Panch Stotra-Gujarati (Devanagari transliteration).

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९२ ][ पंचस्तोत्र
मेरु बडासा पत्थर पहले, फिर छोटासा फलस्वरूप,
और अन्त में हुआ न कुलगिरि, किन्तु सदासे उन्नत रूप;
इसी तरह जो वर्धमान हैं किन्तु न क्रमसे हुआ उदार,
सहजोन्नत उस त्रिभुवन - गुरुको, नमस्कार है बारम्बार. ३६.
स्वयं प्रकाशमान जिस प्रभुको, रात दिवस नहिं रोक सका,
लाघव गौरव भी नहिं जिसको, बाधक होकर टोक सका;
एकरूप जो रहे निरंतर, कालकलासे सदा अतीत,
भक्तिभार से झुठकर उसकी, करुं वंदना परम पुनीत. ३७.
इस प्रकार गुणकीर्तन करके, दीन भावसे हे भगवान,
वर न मांगता हुं मैं कुछ भी, तुम्हें वीतरागी वर जान;
वृक्षतले जो जाता है, उस पर छाया होती स्वयमेव,
छांहयाचना करनेसे फिर, लाभ कौनसा हे जिनदेव? ३८.
यदि देनेकी इच्छा ही हो, या इसका कुछ आग्रह हो,
तो निजच रनकमलरत निर्मल बुद्धि दीजिए नाथ अहो;
अथवा कृपा करोगे ही प्रभु, शंका इसमें जरा नहीं,
अपने प्रिय सेवक पर करते, कौन सुधी जन दया नहीं. ३९.