Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 47-62.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
८१
व्यपदेशाः संस्थानानि संख्या विषयाश्च भवन्ति ते बहुकाः
ते तेषामनन्यत्वे अन्यत्वे चापि विद्यन्ते ।।४६।।
व्यपदेशादीनामेकान्तेन द्रव्यगुणान्यत्वनिबन्धनत्वमत्र प्रत्याख्यातम्
यथा देवदत्तस्य गौरित्यन्यत्वे षष्ठीव्यपदेशः, तथा वृक्षस्य शाखा द्रव्यस्य

गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि यथा देवदत्तः फलमङ्कुशेन धनदत्ताय वृक्षाद्वाटिकायाम- वचिनोतीत्यन्यत्वे कारकव्यपदेशः, तथा मृत्तिका घटभावं स्वयं स्वेन स्वस्मै स्वस्मात स्वस्मिन् करोतीत्यात्मात्मानमात्मनात्मने आत्मन आत्मनि जानातीत्यनन्यत्वेऽपि यथा प्रांशोर्देवदत्तस्य प्रांशुर्गौरित्यन्यत्वे संस्थानं, तथा प्रांशोर्वृक्षस्य प्रांशुः शाखाभरो मूर्तद्रव्यस्य मूर्ता गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि यथैकस्य देवदत्तस्य दश गाव इत्यन्यत्वे संख्या, तथैकस्य

अन्वयार्थ[ व्यपदेशाः ] व्यपदेशो, [ संस्थानानि ] संस्थानो, [ संख्याः ] संख्याओ [ च ] अने [ विषयाः ] विषयो [ ते बहुकाः भवन्ति ] घणां होय छे. [ ते ] ते (व्यपदेश वगेरे), [ तेषाम् ] द्रव्य-गुणोना [ अन्यत्वे ] अन्यपणामां [ अनन्यत्वे च अपि ] तेम ज अनन्यपणामां पण [ विद्यन्ते ] होई शके छे.

टीकाअहीं *व्यपदेश वगेरे एकांते द्रव्य-गुणोना अन्यपणानुं कारण होवानुं खंडन कर्युं छे.

जेवी रीते ‘देवदत्तनी गाय’ एम अन्यपणामां षष्ठीव्यपदेश (छठ्ठी विभक्तिनुं कथन) होय छे, तेवी रीते ‘वृक्षनी शाखाओ’, ‘द्रव्यना गुणो’ एम अनन्यपणामां पण (षष्ठीव्यपदेश) होय छे. जेवी रीते ‘देवदत्त फळने अंकुश वडे धनदत्तने माटे वृक्ष परथी वाडीमां तोडे छे’ एम अन्यपणामां कारकव्यपदेश होय छे, तेवी रीते ‘माटी पोते घटभावने (घडारूप परिणामने) पोता वडे पोताने माटे पोतामांथी पोतामां करे छे’, ‘आत्मा आत्माने आत्मा वडे आत्माने माटे आत्मामांथी आत्मामां जाणे छे एम अनन्यपणामां पण (कारकव्यपदेश) होय छे. जेवी रीते ‘ऊंचा देवदत्तनी ऊंची गाय’ एम अन्यपणामां संस्थान होय छे, तेवी रीते ‘विशाळ वृक्षनो विशाळ शाखासमुदाय’, ‘मूर्त द्रव्यना मूर्त गुणो’ एम अनन्यपणामां पण (संस्थान) होय छे. *व्यपदेश = कथन; अभिधान. (आ गाथामां एम समजाव्युं छे केज्यां भेद होय त्यां ज व्यपदेश

वगेरे घटे एवुं कांई नथी; ज्यां अभेद होय त्यां पण तेओ घटे छे. माटे द्रव्य-गुणोमां जे व्यपदेश वगेरे होय छे ते कांई एकांते द्रव्य-गुणोना भेदने सिद्ध करता नथी.) पं. ११


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८२

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

वृक्षस्य दश शाखाः एकस्य द्रव्यस्यानन्ता गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि यथा गोष्ठे गाव इत्यन्यत्वे विषयः, तथा वृक्षे शाखाः द्रव्ये गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि ततो न व्यपदेशादयो द्रव्यगुणानां वस्तुत्वेन भेदं साधयन्तीति ।।४६।।

णाणं धणं च कुव्वदि धणिणं जह णाणिणं च दुविधेहिं
भण्णंति तह पुधत्तं एयत्तं चावि तच्चण्हू ।।४७।।
ज्ञानं धनं च करोति धनिनं यथा ज्ञानिनं च द्विविधाभ्याम्
भणन्ति तथा पृथक्त्वमेकत्वं चापि तत्त्वज्ञाः ।।४७।।
वस्तुत्वभेदाभेदोदाहरणमेतत

यथा धनं भिन्नास्तित्वनिर्वृत्तं भिन्नास्तित्वनिर्वृत्तस्य, भिन्नसंस्थानं भिन्नसंस्था- जेवी रीते ‘एक देवदत्तनी दस गायो’ एम अन्यपणामां संख्या होय छे, तेवी रीते एक वृक्षनी दश शाखाओ’, ‘एक द्रव्यना अनंत गुणो’ एम अनन्यपणामां पण (संख्या) होय छे. जेवी रीते ‘वाडामां गायो’ एम अन्यपणामां विषय (आधार) होय छे, तेवी रीते ‘वृक्षमां शाखाओ’, ‘द्रव्यमां गुणो’ एम अनन्यपणामां पण (विषय) होय छे. माटे (एम समजवुं के) व्यपदेश वगेरे, द्रव्य-गुणोमां वस्तुपणे भेद सिद्ध करता नथी. ४६.

धनथी ‘धनी’ ने ज्ञानथी ‘ज्ञानीद्विधा व्यपदेश छे,
ते रीत तत्त्वज्ञो कहे एकत्व तेम पृथक्त्वने. ४७.

अन्वयार्थ[ यथा ] जेवी रीते [ धनं ] धन [ च ] अने [ ज्ञानं ] ज्ञान [ धनिनं ] (पुरुषने) ‘धनी[ च ] अने [ ज्ञानिनं ]ज्ञानी[ करोति ] करे छे[ द्विविधाभ्याम् भणन्ति ] एम बे प्रकारे कहेवामां आवे छे, [ तथा ] तेवी रीते [ तत्त्वज्ञाः ] तत्त्वज्ञो [ पृथक्त्वम् ] पृथक्त्व [ च अपि ] तेम ज [ एकत्वम् ] एकत्वने कहे छे.

टीकाआ, वस्तुपणे भेद अने (वस्तुपणे) अभेदनुं उदाहरण छे.

जेवी रीते (१) भिन्न अस्तित्वथी रचायेलुं, (२) भिन्न संस्थानवाळुं, (३) भिन्न संख्यावाळुं अने (४) भिन्न विषयमां रहेलुं एवुं धन (१) भिन्न


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
८३

नस्य, भिन्नसंख्यं भिन्नसंख्यस्य, भिन्नविषयलब्धवृत्तिकं भिन्नविषयलब्धवृत्तिकस्य पुरुषस्य धनीति व्यपदेशं पृथक्त्वप्रकारेण कुरुते, यथा च ज्ञानमभिन्नास्तित्व- निर्वृत्तमभिन्नास्तित्वनिर्वृत्तस्याभिन्नसंस्थानमभिन्नसंस्थानस्याभिन्नसंख्यमभिन्नसंख्यस्याभिन्न- विषयलब्धवृत्तिकमभिन्नविषयलब्धवृत्तिकस्य पुरुषस्य ज्ञानीति व्यपदेशमेकत्वप्रकारेण कुरुते; तथान्यत्रापि यत्र द्रव्यस्य भेदेन व्यपदेशादिः तत्र पृथक्त्वं, यत्राभेदेन तत्रैकत्वमिति ।।४७।।

णाणी णाणं च सदा अत्थंतरिदा दु अण्णमण्णस्स
दोण्हं अचेदणत्तं पसजदि सम्मं जिणावमदं ।।४८।।
ज्ञानी ज्ञानं च सदार्थान्तरिते त्वन्योऽन्यस्य
द्वयोरचेतनत्वं प्रसजति सम्यग् जिनावमतम् ।।४८।।

अस्तित्वथी रचायेला, (२) भिन्न संस्थानवाळा, (३) भिन्न संख्यावाळा अने (४) भिन्न विषयमां रहेला एवा पुरुषने ‘धनी’ एवो व्यपदेश पृथक्त्वप्रकारथी करे छे, तथा जेवी रीते (१) अभिन्न अस्तित्वथी रचायेलुं, (२) अभिन्न संस्थानवाळुं, (३) अभिन्न संख्यावाळुं अने (४) अभिन्न विषयमां रहेलुं एवुं ज्ञान (१) अभिन्न अस्तित्वथी रचायेला, (२) अभिन्न संस्थानवाळा, (३) अभिन्न संख्यावाळा अने (३) अभिन्न विषयमां रहेला एवा पुरुषने ‘ज्ञानी’ एवो व्यपदेश एकत्वप्रकारथी करे छे, तेवी रीते अन्यत्र पण समजवुं. ज्यां द्रव्यना भेदथी व्यपदेश वगेरे होय त्यां पृथक्त्व छे, ज्यां (द्रव्यना) अभेदथी (व्यपदेश वगेरे) होय त्यां एकत्व छे. ४७.

जो होय अर्थांतरपणुं अन्योन्य ज्ञानी-ज्ञानने,
बन्ने अचेतनता लहेजिनदेवने नहि मान्य जे. ४८.

अन्वयार्थ[ ज्ञानी ] जो ज्ञानी (आत्मा) [ च ] अने [ ज्ञानं ] ज्ञान [ सदा ] सदा [ अन्योऽन्यस्य ] परस्पर [ अर्थान्तरिते तु ] अर्थांतरभूत (भिन्नपदार्थभूत) होय तो [ द्वयोः ] बन्नेने [ अचेतनत्वं प्रसजति ] अचेतनपणानो प्रसंग आवे[ सम्यग् जिनावमतम् ] के जे जिनोने सम्यक् प्रकारे असंमत छे.


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८४

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
द्रव्यगुणानामर्थान्तरभूतत्वे दोषोऽयम्
ज्ञानी ज्ञानाद्यद्यर्थान्तरभूतस्तदा स्वकरणांशमन्तरेण परशुरहितदेवदत्तवत्करणव्यापारा-

समर्थत्वादचेतयमानोऽचेतन एव स्यात ज्ञानञ्च यदि ज्ञानिनोऽर्थान्तरभूतं तदा तत्कर्त्रंशमन्तरेण देवदत्तरहितपरशुवत्तत्कर्तृत्वव्यापारासमर्थत्वादचेतयमानमचेतनमेव स्यात च ज्ञानज्ञानिनोर्युतसिद्धयोस्संयोगेन चेतनत्वं द्रव्यस्य निर्विशेषस्य गुणानां निराश्रयाणां शून्यत्वादिति ।।४८।।

टीकाद्रव्य अने गुणोने अर्थांतरपणुं होय तो आ (नीचे प्रमाणे) दोष आवे.

जो ज्ञानी (आत्मा) ज्ञानथी अर्थांतरभूत होय तो (आत्मा) पोताना करण- अंश विना, कुहाडी विनाना देवदत्तनी माफक, करणनो व्यापार करवामां असमर्थ थवाथी नहि चेततो (जाणतो) थको अचेतन ज होय. अने जो ज्ञान ज्ञानीथी (आत्माथी) अर्थांतरभूत होय तो ज्ञान तेना कर्तृ-अंश विना, देवदत्त विनानी कुहाडीनी माफक, तेना कर्तानो व्यापार करवामां असमर्थ थवाथी नहि चेततुं ( जाणतुं) थकुं अचेतन ज होय. वळी युतसिद्ध एवां ज्ञान अने ज्ञानीने (ज्ञान अने आत्माने) संयोगथी चेतनपणुं होय एम पण नथी, कारण के निर्विशेष द्रव्य अने निराश्रय गुणो शून्य होय. ४८. १. करणनो व्यापार = साधननुं कार्य. [आत्मा कर्ता छे अने ज्ञान करण छे. जो आत्मा ज्ञानथी भिन्न

ज होय तो आत्मा साधननो व्यापार अर्थात् ज्ञाननुं कार्य करवामां असमर्थ थवाथी जाणी शके
नहि तेथी आत्माने अचेतनपणुं आवे.]

२. कर्तानो व्यापार = कर्तानुं कार्य. [ज्ञान करण छे अने आत्मा कर्ता छे. जो ज्ञान आत्माथी भिन्न

ज होय तो ज्ञान कर्तानो व्यापार अर्थात् आत्मानुं कार्य करवामां असमर्थ थवाथी जाणी शके
नहि तेथी ज्ञानने अचेतनपणुं आवे.]

३. युतसिद्ध = जोडाईने सिद्ध थयेल; समवायथीसंयोगथी सिद्ध थयेल. [जेम लाकडी अने माणस जुदां

होवा छतां लाकडीना योगथी माणस ‘लाकडीवाळो’ थाय छे तेम ज्ञान अने आत्मा जुदां होवा
छतां ज्ञान साथे जोडाईने आत्मा ‘ज्ञानवाळो (ज्ञानी)’ थाय छे एम पण नथी. लाकडी अने
माणसनी जेम ज्ञान अने आत्मा कदी जुदां होय ज क्यांथी? विशेष रहित द्रव्य होई शके ज
नहि, तेथी ज्ञान विनानो आत्मा केवो? अने आश्रय विना गुण होई शके ज नहि, तेथी आत्मा
विना ज्ञान केवुं? माटे ‘लाकडी’ अने ‘लाकडीवाळा’नी माफक ‘ज्ञान’ अने ‘ज्ञानी’नुं युतसिद्धपणुं
घटतुं नथी.]

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
८५
ण हि सो समवायादो अत्थंतरिदो दु णाणदो णाणी
अण्णाणी त्ति य वयणं एगत्तप्पसाधगं होदि ।।४९।।
न हि सः समवायादर्थान्तरितस्तु ज्ञानतो ज्ञानी
अज्ञानीति च वचनमेकत्वप्रसाधकं भवति ।।४९।।
ज्ञानज्ञानिनोः समवायसम्बन्धनिरासोऽयम्
न खलु ज्ञानादर्थान्तरभूतः पुरुषो ज्ञानसमवायात् ज्ञानी भवतीत्युपपन्नम्

स खलु ज्ञानसमवायात्पूर्वं किं ज्ञानी किमज्ञानी ? यदि ज्ञानी तदा ज्ञानसमवायो निष्फलः अथाज्ञानी तदा किमज्ञानसमवायात्, किमज्ञानेन सहैकत्वात् ? न तावद- ज्ञानसमवायात्; अज्ञानिनो ह्यज्ञानसमवायो निष्फलः, ज्ञानित्वं तु ज्ञानसमवाया- भावान्नास्त्येव ततोऽज्ञानीति वचनमज्ञानेन सहैकत्वमवश्यं साधयत्येव सिद्धे

रे! जीव ज्ञानविभिन्न नहि समवायथी ज्ञानी बने;
अज्ञानी’ एवुं वचन ते एकत्वनी सिद्धि करे. ४९.

अन्वयार्थ[ ज्ञानतः अर्थान्तरितः तु ] ज्ञानथी अर्थांतरभूत [ सः ] एवो ते (आत्मा) [ समवायात् ] समवायथी [ ज्ञानी ] ज्ञानी थाय छे [ न हि ] एम खरेखर नथी. [ अज्ञानी ]अज्ञानी[ इति च वचनम् ] एवुं वचन [ एकत्वप्रसाधकं भवति ] (गुण-गुणीना) एकत्वने सिद्ध करे छे.

टीकाआ, ज्ञान अने ज्ञानीने समवायसंबंध होवानुं निराकरण (खंडन) छे.

ज्ञानथी अर्थांतरभूत आत्मा ज्ञानना समवायथी ज्ञानी थाय छे एम मानवुं खरेखर योग्य नथी. (आत्मा ज्ञानना समवायथी ज्ञानी थतो मानवामां आवे तो अमे पूछीए छीए के) ते (आत्मा) ज्ञाननो समवाय थया पहेलां खरेखर ज्ञानी छे के अज्ञानी? जो ज्ञानी छे (एम कहेवामां आवे) तो ज्ञाननो समवाय निष्फळ छे. हवे जो अज्ञानी छे (एम कहेवामां आवे) तो (पूछीए छीए के) अज्ञानना समवायथी अज्ञानी छे के अज्ञाननी साथे एकत्वथी अज्ञानी छे? प्रथम, अज्ञानना समवायथी अज्ञानी होई शके नहि; कारण के अज्ञानीने अज्ञाननो समवाय निष्फळ छे अने ज्ञानीपणुं तो ज्ञानना समवायनो अभाव होवाथी छे ज नहि. माटे ‘अज्ञानी’ एवुं


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८६

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

चैवमज्ञानेन सहैकत्वे ज्ञानेनापि सहैकत्वमवश्यं सिध्यतीति ।।४९।।

समवत्ती समवाओ अपुधब्भूदो य अजुदसिद्धो य
तम्हा दव्वगुणाणं अजुदा सिद्धि त्ति णिद्दिट्ठा ।।५०।।
समवर्तित्वं समवायः अपृथग्भूतत्वमयुतसिद्धत्वं च
तस्माद्द्रव्यगुणानां अयुता सिद्धिरिति निर्दिष्टा ।।५०।।

समवायस्य पदार्थान्तरत्वनिरासोऽयम् वचन अज्ञाननी साथे एकत्वने अवश्य सिद्ध करे छे ज. अने ए रीते अज्ञाननी साथे एकत्व सिद्ध थतां ज्ञाननी साथे पण एकत्व अवश्य सिद्ध थाय छे.

भावार्थआत्माने अने ज्ञानने एकत्व छे एम अहीं युक्तिथी समजाव्युं छे.

प्रश्नछद्मस्थदशामां जीवने मात्र अल्पज्ञान ज होय छे अने केवळीदशामां तो परिपूर्ण ज्ञानकेवळज्ञान थाय छे; माटे त्यां तो केवळीभगवानने ज्ञाननो समवाय (केवळज्ञाननो संयोग) थयो ने?

उत्तरना, एम नथी. जीवने अने ज्ञानगुणने सदाय एकत्व छे, अभिन्नता छे. छद्मस्थदशामां पण ते अभिन्न ज्ञानगुणने विषे शक्तिरूपे केवळज्ञान होय छे. केवळीदशामां, ते अभिन्न ज्ञानगुणने विषे शक्तिरूपे रहेलुं केवळज्ञान व्यक्त थाय छे; केवळज्ञान क्यांय बहारथी आवीने केवळीभगवानना आत्मा साथे समवाय पामे छे एम नथी. छद्मस्थदशामां अने केवळीदशामां जे ज्ञाननो तफावत जणाय छे ते मात्र शक्ति-व्यक्तिरूप तफावत समजवो. ४९.

समवर्तिता समवाय छे, अपृथक्त्व ते, अयुतत्व ते;
ते कारणे भाखी अयुतसिद्धि गुणो ने द्रव्यने. ५०.

अन्वयार्थ[ समवर्तित्वं समवायः ] समवर्तीपणुं ते समवाय छे; [ अपृथग्भूतत्वम् ] ते ज, अपृथक्पणुं [ च ] अने [ अयुतसिद्धत्वम् ] अयुतसिद्धपणुं छे. [ तस्मात् ] तेथी [ द्रव्यगुणानाम् ] द्रव्य अने गुणोनी [ अयुता सिद्धिः इति ] अयुतसिद्धि [ निर्दिष्टा ] (जिनोए) कही छे.

टीकाआ, समवायने विषे पदार्थांतरपणुं होवानुं निराकरण (खंडन) छे.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
८७

द्रव्यगुणानामेकास्तित्वनिर्वृत्तित्वादनादिरनिधना सहवृत्तिर्हि समवर्तित्वम्; स एव समवायो जैनानाम्; तदेव संज्ञादिभ्यो भेदेऽपि वस्तुत्वेनाभेदादपृथग्भूतत्वम्; तदेव युतसिद्धिनिबन्धनस्यास्तित्वान्तरस्याभावादयुतसिद्धत्वम् ततो द्रव्यगुणानां समवर्तित्वलक्षण- समवायभाजामयुतसिद्धिरेव, न पृथग्भूतत्वमिति ।।५०।।

वण्णरसगंधफासा परमाणुपरूविदा विसेसेहिं
दव्वादो य अणण्णा अण्णत्तपगासगा होंति ।।५१।।
दंसणणाणाणि तहा जीवणिबद्धाणि णण्णभूदाणि
ववदेसदो पुधत्तं कुव्वंति हि णो सभावादो ।।५२।।

द्रव्य अने गुणो एक अस्तित्वथी रचायां होवाथी तेमनी जे अनादि-अनंत सहवृत्ति (साथे रहेवापणुं) ते खरेखर समवर्तीपणुं छे; ते ज, जैनोना मतमां समवाय छे; ते ज, संज्ञादिथी भेद होवा छतां (द्रव्य अने गुणोने संज्ञा-लक्षण- प्रयोजन वगेरेनी अपेक्षाए भेद होवा छतां) वस्तुपणे अभेद होवाथी अपृथक्पणुं छे. ते ज, युतसिद्धिना कारणभूत *अस्तित्वांतरनो अभाव होवाथी अयुतसिद्धपणुं छे. तेथी समवर्तित्वस्वरूप समवायवाळां द्रव्य अने गुणोने अयुतसिद्धि ज छे, पृथक्पणुं नथी. ५०.

परमाणुमां प्ररूपित वरण, रस, गंध तेम ज स्पर्श जे,
अणुथी अभिन्न रही विशेष वडे प्रकाशे भेदने; ५१.
त्यम ज्ञानदर्शन जीवनियत अनन्य रहीने जीवथी,
अन्यत्वना कर्ता बने व्यपदेशथीन स्वभावथी. ५२.

*अस्तित्वांतर = भिन्न अस्तित्व. [युतसिद्धिनुं कारण भिन्न भिन्न अस्तित्वो छे. लाकडी अने लाकडीवाळानी माफक गुण अने द्रव्यनां अस्तित्वो कदीये भिन्न नहि होवाथी तेमने युतसिद्धपणुं होई शके नहि.] १. समवायनुं स्वरूप समवर्तीपणुं अर्थात् अनादि-अनंत सहवृत्ति छे. द्रव्य अने गुणोने आवो समवाय

(अनादि-अनंत तादात्म्यमय सहवृत्ति) होवाथी तेमने अयुतसिद्धि छे, कदीये पृथक्पणुं नथी.

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८८

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
वर्णरसगन्धस्पर्शाः परमाणुप्ररूपिता विशेषैः
द्रव्याच्च अनन्याः अन्यत्वप्रकाशका भवन्ति ।।५१।।
दर्शनज्ञाने तथा जीवनिबद्धे अनन्यभूते
व्यपदेशतः पृथक्त्वं कुरुतः हि नो स्वभावात।।५२।।
द्रष्टान्तदार्ष्टान्तिकार्थपुरस्सरो द्रव्यगुणानामनर्थान्तरत्वव्याख्योपसंहारोऽयम्

वर्णरसगन्धस्पर्शा हि परमाणोः प्ररूप्यन्ते; ते च परमाणोरविभक्त प्रदेशत्वेनानन्येऽपि संज्ञादिव्यपदेशनिबन्धनैर्विशेषैरन्यत्वं प्रकाशयन्ति एवं ज्ञानदर्शने अप्यात्मनि सम्बद्धे आत्मद्रव्यादविभक्त प्रदेशत्वेनानन्येऽपि संज्ञादिव्यपदेशनिबन्धनैर्विशेषैः पृथक्त्वमासादयतः, स्वभावतस्तु नित्यमपृथक्त्वमेव बिभ्रतः ।।५१५२।।

इति उपयोगगुणव्याख्यानं समाप्तम्

अन्वयार्थ[ परमाणुप्ररूपिताः ] परमाणुने विषे प्ररूपवामां आवतां एवां [ वर्णरस- गन्धस्पर्शाः ] वर्ण-रस-गंध-स्पर्श [ द्रव्यात् अनन्याः च ] द्रव्यथी अनन्य वर्ततां थकां [ विशेषैः ] (व्यपदेशना कारणभूत) विशेषो वडे [ अन्यत्वप्रकाशकाः भवन्ति ] अन्यत्वने प्रकाशनारां थाय छे (स्वभावथी अन्यरूप नथी); [ तथा ] एवी रीते [ जीवनिबद्धे ] जीवने विषे संबद्ध एवां [ दर्शनज्ञाने ] दर्शन-ज्ञान [ अनन्यभूते ] (जीवद्रव्यथी) अनन्य वर्ततां थकां [ व्यपदेशतः ] व्यपदेश द्वारा [ पृथक्त्वं कुरुतः हि ] पृथक्पणाने करे छे, [ नो स्वभावात् ] स्वभावथी नहि.

टीकाद्रष्टांतरूप अने *दार्ष्टांतरूप पदार्थपूर्वक, द्रव्य अने गुणोना अभिन्न- पदार्थपणाना व्याख्याननो आ उपसंहार छे.

वर्ण-रस-गंध-स्पर्श खरेखर परमाणुने विषे प्ररूपवामां आवे छे; तेओ परमाणुथी अभिन्न प्रदेशवाळां होवाने लीधे अनन्य होवा छतां, संज्ञादि व्यपदेशना कारणभूत विशेषो वडे अन्यत्वने प्रकाशे छे. एवी रीते आत्माने विषे संबद्ध ज्ञान- दर्शन पण आत्मद्रव्यथी अभिन्न प्रदेशवाळां होवाने लीधे अनन्य होवा छतां, संज्ञादि व्यपदेशना कारणभूत विशेषो वडे पृथक्पणाने पामे छे, परंतु स्वभावथी सदा अपृथक्पणाने ज धारे छे. ५१५२.

आ रीते उपयोगगुणनुं व्याख्यान समाप्त थयुं. *दार्ष्टांत = द्रष्टांत वडे समजाववानी होय ते वात; उपमेय. (अहीं परमाणु ने वर्णादिक द्रष्टांतरूप पदार्थो छे तथा जीव ने ज्ञानादिक दार्ष्टांतरूप पदार्थो छे.)


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
८९
अथ कर्तृत्वगुणव्याख्यानम् तत्रादिगाथात्रयेण तदुपोद्घातः
जीवा अणाइणिहणा संता णंता य जीवभावादो
सब्भावदो अणंता पंचग्गगुणप्पधाणा य ।।५३।।
जीवा अनादिनिधनाः सान्ता अनन्ताश्च जीवभावात
सद्भावतोऽनन्ताः पञ्र्चाग्रगुणप्रधानाः च ।।५३।।

जीवा हि निश्चयेन परभावानामकरणात्स्वभावानां कर्तारो भविष्यन्ति तांश्च कुर्वाणाः किमनादिनिधनाः, किं सादिसनिधनाः, किं साद्यनिधनाः, किं तदाकारेण परिणताः, किमपरिणताः भविष्यन्तीत्याशङ्कयेदमुक्त म्

जीवा हि सहजचैतन्यलक्षणपारिणामिकभावेनानादिनिधनाः त एवौदयिक-

हवे कर्तृत्वगुणनुं व्याख्यान छे. तेमां, शरूआतनी त्रण गाथाओथी तेनो उपोद्घात करवामां आवे छे.

जीवो अनादि-अनंत, सांत, अनंत छे जीवभावथी,
सद्भावथी नहि अंत होय; प्रधानता गुण पांचथी. ५३.

अन्वयार्थ[ जीवाः ] जीवो [ अनादिनिधनाः ] (पारिणामिकभावथी) अनादि- अनंत छे, [ सान्ताः ] (त्रण भावोथी) सांत (अर्थात् सादि-सांत) छे [ च ] अने [ जीवभावात अनन्ताः ] जीवभावथी अनंत छे (अर्थात् जीवना सद्भावरूप क्षायिकभावथी सादि-अनंत छे) [ सद्भावतः अनन्ताः ] कारण के सद्भावथी जीवो अनंत ज होय छे. [ पञ्चाग्रगुणप्रधानाः च ] तेओ पांच मुख्य गुणोथी प्रधानतावाळा छे.

टीकानिश्चयथी पर-भावोनुं करवापणुं नहि होवाथी जीवो स्व-भावोना कर्ता होय छे; अने तेमने (पोताना भावोने) करता थका, शुं तेओ अनादि-अनंत छे? शुं सादि- सांत छे? शुं सादि-अनंत छे? शुं तदाकारे (ते-रूपे) परिणत छे? शुं (तदाकारे) अपरिणत छे?एम आशंका करीने आ कहेवामां आव्युं छे (अर्थात् ते आशंकाओना समाधानरूपे आ गाथा कहेवामां आवी छे).

जीवो खरेखर *सहजचैतन्यलक्षण पारिणामिक भावथी अनादि-अनंत छे. तेओ * जीवना पारिणामिक भावनुं लक्षण अर्थात् स्वरूप सहज-चैतन्य छे. आ पारिणामिक भाव अनादि-

अनंत होवाथी आ भावनी अपेक्षाए जीवो अनादि-अनंत छे. पं. १२


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९०

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

क्षायोपशमिकौपशमिकभावैः सादिसनिधनाः त एव क्षायिकभावेन साद्यनिधनाः न च सादित्वात्सनिधनत्वं क्षायिकभावस्याशङ्कयम् स खलूपाधिनिवृत्तौ प्रवर्तमानः सिद्धभाव इव सद्भाव एव जीवस्य; सद्भावेन चानन्ता एव जीवाः प्रतिज्ञायन्ते न च तेषामनादिनिधनसहजचैतन्यलक्षणैकभावानां सादिसनिधनानि साद्यनिधनानि भावान्तराणि नोपपद्यन्त इति वक्त व्यम्; ते खल्वनादिकर्ममलीमसाः पङ्कसम्पृक्त तोयवत्तदाकारेण परिणत- त्वात्पञ्चप्रधानगुणप्रधानत्वेनैवानुभूयन्त इति ।।५३।।

एवं सदो विणासो असदो जीवस्स हवदि उप्पादो
इदि जिणवरेहिं भणिदं अण्णोण्णविरुद्धमविरुद्धं ।।५४।।

ज औदयिक, क्षायोपशमिक अने औपशमिक भावोथी सादि-सांत छे. तेओ ज क्षायिक भावथी सादि-अनंत छे.

क्षायिक भाव सादि होवाथी ते सांत हशे’ एवी आशंका करवी योग्य नथी. (कारण आ प्रमाणे छेः) ते खरेखर उपाधिनी निवृत्ति होतां प्रवर्ततो थको, सिद्धभावनी माफक, जीवनो सद्भाव ज छे (अर्थात् कर्मोपाधिना क्षये प्रवर्ततो होवाथी क्षायिक भाव जीवनो सद्भाव ज छे); अने सद्भावथी तो जीवो अनंत ज स्वीकारवामां आवे छे. (माटे क्षायिक भावथी जीवो अनंत ज अर्थात् विनाश-रहित ज छे.)

वळी ‘अनादि-अनंत सहजचैतन्यलक्षण एक भाववाळा तेमने सादि-सांत अने सादि-अनंत भावांतरो घटता नथी (अर्थात् जीवोने एक पारिणामिक भाव सिवाय अन्य भावो घटता नथी)’ एम कहेवुं योग्य नथी; (कारण के) तेओ खरेखर अनादि कर्मथी मलिन वर्तता थका कादवथी *संपृक्त जळनी माफक तदाकारे परिणत होवाने लीधे, पांच प्रधान +गुणोथी प्रधानतावाळा ज अनुभवाय छे. ५३.

ए रीत सत्-व्यय ने असत्-उत्पाद जीवने होय छे,
भाख्युं जिने, जे पूर्व - अपर विरुद्ध पण अविरुद्ध छे. ५४.

*कादवथी संपृक्त = कादवनो संपर्क पामेल; कादवना संसर्गवाळुं. (जोके जीवो द्रव्यस्वभावथी शुद्ध छे तोपण व्यवहारथी अनादि कर्मबंधनने वश, कादववाळा जळनी माफक, औदयिकादि भावे परिणत छे.) +जीवना औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक अने पारिणामिक ए पांच भावोने जीवना पांच प्रधान गुणो कहेवामां आव्या छे.


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
९१
एवं सतो विनाशोऽसतो जीवस्य भवत्युत्पादः
इति जिनवरैर्भणितमन्योऽन्यविरुद्धमविरुद्धम् ।।५४।।
जीवस्य भाववशात्सादिसनिधनत्वेऽनाद्यनिधनत्वे च विरोधपरिहारोऽयम्
एवं हि पञ्र्चभिर्भावैः स्वयं परिणममानस्यास्य जीवस्य कदाचिदौदयिकेनैकेन

मनुष्यत्वादिलक्षणेन भावेन सतो विनाशस्तथापरेणौदयिकेनैव देवत्वादिलक्षणेन भावेन असत उत्पादो भवत्येव एतच्च ‘न सतो विनाशो नासत उत्पाद’ इति पूर्वोक्त सूत्रेण सह विरुद्धमपि न विरुद्धम्; यतो जीवस्य द्रव्यार्थिकनयादेशेन न सत्प्रणाशो नासदुत्पादः, तस्यैव पर्यायार्थिकनयादेशेन सत्प्रणाशोऽसदुत्पादश्च न चैतदनुपपन्नम्, नित्ये जले कल्लोलानामनित्यत्वदर्शनादिति ।।५४।।

अन्वयार्थ[ एवं ] ए रीते [ जीवस्य ] जीवने [ सतः विनाशः ] सत्नो विनाश अने [ असतः उत्पादः ] असत्नो उत्पाद [ भवति ] होय छे[ इति ] एवुं [ जिनवरैः भणितम् ] जिनवरोए कह्युं छे, [ अन्योऽन्यविरुद्धम् ] के जे अन्योन्य विरुद्ध (१९मी गाथाना कथन साथे विरोधवाळुं) छतां [ अविरुद्धम् ] अविरुद्ध छे.

टीकाआ, जीवने भाववशात् (औदयिकादि भावोने लीधे) सादि-सांतपणुं अने अनादि-अनंतपणुं होवामां विरोधनो परिहार छे.

ए रीते खरेखर पांच भावोरूपे स्वयं परिणमता आ जीवने कदाचित् औदयिक एवा एक मनुष्यत्वादिस्वरूप भावनी अपेक्षाए सत्नो विनाश अने औदयिक ज एवा बीजा देवत्वादिस्वरूप भावनी अपेक्षाए असत्नो उत्पाद थाय छे ज. अने आ (कथन) ‘सत्नो विनाश नथी ने असत्नो उत्पाद नथी’ एवा पूर्वोक्त सूत्रनी (१९मी गाथानी) साथे विरोधवाळुं होवा छतां (खरेखर) विरोधवाळुं नथी; कारण के जीवने द्रव्यार्थिकनयना कथनथी सत्नो नाश नथी ने असत्नो उत्पाद नथी तथा तेने ज पर्यायार्थिकनयना कथनथी सत्नो नाश छे अने असत्नो उत्पाद छे. अने +अनुपपन्न नथी, केम के नित्य एवा जळमां कल्लोलोनुं अनित्यपणुं जोवामां आवे छे. +अनुपपन्न = अयुक्त; असंगत; अघटित; न बनी शके एवुं.


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९२

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
णेरइयतिरियमणुया देवा इदि णामसंजुदा पयडी
कुव्वंति सदो णासं असदो भावस्स उप्पादं ।।५५।।
नारकतिर्यङ्मनुष्या देवा इति नामसंयुताः प्रकृतयः
कुर्वन्ति सतो नाशमसतो भावस्योत्पादम् ।।५५।।
जीवस्य सदसद्भावोच्छित्त्युत्पत्तिनिमित्तोपाधिप्रतिपादनमेतत

भावार्थ५३मी गाथामां जीवने सादि-सांतपणुं तेम ज अनादि-अनंतपणुं कहेवामां आव्युं. त्यां प्रश्न संभवे छे केसादि-सांतपणुं अने अनादि-अनंतपणुं परस्पर विरुद्ध छे; परस्पर विरुद्ध भावो एकीसाथे जीवने केम घटे? तेनुं समाधान आ प्रमाणे छेः जीव द्रव्य-पर्यायात्मक वस्तु छे. तेने सादि-सांतपणुं अने अनादि- अनंतपणुं बन्ने एक ज अपेक्षाए कहेवामां आव्यां नथी, भिन्न भिन्न अपेक्षाए कहेवामां आव्यां छे; सादि-सांतपणुं कहेवामां आव्युं छे ते पर्याय-अपेक्षाए छे अने अनादि-अनंतपणुं द्रव्य-अपेक्षाए छे. माटे ए रीते जीवने सादि-सांतपणुं तेम ज अनादि-अनंतपणुं एकीसाथे बराबर घटे छे.

(अहीं जोके जीवने अनादि-अनंत तेम ज सादि-सांत कहेवामां आव्यो तोपण तात्पर्य एम ग्रहवुं के पर्यायार्थिकनयना विषयभूत सादि-सांत जीवनो आश्रय करवायोग्य नथी परंतु द्रव्यार्थिकनयना विषयभूत एवुं जे अनादि-अनंत, टंकोत्कीर्णज्ञायकस्वभावी, निर्विकार, नित्यानंदस्वरूप जीवद्रव्य तेनो ज आश्रय करवायोग्य छे.) ५४.

तिर्यंच-नारक-देव-मानव नामनी छे प्रकृति जे,
ते व्यय करे सत् भावनो, उत्पाद असत् तणो करे. ५५.

अन्वयार्थ[ नारकतिर्यङ्मनुष्याः देवाः ] नारक, तिर्यंच, मनुष्य अने देव [ इति नामसंयुताः ] एवां नामवाळी [ प्रकृतयः ] (नामकर्मनी) प्रकृतिओ [ सतः नाशम् ] सत भावनो नाश अने [ असतः भावस्य उत्पादम् ] असत् भावनो उत्पाद [ कुर्वन्ति ] करे छे.

टीकाजीवने सत् भावना उच्छेद अने असत् भावना उत्पादमां निमित्तभूत उपाधिनुं आ प्रतिपादन छे.


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
९३

यथा हि जलराशेर्जलराशित्वेनासदुत्पादं सदुच्छेदं चाननुभवतश्चतुर्भ्यः ककुब्वि- भागेभ्यः क्रमेण वहमानाः पवमानाः कल्लोलानामसदुत्पादं सदुच्छेदं च कुर्वन्ति, तथा जीवस्यापि जीवत्वेन सदुच्छेदमसदुत्पत्तिं चाननुभवतः क्रमेणोदीयमानाः नारकतिर्यङ्मनुष्य- देवनामप्रकृतयः सदुच्छेदमसदुत्पादं च कुर्वन्तीति ।।५५।।

उदएण उवसमेण य खएण दुहिं मिस्सिदेहिं परिणामे
जुत्ता ते जीवगुणा बहुसु य अत्थेसु वित्थिण्णा ।।५६।।
उदयेनोपशमेन च क्षयेण द्वाभ्यां मिश्रिताभ्यां परिणामेन
युक्तास्ते जीवगुणा बहुषु चार्थेषु विस्तीर्णाः ।।५६।।
जीवस्य भावोदयवर्णनमेतत

जेम समुद्रपणे असत्नो उत्पाद अने सत्नो उच्छेद नहि अनुभवता एवा समुद्रने चार दिशाओमांथी क्रमे वहेता पवनो कल्लोलोसंबंधी असत्नो उत्पाद अने सत्नो उच्छेद करे छे (अर्थात् अविद्यमान तरंगना उत्पादमां अने विद्यमान तरंगना नाशमां निमित्त बने छे), तेम जीवपणे सत्नो उच्छेद अने असत्नो उत्पाद नहि अनुभवता एवा जीवने क्रमे उदय पामती नारक-तिर्यंच-मनुष्य-देव नामनी (नामकर्मनी) प्रकृतिओ (भावोसंबंधी, पर्यायोसंबंधी) सत्नो उच्छेद अने असत्नो उत्पाद करे छे (अर्थात् विद्यमान पर्यायना नाशमां अने अविद्यमान पर्यायना उत्पादमां निमित्त बने छे). ५५.

परिणाम, उदय, क्षयोपशम, उपशम, क्षये संयुक्त जे,
ते पांच जीवगुण जाणवा; बहु भेदमां विस्तीर्ण छे. ५६.

अन्वयार्थ[ उदयेन ] उदयथी युक्त, [ उपशमेन ] उपशमथी युक्त, [ क्षयेण ] क्षयथी युक्त, [ द्वाभ्यां मिश्रिताभ्यां ] क्षयोपशमथी युक्त [ च ] अने [ परिणामेन युक्ताः ] परिणामथी युक्त[ ते ] एवा [ जीवगुणाः ] (पांच) जीवगुणो (जीवना भावो) छे; [ च ] अने [ बहुषु अर्थेषु विस्तीर्णाः ] तेमने घणा प्रकारोमां विस्तारवामां आवे छे.

टीकाजीवने भावोना उदयनुं (पांच भावोनी प्रगटतानुं ) आ वर्णन छे.

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९४

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

कर्मणां फलदानसमर्थतयोद्भूतिरुदयः, अनुद्भूतिरुपशमः, उद्भूत्यनुद्भूती क्षयोपशमः, अत्यन्तविश्लेषः क्षयः, द्रव्यात्मलाभहेतुकः परिणामः तत्रोदयेन युक्त औदयिकः, उपशमेन युक्त औपशमिकः, क्षयोपशमेन युक्त : क्षायोपशमिकः, क्षयेण युक्त : क्षायिकः, परिणामेन युक्त : पारिणामिकः त एते पञ्र्च जीवगुणाः तत्रोपाधिचतुर्विधत्वनिबन्धना- श्चत्वारः, स्वभावनिबन्धन एकः एते चोपाधिभेदात्स्वरूपभेदाच्च भिद्यमाना बहुष्वर्थेषु विस्तार्यन्त इति ।।५६।।

कम्मं वेदयमाणो जीवो भावं करेदि जारिसयं
सो तस्स तेण कत्ता हवदि त्ति य सासणे पढिदं ।।५७।।

कर्मोनो फळदानसमर्थपणे उद्भव ते ‘उदय’ छे, अनुद्भव ते ‘उपशम’ छे, उद्भव तेम ज अनुद्भव ते ‘क्षयोपशम’ छे, अत्यंत विश्लेष ते ‘क्षय’ छे, द्रव्यनो आत्मलाभ (हयाती) जेनो हेतु छे ते ‘परिणाम’ छे. त्यां, उदयथी युक्त ते ‘औदयिक छे, उपशमथी युक्त ते ‘औपशमिक’ छे, क्षयोपशमथी युक्त ते ‘क्षायोपशमिक’ छे, क्षयथी युक्त ते ‘क्षायिक’ छे, परिणामथी युक्त ते ‘पारिणामिक’ छे.एवा आ पांच जीवगुणो छे. तेमां (आ पांच गुणोमां) उपाधिनुं चतुर्विधपणुं जेमनुं कारण (निमित्त) छे एवा चार छे, स्वभाव जेनुं कारण छे एवो एक छे. उपाधिना भेदथी अने स्वरूपना भेदथी भेद पाडतां, तेमने घणा प्रकारोमां विस्तारवामां आवे छे. ५६.

पुद्गलकरमने वेदतां आत्मा करे जे भावने,
ते भावनो ते जीव छे कर्ताकह्युं जिनशासने. ५७.
१. फळदानसमर्थ = फळ देवामां समर्थ
२. अत्यंत विश्लेष = अत्यंत वियोग; आत्यंतिक निवृत्ति.
३. आत्मलाभ = स्वरूपप्राप्ति; स्वरूपने धारी राखवुं ते; पोताने धारी राखवुं ते; हयाती. (द्रव्य पोताने

धारी राखे छे अर्थात् पोते हयात रहे छे तेथी तेने ‘परिणाम’ छे.) ४. क्षयथी युक्त = क्षय सहितः क्षय साथे संबंधवाळो. (व्यवहारे कर्मोना क्षयनी अपेक्षा जीवना जे

भावमां आवे ते ‘क्षायिक’ भाव छे.) ५. परिणामथी युक्त = परिणाममय; परिणामात्मक; परिणामस्वरूप. ६. कर्मोपाधिनी चार प्रकारनी दशा (उदय, उपशम, क्षयोपशम अने क्षय) जेमनुं निमित्त छे एवा

चार भावो छे; जेमां कर्मोपाधिरूप निमित्त बिलकुल नथी, मात्र द्रव्यस्वभाव ज जेनुं कारण छे
एवो एक पारिणामिक भाव छे.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
९५
कर्म वेदयमानो जीवो भावं करोति याद्रशकम्
स तस्य तेन कर्ता भवतीति च शासने पठितम् ।।५७।।
जीवस्यौदयिकादिभावानां कर्तृत्वप्रकारोक्ति रियम्
जीवेन हि द्रव्यकर्म व्यवहारनयेनानुभूयते; तच्चानुभूयमानं जीवभावानां निमित्त-

मात्रमुपवर्ण्यते तस्मिन्निमित्तमात्रभूते जीवेन कर्तृभूतेनात्मनः कर्मभूतो भावः क्रियते अमुना यो येन प्रकारेण जीवेन भावः क्रियते, स जीवस्तस्य भावस्य तेन प्रकारेण कर्ता भवतीति ।।५७।।

कम्मेण विणा उदयं जीवस्स ण विज्जदे उवसमं वा
खइयं खओवसमियं तम्हा भावं तु कम्मकदं ।।५८।।
कर्मणा विनोदयो जीवस्य न विद्यत उपशमो वा
क्षायिकः क्षायोपशमिकस्तस्माद्भावस्तु कर्मकृतः ।।५८।।

अन्वयार्थ[ कर्म वेदयमानः ] कर्मने वेदतो थको [ जीवः ] जीव [ याद्रशकम् भावं ] जेवा भावने [ करोति ] करे छे, [ तस्य ] ते भावनो [ तेन ] ते प्रकारे [ सः ] ते [ कर्ता भवति ] कर्ता छे[ इति च ] एम [ शासने पठितम् ] शासनमां कह्युं छे.

टीकाआ, जीवना औदयिकादि भावोना कर्तृत्वप्रकारनुं कथन छे.

जीव वडे द्रव्यकर्म व्यवहारनयथी अनुभवाय छे; अने ते अनुभवातुं थकुं जीवभावोनुं निमित्तमात्र कहेवाय छे. ते (द्रव्यकर्म) निमित्तमात्र होतां, जीव वडे कर्तापणे पोतानो कर्मरूप (कार्यरूप) भाव कराय छे. तेथी जे भाव जे प्रकारे जीव वडे कराय छे, ते भावनो ते प्रकारे ते जीव कर्ता छे. ५७.

पुद्गलकरम विण जीवने उपशम, उदय, क्षायिक अने
क्षायोपशमिक न होय, तेथी कर्मकृत ए भाव छे. ५८.

अन्वयार्थ[ कर्मणा विना ] कर्म विना [ जीवस्य ] जीवने [ उदयः ] उदय, [ंउपशमः ] उपशम, [ क्षायिकः ] क्षायिक [ वा ] अथवा [ क्षायोपशमिकः ] क्षायोपशमिक [ न विद्यते ] होतो नथी, [ तस्मात् तु ] तेथी [ भावः ] भाव (चतुर्विध जीवभाव) [ कर्मकृतः ] कर्मकृत छे.


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९६

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
द्रव्यकर्मणां निमित्तमात्रत्वेनौदयिकादिभावकर्तृत्वमत्रोक्त म्
न खलु कर्मणा विना जीवस्योदयोपशमौ क्षयक्षयोपशमावपि विद्येते; ततः क्षायिक-

क्षायोपशमिकश्चौदयिकौपशमिकश्च भावः कर्मकृतोऽनुमन्तव्यः पारिणामिकस्त्वनादिनिधनो निरुपाधिः स्वाभाविक एव क्षायिकस्तु स्वभावव्यक्ति रूपत्वादनन्तोऽपि कर्मणः क्षयेणोत्पद्य- मानत्वात्सादिरिति कर्मकृत एवोक्त : औपशमिकस्तु कर्मणामुपशमे समुत्पद्यमानत्वादनुपशमे समुच्छिद्यमानत्वात् कर्मकृत एवेति

अथवा उदयोपशमक्षयक्षयोपशमलक्षणाश्चतस्रो द्रव्यकर्मणामेवावस्थाः, न पुनः परि- णामलक्षणैकावस्थस्य जीवस्य; तत उदयादिसञ्जातानामात्मनो भावानां निमित्तमात्रभूत-

टीकाअहीं, (औदयिकादि भावोनां) निमित्तमात्र तरीके द्रव्यकर्मोने औदयिकादि भावोनुं कर्तापणुं कह्युं छे.

(एक रीते व्याख्या करतां) कर्म विना जीवने उदयउपशम तेम ज क्षय क्षयोपशम होता नथी (अर्थात् द्रव्यकर्म विना जीवने औदयिकादि चार भावो होता नथी); तेथी क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक के औपशमिक भाव कर्मकृत संमत करवो. पारिणामिक भाव तो अनादि-अनंत, *निरुपाधि, स्वाभाविक ज छे. (औदयिक अने क्षायोपशमिक भावो कर्म विना होता नथी अने तेथी कर्मकृत कही शकायए वात तो स्पष्ट समजाय एवी छे; क्षायिक अने औपशमिक भावोनी बाबतमां नीचे प्रमाणे स्पष्टता करवामां आवे छेः) क्षायिक भाव, जोके स्वभावनी व्यक्तिरूप (प्रगटतारूप) होवाथी अनंत (अंत विनानो) छे तोपण, कर्मना क्षय वडे उत्पन्न थतो होवाने लीधे सादि छे तेथी कर्मकृत ज कहेवामां आव्यो छे. औपशमिक भाव कर्मना उपशमे उत्पन्न थतो होवाथी अने अनुपशमे नष्ट थतो होवाथी कर्मकृत ज छे. (आम औदयिकादि चार भावो कर्मकृत संमत करवा.)

अथवा (बीजी रीते व्याख्या करतां)उदय, उपशम, क्षय अने क्षयोपशमस्वरूप चार (अवस्थाओ) द्रव्यकर्मनी ज अवस्थाओ छे, परिणामस्वरूप एक अवस्थावाळा जीवनी नहि (अर्थात् उदय वगेरे अवस्थाओ द्रव्यकर्मनी ज छे, परिणाम’ जेनुं स्वरूप छे एवी एक अवस्थाए अवस्थित जीवनीपारिणामिक भावरूपे रहेला जीवनीते चार अवस्थाओ नथी); तेथी उदयादिक वडे उत्पन्न थता *निरुपाधि = उपाधि विनानो; औपाधिक न होय एवो. (जीवनो पारिणामिक भाव सर्व कर्मोपाधिथी निरपेक्ष होवाने लीधे निरुपाधि छे.)


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्यपंचास्तिकायवर्णन
९७

तथाविधावस्थत्वेन स्वयं परिणमनार्द्दरव्यकर्मापि व्यवहारनयेनात्मनो भावानां कर्तृत्वमापद्यत इति ।।५८।।

भावो जदि कम्मकदो अत्ता कम्मस्स होदि किध कत्ता
ण कुणदि अत्ता किंचि वि मुत्ता अण्णं सगं भावं ।।५९।।
भावो यदि कर्मकृत आत्मा कर्मणो भवति कथं कर्ता
न करोत्यात्मा किञ्चिदपि मुक्त्वान्यत् स्वकं भावम् ।।५९।।
जीवभावस्य कर्मकर्तृत्वे पूर्वपक्षोऽयम्
यदि खल्वौदयिकादिरूपो जीवस्य भावः कर्मणा क्रियते, तदा जीवस्तस्य

कर्ता न भवति न च जीवस्याकर्तृत्वमिष्यते ततः पारिशेष्येण द्रव्यकर्मणः कर्तापद्यते तत्तु कथम् ? यतो निश्चयनयेनात्मा स्वं भावमुज्झित्वा नान्यत्किमपि आत्माना भावोने निमित्तमात्रभूत एवी ते प्रकारनी अवस्थाओरूपे (द्रव्यकर्म) स्वयं परिणमतुं होवाने लीधे द्रव्यकर्म पण व्यवहारनयथी आत्माना भावोना कर्तापणाने पामे छे. ५८.

जो भावकर्ता कर्म, तो शुं कर्मकर्ता जीव छे?
जीव तो कदी करतो नथी निज भाव विण कंई अन्यने. ५९.

अन्वयार्थ[ यदि भावः कर्मकृतः ] जो भाव (जीवभाव) कर्मकृत होय तो [ आत्मा कर्मणः कर्ता भवति ] आत्मा कर्मनो (द्रव्यकर्मनो) कर्ता होवो जोईए. [ कथं ] ते तो केम बने? [ आत्मा ] कारण के आत्मा तो [ स्वकं भावं मुक्त्वा ] पोताना भावने छोडीने [ अन्यत् किञ्चित् अपि ] बीजुं कांई पण [ न करोति ] करतो नथी.

टीकाकर्मने जीवभावनुं कर्तापणुं होवानी बाबतमां आ *पूर्वपक्ष छे.

जो औदयिकादिरूप जीवनो भाव कर्म वडे करवामां आवतो होय, तो जीव तेनो (औदयिकादिरूप जीवभावनो) कर्ता नथी एम ठरे छे. अने जीवनुं अकर्तापणुं तो इष्ट (मान्य) नथी. माटे, बाकी ए रह्युं के जीव द्रव्यकर्मनो कर्ता होवो जोईए. पण ते *पूर्वपक्ष = चर्चा के निर्णय माटे कोई शास्त्रीय विषयनी बाबतमां रजू करेलो पक्ष के प्रश्न पं. १३


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९८

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

करोतीति ।।५९।।

भावो कम्मणिमित्तो कम्मं पुण भावकारणं हवदि
ण दु तेसिं खलु कत्ता ण विणा भूदा दु कत्तारं ।।६०।।
भावः कर्मनिमित्तः कर्म पुनर्भावकारणं भवति
न तु तेषां खलु कर्ता न विना भूतास्तु कर्तारम् ।।६०।।
पूर्वसूत्रोदितपूर्वपक्षसिद्धान्तोऽयम्
व्यवहारेण निमित्तमात्रत्वाज्जीवभावस्य कर्म कर्तृ, कर्मणोऽपि जीवभावः कर्ता;

निश्चयेन तु न जीवभावानां कर्म कर्तृ, न कर्मणो जीवभावः न च ते कर्तारमन्तरेण सम्भूयेते; यतो निश्चयेन जीवपरिणामानां जीवः कर्ता, कर्मपरिणामानां कर्म कर्तृ इति ।।६०।। तो केम बने? कारण के निश्चयनयथी आत्मा पोताना भावने छोडीने बीजुं कांई पण करतो नथी.

(आ प्रमाणे पूर्वपक्ष रजू करवामां आव्यो.) ५९.
रे! भाव कर्मनिमित्त छे ने कर्म भावनिमित्त छे,
अन्योन्य नहि कर्ता खरे; कर्ता विना नहि थाय छे. ६०.

अन्वयार्थ[ भावः कर्मनिमित्तः ] जीवभावनुं कर्म निमित्त छे [ पुनः ] अने [ कर्म भावकारणं भवति ] कर्मनुं जीवभाव निमित्त छे, [ न तु तेषां खलु कर्ता ] परंतु खरेखर एकबीजानां कर्ता नथी; [ न तु कर्तारम् विना भूताः ] कर्ता विना थाय छे एम पण नथी.

टीकाआ, पूर्व सूत्रमां (५९मी गाथामां) कहेला पूर्वपक्षना समाधानरूप सिद्धांत छे.

व्यवहारथी निमित्तमात्रपणाने लीधे जीवभावनुं कर्म कर्ता छे (औदयिकादि जीवभावनुं कर्ता द्रव्यकर्म छे), कर्मनो पण जीवभाव कर्ता छे; निश्चयथी तो जीवभावोनुं नथी कर्म कर्ता, कर्मनो नथी जीवभाव कर्ता. तेओ (जीवभाव अने द्रव्यकर्म) कर्ता विना थाय छे एम पण नथी; कारण के निश्चयथी जीवपरिणामोनो जीव कर्ता छे अने कर्मपरिणामोनुं कर्म (पुद्गल) कर्ता छे. ६०.


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
९९
कुव्वं सगं सहावं अत्ता कत्ता सगस्स भावस्स
ण हि पोग्गलकम्माणं इदि जिणवयणं मुणेदव्वं ।।६१।।
कुर्वन् स्वकं स्वभावं आत्मा कर्ता स्वकस्य भावस्य
न हि पुद्गलकर्मणामिति जिनवचनं ज्ञातव्यम् ।।६१।।

निश्चयेन जीवस्य स्वभावानां कर्तृत्वं पुद्गलकर्मणामकर्तृत्वं चागमेनोपदर्शितमत्र इति ।।६१।।

कम्मं पि सगं कुव्वदि सेण सहावेण सम्ममप्पाणं
जीवो वि य तारिसओ कम्मसहावेण भावेण ।।६२।।
कर्मापि स्वकं करोति स्वेन स्वभावेन सम्यगात्मानम्
जीवोऽपि च ताद्रशकः कर्मस्वभावेन भावेन ।।६२।।
निज भाव करतो आतमा कर्ता खरे निज भावनो,
कर्ता न पुद्गलकर्मनो;उपदेश जिननो जाणवो. ६१.

अन्वयार्थ[ स्वकं स्वभावं ] पोताना *स्वभावने [ कुर्वन् ] करतो [ आत्मा ] आत्मा [ हि ] खरेखर [ स्वकस्य भावस्य ] पोताना भावनो [ कर्ता ] कर्ता छे, [ न पुद्गल- कर्मणाम् ] पुद्गलकर्मोनो नहि; [ इति ] आम [ जिनवचनं ] जिनवचन [ ज्ञातव्यम् ] जाणवुं.

टीकानिश्चयथी जीवने पोताना भावोनुं कर्तापणुं छे अने पुद्गलकर्मोनुं अकर्तापणुं छे एम अहीं आगम वडे दर्शाववामां आव्युं छे. ६१.

रे! कर्म आपस्वभावथी निज कर्मपर्ययने करे,
आत्माय कर्मस्वभावरूप निज भावथी निजने करे. ६२.

अन्वयार्थ[ कर्म अपि ] कर्म पण [ स्वेन स्वभावेन ] पोताना स्वभावथी [ स्वकं करोति ] पोताने करे छे [ च ] अने [ ताद्रशकः जीवः अपि ] तेवो जीव पण [ कर्मस्वभावेन *जोके शुद्धनिश्चयथी केवळज्ञानादि शुद्धभावो ‘स्वभावो’ कहेवाय छे तोपण अशुद्धनिश्चयथी रागादिक

पण ‘स्वभावो’ कहेवाय छे.

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पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अत्र निश्चयनयेनाभिन्नकारकत्वात्कर्मणो जीवस्य च स्वयं स्वरूपकर्तृत्वमुक्त म्
कर्म खलु कर्मत्वप्रवर्तमानपुद्गलस्कन्धरूपेण कर्तृतामनुबिभ्राणं, कर्मत्वगमन-

शक्ति रूपेण करणतामात्मसात्कुर्वत्, प्राप्यकर्मत्वपरिणामरूपेण कर्मतां कलयत्, पूर्वभाव- व्यपायेऽपि ध्रुवत्वालम्बनादुपात्तापादानत्वम्, उपजायमानपरिणामरूपकर्मणाश्रीयमाणत्वादुपोढ- सम्प्रदानत्वम्, आधीयमानपरिणामाधारत्वाद्गृहीताधिकरणत्वं, स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानं न कारकान्तरमपेक्षते एवं जीवोऽपि भावपर्यायेण प्रवर्तमानात्मद्रव्यरूपेण कर्तृतामनुबिभ्राणो, भावपर्यायगमनशक्ति रूपेण करणतामात्मसात्कुर्वन्, प्राप्यभावपर्यायरूपेण कर्मतां कलयन्, पूर्वभावपर्यायव्यपायेऽपि ध्रुवत्वालम्बनादुपात्तापादानत्वः, उपजायमान- भावपर्यायरूपकर्मणाश्रीयमाणत्वादुपोढसम्प्रदानत्वः, आधीयमानभावपर्यायाधारत्वाद्गृहीताधि- भावेन ] कर्मस्वभाव भावथी (औदयिकादि भावथी) [ सम्यक् आत्मानम् ] बराबर पोताने करे छे.

टीकानिश्चयनये अभिन्न कारको होवाथी कर्म अने जीव स्वयं स्वरूपना (पोतपोताना रूपना) कर्ता छे एम अहीं कह्युं छे.

कर्म खरेखर (१) कर्मपणे प्रवर्तता पुद्गलस्कंधरूपे कर्तापणाने धरतुं, (२) कर्मपणुं पामवानी शक्तिरूपे करणपणाने अंगीकृत करतुं, (३) प्राप्य एवा कर्मत्वपरिणामरूपे कर्मपणाने अनुभवतुं, (४) पूर्व भावनो नाश थवा छतां ध्रुवपणाने अवलंबतुं होवाथी जेणे अपादानपणाने प्राप्त कर्युं छे एवुं, (५) ऊपजता परिणामरूप कर्म वडे समाश्रित थतुं होवाथी (अर्थात् ऊपजता परिणामरूप कार्य पोताने देवामां आवतुं होवाथी) संप्रदानपणाने पामेलुं अने (६) धारी राखवामां आवता परिणामनो आधार होवाथी जेणे अधिकरणपणाने ग्रह्युं छे एवुंस्वयमेव षट्कारकरूपे वर्ततुं थकुं अन्य कारकनी अपेक्षा राखतुं नथी.

ए प्रमाणे जीव पण (१) भावपर्याये प्रवर्तता आत्मद्रव्यरूपे कर्तापणाने धरतो, (२) भावपर्याय पामवानी शक्तिरूपे करणपणाने अंगीकृत करतो, (३) प्राप्य एवा भावपर्यायरूपे कर्मपणाने अनुभवतो, (४) पूर्व भावपर्यायनो नाश थवा छतां ध्रुवपणाने अवलंबतो होवाथी जेणे अपादानपणाने प्राप्त कर्युं छे एवो, (५) ऊपजता भावपर्यायरूप कर्म वडे समाश्रित थतो होवाथी (अर्थात् ऊपजता भावपर्यायरूप कार्य