Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration).

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भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव
विषे
उल्लेखो
G
वन्द्यो विभुर्भ्भुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः
कुन्द-प्रभा-प्रणयि-कीर्ति-विभूषिताशः
यश्चारु-चारण-कराम्बुजचञ्चरीक-
श्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम्
।।
[चंद्रगिरि पर्वत परनो शिलालेख]

अर्थःकुन्दपुष्पनी प्रभा धरनारी जेमनी कीर्ति वडे दिशाओ

विभूषित थई छे, जेओ चारणोनांचारणॠद्धिधारी महामुनिओनां
सुंदर हस्तकमळोना भ्रमर हता अने जे पवित्रात्माए भरतक्षेत्रमां
श्रुतनी प्रतिष्ठा करी छे, ते विभु कुंदकुंद आ पृथ्वी पर कोनाथी वंद्य नथी?
..............कोण्डकुन्दो यतीन्द्रः ।।
रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्त-
र्बाह्येपि संव्यञ्जयितुं यतीशः
रजःपदं भूमितलं विहाय
चचार मन्ये चतुरंगुलं सः
।।
[ विंध्यगिरिशिलालेख ]

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अर्थःयतीश्वर (श्री कुंदकुंदस्वामी) रजःस्थानने -भूमितळने-

छोडीने चार आंगळ ऊंचे आकाशमां चालता हता ते द्वारा हुं एम समजुं
छुं के, तेओश्री अंदरमां तेम ज बहारमां रजथी ( पोतानुं ) अत्यंत
अस्पृष्टपणुं व्यक्त करता हता (
अंदरमां तेओ रागादिक मळथी अस्पृष्ट
हता अने बहारमां धूळथी अस्पृष्ट हता).
जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण
ण विबोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ।।
[दर्शनसार]

अर्थः(महाविदेहक्षेत्रना वर्तमान तीर्थंकरदेव) श्री सीमंधरस्वामी

पासेथी मळेला दिव्य ज्ञान वडे श्री पद्मनंदिनाथे ( श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे ) बोध
न आप्यो होत तो मुनिजनो साचा मार्गने केम जाणत ?

हे कुंदकुंदादि आचार्यो ! तमारां वचनो पण स्वरूपानुसंधानने विषे

आ पामरने परम उपकारभूत थयां छे. ते माटे हुं तमने अतिशय
भक्तिथी नमस्कार करुं छुं.
[श्रीमद् राजचंद्र]
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श्रीसीमन्धरपरमात्मने नमः।
अध्यात्मरसिक, श्रुतभक्त, आत्मार्थी विद्वान भाईश्री
हिंमतलाल जेठालाल शाह (B.Sc.)ने
सादर समर्पित
अभिनंदन-पत्र
शुद्धात्मरसिक विद्वान बंधु !
विदेहक्षेत्रना वर्तमान तीर्थंकर श्री सीमंधर परमात्मानी अने भरतक्षेत्रना
चरम तीर्थनायक श्री महावीर देवाधिदेवनी दिव्य वाणी द्वारा जे शुद्धात्मदर्शक
श्रुतप्रवाह चाल्यो, तेने झीलीने
तद्रूप परिणमीने परम पावन
अध्यात्मयोगीन्द्र आचार्यवर श्री कुंदकुंददेवे पोताना समस्त आत्मवैभवथी
पारमेश्वरी विद्यानां अनुपम रत्न समान श्री समयसारादि सर्वोत्तम
परमागमोमां संगृहीत कर्यो.
तीर्थंकर भगवानथी वारसामां आवेलां अने कुंदकुंदाचार्यदेवे चीवटथी
संघरेलां आ परमागमोमां उल्लसता शुद्धात्मवैभवरूप अद्भुत निधानने
अंतर्चक्षुथी निहाळनार, वीतराग-सर्वज्ञप्रणीत मोक्षमार्गना यथार्थ ज्ञाता, अमोघ
उपदेष्टा, महान समर्थक अने प्रचारक, परमपूज्य सद्गुरुदेव श्री
कानजीस्वामीए सभा समक्ष संसारतापविनाशक, उपशांतरसपूर्ण, अपूर्व
प्रवचनो द्वारा आ परमागमोनां अंर्त ऊंडां रहस्यो खोलवा मांड्यां.
पूज्य गुरुदेवश्रीना परिचयमां आप आव्या अने तेमना श्रीमुखेथी आपे
पण आ आत्मस्पर्शी प्रवचनो सांभळ्यां. तेना परिणामे आपनी आत्मार्थिता

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उल्लसी आवी, अने आपनी विद्वत्ता अध्यात्मरसिकताना ओपथी शोभी ऊठी.
पूज्य गुरुदेवश्रीनी प्रेरणा झीलीने, तेमनी कल्याणवर्षिणी शीतळ
छायामां रही, श्री समयसार, प्रवचनसार, नियमसार अने
पंचास्तिकायसंग्रहनी संस्कृत टीकानुं घणुं ऊंडुं अवगाहन करी, आचार्यदेवना
हार्द सुधी पहोंची, पूर्वापर यथार्थ संबंध विचारी, अत्यंत सावधानी ने अति
परिश्रम पूर्वक आपे सांगोपांग सुंदर, सरळ अने पूरेपूरो भाववाही अनुवाद
गुर्जर गिरामां कर्यो, अने अध्यात्मजिज्ञासु समाजने अध्यात्मनिधाननी
अणमोल भेट आपी. आवी प्रवचनभक्तिवत्सलता अने अनुपम
अध्यात्मसाहित्यसेवा भारतना धार्मिक इतिहासमां चिरस्मरणीय रहेशे. ते
द्वारा जैनसाहित्यसृष्टिमां आपे सोनगढने उज्ज्वळ बनाव्युं छे. जैनशासननी
आवी महान सेवा माटे आपने अनेक कोटि धन्यवाद घटे छे.
श्री समयसारादि महान परमागमोनां मूळ गाथासूत्रोनो अत्यंत
भाववाही गुजराती पद्यानुवाद पण आपे कर्या छे. आ उपरांत श्री
समवसरण-स्तुति तथा अन्य केटलांक अध्यात्म काव्योनी पण आपे रचना करी
छे. शास्त्रना गंभीर अर्थो उकेलवानी विलक्षण कुशाग्रबुद्धि, शास्त्रोक्त सूक्ष्म
अध्यात्म विषयोने शब्द-भावगंभीरता जाळवीने, सरस अने सुग्राह्यपणे
अनुवादमां रजू करवानी विशिष्ट कळा, वांचतां ज अध्यात्म प्रत्ये रुचि जागृत
करे एवी अध्यात्मरसभरी लेखनशैली, काव्यमां पण अध्यात्म उतारवानी
खास शक्ति वगेरे विशेषताओ आपनी अध्यात्मरसिकता प्रसिद्ध करे छे.
आपनी ए अध्यात्मरसिकतानुं अमो बधा सन्मान करीए छीए.
आत्मज्ञानपिपासु !
आप स्वभावथी ज गंभीर अने शांत छो, वैराग्यशाळी, सद्धर्म-
रुचिवंत तेम ज तत्त्वान्वेषक छो, संस्कृतभाषानुं विशाळ ज्ञान धरावो छो
तथा विशिष्ट क्षयोपशमवंत प्रतिभासंपन्न विद्वान छो. वळी आपे जैनशास्त्रोनुं
ऊंडुं चिंतन-मनन-अवधारण कर्युं छे. आम छतां आपनी आत्मज्ञान-

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पिपासा अत्यंत तीव्र छे, तेने माटे आपनो अविरत प्रयत्न छे. वैराग्य-
परायणतानी साथे आत्महितसाधना पण आप करी रह्या छो ते अत्यंत
प्रशंसनीय अने अनुकरणीय छे.
निस्पृह श्रुतभक्त !
महान परमागमोना अनुवादनुं जे शुभ कार्य आपना द्वारा थयुं छे
तेने अमो आपनुं महान सौभाग्य गणीए छीए. परमपूज्य सद्गुरुदेवना
आश्रय तळे आ गहन शास्त्रोनो अनुवाद आपे परमागम प्रत्येनी भक्तिथी
अने गुरुदेवनी प्रेरणाथी प्रेराईने, निज कल्याण अर्थे, भवभयथी डरतां डरतां
कर्यो छे. आवुं अजोड कार्य करवा छतां आपे कोई पण जातना बदलानी
आशा राखी नथी, एटलुं ज नहि पण अत्याग्रह करवा छतां कांई पण
बदलो स्वीकारवानी के अभिनंदनपत्र लेवानी पण आपे अनिच्छा ज दर्शावी
छे. तेथी अमारे आपनो उपकार मानीने ज संतोष करवो पडे छे. आपनी
श्रुतभक्ति निस्पृहताने लीधे विशेष शोभी ऊठे छे.
आपनी महान श्रुतभक्ति अने निस्पृहता, अध्यात्मरसिकता अने
मुमुक्षुता, वैराग्य अने विनयइत्यादि अनेक गुणोनी घणी ज प्रशंसापूर्वक
अमो आपने हार्दिक अभिनंदन आपीए छीए ने श्री कुंदकुंदप्रभुनां आ
रत्नचतुष्टयना अनुवादना फळमां आपने ‘अनंत चतुष्टयनी प्राप्ति
थाओएवी श्रुतदेवता प्रत्ये प्रार्थना करीए छीए.
आपना गुणानुरागी
श्री दिगम्बर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट, तथा
श्री समस्त दि. जैन मुमुक्षुमंडळ वती
रामजी माणेकचंद दोशी
प्रमुख
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पंचपरमागमना अनुवादक, कुंदकुंदभारतीना पनोता पुत्र,
ऊंडा आदर्श आत्मार्थी, पंडितरत्न, आदरणीय
श्री हिंमतलाल जेठालाल शाह प्रत्ये
उपकृतभावभीनो अहोभाव

प्रशममूर्ति भगवती पूज्य बहेनश्री चंपाबेनना वडील बंधु, प्रवचनसार परमागमना स्थायी प्रकाशन-पुरस्कर्ता पंडितरत्न श्री हिंमतभाइए—के जेमने भगवत्कुंदकुंदाचार्यप्रणीत परमागमोना गुजराती अनुवाद तथा तेना उपोद्घातथी व्यक्त थता तेमना अध्यात्मरसभीना ऊंडा आत्मार्थथी प्रभावित थइने परमकृपाळु पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीए अति प्रसन्नताथी ‘निकट मोक्षगामी’ तरीके बिरुदाव्या छे अने पूज्य बहेनश्रीना स्वानुभवविभूषित निर्मळ ज्ञानमां जेमना विषे ‘निकट भव्य’तानो तथा भूत, भविष्य अने वर्तमानना ‘विशिष्ट पुरुष’पणानो तथा जातिस्मरणज्ञानमां ‘जैनंद’ अथवा ‘जयंद’ नामना धार्मिक गुणोवाळा भाइ तरीके सम्यक् प्रतिभास अंतरथी आव्यो छे एवा आ पूर्वना संस्कारी, असाधारण व्यक्तित्वना धारक, ऊंडा आत्मार्थीए—निज आत्माना प्रयोजन अर्थे भगवत्कुंदकुंदाचार्यनां पंचपरमागमोनो—मूळ प्राकृत गाथाओनो गुजराती हरिगीत छंदमां तथा संस्कृत टीकाओनो गुजराती भाषामां—सीधो, सरळ अने भाववाही अनुवाद करीने समग्र मुमुक्षु समाज उपर महान महान उपकार कर्यो छे. ते अनुवादोनी शरुआत पहेलां तेमणे जे ‘उपोद्घात’ लख्या छे ते घणा ज तत्त्वगंभीर, अध्यात्मरसभरपूर, परमागमोना हार्दने स्पष्टपणे प्रकाशनार, ऊंडा अने आत्मार्थप्रेरक छे. तेमना जीवनमां परमागमो सहजपणे वणाइ गया होवाथी तेओ वारंवार कहे छे के—‘आत्मप्राप्तिनो पुरुषार्थ करवानो रस्तो प्राप्त करवो होय तो प्रवचनसार, समयसार आदि पंचपरमागमनो—मूळ शास्त्रनो —ऊंडाणथी अभ्यास करवो जोइए.’—ए एमनुं हृदय छे.

कुंदकुंदभारतीना पनोता पुत्र श्री हिंमतभाइ अध्यात्मरसिक, विद्वान अने ऊंडा आदर्श आत्मार्थी होवा उपरांत गंभीर, वैराग्यशाळी, शांत, ऊंडा तत्त्वचिंतक अने विवेकी सज्जन छे, तथा कवि पण छे. तेमणे पंचपरमागमोना गुजराती अनुवाद उपरांत पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामीनुं जीवनचरित्र, समयसार-स्तुति, सीमंधरजिन-स्तुति, जिनवाणी- स्तुति, समवसरण-स्तुति, सद्गुरुदेव-स्तुति, मानस्तंभ-स्तुति, पूज्य गुरुदेवश्री अने पूज्य बहेनश्री चंपाबेन विषे अध्यात्म तेम ज तत्त्वरसथी तरबोळ सुमधुर काव्यो वगेरे गद्यपद्यात्मक अनेक रचनाओ करी छे. आवां अनेक अध्यात्मरसपूर्ण काव्यो रचवानी


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आश्चर्यकारी कवित्वशक्ति तेमनामां सहज रहेली छे. आ भव्य रचनाओ द्वारा समग्र मुमुक्षु जगत खूब खूब उपकृत थयेल छे. आ माटे श्री हिंमतभाइनो जेटलो उपकृतभावभीनो आभार मानवामां आवे तेटलो ओछो छे. पंचपरमागम जेवां पवित्र शास्त्रोनो अनुवाद तेमणे संपूर्ण निःस्पृहभावे निजकल्याण अर्थे कर्यो छे. आ महान लोकोत्तर कार्य करवानुं परम सौभाग्य मळ्युं ते माटे तेओ खरेखर घणा ज अभिनंदनीय छे.

जेमनी अंतःपरिणति निरंतर शुद्धात्म-अभिमुख प्रगति करी रही छे एवा आ, पूज्य गुरुदेवश्री अने पूज्य बहेनश्री चंपाबेनना महान कृपापात्र, ऊंडा आदर्श आत्मार्थी पंडितरत्न श्री हिंमतलाल जेठालाल शाहनो—पूज्य गुरुदेवश्री अने पूज्य भगवती बहेनश्रीनी उपकारछायातळे—आपणने अमूल्य सत्समागम प्राप्त थयो छे ते आपणुं महान परम सौभाग्य छे. वर्तमान जेमनी अंतरंग दशा आत्मसाक्षात्कारना पुरुषार्थ तरफ सतत ढळी रही छे एवा आ ‘निकट मोक्षगामी’ अने ‘निकट भवी’ने आपणा सौनां शत शत हार्दिक अभिवादन.

आवा अनेक सद्गुणोना धारक, आपणा आदरणीय पंडितरत्न श्री हिंमतलाल जेठालाल शाह प्रत्ये उपकृतभावभीनो अहोभाव व्यक्त करवानुं सौभाग्य प्राप्त थयुं ते बदल अमे धन्यता अनुभवीए छीए. मागशर वद ८, वि. सं. २०५८,

भगवत्कुंदकुंद-‘आचार्यपदारोहण’ दिन

—प्रमुख तथा ट्रस्टीगण

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शास्त्रोना अर्थ करवानी पद्धति

व्यवहारनयनुं श्रद्धान छोडी निश्चयनयनुं श्रद्धान करवुं योग्य छे. व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्यने वा तेमना भावोने वा कारण-कार्यादिकने कोईने कोईमां मेळवी निरूपण करे छे, माटे एवा ज श्रद्धानथी मिथ्यात्व छे, तेथी तेनो त्याग करवो. तथा निश्चयनय तेमने ज यथावत् निरूपण करे छे, कोईने कोईमां मेळवतो नथी, माटे एवा ज श्रद्धानथी सम्यक्त्व थाय छे, तेथी तेनुं श्रद्धान करवुं.

प्रश्नःजो एम छे, तो जिनमार्गमां बंने नयोने ग्रहण करवानुं कह्युं छे केवी रीते?

उत्तरःजिनमार्गमां क्यांक तो निश्चयनयनी मुख्यताथी व्याख्यान छे, तेने तो ‘सत्यार्थ आम ज छे’ एम जाणवुं; तथा क्यांक व्यवहारनयनी मुख्यताथी व्याख्यान छे, तेने ‘आम छे नहि, निमित्तादिनी अपेक्षाए उपचार कर्यो छे’ एम जाणवुं. आ प्रमाणे जाणवानुं नाम ज बंने नयोनुं ग्रहण छे. परंतु बंने नयोना व्याख्यानने समान सत्यार्थ जाणी ‘आम पण छे अने आम पण छे’ एम भ्रमरूप प्रवर्तवा वडे तो बंने नयोने ग्रहण करवानुं कह्युं नथी.

प्रश्नःजो व्यवहारनय असत्यार्थ छे, तो तेनो उपदेश जिनमार्गमां शा माटे आप्यो? एक निश्चयनयनुं ज निरूपण करवुं हतुं?

उत्तरःआवो ज तर्क श्री समयसारमां कर्यो छे; त्यां आ उत्तर आप्यो छेः
जह ण वि सक्क मणज्जो अणज्जभासं विणा दु गाहेदुं
तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं ।।

अर्थःजेम अनार्यनेमलेच्छने मलेच्छभाषा विना अर्थ ग्रहण कराववानुं शक्य नथी, तेम व्यवहार विना परमार्थनो उपदेश अशक्य छे. तेथी व्यवहारनो उपदेश छे.

वळी आ ज सूत्रनी व्याख्यामां एम कह्युं छे के‘व्यवहारनयो नानुसर्तव्यः’ अर्थात निश्चयने अंगीकार कराववा माटे व्यवहार वडे उपदेश देवामां आवे छे, परंतु व्यवहारनय छे ते अंगीकार करवा योग्य नथी.

प्रश्नः(१) व्यवहार विना निश्चयनो उपदेश न थायए केवी रीते? तथा (२) व्यवहारनयने अंगीकार न करवोए केवी रीते?


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[ २७ ]

उत्तरः(१) निश्चयनयथी तो आत्मा परद्रव्यथी भिन्न, स्वभावोथी अभिन्न स्वयंसिद्ध वस्तु छे. तेने जेओ न ओळखे, तेमने एम ज कह्या करीए तो तेओ समजे नहि. तेथी तेमने समजाववा, व्यवहारनयथी शरीरादिक परद्रव्योनी सापेक्षता वडे नर-नारक- पृथ्वीकायादिरूप जीवना भेद कर्या, त्यारे ‘मनुष्य जीव छे’, ‘नारकी जीव छे’ इत्यादि प्रकारथी तेमने जीवनी ओळखाण थई; अथवा अभेद वस्तुमां भेद उपजावी ज्ञान-दर्शनादि गुण- पर्यायरूप जीवना भेद कर्या, त्यारे ‘जाणनारो जीव छे’, ‘देखनारो जीव छे’ इत्यादि प्रकारथी तेमने जीवनी ओळखाण थई. वळी निश्चयथी तो वीतरागभाव मोक्षमार्ग छे; पण तेने जेओ न ओळखे, तेमने एम ज कह्या करीए तो तेओ समजे नहि; तेथी तेमने समजाववा, व्यवहारनयथी तत्त्वार्थश्रद्धान-ज्ञानपूर्वक परद्रव्यनुं निमित्त मटाडवानी सापेक्षता वडे व्रत-शील- संयमादिरूप वीतरागभावना विशेषो दर्शाव्या, त्यारे तेमने वीतरागभावनी ओळखाण थई. आ ज प्रमाणे, अन्यत्र पण व्यवहार विना निश्चयनो उपदेश न थवानुं समजवुं.

(२) अहीं व्यवहारथी नर-नारकादि पर्यायने ज जीव कह्यो. तेथी कांई ते पर्यायने ज जीव न मानी लेवो. पर्याय तो जीव-पुद्गलना संयोगरूप छे. त्यां निश्चयथी जीवद्रव्य जुदुं छे; तेने ज जीव मानवो. जीवना संयोगथी शरीरादिकने पण जीव कह्यां ते कहेवामात्र ज छे. परमार्थे शरीरादिक जीव थतां नथी. आवुं ज श्रद्धान करवुं. बीजुं, अभेद आत्मामां ज्ञान-दर्शनादि भेद कर्या तेथी कांई तेमने भेदरूप ज न मानी लेवा; भेद तो समजाववा माटे छे. निश्चयथी आत्मा अभेद ज छे; तेने ज जीववस्तु मानवी. संज्ञा-संख्यादि भेद कह्या ते कहेवामात्र ज छे; परमार्थे तेओ जुदा जुदा छे नहि. आवुं ज श्रद्धान करवुं. वळी, परद्रव्यनुं निमित्त मटाडवानी अपेक्षाए व्रत-शील-संयमादिकने मोक्षमार्ग कह्यो तेथी कांई तेमने ज मोक्षमार्ग न मानी लेवा; कारण के परद्रव्यनां ग्रहण-त्याग आत्माने होय तो आत्मा परद्रव्यनो कर्ता-हर्ता थई जाय, पण कोई द्रव्य कोई द्रव्यने आधीन छे नहि. आत्मा तो पोताना भाव जे रागादिक छे तेमने छोडी वीतरागी थाय छे, माटे निश्चयथी वीतरागभाव ज मोक्षमार्ग छे. वीतरागभावोने अने व्रतादिकने कदाचित् कार्यकारणपणुं छे तेथी व्रतादिकने मोक्षमार्ग कह्या पण ते कहेवामात्र ज छे. परमार्थे बाह्यक्रिया मोक्षमार्ग नथी. आवुं ज श्रद्धान करवुं. आ ज प्रमाणे, अन्यत्र पण व्यवहारनयने अंगीकार न करवानुं समजी लेवुं.

प्रश्नःव्यवहारनय परने उपदेश करवामां ज कार्यकारी छे के पोतानुं पण प्रयोजन साधे छे?

उत्तरपोते पण ज्यांसुधी निश्चयनयथी प्ररूपित वस्तुने न ओळखे त्यांसुधी

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[ २८ ]

व्यवहारमार्ग वडे वस्तुनो निश्चय करे. तेथी नीचली दशामां पोताने पण व्यवहारनय कार्यकारी छे. परंतु व्यवहारने उपचारमात्र मानी तेना द्वारा वस्तुनुं श्रद्धान बराबर करवामां आवे तो ते कार्यकारी थाय, अने जो निश्चयनी माफक व्यवहार पण सत्यभूत मानी ‘वस्तु आम ज छे’ एवुं श्रद्धान करवामां आवे तो ते ऊलटो अकार्यकारी थई जाय. ए ज पुरुषार्थसिद्ध्युपायमां कह्युं छे

अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम्
व्यवहारमेव के वलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ।।
माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य
व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ।।

अर्थमुनिराज, अज्ञानीने समजाववा माटे असत्यार्थ जे व्यवहारनय तेने उपदेशे छे. जे केवळ व्यवहारने ज समजे छे, तेने तो उपदेश ज देवो योग्य नथी. जेवी रीते जे साचा सिंहने न समजे तेने तो बिलाडुं ज सिंह छे, तेवी रीते जे निश्चयने न समजे तेने तो व्यवहार ज निश्चयपणाने पामे छे.

श्री मोक्षमार्गप्रकाशक

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निश्चयव्यवहाराभास-अवलंबीओनुं निरूपण

हवे, निश्चय-व्यवहार बन्ने नयोना आभासने अवलंबे छे एवा मिथ्याद्रष्टिओनुं निरूपण करीए छीएः

कोई जीवो एम माने छे के जिनमतमां निश्चय अने व्यवहार बे नय कह्या छे माटे अमारे ते बन्नेनो अंगीकार करवो. आम विचारी, जे प्रमाणे केवळनिश्चयाभासना अवलंबीओनुं कथन कर्युं हतुं ते प्रमाणे तो तेओ निश्चयनो अंगीकार करे छे अने जे प्रमाणे केवळव्यवहाराभासना अवलंबीओनुं कथन कर्युं हतुं ते प्रमाणे व्यवहारनो अंगीकार करे छे. जोके ए प्रमाणे अंगीकार करवामां बन्ने नयोमां परस्पर विरोध छे, तोपण करे शुं? बन्ने नयोनुं साचुं स्वरूप तो भास्युं नथी अने जिनमतमां बे नय कह्या छे तेमांथी कोईने छोड्यो पण जतो नथी, तेथी भ्रमपूर्वक बन्ने नयोनुं साधन साधे छे. ते जीवो पण मिथ्याद्रष्टि जाणवा.

हवे तेमनी प्रवृत्तिनी विशेषता दर्शावीए छीएः -
अंतरंगमां पोते तो निर्धार करी यथावत् निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्गने ओळखेल नथी

परंतु जिन-आज्ञा मानी निश्चय-व्यवहाररूप बे प्रकारना मोक्षमार्ग माने छे. हवे मोक्षमार्ग तो कांई बे नथी, मोक्षमार्गनुं निरूपण बे प्रकारथी छे. ज्यां साचा मोक्षमार्गने मोक्षमार्ग निरूपण कर्यो छे ते निश्चयमोक्षमार्ग छे, अने ज्यां मोक्षमार्ग तो छे नहि परंतु मोक्षमार्गनुं निमित्त छे वा सहचारी छे, तेने उपचारथी मोक्षमार्ग कहीए ते व्यवहार- मोक्षमार्ग छे; कारण के निश्चय-व्यवहारनुं सर्वत्र एवुं ज लक्षण छे. साचुं निरूपण ते निश्चय, उपचार निरूपण ते व्यवहार. माटे निरूपणनी अपेक्षाए बे प्रकारे मोक्षमार्ग जाणवो. परंतु एक निश्चयमोक्षमार्ग छे तथा एक व्यवहारमोक्षमार्ग छे एम बे मोक्षमार्ग मानवा मिथ्या छे.

वळी तेओ निश्चय-व्यवहार बन्नेने उपादेय माने छे. ते पण भ्रम छे, कारण के निश्चय अने व्यवहारनुं स्वरूप तो परस्पर विरोध सहित छे...

श्री मोक्षमार्गप्रकाशक
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नमः श्रीसर्वज्ञवीतरागाय।
शास्त्र-स्वाध्यायनुं प्रारंभिक मंगलाचरण
G
ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः ।।।।
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलमलकलङ्का
मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ।।।।
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।।।
श्रीपरमगुरवे नमः, परम्पराचार्यगुरवे नमः ।।
सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं,
भव्यजीवमनःप्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं
शास्त्रं श्रीपंचास्तिकायसंग्रहनामधेयं, अस्य मूलग्रन्थकर्तारः
श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधर-
देवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य आचार्यश्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेव-
विरचितं, श्रोतारः सावधानतया शृण्वन्तु
।।
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ।।।।
सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम् ।।।।