९० ][ पंचस्तोत्र
तीन लोकमें ढोल बजाकर, किया मोह ने यह आदेश,
सभी सुरासुर हुए पराजित, मिला विजय उसे विशेष;
किन्तु नाथ; वह निबल आपसे, कर सकता था कहां विरोध,
वैर ठानना बलवानोसे, खो देता है खुदको खोद. २४.
तुमने केवल एक मुक्तिका, देखा मार्ग सौख्यकारी,
पर औरोने चारो गति के, गहन पंथ देखे भारी;
इससे सब कुछ देखा हमने, यह अभिमान ठान करके,
हे जिनवर, नहिं कभी देखना, अपनी भुजा तान करके. २५.
रविको राहु रोकता है, पावकको वारि बुझाता है,
प्रलयकालका प्रबल पवन, जलनिधिको नाच नचाता है;
एसे ही भव - भोगोंको, उनका वियोग हरता स्वयमेव,
तुम सिवाय सबकी बढती पर, घातक लगे हुए हैं देव. २६.
बिन जाने भी तुम्हें नमन करनेसे जो फल फलता है,
वह औरोंको देव मान, नमनेसे भी नहिं मिलता है;
ज्यों *मरक्तको काच मानकर, करगत करनेवाला नर,
समझ सुमणि जो काच गहे, उसके सम रहे न खाली कर. २७.
विशद मनोज्ञ बोलनेवाले, पंडित जो कहलाते हैं,
क्रोधादिकसे जले हुएको, वे यों ‘देव’ बताते हैं;
जैसे ‘बुझे हुए’ दीपकको, ‘बढा हुआ’ सब कहते हैं,
और कपाल बिघट जानेको, ‘मंगल हुआ’ समझते हैं. २८.
नयप्रमाणयुत अतिहितकारी, वचन आपके कहे हुए,
सुनकर श्रोताजन तत्त्वोंके, परिशीलन में लगे हुए;
वक्ताका निर्दोषपना जानेंगे, क्यों नहिं हे गुणमाल,
ज्वरविमुक्त जाना जाता है, स्वर परसे सहजहि तत्काल. २९.
* मरक्त – नीलमणि.