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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
चित्रकिर्मीरतान्वयाभावात्सुविशुद्धत्वं, तथैव च क्वचिज्जीवद्रव्ये ज्ञानावरणादिकर्मकिर्मीरता- न्वयाभावादाप्तागमसम्यगनुमानातीन्द्रियज्ञानपरिच्छिन्नात्सिद्धत्वमिति ।।२०।। चित्रविचित्रपणानो अन्वय ( – संतति, प्रवाह) छे, तेम ते जीवद्रव्यमां व्याप्ति- ज्ञानाभासनुं कारण (नीचेना खुल्ला भागमां) ज्ञानावरणादि कर्मथी थयेला चित्र- विचित्रपणानो अन्वय छे. वळी जेम ते वांसमां (उपरना भागमां) सुविशुद्धपणुं छे कारण के (त्यां) विचित्र चित्रोथी थयेला चित्रविचित्रपणाना अन्वयनो अभाव छे, तेम ते जीवद्रव्यमां (उपरना भागमां) सिद्धपणुं छे कारण के (त्यां) ज्ञानावरणादि कर्मथी थयेला चित्रविचित्रपणाना अन्वयनो अभाव छे — के जे अभाव आप्त-आगमना ज्ञानथी, सम्यक् अनुमानज्ञानथी अने अतीन्द्रिय ज्ञानथी जणाय छे.
भावार्थः — संसारी जीवनी प्रगट संसारी दशा जोईने अज्ञानी जीवने भ्रम ऊपजे छे के — ‘जीव सदा संसारी ज रहे, सिद्ध थई शके ज नहि; जो सिद्ध थाय तो सर्वथा असत्-उत्पादनो प्रसंग आवे.’ परंतु अज्ञानीनी आ वात योग्य नथी.
जेवी रीते जीवने देवादिरूप एक पर्यायना कारणनो नाश थतां ते पर्यायनो नाश थई अन्य पर्याय उत्पन्न थाय छे, जीवद्रव्य तो तेनुं ते ज रहे छे, तेवी रीते जीवने संसारपर्यायना कारणभूत मोहरागद्वेषादिनो नाश थतां संसारपर्यायनो नाश थई सिद्धपर्याय उत्पन्न थाय छे, जीवद्रव्य तो तेनुं ते ज रहे छे. संसारपर्याय अने सिद्धपर्याय बन्ने एक ज जीवद्रव्यना पर्यायो छे.
वळी अन्य प्रकारे समजाववामां आवे छेः — धारो के एक लांबो वांस ऊभो राखवामां आव्यो छे; तेनो नीचेनो केटलोक भाग रंगबेरंगी करवामां आव्यो छे अने बाकीनो उपरनो भाग अरंगी ( – स्वाभाविक शुद्ध) छे. आ वांसना रंगबेरंगी भागमांनो केटलोक भाग खुल्लो राखवामां आव्यो छे अने बाकीनो बधो रंगबेरंगी भाग अने आखोय अरंगी भाग ढांकी दीधेलो छे. आ वांसनो खुल्लो भाग रंगबेरंगी जोईने अविचारी जीव ‘ज्यां ज्यां वांस होय त्यां त्यां रंगबेरंगीपणुं होय’ एवी व्याप्ति ( – नियम, अविनाभावसंबंध) कल्पी ले छे अने आवा खोटा व्याप्तिज्ञान द्वारा एवुं अनुमान तारवे छे के ‘नीचेथी छेक उपर सुधी आखो वांस रंगबेरंगी छे’. आ अनुमान मिथ्या छे; कारण के खरेखर तो आ वांसनो उपरनो भाग रंगबेरंगीपणाना अभाववाळो छे, अरंगी छे. वांसना द्रष्टांतनी माफक — कोई एक भव्य जीव छे; तेनो नीचेनो केटलोक भाग (अर्थात् अनादि काळथी वर्तमान काळ पं. ६
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जीवस्योत्पादव्ययसदुच्छेदासदुत्पादकर्तृत्वोपपत्त्युपसंहारोऽयम् । सुधीनो अने अमुक भविष्य काळ सुधीनो भाग) संसारी छे अने बाकीनो उपरनो अनंत भाग सिद्धरूप ( – स्वाभाविक शुद्ध) छे. आ जीवना संसारी भागमांनो केटलोक भाग खुल्लो (प्रगट) छे अने बाकीनो बधो संसारी भाग अने आखोय सिद्धरूप भाग ढंकायेलो (अप्रगट) छे. आ जीवनो खुल्लो (प्रगट) भाग संसारी जोईने अज्ञानी जीव ‘ज्यां ज्यां जीव होय त्यां त्यां संसारीपणुं होय’ एवी व्याप्ति कल्पी ले छे अने आवा खोटा व्याप्तिज्ञान द्वारा एवुं अनुमान तारवे छे के ‘अनादि-अनंत आखो जीव संसारी छे’. आ अनुमान मिथ्या छे; कारण के आ जीवनो उपरनो भाग ( – अमुक भविष्य काळ पछीनो बाकीनो अनंत भाग) संसारीपणाना अभाववाळो छे, सिद्धरूप छे — एम सर्वज्ञप्रणीत आगमना ज्ञानथी, सम्यक् अनुमानज्ञानथी अने अतीन्द्रिय ज्ञानथी स्पष्ट जणाय छे.
आम अनेक प्रकारे नक्की थाय छे के जीव संसारपर्याय नष्ट करी सिद्धपर्याये परिणमे त्यां सर्वथा असत्नो उत्पाद थतो नथी. २०.
अन्वयार्थः — [एवम्] ए रीते [गुणपर्ययैः सहितः] गुणपर्यायो सहित [जीवः] जीव [संसरन्] संसरण करतो थको [भावम्] भाव, [अभावम्] अभाव, [भावाभावम्] भावाभाव [च] अने [अभावभावम्] अभावभावने [करोति] करे छे.
टीकाः — आ, जीवने उत्पाद, व्यय, सत्-विनाश अने असत्-उत्पादनुं कर्तापणुं होवानी सिद्धिरूप उपसंहार छे.
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द्रव्यं हि सर्वदाऽविनष्टानुत्पन्नमाम्नातम् । ततो जीवद्रव्यस्य द्रव्यरूपेण नित्यत्वमुपन्यस्तम् । तस्यैव देवादिपर्यायरूपेण प्रादुर्भवतो भावकर्तृत्वमुक्तं ; तस्यैव च मनुष्यादिपर्यायरूपेण व्ययतोऽभावकर्तृत्वमाख्यातं; तस्यैव च सतो देवादिपर्याय- स्योच्छेदमारभमाणस्य भावाभावकर्तृत्वमुदितं; तस्यैव चासतः पुनर्मनुष्यादिपर्यायस्योत्पाद- मारभमाणस्याभावभावकर्तृत्वमभिहितम् । सर्वमिदमनवद्यं द्रव्यपर्यायाणामन्यतरगुणमुख्यत्वेन व्याख्यानात् । तथाहि — यदा जीवः पर्यायगुणत्वेन द्रव्यमुख्यत्वेन विवक्ष्यते तदा नोत्पद्यते, न विनश्यति, न च क्रमवृत्त्यावर्तमानत्वात् सत्पर्यायजातमुच्छिनत्ति, नासदुत्पादयति । यदा तु द्रव्यगुणत्वेन पर्यायमुख्यत्वेन विवक्ष्यते तदा प्रादुर्भवति, विनश्यति, सत्पर्यायजातमतिवाहितस्वकालमुच्छिनत्ति, असदुपस्थितस्वकालमुत्पादयति चेति ।
द्रव्य खरेखर सर्वदा अविनष्ट अने अनुत्पन्न आगममां कह्युं छे; तेथी जीवद्रव्यने द्रव्यरूपे नित्यपणुं कहेवामां आव्युं. (१) देवादिपर्यायरूपे ऊपजतुं होवाथी तेने ज ( – जीवद्रव्यने ज) भावनुं ( – उत्पादनुं) कर्तापणुं कहेवामां आव्युं छे; (२) मनुष्यादि- पर्यायरूपे नाश पामतुं होवाथी तेने ज अभावनुं ( – व्ययनुं) कर्तापणुं कहेवामां आव्युं छे; (३) सत् ( – विद्यमान) देवादिपर्यायनो नाश करतुं होवाथी तेने ज भावाभावनुं ( – सत्ना विनाशनुं) कर्तापणुं कहेवामां आव्युं छे; अने (४) फरीने असत् ( – अविद्यमान) मनुष्यादिपर्यायनो उत्पाद करतुं होवाथी तेने ज अभावभावनुं ( – असत्ना उत्पादनुं) कर्तापणुं कहेवामां आव्युं छे.
— आ बधुं निरवद्य (निर्दोष, निर्बाध, अविरुद्ध) छे, कारण के द्रव्य अने पर्यायोमांथी एकनी गौणताथी अने अन्यनी मुख्यताथी कथन करवामां आवे छे. ते आ प्रमाणेः —
ज्यारे जीव पर्यायनी गौणताथी अने द्रव्यनी मुख्यताथी विवक्षित होय छे त्यारे ते (१) ऊपजतो नथी, (२) विनाश पामतो नथी, (३) क्रमवृत्तिए नहि वर्ततो होवाथी सत् ( – विद्यमान) पर्यायसमूहने विनष्ट करतो नथी अने (४) असत्ने ( – अविद्यमान पर्यायसमूहने) उत्पन्न करतो नथी; अने ज्यारे जीव द्रव्यनी गौणताथी अने पर्यायनी मुख्यताथी विवक्षित होय छे त्यारे ते (१) ऊपजे छे, (२) विनाश पामे छे, (३) जेनो स्वकाळ वीती गयो छे एवा सत् ( – विद्यमान) पर्यायसमूहने विनष्ट करे छे अने (४) जेनो स्वकाळ उपस्थित थयो छे ( – आवी पहोंच्यो छे) एवा असत्ने ( – अविद्यमान पर्यायसमूहने) उत्पन्न करे छे.
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स खल्वयं प्रसादोऽनेकान्तवादस्य यदीद्रशोऽपि विरोधो न विरोधः ।।२१।।
अत्र सामान्येनोक्त लक्षणानां षण्णां द्रव्याणां मध्यात् पंचानामस्तिकायत्वं व्यवस्थापितम् ।
ते आ प्रसाद खरेखर अनेकांतवादनो छे के आवो विरोध पण (खरेखर) विरोध नथी. २१.
अन्वयार्थः — [जीवाः] जीवो, [पुद्गलकायाः] पुद्गलकायो, [आकाशम्] आकाश अने [शेषौ अस्तिकायौ] बाकीना बे अस्तिकायो [अमयाः] अकृत छे, [अस्तित्वमयाः] अस्तित्वमय छे अने [हि] खरेखर [लोकस्य कारणभूताः] लोकना कारणभूत छे.
टीकाः — अहीं (आ गाथामां), सामान्यपणे जेमनुं स्वरूप (पूर्वे) कहेवामां आव्युं छे एवां छ द्रव्योमांथी पांचने अस्तिकायपणुं स्थापित करवामां आव्युं छे.
अकृत होवाथी, अस्तित्वमय होवाथी अने अनेक प्रकारनी *पोतानी परिणतिरूप लोकनां कारण होवाथी जेओ स्वीकारवामां ( – संमत करवामां) आव्यां १. लोक छ द्रव्योना अनेकविध परिणामरूप ( – उत्पादव्ययध्रौव्यरूप) छे; तेथी छ द्रव्यो खरेखर लोकनां
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पगम्यमानेषु षट्सु द्रव्येषु जीवपुद्गलाकाशधर्माधर्माः प्रदेशप्रचयात्मकत्वात् पञ्चास्तिकायाः । न खलु कालस्तदभावादस्तिकाय इति सामर्थ्यादवसीयत इति ।।२२।।
वृत्तिरूपः परिणामः । स खलु सहकारिकारणसद्भावे द्रष्टः, गतिस्थित्यवगाहपरिणामवत् । छे एवां छ द्रव्योमां जीव, पुद्गल, आकाश, धर्म ने अधर्म प्रदेशप्रचयात्मक ( – प्रदेशोना समूहमय) होवाथी ए पांच अस्तिकायो छे. काळने प्रदेशप्रचयात्मकपणानो अभाव होवाथी ते खरेखर अस्तिकाय नथी एम (वगर-कह्ये पण) सामर्थ्यथी नक्की थाय छे. २२.
अन्वयार्थः — [सद्भावस्वभावानाम्] सत्तास्वभाववाळां [जीवानाम् तथा एव पुद्गलानाम् च] जीवो अने पुद्गलोना [परिवर्तनसम्भूतः] परिवर्तनथी सिद्ध थतो [कालः] एवो काळ [नियमेन प्रज्ञप्तः] (सर्वज्ञो द्वारा) नियमथी (निश्चयथी) उपदेशवामां आव्यो छे.
टीकाः — काळ अस्तिकायपणे अनुक्त ( – नहि कहेवामां आवेलो) होवा छतां तेने अर्थपणुं ( – पदार्थपणुं) सिद्ध थाय छे एम अहीं दर्शाव्युं छे.
आ जगतमां खरेखर जीवोने अने पुद्गलोने सत्तास्वभावने लीधे प्रतिक्षण उत्पादव्ययध्रौव्यनी एकवृत्तिरूप परिणाम वर्ते छे. ते ( – परिणाम) खरेखर सहकारी कारणना सद्भावमां जोवामां आवे छे, गति-स्थिति-अवगाहपरिणामनी माफक. (जेम
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यस्तु सहकारिकारणं स कालः । तत्परिणामान्यथानुपपत्तिगम्यमानत्वादनुक्तोऽपि निश्चय- कालोऽस्तीति निश्चीयते । यस्तु निश्चयकालपर्यायरूपो व्यवहारकालः स जीवपुद्गल- परिणामेनाभिव्यज्यमानत्वात्तदायत्त एवाभिगम्यत एवेति ।।२३।।
गति, स्थिति अने अवगाहरूप परिणामो धर्म, अधर्म अने आकाशरूप सहकारी कारणोना सद्भावमां होय छे, तेम उत्पादव्ययध्रौव्यनी एकतारूप परिणाम सहकारी कारणना सद्भावमां होय छे.) आ जे सहकारी कारण ते काळ छे. १जीव-पुद्गलना परिणामनी २अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा जणातो होवाथी, निश्चयकाळ — (अस्तिकायपणे) अनुक्त होवा छतां पण — (द्रव्यपणे) विद्यमान छे एम नक्की थाय छे. अने जे निश्चयकाळना पर्यायरूप व्यवहारकाळ ते, जीव-पुद्गलोना परिणामथी व्यक्त ( – गम्य) थतो होवाथी जरूर तदाश्रित ज ( – जीव अने पुद्गलना परिणामने आश्रित ज) गणवामां आवे छे. २३.
छे तोपण जीव-पुद्गलोना परिणाम स्पष्ट ख्यालमां आवता होवाथी काळद्रव्यने सिद्ध करवामां मात्र ते बेना परिणामनी ज वात लेवामां आवी छे. २. अन्यथा अनुपपत्ति=बीजी कोई रीते नहि बनी शकवुं ते. [जीव-पुद्गलोना उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक
पदार्थ विना ( – निश्चयकाळ विना) होई शके नहि. जेम आकाश विना द्रव्यो अवगाह पामी
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अन्वयार्थः — [कालः इति] काळ (निश्चयकाळ) [व्यपगतपञ्चवर्णरसः] पांच वर्ण ने पांच रस रहित, [व्यपगतद्विगन्धाष्टस्पर्शः च] बे गंध ने आठ स्पर्श रहित, [अगुरुलघुकः] अगुरुलघु, [अमूर्तः] अमूर्त [च] अने [वर्तनलक्षणः] वर्तना- लक्षणवाळो छे.
लोकाकाशना एकेक प्रदेशे एकेक काळाणु (काळद्रव्य) स्थित छे. आ काळाणु (काळद्रव्य) ते निश्चयकाळ छे. अलोकाकाशमां काळाणु (काळद्रव्य) नथी.
आ काळ (निश्चयकाळ) वर्ण-गंध-रस-स्पर्श रहित छे, वर्णादि रहित होवाथी अमूर्त छे अने अमूर्त होवाथी सूक्ष्म, अतींद्रियज्ञानग्राह्य छे. वळी ते षट्गुण- हानिवृद्धिसहित अगुरुलघुत्वस्वभाववाळो छे. काळनुं लक्षण वर्तनाहेतुत्व छे; एटले के, जेम शियाळामां स्वयं अध्ययनक्रिया करता पुरुषने अग्नि सहकारी ( – बहिरंग निमित्त) छे अने जेम स्वयं फरवानी क्रिया करता कुंभारना चाकने नीचेनी खीली सहकारी छे तेम निश्चयथी स्वयमेव परिणाम पामतां जीव-पुद्गलादि द्रव्योने (व्यवहारथी) काळाणुरूप निश्चयकाळ बहिरंग निमित्त छे.
प्रश्नः — अलोकमां काळद्रव्य नथी तो त्यां आकाशनी परिणति कई रीते थई शके?
उत्तरः — जेम लटकती मोटी दोरीने, मोटा वांसने के कुंभारना चाकने एक ज जग्याए स्पर्शवा छतां सर्वत्र चलन थाय छे, जेम मनोज्ञ स्पर्शनेन्द्रियविषयनो के रसनेन्द्रियविषयनो शरीरना एक ज भागमां स्पर्श थवा छतां आखा आत्मामां सुखानुभव थाय छे अने जेम सर्पदंश के व्रण (जखम) वगेरे शरीरना एक ज भागमां थवा छतां आखा आत्मामां दुःखवेदना थाय छे, तेम काळद्रव्य लोकाकाशमां ज होवा छतां आखा आकाशमां परिणति थाय छे कारण के आकाश अखंड एक द्रव्य छे. *श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे आ २४मी गाथानी टीका लखी नथी तेथी गुजराती अनुवादमां अन्वयार्थ
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परमाणुप्रचलनायत्तः समयः । नयनपुटघटनायत्तो निमिषः । तत्संख्याविशेषतः काष्ठा कला नाली च । गगनमणिगमनायत्तो दिवारात्रः । तत्संख्याविशेषतः मासः, ऋतुः, अयनं, संवत्सरः इति । एवंविधो हि व्यवहारकालः केवलकालपर्यायमात्रत्वेनावधारयितुमशक्यत्वात् परायत्त इत्युपमीयत इति ।।२५।।
अहीं ए खास ध्यानमां राखवुं के काळ कोई द्रव्यने परिणमावतो नथी, संपूर्ण स्वतंत्रताथी स्वयमेव परिणमतां द्रव्योने ते बाह्यनिमित्तमात्र छे.
अन्वयार्थः — [समयः] समय, [निमिषः] निमेष, [काष्ठा] काष्ठा, [कला च] कळा, [नाली] घडी, [ततः दिवारात्रः] अहोरात्र ( – दिवस), [मासर्त्वयनसंवत्सरम्] मास, तु, अयन अने वर्ष — [इति कालः] एवो जे काळ (अर्थात् व्यवहारकाळ) [परायत्तः] ते पराश्रित छे.
परमाणुना गमनने आश्रित समय छे; आंखना वींचावाने आश्रित निमेष छे; तेनी ( – निमेषनी) अमुक संख्याथी काष्ठा, कळा अने घडी होय छे; सूर्यना गमनने आश्रित अहोरात्र होय छे; अने तेनी ( – अहोरात्रनी) अमुक संख्याथी मास, तु, अयन ने वर्ष होय छे. — आवो व्यवहारकाळ केवळ काळना पर्यायमात्रपणे अवधारवो अशक्य होवाथी (अर्थात् परनी अपेक्षा विना — परमाणु, आंख, सूर्य वगेरे पर पदार्थोनी अपेक्षा विना — व्यवहारकाळनुं माप नक्की करवुं अशक्य होवाथी) तेने ‘पराश्रित’ एवी उपमा आपवामां आवे छे.
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भावार्थः — ‘समय’ निमित्तभूत एवा मंद गतिए परिणत पुद्गल-परमाणु वडे प्रगट थाय छे — मपाय छे (अर्थात् परमाणुने एक आकाशप्रदेशेथी बीजा अनंतर आकाशप्रदेशे मंद गतिथी जतां जे वखत लागे तेने समय कहेवामां आवे छे). ‘निमेष’ आंखना वींचावाथी प्रगट थाय छे (अर्थात् खुल्ली आंखने वींचातां जे वखत लागे तेने निमेष कहेवामां आवे छे अने ते एक निमेष असंख्यात समयोनो होय छे). पंदर निमेषनी एक ‘काष्ठा’, त्रीश काष्ठानी एक ‘कळा’, वीशथी कांईक अधिक कळानी एक ‘घडी’ अने बे घडीनुं एक ‘मुहूर्त’ बने छे. ‘अहोरात्र’ सूर्यना गमनथी प्रगट थाय छे (अने ते एक अहोरात्र त्रीश मुहूर्तनुं होय छे). त्रीश अहोरात्रनो एक ‘मास’, बे मासनी एक ‘ॠतु’, त्रण ॠतुनुं एक ‘अयन’ अने बे अयननुं एक ‘वर्ष’ बने छे. — आ बधो व्यवहारकाळ छे. ‘पल्योपम’, ‘सागरोपम’ वगेरे पण व्यवहारकाळना भेदो छे.
उपरोक्त समय-निमेषादि बधाय खरेखर केवळ निश्चयकाळना ज ( – काळद्रव्यना ज) पर्यायो छे परंतु तेओ परमाणु वगेरे द्वारा प्रगट थता होवाथी (अर्थात् पर पदार्थो द्वारा मापी शकाता होवाथी) तेमने उपचारथी पराश्रित कहेवामां आवे छे. २५.
अन्वयार्थः — [ चिरं वा क्षिप्रं ] ‘चिर’ अथवा ‘क्षिप्र’ एवुं ज्ञान ( – बहु काळ अथवा थोडो काळ एवुं ज्ञान) [मात्रारहितं तु] परिमाण विना ( – काळना माप विना) [न अस्ति] होय नहि; [सा मात्रा अपि] अने ते परिमाण [खलु] खरेखर [पुद्गलद्रव्येण विना] पुद्गलद्रव्य विना थतुं नथी; [तस्मात्] तेथी [कालः प्रतीत्यभवः] काळ आश्रितपणे ऊपजनारो छे (अथात् व्यवहारकाळ परनो आश्रय करीने ऊपजे छे एम ऊपचारथी कहेवाय छे). पं. ७
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सम्प्रत्ययः । स खलु दीर्घह्रस्वकालनिबन्धनं प्रमाणमन्तरेण न सम्भाव्यते । तदपि प्रमाणं पुद्गलद्रव्यपरिणाममन्तरेण नावधार्यते । ततः परपरिणामद्योतमानत्वाद्वयवहारकालो निश्चये- नानन्याश्रितोऽपि प्रतीत्यभव इत्यभिधीयते । तदत्रास्तिकायसामान्यप्ररूपणायामस्तिकायत्वा- भावात्साक्षादनुपन्यस्यमानोऽपि जीवपुद्गलपरिणामान्यथानुपपत्त्या निश्चयरूपस्तत्परिणामा- यत्ततया व्यवहाररूपः कालोऽस्तिकायपञ्चकवल्लोकरूपेण परिणत इति खरतर ऊष्टयाभ्युप गम्यत इति ।।२६।।
टीकाः — अहीं व्यवहारकाळना कथंचित् पराश्रितपणा विषे सत्य युक्ति कहेवामां आवी छे.
प्रथम तो, निमेष-समयादि व्यवहारकाळमां ‘चिर’ अने ‘क्षिप्र’ एवुं ज्ञान ( – लांबो काळ अने टूंको काळ एवुं ज्ञान) थाय छे. ते ज्ञान खरेखर लांबा अने टूंका काळ साथे संबंध राखनारा प्रमाण ( – काळपरिमाण) विना संभवतुं नथी; अने ते प्रमाण पुद्गलद्रव्यना परिणाम विना नक्की थतुं नथी. तेथी, व्यवहारकाळ परना परिणाम द्वारा जणातो होवाथी — जोके निश्चयथी ते अन्यने आश्रित नथी तोपण - आश्रितपणे ऊपजनारो ( – परने अवलंबीने ऊपजतो) कहेवामां आवे छे.
माटे, जोके काळने अस्तिकायपणाना अभावने लीधे अहीं अस्तिकायनी सामान्य प्ररूपणामां तेनुं *साक्षात् कथन नथी तोपण, जीव-पुद्गलना परिणामनी अन्यथा अनुपपत्ति वडे सिद्ध थतो निश्चयरूप काळ अने तेमना परिणामने आश्रित नक्की थतो व्यवहाररूप काळ पंचास्तिकायनी माफक लोकरूपे परिणत छे — एम, अति तीक्ष्ण द्रष्टिथी जाणी शकाय छे.
भावार्थः — ‘समय’ टूंको छे, ‘निमेष’ लांबो छे अने मुहूर्त’ तेनाथी पण लांबुं छे एवुं जे ज्ञान थाय छे ते ‘समय’, ‘निमेष’ वगेरेनुं परिमाण जाणवाथी थाय छे; अने ते काळपरिमाण पुद्गलो द्वारा नक्की थाय छे. तेथी व्यवहारकाळनी उत्पत्ति पुद्गलो द्वारा थती (उपचारथी) कहेवामां आवे छे. *साक्षात्=सीधुं. [काळनुं विस्तृत सीधुं कथन श्री प्रवचनसारना द्वितीय श्रुतस्कंधमां करवामां
जाणी लेवुं.]
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इति समयव्याख्यायामन्तर्नीतषड्द्रव्यपञ्चास्तिकायसामान्यव्याख्यानरूपः पीठबन्धः समाप्तः ।।
ए रीते जोके व्यवहारकाळनुं माप पुद्गल द्वारा थतुं होवाथी तेने उपचारथी पुद्गलाश्रित कहेवामां आवे छे तोपण निश्चयथी ते केवळ काळद्रव्यना ज पर्यायरूप छे, पुद्गलथी सर्वथा भिन्न छे — एम समजवुं. जेम दस शेर पाणीना माटीमय घडानुं माप पाणी द्वारा थतुं होवा छतां घडो माटीना ज पर्यायरूप छे, पाणीना पर्यायरूप नथी, तेम समय-निमेषादि व्यवहारकाळनुं माप पुद्गल द्वारा थतुं होवा छतां व्यवहारकाळ काळद्रव्यना ज पर्यायरूप छे, पुद्गलना पर्यायरूप नथी.
काळसंबंधी गाथासूत्रोना कथननो संक्षेप आ प्रमाणे छेः — जीवपुद्गलोना परिणाममां (समयविशिष्ट वृत्तिमां) व्यवहारे समयनी अपेक्षा आवे छे; तेथी समयने उत्पन्न करनारो कोई पदार्थ अवश्य होवो जोईए. आ पदार्थ ते काळद्रव्य छे. काळद्रव्य परिणमवाथी व्यवहारकाळ थाय छे अने ते व्यवहारकाळ पुद्गल द्वारा मपातो होवाथी तेने उपचारथी पराश्रित कहेवामां आवे छे. पंचास्तिकायनी माफक निश्चयव्यवहाररूप काळ पण लोकरूपे परिणत छे एम सर्वज्ञोए जोयुं छे अने अति तीक्ष्ण द्रष्टि वडे स्पष्ट सम्यक् अनुमान पण थई शके छे.
काळसंबंधी कथननो तात्पर्यार्थ नीचे प्रमाणे ग्रहवायोग्य छेः — अतीत अनंत काळमां जीवने एक चिदानंदरूप काळ ज (स्वकाळ ज) जेनो स्वभाव छे एवा जीवास्तिकायनी उपलब्धि थई नथी; ते जीवास्तिकायनुं ज सम्यक् श्रद्धान, तेनुं ज रागादिथी भिन्नरूपे भेदज्ञान अने तेमां ज रागादिविभावरूप समस्त संकल्प- विकल्पजाळना त्याग वडे स्थिर परिणति कर्तव्य छे. २६.
आ रीते (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री पंचास्तिकायसंग्रह शास्त्रनी श्री अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित) समयव्याख्या नामनी टीकामां षड्द्रव्य-पंचास्तिकायना सामान्य व्याख्यानरूप पीठिका समाप्त थई.
हवे तेमनुं ज ( – षड्द्रव्य अने पंचास्तिकायनुं ज) विशेष व्याख्यान करवामां आवे छे. तेमां प्रथम, जीवद्रव्यास्तिकायनुं व्याख्यान छे.
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चिदात्मकत्वात्, व्यवहारेण चिच्छक्ति युक्त त्वाच्चेतयिता । निश्चयेनापृथग्भूतेन, व्यवहारेण पृथग्भूतेन चैतन्यपरिणामलक्षणेनोपयोगेनोपलक्षितत्वादुपयोगविशेषितः । निश्चयेन भावकर्मणां,
अन्वयार्थः — [जीवः इति भवति] (संसारस्थित) आत्मा जीव छे, [चेतयिता] चेतयिता (चेतनारो) छे, [उपयोगविशेषितः] उपयोगलक्षित छे, [प्रभुः] प्रभु छे, [कर्ता] कर्ता छे, [भोक्ता] भोक्ता छे, [देहमात्रः] देहप्रमाण छे, [न हि मूर्तः] अमूर्त छे [च] अने [कर्मसंयुक्तः] कर्मसंयुक्त छे.
टीकाः — अहीं (आ गाथामां) संसार-अवस्थावाळा आत्मानुं १सोपाधि अने निरुपाधि स्वरूप कह्युं छे.
आत्मा निश्चये भावप्राणना धारणने लीधे ‘जीव’ छे, व्यवहारे (असद्भूत व्यवहारनये) द्रव्यप्राणना धारणने लीधे ‘जीव’ छे; निश्चये २चित्स्वरूप होवाथी ‘चेतयिता’ (चेतनारो) छे, व्यवहारे (सद्भूत व्यवहारनये) चित्शक्तियुक्त होवाथी ‘चेतयिता’ छे; निश्चये ३अपृथग्भूत एवा चैतन्यपरिणामस्वरूप उपयोग वडे लक्षित होवाथी ‘उपयोगलक्षित’ छे, व्यवहारे (सद्भूत व्यवहारनये) पृथग्भूत एवा १. सोपाधि=उपाधि सहित; जेमां परनी अपेक्षा आवती होय एवुं. २. निश्चये चित्शक्तिने आत्मा साथे अभेद छे अने व्यवहारे भेद छे; तेथी निश्चये आत्मा चित्शक्ति-
स्वरूप छे अने व्यवहारे चित्शक्तिवान छे. ३. अपृथग्भूत=अपृथक्; अभिन्न. (निश्चये उपयोग आत्माथी अपृथक् छे अने व्यवहारे पृथक् छे.)
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व्यवहारेण द्रव्यकर्मणामास्रवणबन्धनसंवरणनिर्जरणमोक्षणेषु स्वयमीशत्वात् प्रभुः । निश्चयेन पौद्गलिककर्मनिमित्तात्मपरिणामानां, व्यवहारेणात्मपरिणामनिमित्तपौद्गलिककर्मणां कर्तृत्वात्कर्ता । निश्चयेन शुभाशुभकर्मनिमित्तसुखदुःखपरिणामानां, व्यवहारेण शुभाशुभ- कर्मसंपादितेष्टानिष्टविषयाणां भोक्तृ त्वाद्भोक्ता । निश्चयेन लोकमात्रोऽपि विशिष्टावगाह- परिणामशक्ति युक्त त्वान्नामकर्मनिर्वृत्तमणु महच्च शरीरमधितिष्ठन् व्यवहारेण देहमात्रः । व्यवहारेण कर्मभिः सहैकत्वपरिणामान्मूर्तोऽपि निश्चयेन नीरूपस्वभावत्वान्न हि मूर्तः । निश्चयेन पुद्गलपरिणामानुरूपचैतन्यपरिणामात्मभिः, व्यवहारेण चैतन्यपरिणामानुरूपपुद्गल- परिणामात्मभिः कर्मभिः संयुक्त त्वात्कर्मसंयुक्त इति ।।२७।। चैतन्यपरिणामस्वरूप उपयोग वडे लक्षित होवाथी ‘उपयोगलक्षित’ छे; निश्चये भावकर्मोनां आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा अने मोक्ष करवामां स्वयं ईश (समर्थ) होवाथी ‘प्रभु’ छे, व्यवहारे (असद्भूत व्यवहारनये) द्रव्यकर्मोनां आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा अने मोक्ष करवामां स्वयं ईश होवाथी ‘प्रभु’ छे; निश्चये पौद्गलिक कर्मो जेमनुं निमित्त छे एवा आत्मपरिणामोनुं कर्तृत्व होवाथी ‘कर्ता’ छे, व्यवहारे (असद्भूत व्यवहारनये) आत्मपरिणामो जेमनुं निमित्त छे एवां पौद्गलिक कर्मोनुं कर्तृत्व होवाथी ‘कर्ता’ छे; निश्चये शुभाशुभ कर्मो जेमनुं निमित्त छे एवा सुखदुःख- परिणामोनुं भोक्तृत्व होवाथी ‘भोक्ता’ छे, व्यवहारे (असद्भूत व्यवहारनये) शुभाशुभ कर्मोथी संपादित (प्राप्त) इष्टानिष्ट विषयोनुं भोक्तृत्व होवाथी ‘भोक्ता’ छे; निश्चये लोकप्रमाण होवा छतां, विशिष्ट अवगाहपरिणामनी शक्तिवाळो होवाथी नामकर्मथी रचाता नाना – मोटा शरीरमां रहेतो थको व्यवहारे (सद्भूत व्यवहारनये) ‘देहप्रमाण’ छे; व्यवहारे (असद्भूत व्यवहारनये) कर्मो साथे एकत्वपरिणामने लीधे मूर्त होवा छतां, निश्चये अरूपी-स्वभाववाळो होवाने लीधे ‘अमूर्त’ छे; *निश्चये पुद्गलपरिणामने अनुरूप चैतन्यपरिणामात्मक कर्मो साथे संयुक्त होवाथी ‘कर्मसंयुक्त’ छे; व्यवहारे (असद्भूत व्यवहारनये) चैतन्यपरिणामने अनुरूप पुद्गलपरिणामात्मक कर्मो साथे संयुक्त होवाथी ‘कर्मसंयुक्त’ छे.
भावार्थः — पहेली २६ गाथाओमां षड्द्रव्य अने पंचास्तिकायनुं सामान्य *संसारी आत्मा निश्चये निमित्तभूत पुद्गलकर्मोने अनुरूप एवा नैमित्तिक आत्मपरिणामो साथे (अर्थात् भावकर्मो साथे) संयुक्त होवाथी कर्मसंयुक्त छे अने व्यवहारे निमित्तभूत आत्मपरिणामोने
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र्ध्वगमनस्वभावत्वाल्लोकान्तमधिगम्य परतो गतिहेतोरभावादवस्थितः केवलज्ञानदर्शनाभ्यां स्वरूपभूतत्वादमुक्तोऽनन्तमतीन्द्रियं सुखमनुभवति । मुक्त स्य चास्य भावप्राणधारणलक्षणं निरूपण करीने, हवे आ २७मी गाथाथी तेमनुं विशेष निरूपण शरू करवामां आव्युं छे. तेमां प्रथम, जीवनुं (आत्मानुं) निरूपण शरू करतां आ गाथामां संसारस्थित आत्माने जीव (अर्थात् जीवत्ववाळो), चेतयिता, उपयोगलक्षणवाळो, प्रभु, कर्ता इत्यादि कह्यो छे. जीवत्व, चेतयितृत्व, उपयोग, प्रभुत्व, कर्तृत्व इत्यादिनुं विवरण आगळनी गाथाओमां आवशे. २७.
अन्वयार्थः — [कर्ममलविप्रमुक्तः] कर्ममळथी मुक्त आत्मा [ऊर्ध्वं] ऊंचे [लोकस्य अन्तम्] लोकना अंतने [अधिगम्य] पामीने [सः सर्वज्ञानदर्शी] ते सर्वज्ञ-सर्वदर्शी [अनंतम्] अनंत [अनिन्द्रियम्] अनिंद्रिय [सुखम्] सुखने [लभते] अनुभवे छे.
आत्मा (कर्मरजना) परद्रव्यपणाने लीधे कर्मरजथी संपूर्णपणे जे क्षणे मुकाय छे ( – मुक्त थाय छे), ते ज क्षणे (पोताना) ऊर्ध्वगमनस्वभावने लीधे लोकना अंतने पामीने आगळ गतिहेतुनो अभाव होवाथी (त्यां) स्थिर रहेतो थको, केवळज्ञान अने केवळदर्शन (निज) स्वरूपभूत होवाने लीधे तेमनाथी नहि मुकातो थको अनंत अतींद्रिय सुखने अनुभवे छे. ते मुक्त आत्माने, भावप्राणधारण जेनुं लक्षण ( – स्वरूप) छे एवुं
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जीवत्वं, चिद्रूपलक्षणं चेतयितृत्वं, चित्परिणामलक्षण उपयोगः, निर्वर्तितसमस्ताधिकार- शक्ति मात्रं प्रभुत्वं, समस्तवस्त्वसाधारणस्वरूपनिर्वर्तनमात्रं कर्तृत्वं, स्वरूपभूतस्वातन्त्र्य- लक्षणसुखोपलम्भरूपं भोक्तृ त्वं, अतीतानन्तरशरीरपरिमाणावगाहपरिणामरूपं देहमात्रत्वं, उपाधिसम्बन्धविविक्त मात्यन्तिकममूर्तत्वम् । कर्मसंयुक्त त्वं तु द्रव्यभावकर्मविप्रमोक्षान्न भवत्येव । द्रव्यकर्माणि हि पुद्गलस्कन्धा भावकर्माणि तु चिद्विवर्ताः । विवर्तते हि चिच्छक्ति रनादिज्ञानावरणादिकर्मसम्पर्ककूणितप्रचारा परिच्छेद्यस्य विश्वस्यैकदेशेषु क्रमेण व्याप्रियमाणा । यदा तु ज्ञानावरणादिकर्मसम्पर्कः प्रणश्यति तदा परिच्छेद्यस्य विश्वस्य ‘जीवत्व’ होय छे; चिद्रूप जेनुं लक्षण ( – स्वरूप) छे एवुं ‘चेतयितृत्व’ होय छे; चित्परिणाम जेनुं लक्षण ( – स्वरूप) छे एवो ‘उपयोग’ होय छे; प्राप्त करेला समस्त (आत्मिक) अधिकारोनी *शक्तिमात्ररूप ‘प्रभुत्व’ होय छे; समस्त वस्तुओथी असाधारण एवा स्वरूपनी निष्पत्तिमात्ररूप ( – निज स्वरूपने रचवारूप) ‘कर्तृत्व’ होय छे; स्वरूपभूत स्वातंत्र्य जेनुं लक्षण ( – स्वरूप) छे एवा सुखनी उपलब्धिरूप ‘भोक्तृत्व’ होय छे; अतीत अनंतर ( – छेल्ला) शरीर प्रमाणे अवगाहपरिणामरूप ‘१देहप्रमाणपणुं’ होय छे; अने उपाधिना संबंधथी २विविक्त एवुं आत्यंतिक (सर्वथा) ‘अमूर्तपणुं’ होय छे. (मुक्त आत्माने) ‘३कर्मसंयुक्तपणुं’ तो नथी ज होतुं, कारण के द्रव्यकर्मो अने भावकर्मोथी विमुक्ति थई छे. द्रव्यकर्मो ते पुद्गलस्कंधो छे अने भावकर्मो ते ४चिद्दविवर्तो छे. चित्शक्ति अनादि ज्ञानावरणादिकर्मोना संपर्कथी (संबंधथी) संकुचित व्यापारवाळी होवाने लीधे ज्ञेयभूत विश्वना ( – समस्त पदार्थोना) एक एक देशमां क्रमे व्यापार करती थकी विवर्तन पामे छे. परंतु ज्यारे ज्ञानावरणादिकर्मोनो संपर्क *शक्ति=सामर्थ्य; ईशत्व. (मुक्त आत्मा समस्त आत्मिक अधिकारोने भोगववामां अर्थात् तेमनो
अमल करवामां स्वयं समर्थ छे तेथी ते प्रभु छे.) १. मुक्त आत्मानी अवगाहना चरमशरीरप्रमाण होय छे तेथी ते छेल्ला देहनी अपेक्षा लईने तेमने
‘देहप्रमाणपणुं’ कही शकाय छे. २. विविक्त=भिन्न; रहित. ३. पूर्व सूत्रमां कहेला ‘जीवत्व’ आदि नव विशेषोमांथी प्रथमना आठ विशेषो मुक्तात्माने पण
यथासंभव होय छे, मात्र एक ‘कर्मसंयुक्तपणुं’ होतुं नथी. ४. चिद्दविवर्त=चैतन्यनो पलटो अर्थात् चैतन्यनुं एक विषयने छोडी अन्य विषयने जाणवारूपे
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सर्वदेशेषु युगपद्वयापृता कथञ्चित्कौटस्थ्यमवाप्य विषयान्तरमनाप्नुवन्ती न विवर्तते । स खल्वेष निश्चितः सर्वज्ञसर्वदर्शित्वोपलम्भः । अयमेव द्रव्यकर्मनिबन्धनभूतानां भाव- कर्मणां कर्तृत्वोच्छेदः । अयमेव च विकारपूर्वकानुभवाभावादौपाधिकसुखदुःखपरिणामानां भोक्तृ त्वोच्छेदः । इदमेव चानादिविवर्तखेदविच्छित्तिसुस्थितानन्तचैतन्यस्यात्मनः स्वतन्त्र- स्वरूपानुभूतिलक्षणसुखस्य भोक्तृ त्वमिति ।।२८।।
विनाश पामे छे, त्यारे ते ज्ञेयभूत विश्वना सर्व देशोमां युगपद् व्यापार करती थकी कथंचित् १कूटस्थ थईने, अन्य विषयने नहि पामती थकी विवर्तन करती नथी. ते आ (चित्शक्तिना विवर्तननो अभाव), खरेखर निश्चित ( – नियत, अचळ) सर्वज्ञपणानी अने सर्वदर्शीपणानी उपलब्धि छे. आ ज, द्रव्यकर्मोना निमित्तभूत भावकर्मोना कर्तृत्वनो विनाश छे; आ ज, विकारपूर्वक अनुभवना अभावने लीधे २औपाधिक सुखदुःख- परिणामोना भोक्तृत्वनो विनाश छे; अने आ ज, अनादि विवर्तनना खेदना विनाशथी जेनुं अनंत चैतन्य सुस्थित थयुं छे एवा आत्माने स्वतंत्रस्वरूपानुभूतिलक्षण सुखनुं ( – स्वतंत्र स्वरूपनी अनुभूति जेनुं लक्षण छे एवा सुखनुं) भोक्तृत्व छे. २८.
अन्वयार्थः — [सः चेतयिता] ते चेतयिता (चेतनारो आत्मा) [सर्वज्ञः] सर्वज्ञ [च] अने [सर्वलोकदर्शी] सर्वलोकदर्शी [स्वयं जातः] स्वयं थयो थको, [स्वकम्] स्वकीय १. कूटस्थ=सर्वकाळे एक रूपे रहेनारी; अचळ. [ज्ञानावरणादिकर्मोनो संबंध नष्ट थतां कांई चित्शक्ति
— सर्वदा त्रणे काळना समस्त ज्ञेयोने जाण्या करे छे, तेथी तेने कथंचित् कूटस्थ कही छे.] २. औपाधिक=द्रव्यकर्मरूप उपाधि साथे संबंधवाळा; द्रव्यकर्मरूप उपाधि जेमां निमित्त होय छे एवा;
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परद्रव्यसम्पर्केण क्रमेण किञ्चित् किञ्चिज्जानाति पश्यति, परप्रत्ययं मूर्तसम्बद्धं सव्याबाधं सान्तं सुखमनुभवति च । यदा त्वस्य कर्मक्लेशाः सामस्त्येन प्रणश्यन्ति, तदाऽनर्गला- सङ्कु चितात्मशक्ति रसहायः स्वयमेव युगपत्समग्रं जानाति पश्यति, स्वप्रत्ययममूर्तसम्बद्धम- व्याबाधमनन्तं सुखमनुभवति च । ततः सिद्धस्य समस्तं स्वयमेव जानतः पश्यतः, सुखमनुभवतश्च स्वं, न परेण प्रयोजनमिति ।।२९।। [अमूर्तम्] अमूर्त [अव्याबाधम्] अव्याबाध [अनन्तम्] अनंत [सुखम्] सुखने [प्राप्नोति] उपलब्ध करे छे.
खरेखर ज्ञान, दर्शन अने सुख जेनो स्वभाव छे एवो आत्मा संसार- अवस्थामां, अनादि कर्मक्लेश वडे आत्मशक्ति संकुचित करवामां आवी होवाथी, परद्रव्यना संपर्क वडे ( – इन्द्रियादिना संबंध वडे) क्रमथी कांईक कांईक जाणे छे अने देखे छे तथा पराश्रित, मूर्त (इन्द्रियादि) साथे संबंधवाळुं, सव्याबाध ( – बाधा सहित) ने सान्त सुख अनुभवे छे; परंतु ज्यारे तेने कर्मक्लेशो समस्तपणे विनाश पामे छे त्यारे, आत्मशक्ति अनर्गल ( – निरंकुश) अने असंकुचित होवाथी, ते असहायपणे ( – कोईनी सहाय विना) स्वयमेव युगपद् बधुं ( – सर्व द्रव्यक्षेत्रकाळभाव) जाणे छे अने देखे छे तथा स्वाश्रित, मूर्त (इन्द्रियादि) साथे संबंध विनानुं, अव्याबाध ने अनंत सुख अनुभवे छे. माटे बधुं स्वयमेव जाणनारा अने देखनारा तथा स्वकीय सुखने अनुभवनारा सिद्धने परथी (कांई) प्रयोजन नथी.
भावार्थः — सिद्धभगवान (तेम ज केवळीभगवान) स्वयमेव सर्वज्ञत्वादिरूपे परिणमे छे; तेमना ए परिणमनमां लेशमात्र पण (इन्द्रियादि) परनुं आलंबन नथी.
अहीं कोई सर्वज्ञनो निषेध करनार जीव कहे छे के ‘सर्वज्ञ छे ज नहि, कारण के जोवामां आवता नथी’, तो तेने नीचे प्रमाणे समजाववामां आवे छेः —
हे भाई! जो तमे कहो छो के ‘सर्वज्ञ नथी’, तो अमे पूछीए छीए के क्यां सर्वज्ञ नथी? आ क्षेत्रमां अने आ काळमां के त्रणे लोकमां अने त्रणे काळमां? जो ‘आ क्षेत्रमां अने आ काळमां सर्वज्ञ नथी’ एम कहो, तो ते तो संमत ज छे. परंतु जो ‘त्रणे लोकमां अने त्रणे काळमां सर्वज्ञ नथी’ एम कहो तो अमे पूछीए छीए के ते तमे कई रीते पं. ८
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जीवत्वगुणव्याख्येयम् । जाण्युं? जो त्रणे लोकने अने त्रणे काळने सर्वज्ञ विनाना तमे जोई-जाणी लीधा तो तमे ज सर्वज्ञ थया, कारण के जे त्रण लोकने अने त्रण काळने जाणे ते ज सर्वज्ञ छे. अने जो सर्वज्ञ विनाना त्रणे लोकने अने त्रणे काळने तमे नथी जोई-जाणी लीधा तो पछी ‘त्रणे लोकमां अने त्रणे काळमां सर्वज्ञ नथी’ एम तमे कई रीते कही शको? आ रीते सिद्ध थाय छे के तमे करेलो सर्वज्ञनो निषेध योग्य नथी.
हे भाई! आत्मा एक पदार्थ छे अने ज्ञान तेनो स्वभाव छे; तेथी ते ज्ञाननो संपूर्ण विकास थतां एवुं कांई रहेतुं नथी के जे ते ज्ञानमां अज्ञात रहे. जेम परिपूर्ण उष्णताए परिणमेलो अग्नि समस्त दाह्यने बाळे छे, तेम परिपूर्ण ज्ञाने परिणमेलो आत्मा समस्त ज्ञेयने जाणे छे. आवी सर्वज्ञदशा आ क्षेत्रे आ काळे (अर्थात् आ क्षेत्रे आ काळमां जन्मेला जीवने) प्राप्त नहि थती होवा छतां सर्वज्ञत्वशक्तिवाळा निज आत्मानो स्पष्ट अनुभव आ क्षेत्रे आ काळे पण थई शके छे.
आ शास्त्र अध्यात्मशास्त्र होवाथी अहीं सर्वज्ञसिद्धिनो विस्तार करवामां आव्यो नथी; जिज्ञासुए ते अन्य शास्त्रोमांथी जोई लेवो. २९.
अन्वयार्थः — [ यः खलु ] जे [ चतुर्भिः प्राणैः ] चार प्राणोथी [ जीवति ] जीवे छे, [ जीविष्यति ] जीवशे अने [ जीवितः पूर्वम् ] पूर्वे जीवतो हतो, [ सः जीवः ] ते जीव छे; [ पुनः प्राणाः ] अने प्राणो [ इन्द्रियम् ] इन्द्रिय, [ बलम् ] बळ, [ आयुः ] आयु तथा [ उच्छ्वासः ] उच्छ्वास छे.
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इन्द्रियबलायुरुच्छ्वासलक्षणा हि प्राणाः । तेषु चित्सामान्यान्वयिनो भावप्राणाः, पुद्गल- सामान्यान्वयिनो द्रव्यप्राणाः । तेषामुभयेषामपि त्रिष्वपि कालेष्वनवच्छिन्नसन्तानत्वेन धारणा- त्संसारिणो जीवत्वम् । मुक्त स्य तु केवलानामेव भावप्राणानां धारणात्तदवसेयमिति ।।३०।।
प्राणो इन्द्रिय, बळ, आयु अने उच्छ्वासस्वरूप छे. तेमनामां ( – प्राणोमां), *चित्सामान्यरूप अन्वयवाळा ते भावप्राणो छे अने पुद्गलसामान्यरूप अन्वयवाळा ते द्रव्यप्राणो छे. ते बन्ने प्राणोने त्रणे काळे अच्छिन्न-संतानपणे (अतूट धाराए) धारतो होवाथी संसारीने जीवत्व छे. मुक्तने (सिद्धने) तो केवळ भावप्राणोनुं ज धारण होवाथी जीवत्व छे एम समजवुं. ३०.
अन्वयार्थः — [ अनन्ताः अगुरुलघुकाः ] अनंत एवा जे अगुरुलघु (गुणो, *जे प्राणोमां चित्सामान्यरूप अन्वय होय छे ते भावप्राणो छे अर्थात् जे प्राणोमां सदा ‘चित्सामान्य,
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लघुत्वाभिधानस्य स्वरूपप्रतिष्ठत्वनिबन्धनस्य स्वभावस्याविभागपरिच्छेदाः प्रतिसमय- अंशो) [ तैः अनंतैः ] ते अनंत अगुरुलघु(गुण)रूपे [ सर्वे ] सर्व जीवो [ परिणताः ] परिणत छे; [ देशैः असंख्याताः ] तेओ असंख्यात प्रदेशवाळा छे. [ स्यात् सर्वम् लोकम् आपन्नाः ] केटलाक कथंचित् आखा लोकने प्राप्त होय छे [ केचित् तु ] अने केटलाक [ अनापन्नाः ] अप्राप्त होय छे. [ बहवः जीवाः ] घणा ( – अनंत) जीवो [ मिथ्या- दर्शनकषाययोगयुताः ] मिथ्यादर्शन-कषाय-योगसहित [ संसारिणः ] संसारी छे [ च ] अने घणा ( – अनंत जीवो) [ तैः वियुताः ] मिथ्यादर्शन-कषाय-योगरहित [ सिद्धाः ] सिद्ध छे.
टीकाः — अहीं जीवोनुं स्वाभाविक १प्रमाण तथा तेमनो मुक्त ने अमुक्त एवो विभाग कह्यो छे.
जीवो खरेखर अविभागी-एकद्रव्यपणाने लीधे लोकप्रमाण-एकप्रदेशवाळा छे. तेमना ( – जीवोना) अगुरुलघु २गुणो — अगुरुलघुत्व नामनो जे स्वरूपप्रतिष्ठत्वना कारणभूत स्वभाव तेना ३अविभाग परिच्छेदो — प्रतिसमय थती ४षट्स्थानपतित वृद्धि- १. प्रमाण=माप; परिमाण. [जीवना अगुरुलघुत्वस्वभावना नानामां नाना अंशो (अविभाग
पाडतां स्वभावथी ज सदाय असंख्य अंशो पडे छे, तेथी जीव सदाय आवा असंख्य अंशो जेवडो छे.] २. गुण=अंश; अविभाग परिच्छेद. [जीवमां अगुरुलघुत्व नामनो स्वभाव छे. ते स्वभाव जीवने
३. कोई गुणमां (एटले के गुणना पर्यायमां) अंशकल्पना करवामां आवतां, तेनो जे नानामां नानो
४. षट्स्थानपतित वृद्धिहानि=छ स्थानमां समावेश पामती वृद्धिहानि; षट्गुण वृद्धिहानि.