विषापहार – स्तोत्रनो
पद्यानुवाद
अपने में ही स्थिर रहता है, और सर्वगत कहलाता,
सर्व - संग - त्यागी होकर भी, सब व्यापारोंका ज्ञाता;
काल – मानसे वृद्ध बहुत है, फिर भी अजर अमर स्वयमेव,
विपदाओंसे सदा बचावे, वह पुराण पुरुषोत्तम देव. १.
जिसने पर - कल्पनातीत, युग - भार अकेले ही झेला,
जिसके सुगुन – गान मुनिजन भी, कर नहिं सके एक वेला;
उसी वृषभकी विशद विरद यह, अल्पबुद्धि जन रचता है,
जाहां न जाता भानु, वहां भी दीप उजेला करता है. २.
शक्र सरीखे शक्तिवान ने, तजा गर्व गुण गाने का,
किन्तु मैं न साहस छोडूंगा, विरदावली बनानेका;
अपने अल्पज्ञान से ही मैं, बहुत विषय प्रकटाऊंगा,
इस छोटे वातायनसे ही, सारा नगर दिखाऊंगा. ३.
तुम सब - दर्शी देव, किन्तु, तुमको न देख सकता कोई,
तुम सबके ही ज्ञाता, पर तुमको न जान पाता कोई;
‘कितने हो’ ‘कैसे हो, यों कुछ कहा न जाता हे भगवान्,
इससे निज अशक्ति बतलाना, यही तुम्हारा स्तवन महान. ४.
बालक सम अपने दोषोंसे, जो जन पीडित रहते हैं,
उन सबको हे नाथ, आप, भवताप रहित नित करते हैं;
यों अपने हित और अहितका, जो न ध्यान धरनेवाले,
उन सबको तुम बाल – वैद्य हो, स्वास्थ्य – दान करनेवाले. ५.