विषापहार स्तोत्र पद्यानुवाद ][ ८७
देने लेनेका काम कुछ, आज कल्य परसों करके,
दिन व्यतीत करता अशक्त रवि, व्यर्थ दिलासा दे करके;
पर हे अच्युत, जिनपति, तुम यों पल भर भी नहिं खोते हो,
शरणागत नत भक्तजनोको, त्वरित इष्ट फल देते हो. ६.
भक्तिभावसे सुमुख आपके रहनेवाले सुख पाते,
और विमुख जन दुःख पाते हैं, रागद्वेष नहिं तुम लाते;
कमल सुदुतिमय चारु आरसी, सदा एकसी रहती ज्यों,
उसमें सुमुख विमुख दोनों ही, देखें छाया ज्यों की त्यों. ७.
गहराई निधि की, ऊंचाई गिरि की, नभ - थल की चौडाई,
वहीं वहीं तक जहां जहां तक, निधि आदिक दें दिखलाई;
किन्तु नाथ, तेरी अगाधता, और तुंगता, विस्तरता,
तीन भुवनके बाहिर भी है, व्याप रही है जगत्पिता. ८.
अनवस्थाको परम तत्त्व, तुमने अपने मतमें गाया,
किन्तु बडा अचरज यह भगवान्, पुनरागमन न बतलाया;
त्यों आशा करके अदष्टकी, तुम सुद्रष्ट फलको खोते,
यों तब चरित देखें उलटेसे, किन्तु घटित सबही होते. ९.
काम जलाया तुमने स्वामी, इसीलिये बहु उसकी धूल,
शंभु रमाई निज शरीरमें, होय अधीर मोह में भूल;
विष्णु परिग्रहयुत सोते हैं; लूटे उन्हें इसीसे काम,
तुम निर्ग्रंथ जागते रहते, तुमसे क्या छीने वह वाम. १०.
और देव हों चाहे जैसे, पाप सहित अथवा निष्पाप,
उनके दोष दिखानेसे ही, गुणी कहे नहिं जाते आप;
जैसे स्वयं सरितपति की अति, महिमा बढी दिखाती है,
जलाशयोंके लघु कहनेसे, वह न कहीं बढ जाती है. ११.