कल्याणमंदिरस्तोत्र ][ ३९
पीत्वा यतः परमसंमदसङ्गभाजा,
भव्या व्रजन्ति तरसाप्यजरामरत्वम् ।।२१।।
स्थाने छे आ गंभीर हृदयाब्धि थकी उद्भवेली,
त्हारी वाणी तणी पीयूषता छे जनोए कथेली;
तेने पीने पर प्रमदना संगभागी विरामे,
निश्चे भव्यो अजर अमराभावने शीघ्र पामे. २१.
अर्थ : — हे त्रिभुवनपते! आपनी वाणी (दिव्यध्वनि) जे अति
अगाध हृदयरूपी समुद्रमांथी नीकळी छे तेमां लोको अमृतत्त्व बतावे छे
ते साचुं ज छे केम के भव्य जीव तेनुं पान करीने परमानंद पामता थका
बहु ज जल्दी अजरामरपणुं प्राप्त करी ले छे. (आ त्रीजा प्रातिहार्यनुं
वर्णन छे.) २१.
स्वामिन् ! सुदूरमवनम्य समुत्पतन्तो,
मन्ये वदन्ति शुचयः सुरचामरौघाः ।
येऽस्मै नतिं विदधते मुनिपुङ्गवाय,
ते नूनमूर्ध्वगतयः खलु शुद्धभावाः ।।२२।।
हे, स्वामिश्री! अति दूर नमी ने उंचे ऊछळंता,
मानुं शुचि सुरचमरना वृंद आवुं वंदता —
‘‘जेओ एही यतिपति प्रभु रे! प्रणामो करे छे,
निश्चे तेओ उरध गतिने शुद्धभावे लहे छे.’’ २२.
अर्थ : — हे भगवान्! हुं एम मानुं छुं के पवित्र देवताओना
चामर समूह आपनी उपर ढोळती वखते अतिशय नीचे नमीने उपर
तरफ जतां लोकोने एम कही रह्यां छे के जे विशुद्ध परिणामना धारक
जीव आ मुनिनाथ प्रत्ये नम्रीभूत थईने नमस्कार करे छे ते जीव
निश्चयथी अमारा समान ऊर्ध्वगति जे मोक्ष तेने पामे छे. (आ चोथा
प्रातिहार्यनुं वर्णन छे.) २२.