Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 33-46.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
६१

सम्भवत्षट्स्थानपतितवृद्धिहानयोऽनन्ताः प्रदेशास्तु अविभागपरमाणुपरिच्छिन्नसूक्ष्मांशरूपा असंख्येयाः एवंविधेषु तेषु केचित्कथञ्चिल्लोकपूरणावस्थाप्रकारेण सर्वलोकव्यापिनः, केचित्तु तदव्यापिन इति अथ ये तेषु मिथ्यादर्शनकषाययोगैरनादिसंततिप्रवृत्तैर्युक्तास्ते संसारिणः, ये विमुक्तास्ते सिद्धाः, ते च प्रत्येकं बहव इति ।।३१३२।।

जह पउमरायरयणं खित्तं खीरे पभासयदि खीरं
तह देही देहत्थो सदेहमेत्तं पभासयदि ।।३३।।
यथा पद्मरागरत्नं क्षिप्तं क्षीरे प्रभासयति क्षीरम्
तथा देही देहस्थः स्वदेहमात्रं प्रभासयति ।।३३।।

एष देहमात्रत्वद्रष्टान्तोपन्यासः हानिवाळा अनंत छे; अने (तेमना अर्थात् जीवोना) प्रदेशोके जेओ अविभाग परमाणु जेवडा मापवाळा सूक्ष्म अंशरूप छे तेओअसंख्य छे. आवा ते जीवोमां केटलाक कथंचित् (केवळसमुद्घातना कारणे) लोकपूरण-अवस्थाना प्रकार वडे आखा लोकमां व्याप्त होय छे अने केटलाक आखा लोकमां अव्याप्त होय छे. वळी ते जीवोमां जेओ अनादि प्रवाहरूपे प्रवर्तता मिथ्यादर्शन-कषाय-योगथी सहित छे तेओ संसारी छे, जेओ तेमनाथी विमुक्त छे (अर्थात् मिथ्यादर्शन-कषाय-योगथी रहित छे) तेओ सिद्ध छे; अने ते दरेक प्रकारना जीवो घणा छे (अर्थात् संसारी तेम ज सिद्ध जीवोमांना दरेक प्रकारना जीवो अनंत छे). ३१३२.

ज्यम दूधमां स्थित पद्मरागमणि प्रकाशे दूधने,
त्यम देहमां स्थित देही देहप्रमाण व्यापकता लहे. ३३.

अन्वयार्थ[ यथा ] जेम [ पद्मरागरत्नं ] पद्मरागरत्न [ क्षीरे क्षिप्तं ] दूधमां नाखवामां आव्युं थकुं [ क्षीरम् प्रभासयति ] दूधने प्रकाशे छे, [ तथा ] तेम [ देही ] देही (जीव) [ देहस्थः ] देहमां रह्यो थको [ स्वदेहमात्रं प्रभासयति ] स्वदेहप्रमाण प्रकाशे छे.

टीकाआ, देहप्रमाणपणाना *द्रष्टांतनुं कथन छे (अर्थात् अहीं जीवनुं *अहीं ए ख्यालमां राखवुं के द्रष्टांत अने दार्ष्टांत अमुक अंशोमां ज एकबीजा साथे मळतां (`

समानतावाळां) होय छे, सर्व अंशोमां नहि.

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६२

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

यथैव हि पद्मरागरत्नं क्षीरे क्षिप्तं स्वतोऽव्यतिरिक्त प्रभास्कन्धेन तद्वयाप्नोति क्षीरं, तथैव हि जीवः अनादिकषायमलीमसत्वमूले शरीरेऽवतिष्ठमानः स्वप्रदेशैस्तदभिव्याप्नोति शरीरम् यथैव च तत्र क्षीरेऽग्निसंयोगादुद्वलमाने तस्य पद्मरागरत्नस्य प्रभास्कन्ध उद्वलते पुनर्निविशमाने निविशते च, तथैव च तत्र शरीरे विशिष्टाहारादिवशादुत्सर्पति तस्य जीवस्य प्रदेशाः उत्सर्पन्ति पुनरपसर्पति अपसर्पन्ति च यथैव च तत्पद्मरागरत्नमन्यत्र प्रभूतक्षीरे क्षिप्तं स्वप्रभास्कन्धविस्तारेण तद्वयाप्नोति प्रभूतक्षीरं, तथैव च जीवोऽन्यत्र महति शरीरे- ऽवतिष्ठमानः स्वप्रदेशविस्तारेण तद्वयाप्नोति महच्छरीरम् यथैव च तत्पद्मरागरत्नमन्यत्र स्तोकक्षीरे निक्षिप्तं स्वप्रभास्कन्धोपसंहारेण तद्वयाप्नोति स्तोकक्षीरं, तथैव च जीवोऽन्यत्राणु- देहप्रमाणपणुं समजाववा द्रष्टांत कह्युं छे).

जेवी रीते पद्मरागरत्न दूधमां नाखवामां आव्युं थकुं पोताथी *अव्यतिरिक्त प्रभासमूह वडे ते दूधमां व्यापे छे, तेवी ज रीते जीव अनादि काळथी कषाय वडे मलिनपणुं होवाने कारणे शरीरमां रह्यो थको स्वप्रदेशो वडे ते शरीरमां व्यापे छे. वळी जेवी रीते अग्निना संयोगथी ते दूधमां ऊभरो आवतां ते पद्मरागरत्नना प्रभासमूहमां ऊभरो आवे छे (अर्थात् ते विस्तार पामे छे) अने दूध पाछुं बेसी जतां प्रभासमूह बेसी जाय छे, तेवी ज रीते विशिष्ट आहारादिना वशे ते शरीर वधतां ते जीवना प्रदेशो विस्तार पामे छे अने शरीर पाछुं घटी जतां प्रदेशो संकोचाई जाय छे. वळी जेवी रीते ते पद्मरागरत्न बीजा वधारे दूधमां नाखवामां आव्युं थकुं स्वप्रभासमूहना विस्तार वडे ते वधारे दूधमां व्यापे छे, तेवी ज रीते जीव बीजा मोटा शरीरमां स्थिति पाम्यो थको स्वप्रदेशोना विस्तार वडे ते मोटा शरीरमां व्यापे छे. वळी जेवी रीते ते पद्मरागरत्न बीजा थोडा दूधमां नाखवामां आव्युं थकुं स्वप्रभासमूहना संकोच वडे ते थोडा दूधमां व्यापे छे, तेवी ज रीते जीव बीजा नाना शरीरमां स्थिति *अव्यतिरिक्त=अभिन्न. [जेम ‘साकर एक द्रव्य छे अने गळपण तेनो गुण छे’ एवुं कोई स्थळे

द्रष्टांतमां कह्युं होय तो ते सिद्धांत तरीके न समजवुं जोईए, तेम अहीं पण जीवना संकोचविस्ताररूप
दार्ष्टांतने समजाववा माटे रत्न अने (
दूधमां फेलायेली) तेनी प्रभाने जे अव्यतिरिक्तपणुं कह्युं
छे ते सिद्धांत तरीके न समजवुं. पुद्गलात्मक रत्नने द्रष्टांत बनावीने असंख्यप्रदेशी जीवद्रव्यना
संकोचविस्तारनो कोई रीते ख्याल कराववाना हेतुथी अहीं रत्ननी प्रभाने रत्नथी अभिन्न कही
छे (
अर्थात् रत्ननी प्रभा संकोचविस्तार पामतां जाणे के रत्नना अंशो जरत्न जसंकोचविस्तार
पामेल होय एम ख्यालमां लेवानुं कह्युं छे).]

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
६३

शरीरेऽवतिष्ठमानः स्वप्रदेशोपसंहारेण तद्वयाप्नोत्यणुशरीरमिति ।।३३।।

सव्वत्थ अत्थि जीवो ण य एक्को एक्ककाय एक्कट्ठो
अज्झवसाणविसिट्ठो चिट्ठदि मलिणो रजमलेहिं ।।३४।।
सर्वत्रास्ति जीवो न चैक एककाये ऐक्यस्थः
अध्यवसानविशिष्टश्चेष्टते मलिनो रजोमलैः ।।३४।।

अत्र जीवस्य देहाद्देहांतरेऽस्तित्वं, देहात्पृथग्भूतत्वं, देहांतरसञ्चरणकारणं चोपन्यस्तम् पाम्यो थको स्वप्रदेशोना संकोच वडे ते नाना शरीरमां व्यापे छे.

भावार्थत्रण लोक अने त्रण काळनां समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायोने एक समये प्रकाशवामां समर्थ एवा विशुद्ध-दर्शनज्ञानस्वभाववाळा चैतन्यचमत्कारमात्र शुद्धजीवास्तिकायथी विलक्षण मिथ्यात्वरागादि विकल्पो वडे उपार्जित जे शरीरनामकर्म तेनाथी जनित (अर्थात् ते शरीरनामकर्मनो उदय जेमां निमित्त छे एवा) संकोच- विस्तारना आधीनपणे जीव सर्वोत्कृष्ट अवगाहे परिणमतो थको सहस्रयोजनप्रमाण महामच्छना शरीरमां व्यापे छे, जघन्य अवगाहे परिणमतो थको उत्सेध घनांगुलना असंख्यमा भाग जेवडा लब्ध्यपर्याप्त सूक्ष्मनिगोदना शरीरमां व्यापे छे अने मध्यम अवगाहे परिणमतो थको मध्यम शरीरोमां व्यापे छे. ३३.

तन तन धरे जीव, तन महीं ऐक्यस्थ पण नहि एक छे,
जीव विविध अध्यवसाययुत, रजमळमलिन थईने भमे. ३४.

अन्वयार्थ[ जीवः ] जीव [ सर्वत्र ] सर्वत्र (क्रमवर्ती सर्व शरीरोमां) [ अस्ति ] छे [ च ] अने [ एककाये ] कोई एक शरीरमां [ ऐक्यस्थः ] (क्षीरनीरवत) एकपणे रह्यो होवा छतां [ न एकः ] तेनी साथे एक नथी; [ अध्यवसानविशिष्टः ] अध्यवसाय- विशिष्ट वर्ततो थको [ रजोमलैः मलिनः ] रजमळ (कर्ममळ) वडे मलिन होवाथी [ चेष्टते ] ते भमे छे.

टीकाअहीं जीवनुं देहथी देहांतरमां (एक शरीरथी अन्य शरीरमां) अस्तित्व, देहथी पृथक्पणुं अने देहांतरमां गमननुं कारण कहेल छे.


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६४

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

आत्मा हि संसारावस्थायां क्रमवर्तिन्यनवच्छिन्नशरीरसन्ताने यथैकस्मिन् शरीरे वृत्तः तथा क्रमेणान्येष्वपि शरीरेषु वर्तत इति तस्य सर्वत्रास्तित्वम् न चैकस्मिन् शरीरे नीरे क्षीरमिवैक्येन स्थितोऽपि भिन्नस्वभावत्वात्तेन सहैक इति तस्य देहात्पृथग्भूतत्वम् अनादि- बन्धनोपाधिविवर्तितविविधाध्यवसायविशिष्टत्वात्तन्मूलकर्मजालमलीमसत्वाच्च चेष्टमानस्यात्मन- स्तथाविधाध्यवसायकर्मनिर्वर्तितेतरशरीरप्रवेशो भवतीति तस्य देहान्तरसञ्चरणकारणोपन्यास इति ।।३४।।

जेसिं जीवसहावो णत्थि अभावो य सव्वहा तस्स
ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमदीदा ।।३५।।
येषां जीवस्वभावो नास्त्यभावश्च सर्वथा तस्य
ते भवन्ति भिन्नदेहाः सिद्धा वाग्गोचरमतीताः ।।३५।।

आत्मा संसार-अवस्थामां क्रमवर्ती अच्छिन्न (अतूटक) शरीरप्रवाहने विषे जेम एक शरीरमां वर्ते छे तेम क्रमथी अन्य शरीरोमां पण वर्ते छे; ए रीते तेने सर्वत्र (सर्व शरीरोमां) अस्तित्व छे. वळी कोई एक शरीरमां, पाणीमां दूधनी माफक एकपणे रह्यो होवा छतां, भिन्न स्वभावने लीधे तेनी साथे एक (तद्रूप) नथी; ए रीते तेने देहथी पृथक्पणुं छे. अनादि बंधनरूप उपाधिथी विवर्तन (परिवर्तन) पामता विविध अध्यवसायोथी विशिष्ट होवाने लीधे (अनेक प्रकारना अध्यवसायवाळो होवाने लीधे) तथा ते अध्यवसायो जेनुं निमित्त छे एवा कर्मसमूहथी मलिन होवाने लीधे भमता आत्माने तथाविध अध्यवसायो अने कर्मोथी रचाता (ते प्रकारनां मिथ्यात्वरागादिरूप भावकर्मो अने द्रव्यकर्मोथी रचाता) अन्य शरीरमां प्रवेश थाय छे; ए रीते तेने देहांतरमां गमन थवानुं कारण कहेवामां आव्युं. ३४.

जीवत्व नहि ने सर्वथा तदभाव पण नहि जेमने,
ते सिद्ध छेजे देहविरहित वचनविषयातीत छे. ३५.

अन्वयार्थ[ येषां ] जेमने [ जीवस्वभावः ] जीवस्वभाव (प्राणधारणरूप जीवत्व) [ न अस्ति ] नथी अने [ सर्वथा ] सर्वथा [ तस्य अभावः च ] तेनो अभाव पण नथी, [ ते ] ते [ भिन्नदेहाः ] देहरहित [ वाग्गोचरम् अतीताः ] वचनगोचरातीत [ सिद्धाः भवन्ति ] सिद्धो (सिद्धभगवंतो) छे.


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
६५
सिद्धानां जीवत्वदेहमात्रत्वव्यवस्थेयम्
सिद्धानां हि द्रव्यप्राणधारणात्मको मुख्यत्वेन जीवस्वभावो नास्ति न च जीव-

स्वभावस्य सर्वथाभावोऽस्ति भावप्राणधारणात्मकस्य जीवस्वभावस्य मुख्यत्वेन सद्भावात् च तेषां शरीरेण सह नीरक्षीरयोरिवैक्येन वृत्तिः, यतस्ते तत्सम्पर्कहेतुभूतकषाययोगविप्रयोगाद- तीतानन्तरशरीरमात्रावगाहपरिणतत्वेऽप्यत्यन्तभिन्नदेहाः वाचां गोचरमतीतश्च तन्महिमा, यतस्ते लौकिकप्राणधारणमन्तरेण शरीरसम्बन्धमन्तरेण च परिप्राप्तनिरुपाधिस्वरूपाः सततं प्रतपन्तीति ।।३५।।

ण कुदोचि वि उप्पण्णो जम्हा कज्जं ण तेण सो सिद्धो
उप्पादेदि ण किंचि वि कारणमवि तेण ण स होदि ।।३६।।

टीकाआ, सिद्धोनां (सिद्धभगवंतोनां) जीवत्व अने देहप्रमाणत्वनी व्यवस्था छे.

सिद्धोने खरेखर द्रव्यप्राणना धारणस्वरूप जीवस्वभाव मुख्यपणे नथी; (तेमने) जीवस्वभावनो सर्वथा अभाव पण नथी, कारण के भावप्राणना धारणस्वरूप जीवस्वभावनो मुख्यपणे सद्भाव छे. वळी तेमने शरीरनी साथे, नीरक्षीरनी माफक, एकपणे वृत्ति नथी; कारण के शरीरसंयोगना हेतुभूत कषाय अने योगनो वियोग थयो होवाथी तेओ अतीत अनंतर शरीरप्रमाण अवगाहे परिणत होवा छतां अत्यंत देहरहित छे. वळी वचनगोचरातीत तेमनो महिमा छे; कारण के लौकिक प्राणना धारण विना अने शरीरना संबंध विना, संपूर्णपणे प्राप्त करेला निरुपाधि स्वरूप वडे तेओ सतत प्रतपे छे (प्रतापवंत वर्ते छे). ३५.

ऊपजे नहीं को कारणे ते सिद्ध तेथी न कार्य छे,
उपजावता नथी कांई पण तेथी न कारण पण ठरे. ३६.
१. वृत्ति=वर्तवुं ते; हयाती.
२. अतीत अनंतर=भूत काळनुं सौथी छेल्लुं; चरम. (सिद्धभगवंतोनी अवगाहना चरमशरीरप्रमाण
होवाने लीधे ते छेल्ला देहनी अपेक्षा लईने तेमने ‘देहप्रमाणपणुं’ कही शकातुं होवा छतां, खरेखर
तेओ अत्यंत देहरहित छे.)

३. वचनगोचरातीत=वचनगोचरपणाने अतिक्रमी गयेल; वचनविषयातीत; वचन-अगोचर. पं. ९


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६६

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
न कुतश्चिदप्युत्पन्नो यस्मात् कार्यं न तेन सः सिद्धः
उत्पादयति न किञ्चिदपि कारणमपि तेन न स भवति ।।३६।।
सिद्धस्य कार्यकारणभावनिरासोऽयम्
यथा संसारी जीवो भावकर्मरूपयात्मपरिणामसन्तत्या द्रव्यकर्मरूपया च पुद्गलपरिणाम-

सन्तत्या कारणभूतया तेन तेन देवमनुष्यतिर्यग्नारकरूपेण कार्यभूत उत्पद्यते, न तथा सिद्ध- रूपेणापीति सिद्धो ह्युभयकर्मक्षये स्वयमुत्पद्यमानो नान्यतः कुतश्चिदुत्पद्यत इति यथैव च स एव संसारी भावकर्मरूपामात्मपरिणामसन्ततिं द्रव्यकर्मरूपां च पुद्गलपरिणामसन्ततिं कार्यभूतां कारणभूतत्वेन निर्वर्तयन् तानि तानि देवमनुष्यतिर्यग्नारकरूपाणि कार्याण्युत्पादयत्यात्मनो, न तथा सिद्धरूपमपीति सिद्धो ह्युभयकर्मक्षये स्वयमात्मानमुत्पादयन्नान्यत्किञ्चिदुत्पादयति ३६

अन्वयार्थ[ यस्मात् सः सिद्धः ] ते सिद्ध [ कु तश्चित् अपि ] कोई (अन्य) कारणथी [ न उत्पन्नः ] ऊपजता नथी [ तेन ] तेथी [ कार्यं न ] कार्य नथी, अने [ किञ्चित् अपि ] कांई पण (अन्य कार्यने) [ न उत्पादयति ] ऊपजावता नथी [ तेन ] तेथी [ सः ] ते [ कारणम् अपि ] कारण पण [ न भवति ] नथी.

टीकाआ, सिद्धने कार्यकारणभाव होवानो निरास छे (अर्थात् सिद्ध- भगवानने कार्यपणुं अने कारणपणुं होवानुं निराकरणखंडन छे).

जेम संसारी जीव कारणभूत एवी भावकर्मरूप *आत्मपरिणामसंतति अने द्रव्यकर्मरूप पुद्गलपरिणामसंतति वडे ते ते देव-मनुष्य-तिर्यंच-नारकना रूपे कार्यभूतपणे ऊपजे छे, तेम सिद्धरूपे पण ऊपजे छे एम नथी; (अने) सिद्ध (सिद्धभगवान) खरेखर, बंने कर्मनो क्षय होतां, स्वयं (सिद्धपणे) ऊपजता थका अन्य कोई कारणथी (भावकर्मथी के द्रव्यकर्मथी) ऊपजता नथी.

वळी जेम ते ज संसारी (जीव) कारणभूत थईने कार्यभूत एवी भावकर्मरूप आत्मपरिणामसंतति अने द्रव्यकर्मरूप पुद्गलपरिणामसंतति रचतो थको कार्यभूत एवां ते ते देव-मनुष्य-तिर्यंच-नारकनां रूपो पोताने विषे उपजावे छे, तेम सिद्धनुं रूप पण (पोताने विषे) उपजावे छे एम नथी; (अने) सिद्ध खरेखर, बन्ने कर्मनो क्षय होतां, स्वयं पोताने (सिद्धपणे) उपजावता थका अन्य कांई पण (भावद्रव्यकर्मस्वरूप के देवादिस्वरूप कार्य) उपजावता नथी. ३६. *आत्मपरिणामसंतति=आत्माना परिणामोनी परंपरा


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
६७
सस्सदमध उच्छेदं भव्वमभव्वं च सुण्णमिदरं च
विण्णाणमविण्णाणं ण वि जुज्जदि असदि सब्भावे ।।३७।।
शाश्वतमथोच्छेदो भव्यमभव्यं च शून्यमितरच्च
विज्ञानमविज्ञानं नापि युज्यते असति सद्भावे ।।३७।।
अत्र जीवाभावो मुक्ति रिति निरस्तम्
द्रव्यं द्रव्यतया शाश्वतमिति, नित्ये द्रव्ये पर्यायाणां प्रतिसमयमुच्छेद इति,

द्रव्यस्य सर्वदा अभूतपर्यायैः भाव्यमिति, द्रव्यस्य सर्वदा भूतपर्यायैरभाव्यमिति, द्रव्यमन्य- द्रव्यैः सदा शून्यमिति, द्रव्यं स्वद्रव्येण सदाऽशून्यमिति, क्वचिज्जीवद्रव्येऽनन्तं ज्ञानं क्वचित्सान्तं ज्ञानमिति, क्वचिज्जीवद्रव्येऽनन्तं क्वचित्सान्तमज्ञानमितिएतदन्यथानुपपद्यमानं

सद्भाव जो नहि होय तो ध्रुव, नाश, भव्य, अभव्य ने
विज्ञान, अणविज्ञान, शून्य, अशून्यए कंई नव घटे. ३७.

अन्वयार्थ[ सद्भावे असति ] जो (मोक्षमां जीवनो) सद्भाव न होय तो [ शाश्वतम् ] शाश्वत, [ अथ उच्छेदः ] नाशवंत, [ भव्यम् ] भव्य (थवायोग्य), [ अभव्यम् च ] अभव्य (नहि थवायोग्य), [ शून्यम् ] शून्य, [ इतरत् च ] अशून्य, [ विज्ञानम् ] विज्ञान अने [ अविज्ञानम् ] अविज्ञान [ न अपि युज्यते ] (जीवद्रव्यने विषे ) न ज घटे. (माटे मोक्षमां जीवनो सद्भाव छे ज.)

टीकाअहीं, ‘जीवनो अभाव ते मुक्ति छे’ ए वातनुं खंडन कर्युं छे.

(१) द्रव्य द्रव्यपणे शाश्वत छे, (२) नित्य द्रव्यमां पर्यायोनो प्रत्येक समये नाश थाय छे, (३) द्रव्य सर्वदा अभूत पर्यायोरूपे भाव्य (थवायोग्य, परिणमवायोग्य) छे, (४) द्रव्य सर्वदा भूत पर्यायोरूपे अभाव्य (नहि थवायोग्य) छे, (५) द्रव्य अन्य द्रव्योथी सदा शून्य छे, (६) द्रव्य स्वद्रव्यथी सदा अशून्य छे, (७) कोईक जीवद्रव्यमां अनंत ज्ञान अने कोईकमां सांत ज्ञान छे, (८) कोईक जीवद्रव्यमां अनंत अज्ञान अने १. जे सम्यक्त्वथी च्युत थवानो न होय एवा सम्यक्त्वी जीवने अनंत ज्ञान छे अने जे च्युत थवानो

होय एवा सम्यक्त्वी जीवने सांत ज्ञान छे. २. अभव्य जीवने अनंत अज्ञान छे अने जेने कोई काळे पण ज्ञान थवानुं छे एवा अज्ञानी भव्य

जीवने सांत अज्ञान छे.

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६८

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

मुक्तौ जीवस्य सद्भावमावेदयतीति ।।३७।।

कम्माणं फलमेक्को एक्को कज्जं तु णाणमध एक्को
चेदयदि जीवरासी चेदगभावेण तिविहेण ।।३८।।
कर्मणां फलमेकः एकः कार्यं तु ज्ञानमथैकः
चेतयति जीवराशिश्चेतकभावेन त्रिविधेन ।।३८।।
चेतयितृत्वगुणव्याख्येयम्
एके हि चेतयितारः प्रकृष्टतरमोहमलीमसेन प्रकृष्टतरज्ञानावरणमुद्रितानुभावेन

कोईकमां सांत अज्ञान छेआ बधुं, अन्यथा नहि घटतुं थकुं, मोक्षमां जीवना सद्भावने जाहेर करे छे. ३७.

त्रणविध चेतकभावथी को जीवराशि ‘कार्य’ने,
को जीवराशि ‘कर्मफळ’ने, कोई चेते ‘ज्ञान’ने. ३८.

अन्वयार्थ[ त्रिविधेन चेतकभावेन ] त्रिविध चेतकभाव वडे [ एकः जीवराशिः ] एक जीवराशि [ कर्मणां फलम् ] कर्मोना फळने, [ एकः तु ] एक जीवराशि [ कार्यं ] कार्यने [ अथ ] अने [ एकः ] एक जीवराशि [ ज्ञानम् ] ज्ञानने [ चेतयति ] चेते (वेदे) छे.

टीकाआ, चेतयितृत्वगुणनी व्याख्या छे.

कोई चेतयिताओ अर्थात् आत्माओ तो, जे अति प्रकृष्ट मोहथी मलिन छे अने जेनो प्रभाव (शक्ति) अति प्रकृष्ट ज्ञानावरणथी बिडाई गयो छे १. अन्यथा=अन्य प्रकारे; बीजी रीते. [मोक्षमां जीवनी हयाती ज न रहेती होय तो उक्त आठ

भावो घटे ज नहि. जो मोक्षमां जीवनो अभाव ज थई जतो होय तो, (१) दरेक द्रव्य द्रव्यपणे
शाश्वत छे
ए वात केम घटे? (२) दरेक द्रव्य नित्य रहीने तेमां पर्यायोनो नाश थया करे
छेए वात केम घटे? (३६) दरेक द्रव्य सर्वदा अनागत पर्याये भाव्य, सर्वदा अतीत पर्याये
अभाव्य, सर्वदा परथी शून्य अने सर्वदा स्वथी अशून्य छेए वातो केम घटे? (७) कोईक
जीवद्रव्यमां अनंत ज्ञान छेए वात केम घटे? अने (८) कोईक जीवद्रव्यमां सांत अज्ञान छे
(अर्थात् जीवद्रव्य नित्य रहीने तेमां अज्ञानपरिणामनो अंत आवे छे)ए वात केम घटे?
माटे आ आठ भावो द्वारा मोक्षमां जीवनी हयाती सिद्ध थाय छे.]

२. चेतयितृत्व=चेतयितापणुं; चेतनारपणुं; चेतकपणुं.


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
६९

चेतकस्वभावेन प्रकृष्टतरवीर्यान्तरायावसादितकार्यकारणसामर्थ्याः सुखदुःखरूपं कर्मफलमेव प्राधान्येन चेतयन्ते अन्ये तु प्रकृष्टतरमोहमलीमसेनापि प्रकृष्टज्ञानावरणमुद्रितानुभावेन चेतकस्वभावेन मनाग्वीर्यान्तरायक्षयोपशमासादितकार्यकारणसामर्थ्याः सुखदुःखरूपकर्मफलानु- भवनसंवलितमपि कार्यमेव प्राधान्येन चेतयन्ते अन्यतरे तु प्रक्षालितसकलमोहकलङ्केन समुच्छिन्नकृत्स्नज्ञानावरणतयात्यन्तमुन्मुद्रितसमस्तानुभावेन चेतकस्वभावेन समस्तवीर्यान्तराय- क्षयासादितानन्तवीर्या अपि निर्जीर्णकर्मफलत्वादत्यन्तकृतकृत्यवाच्च स्वतोऽव्यतिरिक्त स्वाभाविक- एवा चेतकस्वभाव वडे सुखदुःखरूप ‘कर्मफळ’ने ज प्रधानपणे चेते छे, कारण के तेमने अति प्रकृष्ट वीर्यांतरायथी कार्य करवानुं (कर्मचेतनारूपे परिणमवानुं) सामर्थ्य नष्ट थयुं छे.

बीजा चेतयिताओ अर्थात् आत्माओ, जे अति प्रकृष्ट मोहथी मलिन छे अने जेनो प्रभाव प्रकृष्ट ज्ञानावरणथी बिडाई गयो छे एवा चेतकस्वभाव वडे भले सुखदुःखरूप कर्मफळना अनुभवथी मिश्रितपणे पणकार्य’ने ज प्रधानपणे चेते छे, कारण के तेमणे थोडा वीर्यांतरायना क्षयोपशमथी कार्य करवानुं सामर्थ्य प्राप्त कर्युं छे.

वळी बीजा चेतयिताओ अर्थात् आत्माओ, जेमांथी सकळ मोहकलंक धोवाई गयुं छे अने समस्त ज्ञानावरणना विनाशने लीधे जेनो समस्त प्रभाव अत्यंत खीली गयो छे एवा चेतकस्वभाव वडे ‘ज्ञान’ने जके जे ज्ञान पोताथी अव्यतिरिक्त स्वाभाविक सुखवाळुं छे तेने जचेते छे, कारण के तेमणे समस्त वीर्यान्तरायना क्षयथी अनंत वीर्यने प्राप्त कर्युं होवा छतां तेमने (विकारी सुखदुःखरूप) कर्मफळ १. कर्मचेतनावाळा जीवने ज्ञानावरण ‘प्रकृष्ट’ होय छे अने कर्मफळचेतनावाळाने ‘अति प्रकृष्ट’ होय

छे. २. कार्य=(जीव वडे) करवामां आवतुं होय ते; इच्छापूर्वक इष्टानिष्ट विकल्परूप कर्म.

[जे जीवोने वीर्यनो कांईक विकास थयो छे तेमने कर्मचेतनारूपे परिणमवानुं सामर्थ्य प्रगट्युं

छे तेथी तेओ मुख्यपणे कर्मचेतनारूपे परिणमे छे. आ कर्मचेतना कर्मफळचेतनाथी मिश्रित होय छे.] ३. अव्यतिरिक्त=अभिन्न. (स्वाभाविक सुख ज्ञानथी अभिन्न छे तेथी ज्ञानचेतना स्वाभाविक

सुखना संचेतनअनुभवनसहित ज होय छे.)

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७०

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

सुखं ज्ञानमेव चेतयन्त इति ।।३८।।

सव्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसा हि कज्जजुदं
पाणित्तमदिक्कंता णाणं विंदंति ते जीवा ।।३९।।
सर्वे खलु कर्मफलं स्थावरकायास्त्रसा हि कार्ययुतम्
प्राणित्वमतिक्रान्ताः ज्ञानं विन्दन्ति ते जीवाः ।।३९।।
अत्र कः किं चेतयत इत्युक्त म्

चेतयन्ते अनुभवन्ति उपलभन्ते विन्दन्तीत्येकार्थाश्चेतनानुभूत्युपलब्धिवेदनानामे- कार्थत्वात् तत्र स्थावराः कर्मफलं चेतयन्ते, त्रसाः कार्यं चेतयन्ते, केवलज्ञानिनो निर्जरी गयुं छे अने अत्यंत कृतकृत्यपणुं थयुं छे (अर्थात् कांई करवानुं लेशमात्र पण रह्युं नथी). ३८.

वेदे करमफळ स्थावरो, त्रस कार्ययुत फळ अनुभवे,
प्राणित्वथी अतिक्रांत जे ते जीव वेदे ज्ञानने. ३९.

अन्वयार्थ[ सर्वे स्थावरकायाः ] सर्व स्थावर जीवसमूहो [ खलु ] खरेखर [ कर्मफलं ] कर्मफळने वेदे छे, [ त्रसाः ] त्रसो [ हि ] खरेखर [ कार्ययुतम् ] कार्यसहित कर्मफळने वेदे छे अने [ प्राणित्वम् अतिक्रान्ताः ] जे प्राणित्वने (प्राणोने) अतिक्रमी गया छे [ ते जीवाः ] ते जीवो [ ज्ञानं ] ज्ञानने [ विन्दन्ति ] वेदे छे.

टीकाअहीं, कोण शुं चेते छे (अर्थात् कया जीवने कई चेतना होय छे) ते कह्युं छे.

चेते छे, अनुभवे छे, उपलब्ध करे छे अने वेदे छेए एकार्थ छे (अर्थात ए बधा शब्दो एक अर्थवाळा छे), कारण के चेतना, अनुभूति, उपलब्धि अने वेदनानो एक अर्थ छे. त्यां, स्थावरो कर्मफळने चेते छे, त्रसो कार्यने चेते छे, १. कृतकृत्य=कृतकार्य. [परिपूर्ण ज्ञानवाळा आत्माओ अत्यंत कृतकार्य छे तेथी, जोके तेमने अनंत वीर्य

प्रगट थयुं छे तोपण, तेमनुं वीर्य कार्यचेतनाने (कर्मचेतनाने) रचतुं नथी, (वळी विकारी सुखदुःख
विनष्ट थयां होवाथी तेमनुं वीर्य कर्मफळचेतनाने पण रचतुं नथी,) ज्ञानचेतनाने ज रचे छे.]

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
७१

ज्ञानं चेतयन्त इति ।।३९।।

अथोपयोगगुणव्याख्यानम्
उवओगो खलु दुविहो णाणेण य दंसणेण संजुत्तो
जीवस्स सव्वकालं अणण्णभूदं वियाणीहि ।।४०।।
उपयोगः खलु द्विविधो ज्ञानेन च दर्शनेन संयुक्त :
जीवस्य सर्वकालमनन्यभूतं विजानीहि ।।४०।।

आत्मनश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः सोऽपि द्विविध :ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्च तत्र विशेषग्राहि ज्ञानं, सामान्यग्राहि दर्शनम् उपयोगश्च सर्वदा केवळज्ञानीओ ज्ञानने चेते छे.

भावार्थपांच प्रकारना स्थावर जीवो अव्यक्त सुखदुःखानुभवरूप शुभाशुभ- कर्मफळने चेते छे. द्वींद्रिय आदि त्रस जीवो ते ज कर्मफळने इच्छापूर्वक इष्टानिष्ट विकल्परूप कार्य सहित चेते छे. *परिपूर्ण ज्ञानवंत भगवंतो (अनंत सौख्य सहित) ज्ञानने ज चेते छे. ३९.

हवे उपयोगगुणनुं व्याख्यान छे.
छे ज्ञान ने दर्शन सहित उपयोग युगल प्रकारनो;
जीवद्रव्यने ते सर्व काळ अनन्यरूपे जाणवो. ४०.

अन्वयार्थ[ ज्ञानेन च दर्शनेन संयुक्तः ] ज्ञानथी अने दर्शनथी संयुक्त एवो [ खलु द्विविधः ] खरेखर बे प्रकारनो [ उपयोगः ] उपयोग [ जीवस्य ] जीवने [ सर्वकालम् ] सर्व काळ [ अनन्यभूतं ] अनन्यपणे [ विजानीहि ] जाणो.

टीकाआत्मानो चैतन्य-अनुविधायी (अर्थात् चैतन्यने अनुसरनारो) परिणाम ते उपयोग छे. ते पण बे प्रकारनो छेज्ञानोपयोग अने दर्शनोपयोग. त्यां, विशेषने ग्रहनारुं ज्ञान छे अने सामान्यने ग्रहनारुं दर्शन छे (अर्थात् विशेष जेमां प्रतिभासे ते *अहीं परिपूर्ण ज्ञानचेतनानी विवक्षा होवाथी, केवळीभगवंतो अने सिद्धभगवंतोने ज ज्ञानचेतना कहेवामां आवी छे. आंशिक ज्ञानचेतनानी विवक्षाथी तो मुनिओ, श्रावको अने अविरत सम्यग्द्रष्टिओने पण ज्ञानचेतना कही शकाय छे; तेनो अहीं निषेध न समजवो, मात्र विवक्षाभेद छे एम समजवुं.


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७२

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

जीवादपृथग्भूत एव, एकास्तित्वनिर्वृत्तत्वादिति ।।४०।।

आभिणिसुदोधिमणकेवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि
कुमदिसुदविभंगाणि य तिण्णि वि णाणेहिं संजुत्ते ।।४१।।
आभिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानानि पञ्चभेदानि
कुमतिश्रुतविभङ्गानि च त्रीण्यपि ज्ञानैः संयुक्तानि ।।४१।।
ज्ञानोपयोगविशेषाणां नामस्वरूपाभिधानमेतत
तत्राभिनिबोधिकज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मनःपर्ययज्ञानं केवलज्ञानं कुमतिज्ञानं

कुश्रुतज्ञानं विभङ्गज्ञानमिति नामाभिधानम् आत्मा ह्यनन्तसर्वात्मप्रदेशव्यापिविशुद्ध- ज्ञान छे अने सामान्य जेमां प्रतिभासे ते दर्शन छे). वळी उपयोग सर्वदा जीवथी *अपृथग्भूत ज छे, कारण के एक अस्तित्वथी रचायेल छे. ४०.

मति, श्रुत, अवधि, मनः, केवळपांच भेदो ज्ञानना;
कुमति, कुश्रुत, विभंगत्रण पण ज्ञान साथे जोडवां. ४१.

अन्वयार्थ[ आभिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ] आभिनिबोधिक (मति), श्रुत, अवधि, मनःपर्यय अने केवळ[ ज्ञानानि पञ्चभेदानि ] एम ज्ञानना पांच भेद छे; [ कुमतिश्रुतविभङ्गानि च ] वळी कुमति, कुश्रुत अने विभंग[ त्रीणि अपि ] ए त्रण (अज्ञानो) पण [ ज्ञानैः ] (पांच) ज्ञानो साथे [ संयुक्तानि ] जोडवामां आव्यां छे. ( प्रमाणे ज्ञानोपयोगना आठ भेद छे.)

टीकाआ, ज्ञानोपयोगना भेदोनां नाम अने स्वरूपनुं कथन छे.

त्यां, (१) आभिनिबोधिकज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनः- पर्ययज्ञान, (५) केवळज्ञान, (६) कुमतिज्ञान, (७) कुश्रुतज्ञान अने (८) विभंगज्ञान ए प्रमाणे (ज्ञानोपयोगना भेदोनां) नामनुं कथन छे.

(हवे तेमनां स्वरूपनुं कथन करवामां आवे छे) आत्मा खरेखर अनंत, सर्व आत्मप्रदेशोमां व्यापक, विशुद्ध ज्ञानसामान्यस्वरूप छे. ते (आत्मा) खरेखर अनादि *अपृथग्भूत=अभिन्न. (उपयोग सदा जीवथी अभिन्न ज छे, कारण के तेओ एक अस्तित्वथी

निष्पन्न छे.)

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
७३

ज्ञानसामान्यात्मा स खल्वनादिज्ञानावरणकर्मावच्छन्नप्रदेशः सन्, यत्तदावरणक्षयोप- शमादिन्द्रियानिन्द्रियावलम्बाच्च मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तदाभिनि- बोधिकज्ञानम्, यत्तदावरणक्षयोपशमादनिन्द्रियावलम्बाच्च मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणाव- बुध्यते तत् श्रुतज्ञानम्, यत्तदावरणक्षयोपशमादेव मूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तदवधिज्ञानम्, यत्तदावरणक्षयोपशमादेव परमनोगतं मूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तन्मनःपर्ययज्ञानम्, यत्सकलावरणात्यन्तक्षये केवल एव मूर्तामूर्तद्रव्यं सकलं विशेषेणाव- बुध्यते तत्स्वाभाविकं केवलज्ञानम् मिथ्यादर्शनोदयसहचरितमाभिनिबोधिकज्ञानमेव कुमतिज्ञानम्, मिथ्यादर्शनोदयसहचरितं श्रुतज्ञानमेव कुश्रुतज्ञानम्, मिथ्यादर्शनोदयसह- ज्ञानावरणकर्मथी आच्छादित प्रदेशोवाळो वर्ततो थको, (१) ते प्रकारना (अर्थात मतिज्ञानना) आवरणना क्षयोपशमथी अने इन्द्रिय-मनना अवलंबनथी मूर्त-अमूर्त द्रव्यने विकळपणे विशेषतः अवबोधे छे ते आभिनिबोधिकज्ञान छे, (२) ते प्रकारना (अर्थात श्रुतज्ञानना) आवरणना क्षयोपशमथी अने मनना अवलंबनथी मूर्त-अमूर्त द्रव्यने विकळपणे विशेषतः अवबोधे छे ते श्रुतज्ञान छे, (३) ते प्रकारना आवरणना क्षयोपशमथी ज मूर्त द्रव्यने विकळपणे विशेषतः अवबोधे छे ते अवधिज्ञान छे, (४) ते प्रकारना आवरणना क्षयोपशमथी ज परमनोगत (पारकाना मन साथे संबंधवाळा) मूर्त द्रव्यने विकळपणे विशेषतः अवबोधे छे ते मनःपर्ययज्ञान छे, (५) समस्त आवरणना अत्यंत क्षये, केवळ ज (आत्मा एकलो ज), मूर्त-अमूर्त द्रव्यने सकळपणे विशेषतः अवबोधे छे ते स्वाभाविक केवळज्ञान छे. (६) मिथ्यादर्शनना उदय साथेनुं आभिनिबोधिकज्ञान ज कुमतिज्ञान छे, (७) मिथ्यादर्शनना उदय साथेनुं श्रुतज्ञान ज कुश्रुतज्ञान छे, (८) मिथ्यादर्शनना उदय साथेनुं अवधिज्ञान ज विभंगज्ञान छे.आ प्रमाणे (ज्ञानोपयोगना भेदोनां) स्वरूपनुं कथन छे.

ए रीते मतिज्ञानादि आठ ज्ञानोपयोगोनुं व्याख्यान करवामां आव्युं.
भावार्थप्रथम तो, नीचे प्रमाणे पांच ज्ञानोनुं स्वरूप छे

निश्चयनये अखंड-एक-विशुद्धज्ञानमय एवो आ आत्मा व्यवहारनये संसारावस्थामां कर्मावृत वर्ततो थको, मतिज्ञानावरणनो क्षयोपशम होतां, पांच इन्द्रियो १. विकळपणे=अपूर्णपणे; अंशे. २. विशेषतः अवबोधवुं=जाणवुं. (विशेष अवबोध अर्थात् विशेष प्रतिभास ते ज्ञान छे.) पं. १०


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७४

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

चरितमवधिज्ञानमेव विभङ्गज्ञानमिति स्वरूपाभिधानम् अने मनथी मूर्त-अमूर्त वस्तुने विकल्परूपे जे जाणे छे ते मतिज्ञान छे. ते त्रण प्रकारनुं छेः उपलब्धिरूप, भावनारूप अने उपयोगरूप. मतिज्ञानावरणना क्षयोपशमथी जनित अर्थग्रहणशक्ति (पदार्थने जाणवानी शक्ति) ते उपलब्धि छे, जाणेला पदार्थनुं पुनः पुनः चिंतन ते भावना छे अने ‘आ काळुं छे’, ‘आ पीळुं छे’ इत्यादिरूपे अर्थग्रहणव्यापार (पदार्थने जाणवानो व्यापार) ते उपयोग छे. एवी ज रीते ते (मतिज्ञान) अवग्रह, ईहा, अवाय अने धारणारूप भेदो वडे अथवा कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारीबुद्धि अने संभिन्नश्रोतृताबुद्धि एवा भेदो वडे चार प्रकारनुं छे. (अहीं, एम तात्पर्य ग्रहण करवुं के निर्विकार शुद्ध अनुभूति प्रत्ये अभिमुख जे मतिज्ञान ते ज उपादेयभूत अनंत सुखनुं साधक होवाथी निश्चयथी उपादेय छे, तेना साधनभूत बहिरंग मतिज्ञान तो व्यवहारथी उपादेय छे.)

ते ज पूर्वोक्त आत्मा, श्रुतज्ञानावरणनो क्षयोपशम होतां, मूर्त-अमूर्त वस्तुने परोक्षरूपे जे जाणे छे तेने ज्ञानीओ श्रुतज्ञान कहे छे. ते लब्धिरूप अने भावनारूप छे तेम ज उपयोगरूप अने नयरूप छे. ‘उपयोग’ शब्दथी अहीं वस्तुने ग्रहनारुं प्रमाण समजवुं अर्थात् आखी वस्तुने जाणनारुं ज्ञान समजवुं अने ‘नयशब्दथी वस्तुना (गुणपर्यायरूप) एक देशने ग्रहनारो एवो ज्ञातानो अभिप्राय समजवो. (अहीं एम तात्पर्य ग्रहण करवुं के विशुद्धज्ञानदर्शन जेनो स्वभाव छे एवा शुद्ध आत्मतत्त्वनां सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-अनुचरणरूप अभेदरत्नत्रयात्मक जे भावश्रुत ते ज उपादेयभूत परमात्मतत्त्वनुं साधक होवाथी निश्चयथी उपादेय छे परंतु तेना साधनभूत बहिरंग श्रुतज्ञान तो व्यवहारथी उपादेय छे.)

आ आत्मा, अवधिज्ञानावरणनो क्षयोपशम होतां, मूर्त वस्तुने जे प्रत्यक्षपणे जाणे छे ते अवधिज्ञान छे. ते अवधिज्ञान लब्धिरूप अने उपयोगरूप एम बे प्रकारे जाणवुं. अथवा अवधिज्ञान देशावधि, परमावधि अने सर्वावधि एवा भेदो वडे त्रण प्रकारे छे. तेमां, परमावधि अने सर्वावधि चैतन्यना ऊछळवाथी भरपूर आनंदरूप परमसुखामृतना रसास्वादरूप समरसीभावे परिणत चरमदेही तपोधनोने होय छे. त्रणे प्रकारनां अवधिज्ञानो विशिष्ट सम्यक्त्वादि गुणथी निश्चये थाय छे. देवो अने नारकोने थतुं भवप्रत्ययी जे अवधिज्ञान ते नियमथी देशावधि ज होय छे.


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
७५
इत्थं मतिज्ञानादिज्ञानोपयोगाष्टकं व्याख्यातम् ।।४१।।

आ आत्मा, मनःपर्ययज्ञानावरणनो क्षयोपशम होतां, परमनोगत मूर्त वस्तुने जे प्रत्यक्षपणे जाणे छे ते मनःपर्ययज्ञान छे. ॠजुमति अने विपुलमति एवा भेदो वडे मनःपर्ययज्ञान बे प्रकारनुं छे. त्यां, विपुलमति मनःपर्ययज्ञान परना मनवचनकाय संबंधी पदार्थने, वक्र तेम ज अवक्र बन्नेने, जाणे छे अने ॠजुमति मनःपर्ययज्ञान तो ॠजुने (अवक्रने) ज जाणे छे. निर्विकार आत्मानी उपलब्धि अने भावना सहित चरमदेही मुनिओने विपुलमति मनःपर्ययज्ञान होय छे. आ बन्ने मनःपर्ययज्ञानो वीतराग आत्मतत्त्वनां सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठाननी भावना सहित, पंदर प्रमाद रहित अप्रमत्त मुनिने उपयोगमांविशुद्ध परिणाममां

उत्पन्न थाय छे. अहीं मनःपर्ययज्ञानना

उत्पादकाळे ज अप्रमत्तपणानो नियम छे, पछी प्रमत्तपणामां पण ते संभवे छे.

जे ज्ञान घटपटादि ज्ञेय पदार्थोने अवलंबीने ऊपजतुं नथी ते केवळज्ञान छे. ते श्रुतज्ञानस्वरूप पण नथी. जोके दिव्यध्वनिकाळे तेना आधारे गणधरदेव वगेरेने श्रुतज्ञान परिणमे छे तोपण ते श्रुतज्ञान गणधरदेव वगेरेने ज होय छे, केवळीभगवंतोने तो केवळज्ञान ज होय छे. वळी, केवळीभगवंतोने श्रुतज्ञान नथी एटलुं ज नहि, पण तेमने ज्ञान-अज्ञान पण नथी अर्थात् तेमने कोई विषयनुं ज्ञान अने कोई विषयनुं अज्ञान होय एम पण नथीसर्व विषयोनुं ज्ञान ज होय छे; अथवा, तेमने मतिज्ञानादि अनेक भेदवाळुं ज्ञान नथीकेवळज्ञान एक ज छे.

अहीं जे पांच ज्ञानो वर्णववामां आव्यां ते व्यवहारथी वर्णववामां आव्यां छे. निश्चयथी तो वादळां विनाना सूर्यनी माफक आत्मा अखंड-एक-ज्ञानप्रतिभासमय ज छे.

हवे अज्ञानत्रय विषे कहेवामां आवे छे
मिथ्यात्व द्वारा अर्थात् भाव-आवरण द्वारा अज्ञान (कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान

तथा विभंगज्ञान) अने अविरतिभाव होय छे तथा ज्ञेयने अवलंबतां (ज्ञेय संबंधी विचार अथवा ज्ञान करतां) ते ते काळे दुःनय अने दुःप्रमाण होय छे. (मिथ्यादर्शनना सद्भावमां वर्ततुं मतिज्ञान ते कुमतिज्ञान छे, श्रुतज्ञान ते कुश्रुतज्ञान छे, अवधिज्ञान ते विभंगज्ञान छे; तेना सद्भावमां वर्तता नयो ते दुःनयो छे अने प्रमाण ते दुःप्रमाण छे.) माटे एम भावार्थ समजवो के निर्विकार शुद्ध आत्मानी अनुभूतिस्वरूप निश्चय सम्यक्त्व उपादेय छे.


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७६

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
दंसणमवि चक्खुजुदं अचक्खुजुदमवि य ओहिणा सहियं
अणिधणमणंतविसयं केवलियं चावि पण्णत्तं ।।४२।।
दर्शनमपि चक्षुर्युतमचक्षुर्युतमपि चावधिना सहितम्
अनिधनमनन्तविषयं कैवल्यं चापि प्रज्ञप्तम् ।।४२।।
दर्शनोपयोगविशेषाणां नामस्वरूपाभिधानमेतत
चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनमिति नामाभिधानम् आत्मा ह्यनन्त-

सर्वात्मप्रदेशव्यापिविशुद्धदर्शनसामान्यात्मा स खल्वनादिदर्शनावरणकर्मावच्छन्नप्रदेशः सन्, यत्तदावरणक्षयोपशमाच्चक्षुरिन्द्रियावलम्बाच्च मूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते

ए प्रमाणे ज्ञानोपयोगोनुं वर्णन करवामां आव्युं. ४१.
दर्शन तणा चक्षु-अचक्षुरूप, अवधिरूप ने
निःसीमविषय अनिधन केवळरूप भेद कहेल छे. ४२.

अन्वयार्थ[ दर्शनम् अपि ] दर्शन पण [ चक्षुर्युतम् ] चक्षुदर्शन, [ अचक्षुर्युतम् अपि च ] अचक्षुदर्शन, [ अवधिना सहितम् ] अवधिदर्शन [ च अपि ] अने [ अनंतविषयम् ] अनंत जेनो विषय छे एवुं [ अनिधनम् ] अविनाशी [ कैवल्यं ] केवळदर्शन [ प्रज्ञप्तम् ]एम चार भेदवाळुं कह्युं छे.

टीकाआ, दर्शनोपयोगना भेदोनां नाम अने स्वरूपनुं कथन छे.

(१) चक्षुदर्शन, (२) अचक्षुदर्शन, (३) अवधिदर्शन अने (४) केवळदर्शन प्रमाणे (दर्शनोपयोगना भेदोनां) नामनुं कथन छे.

(हवे तेमनां स्वरूपनुं कथन करवामां आवे छे) आत्मा खरेखर अनंत, सर्व आत्मप्रदेशोमां व्यापक, विशुद्ध दर्शनसामान्यस्वरूप छे. ते (आत्मा) खरेखर अनादि दर्शनावरणकर्मथी आच्छादित प्रदेशोवाळो वर्ततो थको, (१) ते प्रकारना (अर्थात चक्षुदर्शनना) आवरणना क्षयोपशमथी अने चक्षु-इन्द्रियना अवलंबनथी मूर्त द्रव्यने विकळपणे *सामान्यतः अवबोधे छे ते चक्षुदर्शन छे, (२) ते प्रकारना आवरणना *सामान्यतः अवबोधवुं=देखवुं. (सामान्य अवबोध अर्थात् सामान्य प्रतिभास ते दर्शन छे.)


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
७७

तच्चक्षुर्दर्शनम्, यत्तदावरणक्षयोपशमाच्चक्षुर्वर्जितेतरचतुरिन्द्रियानिन्द्रियावलम्बाच्च मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तदचक्षुर्दर्शनम्, यत्तदावरणक्षयोपशमादेव मूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तदवधिदर्शनम्, यत्सकलावरणात्यन्तक्षये केवल एव मूर्तामूर्तद्रव्यं सकलं सामान्येनावबुध्यते तत्स्वाभाविकं केवलदर्शनमिति स्वरूपाभिधानम् ।।४२।।

ण वियप्पदि णाणादो णाणी णाणाणि होंति णेगाणि
तम्हा दु विस्सरूवं भणियं दवियं ति णाणीहिं ।।४३।।
न विकल्प्यते ज्ञानात् ज्ञानी ज्ञानानि भवन्त्यनेकानि
तस्मात्तु विश्वरूपं भणितं द्रव्यमिति ज्ञानिभिः ।।४३।।
एकस्यात्मनोऽनेकज्ञानात्मकत्वसमर्थनमेतत
न तावज्ज्ञानी ज्ञानात्पृथग्भवति, द्वयोरप्येकास्तित्वनिर्वृत्तत्वेनैकद्रव्यत्वात्,

क्षयोपशमथी अने चक्षु सिवाय बाकीनी चार इन्द्रियो तथा मनना अवलंबनथी मूर्त- अमूर्त द्रव्यने विकळपणे सामान्यतः अवबोधे छे ते अचक्षुदर्शन छे, (३) ते प्रकारना आवरणना क्षयोपशमथी ज मूर्त द्रव्यने विकळपणे सामान्यतः अवबोधे छे ते अवधिदर्शन छे, (४) समस्त आवरणना अत्यंत क्षये, केवळ ज (आत्मा एकलो ज), मूर्त-अमूर्त द्रव्यने सकळपणे सामान्यतः अवबोधे छे ते स्वाभाविक केवळदर्शन छे. आ प्रमाणे (दर्शनोपयोगना भेदोनां) स्वरूपनुं कथन छे. ४२.

छे ज्ञानथी नहि भिन्न ज्ञानी, ज्ञान तोय अनेक छे;
ते कारणे तो विश्वरूप कह्युं दरवने ज्ञानीए. ४३.

अन्वयार्थ[ ज्ञानात् ] ज्ञानथी [ ज्ञानी न विकल्प्यते ] ज्ञानीनो (आत्मानो) भेद पाडवामां आवतो नथी; [ ज्ञानानि अनेकानि भवन्ति ] तोपण ज्ञानो अनेक छे. [ तस्मात् तु ] तेथी तो [ ज्ञानिभिः ] ज्ञानीओए [ द्रव्यं ] द्रव्यने [ विश्वरूपम् इति भणितम् ] विश्वरूप (अनेकरूप) कह्युं छे.

टीकाएक आत्मा अनेक ज्ञानात्मक होवानुं आ समर्थन छे.

प्रथम तो ज्ञानी (आत्मा) ज्ञानथी पृथक् नथी; कारण के बन्ने एक अस्तित्वथी रचायां होवाथी बन्नेने एकद्रव्यपणुं छे, बन्नेना अभिन्न प्रदेशो होवाथी


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७८

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

द्वयोरप्यभिन्नप्रदेशत्वेनैकक्षेत्रत्वात्, द्वयोरप्येकसमयनिर्वृत्तत्वेनैककालत्वात्, द्वयोरप्येकस्व- भावत्वेनैकभावत्वात न चैवमुच्यमानेप्येकस्मिन्नात्मन्याभिनिबोधिकादीन्यनेकानि ज्ञानानि विरुध्यन्ते, द्रव्यस्य विश्वरूपत्वात द्रव्यं हि सहक्रमप्रवृत्तानन्तगुणपर्यायाधारतयानन्त- रूपत्वादेकमपि विश्वरूपमभिधीयत इति ।।४३।।

जदि हवदि दव्वमण्णं गुणदो य गुणा य दव्वदो अण्णे
दव्वाणंतियमधवा दव्वाभावं पकुव्वंति ।।४४।।
यदि भवति द्रव्यमन्यद्गुणतश्च गुणाश्च द्रव्यतोऽन्ये
द्रव्यानन्त्यमथवा द्रव्याभावं प्रकुर्वन्ति ।।४४।।

द्रव्यस्य गुणेभ्यो भेदे, गुणानां च द्रव्याद्भेदे दोषोपन्यासोऽयम् बन्नेने एकक्षेत्रपणुं छे, बन्ने एक समये रचातां होवाथी बन्नेने एककाळपणुं छे, बन्नेनो एक स्वभाव होवाथी बन्नेने एकभावपणुं छे. परंतु आम कहेवामां आवतुं होवा छतां, एक आत्मामां आभिनिबोधिक (मति) आदि अनेक ज्ञानो विरोध पामतां नथी, कारण के द्रव्य विश्वरूप छे. द्रव्य खरेखर सहवर्ती अने क्रमवर्ती एवा अनंत गुणो अने पर्यायोनो आधार होवाने लीधे अनंतरूपवाळुं होवाथी, एक होवा छतां पण, *विश्वरूप कहेवाय छे. ४३.

जो द्रव्य गुणथी अन्य ने गुण अन्य मानो द्रव्यथी,
तो थाय द्रव्य-अनंतता वा थाय नास्ति द्रव्यनी. ४४.

अन्वयार्थ[ यदि ] जो [ द्रव्यं ] द्रव्य [ गुणतः ] गुणथी [ अन्यत् च भवति ] अन्य (भिन्न) होय [ गुणाः च ] अने गुणो [ द्रव्यतः अन्ये ] द्रव्यथी अन्य होय तो [ द्रव्यानन्त्यम् ] द्रव्यनी अनंतता थाय [ अथवा ] अथवा [ द्रव्याभावं ] द्रव्यनो अभाव [ प्रकुर्वन्ति ] थाय.

टीकाद्रव्यनुं गुणोथी भिन्नपणुं होय अने गुणोनुं द्रव्यथी भिन्नपणुं होय तो दोष आवे छे तेनुं आ कथन छे. *विश्वरूप=अनेकरूप. [एक द्रव्य सहवर्ती अनंत गुणोनो अने क्रमवर्ती अनंत पर्यायोनो आधार

होवाने लीधे अनंतरूपवाळुं पण छे तेथी तेने विश्वरूप (अनेकरूप) पण कहेवामां आवे छे. माटे
एक आत्मा अनेक ज्ञानात्मक होवामां विरोध नथी.]

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
७९

गुणा हि क्वचिदाश्रिताः यत्राश्रितास्तर्द्दरव्यम् तच्चेदन्यद्गुणेभ्यः पुनरपि गुणाः क्वचिदाश्रिताः यत्राश्रितास्तर्द्दरव्यम् तदपि अन्यच्चेद्गुणेभ्यः पुनरपि गुणाः क्वचिदाश्रिताः यत्राश्रिताः तर्द्दरव्यम् तदप्यन्यदेव गुणेभ्यः एवं द्रव्यस्य गुणेभ्यो भेदे भवति द्रव्यानन्त्यम् द्रव्यं हि गुणानां समुदायः गुणाश्चेदन्ये समुदायात्, को नाम समुदायः एवं गुणानां द्रव्याद्भेदे भवति द्रव्याभाव इति ।।४४।।

अविभत्तमणण्णत्तं दव्वगुणाणं विभत्तमण्णत्तं
णिच्छंति णिच्चयण्हू तव्विवरीदं हि वा तेसिं ।।४५।।
अविभक्त मनन्यत्वं द्रव्यगुणानां विभक्त मन्यत्वम्
नेच्छन्ति निश्चयज्ञास्तद्विपरीतं हि वा तेषाम् ।।४५।।
द्रव्यगुणानां स्वोचितानन्यत्वोक्ति रियम्

गुणो खरेखर कोईकना आश्रये होय; (तेओ) जेना आश्रये होय ते द्रव्य होय. ते (द्रव्य) जो गुणोथी अन्य (भिन्न) होय तोफरीने पण, गुणो कोईकना आश्रये होय; (तेओ) जेना आश्रये होय ते द्रव्य होय. ते जो गुणोथी अन्य होय तोफरीने पण, गुणो कोईकना आश्रये होय; (तेओ) जेना आश्रये होय ते द्रव्य होय. ते पण गुणोथी अन्य ज होय...ए प्रमाणे, जो द्रव्यनुं गुणोथी भिन्नपणुं होय तो, द्रव्यनुं अनंतपणुं थाय.

खरेखर द्रव्य एटले गुणोनो समुदाय. गुणो जो समुदायथी अन्य होय तो समुदाय केवो? (अर्थात् जो गुणोने समुदायथी भिन्न मानवामां आवे तो समुदाय क्यांथी घटे? एटले के द्रव्य ज क्यांथी घटे?) ए प्रमाणे, जो गुणोनुं द्रव्यथी भिन्नपणुं होय तो, द्रव्यनो अभाव थाय. ४४.

गुण-द्रव्यने अविभक्तरूप अनन्यता बुधमान्य छे;
पण त्यां विभक्त अनन्यता वा अन्यता नहि मान्य छे. ४५.

अन्वयार्थ[ द्रव्यगुणानाम् ] द्रव्य अने गुणोने [ अविभक्तम् अनन्यत्वम् ] अविभक्तपणारूप अनन्यपणुं छे; [ निश्चयज्ञाः हि ] निश्चयना जाणनाराओ [ तेषाम् ] तेमने [ विभक्तम् अन्यत्वम् ] विभक्तपणारूप अन्यपणुं [ वा ] के [ तद्विपरीतं ] (विभक्तपणारूप) अनन्यपणुं [ न इच्छन्ति ] मानता नथी.

टीकाआ, द्रव्य अने गुणोना स्वोचित अनन्यपणानुं कथन छे (अर्थात् द्रव्य

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८०

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

अविभक्त प्रदेशत्वलक्षणं द्रव्यगुणानामनन्यत्वमभ्युपगम्यते विभक्त प्रदेशत्वलक्षणं त्वन्यत्वमनन्यत्वं च नाभ्युपगम्यते तथाहियथैकस्य परमाणोरेकेनात्मप्रदेशेन सहाविभक्त - त्वादनन्यत्वं, तथैकस्य परमाणोस्तद्वर्तिनां स्पर्शरसगन्धवर्णादिगुणानां चाविभक्त प्रदेशत्वाद- नन्यत्वम् यथा त्वत्यन्तविप्रकृष्टयोः सह्यविन्ध्ययोरत्यन्तसन्निकृष्टयोश्च मिश्रितयोस्तोयपयसो- र्विभक्त प्रदेशत्वलक्षणमन्यत्वमनन्यत्वं च, न तथा द्रव्यगुणानां विभक्त प्रदेशत्वाभावादन्यत्व- मनन्यत्वं चेति ।।४५।।

ववदेसा संठाणा संखा विसया य होंति ते बहुगा
ते तेसिमणण्णत्ते अण्णत्ते चावि विज्जंते ।।४६।।

अने गुणोने केवुं अनन्यपणुं घटे छे ते अहीं कह्युं छे).

द्रव्य अने गुणोने *अविभक्तप्रदेशत्वस्वरूप अनन्यपणुं स्वीकारवामां आवे छे; परंतु विभक्तप्रदेशत्वस्वरूप अन्यपणुं तथा (विभक्तप्रदेशत्वस्वरूप) अनन्यपणुं स्वीकारवामां आवतुं नथी. ते स्पष्ट समजाववामां आवे छेजेम एक परमाणुने एक स्वप्रदेश साथे अविभक्तपणुं होवाथी अनन्यपणुं छे, तेम एक परमाणुने अने तेमां रहेला स्पर्श-रस-गंध-वर्ण वगेरे गुणोने अविभक्त प्रदेशो होवाथी (अविभक्त- प्रदेशत्वस्वरूप) अनन्यपणुं छे; परंतु जेम अत्यंत दूर एवा सह्य अने विंध्यने विभक्तप्रदेशत्वस्वरूप अन्यपणुं छे तथा अत्यंत निकट एवां मिश्रित क्षीर-नीरने विभक्तप्रदेशत्वस्वरूप अनन्यपणुं छे, तेम द्रव्य अने गुणोने विभक्त प्रदेशो नहि होवाथी (विभक्तप्रदेशत्वस्वरूप) अन्यपणुं तथा (विभक्तप्रदेशत्वस्वरूप) अनन्यपणुं नथी. ४५.

व्यपदेश ने संस्थान, संख्या, विषय बहु ये होय छे;
ते तेमना अन्यत्व तेम अनन्यतामां पण घटे. ४६.
*अविभक्त=अभिन्न. (द्रव्य अने गुणोना प्रदेशो अभिन्न छे तेथी द्रव्य अने गुणोने

अभिन्नप्रदेशत्वस्वरूप अनन्यपणुं छे.) १. अत्यंत दूर रहेला सह्य अने विंध्य नामना पर्वतोने भिन्नप्रदेशत्वस्वरूप अन्यपणुं छे. २. अत्यंत नजीक रहेलां मिश्रित दूध-जळने भिन्नप्रदेशत्वस्वरूप अनन्यपणुं छे. द्रव्य अने गुणोने

एवुं अनन्यपणुं नथी, परंतु अभिन्नप्रदेशत्वस्वरूप अनन्यपणुं छे.