Panch Stotra-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१४ ][ पंचस्तोत्र
योगीश्वरं, विदित योग, अनेक एक,
के’छे, तने विमळ ज्ञानस्वरूप संत. २४.
भावार्थ :प्रभो! आपना अनंतज्ञानादिस्वरूप आत्मानो कदि
नाश होतो नथी तेथी योगीजन आपने ‘अव्यय’ कहे छे. आपनुं ज्ञान
त्रणे लोकमां व्याप्त छे तेथी आपने ‘विभु व्यापक अथवा समर्थ कहे छे.
आपनुं स्वरूप कोई चिंतवन करी शकता नथी तेथी आपने ‘अचिंत्य’ कहे
छे. आपना गुणोनी संख्या नहीं होवाथी आपने ‘असंख्य’ कहे छे. एवी
रीते सत्पुरुषो अनेक विशेषणोथी ज्ञानना साक्षात् स्वरूपे वर्णवी आपने
निर्मळ कहे छे. हे प्रभो! आप कर्मोनो नाश करी सिद्ध थया छो. अने
आप अनादि मुक्त नथी तेथी आपने ‘आद्य’ कहे छे अथवा युगनी
आदिमां आपे कर्मभूमिनी रचना करी, अने चोवीश तीर्थंकरोमां आद्य
तीर्थंकर छो तेथी आपने ‘आद्य’ कहे छे. सघळा कर्मोथी आप रहित छो
अथवा आनंदमय छो तेथी आपने ‘ब्रह्मा’ कहे छे. आप कृतकृत्य छो
तेथी आपने ‘ईश्वर’ कहे छे. अनंतज्ञान, अनंतदर्शनादिथी आप युक्त
छो अथवा अनीश्वर छो तेथी आपने ‘अनंत’ कहे छे. संसारनुं कारण
जे काम तेने आप नाश करनार छो तेथी आपने ‘अनंगकेतु’ कहे छे.
योगी अर्थात् सामान्य केवळी या मन, वचन, कायाना व्यापारने
जीतवावाळा जे मुनिजन छे तेना आप स्वामी छो तेथी आपने
‘योगीश्वर’ कहे छे. आपथी चढियातुं बीजुं कोई नथी तेथी आपने ‘एक’
कहे छे. आप केवळज्ञानस्वरूप छो. अर्थात् समग्र कर्मोनो क्षय करीने
आप चित्तस्वरूप थया छो, तेथी आपने ‘ज्ञानस्वरूप’ कहे छे. आप कर्म
मल रहित छो तेथी आपने ‘अमल’ कहे छे. २४.
बुद्धस्त्वमेवविबुधार्चितबुद्धिबोधा
त्त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात्
धातासि धीर ! शिवमार्गविधेर्विधानाद्
व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि
।।२५।।