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वान्तरसत्ता च । तत्र सर्वपदार्थसार्थव्यापिनी साद्रश्यास्तित्वसूचिका महासत्ता प्रोक्तै व । अन्या तु प्रतिनियतवस्तुवर्तिनी स्वरूपास्तित्वसूचिकाऽवान्तरसत्ता । तत्र महासत्ता- ऽवान्तरसत्तारूपेणाऽसत्ताऽवान्तरसत्ता च महासत्तारूपेणाऽसत्तेत्यसत्ता सत्तायाः । येन स्वरूपेणोत्पादस्तत्तथोत्पादैकलक्षणमेव, येन स्वरूपेणोच्छेदस्तत्तथोच्छेदैकलक्षणमेव, येन स्वरूपेण ध्रौव्यं तत्तथा ध्रौव्यैकलक्षणमेव, तत उत्पद्यमानोच्छिद्यमानावतिष्ठमानानां वस्तुनः स्वरूपाणां प्रत्येकं त्रैलक्षण्याभावादत्रिलक्षणत्वं त्रिलक्षणायाः । एकस्य वस्तुनः स्वरूपसत्ता नान्यस्य वस्तुनः स्वरूपसत्ता भवतीत्यनेकत्वमेकस्याः । प्रतिनियतपदार्थ- स्थिताभिरेव सत्ताभिः पदार्थानां प्रतिनियमो भवतीत्येकपदार्थस्थितत्वं सर्वपदार्थ- स्थितायाः । प्रतिनियतैकरूपाभिरेव सत्ताभिः प्रतिनियतैकरूपत्वं वस्तूनां भवतीत्येक- सूचवनारी महासत्ता (सामान्यसत्ता) तो कहेवाई ज गई. बीजी, प्रतिनिश्चित (-एकेक निश्चित) वस्तुमां रहेनारी, स्वरूप-अस्तित्वने सूचवनारी अवान्तरसत्ता (विशेषसत्ता) छे. (१) त्यां महासत्ता अवान्तरसत्तारूपे असत्ता छे अने अवान्तरसत्ता महासत्तारूपे असत्ता छे तेथी सत्ताने असत्ता छे (अर्थात् जे सामान्यविशेषात्मक सत्ता महासत्तारूप होवाथी ‘सत्ता’ छे ते ज अवान्तरसत्तारूप पण होवाथी ‘असत्ता’ पण छे). (२) जे स्वरूपे उत्पाद छे तेनुं (-ते स्वरूपनुं) ते रीते उत्पाद एक ज लक्षण छे, जे स्वरूपे व्यय छे तेनुं (-ते स्वरूपनुं) ते रीते व्यय एक ज लक्षण छे अने जे स्वरूपे ध्रौव्य छे तेनुं (ते स्वरूपनुं) ते रीते ध्रौव्य एक ज लक्षण छे तेथी वस्तुना ऊपजता, नष्ट थता अने ध्रुव रहेता स्वरूपोमांना प्रत्येकने त्रिलक्षणनो अभाव होवाथी त्रिलक्षणा(सत्ता)ने अत्रिलक्षणपणुं छे. (अर्थात् जे सामान्यविशेषात्मक सत्ता महासत्तारूप होवाथी ‘त्रिलक्षणा’ छे ते ज अहीं कहेली अवान्तरसत्तारूप पण होवाथी ‘अत्रिलक्षणा’ पण छे). (३) एक वस्तुनी स्वरूपसत्ता अन्य वस्तुनी स्वरूपसत्ता नथी तेथी एक (सत्ता)ने अनेकपणुं छे (अर्थात् जे सामान्यविशेषात्मक सत्ता महासत्तारूप होवाथी ‘एक’ छे ते ज अहीं कहेली अवान्तरसत्तारूप पण होवाथी ‘अनेक’ पण छे). (४) प्रतिनिश्चित (-व्यक्तिगत निश्चित) पदार्थमां स्थित सत्ताओ वडे ज पदार्थोनुं प्रतिनिश्चितपणुं (-भिन्न- भिन्न निश्चित व्यक्तित्व) होय छे तेथी सर्वपदार्थस्थित(सत्ता)ने एकपदार्थस्थितपणुं छे (अर्थात् जे सामान्यविशेषात्मक सत्ता महासत्तारूप होवाथी ‘सर्वपदार्थस्थित’ छे ते ज अहीं कहेली अवान्तरसत्तारूप पण होवाथी ‘एकपदार्थस्थित’ पण छे.) (५) प्रतिनिश्चित एक एक रूपवाळी सत्ताओ वडे ज वस्तुओनुं प्रतिनिश्चित एक एक रूप होय छे तेथी
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रूपत्वं सविश्वरूपायाः । प्रतिपर्यायनियताभिरेव सत्ताभिः प्रतिनियतैकपर्यायाणामानन्त्यं भवतीत्येकपर्यायत्वमनन्तपर्यायायाः । इति सर्वमनवद्यं सामान्यविशेषप्ररूपणप्रवणनय- द्वयायत्तत्वात्तद्देशनायाः ।।८।। सविश्वरूप(सत्ता)ने एकरूपपणुं छे (अर्थात् जे सामान्यविशेषात्मक सत्ता महासत्तारूप होवाथी ‘सविश्वरूप’ छे ते ज अहीं कहेली अवान्तरसत्तारूप पण होवाथी ‘एकरूप’ पण छे). (६) प्रत्येक पर्यायमां रहेली (व्यक्तिगत भिन्नभिन्न) सत्ताओ वडे ज प्रतिनिश्चित एक एक पर्यायोनुं अनंतपणुं थाय छे तेथी अनंतपर्यायमय(सत्ता)ने एकपर्यायमयपणुं छे (अर्थात् जे सामान्यविशेषात्मक सत्ता महासत्तारूप होवाथी ‘अनंतपर्यायमय’ छे ते ज अहीं कहेली अवान्तरसत्तारूप पण होवाथी ‘एकपर्यायमय’ पण छे).
आ रीते बधुं निरवद्य छे (अर्थात् उपर कहेलुं सर्व स्वरूप निर्दोष छे, निर्बाध छे, किंचित् विरोधवाळुं नथी) कारण के तेनुं (-सत्ताना स्वरूपनुं) कथन सामान्य अने विशेषना प्ररूपण प्रत्ये ढळता बे नयोने आधीन छे.
भावार्थः — सामान्यविशेषात्मक सत्तानां बे पडखां छेःएक पडखुं ते महासत्ता अने बीजुं पडखुं ते अवान्तरसत्ता. (१) महासत्ता अवान्तरसत्तारूपे असत्ता छे अने अवान्तरसत्ता महासत्तारूपे असत्ता छे; तेथी जो महासत्ताने ‘सत्ता’ कहीए तो अवान्तरसत्ताने ‘असत्ता’ कहेवाय. (२) महासत्ता उत्पाद, व्यय अने ध्रौव्य एवां त्रण लक्षणवाळी छे तेथी ते ‘त्रिलक्षणा’ छे. वस्तुना ऊपजता स्वरूपनुं उत्पाद ज एक लक्षण छे, नष्ट थता स्वरूपनुं व्यय ज एक लक्षण छे अने ध्रुव रहेता स्वरूपनुं ध्रौव्य ज एक लक्षण छे तेथी ते त्रण स्वरूपोमांना प्रत्येकनी अवान्तरसत्ता एक ज लक्षणवाळी होवाथी ‘अत्रिलक्षणा’ छे. (३) महासत्ता समस्त पदार्थसमूहमां ‘सत्, सत्, सत्’ एवुं समानपणुं दर्शावती होवाथी एक छे. एक वस्तुनी स्वरूपसत्ता बीजी कोई वस्तुनी स्वरूपसत्ता नथी, तेथी जेटली वस्तुओ तेटली स्वरूपसत्ताओ; माटे आवी स्वरूपसत्ताओ अथवा अवान्तरसत्ताओ ‘अनेक’ छे. (४) सर्व पदार्थो सत् छे तेथी महासत्ता ‘सर्व पदार्थोमां रहेली’ छे. व्यक्तिगत पदार्थोमां रहेली भिन्नभिन्न व्यक्तिगत सत्ताओ वडे ज पदार्थोनुं भिन्नभिन्न निश्चित व्यक्तित्व रही शके, तेथी ते ते पदार्थनी अवान्तरसत्ता ते ते ‘एक पदार्थमां ज स्थित’ छे. (५) महासत्ता समस्त वस्तुसमूहनां रूपो (स्वभावो) सहित छे तेथी ते ‘सविश्वरूप’ (सर्वरूपवाळी) छे. वस्तुनी सत्तानुं (कथंचित्) एक रूप होय तो ज ते वस्तुनुं निश्चित एक रूप (-चोक्कस एक स्वभाव)
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रही शके, तेथी प्रत्येक वस्तुनी अवान्तरसत्ता निश्चित ‘एक रूपवाळी’ ज छे. (६) महासत्ता सर्व पर्यायोमां रहेली छे तेथी ते ‘अनंतपर्यायमय’ छे. भिन्नभिन्न पर्यायोमां (कथंचित्) भिन्नभिन्न सत्ताओ होय तो ज एक एक पर्याय भिन्नभिन्न रहीने अनंत पर्यायो सिद्ध थाय, नहि तो पर्यायोनुं अनंतपणुं ज न रहे — एकपणुं थई जाय; माटे प्रत्येक पर्यायनी अवान्तरसत्ता ते ते ‘एक पर्यायमय’ ज छे.
आ रीते सामान्यविशेषात्मक सत्ता, महासत्तारूप तेम ज अवान्तरसत्तारूप होवाथी, (१) सत्ता पण छे अने असत्ता पण छे, (२) त्रिलक्षणा पण छे अने अत्रिलक्षणा पण छे, (३) एक पण छे अने अनेक पण छे, (४) सर्वपदार्थस्थित पण छे अने एकपदार्थस्थित पण छे. (५) सविश्वरूप पण छे अने एकरूप पण छे, (६) अनंतपर्यायमय पण छे अने एकपर्यायमय पण छे. ८.
अन्वयार्थः — [तान् तान् सद्भावपर्यायान्] ते ते सद्भावपर्यायोने [यत्] जे [द्रवति] द्रवे छे — [गच्छति] पामे छे, [तत्] तेने [द्रव्यं भणन्ति] (सर्वज्ञो) द्रव्य कहे छे — [सत्तातः अनन्यभूतं तु] के जे सत्ताथी अनन्यभूत छे.
टीकाः — अहीं सत्ताने अने द्रव्यने अर्थांतरपणुं (भिन्नपदार्थपणुं, अन्य- पदार्थपणुं) होवानुं खंडन कर्युं छे.
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सद्भावपर्यायान् स्वभावविशेषानित्यनुगतार्थया निरुक्त्या द्रव्यं व्याख्यातम् । द्रव्यं च लक्ष्यलक्षणभावादिभ्यः कथञ्चिद्भेदेऽपि वस्तुतः सत्ताया अपृथग्भूतमेवेति मन्तव्यम् । ततो यत्पूर्वं सत्त्वमसत्त्वं त्रिलक्षणत्वमत्रिलक्षणत्वमेकत्वमनेकत्वं सर्वपदार्थस्थितत्वमेक- पदार्थस्थितत्वं विश्वरूपत्वमेकरूपत्वमनन्तपर्यायत्वमेकपर्यायत्वं च प्रतिपादितं सत्ताया- स्तत्सर्वं तदनर्थान्तरभूतस्य द्रव्यस्यैव द्रष्टव्यम् । ततो न कश्चिदपि तेषु सत्ता- विशेषोऽवशिष्येत यः सत्तां वस्तुतो द्रव्यात्पृथक् व्यवस्थापयेदिति ।।९।।
विश्वरूपपणुं, एकरूपपणुं, अनंतपर्यायमयपणुं अने एकपर्यायमयपणुं कहेवामां आव्युं ते
बधुं सत्ताथी अनर्थांतरभूत ( – अभिन्नपदार्थभूत, अनन्यपदार्थभूत) द्रव्यने ज देखवुं
२. अहीं द्रव्यनी जे निरुक्ति करवामां आवी छे ते ‘द्रु’ धातुने अनुसरता ( – मळता) अर्थवाळी छे. ३. सत्ता लक्षण छे अने द्रव्य लक्ष्य छे.
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लक्षणम् । न चानेकान्तात्मकस्य द्रव्यस्य सन्मात्रमेव स्वं रूपं यतो लक्ष्यलक्षण- विभागाभाव इति । उत्पादव्ययध्रौव्याणि वा द्रव्यलक्षणम् । एकजात्यविरोधिनि क्रमभुवां भावानां संताने पूर्वभावविनाशः समुच्छेदः, उत्तरभावप्रादुर्भावश्च समुत्पादः, पूर्वोत्तरभावोच्छेदोत्पादयोरपि स्वजातेरपरित्यागो ध्रौव्यम् । तानि सामान्यादेशाद-
अन्वयार्थः — [यत्] जे [सल्लक्षणकम्] ‘सत्’लक्षणवाळुं छे, [उत्पादव्यय- ध्रुवत्वसंयुक्तम्] जे उत्पादव्ययध्रौव्यसंयुक्त छे [वा] अथवा [गुणपर्यायाश्रयम्] जे गुणपर्यायोनो आश्रय छे, [तद्] तेने [ सर्वज्ञाः ] सर्वज्ञो [द्रव्यं] द्रव्य [भणन्ति] कहे छे.
‘सत्’ द्रव्यनुं लक्षण छे. पूर्वोक्त लक्षणवाळी सत्ताथी द्रव्य अभिन्न होवाने लीधे ‘सत्’स्वरूप ज द्रव्यनुं लक्षण छे. वळी अनेकांतात्मक द्रव्यनुं सत्मात्र ज स्वरूप नथी के जेथी लक्ष्यलक्षणना विभागनो अभाव थाय. (सत्ताथी द्रव्य अभिन्न छे तेथी द्रव्यनुं जे सत्तारूप स्वरूप ते ज द्रव्यनुं लक्षण छे. प्रश्नः — जो सत्ता ने द्रव्य अभिन्न छे — सत्ता द्रव्यनुं स्वरूप ज छे, तो ‘सत्ता लक्षण छे अने द्रव्य लक्ष्य छे’ एवो विभाग कई रीते घटे छे? उत्तरः — अनेकांतात्मक द्रव्यनां अनंत स्वरूपो छे, तेमांथी सत्ता पण तेनुं एक स्वरूप छे; तेथी अनंतस्वरूपवाळुं द्रव्य लक्ष्य छे अने तेनुं सत्ता नामनुं स्वरूप लक्षण छे — एवो लक्ष्यलक्षणविभाग अवश्य घटे छे. आ रीते अबाधितपणे सत् द्रव्यनुं लक्षण छे.)
अथवा, उत्पादव्ययध्रौव्य द्रव्यनुं लक्षण छे. *एक जातिनो अविरोधक एवो जे क्रमभावी भावोनो प्रवाह तेमां पूर्व भावनो विनाश ते व्यय छे, उत्तर भावनो प्रादुर्भाव ( — पछीना भावनी एटले के वर्तमान भावनी उत्पत्ति) ते उत्पाद छे अने पूर्व-उत्तर भावोना व्यय-उत्पाद थतां पण स्वजातिनो अत्याग ते ध्रौव्य छे. ते उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य *द्रव्यमां क्रमभावी भावोनो प्रवाह एक जातिने खंडतो — तोडतो नथी अर्थात् जाति-अपेक्षाए सदा
एकपणुं ज राखे छे. पं. ४
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भिन्नानि विशेषादेशाद्भिन्नानि युगपद्भावीनि स्वभावभूतानि द्रव्यस्य लक्षणं भवन्तीति । गुणपर्याया वा द्रव्यलक्षणम् । अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनोऽन्वयिनो विशेषा गुणा व्यतिरेकिणः पर्यायास्ते द्रव्ये यौगपद्येन क्रमेण च प्रवर्तमानाः कथञ्चिद्भिन्नाः कथञ्चिदभिन्नाः स्वभावभूताः द्रव्यलक्षणतामापद्यन्ते । त्रयाणामप्यमीषां द्रव्यलक्षणा- नामेकस्मिन्नभिहितेऽन्यदुभयमर्थादेवापद्यते । सच्चेदुत्पादव्ययध्रौव्यवच्च गुणपर्यायवच्च । उत्पाद- व्ययध्रौव्यवच्चेत्सच्च गुणपर्यायवच्च । गुणपर्यायवच्चेत्सच्चोत्पादव्ययतध्रौव्यवच्चेति । सद्धि नित्या- नित्यस्वभावत्वाद्ध्रुवत्वमुत्पादव्ययात्मकतांच प्रथयति, ध्रुवत्वात्मकैर्गुणैरुत्पादव्ययात्मकैः पर्यायैश्च सहैकत्वञ्चाख्याति । उत्पादव्ययध्रौव्याणि तु नित्यानित्यस्वरूपं परमार्थं — के जेओ सामान्य आदेशे अभिन्न छे (अर्थात् सामान्य कथने द्रव्यथी अभिन्न छे), विशेष आदेशे (द्रव्यथी) भिन्न छे, युगपद् वर्ते छे अने स्वभावभूत छे तेओ — द्रव्यनुं लक्षण छे.
अथवा, गुणपर्यायो द्रव्यनुं लक्षण छे. अनेकांतात्मक वस्तुना +अन्वयी विशेषो ते गुणो छे अने व्यतिरेकी विशेषो ते पर्यायो छे. ते गुणपर्यायो (गुणो अने पर्यायो) — के जेओ द्रव्यमां एकीसाथे अने क्रमे प्रवर्ते छे, (द्रव्यथी) कथंचित् भिन्न ने कथंचित् अभिन्न छे तथा स्वभावभूत छे तेओ — द्रव्यनुं लक्षण छे.
द्रव्यनां आ त्रणे लक्षणोमांथी ( – सत्, उत्पादव्ययध्रौव्य अने गुणपर्यायो ए त्रण लक्षणोमांथी) एक कहेतां बाकीनां बंने (वगरकह्ये) अर्थथी ज आवी जाय छे. जो द्रव्य सत् होय, तो ते (१) उत्पादव्ययध्रौव्यवाळुं अने (२) गुणपर्यायवाळुं होय; जो उत्पादव्ययध्रौव्यवाळुं होय, तो ते (१) सत् अने (२) गुणपर्यायवाळुं होय; जो गुणपर्यायवाळुं होय, तो ते (१) सत् अने (२) उत्पादव्ययध्रौव्यवाळुं होय. ते आ प्रमाणेः — सत् नित्यानित्यस्वभाववाळुं होवाथी (१) ध्रौव्यने अने उत्पाद- व्ययात्मकताने जाहेर करे छे तथा (२) ध्रौव्यात्मक गुणो अने उत्पादव्ययात्मक पर्यायो साथे एकत्व दर्शावे छे. उत्पादव्ययध्रौव्य (१) नित्यानित्यस्वरूप १पारमार्थिक सत्ने +अन्वय ने व्यतिरेकना अर्थ माटे १३मा पाने पदटिप्पण जुओ. १. पारमार्थिक=वास्तविक; यथार्थ; खरुं. (वास्तविक सत् नित्यानित्यस्वरूप होय छे. उत्पादव्यय
सत्ने जणावे छे. आ रीते ‘द्रव्य उत्पादव्ययध्रौव्यवाळुं छे’ एम कहेतां ‘ते सत् छे’ एम पण
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सदावेदयन्ति, गुणपर्यायांश्चात्मलाभनिबन्धनभूतान् प्रथयन्ति । गुणपर्यायास्त्वन्वयव्यतिरेकि- त्वाद्ध्रौव्योत्पत्तिविनाशान् सूचयन्ति, नित्यानित्यस्वभावं परमार्थं सच्चोपलक्षयन्तीति ।।१०।।
अत्रोभयनयाभ्यां द्रव्यलक्षणं प्रविभक्त म् । जणावे छे तथा (२) १पोताना स्वरूपनी प्राप्तिना कारणभूत गुणपर्यायोने जाहेर करे छे, २गुणपर्यायो अन्वय अने व्यतिरेकवाळा होवाथी (१) ध्रौव्यने अने उत्पादव्ययने सूचवे छे तथा (२) नित्यानित्यस्वभाववाळा पारमार्थिक सत्ने जणावे छे.
भावार्थः — द्रव्यनां त्रण लक्षणो छेःसत्, उत्पादव्ययध्रौव्य अने गुणपर्यायो. आ त्रणे लक्षणो परस्पर अविनाभावी छे; ज्यां एक होय त्यां बाकीनां बंने नियमथी होय छे. १०.
अन्वयार्थः — [द्रव्यस्य च] द्रव्यनो [उत्पत्तिः] उत्पाद [वा] के [विनाशः] विनाश [न अस्ति] नथी, [सद्भावः अस्ति] सद्भाव छे. [तस्य एव पर्यायाः] तेना ज पर्यायो [विगमोत्पादध्रुवत्वं] विनाश, उत्पाद अने ध्रुवता [कुर्वन्ति] करे छे.
टीकाः — अहीं बन्ने नयो वडे द्रव्यनुं लक्षण विभक्त कर्युं छे (अर्थात्) बे नयोनी १. पोताना=उत्पादव्ययध्रौव्यना. (जो गुण होय तो ज ध्रौव्य होय अने जो पर्यायो होय तो ज
उत्पादव्यय होय; माटे जो गुणपर्यायो न होय तो उत्पादव्ययध्रौव्य पोताना स्वरूपने पामी शके ज नहि. आ रीते ‘द्रव्य उत्पादव्ययध्रौव्यवाळुं छे’ एम कहेता ते गुणपर्यायवाळुं पण जाहेर थई जाय छे.) २. प्रथम तो, गुणपर्यायो अन्वय द्वारा ध्रौव्यने सूचवे छे अने व्यतिरेक द्वारा उत्पादव्ययने सूचवे छे;
अने व्यतिरेक द्वारा अनित्यताने जणावे छे; आ रीते तेओ नित्यानित्यस्वरूप सत्ने जणावे छे.
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द्रव्यस्य हि सहक्रमप्रवृत्तगुणपर्यायसद्भावरूपस्य त्रिकालावस्थायिनोऽनादि- निधनस्य न समुच्छेदसमुदयौ युक्तौ । अथ तस्यैव पर्यायाणां सहप्रवृत्तिभाजां केषांचित् ध्रौव्यसंभवेऽप्यपरेषां क्रमप्रवृत्तिभाजां विनाशसंभवसंभावनमुपपन्नम् । ततो द्रव्यार्थार्पणायामनुत्पादमनुच्छेदं सत्स्वभावमेव द्रव्यं, तदेव पर्यायार्थार्पणायां सोत्पादं सोच्छेदं चावबोद्धव्यम् । सर्वमिदमनवद्यञ्च द्रव्यपर्यायाणामभेदात् ।।११।।
अत्र द्रव्यपर्यायाणामभेदो निर्दिष्टः । अपेक्षाथी द्रव्यना लक्षणना बे विभाग पाडवामां आव्या छे).
सहवर्ती गुणो अने क्रमवर्ती पर्यायोना सद्भावरूप, त्रिकाळ-अवस्थायी (त्रणे काळे टकनारा), अनादि-अनंत द्रव्यना विनाश ने उत्पाद उचित नथी. परंतु तेना ज पर्यायोना — सहवर्ती केटलाक(पर्यायो)नुं ध्रौव्य होवा छतां पण बीजा क्रमवर्ती(पर्यायो)ना — विनाश ने उत्पाद थवा घटे छे. माटे द्रव्य द्रव्यार्थिक आदेशथी (-कथनथी) उत्पाद विनानुं, विनाश विनानुं, सत्स्वभाववाळुं ज जाणवुं अने ते ज (द्रव्य) पर्यायार्थिक आदेशथी उत्पादवाळुं अने विनाशवाळुं जाणवुं.
— आ बधुं निरवद्य ( – निर्दोष, निर्बाध, अविरुद्ध) छे, कारण के द्रव्य अने पर्यायोनो अभेद (-अभिन्नपणुं) छे. ११.
अन्वयार्थः — [पर्ययवियुतं] पर्यायो रहित [द्रव्यं] द्रव्य [च] अने [द्रव्यवियुक्ताः] द्रव्य रहित [पर्यायाः] पर्यायो [न सन्ति] होतां नथी; [द्वयोः] बन्नेनो [अनन्यभूतं भावं] अनन्यभाव (-अनन्यपणुं) [श्रमणाः] श्रमणो [प्ररूपयन्ति] प्ररूपे छे.
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दुग्धदधिनवनीतघृतादिवियुतगोरसवत्पर्यायवियुतं द्रव्यं नास्ति । गोरसवियुक्त दुग्धदधि- नवनीतघृतादिवद्द्रव्यवियुक्ताः पर्याया न सन्ति । ततो द्रव्यस्य पर्यायाणां चादेशवशात्कथंचिद्- भेदेऽप्येकास्तित्वनियतत्वादन्योन्याजहद्वृत्तीनां वस्तुत्वेनाभेद इति ।।१२।।
जेम दूध, दहीं, माखण, घी इत्यादिथी रहित गोरस होतुं नथी तेम पर्यायोथी रहित द्रव्य होतुं नथी; जेम गोरसथी रहित दूध, दहीं, माखण, घी इत्यादि होतां नथी तेम द्रव्यथी रहित पर्यायो होता नथी. तेथी, जोके द्रव्य अने पर्यायोनो आदेशवशात् (-कथनने वश) कथंचित् भेद छे तोपण, तेओ एक अस्तित्वमां नियत (-द्रढपणे रहेलां) होवाने लीधे *अन्योन्यवृत्ति नहि छोडतां होवाथी वस्तुपणे तेमनो अभेद छे. १२.
अन्वयार्थः — [द्रव्येण विना] द्रव्य विना [गुणाः न] गुणो होता नथी, [गुणैः विना] गुणो विना [द्रव्यं न सम्भवति] द्रव्य होतुं नथी; [तस्मात्] तेथी [द्रव्यगुणानाम्] द्रव्य अने गुणोनो [अव्यतिरिक्तः भावः] अव्यतिरिक्तभाव (-अभिन्नपणुं) [भवति] छे.
जेम पुद्गलथी पृथक् स्पर्श-रस-गंध-वर्ण होतां नथी तेम द्रव्य विना गुणो होता नथी; जेम स्पर्श-रस-गंध-वर्णथी पृथक् पुद्गल होतुं नथी तेम गुणो विना द्रव्य होतुं *अन्योन्यवृत्ति=एकबीजाना आश्रये नभवुं ते; एकबीजाना आधारे टकवुं ते; एकबीजाने लीधे हयात
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गंधवर्णपृथग्भूतपुद्गलवर्द्गुणैर्विना द्रव्यं न सम्भवति । ततो द्रव्यगुणानामप्यादेशवशात् कथंचिद्- भेदेऽप्येकास्तित्वनियतत्वादन्योन्याजहद्वृत्तीनां वस्तुत्वेनाभेद इति ।।१३।।
स्यादस्ति चावक्त व्यं च द्रव्यं, स्यान्नास्ति चावक्त व्यं च द्रव्यं, स्यादस्ति च नास्ति चावक्त व्यं नथी. तेथी, जोके द्रव्य अने गुणोनो आदेशवशात् कथंचित् भेद छे तोपण, तेओ एक अस्तित्वमां नियत होवाने लीधे अन्योन्यवृत्ति नहि छोडतां होवाथी वस्तुपणे तेमनो पण अभेद छे (अर्थात् द्रव्य अने पर्यायोनी माफक द्रव्य अने गुणोनो पण वस्तुपणे अभेद छे). १३.
अन्वयार्थः — [द्रव्यं] द्रव्य [आदेशवशेन] आदेशवशात् (-कथनने वश) [खलु] खरेखर [स्यात् अस्ति] स्यात् अस्ति, [नास्ति] स्यात् नास्ति, [उभयम्] स्यात् अस्ति- नास्ति, [अवक्तव्यम्] स्यात् अवक्तव्य [पुनः च] अने वळी [तत्त्रितयम्] अवक्तव्यतायुक्त त्रण भंगवाळुं ( – स्यात् अस्ति-अवक्तव्य, स्यात् नास्ति-अवक्तव्य अने स्यात् अस्ति- नास्ति-अवक्तव्य) — [सप्तभङ्गम्] एम सात भंगवाळुं [सम्भवति] छे.
(१) द्रव्य ‘स्यात् अस्ति’ छे; (२) द्रव्य ‘स्यात् नास्ति’ छे; (३) द्रव्य ‘स्यात् अस्ति अने नास्ति’ छे; (४) द्रव्य ‘स्यात् अवक्तव्य’ छे; (५) द्रव्य ‘स्यात् अस्ति अने अवक्तव्य’ छे; (६) द्रव्य ‘स्यात् नास्ति अने अवक्तव्य’ छे; (७) द्रव्य ‘स्यात् अस्ति, नास्ति अने अवक्तव्य’ छे.
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च द्रव्यमिति । अत्र सर्वथात्वनिषेधकोऽनेकान्तद्योतकः कथंचिदर्थे स्याच्छब्दो निपातः । तत्र स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैरादिष्टमस्ति द्रव्यं, परद्रव्यक्षेत्रकालभावैरादिष्टं नास्ति द्रव्यं, स्वद्रव्य- क्षेत्रकालभावैः परद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्च क्रमेणादिष्टमस्ति च नास्ति च द्रव्यं, स्वद्रव्य- क्षेत्रकालभावैः परद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्च युगपदादिष्टमवक्त व्यं द्रव्यं, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावै- र्युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्चादिष्टमस्ति चावक्त व्यं च द्रव्यं, परद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्युगपत्स्व- परद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्चादिष्टं नास्ति चावक्त व्यं च द्रव्यं, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैः परद्रव्यक्षेत्रकाल- भावैश्च युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्चादिष्टमस्ति च नास्ति चावक्त व्यं च द्रव्यमिति
न चैतदनुपपन्नम्, सर्वस्य वस्तुनः स्वरूपादिना अशून्यत्वात्, पररूपादिना शून्यत्वात्,
अहीं (सप्तभंगीमां) सर्वथापणानो निषेधक, अनेकांतनो द्योतक ‘*स्यात्’ शब्द ‘कथंचित्’ एवा अर्थमां अव्ययरूपे वपरायो छे. त्यां — (१) द्रव्य स्वद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावे कहेवामां आवतां ‘अस्ति’ छे; (२) द्रव्य परद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावे कहेवामां आवतां ‘नास्ति’ छे; (३) द्रव्य स्वद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावे अने परद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावे क्रमथी कहेवामां आवतां ‘अस्ति अने नास्ति’ छे; (४) द्रव्य स्वद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावे अने परद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावे युगपद् कहेवामां आवतां ‘१अवक्तव्य’ छे; (५) द्रव्य स्वद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावे अने युगपद् स्वपरद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावे कहेवामां आवतां ‘अस्ति अने अवक्तव्य’ छे; (६) द्रव्य परद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावे अने युगपद् स्वपरद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावे कहेवामां आवतां ‘नास्ति अने अवक्तव्य’ छे; (७) द्रव्य स्वद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावे, परद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावे अने युगपद् स्वपरद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावे कहेवामां आवतां ‘अस्ति, नास्ति अने अवक्तव्य’ छे. — आ (उपरोक्त वात) अयोग्य नथी, कारण के सर्व वस्तु (१) स्वरूपादिथी ‘२अशून्य’ छे, (२) पररूपादिथी ‘३शून्य’ छे, (३) बन्नेथी (स्वरूपादिथी अने पररूपादिथी) ‘अशून्य अने शून्य’ छे, (४) बन्नेथी (स्वरूपादिथी अने पररूपादिथी) एकीसाथे ‘अवाच्य’ छे, भंगोना संयोगथी कथन करतां (५) ‘अशून्य अने अवाच्य’ *स्यात्=कथंचित्; कोई प्रकारे; कोई अपेक्षाए. (‘स्यात्’ शब्द सर्वथापणाने निषेधे छे अने अनेकांतने
प्रकाशे छे — दर्शावे छे.) १. अवक्तव्य=कही शकाय नहि एवुं; अवाच्य. (एकीसाथे स्वचतुष्टय तेम ज परचतुष्टयनी अपेक्षाथी
द्रव्य कथनमां आवी शकतुं नथी तेथी ‘अवक्तव्य’ छे.) २. अशून्य=शून्य नहि एवुं; हयात; सत्. ३. शून्य=नहि हयात एवुं; असत्.
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उभाभ्यामशून्यशून्यत्वात्, सहावाच्यत्वात्, भङ्गसंयोगार्पणायामशून्यावाच्यत्वात्, शून्यावाच्य- त्वात्, अशून्यशून्यावाच्यत्वाच्चेति ।।१४।।
अत्रासत्प्रादुर्भावत्वमुत्पादस्य सदुच्छेदत्वं विगमस्य निषिद्धम् । छे, (६) ‘शून्य अने अवाच्य’ छे, (७) ‘अशून्य, शून्य अने अवाच्य’ छे.
भावार्थः — (१) द्रव्य *स्वचतुष्टयनी अपेक्षाथी ‘छे’. (२) द्रव्य परचतुष्टयनी अपेक्षाथी ‘नथी’. (३) द्रव्य क्रमशः स्वचतुष्टयनी अने परचतुष्टयनी अपेक्षाथी ‘छे अने नथी’. (४) द्रव्य युगपद् स्वचतुष्टयनी अने परचतुष्टयनी अपेक्षाथी ‘अवक्तव्य छे.’ (५) द्रव्य स्वचतुष्टयनी अने युगपद् स्वपरचतुष्टयनी अपेक्षाथी ‘छे अने अवक्तव्य छे.’ (६) द्रव्य परचतुष्टयनी अने युगपद् स्वपरचतुष्टयनी अपेक्षाथी ‘नथी अने अवक्तव्य छे.’ (७) द्रव्य स्वचतुष्टयनी, परचतुष्टयनी अने युगपद् स्वपरचतुष्टयनी अपेक्षाथी ‘छे, नथी अने अवक्तव्य छे’. — ए प्रमाणे अहीं सप्तभंगी कहेवामां आवी. १४.
अन्वयार्थः — [भावस्य] भावनो (सत्नो) [नाशः] नाश [न अस्ति] नथी [च एव] तेम ज [अभावस्य] अभावनो (असत्नो) [उत्पादः] उत्पाद [न अस्ति] नथी; [भावाः] भावो (सत् द्रव्यो) [गुणपर्यायेषु] गुणपर्यायोमां [उत्पादव्ययान्] उत्पादव्यय [प्रकुर्वन्ति] करे छे.
टीकाः — अहीं उत्पादने विषे असत्नो प्रादुर्भाव होवानुं अने व्ययने विषे *स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाळ अने स्वभावने स्वचतुष्टय कहेवामां आवे छे. स्वद्रव्य एटले निज गुणपर्यायोना आधारभूत वस्तु पोते; स्वक्षेत्र एटले वस्तुनो निज विस्तार अर्थात् स्वप्रदेशसमूह;
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भावस्य सतो हि द्रव्यस्य न द्रव्यत्वेन विनाशः, अभावस्यासतोऽन्यद्रव्यस्य न द्रव्यत्वेनोत्पादः । किन्तु भावाः सन्ति द्रव्याणि सदुच्छेदमसदुत्पादं चान्तरेणैव गुणपर्यायेषु विनाशमुत्पादं चारभन्ते । यथा हि घृतोत्पत्तौ गोरसस्य सतो न विनाशः न चापि गोरसव्यतिरिक्त स्यार्थान्तरस्यासतः उत्पादः किन्तु गोरसस्यैव सदुच्छेदमसदुत्पादं चानुपलभ- मानस्य स्पर्शरसगन्धवर्णादिषु परिणामिषु गुणेषु पूर्वावस्थया विनश्यत्सूत्तरावस्थया प्रादुर्भवत्सु नश्यति च नवनीतपर्यायो घृतपर्याय उत्पद्यते, तथा सर्वभावानामपीति ।।१५।।
सत्नो विनाश होवानुं निषेध्युं छे (अर्थात् उत्पाद थतां कांई असत्नी उत्पत्ति थती नथी अने व्यय थतां कांई सत्नो विनाश थतो नथी एम आ गाथामां कह्युं छे).
भावनो — सत् द्रव्यनो — द्रव्यपणे विनाश नथी, अभावनो — असत् अन्य- द्रव्यनो — द्रव्यपणे उत्पाद नथी; परंतु भावो — सत् द्रव्यो, सत्ना विनाश अने असत्ना उत्पाद विना ज, गुणपर्यायोमां विनाश अने उत्पाद करे छे. जेवी रीते घीनी उत्पत्तिने विषे गोरसनो — सत्नो — विनाश नथी तेम ज गोरसथी भिन्न पदार्थांतरनो — असत्नो — उत्पाद नथी, परंतु गोरसने ज, सत्नो विनाश अने असत्नो उत्पाद कर्या विना ज, पूर्व अवस्थाथी विनाश पामता अने उत्तर अवस्थाथी उत्पन्न थता स्पर्श-रस-गंध- वर्णादिक परिणामी गुणोमां माखणपर्याय विनाश पामे छे अने घीपर्याय उत्पन्न थाय छे; तेवी रीते सर्व भावोनुं पण तेम ज छे [अर्थात् बधां द्रव्योने नवीन पर्यायनी उत्पत्तिने विषे सत्नो विनाश नथी तेम ज असत्नो उत्पाद नथी, परंतु सत्नो विनाश अने असत्नो उत्पाद कर्या विना ज, पहेलांनी (जूनी) अवस्थाथी विनाश पामता अने पछीनी (नवीन) अवस्थाथी उत्पन्न थता *परिणामी गुणोमां पहेलांनो पर्याय विनाश पामे छे अने पछीनो पर्याय उत्पन्न थाय छे]. १५.
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वक्ष्यमाणोदाहरणप्रसिद्धयर्थमभिधीयन्ते । गुणा हि जीवस्य ज्ञानानुभूतिलक्षणा शुद्धचेतना, कार्यानुभूतिलक्षणा कर्मफलानुभूतिलक्षणा चाशुद्धचेतना, चैतन्यानुविधायिपरिणामलक्षणः सविकल्पनिर्विकल्परूपः शुद्धाशुद्धतया सकलविकलतां दधानो द्वेधोपयोगश्च । पर्याया-
अन्वयार्थः — [जीवाद्याः] जीवादि (द्रव्यो) ते [भावाः] ‘भावो’ छे. [जीवगुणाः] जीवना गुणो [चेतना च उपयोगः] चेतना तथा उपयोग छे [च] अने [जीवस्य पर्यायाः] जीवना पर्यायो [सुरनरनारकतिर्यञ्चः] देव-मनुष्य-नारक-तिर्यंचरूप [बहवः] घणा छे.
जीवादि छ पदार्थो ते ‘भावो’ छे. तेमना गुणो अने पर्यायो प्रसिद्ध छे, तोपण १आगळ (हवेनी गाथामां) जे उदाहरण कहेवानुं छे तेनी प्रसिद्धि अर्थे जीवना गुणो अने पर्यायो कहेवामां आवे छेः —
जीवना गुणो २ज्ञानानुभूतिस्वरूप शुद्धचेतना तथा कार्यानुभूतिस्वरूप ने कर्म- फळानुभूतिस्वरूप अशुद्धचेतना छे अने ३चैतन्यानुविधायी-परिणामस्वरूप, सविकल्प- निर्विकल्परूप, शुद्धता-अशुद्धताने लीधे सकळता-विकळता धरतो, बे प्रकारनो उपयोग छे १. हवेनी गाथामां जीवनी वात उदाहरण तरीके लेवानी छे; माटे ते उदाहरणने प्रसिद्ध (जाणीतुं)
करवा माटे अहीं जीवना गुणो अने पर्यायो कहेवामां आव्या छे. २. शुद्धचेतना ज्ञाननी अनुभूतिस्वरूप छे अने अशुद्धचेतना कर्मनी तेम ज कर्मफळनी अनुभूति-
स्वरूप छे. ३. चैतन्य-अनुविधायी परिणाम अर्थात् चैतन्यने अनुसरतो परिणाम ते उपयोग छे. सविकल्प उपयोगने
ज शुद्ध होवाथी सकळ (अखंड, परिपूर्ण) छे अने बीजा बधा अशुद्ध होवाथी विकळ (खंडित,
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स्त्वगुरुलघुगुणहानिवृद्धिनिर्वृत्ताः शुद्धाः, सूत्रोपात्तास्तु सुरनारकतिर्यङ्मनुष्यलक्षणाः परद्रव्य- सम्बन्धनिर्वृत्तत्वादशुद्धाश्चेति ।।१६।।
धिना मनुष्यत्वलक्षणेन पर्यायेण विनश्यति जीवः, तथाविधेन देवत्वलक्षणेन (अर्थात् जीवना *गुणो शुद्ध-अशुद्ध चेतना तथा बे प्रकारनो उपयोग छे).
जीवना पर्यायो आ प्रमाणे छेः अगुरुलघुगुणनी हानिवृद्धिथी रचाता पर्यायो शुद्ध पर्यायो छे अने सूत्रमां ( – आ गाथामां) कहेला, देव-नारक-तिर्यंच-मनुष्यस्वरूप पर्यायो परद्रव्यना संबंधथी रचाता होवाथी अशुद्ध पर्यायो छे. १६.
अन्वयार्थः — [मनुष्यत्वेन] मनुष्यपणाथी [नष्टः] नष्ट थयेलो [देही] देही (जीव) [देवः वा इतरः] देव अथवा अन्य [भवति] थाय छे; [उभयत्र] ते बन्नेमां [जीवभावः] जीवभाव [न नश्यति] नष्ट थतो नथी अने [अन्यः] बीजो जीवभाव [न जायते] उत्पन्न थतो नथी.
टीकाः — ‘भावनो नाश थतो नथी अने अभावनो उत्पाद थतो नथी’ तेनुं आ उदाहरण छे.
प्रत्येक समये थती अगुरुलघुगुणनी हानिवृद्धिथी रचाता स्वभावपर्यायोनी संततिनो विच्छेद नहि करनारा एक सोपाधिक मनुष्यत्वस्वरूप पर्यायथी जीव विनाश पामे छे अने तथाविध ( – स्वभावपर्यायोना प्रवाहने नहि तोडनारा सोपाधिक) *पर्यायार्थिक नये गुणो पण परिणामी छे. (१५मी गाथानी टीका जुओ.)
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नारकतिर्यक्त्वलक्षणेन वान्येन पर्यायेणोत्पद्यते । न च मनुष्यत्वेन नाशे जीवत्वेनापि नश्यति, देवत्वादिनोत्पादे जीवत्वेनाप्युत्पद्यते; किन्तु सदुच्छेदमसदुत्पादमन्तरेणैव तथा विवर्तत इति ।।१७।।
मानं च द्रव्यमालक्ष्यते, तदेव तथाविधोभयावस्थाव्यापिना प्रतिनियतैकवस्तुत्वनिबन्धनभूतेन देवत्वस्वरूप, नारकत्वस्वरूप के तिर्यंचत्वस्वरूप अन्य पर्यायथी ऊपजे छे. त्यां एम नथी के मनुष्यपणाथी नाश थतां जीवपणाथी पण नष्ट थाय छे अने देवपणा वगेरेथी उत्पाद थतां जीवपणाथी पण उत्पन्न थाय छे, परंतु सत्ना उच्छेद अने असत्ना उत्पाद विना ज ते प्रमाणे विवर्तन ( – परिवर्तन, परिणमन) करे छे. १७.
अन्वयार्थः — [सः च एव] ते ज [याति] जन्मे छे अने [मरणं याति] मरण पामे छे छतां [न एव उत्पन्नः] ते उत्पन्न थतो नथी [च] अने [न नष्टः] नष्ट थतो नथी; [देवः मनुष्यः] देव, मनुष्य [इति पर्यायः] एवो पर्याय [उत्पन्नः] उत्पन्न थाय छे [च] अने [विनष्टः] विनष्ट थाय छे.
टीकाः — अहीं, द्रव्य कथंचित् व्यय अने उत्पादवाळुं होवा छतां तेनुं सदा अविनष्टपणुं अने अनुत्पन्नपणुं कह्युं छे.
जे द्रव्य १पूर्व पर्यायना वियोगथी अने २उत्तर पर्यायना संयोगथी थती उभय अवस्थाने आत्मसात् (पोतारूप) करतुं थकुं विनाश पामतुं अने ऊपजतुं जोवामां आवे १. पूर्व=पहेलांना २.उत्तर=पछीना
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स्वभावेनाविनष्टमनुत्पन्नं वा वेद्यते । पर्यायास्तु तस्य पूर्वपूर्वपरिणामोपमर्दोत्तरोत्तरपरिणामो- त्पादरूपाः प्रणाशसम्भवधर्माणोऽभिधीयन्ते । ते च वस्तुत्वेन द्रव्यादपृथग्भूता एवोक्ताः । ततः पर्यायैः सहैकवस्तुत्वाज्जायमानं म्रियमाणमपि जीवद्रव्यं सर्वदानुत्पन्नाविनष्टं द्रष्टव्यम् । देव- मनुष्यादिपर्यायास्तु क्रमवर्तित्वादुपस्थितातिवाहितस्वसमया उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चेति ।।१८।।
अत्र सदसतोरविनाशानुत्पादौ स्थितिपक्षत्वेनोपन्यस्तौ । छे, ते ज (द्रव्य) तेवी उभय अवस्थामां व्यापनारो जे प्रतिनियत-एक-वस्तुत्वना कारणभूत स्वभाव तेना वडे ( – ते स्वभावनी अपेक्षाए) अविनष्ट अने अनुत्पन्न जणाय छे; तेना पर्यायो पूर्व पूर्व परिणामना नाशरूप अने उत्तर उत्तर परिणामना उत्पादरूप होवाथी विनाश – उत्पादधर्मवाळा ( – विनाश ने उत्पादरूप धर्मवाळा) कहेवामां आवे छे, अने तेओ (पर्यायो) वस्तुपणे द्रव्यथी अपृथग्भूत ज कहेवामां आव्या छे. तेथी, पर्यायो साथे एकवस्तुपणाने लीधे जन्मतुं अने मरतुं होवा छतां जीवद्रव्य सर्वदा अनुत्पन्न अने अविनष्ट ज देखवुं ( – श्रद्धवुं); देव-मनुष्यादि पर्यायो ऊपजे छे अने विनाश पामे छे कारण के तेओ क्रमवर्ती होवाथी तेमनो स्वसमय उपस्थित थाय छे अने वीती जाय छे. १८.
अन्वयार्थः — [एवं] ए रीते [जीवस्य] जीवने [ सतः विनाशः ] सत्नो विनाश अने [असतः उत्पादः] असत्नो उत्पाद [न अस्ति] नथी; (‘देव जन्मे छे ने मनुष्य मरे छे’ एम कहेवाय छे तेनुं ए कारण छे के) [जीवानाम्] जीवोने [देवः मनुष्यः] देव, मनुष्य [इति गतिनाम] एवुं गतिनामकर्म [तावत्] तेटला ज काळनुं होय छे.
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यदि हि जीवो य एव म्रियते स एव जायते, य एव जायते स एव म्रियते, तदैवं सतो विनाशोऽसत उत्पादश्च नास्तीति व्यवतिष्ठते । यत्तु देवो जायते मनुष्यो म्रियते इति व्यपदिश्यते तदवधृतकालदेवमनुष्यत्वपर्यायनिर्वर्तकस्य देवमनुष्यगतिनाम्न- स्तन्मात्रत्वादविरुद्धम् । यथा हि महतो वेणुदण्डस्यैकस्य क्रमवृत्तीन्यनेकानि पर्वाण्यात्मी- यात्मीयप्रमाणावच्छिन्नत्वात् पर्वान्तरमगच्छन्ति स्वस्थानेषु भावभाञ्जि परस्थानेष्वभावभाञ्जि भवन्ति, वेणुदण्डस्तु सर्वेष्वपि पर्वस्थानेषु भावभागपि पर्वान्तरसम्बन्धेन पर्वान्तर- सम्बन्धाभावादभावभाग्भवति; तथा निरवधित्रिकालावस्थायिनो जीवद्रव्यस्यैकस्य क्रमवृत्तयो- ऽनेके मनुष्यत्वादिपर्याया आत्मीयात्मीयप्रमाणावच्छिन्नत्वात् पर्यायान्तरमगच्छन्तः स्वस्थानेषु भावभाजः परस्थानेष्वभावभाजो भवन्ति, जीवद्रव्यं तु सर्वपर्यायस्थानेषु भावभागपि पर्यायान्तरसम्बन्धेन पर्यायान्तरसम्बन्धाभावादभावभाग्भवति ।।१९।। छे (अर्थात् ध्रुवतानी अपेक्षाए सत्नो विनाश के असत्नो उत्पाद थतो नथी एम आ गाथामां कह्युं छे).
जो खरेखर जे जीव मरे छे ते ज जन्मे छे, जे जीव जन्मे छे ते ज मरे छे, तो ए रीते सत्नो विनाश अने असत्नो उत्पाद नथी एम नक्की थाय छे. अने ‘देव जन्मे छे ने मनुष्य मरे छे’ एम जे कहेवामां आवे छे ते (पण) अविरुद्ध छे कारण के मर्यादित काळना देवत्वपर्याय अने मनुष्यत्वपर्यायने रचनारां देवगतिनामकर्म अने मनुष्यगतिनामकर्म मात्र तेटला काळ पूरतां ज होय छे. जेवी रीते मोटा एक वांसनां क्रमवर्ती अनेक १पर्वो पोतपोताना मापमां मर्यादित होवाथी अन्य पर्वमां नहि जतां थकां पोतपोतानां स्थानोमां भाववाळां ( – विद्यमान) छे अने पर स्थानोमां अभाववाळां ( – अविद्यमान) छे तथा वांस तो बधांय पर्वस्थानोमां भाववाळो होवा छतां अन्य पर्वना संबंध वडे अन्य पर्वना संबंधनो अभाव होवाथी अभाववाळो (पण) छे; तेवी रीते निरवधि त्रणे काळे टकनारा एक जीवद्रव्यना क्रमवर्ती अनेक मनुष्यत्वादिपर्यायो पोतपोताना मापमां मर्यादित होवाथी अन्य पर्यायमां नहि जता थका पोतपोतानां स्थानोमां भाववाळा छे अने पर स्थानोमां अभाववाळा छे तथा जीवद्रव्य तो सर्वपर्यायस्थानोमां भाववाळुं होवा छतां अन्य पर्यायना संबंध वडे अन्य पर्यायना संबंधनो अभाव होवाथी अभाववाळुं (पण) छे. १. पर्व=एक गांठथी बीजी गांठ सुधीनो भाग; कातळी.
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स्वकारणनिवृत्तौ निवृत्तेऽभूतपूर्व एव चान्यस्मिन्नुत्पन्ने नासदुत्पत्तिः, तथा दीर्घकालान्वयिनि
भावार्थः — जीवने ध्रौव्य अपेक्षाए सत्नो विनाश अने असत्नो उत्पाद नथी. ‘मनुष्य मरे छे ने देव जन्मे छे’ एम जे कहेवामां आवे छे ते वात पण उपरोक्त हकीकत साथे विरोध पामती नथी. जेम मोटा एक वांसनी अनेक कातळीओ पोतपोतानां स्थानोमां विद्यमान छे अने बीजी कातळीओनां स्थानोमां अविद्यमान छे तथा वांस तो सर्व कातळीओनां स्थानोमां अन्वयरूपे विद्यमान होवा छतां प्रथमादि कातळीरूपे द्वितीयादि कातळीमां नहि होवाथी अविद्यमान पण कहेवाय छे, तेम त्रिकाळ-अवस्थायी एक जीवना नरनारकादि अनेक पर्यायो पोतपोताना काळमां विद्यमान छे अने बीजा पर्यायोना काळमां अविद्यमान छे तथा जीव तो सर्व पर्यायोमां अन्वयरूपे विद्यमान होवा छतां मनुष्यादिपर्यायरूपे देवादिपर्यायमां नहि होवाथी अविद्यमान पण कहेवाय छे. १९.
अन्वयार्थः — [ज्ञानावरणाद्याः भावाः] ज्ञानावरणादि भावो [जीवेन] जीव साथे [सुष्ठु] सारी रीते [अनुबद्धाः] अनुबद्ध छे; [तेषाम् अभावं कृत्वा] तेमनो अभाव करीने ते [अभूतपूर्वः सिद्धः] अभूतपूर्व सिद्ध [भवति] थाय छे.
टीकाः — अहीं सिद्धने अत्यंत असत्-उत्पादनो निषेध कर्यो छे (अर्थात् सिद्धपणुं थतां सर्वथा असत्नो उत्पाद थतो नथी एम कह्युं छे).
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ज्ञानावरणादिकर्मसामान्योदयनिर्वृत्तसंसारित्वपर्याये भव्यस्य स्वकारणनिवृत्तौ निवृत्ते समुत्पन्ने चाभूतपूर्वे सिद्धत्वपर्याये नासदुत्पत्तिरिति । किञ्च — यथा द्राघीयसि वेणुदण्डे व्यवहिताव्यवहितविचित्रचित्रकिर्मीरताखचिताधस्तनार्धभागे एकान्तव्यवहित- सुविशुद्धोर्ध्वार्धभागेऽवतारिता द्रष्टिः समन्ततो विचित्रचित्रकिर्मीरताव्याप्तिं पश्यन्ती सम- नुमिनोति तस्य सर्वत्राविशुद्धत्वं, तथा क्वचिदपि जीवद्रव्ये व्यवहिताव्यवहितज्ञाना- वरणादिकर्मकिर्मीरताखचितबहुतराधस्तनभागे एकान्तव्यवहितसुविशुद्धबहुतरोर्ध्वभागेऽवतारिता बुद्धिः समन्ततो ज्ञानावरणादिकर्मकिर्मीरताव्याप्तिं व्यवस्यन्ती समनुमिनोति तस्य सर्वत्रा- विशुद्धत्वम् । यथाच तत्र वेणुदण्डे व्याप्तिज्ञानाभासनिबन्धनविचित्रचित्रकिर्मीरतान्वयः, तथाच क्वचिज्जीवद्रव्ये ज्ञानावरणादिकर्मकिर्मीरतान्वयः । यथैव च तत्र वेणुदण्डे विचित्र- उदयथी रचाता जे देवादिपर्यायो तेमांथी जीवने एक पर्याय स्वकारणनी निवृत्ति थतां निवृत्त थाय अने बीजो कोई अभूतपूर्व पर्याय ज उत्पन्न थाय, त्यां असत्नी उत्पत्ति नथी; तेम दीर्घ काळ सुधी अन्वयरूपे रहेनारो, ज्ञानावरणादिकर्मसामान्यना उदयथी रचातो संसारित्वपर्याय भव्यने स्वकारणनी निवृत्ति थतां निवृत्त थाय अने अभूतपूर्व ( – पूर्वे नहि थयेलो एवो) सिद्धत्वपर्याय उत्पन्न थाय, त्यां असत्नी उत्पत्ति नथी.
ढंकायेलो अने केटलोक अणढंकायेलो होय तथा सुविशुद्ध ( – अचित्रित) ऊंचेनो अर्ध भाग एकलो ढंकायेलो ज होय एवा बहु लांबा वांस पर द्रष्टि मूकतां, ते द्रष्टि सर्वत्र विचित्र चित्रोथी थयेला चित्रविचित्रपणानी व्याप्तिनो निर्णय करती थकी ‘ते वांस सर्वत्र अविशुद्ध छे (अर्थात् आखोय रंगबेरंगी छे)’ एम अनुमान करे छे, तेवी रीते जेनो ज्ञानावरणादि कर्मथी थयेल चित्रविचित्रतायुक्त ( – विविध विभावपर्यायवाळो) घणो मोटो नीचेनो भाग केटलोक ढंकायेलो अने केटलोक अणढंकायेलो छे तथा सुविशुद्ध (सिद्धपर्यायवाळो), घणो मोटो ऊंचेनो भाग एकलो ढंकायेलो ज छे एवा कोई जीवद्रव्यमां बुद्धि लगाडतां, ते बुद्धि सर्वत्र ज्ञानावरणादि कर्मथी थयेला चित्रविचित्रपणानी व्याप्तिनो निर्णय करती थकी ‘ते जीव सर्वत्र अविशुद्ध छे (अर्थात् आखोय संसारपर्यायवाळो छे)’ एम अनुमान करे छे. वळी जेम ते वांसमां व्याप्तिज्ञानाभासनुं कारण (नीचेना खुल्ला भागमां) विचित्र चित्रोथी थयेला