८४ ][ पंचस्तोत्र
स्वयंप्रकाशस्य दिवा निशा वा,
न बाध्यता यस्य न बाधकत्वम् ।
न लाघवं गौरवमेकरूपं
वन्दे विभुं कालकलामतीतम् ।।३७।।
अर्थ : — हे त्रिलोकी प्रभु! आप स्वयं सतत प्रकाशस्वरूप छो तेथी
दिवस के रात्रिनी जेम बाध्य बाधकपणुं नथी, जेमने नथी लघुता के नथी
गुरुता. ते सदैव एकरूप रहेनार अने काळनी कळाथी रहित अर्थात्
अविनाशी त्रिलोकीनाथने हुं नमस्कार करुं छुं. ३७.
इति स्तुति देव विधाय दैन्या –
द्वरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि ।
छायातरूं संश्रयतः स्वतः स्यात्,
कश्छायया याचितयात्मलाभः ।।३८।।
अर्थ : — हे नाथ! आ प्रमाणे स्तुति करीने हुं दीनतापूर्वक वरदान
मांगतो नथी केमके हुं जाणुं छुं के आप रागद्वेषरहित छो. अथवा बराबर
ज छे के वृक्षोनो आश्रय लेनार पुरुषने छांयो स्वयं प्राप्त थई जाय छे
तो पछी छांयो मागवाथी शो लाभ थाय? ३८.
अथास्ति दित्सा यदि वोपरोध –
स्त्वय्येव सक्तां दिश भक्तिबुद्धिम् ।
करिष्यते देव तथा कृपां मे,
को वात्मपोष्ये सुमुखो न सूरिः ।।३९।।
अर्थ : — हे स्वामी! जो आपनी कांई देवानी इच्छा होय अथवा
कांई अनुग्रह होय तो हुं ए ज मागुं छुं के आपना चरणोमां ज मारी
भक्ति रहो. मने विश्वास छे के हे देव! आप मारा उपर आटली कृपा
अवश्य करशो. पोता वडे पोषावा योग्य शिष्य उपर क्या विद्वान पुरुष
अनुकूळ नथी थता? बधा ज थाय छे. ३९.