Page 241 of 256
PDF/HTML Page 281 of 296
single page version
कहानजैनशास्त्रमाळा ]
त्वायेति । द्विविधं किल तात्पर्यम् — सूत्रतात्पर्यं शास्त्रतात्पर्यञ्चेति । तत्र सूत्रतात्पर्यं प्रतिसूत्रमेव प्रतिपादितम् । शास्त्रतात्पर्यं त्विदं प्रतिपाद्यते । अस्य खलु पारमेश्वरस्य शास्त्रस्य, सकलपुरुषार्थसारभूतमोक्षतत्त्वप्रतिपत्तिहेतोः पञ्चास्तिकायषड्द्रव्यस्वरूपप्रति- पादनेनोपदर्शितसमस्तवस्तुस्वभावस्य, नवपदार्थप्रपञ्चसूचनाविष्कृतबन्धमोक्षसम्बन्धिबन्ध- मोक्षायतनबन्धमोक्षविकल्पस्य, सम्यगावेदितनिश्चयव्यवहाररूपमोक्षमार्गस्य, साक्षान्मोक्ष- कारणभूतपरमवीतरागत्वविश्रान्तसमस्तहृदयस्य, परमार्थतो वीतरागत्वमेव तात्पर्यमिति । तदिदं वीतरागत्वं व्यवहारनिश्चयाविरोधेनैवानुगम्यमानं भवति समीहितसिद्धये,
तात्पर्य द्विविध होय छेः १सूत्रतात्पर्य अने शास्त्रतात्पर्य. तेमां, सूत्रतात्पर्य सूत्रदीठ (गाथादीठ) प्रतिपादित करवामां आव्युं छे; अने शास्त्रतात्पर्य हवे प्रतिपादित करवामां आवे छेः —
सर्व २पुरुषार्थोमां सारभूत एवा मोक्षतत्त्वनुं प्रतिपादन करवाना हेतुथी जेमां पंचास्तिकाय अने षड्द्रव्यना स्वरूपना प्रतिपादन वडे समस्त वस्तुनो स्वभाव दर्शाववामां आवेल छे, नव पदार्थना विस्तृत कथन वडे जेमां बंध-मोक्षना संबंधी (स्वामी), बंध- मोक्षनां आयतन (स्थान) अने बंध-मोक्षना विकल्प (भेद) प्रगट करवामां आव्यां छे, निश्चय-व्यवहाररूप मोक्षमार्गनुं जेमां सम्यक् निरूपण करवामां आव्युं छे तथा साक्षात् मोक्षना कारणभूत परमवीतरागपणामां जेनुं समस्त हृदय रहेलुं छे — एवा आ खरेखर ३पारमेश्वर शास्त्रनुं, परमार्थे वीतरागपणुं ज तात्पर्य छे.
ते आ वीतरागपणाने व्यवहार-निश्चयना ४अविरोध वडे ज अनुसरवामां आवे तो इष्टसिद्धि थाय छे, परंतु अन्यथा नहि (अर्थात् व्यवहार अने निश्चयनी सुसंगतता रहे एवी रीते वीतरागपणाने अनुसरवामां आवे तो ज इच्छितनी सिद्धि थाय छे, १. एकेक गाथासूत्रनुं तात्पर्य ते सूत्रतात्पर्य छे अने आखा शास्त्रनुं तात्पर्य ते शास्त्रतात्पर्य छे. २. पुरुषार्थ = पुरुष-अर्थ; पुरुष-प्रयोजन. [पुरुषार्थोना चार विभाग पाडवामां आवे छेः धर्म, अर्थ,
काम अने मोक्ष; परंतु सर्व पुरुष-अर्थोमां मोक्ष ज सारभूत (तात्त्विक) पुरुष-अर्थ छे.] ३. पारमेश्वर = परमेश्वरना; जिनभगवानना; भागवत; दैवी; पवित्र. ४. छठ्ठा गुणस्थाने मुनियोग्य शुद्धपरिणति निरंतर होवी तेम ज महाव्रतादिसंबंधी शुभभावो
यथायोग्यपणे होवा ते निश्चय-व्यवहारना अविरोधनुं (सुमेळनुं) उदाहरण छे. पांचमा गुणस्थाने ते गुणस्थानने योग्य शुद्धपरिणति निरंतर होवी तेम ज देशव्रतादिसंबंधी शुभभावो यथायोग्यपणे होवा ते पण निश्चय-व्यवहारना अविरोधनुं उदाहरण छे. पं. ३१
Page 242 of 256
PDF/HTML Page 282 of 296
single page version
२४
न पुनरन्यथा । व्यवहारनयेन भिन्नसाध्यसाधनभावमवलम्ब्यानादिभेदवासितबुद्धयः सुखेनैवावतरन्ति तीर्थं प्राथमिकाः । तथाहि — इदं श्रद्धेयमिदमश्रद्धेयमयं श्रद्धातेदं श्रद्धानमिदं ज्ञेयमिदमज्ञेयमयं ज्ञातेदं ज्ञानमिदं चरणीयमिदमचरणीयमयं चरितेदं चरणमिति कर्तव्याकर्तव्यकर्तृकर्मविभागावलोकनोल्लसितपेशलोत्साहाः शनैःशनैर्मोह- मल्लमुन्मूलयन्तः, कदाचिदज्ञानान्मदप्रमादतन्त्रतया शिथिलितात्माधिकारस्यात्मनो बीजी रीते थती नथी).
१भिन्नसाध्यसाधनभावने अवलंबीने २सुखे करीने तीर्थनी शरूआत करे छे (अर्थात् सुगमपणे मोक्षमार्गनी प्रारंभभूमिकाने सेवे छे). जेम केः ‘(१) आ श्रद्धेय (श्रद्धवायोग्य) छे, (२) आ अश्रद्धेय छे, (३) आ श्रद्धनार छे अने (४) आ श्रद्धान छे; (१) आ ज्ञेय (जाणवायोग्य) छे, (२) आ अज्ञेय छे, (३) आ ज्ञाता छे अने (४) आ ज्ञान छे; (१) आ आचरणीय (आचरवायोग्य) छे, (२) आ अनाचरणीय छे, (३) आ आचरनार छे अने (४) आ आचरण छे;’ — एम (१) कर्तव्य (करवायोग्य), (२) अकर्तव्य, (३) कर्ता अने (४) कर्मरूप विभागोना अवलोकन वडे जेमने कोमळ ( – मंद) उत्साह उल्लसित थाय छे एवा तेओ (प्राथमिक जीवो) धीमे धीमे मोहमल्लने (रागादिने) उखेडता जाय छे; कदाचित् अज्ञानने लीधे ( – स्वसंवेदनज्ञानना अभावने लीधे) मद (कषाय) अने प्रमादने वश थवाथी पोतानो आत्म-अधिकार (आत्माने विषे अधिकार) शिथिल थई जतां पोताने न्यायमार्गमां प्रवर्ताववा माटे तेओ प्रचंड दंडनीतिनो प्रयोग करे छे; फरी फरीने (पोताना आत्माने) दोषानुसार प्रायश्चित्त देता थका तेओ सतत १. मोक्षमार्गप्राप्त ज्ञानी जीवोने प्राथमिक भूमिकामां, साध्य तो परिपूर्ण शुद्धताए परिणत आत्मा
छे अने तेनुं साधन व्यवहारनये (आंशिक शुद्धिनी साथे साथे रहेल) भेदरत्नत्रयरूप परावलंबी विकल्पो कहेवामां आवे छे. आ रीते ते जीवोने व्यवहारनये साध्य अने साधन भिन्न प्रकारनां कहेवामां आव्या छे. (निश्चयनये साध्य अने साधन अभिन्न होय छे.) २. सुखे करीने = सुगमपणे; सहजपणे; कठिनता विना. [जेमणे द्रव्यार्थिकनयना विषयभूत
( – मोक्षमार्गसेवननी प्रारंभिक भूमिकामां) आंशिक शुद्धिनी साथे साथे श्रद्धानज्ञानचारित्र संबंधी
वासित परिणति चाली आवे छे तेनो तुरत ज सर्वथा नाश थवो कठिन छे.]
Page 243 of 256
PDF/HTML Page 283 of 296
single page version
कहानजैनशास्त्रमाळा ]
न्यायपथप्रवर्तनाय प्रयुक्तप्रचण्डदण्डनीतयः, पुनः पुनः दोषानुसारेण दत्तप्रायश्चित्ताः सन्ततोद्यताः सन्तोऽथ तस्यैवात्मनो भिन्नविषयश्रद्धानज्ञानचारित्रैरधिरोप्यमाणसंस्कारस्य भिन्नसाध्यसाधनभावस्य रजकशिलातलस्फाल्यमानविमलसलिलाप्लुतविहितोषपरिष्वङ्ग- मलिनवासस इव मनाङ्मनाग्विशुद्धिमधिगम्य निश्चयनयस्य भिन्नसाध्यसाधनभावाभावाद्दर्शन- ज्ञानचारित्रसमाहितत्वरूपे विश्रान्तसकलक्रियाकाण्डाडम्बरनिस्तरङ्गपरमचैतन्यशालिनि निर्भरानन्दमालिनि भगवत्यात्मनि विश्रान्तिमासूत्रयन्तः क्रमेण समुपजातसमरसीभावाः उद्यमवंत वर्ते छे; वळी, १भिन्नविषयवाळां श्रद्धान-ज्ञान-चारित्र वडे ( – आत्माथी भिन्न जेना विषयो छे एवा भेदरत्नत्रय वडे) जेनामां संस्कार आरोपाता जाय छे एवा भिन्नसाध्यसाधनभाववाळा पोताना आत्माने विषे — धोबी द्वारा शिलानी सपाटी उपर झींकवामां आवता, निर्मळ जळ वडे पलाळवामां आवता अने क्षार (साबु) लगाडवामां आवता मलिन वस्त्रनी माफक — थोडी थोडी २विशुद्धि प्राप्त करीने, ते ज पोताना आत्माने निश्चयनये भिन्नसाध्यसाधनभावना अभावने लीधे, दर्शनज्ञानचारित्रनुं समाहितपणुं (अभेदपणुं) जेनुं रूप छे, सकळ क्रियाकांडना आडंबरनी निवृत्तिने लीधे ( – अभावने लीधे) जे निस्तरंग परमचैतन्यशाळी छे तथा जे निर्भर आनंदथी समृद्ध छे एवा भगवान आत्मामां विश्रांति रचता थका (अर्थात् दर्शनज्ञानचारित्रना ऐक्यस्वरूप, निर्विकल्प परमचैतन्यशाळी तथा भरपूर-आनंदयुक्त एवा भगवान आत्मामां पोताने १. व्यवहार-श्रद्धानज्ञानचारित्रना विषयो आत्माथी भिन्न छे; कारण के व्यवहारश्रद्धाननो विषय नव
पदार्थो छे, व्यवहारज्ञाननो विषय अंग-पूर्व छे अने व्यवहारचारित्रनो विषय आचारादि- सूत्रकथित मुनि-आचारो छे. २. जेवी रीते धोबी पाषाणशिला, पाणी अने साबु वडे मलिन वस्त्रनी शुद्धि करतो जाय छे, तेवी
थोडी शुद्धि करतो जाय छे एम व्यवहारनये कहेवामां आवे छे. परमार्थ एम छे के ते
भेदरत्नत्रयवाळा ज्ञानी जीवने शुभ भावोनी साथे जे शुद्धात्मस्वरूपनुं आंशिक आलंबन वर्ततुं
होय छे ते ज उग्र थतुं थतुं विशेष शुद्धि करतुं जाय छे. माटे खरेखर तो, शुद्धात्मस्वरूपनुं
आलंबन करवुं ते ज शुद्धि प्रगटाववानुं साधन छे अने ते आलंबननी उग्रता करवी ते ज शुद्धिनी
वृद्धि करवानुं साधन छे. साथे रहेला शुभभावोने शुद्धिनी वृद्धिनुं साधन कहेवुं ते तो मात्र
उपचारकथन छे. शुद्धिनी वृद्धिना उपचरितसाधनपणानो आरोप पण ते ज जीवना शुभभावोमां
आवी शके छे के जे जीवे शुद्धिनी वृद्धिनुं खरुं साधन (--शुद्धात्मस्वरूपनुं यथोचित आलंबन) प्रगट
कर्युं होय.
Page 244 of 256
PDF/HTML Page 284 of 296
single page version
२४
परमवीतरागभावमधिगम्य, साक्षान्मोक्षमनुभवन्तीति ।
अथ ये तु केवलव्यवहारावलम्बिनस्ते खलु भिन्नसाध्यसाधनभावावलोकनेना- ऽनवरतं नितरां खिद्यमाना मुहुर्मुहुर्धर्मादिश्रद्धानरूपाध्यवसायानुस्यूतचेतसः, प्रभूतश्रुत- संस्काराधिरोपितविचित्रविकल्पजालकल्माषितचैतन्यवृत्तयः, समस्तयतिवृत्तसमुदायरूपतपः- प्रवृत्तिरूपकर्मकाण्डोड्डमराचलिताः, कदाचित्किञ्चिद्रोचमानाः, कदाचित्किञ्चिद्विकल्पयन्तः, कदाचित्किञ्चिदाचरन्तः; दर्शनाचरणाय कदाचित्प्रशाम्यन्तः, कदाचित्संविजमानाः, कदाचिदनुकम्पमानाः, कदाचिदास्तिक्यमुद्वहन्तः, शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सामूढदृष्टितानां व्युत्थापननिरोधाय नित्यबद्धपरिकराः, उपबृंहणस्थितिकरणवात्सल्यप्रभावनां भावयमाना स्थिर करता थका), क्रमे समरसीभाव समुत्पन्न थतो जतो होवाथी परम वीतरागभावने प्राप्त करी साक्षात् मोक्षने अनुभवे छे.
[हवे केवळव्यवहारावलंबी (अज्ञानी) जीवोनुं प्रवर्तन अने तेनुं फळ कहेवामां आवे छेः — ]
परंतु जेओ केवळव्यवहारावलंबी (केवळ व्यवहारने अवलंबनारा) छे तेओ खरेखर *भिन्नसाध्यसाधनभावना अवलोकन वडे निरंतर अत्यंत खेद पामता थका, (१) फरीफरीने धर्मादिना श्रद्धानरूप अध्यवसानमां तेमनुं चित्त लाग्या करतुं होवाथी, (२) पुष्कळ श्रुतना (द्रव्यश्रुतना) संस्कारथी ऊठता विचित्र (अनेक प्रकारना) विकल्पोनी जाळ वडे तेमनी चैतन्यवृत्ति चित्रविचित्र थती होवाथी अने (३) समस्त यति-आचारना समुदायरूप तपमां प्रवर्तनरूप कर्मकांडनी धमालमां तेओ अचलित रहेता होवाथी, (१) क्यारेक कांईकनी (कोईक बाबतनी) रुचि करे छे, (२) क्यारेक कांईकना (कोईक बाबतना) विकल्प करे छे अने (३) क्यारेक कांईक आचरण करे छे; दर्शनाचरण माटे — तेओ कदाचित् प्रशमित थाय छे, कदाचित् संवेग पामे छे, कदाचित् अनुकंपित थाय छे, कदाचित् आस्तिक्यने धारे छे, शंका, कांक्षा, विचिकित्सा अने मूढद्रष्टिताना उत्थानने अटकाववा अर्थे नित्य कटिबद्ध रहे छे, उपबृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य अने *खरेखर साध्य अने साधन अभिन्न होय छे. ज्यां साध्य अने साधन भिन्न कहेवामां आवे त्यां ‘आ सत्यार्थ निरूपण नथी पण व्यवहारनय द्वारा उपचरित निरूपण कर्युं छे’ एम समजवुं जोईए. केवळव्यवहारावलंबी जीवो आ वातने ऊंडाणथी नहि श्रद्धता थका अर्थात् ‘खरेखर
अत्यंत खेद पामे छे. [विशेष माटे २२१ मा पानानी बीजी तथा पांचमी फूटनोट जुओ.]
Page 245 of 256
PDF/HTML Page 285 of 296
single page version
कहानजैनशास्त्रमाळा ]
वारंवारमभिवर्धितोत्साहा; ज्ञानाचरणाय स्वाध्यायकालमवलोकयन्तो, बहुधा विनयं प्रपञ्चयन्तः, प्रविहितदुर्धरोपधानाः, सुष्ठु बहुमानमातन्वन्तो, निह्नवापत्तिं नितरां निवारयन्तोऽर्थव्यञ्जनतदुभयशुद्धौ नितान्तसावधानाः; चारित्राचरणाय हिंसानृतस्तेया- ब्रह्मपरिग्रहसमस्तविरतिरूपेषु पञ्चमहाव्रतेषु तन्निष्ठवृत्तयः, सम्यग्योगनिग्रहलक्षणासु गुप्तिषु नितान्तं गृहीतोद्योगा, ईर्याभाषैषणादाननिक्षेपोत्सर्गरूपासु समितिष्वत्यन्त- निवेशितप्रयत्नाः; तपआचरणायानशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्त- शय्यासनकायक्लेशेष्वभीक्ष्णमुत्सहमानाः, प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यव्युत्सर्गस्वाध्यायध्यान- परिकराङ्कुशितस्वान्ता; वीर्याचरणाय कर्मकाण्डे सर्वशक्त्या व्याप्रियमाणाः; कर्म- चेतनाप्रधानत्वाद्दूरनिवारिताऽशुभकर्मप्रवृत्तयोऽपि समुपात्तशुभकर्मप्रवृत्तयः, सकल- क्रियाकाण्डाडम्बरोत्तीर्णदर्शनज्ञानचारित्रैक्यपरिणतिरूपां ज्ञानचेतनां मनागप्यसम्भावयन्तः, प्रभावनाने भावता थका वारंवार उत्साहने वधारे छे; ज्ञानाचरण माटे — स्वाध्यायकाळने अवलोके छे, बहु प्रकारे विनयने विस्तारे छे, दुर्धर उपधान करे छे, सारी रीते बहुमानने प्रसारे छे, निह्नवदोषने अत्यंत निवारे छे, अर्थ, व्यंजन अने १तदुभयनी शुद्धिमां अत्यंत सावधान रहे छे; चारित्राचरण माटे — हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म अने परिग्रहनी सर्वविरतिरूप पंचमहाव्रतोमां तल्लीन वृत्तिवाळा रहे छे, सम्यक् योगनिग्रह जेनुं लक्षण छे ( – योगनो बराबर निरोध करवो ते जेनुं लक्षण छे) एवी गुप्तिओमां अत्यंत उद्योग राखे छे, ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप अने उत्सर्गरूप समितिओमां प्रयत्नने अत्यंत जोडे छे; तपाचरण माटे — अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन अने कायक्लेशमां सतत उत्साहित रहे छे, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, व्युत्सर्ग, स्वाध्याय अने ध्यानरूप २परिकर वडे निज अंतःकरणने अंकुशित राखे छे; वीर्याचरण माटे — कर्मकांडमां सर्व शक्ति वडे ३व्यापृत रहे छे; आम करता थका, कर्मचेतनाप्रधानपणाने लीधे — जोके अशुभकर्मप्रवृत्तिने तेमणे अत्यंत निवारी छे तोपण — शुभकर्मप्रवृत्तिने जेमणे बराबर ग्रहण करी छे एवा तेओ, सकळ क्रियाकांडना आडंबरथी पार ऊतरेली दर्शनज्ञानचारित्रनी ऐक्यपरिणतिरूप ज्ञानचेतनाने जरा पण नहि उत्पन्न करता थका, पुष्कळ पुण्यना १. तदुभय = ते बंने (अर्थात् अर्थ तेम ज व्यंजन बंने) २. परिकर = समूह; सामग्री. ३. व्यापृत = रोकायेल; गूंथायेल; मशगूल; मग्न.
Page 246 of 256
PDF/HTML Page 286 of 296
single page version
२४
प्रभूतपुण्यभारमन्थरितचित्तवृत्तयः, सुरलोकादिक्लेशप्राप्तिपरम्परया सुचिरं संसारसागरे भ्रमन्तीति । उक्तञ्च — ‘‘चरणकरणप्पहाणा ससमयपरमत्थमुक्कवावारा । चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं ण जाणंति
येऽत्र केवलनिश्चयावलम्बिनः सकलक्रियाकर्मकाण्डाडम्बरविरक्तबुद्धयोऽर्धमीलित- भारथी १मंथर थई गयेली चितवृत्तिवाळा वर्तता थका, देवलोकादिना क्लेशनी प्राप्तिनी परंपरा वडे घणा लांबा काळ सुधी संसारसागरमां भमे छे. कह्युं पण छे के — २चरण- करणप्पहाणा ससमयपरमत्थमुक्कवावारा । चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं ण जाणंति ।। [अर्थात् जेओ चरणपरिणामप्रधान छे अने स्वसमयरूप परमार्थमां व्यापाररहित छे, तेओ चरणपरिणामनो सार जे निश्चयशुद्ध (आत्मा) तेने जाणता नथी.]३
[हवे केवळनिश्चयावलंबी (अज्ञानी) जीवोनुं प्रवर्तन अने तेनुं फळ कहेवामां आवे छेः — ]
हवे, जेओ केवळनिश्चयावलंबी छे, सकळ क्रियाकर्मकांडना आडंबरमां विरक्त बुद्धिवाळा वर्तता थका, आंखो अर्धी-विंचेली राखी कांइक पण स्वबुद्धिथी अवलोकीने १. मंथर = मंद; जड; सुस्त. २. आ गाथानी संस्कृत छाया आ प्रमाणे छेः
चरणकरणस्य सारं निश्चयशुद्धं न जानन्ति ।। ३. श्री जयसेनाचार्यदेवकृत तात्पर्यवृत्ति-टीकामां व्यवहार-एकांतनुं नीचे प्रमाणे स्पष्टीकरण करवामां
तेना वडे देवलोकादिना क्लेशनी परंपरा पामता थका संसारमां परिभ्रमण करे छे; परंतु
जो शुद्धात्मानुभूतिलक्षण निश्चयमोक्षमार्गने माने अने निश्चयमोक्षमार्गनुं अनुष्ठान करवानी
शक्तिना अभावने लीधे निश्चयसाधक शुभानुष्ठान करे, तो तेओ सराग सम्यग्द्रष्टि छे
अने परंपराए मोक्षने पामे छे. — आम व्यवहार-एकांतना निराकरणनी मुख्यताथी बे वाक्य
छे एम समजवुं. वळी तेमने जे शुभ अनुष्ठान छे ते मात्र उपचारथी ज ‘निश्चयसाधक
( – निश्चयना साधनभूत)’ कहेवामां आव्युं छे एम समजवुं.]
Page 247 of 256
PDF/HTML Page 287 of 296
single page version
कहानजैनशास्त्रमाळा ]
विलोचनपुटाः किमपि स्वबुद्धयावलोक्य यथासुखमासते, ते खल्ववधीरितभिन्न- साध्यसाधनभावा अभिन्नसाध्यसाधनभावमलभमाना अन्तराल एव प्रमादकादम्बरीमद- भरालसचेतसो मत्ता इव, मूर्च्छिता इव, सुषुप्ता इव, प्रभूतघृतसितोपलपायसासादित- सौहित्या इव, समुल्बणबलसञ्जनितजाडया इव, दारुणमनोभ्रंशविहितमोहा इव, मुद्रितविशिष्टचैतन्या वनस्पतय इव, मौनीन्द्रीं कर्मचेतनां पुण्यबन्धभयेनानवलम्बमाना अनासादितपरमनैष्कर्म्यरूपज्ञानचेतनाविश्रान्तयो व्यक्ताव्यक्तप्रमादतन्त्रा अरमागतकर्मफल- १यथासुख रहे छे (अर्थात् स्वमतिकल्पनाथी कांईक भास कल्पी लईने मरजी मुजब — जेम सुख ऊपजे तेम — रहे छे), तेओ खरेखर २भिन्नसाध्यसाधनभावने तिरस्कारता थका, अभिन्नसाध्यसाधनभावने नहि उपलब्ध करता थका, अंतराळमां ज ( – शुभ तेम ज शुद्ध सिवायनी बाकी रहेली त्रीजी अशुभ दशामां ज), प्रमादमदिराना मदथी भरेला आळसु चित्तवाळा वर्तता थका, मत्त (उन्मत्त) जेवा, मूर्छित जेवा, सुषुप्त जेवा, पुष्कळ घी-साकर-खीर खाईने तृप्ति पामेला ( – धरायेला) होय एवा, जाडा शरीरने लीधे जडता ( – मंदता, निष्क्रियता) ऊपजी होय एवा, दारुण बुद्धिभ्रंशथी मूढता थइ गई होय एवा, जेनुं विशिष्टचैतन्य बिडाई गयुं होय छे एवी वनस्पति जेवा, मुनींद्रनी कर्मचेतनाने ३पुण्यबंधना भयथी नहि अवलंबता थका अने परम १. यथासुख = मरजी मुजब; जेम सुख ऊपजे तेम; यथेच्छपणे. [जेमने द्रव्यार्थिकनयना (निश्चय-
प्रयत्न नथी, आम होवा छतां जेओ निज कल्पनाथी पोताने विषे कांईक भास थतो कल्पी
लइने निश्चिंतपणे स्वच्छंदपूर्वक वर्ते छे, ‘ज्ञानी मोक्षमार्गी जीवोने प्राथमिक दशामां आंशिक
शुद्धिनी साथे साथे भूमिकानुसार शुभ भावो पण होय छे’ — ए वातने श्रद्धता नथी, तेमने
अहीं केवळनिश्चयावलंबी कह्या छे.] २. मोक्षमार्गी ज्ञानी जीवोने सविकल्प प्राथमिक दशामां (छठ्ठा गुणस्थान सुधी) व्यवहारनयनी
दशाने तेओ श्रद्धता नथी अने पोते अशुभ भावोमां वर्तता होवा छतां पोताने विषे ऊंची शुद्ध दशा कल्पी लई स्वच्छंदी रहे छे. ३. केवळनिश्चयावलंबी जीवो पुण्यबंधना भयथी डरीने मंदकषायरूप शुभभावो करता नथी अने
Page 248 of 256
PDF/HTML Page 288 of 296
single page version
२४
चेतनाप्रधानप्रवृत्तयो वनस्पतय इव केवलं पापमेव बध्नन्ति । उक्त ञ्च — ‘‘ णिच्छयमालंबंता णिच्छयदो णिच्छयं अयाणंता । णासंति चरणकरणं बाहरि-चरणालसा केई ।। ’’ नैष्कर्म्यरूप ज्ञानचेतनामां विश्रांति नहि पाम्या थका, (मात्र) व्यक्त-अव्यक्त प्रमादने आधीन वर्तता थका, प्राप्त थयेला हलका (निकृष्ट) कर्मफळनी चेतनाना प्रधानपणावाळी प्रवृत्ति जेने वर्ते छे एवी वनस्पतिनी माफक, केवळ पापने ज बांधे छे. कह्युं पण छे के — १णिच्छयमालंबंता णिच्छयदो णिच्छयं अयाणंता । णासंति चरणकरणं बाहरिचरणालसा केई ।। [अर्थात् निश्चयने अवलंबनारा परंतु निश्चयथी (खरेखर) निश्चयने नहि जाणनारा केटलाक जीवो बाह्य चरणमां आळसु वर्तता थका चरणपरिणामनो नाश करे छे.]२ १. आ गाथानी संस्कृत छाया आ प्रमाणे छेः निश्चयमालम्बन्तो निश्चयतो निश्चयमजानन्तः । नाशयन्ति
चरणकरणं बाह्यचरणालसाः के ऽपि ।। २. श्री जयसेनाचार्यदेवरचित टीकामां (व्यवहार-एकांतनुं स्पष्टीकरण कर्या पछी तुरत ज) निश्चय-
पापने ज बांधे छे (अर्थात् केवळ निश्चय-अनुष्ठानरूप शुद्ध अवस्थाथी जुदी एवी जे निश्चय-
छे); परंतु जो शुद्धात्मानुष्ठानरूप मोक्षमार्गने अने तेना साधकभूत (व्यवहारसाधनरूप)
अनुष्ठान रहित होय तथापि — जोके तेओ शुद्धात्मभावनासापेक्ष शुभ-अनुष्ठानरत पुरुषो जेवा
रागादि हयात होवाथी सराग सम्यक्त्ववाळा कहीने ‘व्यवहारसम्यग्द्रष्टि’ कह्या छे. श्री
जयसेनाचार्यदेवे पोते ज १५० – १५१मी गाथानी टीकामां कह्युं छे के — ज्यारे आ जीव
ज्ञानने प्राप्त करे छे त्यारे प्रथम तो ते मिथ्यात्वादि सात प्रकृतिओना उपशम अने क्षयोपशम
वडे सराग-सम्यग्द्रष्टि थाय छे.]
Page 249 of 256
PDF/HTML Page 289 of 296
single page version
कहानजैनशास्त्रमाळा ]
ये तु पुनरपुनर्भवाय नित्यविहितोद्योगमहाभागा भगवन्तो निश्चयव्यवहारयो- रन्यतरानवलम्बनेनात्यन्तमध्यस्थीभूताः शुद्धचैतन्यरूपात्मतत्त्वविश्रान्तिविरचनोन्मुखाः प्रमादोदयानुवृत्तिनिवर्तिकां क्रियाकाण्डपरिणतिं माहात्म्यान्निवारयन्तोऽत्यन्त- मुदासीना यथाशक्त्याऽऽत्मानमात्मनाऽऽत्मनि सञ्चेतयमाना नित्योपयुक्ता निवसन्ति, ते खलु स्वतत्त्वविश्रान्त्यनुसारेण क्रमेण कर्माणि सन्न्यसन्तोऽत्यन्तनिष्प्रमादा
[हवे निश्चय-व्यवहार बन्नेनो १सुमेळ रहे एवी रीते भूमिकानुसार प्रवर्तनारा ज्ञानी जीवोनुं प्रवर्तन अने तेनुं फळ कहेवामां आवे छेः — ]
परंतु जे, अपुनर्भवने (मोक्षने) माटे नित्य उद्योग करनारा २महाभाग भगवंतो, निश्चय-व्यवहारमांथी कोई ३एकने ज नहि अवलंबता होवाथी ( — केवळनिश्चयावलंबी के केवळव्यवहारावलंबी नहि होवाथी) अत्यंत मध्यस्थ वर्तता, शुद्धचैतन्यरूप आत्मतत्त्वमां विश्रांतिना ४विरचन प्रत्ये अभिमुख वर्तता, प्रमादना उदयने अनुसरती वृत्तिने निवर्तावनारी (टाळनारी) क्रियाकांडपरिणतिने माहात्म्यमांथी वारता ( – शुभ क्रियाकांडपरिणति हठ विना सहजपणे भूमिकानुसार वर्तती होवा छतां अंतरंगमां तेने माहात्म्य नहि अर्पता), अत्यंत उदासीन वर्तता, यथाशक्ति आत्माने आत्माथी आत्मामां संचेतता (अनुभवता) थका नित्य-उपयुक्त रहे छे, तेओ ( – ते महाभाग भगवंतो), खरेखर स्वतत्त्वमां विश्रांति अनुसार क्रमे कर्मनो संन्यास करता ( – स्वतत्त्वमां स्थिरता थती जाय तेना प्रमाणमां शुभ भावोने छोडता), अत्यंत निष्प्रमाद वर्तता, अत्यंत निष्कंपमूर्ति होवाथी जेमने वनस्पतिनी उपमा आपवामां १. निश्चय – व्यवहारना सुमेळनी स्पष्टता माटे २४१मा पानानी बीजी फूटनोट जुओ. २. महाभाग = महा पवित्र; महा गुणियल; महा भाग्यशाळी. ३. मोक्षने माटे नित्य उद्यम करनारा महापवित्र भगवंतोने ( – मोक्षमार्गी ज्ञानी जीवोने) निरंतर
शुद्धद्रव्यार्थिकनयना विषयभूत शुद्धात्मस्वरूपनुं सम्यक् अवलंबन वर्ततुं होवाथी ते जीवोने ते अवलंबननी तरतमता प्रमाणे सविकल्प दशामां भूमिकानुसार शुद्धपरिणति तेम ज शुभपरिणतिनो यथोचित सुमेळ (हठ विना) होय छे तेथी ते जीवो आ शास्त्रमां (२४६मा पाने) जेमने केवळनिश्चयावलंबी कह्या छे एवा केवळनिश्चयावलंबी नथी तेम ज (२४५मा पाने) जेमने केवळव्यवहारावलंबी कह्या छे एवा केवळव्यवहारावलंबी नथी. ४.विरचन = विशेषपणे रचवुं ते; रचना; रचवुं ते. पं. ३२
Page 250 of 256
PDF/HTML Page 290 of 296
single page version
२५०
नितान्तनिष्कम्पमूर्तयो वनस्पतिभिरुपमीयमाना अपि दूरनिरस्तकर्मफलानुभूतयः कर्मानुभूति- निरुत्सुकाः केवलज्ञानानुभूतिसमुपजाततात्त्विकानन्दनिर्भरतरास्तरसा संसारसमुद्रमुत्तीर्य शब्दब्रह्मफलस्य शाश्वतस्य भोक्तारो भवन्तीति ।।१७२।।
आवती होवा छतां जेमणे कर्मफळानुभूति अत्यंत निरस्त (नष्ट) करी छे एवा, कर्मानुभूति प्रत्ये निरुत्सुक वर्तता, केवळ (मात्र) ज्ञानानुभूतिथी उत्पन्न थयेल तात्त्विक आनंदथी अत्यंत भरपूर वर्तता, शीघ्र संसारसमुद्रने पार ऊतरी, शब्दब्रह्मना शाश्वत फळना ( – निर्वाणसुखना) भोक्ता थाय छे. १७२.
अन्वयार्थः — [ प्रवचनभक्तिप्रचोदितेन मया ] प्रवचननी भक्तिथी प्रेरित एवां में [ मार्गप्रभावनार्थं ] मार्गनी प्रभावना अर्थे [ प्रवचनसारं ] प्रवचनना सारभूत [ पञ्चास्तिकसङ्ग्रहं सूत्रम् ] ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ सूत्र [ भणितम् ] कह्युं.
टीकाः — आ, कर्तानी प्रतिज्ञानी पूर्णता सूचवनारी समाप्ति छे (अर्थात् अहीं शास्त्रकर्ता श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेव पोतानी प्रतिज्ञानी पूर्णता सूचवतां शास्त्रसमाप्ति करे छे).
मार्ग एटले परम वैराग्य करवा प्रत्ये ढळती पारमेश्वरी परम आज्ञा (अर्थात् परम वैराग्य करवानी परमेश्वरनी परम आज्ञा); तेनी प्रभावना एटले प्रख्यापन
Page 251 of 256
PDF/HTML Page 291 of 296
single page version
कहानजैनशास्त्रमाळा ]
प्रख्यापनद्वारेण प्रकृष्टपरिणतिद्वारेण वा समुद्योतनम्; तदर्थमेव परमागमानुराग- वेगप्रचलितमनसा संक्षेपतः समस्तवस्तुतत्त्वसूचकत्वादतिविस्तृतस्यापि प्रवचनस्य सारभूतं पञ्चास्तिकायसंग्रहाभिधानं भगवत्सर्वज्ञोपज्ञत्वात् सूत्रमिदमभिहितं मयेति । अथैवं शास्त्रकारः प्रारब्धस्यान्तमुपगम्यात्यन्तं कृतकृत्यो भूत्वा परमनैष्कर्म्यरूपे शुद्धस्वरूपे विश्रान्त इति श्रद्धीयते ।।१७३।।
इति समयव्याख्यायां नवपदार्थपुरस्सरमोक्षमार्गप्रपञ्चवर्णनो द्वितीयः श्रुतस्कन्धः समाप्तः ।। द्वारा अथवा प्रकृष्ट परिणति द्वारा तेनो समुद्योत करवो ते; [परम वैराग्य करवानी जिनभगवाननी परम आज्ञानी प्रभावना एटले (१) तेनी प्रख्याति — जाहेरात — करवा द्वारा अथवा (२) परमवैराग्यमय प्रकृष्ट परिणमन द्वारा, तेनो सम्यक् प्रकारे उद्योत करवो ते;] तेना अर्थे ज ( – मार्गनी प्रभावना अर्थे ज), परमागम प्रत्येना अनुरागना वेगथी जेनुं मन अति चलित थतुं हतुं एवा में आ ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ नामनुं सूत्र कह्युं — के जे भगवान सर्वज्ञ वडे उपज्ञ होवाथी ( – वीतराग सर्वज्ञ जिनभगवाने स्वयं जाणीने प्रणीत करेलुं होवाथी) ‘सूत्र’ छे, अने जे संक्षेपथी समस्तवस्तुतत्त्वनुं (सर्व वस्तुना यथार्थ स्वरूपनुं) प्रतिपादन करनारुं होवाथी, अति विस्तृत एवा पण प्रवचनना सारभूत छे ( – द्वादशांगरूपे विस्तीर्ण एवा पण जिनप्रवचनना सारभूत छे).
आ रीते शास्त्रकार (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेव) प्रारंभेला कार्यना अंतने पामी, अत्यंत कृतकृत्य थई, परमनैष्कर्म्यरूप शुद्धस्वरूपमां विश्रांत थया ( — परम निष्कर्मपणारूप शुद्धस्वरूपमां स्थिर थया) एम श्रद्धवामां आवे छे (अर्थात् एम अमे श्रद्धीए छीए). १७३.
आ रीते (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री पंचास्तिकायसंग्रहशास्त्रनी श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित) समयव्याख्या नामनी टीकामां नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्ग- प्रपंचवर्णन नामनो द्वितीय श्रुतस्कंध समाप्त थयो.
[ हवे, ‘आ टीका शब्दोए करी छे, अमृतचंद्रसूरिए नहि’ एवा अर्थनो एक छेल्लो श्लोक कहीने अमृतचंद्राचार्यदेव टीकानी पूर्णाहुति करे छेः ]
Page 252 of 256
PDF/HTML Page 292 of 296
single page version
२५२पंचास्तिकायसंग्रह
र्व्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः ।
कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः ।।८।।
[श्लोकार्थः — ] पोतानी शक्तिथी जेमणे वस्तुनुं तत्त्व ( – यथार्थ स्वरूप) सारी रीते कह्युं छे एवा शब्दोए आ समयनी व्याख्या ( – अर्थसमयनुं व्याख्यान अथवा पंचास्तिकायसंग्रहशास्त्रनी टीका) करी छे; स्वरूपगुप्त ( – अमूर्तिक ज्ञानमात्र स्वरूपमां गुप्त) अमृतचंद्रसूरिनुं (तेमां) कांई ज कर्तव्य नथी. [ ८ ]
आम (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत) श्री पंचास्तिकायसंग्रह नामना समयनी अर्थात् शास्त्रनी (श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित समयव्याख्या नामनी) टीकानो श्री हिंमतलाल जेठालाल शाह कृत गुजराती अनुवाद समाप्त थयो.
Page 253 of 256
PDF/HTML Page 293 of 296
single page version
Page 254 of 256
PDF/HTML Page 294 of 296
single page version
२५४पंचास्तिकायसंग्रह
कम्ममलविप्पमुक्को२८५४
कम्मस्साभावेण य१५१२०८
कम्मं कम्मं कुव्वदि६३१०२
कम्मं पि सगं कु व्वदि६२९९
कम्मं वेदयमाणो जीवो५७९४
कम्माणं फलमेक्को३८६८
कम्मेण विणा उदयं५८९५
कालो त्ति य ववदेसो१०११४७
कालो परिणामभवो१००१४६
कुव्वं सगं सहावं६१९९
केचित्तु अणावण्णा३२५९
कोधो व जदा माणो१३८१९१
खंधं सयलसमत्थं७५११४
खंधा य खंधदेसा७४११३
खीणे पुव्वणिबद्धे११९१६९
गदिमधिगदस्स देहो१२९१८०
चरियं चरदि सगं१५९२२०
चरिया पमादबहुला१३९१९२
छक्कापक्कमजुत्तो७२१११
जदि हवदि गमणहेदू९४१३९
जदि हवदि दव्वमण्णं४४७८
Page 255 of 256
PDF/HTML Page 295 of 296
single page version
जेसिं जीवसहावो३५६४
जो खलु संसारत्थो१२८१७९
जोगणिमित्तं गहणं१४८२०५
जो चरदि णादि पेच्छदि१६२२२७
जो परदव्वम्हि सुहं१५६२१६
जो सव्वसंगमुक्को१५८२१८
जो संवरेण जुत्तो१४५१९९
जो संवरेण जुत्तो१५३२१२
ण कुदोचि वि उप्पण्णो३६६५
णत्थि चिरं वा खिप्पं२६४९
ण य गच्छदि धम्मत्थी८८१३२
ण वियप्पदि णाणादो४३७७
ण हि इंदियाणि जीवा१२११७१
ण हि सो समवायादो४९८५
णाणं धणं च कुव्वदि४७८२
णाणावरणादीया भावा२०३९
णाणी णाणं च सदा४८८३
णिच्चो णाणवगासो८०१२२
णिच्छयणएण भणिदो१६१२२४
णेरइयतिरियमणुया५५९२
तम्हा कम्मं कत्ता६८१०८
तम्हा धम्माधम्मा९५१४०
तम्हा णिव्वुदिकामो१६९२३६
तम्हा णिव्वुदिकामो१७२२३९
ति त्थावरतणुजोगा११११६२
Page 256 of 256
PDF/HTML Page 296 of 296
single page version
२५६पंचास्तिकायसंग्रह
भावो कम्मणिमित्तो६०९८
भावो जदि कम्मकदो५९९७
मग्गप्पभावणट्ठं१७३२५०
मणुसत्तणेण णट्ठो१७३५
मुणिऊण एतदट्ठं१०४१५१
मुत्तो फासदि मुत्तं१३४१८६
मोहो रागो दोसो१३११८३
रागो जस्स पसत्थो१३५१८८
वण्णरसगंधफासा५१८७
ववगदपणवण्णरसो२४४६
ववदेसा संठाणा४६८०
विज्जदि जेसिं गमणं८९१३४
सण्णाओ य तिलेस्सा१४०१९३
सत्ता सव्वपयत्था८१८
सद्दो खंधप्पभवो७९१२०
सपयत्थं तित्थयरं१७०२३७
सब्भावसभावाणं२३४५