८८ ][ पंचस्तोत्र
कर्मस्थितिको जीव निरन्तर, विविध थलोंमें पहुंचाता,
और कर्म इन जग - जीवोको, सब गतियोंमें ले जाता;
यों नौका नाविकके जैसे, इस गहरे भव - सागरमें,
जीव कर्मके नेता हो प्रभु, पार करो कर कृपा हमें. १२.
गुणके लिए लोग करते हैं; अस्थि – धारणादिक बहु दोष,
धर्महेतु पापोंमें पडते, पशुवधादिको कह निर्दोष;
सुखहित निज तनको देते हैं, गिरिपातादि दुःखमें ठेल,
यों जो तव मतबाह्य मूढ वे, बालू पेल निकालें तेल. १३.
विषनाशक मणि मंत्र रसायन, औषधके अन्वेषणमें,
देखो तो ये भोले प्राणी, फिरें भटकते वन वन में;
समझ तुम्हें ही मणिमंत्रादिक, स्मरण न करते सुखदायी,
क्योंकि तुम्हारे ही हैं ये सब, नाम दूसरे पर्यायी. १४.
हे जीनेश, तुम अपने मनमें, नहीं किसीको लाते हो,
पर जिस किसी भाग्यशालीके, मनमें तुम आ जाते हो;
वह निज - करमें कर लेता हैं, शकल जगतको निश्चय से,
तव मन से बाहर रहकर भी, अचरज है रहता सुखसे. १५.
त्रिकालज्ञ त्रिजगतके स्वामी, ऐसा कहनेसे जिनदेव,
ज्ञान और स्वामीपनकी, सीमा निश्चित होती स्वयमेव;
यदि इससे भी ज्यादा होती, काल जगतकी गिनती और,
तो उसको भी व्यापित करते, ये तव गुण दोनों सिरमौर. १६.
प्रभुकी सेवा करके सुरपति, बीज स्वसुखके बोता है,
हे अगम्य अज्ञेय न इससे, तुम्हें लाभ कुछ होता है;
जैसे छत्र सूर्यके सम्मुख, करनेसे दयालु जिनदेव,
करनेवाले ही को होता, सुखकर आतपहर स्वयमेव. १७.