३४ ][ पंचस्तोत्र
स्वामिन्ननल्पगरिमाणमपि प्रपन्नाः
त्वां जन्तवः कथमहो हृदये दधानाः ।
जन्मोदधिं लघु तरन्त्यतिलाघवेन,
चिन्त्यो न हन्त महतां यदि वा प्रभावः ।।१२।।
स्वामी! तुंने बहुज गुरुतावंतने आश्रनारा,
सत्त्वो सर्वे हृदमहिं तने धारीने कया प्रकारा;
जन्माब्धिने अति लघुपणे रे! तेरे शीघ्र साव,
वा अत्रे तो महद्जननो छे अचिन्त्य प्रभाव. १२.
अर्थ : — हे जगत्पति! अति गौरववान (अनंत गुणरूप
महाभार सहित) एवा आपने हृदयमां धारण करनारा जीवो शीघ्रपणे
संसार समुद्रनो पार घणी सहेलाईथी केवी रीते पामे छे? ए आश्चर्य
छे. एनुं समाधान ए छे के महापुरुषोनो महिमा अचिन्त्य होय छे. १२.
क्रोधस्त्वया यदि विभो ! प्रथमं निरस्तो,
ध्वस्तास्तदा वद कथं किल कर्मचौराः ।
प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके,
नीलद्रुमाणि विपिनानि न किं हिमानी ।।१३।।
जो विभु हे! प्रथमथी ज तें क्रोध कीधो निरस्त,
तो कीधा तें कई ज रीतथी कर्मचोरो विनष्ट?
लीला वृक्षो युत वनगणोने अहो! लोकमांही,
ना बाळे शुं शिशिर पण रे! हिमराशिय आंही? १३.
अर्थ : — हे स्वामी! जो आपे क्रोधनो पहेलां ज नाश कर्यो तो
पछी बतावो के आपे कर्मरूपी चोरोनो नाश केवी रीते कर्यो? तेनुं समाधान
करे छे के जेम हिम ठंडो होवा छतां पण शुं लीलांछम वृक्षोवाळां वनोने
बाळी नथी नाखतो? अर्थात् हिम पडवाथी लीलांछम बधां वृक्ष करमाई