जे स्वपीठ पर लागेल प्राणी समाज;
ते तुं पार्थिव नीरूपने युक्त निश्चे ज अत्रे,
तुं आश्चर्य! प्रभु! करमविपाक विहीन वर्ते! २९.
अर्थ :हे नाथ! जेम जळमां उलटो मूकेलो पाको घडो पोतानी
पीठ उपर बेसनाराओने किनारे लई जाय छे तेवी ज रीते हे स्वामी!
संसारसमुद्रथी विमुख थई जवा छतां आप आपना अनुयायी भव्यजीवोने
(संसार समुद्रना) किनारे लई जाव छो. पृथ्वीना स्वामी अने संरक्षक एवा
आपने माटे ए योग्य ज छे जेम परिपक्व घटने (माटे जळमांथी तारवानुं
उचित छे तेम.) परंतु हे प्रभु! मोटुं आश्चर्य तो ए छे के आप कर्मोना
विपाकथी शून्य छो. २९.
* उपलब्ध गुजराती पद्यानुवादमां आ श्लोकनो अनुवाद नहीं मळवाथी नवुं
बनावेल छे.

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४४ ][ पंचस्तोत्र
भावार्थ :हे प्रभो! आपना समस्त कर्म नष्ट थई गया छे तो
पछी तेमनो विपाक क्यांथी होय? छतां पण आप भव्य जीवोने संसार
समुद्रथी पार उतारी द्यो छो ए ज मोटुं आश्चर्य छे केम के जे घडो विपाक
सहित (पकावेलो) होय ते ज तेना उपर बेठेलाने पाणीमां तारी शके छे
परंतु आप तो विपाकरहित होवा छतां तारो छो ए ज आपनो अचिंत्य
महिमा छे. २९.
विश्वेश्वरोऽपि जनपालक दुर्गतस्त्वं,
किं वाक्षरप्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश
अज्ञानवत्यपि सदैव कथंचिदेव,
ज्ञानं त्वयि स्फु रति विश्वविकासहेतु
।।३०।।
तुं विश्वेशो दुरगत छतां लोकरक्षी! कहावे!
वा स्वामी! तुं अलिपि तदपि अक्षर स्वस्वभावे!
अज्ञानीमां तम महिं नकी सर्वदा को प्रकार,
ज्ञान स्फुरे त्रण जगतने हेतु उद्योतनार!!! ३०.
अर्थ :हे जगपालक! आप त्रिभुवनपति होवा छतां पण दरिद्र
छो, अक्षर स्वभावी होवा छतां पण लिपिथी लखी शकाता नथी, अज्ञानी
होवा छतां पण त्रण लोकना पदार्थोनो प्रकाश करनार ज्ञान आपनामां
सदैव स्फुरायमान रहे छे. ३०.
भावार्थ :अहीं विरोधाभास अलंकार छे. जेमां शब्दनो विरोध
लागवा छतां पण वास्तवमां तत्त्वद्रष्टिए विरोध न होय तेने विरोधाभास
अलंकार कहे छे. उपरना श्लोकमां देखाडेल विरोधनो परिहार आ प्रमाणे
छे. हे भगवन् ! आप त्रिभुवननाथ छो अने कठिनताथी जाणी शकाव छो.
एनो बीजो अर्थ आ रीते पण छे
(हे जनप ! विश्वेश्वरोऽपि
अलकदुर्गतः) हे जगत्पति ! आप विश्वपति छो अने केशरहित छो.
तीर्थंकर भगवानने दीक्षा पछी केश वधता नथी, एवो नियम छे. आप
मोक्षस्वरूप छो अने निराकार होवाना कारणे जोई शकाता नथी अथवा

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कल्याणमंदिरस्तोत्र ][ ४५
कर्मलेप रहित छो. आप अज्ञानी छद्मस्थ जीवोने संबोधन करो छो अने
आपमां सदैव केवळज्ञान स्फुरायमान रहे छे. ३०.
[दुर्गतःदरिद्र,
कठिनताथी जणाय तेवा. अक्षरप्रकृतिअक्षर स्वभाववाळा, मोक्षस्वरूप.
अलिपि :लिपिथी लखी शकाता नथी. कर्मलेप रहित. अज्ञानवति :
अज्ञानी होवा छतां पण, छद्मस्थ अज्ञानी जीवोने संबोधन करनार.]
प्राग्भारसम्भृतनभांसि रजांसि रोषा
दुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि
छायापि तैस्तव न नाथ हता हताशो,
ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा
।।३१।।
व्याप्या जेणे अति अति महा भारद्वारा नभोने,
उडाडी’ती शठ कमठडे रोषथी जे रजोने;
तेथी छाया पण तमतणी ना हणाणी जिनेश!
दुरात्मा एहज रज थकी ते ग्रसायो हताश. ३१.
अर्थ :हे प्रभुवर! दुष्ट कमठे क्रोधथी समस्त आकाशमां
व्यापनारी जे धूळ उडाडी हती ते रजथी आपना शरीरनी छाया पण
हणाणी नहोती, आपनो पराजय थवानी वात तो दूर ज रही. ऊल्टुं
हताश बनेल दुष्ट ते कमठ ज ते रजोथी (पापकर्मोथी) घेराई गयो. ३१.
यद्गर्जदूर्जितघनौघमदभ्रभीमं,
भ्रश्यत्तडिन्मुसलमांसलघोरधारम्
दैस्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि दध्रे,
तेनैव तस्य जिन दुस्तर वारिकृत्यम्
।।३२।।
ज्यां गर्जंता प्रबळ घनना ओघथी भ्रम भीम;
विद्युत् त्रुट मुसल सम ज्यां घोर धारा असीम;
दैत्ये एवुं ज दुस्तरवारि अरे! मुक्त कीधुं,
तेनुं तेथी ज दुस्तरवारि थयुं कार्य सीधुं. ३२.

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४६ ][ पंचस्तोत्र
अर्थ :हे जिनेश्वर! ज्यां भयंकर वादळाओ खूब गर्जे छे, महा
भयानक चमकारा करती वीजळीओ आम तेम पडी रही छे, अने सांबेलानी
धारे ज्यां भयंकर जळ वरसी रह्युं छे एवी भयंकर वर्षा दूष्ट कमठे आपना
उपर करी, तेमां हे भगवान्! आपनुं तो कांई बगड्युं नहि परंतु ते कमठे
पोताने माटे ते भयंकर जळवृष्टि द्वारा तीक्ष्ण तरवारनुं काम कर्युं अर्थात् आवुं
दुष्कृत्य करवाने कारणे तेणे घोर पापकर्मोनो बंध कर्यो. ३२.
ध्वस्तोर्ध्वकेश विकृताकृति मर्त्यमुण्ड
प्रालम्बभृद्भयदवक्त्रविनिर्यदग्निः
प्रेतव्रजः प्रति भवन्तमपीरितो यः,
सोऽस्याभवत्प्रतिभवं भवदुःखहेतुः
।।३३।।
छूटा केशोथी विकृतिरूपी जे धरे मुंडमाला,
ने जेना रे! भयद मुखथी नीकळे अग्निज्वाळा;
विकृर्व्यो जे प्रभु! तम प्रति एहवो प्रेतवृंद,
ते तो तेने भवभव थयो संसृति दुःखकंद. ३३.
अर्थ :हे त्रिभुवनपति! विखरायेला वाळवाळा, भयंकर
आकृतिवाळा, एवा मनुष्योनी खोपरीओनी लांबी लांबी माळाओ धारण
करनार अने जेमना मोढामांथी आगनी ज्वाळा नीकळी रही छे एवा
पिशाचोने जेणे आपना तरफ दोडाव्या ते पिशाचो पण ते दुष्ट कमठने माटे
जन्मोजन्म सांसारिक दुःखोनुं कारण थया. ३३.
धन्यास्त एव भुवनाधिप ये त्रिसंध्य
माराधयंति विधिवद्विधुतान्यकृत्जाः
भक्त्योल्लसत्पुलकपक्ष्मददेहदेशाः,
पादद्वयं तव विभो भुवि जन्मभाजः
।।३४।।
छे धन्य ते ज अवनीमहिं जेह प्राणी,
त्रिसंध्य तेज पद भुवननाथ नाणी!

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कल्याणमंदिरस्तोत्र ][ ४७
आराधता विधिथी कार्य बीजा फगावी,
रोमांच भक्ति थकी अंग महिं धरावी. ३४.
अर्थ :हे जिननाथ! भक्तिभावजन्य रोमांच जेमना शरीरमां
व्यापी गया छे एवा जे भव्यप्राणी संसारना अन्य समस्त कार्यो छोडीने
विधिपूर्वक आपना बन्ने चरणोनी सवार, बपोर अने सांजे आराधना करे
छे, ते ज जीवो संसारमां धन्य छे. ३४.
अस्मिन्नपारभववारिनिधौ मुनीश !
मन्ये न मे श्रवणगोचरतां गतोऽसि
आकर्णिते तु तव गोत्रपवित्रमंत्रे,
किं वा विपद्विषघरी सविधं समेति
।।३५।।
मानुं अपार भवसागरमां जिनेश!
तुं कर्णगोचर मने न थयो ज लेश;
सुण्या पछी तुज सुनाम पुनित मंत्र,
आवे कने विपदनागण शुं? भदंत! ३५.
अर्थ :हे मुनिनाथ! मने एम लागे छे के आ अपार संसार
समुद्रमां में आपनो यश काने सांभळ्यो नथी केमके जो आपना नामरूपी
पवित्र मंत्र में कानथी सांभळ्यो होत तो शुं आपत्तिरूपी सापण मारी
समीप आवत? अर्थात् न ज आवत. ३५.
जन्मान्तरेऽपि तव पादयुगं न देव !
मन्ये मया महित मीहितदानदक्षम्
तेनेह जन्मनि मुनीश ! पराभवानां,
जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम्
।।३६।।
जन्मांतरेय जिन! वांच्छित दानदक्ष,
पूज्या न में तुज पदोरूप कल्पवृक्ष;

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४८ ][ पंचस्तोत्र
आ जन्ममां हृदयमंथि पराभवोनो,
निवास हुं थई पड्यो इश मुनिओना! ३६.
अर्थ :हे मुनीश! मने विश्वास छे के पूर्वभवोमां में मनोवांछित
फळ देवाने समर्थ एवा आपना बन्ने चरणोनी पूजा करी नहि ते ज कारणे
हे मुनिनाथ! आ जन्ममां हुं हृदयने व्यथित करनार तिरस्कारोनुं पात्र
बन्यो छुं. ३६.
नूनं न मोहतिमिरावृतलोचनेन,
पूर्वं विभो सकृदपि प्रविलोकितोऽसि
मर्माविधो विधुरयन्ति हि मामनर्थाः,
प्रोद्यत्प्रबन्धगतयः कथमन्यथैते
।।३७।।
में मोहतिमिरथी आवृत नेत्रवाळे,
पूर्वे तने न निरख्यो नकी एक वारे;
ना तो मने दुःखी करे क्यम मर्मभेदी,
एही अनर्थ उदयागत विश्ववेदी! ३७.
अर्थ :हे प्रभो! मोहरूपी अंधकारथी नेत्रो अति आच्छादित
होवाना कारणे में पूर्वे एकवार पण आपना दर्शन कर्या नहि एवो मने
पूर्ण विश्वास छे. जो में आपना दर्शन कर्या होत तो उत्कटरूपे उत्पन्न
थता, संताननी परंपरा वधारनारा अने मर्मस्थानने भेदनारा आ अनर्थ
(दुःखदायक मोहभाव) मने शा माटे सतावेत? ३७.
भावार्थ :जडइन्द्रियरूप नेत्रोथी तो में आपना अनेक वार
दर्शन कर्या पण मोहान्धकार रहित ज्ञानरूपी नेत्रोथी एकवार पण दर्शन
कर्या नहि अर्थात् कदी पण आपना ज जेवा मारा शुद्धात्माने जोयो नहि
अने ए ज कारणे मने दुःखदायक मोहभावो सतावी रह्या छे. ३७.
आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि,
नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या

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कल्याणमंदिरस्तोत्र ][ ४९
जातोऽस्मि तेन जनबान्धव दुःखपात्रं,
यस्मात्क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः
।।३८।।
पूज्यो छतां श्रुत छतां निरख्यो छतांय,
धार्यो न भक्तिथी तने मुज चित्तमांय;
तेथी थयो हुं दुःखभाजन जिनराय!
ना भावविहीन क्रिया फलवंत थाय. ३८.
अर्थ :हे जगबंधु! जन्मजन्मान्तरोमां जो में आपनुं नाम
सांभळ्युं पण होय, आपनी पूजा करी पण होय तथा आपना दर्शन पण
कर्या होय परंतु ए तो निश्चय छे के में आपने भक्तिपूर्वक कदी पण मारा
हृदयमां धारण कर्या नथी. एनुं परिणाम ए आव्युं के हजी सुधी हुं आ
संसारमां दुःखनुं भाजन ज बनी रह्यो छुं कारण के भावरहित क्रिया
फळदायक थती नथी. ३८.
त्वं नाथ दुःखिजनवत्सल हे शरण्य,
कारुण्यपुण्यवसते वशिनां वरेण्य
भक्त्या नते मयि महेश दयां विधाय,
दुःखांकुरोद्दलनतत्परतां विधेहि
।।३९।।
हे नाथ! दुःखीजनवत्सल! हे शरण्य!
कारूण्यपुण्यगृह! संयमीमां अनन्य!
भक्तिथी हुं नत प्रति धरी तुं दयाने,
था देव! तत्पर दुःखांकुर छेदवाने! ३९.
अर्थ :हे नाथ, हे दीनदयाळ, हे शरणागतपाळ, हे करुणा-
निधान, हे इन्द्रियविजेता योगीन्द्र, हे महेश्वर, साची भक्तिपूर्वक नमेला
एवा मारा उपर दया लावीने, मारा दुःखांकुरोनो (मोहभावोनो) समूळ
नाश करवामां तत्पर थाव. ३९.

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५० ][ पंचस्तोत्र
निःसंख्यसारशरणं शरणं शरण्य
मासाद्य सादितरिपुप्रथितावदातम्
त्वत्पादपङ्कजमपि प्रणिधानवन्ध्यो,
वन्घ्योऽस्मि तद्भुवनपावन हा हतोऽस्मि
।।४०।।
निःसंख्य सत्त्वगृह ख्यात प्रभाववाळा,
ने शत्रुनाशक शरण्य अहो! तमारा;
पादाब्ज शर्ण लई जो छउं ध्यान वंध्य,
तो नष्ट हुं भुवनपावन! हुं ज वंध्य. ४०.
अर्थ :अरे! दुःखनी वात छे के हुं मोहभावना कारणे निर्बळ
थई रह्यो छुं. हे त्रणलोकने पावन करनार, अशरण शरण,
शरणागतप्रतिपालक, कर्मविजेता, प्रभावधारक! आपना चरणकमळ प्राप्त
करवा छतां पण जो में तेमनुं ध्यान न कर्युं तो हे प्रभो! मारा जेवो
अभागी कोई नथी. ४०.
देवेन्द्रवन्द्य विदिताखिल वस्तुसार,
संसारतारक विभो भुवनाधिनाथ
त्रायस्व देव करुणाहृद मां पुनीहि,
सीदन्तमद्य भयदव्यसनाम्बुराशेः
।।४१।।
देवेन्द्रवंद्य! विभु! वस्तुरहस्य जाण!
संसारतारक! जगत्पति! जिनभाण?
रक्षो मने भयद दुःख समुद्रमांथी!
आजे करूणहृद! पुण्य करो दयाथी! ४१.
अर्थ :हे देवेन्द्रो वडे वंदनीय, हे सर्वज्ञदेव, हे जगत
तारणहार, हे विभो, हे त्रिलोकीनाथ, हे दया समुद्र, हे जिनेन्द्रदेव! आजे
मम दुःखियारानी रक्षा करो अने अति भयानक दुःख समुद्रथी मने
बचावो. ४१.

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कल्याणमंदिरस्तोत्र ][ ५१
यद्यस्ति नाथ भवदंध्रिसरोरूहाषां,
भक्तेः फलं किमपि सन्ततसञ्चितायाः
तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य भूयाः
स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि
।।४२।।
त्हारा पदाब्जतणीसंततिथी भरेली,
भक्तितणुं कंईय जो फल विश्वबेली!
तो तुं ज एक शरणुं जस एह मुज,
हो शर्ण आ भव भवांतरमांय तुं ज! ४२.
अर्थ :हे प्रभुवर! केवळ आपनुं ज शरण लेनार एवा मने,
चिरकाळथी संचित करेली आपना चरणकमळोनी भक्तिनुं जो कांई पण
फळ मळे तो हे अशरणोने शरण आपनार! ते एटलुं ज हो के आ लोक
अने परलोकमां पण आप ज मारा स्वामी हो अर्थात् मारो आत्मा
आपना समान शुद्ध अने पूर्ण थई जाय. ४२.
इत्थं समाहितधियो विधिवज्जिनेन्द्र,
सान्द्रोल्लसत्पुलक कञ्चुकिताङ्गभागाः
त्वद्विम्बनिर्मलमुखाम्बुजबद्धलक्ष्या,
ये संस्तवं तव विभो स्वयन्ति भव्याः
।।४३।।
जननयनकुमुदचन्द्र,
प्रभास्वराः स्वर्गसमादो भुक्त्वा
ते विगलितमलनिचया,
अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते
।।४४।।
रे! आम विधिथी समाधिमने उमंगे,
रोमांच कंचुक धरी निज अंगअंगे;
सद्दबिब्ब निर्मळ मुखांबुज द्रष्टि बांधी,
भव्यो रचे स्तवन जे तुज भक्ति सांधी. ४३.

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५२ ][ पंचस्तोत्र
ते हे जिनेन्द्र! जननेत्र ‘कुमुदचन्द्र’
ह्यां भोगवी स्वरग संपदवृंद चंग;
निःशेष कर्ममल संचय साव वामे,
ते शीघ्र तेह ‘भगवान्’! शिवधाम पामे. (युग्म) ४४.
अर्थ :हे जिनपति, हे विभुवर, हे जननयन कुमुदचन्द्र
अर्थात् प्राणीओना नेत्रकुमुदोने प्रकाशित करनार चन्द्र! (आ पद
द्वारा श्री सिद्धसेन दिवाकराचार्ये ‘कुमुदचन्द्र’ ए पोताना गुरुए आपेलुं
दीक्षानाम पण बताव्युं छे.) जे भव्य जीव आपना प्रतिमाना मुखकमल
तरफ एकीटशे जोईने, सघन अने रोमांचरूप वस्त्रोथी पोताना शरीरना
अंग ढांकीने, एकाग्र ध्यानयुक्त बुद्धि द्वारा आपनी स्तुति करे छे,
तेओ स्वर्गलोकना अनेक प्रकारना मनोहर सुखो भोगवीने तथा
आत्मामांथी भावकर्मरूपी मळ दूर करीने अति शीघ्रपणे मोक्षसुखनी
प्राप्ति करे छे. ४३
४४.
ए प्रमाणे श्रीकल्याणमंदिर स्तोत्रनी पं. श्रेयांसकुमारजी शास्त्रीए
करेल भाषा टीकानो गुजराती अनुवाद संपूर्ण थयो.