कल्याणमंदिरस्तोत्र ][ ४१
अशोक वृक्षना पांदडाओनी लालाश दूर थई जाय छे अर्थात् आपनी
समीपताथी जो वृक्षोनो राग (लालाश) पण जतो रहे छे तो एवो कयो
सचेतन पुरुष होय के जे आपना ध्यान द्वारा आपनी समीपताथी
वीतरागता न पामे? अर्थात् अवश्य पामे. (आ छठ्ठा प्रातिहार्यनुं वर्णन
छे.) २४.
भो भोः प्रमादमवधूय भजध्वमेन
मागत्य निर्वृतिपुरीं प्रति सार्थवाहम् ।
एतन्निवेदयति देव जगत्त्रयाय,
मन्ये नदन्नभिनभः सुरदुन्दुभिस्ते ।।२५।।
‘‘भो भो भव्यो! अवधूणी तमारा प्रमादो सहुने,
आवी सेवा शिवपुरीतणा सार्थवाह प्रभुने.’’
मानुं आवुं त्रण जगतने देव! निवेदनारो,
व्यापी व्योमे गरजत अति देवदुंदुभि त्हारो. २५.
अर्थ : — हे विभो! हुं एम मानुं छुं के आकाशमां देवो द्वारा
गरजतो दुंदुभिनाद त्रणे लोकने एम सूचित करे छे के हे जगतना जनो!
प्रमाद छोडीने मोक्षनगरी तरफ लई जता आपना (श्री पार्श्वनाथना) शरणे
आवीने आमनी भक्ति करो. (आ सातमा प्रातिहार्यनुं वर्णन छे.) २५.
उद्योतितेषु भवता भुवनेषु नाथ,
तारान्तिवतो विधुरयं विहताधिकारः ।
मुक्ताकलापकलितोल्लसितातपत्र —
व्याजात्त्रिधा धृततनुध्रुवमभ्युपेतः ।।२६।।
त्हारा द्वारा सकल भुवनो आ प्रकाशित थातां,
तारावृंदो सहित शशि आ स्वाधिकारे हणातां;
मौक्तिकोना गणयुत उघाडेल त्रि छत्र ब्हाने,
आव्यो पासे त्रिविध तनुने धारी निश्चे ज जाणे. २६.