Panch Stotra-Gujarati (Devanagari transliteration).

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विषापहार स्तोत्र पद्यानुवाद ][ ८९
कहां तुम्हारी वीतरागता, कहां सौख्यकारक उपदेश!
हो भी तो कैसे बन सकता, इन्द्रियसुखविरुद्ध आदेश?
और जगतकी प्रियता भी तब, संभव कैसे हो सकती?
अचरज, यह विरुद्ध गुणमाला, तुममें कैसे रह सकती? १८.
तुम समान अति तुंग किन्तु निधनोंसे, जो मिलता स्वयमेव,
धनद आदि धनिकोंसे वह फल, कभी नहीं मिल सकता देव;
जलविहीन ऊंचे गिरिवरसे, नाना नदियां बहती हैं,
किन्तु विपुल जलयुक्त जलधिसे, नहीं निकलतीं झरती हैं. १९.
करो जगतजन जिनसेवा, यह समझानेका सुरपति ने,
दंड विनयसे लिया, इसलिए प्रातिहार्य पाया उसने;
किन्तु तुम्हारे प्रातिहार्य वसुविधि हैं सो आए कैसे?
हे जिनेंद्र; यदि कर्मयोगसे, तो वे कर्म हुए कैसे? २०.
धनिकोंको तो सभी निधन, लखते हैं भला समझते हैं,
पर निधनोंको तुम सिवाय जिन, कोई भला न कहते हैं;
जैसे अंधकारवासी उजियालेवालेको देखे,
वैसे उजियालावाला नर, नहिं, तमवासीको देखे. २१.
निज शरीरकी वृद्धि श्वासउच्छ्वास और पलकें झपना,
ये प्रत्यक्ष चिह्न है जिस में, ऐसा भी अनुभव अपना;
कर न सकें जो तुच्छबुद्धि वे, हे जिनवर; क्या तेरा रुप,
इन्द्रियगोचर कर सकते हैं, सकल ज्ञेयमय ज्ञानस्वरूप? २२.
‘उनके पिता’ ‘पुत्र हैं उनके,’ कर प्रकास यों कुलकी बात,
नाथ; आपकी गुणगाथा जो, गाते हैं रट रट दिनरात;
चारु चित्तहर चामीकरको, सचमुच ही वे विना विचार,
उपलशकलसे उपजा कहकर, अपने करसे देते डार. २३.