४० ][ पंचस्तोत्र
श्यामं गंभीरगिरमुज्जवणहेमरत्न –
सिंहासनस्थमिह भव्यशिखण्डिनस्त्वाम् ।
आलोकयन्ति रभसेन नदन्तमुच्चै –
श्चामीकराद्रिशीरसीव नवाम्बुवाहम् ।।२३।।
बिराजेला कनक – मणिना शुभ्र सिंहासने ने,
‘ह्यां गर्जंता गंभीर गिरथी, नीलवर्णा तमोने;
उत्कंठाथी भविजन रूपी मोरलाओ निहाळे,
सुवर्णादि शिखरपर जाणे नवो मेघ भाळे! २३.
अर्थ : — हे जिनेन्द्र! उज्ज्वळ सुवर्णना बनेला अने अनेक रत्नो
जडेला सिंहासन उपर बिराजेलुं आपनुं श्यामवर्ण शरीर – के जेमांथी
गंभीर दिव्यध्वनि थई रही छे – एवुं लागे छे के जाणे सुवर्णमय सुमेरु
पर्वत उपर नवीन वर्षा – काळना काळां वादळां गर्जना करी रह्यां छे अने
ते वादळाओने जाणे मोर घणी उत्सुकताथी नीरखी रह्या छे. एवी ज रीते
भव्य जीवो घणी उत्सुकताथी आपने देखे छे. आपनी दिव्यध्वनि अने
दर्शन पामीने भव्यजीव कृतकृत्य थई जाय छे. (आ पांचमा प्रातिहार्यनुं
वर्णन छे.) २३.
उद्गच्छता तव शितिद्युतिमण्डलेन,
लुप्तच्छदच्छविरशोकतरुबभूव ।
सांन्निध्यतोऽपि यदि वा तव वीतराग,
नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि ।।२४।।
उंचे जाता तुज नील प्रभामंडलेथी विलोक!
पत्रो केरी द्युतिथकी थयो हीन अत्रे अशोक;
वा नीरागी! भगवान! वळी आपना सन्निधाने,
नीरागिता नहिं अहीं कियो चेतनावंत पामे? २४.
अर्थ : — हे नाथ! जो आपना देदीप्यमान भामंडळना तेज द्वारा