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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
चरति, स खलु स्वकं चरितं चरति । एवं हि शुद्धद्रव्याश्रितमभिन्नसाध्यसाधनभावं निश्चय- नयमाश्रित्य मोक्षमार्गप्ररूपणम् । यत्तु पूर्वमुद्दिष्टं तत्स्वपरप्रत्ययपर्यायाश्रितं भिन्नसाध्य- साधनभावं व्यवहारनयमाश्रित्य प्ररूपितम् । न चैतद्विप्रतिषिद्धं निश्चयव्यवहारयोः साध्यसाधन- भावत्वात्सुवर्णसुवर्णपाषाणवत् । अत एवोभयनयायत्ता पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तनेति ।।१५९।। नयना आश्रये मोक्षमार्गनुं प्ररूपण करवामां आव्युं. अने जे पूर्वे (१०७ मी गाथामां) दर्शाववामां आव्युं हतुं ते १स्वपरहेतुक पर्यायने आश्रित, २भिन्नसाध्यसाधनभाववाळा व्यवहारनयना आश्रये ( – व्यवहारनयनी अपेक्षाए) प्ररूपवामां आव्युं हतुं. आमां परस्पर विरोध आवे छे एम पण नथी, कारण के सुवर्ण अने ३सुवर्णपाषाणनी माफक निश्चय-व्यवहारने साध्य-साधनपणुं छे; तेथी ज पारमेश्वरी ( – जिनभगवाननी) ४तीर्थ- प्रवर्तना ५बंने नयोने आधीन छे. १५९.
१. जे पर्यायोमां स्व तेम ज पर कारण होय छे अर्थात् उपादानकारण तेम ज निमित्तकारण होय
२. जे नयमां साध्य तथा साधन भिन्न होय ( – जुदां प्ररूपवामां आवे) ते अहीं व्यवहारनय छे;
३. जे पाषाणमां सुवर्ण होय तेने सुवर्णपाषाण कहेवामां आवे छे. जेम व्यवहारनयथी सुवर्णपाषाण
सुवर्णनुं साधन छे, तेम व्यवहारनयथी व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्गनुं साधन छे; एटले के व्यवहारनयथी भावलिंगी मुनिने सविकल्प दशामां वर्ततां तत्त्वार्थश्रद्धान, तत्त्वार्थज्ञान अने महाव्रतादिरूप चारित्र निर्विकल्प दशामां वर्ततां शुद्धात्मश्रद्धानज्ञानानुष्ठाननां साधन छे. ४. तीर्थ = मार्ग (अर्थात् मोक्षमार्ग); उपाय (अर्थात् मोक्षनो उपाय); उपदेश; शासन. ५. जिनभगवानना उपदेशमां बे नयो द्वारा निरूपण होय छे. त्यां, निश्चयनय द्वारा तो सत्यार्थ निरूपण
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अन्वयार्थः — [ धर्मादिश्रद्धानं सम्यक्त्वम् ] धर्मास्तिकायादिनुं श्रद्धान ते सम्यक्त्व, [ अङ्गपूर्वगतम् ज्ञानम् ] अंगपूर्वसंबंधी ज्ञान ते ज्ञान अने [ तपसि चेष्टा चर्या ] तपमां चेष्टा ( – प्रवृत्ति) ते चारित्र; — [ इति ] ए प्रमाणे [ व्यवहारः मोक्षमार्गः ] व्यवहारमोक्षमार्ग छे.
उत्तरः — जेने सिंहनुं यथार्थ स्वरूप सीधुं समजातुं न होय तेने सिंहना स्वरूपना उपचरित निरूपण द्वारा अर्थात् बिलाडीना स्वरूपना निरूपण द्वारा सिंहना यथार्थ स्वरूपना ख्याल तरफ दोरी जवामां आवे छे, तेम जेने वस्तुनुं यथार्थ स्वरूप सीधुं समजातुं न होय तेने वस्तुस्वरूपना उपचरित निरूपण द्वारा वस्तुस्वरूपना यथार्थ ख्याल तरफ दोरी जवामां आवे छे. वळी लांबा कथनने बदले संक्षिप्त कथन करवा माटे पण व्यवहारनय द्वारा उपचरित निरूपण करवामां आवे छे. अहीं एटलुं लक्षमां राखवायोग्य छे के — जे पुरुष बिलाडीना निरूपणने ज सिंहनुं निरूपण मानी बिलाडीने ज सिंह समजी बेसे ते तो उपदेशने ज योग्य नथी, तेम जे पुरुष उपचरित निरूपणने ज सत्यार्थ निरूपण मानी वस्तुस्वरूपने खोटी रीते समजी बेसे ते तो उपदेशने ज योग्य नथी.
गुणस्थानयोग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिनुं साधन छे’. हवे, ‘छठ्ठा गुणस्थाने केवी अथवा केटली शुद्धि होय छे’ — ए वातनो पण साथे साथे ख्याल कराववो होय तो, विस्तारथी एम निरूपण कराय के ‘जे शुद्धिना सद्भावमां, तेनी साथे साथे महाव्रतादिना शुभ विकल्पो हठ विना सहजपणे वर्तता होय छे ते छठ्ठा गुणस्थानयोग्य शुद्धि सातमा गुणस्थानयोग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिनुं साधन छे’. आवा लांबा कथनने बदले, एम कहेवामां आवे के ‘छठ्ठा गुणस्थाने वर्तता महाव्रतादिना शुभ विकल्पो सातमा गुणस्थानयोग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिनुं साधन छे’, तो ए उपचरित निरूपण छे. आवा उपचरित निरूपणमांथी एम अर्थ तारववो जोईए के ‘महाव्रतादिना शुभ विकल्पो नहि पण तेमना द्वारा सूचववा धारेली छठ्ठा गुणस्थानयोग्य शुद्धि खरेखर सातमा गुणस्थानयोग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिनुं साधन छे’.
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
तत्त्वार्थश्रद्धानभावस्वभावं भावान्तरं श्रद्धानाख्यं सम्यक्त्वं, तत्त्वार्थश्रद्धाननिर्वृत्तौ सत्यामङ्ग- पूर्वगतार्थपरिच्छित्तिर्ज्ञानम्, आचारादिसूत्रप्रपञ्चितविचित्रयतिवृत्तसमस्तसमुदयरूपे तपसि चेष्टा चर्या — इत्येषः स्वपरप्रत्ययपर्यायाश्रितं भिन्नसाध्यसाधनभावं व्यवहारनयमाश्रित्यानुगम्यमानो मोक्षमार्गः कार्तस्वरपाषाणार्पितदीप्तजातवेदोवत्समाहितान्तरङ्गस्य प्रतिपदमुपरितनशुद्धभूमिकासु परमरम्यासु विश्रान्तिमभिन्नां निष्पादयन्, जात्यकार्तस्वरस्येव शुद्धजीवस्य कथञ्चिद्भिन्न- साध्यसाधनभावाभावात्स्वयं शुद्धस्वभावेन विपरिणममानस्यापि, निश्चयमोक्षमार्गस्य साधन- भावमापद्यत इति ।।१६०।।
टीकाः — निश्चयमोक्षमार्गना साधन तरीके, पूर्वोद्दिष्ट (१०७मी गाथामां उल्लेखवामां आवेला) व्यवहारमोक्षमार्गनो आ निर्देश छे.
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ते मोक्षमार्ग छे. त्यां, (छ) द्रव्यरूप अने (नव) पदार्थरूप जेमना भेदो छे एवां धर्मादिना तत्त्वार्थश्रद्धानरूप भाव ( – धर्मास्तिकायादिनी तत्त्वार्थप्रतीतिरूप भाव) जेनो स्वभाव छे एवो, ‘श्रद्धान’ नामनो भावविशेष ते सम्यक्त्व; तत्त्वार्थश्रद्धानना सद्भावमां अंगपूर्वगत पदार्थोनुं अवबोधन ( – जाणवुं) ते ज्ञान; आचारादि सूत्रो वडे कहेवामां आवेला अनेकविध मुनि-आचारोना समस्त समुदायरूप तपमां चेष्टा ( – प्रवर्तन) ते चारित्र; — आवो आ, स्वपरहेतुक पर्यायने आश्रित, भिन्न- साध्यसाधनभाववाळा व्यवहारनयना आश्रये ( – व्यवहारनयनी अपेक्षाए) अनुसरवामां आवतो मोक्षमार्ग, सुवर्णपाषाणने लगाडवामां आवता प्रदीप्त अग्निनी माफक, *समाहित अंतरंगवाळा जीवने (अर्थात् जेनुं अंतरंग एकाग्र — समाधिप्राप्त छे एवा जीवने) पदे पदे परम रम्य एवी उपरनी शुद्ध भूमिकाओमां अभिन्न विश्रांति ( – अभेदरूप स्थिरता) निपजावतो थको — जोके उत्तम सुवर्णनी माफक शुद्ध जीव कथंचित् भिन्नसाध्यसाधनभावना अभावने लीधे स्वयं (पोतानी मेळे) शुद्ध स्वभावे परिणमे छे तोपण — निश्चयमोक्षमार्गना साधनपणाने पामे छे.
भावार्थः — जेने अंतरंगमां शुद्धिनो अंश परिणम्यो छे ते जीवने तत्त्वार्थश्रद्धान, *समाहित = एकाग्र; एकताने पामेल; अभेदताने प्राप्त; छिन्नभिन्नता रहित; समाधिप्राप्त; शुद्ध; प्रशांत.
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णिच्छयणएण भणिदो तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा । ण कुणदि किंचि वि अण्णं ण मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति ।।१६१।।
सुवर्णनी जेम अभिन्नसाध्यसाधनभावने लीधे स्वयमेव शुद्धभावरूप परिणमन होय छे
तोपण, व्यवहारनयथी निश्चयमोक्षमार्गना साधनपणाने पामे छे.
[अज्ञानी द्रव्यलिंगी मुनिनुं अंतरंग लेश पण समाहित नहि होवाथी अर्थात् तेने (द्रव्यार्थिकनयना विषयभूत शुद्धात्मस्वरूपना अज्ञानने लीधे) शुद्धिनो अंश पण परिणम्यो नहि होवाथी तेने व्यवहारमोक्षमार्ग पण नथी.] १६०.
अन्वयार्थः — [ यः आत्मा ] जे आत्मा [ तैः त्रिभिः खलु समाहितः ] ए त्रण वडे खरेखर समाहित थयो थको (अर्थात् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र वडे खरेखर एकाग्र — अभेद थयो थको) [ अन्यत् किञ्चित् अपि ] अन्य कांई पण [ न करोति न मुञ्चति ] करतो नथी के छोडतो नथी, [ सः ] ते [ निश्चयनयेन ] निश्चयनयथी [ मोक्षमार्गः इति भणितः ] ‘मोक्षमार्ग’ कहेवामां आव्यो छे. १. आ गाथानी श्री जयसेनाचार्यदेवकृत टीकामां पंचमगुणस्थानवर्ती गृहस्थने पण व्यवहारमोक्षमार्ग
छे; चारित्र, तपोधनोने आचारादि चरणग्रंथोमां विहित करेला मार्ग प्रमाणे प्रमत्त-अप्रमत्त
गुणस्थानयोग्य पंचमहाव्रत-पंचसमिति-त्रिगुप्ति-षडावश्यकादिरूप होय छे अने गृहस्थोने
उपासकाध्ययनग्रंथमां विहित करेला मार्ग प्रमाणे पंचमगुणस्थानयोग्य दान-शील-पूजा-उपवासादिरूप
अथवा दार्शनिक-व्रतिकादि अगियार स्थानरूप (
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मोक्षमार्गः । अथ खलु कथञ्चनानाद्यविद्याव्यपगमाद्वयवहारमोक्षमार्गमनुप्रपन्नो धर्मादि- तत्त्वार्थाश्रद्धानाङ्गपूर्वगतार्थाज्ञानातपश्चेष्टानां धर्मादितत्त्वार्थश्रद्धानाङ्गपूर्वगतार्थज्ञानतपश्चेष्टानाञ्च त्यागोपादानाय प्रारब्धविविक्तभावव्यापारः, कुतश्चिदुपादेयत्यागे त्याज्योपादाने च पुनः प्रवर्तितप्रतिविधानाभिप्रायो, यस्मिन्यावति काले विशिष्टभावनासौष्ठववशात्सम्यग्दर्शन-
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र वडे समाहित थयेलो आत्मा ज जीवस्वभावमां नियत चारित्ररूप होवाने लीधे निश्चयथी मोक्षमार्ग छे.
हवे (विस्तार एम छे के), आ आत्मा खरेखर कथंचित् ( – कोई प्रकारे, निज उद्यमथी) अनादि अविद्याना नाश द्वारा व्यवहारमोक्षमार्गने पाम्यो थको, धर्मादिसंबंधी तत्त्वार्थ-अश्रद्धानना, अंगपूर्वगत पदार्थोसंबंधी अज्ञानना अने अतपमां चेष्टाना त्याग अर्थे तथा धर्मादिसंबंधी तत्त्वार्थश्रद्धानना, अंगपूर्वगत पदार्थोसंबंधी ज्ञानना अने तपमां चेष्टाना ग्रहण अर्थे ( – त्रणना त्याग अर्थे तथा त्रणना ग्रहण अर्थे) १विविक्त भावरूप व्यापार करतो थको, वळी कोई कारणे ग्राह्यनो त्याग थई जतां अने त्याज्यनुं ग्रहण थई जतां तेना २प्रतिविधाननो अभिप्राय करतो थको, जे काळे अने जेटला काळ सुधी ३विशिष्ट भावनासौष्ठवने लीधे स्वभावभूत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र साथे ४अंग-अंगीभावे परिणति १. विविक्त = विवेकथी जुदा तारवेला (अर्थात् हेय अने उपादेयनो विवेक करीने व्यवहारे उपादेय
कारणे उपादेय भावोनो ( – व्यवहारे ग्राह्य भावोनो) त्याग थई जतां अने त्याज्य भावोनुं उपादान
अर्थात् ग्रहण थई जतां तेना प्रतिकाररूपे प्रायश्चित्तादि विधान पण होय छे.] २. प्रतिविधान = प्रतिकार करवानी विधि; प्रतिकारनो उपाय; इलाज. ३. विशिष्ट भावनासौष्ठव = खास सारी भावना (
भावना. ४. आत्मा ते अंगी अने स्वभावभूत सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र ते अंग. पं. २९
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ज्ञानचारित्रैः स्वभावभूतैः सममङ्गाङ्गिभावपरिणत्या तत्समाहितो भूत्वा त्यागोपादान- विकल्पशून्यत्वाद्विश्रान्तभावव्यापारः सुनिष्प्रकम्पः अयमात्मावतिष्ठते, तस्मिन् तावति काले अयमेवात्मा जीवस्वभावनियतचरितत्वान्निश्चयेन मोक्षमार्ग इत्युच्यते । अतो निश्चय- व्यवहारमोक्षमार्गयोः साध्यसाधनभावो नितरामुपपन्न इति ।।१६१।। वडे १तेमनाथी समाहित थईने, त्यागग्रहणना विकल्पथी शून्यपणाने लीधे (भेदात्मक) भावरूप व्यापार विराम पामवाथी (अर्थात् भेदभावरूप – खंडभावरूप व्यापार अटकी जवाथी) सुनिष्कंपपणे रहे छे, ते काळे अने तेटला काळ सुधी आ ज आत्मा जीवस्वभावमां नियत चारित्ररूप होवाने लीधे निश्चयथी ‘मोक्षमार्ग’ कहेवाय छे. आथी, निश्चयमोक्षमार्ग अने २व्यवहारमोक्षमार्गने साध्य-साधनपणुं अत्यंत घटे छे.
भावार्थः — निश्चयमोक्षमार्ग निज शुद्धात्मानी रुचि, ज्ञप्ति अने निश्चळ अनुभूतिरूप छे. तेनो साधक (अर्थात् निश्चयमोक्षमार्गनुं व्यवहारसाधन) एवो जे भेदरत्नत्रयात्मक व्यवहारमोक्षमार्ग तेने जीव कथंचित् ( – कोई प्रकारे, निज उद्यमथी) पोताना संवेदनमां आवती अविद्यानी वासनाना विलय द्वारा पाम्यो थको, ज्यारे गुणस्थानरूप सोपानना क्रम प्रमाणे निजशुद्धात्मद्रव्यनी भावनाथी उत्पन्न नित्यानंद- लक्षणवाळा सुखामृतना रसास्वादनी तृप्तिरूप परम कळाना अनुभवने लीधे निज- शुद्धात्माश्रित निश्चयदर्शनज्ञानचारित्ररूपे अभेदपणे परिणमे छे, त्यारे निश्चयनयथी भिन्न साध्य-साधनना अभावने लीधे आ आत्मा ज मोक्षमार्ग छे. माटे एम ठर्युं के सुवर्ण अने सुवर्णपाषाणनी माफक निश्चयमोक्षमार्ग अने व्यवहारमोक्षमार्गने साध्य-साधकपणुं (
१. तेमनाथी = स्वभावभूत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रथी २. अहीं ए ख्यालमां राखवायोग्य छे के जीव व्यवहारमोक्षमार्गने पण अनादि अविद्यानो नाश करीने
जोईए के ‘छठ्ठा गुणस्थाने वर्तता शुभ विकल्पोने नहि पण छठ्ठा गुणस्थाने वर्तता शुद्धिना अंशने
अने सातमा गुणस्थानयोग्य निश्चयमोक्षमार्गने खरेखर साधन-साध्यपणुं छे’. छठ्ठा गुणस्थाने वर्ततो
शुद्धिनो अंश वधीने ज्यारे अने जेटला काळ सुधी उग्र शुद्धिने लीधे शुभ विकल्पोनो अभाव
वर्ते छे त्यारे अने तेटला काळ सुधी सातमा गुणस्थानयोग्य निश्चयमोक्षमार्ग होय छे.
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आत्मना जानाति — स्वपरप्रकाशकत्वेन चेतयते, आत्मना पश्यति — याथातथ्येनावलोकयते, स खल्वात्मैव चारित्रं ज्ञानं दर्शनमिति कर्तृकर्मकरणानामभेदान्निश्चितो भवति ।
अन्वयार्थः — [ यः ] जे (आत्मा) [ अनन्यमयम् आत्मानम् ] अनन्यमय आत्माने [ आत्मना ] आत्माथी [ चरति ] आचरे छे, [ जानाति ] जाणे छे, [ पश्यति ] देखे छे, [ सः ] ते (आत्मा ज) [ चारित्रं ] चारित्र छे, [ ज्ञानं ] ज्ञान छे, [ दर्शनम् ] दर्शन छे — [ इति ] एम [ निश्चितः भवति ] निश्चित छे.
टीकाः — आ, आत्माना चारित्र-ज्ञान-दर्शनपणानुं प्रकाशन छे (अर्थात् आत्मा ज चारित्र, ज्ञान अने दर्शन छे एम अहीं समजाव्युं छे).
जे (आत्मा) खरेखर आत्माने — के जे आत्ममय होवाथी अनन्यमय छे तेने — आत्माथी आचरे छे अर्थात् १स्वभावनियत अस्तित्व वडे अनुवर्ते छे ( – स्वभावनियत अस्तित्वरूपे परिणमीने अनुसरे छे), (अनन्यमय आत्माने ज) आत्माथी जाणे छे अर्थात् स्वपरप्रकाशकपणे चेते छे, (अनन्यमय आत्माने ज) आत्माथी देखे छे अर्थात् यथातथपणे अवलोके छे, ते आत्मा ज खरेखर चारित्र छे, ज्ञान छे, दर्शन छे — एम २कर्ता-कर्म-करणना १. स्वभावनियत = स्वभावमां अवस्थित; (ज्ञानदर्शनरूप) स्वभावमां द्रढपणे रहेल. [‘स्वभावनियत
अस्तित्व’नी विशेष स्पष्टता माटे १५४मी गाथानी टीका जुओ.] २. ज्यारे आत्मा आत्माने आत्माथी आचरे-जाणे-देखे छे, त्यारे कर्ता पण आत्मा, कर्म पण आत्मा
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अतश्चारित्रज्ञानदर्शनरूपत्वाज्जीवस्वभावनियतचरितत्वलक्षणं निश्चयमोक्षमार्गत्वमात्मनो नितरामुपपन्नमिति ।।१६२।।
अभेदने लीधे निश्चित छे. आथी (एम नक्की थयुं के) चारित्र-ज्ञान-दर्शनरूप होवाने लीधे आत्माने जीवस्वभावनियत चारित्र जेनुं लक्षण छे एवुं निश्चयमोक्षमार्गपणुं अत्यंत घटे छे (अर्थात् आत्मा ज चारित्र-ज्ञान-दर्शन होवाने लीधे आत्मा ज ज्ञानदर्शनरूप जीवस्वभावमां द्रढपणे रहेलुं चारित्र जेनुं स्वरूप छे एवो निश्चयमोक्षमार्ग छे). १६२.
— आ भाव जाणे भव्य जीव, अभव्य नहि श्रद्धा लहे. १६३.
अन्वयार्थः — [ येन ] जेथी (आत्मा मुक्त थतां) [ सर्वं विजानाति ] सर्वने जाणे छे अने [ पश्यति ] देखे छे, [ तेन ] तेथी [ सः ] ते [ सौख्यम् अनुभवति ] सौख्यने अनुभवे छे; — [ इति तद् ] आम [ भव्यः जानाति ] भव्य जीव जाणे छे, [ अभव्यसत्त्वः न श्रद्धत्ते ] अभव्य जीव श्रद्धतो नथी.
टीकाः — आ, सर्व संसारी आत्माओ मोक्षमार्गने योग्य होवानुं निराकरण (निषेध) छे.
खरेखर सौख्यनुं कारण स्वभावनी १प्रतिकूळतानो अभाव छे. आत्मानो ‘स्वभाव’ खरेखर द्रशि – ज्ञप्ति (दर्शन अने ज्ञान) छे. ते बन्नेने २विषयप्रतिबंध होवो ते ‘प्रतिकूळता’ १.प्रतिकूळता = विरुद्धता; विपरीतता; ऊलटापणुं. २. विषयप्रतिबंध = विषयमां रुकावट अर्थात् मर्यादितपणुं. (दर्शन अने ज्ञानना विषयमां मर्यादितपणुं
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स्वभावः । तयोर्विषयप्रतिबन्धः प्रातिकूल्यम् । मोक्षे खल्वात्मनः सर्वं विजानतः पश्यतश्च तदभावः । ततस्तद्धेतुकस्यानाकुलत्वलक्षणस्य परमार्थसुखस्य मोक्षेऽनुभूति- रचलिताऽस्ति । इत्येतद्भव्य एव भावतो विजानाति, ततः स एव मोक्षमार्गार्हः । नैतदभव्यः श्रद्धत्ते, ततः स मोक्षमार्गानर्ह एवेति । अतः कतिपये एव संसारिणो मोक्षमार्गार्हा, न सर्व एवेति ।।१६३।।
छे. मोक्षमां खरेखर आत्मा सर्वने जाणतो अने देखतो होवाथी तेनो अभाव होय छे (अर्थात् मोक्षमां स्वभावनी प्रतिकूळतानो अभाव होय छे). तेथी १तेनो अभाव जेनुं कारण छे एवा २अनाकुळतालक्षणवाळा परमार्थसुखनी मोक्षमां अचलित अनुभूति होय छे. — आ प्रमाणे भव्य जीव ज ३भावथी जाणे छे, तेथी ते ज मोक्षमार्गने योग्य छे; अभव्य जीव ए प्रमाणे श्रद्धतो नथी, तेथी ते मोक्षमार्गने अयोग्य ज छे.
आथी (एम कह्युं के) केटलाक ज संसारीओ मोक्षमार्गने योग्य छे, बधाय नहि. १६३.
— संते कह्युं, पण हेतु छे ए बंधना वा मोक्षना. १६४.
अन्वयार्थः — [ दर्शनज्ञानचारित्राणि ] दर्शन-ज्ञान-चारित्र [ मोक्षमार्गः ] मोक्षमार्ग छे [ इति ] तेथी [ सेवितव्यानि ] तेओ सेववायोग्य छे — [ इदम् साधुभिः भणितम् ] एम साधुओए १. पारमार्थिक सुखनुं कारण स्वभावनी प्रतिकूळतानो अभाव छे. २. पारमार्थिक सुखनुं लक्षण अथवा स्वरूप अनाकुळता छे. ३. श्री जयसेनाचार्यदेवकृत टीकामां कह्युं छे के ‘ते अनंत सुखने भव्य जीव जाणे छे, उपादेयपणे
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दर्शनज्ञानचारित्राणां कथञ्चिद्बन्धहेतुत्वोपदर्शनेन जीवस्वभावे नियतचरितस्य साक्षान्मोक्षहेतुत्वद्योतनमेतत् ।
अमूनि हि दर्शनज्ञानचारित्राणि कियन्मात्रयापि परसमयप्रवृत्त्या संवलितानि कृशानुसंवलितानीव घृतानि कथञ्चिद्विरुद्धकारणत्वरूढेर्बन्धकारणान्यपि भवन्ति । यदा तु समस्तपरसमयप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपया स्वसमयप्रवृत्त्या सङ्गच्छन्ते, तदा निवृत्तकृशानुसंवलनानीव घृतानि विरुद्धकार्यकारणभावाभावात्साक्षान्मोक्षकारणान्येव कह्युं छे; [ तैः तु ] परंतु तेमनाथी [ बन्धः वा ] बंध पण थाय छे अने [ मोक्षः वा ] मोक्ष पण थाय छे.
टीकाः — अहीं, दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं कथंचित् बंधहेतुपणुं दर्शाव्युं छे अने ए रीते जीवस्वभावमां नियत चारित्रनुं साक्षात् मोक्षहेतुपणुं प्रकाशित कर्युं छे.
आ दर्शन-ज्ञान-चारित्र, जो थोडी पण परसमयप्रवृत्ति साथे मिलित होय तो, अग्नि साथे मिलित घीनी माफक (अर्थात् १उष्णतायुक्त घीनी जेम), कथंचित् २विरुद्ध कार्यना कारणपणानी व्याप्तिने लीधे बंधकारणो पण छे. अने ज्यारे तेओ (दर्शन-ज्ञान- चारित्र), समस्त परसमयप्रवृत्तिथी निवृत्तिरूप एवी स्वसमयप्रवृत्ति साथे संयुक्त होय छे त्यारे, जेने अग्नि साथेनुं मिलितपणुं निवृत्त थयुं छे एवा घीनी माफक, विरुद्ध कार्यनो १. घी स्वभावे शीतळताना कारणभूत होवा छतां, जो ते थोडी पण उष्णताथी युक्त होय तो,
२. परसमयप्रवृत्तियुक्त दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां कथंचित् मोक्षरूप कार्यथी विरुद्ध कार्यनुं कारणपणुं
उकेलवामां ए सारभूत हकीकत ख्यालमां राखवी के — ज्ञानीने ज्यारे शुद्धाशुद्धरूप मिश्रपर्याय
आस्रव-बंधना कारणभूत होतो नथी, परंतु ते मिश्रपर्यायनो शुद्ध अंश संवर-निर्जरा-मोक्षना
कारणभूत होय छे अने अशुद्ध अंश आस्रव-बंधना कारणभूत होय छे.]
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भवन्ति । ततः स्वसमयप्रवृत्तिनाम्नो जीवस्वभावनियतचरितस्य साक्षान्मोक्षमार्गत्वमुपपन्न- मिति ।।१६४।।
कारणभाव निवृत्त थयो होवाने लीधे साक्षात् मोक्षकारणो ज छे. माटे ‘स्वसमयप्रवृत्ति’ नामनुं जे जीवस्वभावमां नियत चारित्र तेने साक्षात् मोक्षमार्गपणुं घटे छे.१ १६४.
अन्वयार्थः — [ शुद्धसम्प्रयोगात् ] शुद्धसंप्रयोगथी (शुभ भक्तिभावथी) [ दुःखमोक्षः भवति ] दुःखमोक्ष थाय छे [ इति ] एम [ यदि ] जो [ अज्ञानात् ] अज्ञानने लीधे [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ मन्यते ] २माने, तो ते [ परसमयरतः जीवः ] परसमयरत जीव [ भवति ] छे. [‘अर्हंतादि प्रत्ये भक्ति-अनुरागवाळी मंदशुद्धिथी पण क्रमे मोक्ष थाय छे’ एवुं जो अज्ञानने लीधे ( – शुद्धात्मसंवेदनना अभावने लीधे, रागांशने लीधे) ज्ञानीने पण (मंद पुरुषार्थवाळुं) वलण वर्ते, तो त्यांसुधी ते पण सूक्ष्म परसमयमां रत छे.]
सिद्धिना साधनभूत एवा अर्हंतादि भगवंतो प्रत्ये भक्तिभावथी ३अनुरंजित १. आ निरूपण साथे सरखाववा माटे श्री प्रवचनसारनी ११मी गाथा अने तेनी तत्त्वप्रदीपिका टीका
जुओ. २. मानवुं = वलण करवुं; इरादो राखवो; आशा धरवी; इच्छा करवी; गणना करवी; अभिप्राय करवो. ३. अनुरंजित = अनुरक्त; रागवाळी; सराग.
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शुद्धसम्प्रयोगः । अथ खल्वज्ञानलवावेशाद्यदि यावत् ज्ञानवानपि ततः शुद्धसम्प्रयो- गान्मोक्षो भवतीत्यभिप्रायेण खिद्यमानस्तत्र प्रवर्तते तदा तावत्सोऽपि रागलवसद्भावात्पर- समयरत इत्युपगीयते । अथ न किं पुनर्निरङ्कुशरागकलिकलङ्कितान्तरङ्गवृत्तिरितरो जन इति ।।१६५।।
चित्तवृत्ति ते अहीं ‘शुद्धसंप्रयोग’ छे. हवे, १अज्ञानलवना आवेशथी जो ज्ञानवान पण ‘ते शुद्धसंप्रयोगथी मोक्ष थाय छे’ एवा अभिप्राय वडे खेद पामतो थको तेमां (शुद्धसंप्रयोगमां) प्रवर्ते, तो त्यांसुधी ते पण २रागलवना सद्भावने लीधे ३‘परसमयरत’ कहेवाय छे. तो पछी निरंकुश रागरूप क्लेशथी कलंकित एवी अंतरंग वृत्तिवाळो इतर जन शुं परसमयरत न कहेवाय? (अवश्य कहेवाय ज.)४ १६५.
अन्वयार्थः — [ अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनगणज्ञानभक्तिसम्पन्नः ] अर्हंत, सिद्ध, चैत्य १. अज्ञानलव = जराक अज्ञान; अल्प अज्ञान. २. रागलव = जराक राग; अल्प राग. ३. परसमयरत = परसमयमां रत; परसमयस्थित; परसमय प्रत्ये वलणवाळो; परसमयमां आसक्त. ४. आ गाथानी श्री जयसेनाचार्यदेवकृत टीकामां आ प्रमाणे विवरण छेः —
छेदनार्थे ज्यारे पंचपरमेष्ठी प्रत्ये गुणस्तवनादि भक्ति करे छे, त्यारे ते सूक्ष्म परसमयरूपे परिणत
वर्ततो थको सराग सम्यग्द्रष्टि छे; अने जो ते पुरुष शुद्धात्मभावनामां समर्थ होवा छतां पण,
तेने (शुद्धात्मभावनाने) छोडीने ‘शुभोपयोगथी ज मोक्ष थाय छे’ एम एकांते माने, तो ते स्थूल
परसमयरूप परिणाम वडे अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि थाय छे.
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
भोपयोगतामजहत् बहुशः पुण्यं बध्नाति, न खलु सकलकर्मक्षयमारभते । ततः सर्वत्र रागकणिकाऽपि परिहरणीया परसमयप्रवृत्तिनिबन्धनत्वादिति ।।१६६।।
( – अर्हंतादिनी प्रतिमा), प्रवचन ( – शास्त्र), मुनिगण अने ज्ञान प्रत्ये भक्तिसंपन्न जीव [ बहुशः पुण्यं बध्नाति ] घणुं पुण्य बांधे छे, [ न खलु सः कर्मक्षयं करोति ] परंतु ते खरेखर कर्मनो क्षय करतो नथी.
टीकाः — अहीं, पूर्वोक्त शुद्धसंप्रयोगने १कथंचित् बंधहेतुपणुं होवाथी तेनुं मोक्षमार्गपणुं २निरस्त कर्युं छे (अर्थात् ज्ञानीने वर्ततो शुद्धसंप्रयोग निश्चयथी बंधहेतुभूत होवाने लीधे ते मोक्षमार्ग नथी एम अहीं दर्शाव्युं छे).
अर्हंतादि प्रत्ये भक्तिसंपन्न जीव, कथंचित् ३‘शुद्धसंप्रयोगवाळो’ होवा छतां पण, ४रागलव जीवतो (विद्यमान) होवाथी ‘शुभोपयोगीपणा’ने नहि छोडतो थको, घणुं पुण्य बांधे छे, परंतु खरेखर सकळ कर्मनो क्षय करतो नथी. तेथी सर्वत्र रागनी कणिका पण परिहरवायोग्य छे, केम के ते परसमयप्रवृत्तिनुं कारण छे. १६६.
२.निरस्त करवुं = खंडित करवुं; रदबातल करवुं; निषिद्ध करवुं. ३. सिद्धिना निमित्तभूत एवा जे अर्हंतादि तेमना प्रत्येना भक्तिभावने पूर्वे शुद्धसंप्रयोग कहेवामां
आव्यो छे. तेमां ‘शुद्ध’ शब्द होवा छतां ते ‘शुभ’ उपयोगरूप रागभाव छे. [‘शुभ’ एवा अर्थमां जेम ‘विशुद्ध’ शब्द कदाचित् वपराय छे तेम अहीं ‘शुद्ध’ शब्द वपरायो छे.] ४. रागलव = जराक राग; अल्प राग. पं. ३०
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निरुपरागशुद्धस्वरूपं स्वसमयं चेतयते । ततः स्वसमयप्रसिद्धयर्थं पिञ्जनलग्नतूलन्यासन्याय- मधिदधताऽर्हदादिविषयोऽपि क्रमेण रागरेणुरपसारणीय इति ।।१६७।।
अन्वयार्थः — [ यस्य ] जेने [ परद्रव्ये ] परद्रव्य प्रत्ये [ अणुमात्रः वा ] अणुमात्र पण (लेशमात्र पण) [ रागः ] राग [ हृदये विद्यते ] हृदयमां वर्ते छे [ सः ] ते, [ सर्वागमधरः अपि ] भले सर्वआगमधर होय तोपण, [ स्वकस्य समयं न विजानाति ] स्वकीय समयने जाणतो ( – अनुभवतो) नथी.
टीकाः — अहीं, स्वसमयनी उपलब्धिना अभावनो, राग एक हेतु छे एम प्रकाश्युं छे (अर्थात् स्वसमयनी प्राप्तिना अभावनुं राग ज एक कारण छे एम अहीं दर्शाव्युं छे).
जेने रागरेणुनी कणिका पण हृदयमां जीवती छे ते, भले समस्त सिद्धांतसागरनो पारंगत होय तोपण, १निरुपराग-शुद्धस्वरूप स्वसमयने खरेखर चेततो ( – अनुभवतो) नथी. माटे, ‘२पींजणने चोंटेल रू’नो न्याय लागु पडतो होवाथी, जीवे स्वसमयनी प्रसिद्धि अर्थे अर्हंतादिविषयक पण रागरेणु ( – अर्हंतादि प्रत्येनी पण रागरज) क्रमे दूर करवायोग्य छे. १६७.
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
सत्यां बुद्धिप्रसरमन्तरेणात्मा न तं कथञ्चनापि धारयितुं शक्यते । बुद्धिप्रसरे च सति शुभस्याशुभस्य वा कर्मणो न निरोधोऽस्ति । ततो रागकलिविलासमूल एवायमनर्थसन्तान इति ।।१६८।।
अन्वयार्थः — [ यस्य ] जे [ चित्तोद्भ्रामं विना तु ] (रागना सद्भावने लीधे) चित्तना भ्रमण विनानो [ आत्मानम् ] पोताने [ धर्तुम् न शक्यम् ] राखी शकतो नथी, [ तस्य ] तेने [ शुभाशुभकृतस्य कर्मणः ] शुभाशुभ कर्मनो [ रोधः न विद्यते ] निरोध नथी.
टीकाः — आ, रागलवमूलक दोषपरंपरानुं निरूपण छे (अर्थात् अल्प राग जेनुं मूळ छे एवी दोषोनी संततिनुं अहीं कथन छे).
अहीं (आ लोकमां) खरेखर अर्हंतादि प्रत्येनी भक्ति पण रागपरिणति विना होती नथी. रागादिपरिणति होतां, आत्मा १बुद्धिप्रसार विनानो ( – चित्तना भ्रमणथी रहित) पोताने कोई पण रीते राखी शकतो नथी; अने बुद्धिप्रसार होतां ( – चित्तनुं भ्रमण होतां), शुभ वा अशुभ कर्मनो निरोध होतो नथी. माटे, आ अनर्थसंततिनुं मूळ रागरूप क्लेशनो विलास ज छे.
भावार्थः — अर्हंतादिनी भक्ति पण राग विना होती नथी. रागथी चित्तनुं भ्रमण थाय छे; चित्तना भ्रमणथी कर्मबंध थाय छे. माटे आ अनर्थोनी परंपरानुं मूळ कारण राग ज छे.२ १६८. १. बुद्धिप्रसार = विकल्पोनो फेलावो; विकल्पविस्तार; चित्तनुं भ्रमण; मननुं भटकवुं ते; मननी चंचळता. २. आ गाथानी श्री जयसेनाचार्यदेवविरचित टीकामां नीचे प्रमाणे विवरण करवामां आव्युं छेः —
रोकावाथी (अर्थात् बुद्धिप्रसारनो निरोध नहि थवाथी) शुभाशुभ कर्मनो संवर थतो नथी; तेथी
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मोक्षार्थिना कर्मबन्धमूलचित्तोद्भ्रान्तिमूलभूता रागाद्यनुवृत्तिरेकान्तेन निःशेषीकरणीया । निःशेषितायां तस्यां प्रसिद्धनैस्सङ्गयनैर्मम्यः शुद्धात्मद्रव्यविश्रान्तिरूपां पारमार्थिकीं
अन्वयार्थः — [ तस्मात् ] माटे [ निवृत्तिकामः ] मोक्षार्थी जीव [ निस्सङ्गः ] निःसंग [ च ] अने [ निर्ममः ] निर्मम [ भूत्वा पुनः ] थईने [ सिद्धेषु भक्तिं ] सिद्धोनी भक्ति ( – शुद्धात्मद्रव्यमां स्थिरतारूप पारमार्थिक सिद्धभक्ति) [ करोति ] करे छे, [ तेन ] जेथी ते [ निर्वाणं प्राप्नोति ] निर्वाणने पामे छे.
रागादिपरिणति होतां चित्तनुं भ्रमण थाय छे अने चित्तनुं भ्रमण होतां कर्मबंध थाय छे एम (पूर्वे) कहेवामां आव्युं, तेथी मोक्षार्थीए कर्मबंधनुं मूळ एवुं जे चित्तनुं भ्रमण तेना मूळभूत रागादिपरिणतिनो एकांते निःशेष नाश करवायोग्य छे. तेनो निःशेष नाश करवामां आवतां, जेने २निःसंगता अने ३निर्ममता प्रसिद्ध थई छे एवो ते जीव शुद्धात्म- १. निःशेष = संपूर्ण; जराय बाकी न रहे एवो. २. निःसंग आत्मतत्त्वथी विपरीत एवो जे बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह तेनाथी रहित परिणति ते
निःसंगता छे. ३. रागादि-उपाधिरहित चैतन्यप्रकाश जेनुं लक्षण छे एवा आत्मतत्त्वथी विपरीत मोहोदय जेनी
ते निर्ममता छे.
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
सिद्धभक्तिमनुबिभ्राणः प्रसिद्धस्वसमयप्रवृत्तिर्भवति । तेन कारणेन स एव निःशेषितकर्मबन्धः सिद्धिमवाप्नोतीति ।।१६९।।
अर्हदादिभक्तिरूपपरसमयप्रवृत्तेः साक्षान्मोक्षहेतुत्वाभावेऽपि परम्परया मोक्षहेतुत्वसद्भाव- द्योतनमेतत् । द्रव्यमां विश्रांतिरूप पारमार्थिक सिद्धभक्ति धरतो थको १स्वसमयप्रवृत्तिनी प्रसिद्धिवाळो होय छे. ते कारणथी ते ज जीव कर्मबंधनो निःशेष नाश करी सिद्धिने पामे छे. १६९.
अन्वयार्थः — [ संयमतपःसम्प्रयुक्तस्य ] संयमतपसंयुक्त होवा छतां, [ सपदार्थं तीर्थकरम् ] नव पदार्थो तथा तीर्थंकर प्रत्ये [ अभिगतबुद्धेः ] जेनी बुद्धिनुं जोडाण वर्ते छे अने [ सूत्ररोचिनः ] सूत्रो प्रत्ये जेने रुचि (प्रीति) वर्ते छे, ते जीवने [ निर्वाणं ] निर्वाण [ दूरतरम् ] दूरतर (विशेष दूर) छे.
टीकाः — अहीं, अर्हंतादिनी भक्तिरूप परसमयप्रवृत्तिमां साक्षात् मोक्षहेतुपणानो अभाव होवा छतां परंपराए मोक्षहेतुपणानो २सद्भाव दर्शाव्यो छे. १. स्वसमयप्रवृत्तिनी प्रसिद्धिवाळो = जेने स्वसमयमां प्रवृत्ति प्रसिद्ध थइ छे एवो. [जे जीव
रागादिपरिणतिनो संपूर्ण नाश करी निःसंग अने निर्मम थयो छे ते परमार्थ-सिद्धभक्तिवंत जीवे स्वसमयमां प्रवृत्ति सिद्ध करी छे तेथी स्वसमयप्रवृत्तिने लीधे ते ज जीव कर्मबंधनो क्षय करी मोक्षने पामे छे, अन्य नहि.] २. खरेखर तो एम छे के — ज्ञानीने शुद्धाशुद्धरूप मिश्र पर्यायमां जे भक्ति-आदिरूप शुभ अंश वर्ते
(मंदशुद्धिरूप) शुद्ध अंश परिणमे छे ते संवरनिर्जरानो अने (तेटला अंशे) मोक्षनो हेतु छे. खरेखर
आम होवा छतां, शुद्ध अंशमां रहेला संवर-निर्जरा-मोक्षहेतुत्वनो आरोप तेनी साथेना भक्ति-
आदिरूप शुभ अंशमां करीने ते शुभ भावोने देवलोकादिना क्लेशनी प्राप्तिनी परंपरा सहित
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यः खलु मोक्षार्थमुद्यतमनाः समुपार्जिताचिन्त्यसंयमतपोभारोऽप्यसम्भावितपरम- वैराग्यभूमिकाधिरोहणसमर्थप्रभुशक्तिः पिञ्जनलग्नतूलन्यासन्यायेन नवपदार्थैः सहार्हदादि- रुचिरूपां परसमयप्रवृत्तिं परित्यक्तुं नोत्सहते, स खलु न नाम साक्षान्मोक्षं लभते किन्तु सुरलोकादिक्लेशप्राप्तिरूपया परम्परया तमवाप्नोति ।।१७०।।
जे जीव खरेखर मोक्षने अर्थे उद्यमी चित्तवाळो वर्ततो थको, अचिंत्य संयम- तपभार संप्राप्त कर्यो होवा छतां परमवैराग्यभूमिकानुं आरोहण करवामां समर्थ एवी १प्रभुशक्ति उत्पन्न करी नहि होवाथी, ‘पींजणने चोंटेल रू’ना न्याये, नव पदार्थो तथा अर्हंतादिनी रुचिरूप (प्रीतिरूप) परसमयप्रवृत्तिनो परित्याग करी शकतो नथी, ते जीव खरेखर साक्षात् मोक्षने प्राप्त करतो नथी परंतु देवलोकादिना कलेशनी प्राप्तिरूप परंपरा वडे तेने प्राप्त करे छे. १७०.
मोक्षहेतु बिलकुल प्रगट्यो ज नथी — विद्यमान ज नथी त्यां पछी तेना भक्ति-आदिरूप शुभ
भावोमां आरोप कोनो करवो?] १. प्रभुशक्ति = प्रबळ शक्ति; उग्र शक्ति; पुष्कळ शक्ति. [जे ज्ञानी जीवे परम उदासीनताने प्राप्त
छे अने तेमने दान आपे छे तेम) निर्दोष-परमात्मा तीर्थंकरपरमदेवोनां अने गणधरदेव-भरत-सगर-
राम-पांडवादि महापुरुषोनां चरित्रपुराणो शुभ धर्मानुरागथी सांभळे छे तथा कदाचित् गृहस्थ-
छे — इत्यादि शुभ भावो करे छे. आ रीते जे ज्ञानी जीव शुभ रागने सर्वथा छोडी शकतो नथी, ते
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
तावन्मात्ररागकलिकलङ्कितस्वान्तः साक्षान्मोक्षस्यान्तरायीभूतं विषयविषद्रुमामोदमोहितान्तरङ्गं स्वर्गलोकं समासाद्य, सुचिरं रागाङ्गारैः पच्यमानोऽन्तस्ताम्यतीति ।।१७१।।
अन्वयार्थः — [ यः ] जे (जीव), [ अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनभक्तः ] अर्हंत, सिद्ध, चैत्य ( – अर्हंतादिनी प्रतिमा) अने प्रवचन ( – शास्त्र) प्रत्ये भक्तियुक्त वर्ततो थको, [ परेण नियमेन ] परम संयम सहित [ तपःकर्म ] तपकर्म ( – तपरूप कार्य) [ करोति ] करे छे, [ सः ] ते [ सुरलोकं ] देवलोकने [ समादत्ते ] संप्राप्त करे छे.
टीकाः — आ, मात्र अर्हंतादिनी भक्ति जेटला रागथी उत्पन्न थतो जे साक्षात् मोक्षनो अंतराय तेनुं प्रकाशन छे.
जे (जीव) खरेखर अर्हंतादिनी भक्तिने आधीन बुद्धिवाळो वर्ततो थको १परमसंयमप्रधान अतितीव्र तप तपे छे, ते (जीव), मात्र तेटला रागरूप क्लेशथी जेनुं निज अंतःकरण कलंकित ( – मलिन) छे एवो वर्ततो थको, विषयविषवृक्षना २आमोदथी ज्यां अंतरंग ( – अंतःकरण) मोहित होय छे एवा स्वर्गलोकने — के जे साक्षात् मोक्षने अंतरायभूत छे तेने — संप्राप्त करीने, सुचिरकाळ पर्यंत ( – घणा लांबा काळ सुधी) रागरूपी अंगाराओथी शेकातो थको अंदरमां संतप्त ( – दुःखी, व्यथित) थाय छे. १७१.
२. आमोद = (१) सुगंध; (२) मोज.
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सङ्गतमग्निमिव सुरलोकादिक्लेशप्राप्त्याऽत्यन्तमन्तर्दाहाय कल्पमानमाकलय्य साक्षान्मोक्षकामो महाजनः समस्तविषयमपि रागमुत्सृज्यात्यन्तवीतरागो भूत्वा समुच्छलज्ज्वलद्दुःखसौख्यकल्लोलं कर्माग्नितप्तकलकलोदभारप्राग्भारभयङ्करं भवसागरमुत्तीर्य, शुद्धस्वरूपपरमामृतसमुद्रमध्यास्य सद्यो निर्वाति ।।
अन्वयार्थः — [ तस्मात् ] तेथी [ निर्वृत्तिकामः ] मोक्षाभिलाषी जीव [ सर्वत्र ] सर्वत्र [ किञ्चित् रागं ] किंचित् पण राग [ मा करोतु ] न करो; [ तेन ] एम करवाथी [ सः भव्यः ] ते भव्य जीव [ वीतरागः ] वीतराग थई [ भवसागरं तरति ] भवसागरने तरे छे.
टीकाः — आ, साक्षात्मोक्षमार्गना सार-सूचन द्वारा शास्त्रतात्पर्यरूप उपसंहार छे (अर्थात् अहीं साक्षात्मोक्षमार्गनो सार शो छे तेना कथन द्वारा शास्त्रनुं तात्पर्य कहेवारूप उपसंहार कर्यो छे).
साक्षात्मोक्षमार्गमां अग्रेसर खरेखर वीतरागपणुं छे. तेथी खरेखर १अर्हंतादिगत रागने पण, चंदनवृक्षसंगत अग्निनी माफक, देवलोकादिना क्लेशनी प्राप्ति वडे अत्यंत अंतर्दाहनुं कारण समजीने, साक्षात् मोक्षनो अभिलाषी महाजन सघळाय प्रत्येना रागने छोडी, अत्यंत वीतराग थई, जेमां बळबळता दुःखसुखना कल्लोलो ऊछळे छे अने जे कर्माग्नि वडे तप्त, ककळाटवाळा जळसमूहनी अतिशयताथी भयंकर छे एवा भवसागरने पार ऊतरी, शुद्धस्वरूप परमामृतसमुद्रने अवगाही, शीघ्र निर्वाणने पामे छे.
— विस्तारथी बस थाओ. जयवंत वर्तो वीतरागपणुं के जे साक्षात्मोक्षमार्गनो सार होवाथी शास्त्रतात्पर्यभूत छे. १. अर्हंतादिगत राग = अर्हंतादि प्रत्येनो राग; अर्हंतादिविषयक राग; अर्हंतादिनो राग. [जेम
वडे अत्यंत अंतरंग बळतरानुं कारण थाय छे.]