Panch Stotra-Gujarati (Devanagari transliteration).

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३८ ][ पंचस्तोत्र
सान्निध्येथी तुज धरमना बोधवेळा विलोक!
दूरे लोको! तरू पण अहो! थाय अत्रे ‘अशोक’;
भानुकेरो समुदय थये नाथ! आ जीवलोक,
शुं विबोध त्यम नहि लहे साथमां वृक्षथोक? १९.
अर्थ :हे जिनेश्वर! धर्मोपदेश समये आपनी समीपताना
प्रभावथी मनुष्यनी तो वात ज शी, वृक्ष पण अशोक (शोक रहित) थई
जाय छे. अथवा साचुं ज छे के सूर्यनो उदय थतां केवळ मनुष्यो ज जागृत
नथी थता परंतु कमळादि वनस्पति पण पांखडीओनी संकोचरूप निद्रा
छोडीने विकसित थई जाय छे. (आ प्रथम प्रातिहार्यनुं वर्णन छे.) १९.
चित्रं विभो ! कथमवाङ्मुखवृन्तमेव,
विष्वक्पतत्यविरला सुरपुष्पवृष्टिः
त्वद्गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश,
गच्छन्ति नूनमध एव हि बन्धनानि
।।२०।।
रे! चोपासे विमुख डिटडे मात्र शाने पडे छे
वृष्टि भारी सुरकुसुमनी? हे विभु! चित्र ए छे!
वा त्हारा रे! दरशन पथे प्राप्त थातां ज निश्चे,
मुनीशा हे! सुमन गणना बंधनो जाय नीचे. २०.
अर्थ :हे मुनिनाथ! देवो द्वारा चारे तरफ जे सघन पुष्पवृष्टि
थाय छे तेना डींटिया नीचे अने पांखडीओ उपर केम रहे छे? ए
आश्चर्यनी वात छे. अथवा ते योग्य ज छे, हे मुनीश! आपनो आत्मामां
साक्षात्कार थतां सुमनसो (स्वच्छ मनवाळा जीवो)ना (रागद्वेष मोहादिरूप)
बंधन निश्चयथी नीचे ज जाय छे अर्थात् नष्ट थई जाय छे. (आ बीजा
प्रातिहार्यनुं वर्णन छे.) २०.
स्थाने गंभीरहृदयोदधिसम्भवायाः,
पीयूषतां तव गिरः समुदीरयन्ति