कल्याणमंदिरस्तोत्र ][ ३५
जाय छे तेवी ज रीते स्वभावनी महाशांतिमां मग्न रहीने पण आपे
कर्मोनो नाश करी नाख्यो छे. १३.
त्वां योगिनो जिन सदा परमात्मरूप –
मन्वेषयन्ति हृदयाम्बुजकोशदेशे ।
पूतस्य निर्मलरुचेर्यदि वा किमन्य –
दक्षस्य संभवपदं ननु कर्णिकायाः ।।१४।।
योगीओ तो जिनपति! सदा तुं परात्मारूपीने,
रे! शोधे छे हृदयकजना कोशदेशे फरीने;
शुं कर्णिका विण अपर रे! संभवे छे अनेरूं,
स्थान ह्यां तो पुनित अमला अब्जना बीज केरूं? १४.
अर्थ : — हे जिनेश! महर्षिओ सदा परमात्मस्वरूप आपने
पोताना हृदयकमळना मध्यभागमां (ज्ञाननेत्रद्वारा) शोधे छे. ते योग्य ज
छे केम के जेम पवित्र अने निर्मळ कांतिवाळा कमळना बीजनुं उत्पत्तिस्थान
कमळनी कर्णिका ज छे तेम शुद्धात्माने शोधवानुं स्थान हृदयकमळनो
मध्यभाग ज छे. १४.
ध्यानाज्जिनेश भवतो भविनः क्षणेन,
देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति ।
तीव्रानलादुपलभावमपास्य लोके,
चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः ।।१५।।
पामे भव्यो क्षणमहिं प्रभु हे! परात्मादशाने,
जिनेशा हे! शरीर तजीने आपश्रीना ज ध्याने;
तीव्राग्निथी तजी दई अहो! भाव पाषाण केरो,
पामे लोके झट कनकता जे रीते धातुभेदो. १५.
अर्थ : — हे स्वामी! जेम लोकमां तीव्र अग्निना संबंधथी जुदा