Panch Stotra-Gujarati (Devanagari transliteration).

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३६ ][ पंचस्तोत्र
जुदा प्रकारनी धातुओ (जेमां सोनुं बनवानी योग्यता छे ते पोतानुं
पत्थररूप छोडीने शीघ्र ज स्वयं स्वर्ण बनी जाय छे तेवी ज रीते हे प्रभो!
आपना (निज शुद्धात्माना) ध्यानथी संसारी जीव तत्क्षण शरीर छोडीने
परमात्म अवस्थाने प्राप्त करे छे. १५.
अन्तः सदैव जिन यस्य विभाव्यसे त्वं,
भव्यै कथं तदपि नाशयसे शरीरम्
एतत्स्वरूपमथ मध्यविवर्तिनो हि,
यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः
।।१६।।
जेनी अंतः भवि थकी सदा तुं विभावाय भावे,
जिनेशा हे! शरीर पण ते नाश कां तुं करावे?
वा वर्त्ते आ नकी अहीं अरे! मध्यवर्त्ति स्वरूप,
म्हानुभावो विग्रह शमवे सर्वथा जिनभूप! १६.
अर्थ :हे देवाधिदेव! भव्य प्राणीओ जे शरीरनी मध्यमां सदैव
आपनुं ध्यान करे छे ते शरीरनो ज आप केम नाश करावो छो? अथवा
ए बराबर ज छे के मध्यस्थ महानुभावोनो ए स्वभाव ज होय छे के
तेओ विग्रहने शांत ज करी नाखे छे अर्थात् आ शरीरमां रहीने आत्मा
आपनुं (निज शुद्धात्मानुं) ध्यान करे छे अने परिणामे जन्म-मरण जे
शरीरना धर्म छे तेमनाथी आत्माने सदाने माटे मुक्ति मळी जाय छे, ए
ज आपनी मध्यस्थता छे. १६.
आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेदबुद्धया,
ध्यातो जिनेन्द्र ! भवतीह भवत्प्रभावः
पानीयमप्यमृतमित्यनुचिन्त्यमानं,
किं नाम नो विषविकारमपाकरोति
।।१७।।
आ आत्मा तो मनीषि जनथी तुंथी निर्भेद भावे,
ध्यायाथी हे जिनवर! बने तुज जेवो प्रभावे.