Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 80-96 ; Dharmadravyastikay ane Adharmadravyastikay Vyakhyan; Aakashdravyastikay Vyakhyan.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१२१
शब्दस्य पुद्गलस्कन्धपर्यायत्वख्यापनमेतत
इह हि बाह्यश्रवणेन्द्रियावलम्बितो भावेन्द्रियपरिच्छेद्यो ध्वनिः शब्दः

खलु स्वरूपेणानन्तपरमाणूनामेकस्कन्धो नाम पर्यायः बहिरङ्गसाधनीभूतमहास्कन्धेभ्यः तथाविधपरिणामेन समुत्पद्यमानत्वात् स्कन्धप्रभवः, यतो हि परस्पराभिहतेषु महा- स्कन्धेषु शब्दः समुपजायते किञ्च स्वभावनिर्वृत्ताभिरेवानन्तपरमाणुमयीभिः शब्द- योग्यवर्गणाभिरन्योन्यमनुप्रविश्य समन्ततोऽभिव्याप्य पूरितेऽपि सकले लोके यत्र यत्र बहिरङ्गकारणसामग्री समुदेति तत्र तत्र ताः शब्दत्वेन स्वयं व्यपरिणमन्त इति शब्दस्य ते (शब्द) नियतपणे उत्पाद्य छे.

टीकाशब्द पुद्गलस्कंधपर्याय छे एम अहीं दर्शाव्युं छे.

आ लोकमां, बाह्य श्रवणेंद्रिय वडे अवलंबित, भावेंद्रिय वडे जणावायोग्य एवो जे ध्वनि ते शब्द छे. ते (शब्द) खरेखर स्वरूपे अनंत परमाणुओना एकस्कंधरूप पर्याय छे. बहिरंग साधनभूत (बाह्य-कारणभूत) महास्कंधो द्वारा तथाविध परिणामे (शब्दपरिणामे) ऊपजतो होवाथी ते स्कंधजन्य छे, कारण के महास्कंधो परस्पर अथडातां शब्द उत्पन्न थाय छे. वळी आ वात विशेष समजाववामां आवे छेएकबीजामां प्रवेशीने सर्वत्र व्यापीने रहेली एवी जे स्वभावनिष्पन्न ज (पोताना स्वभावथी ज बनेली), अनंतपरमाणुमयी शब्दयोग्य-वर्गणाओ तेमनाथी आखो लोक भरेलो होवा छतां ज्यां ज्यां बहिरंगकारणसामग्री उदित थाय छे त्यां त्यां ते वर्गणाओ शब्दपणे स्वयं १. शब्द श्रवणेंद्रियनो विषय छे तेथी ते मूर्त छे. केटलाक लोको माने छे तेम शब्द आकाशनो गुण

नथी, कारण के अमूर्त आकाशनो अमूर्त गुण इन्द्रियनो विषय थई शके नहि. २. शब्दना बे प्रकार छेः () प्रायोगिक अने () वैश्रसिक. पुरुषादिना प्रयोगथी उत्पन्न थतो

शब्द ते प्रायोगिक छे अने मेघादिथी उत्पन्न थतो शब्द ते वैश्रसिक छे.
अथवा नीचे प्रमाणे पण शब्दना बे प्रकार छेः () भाषात्मक अने () अभाषात्मक. तेमां
भाषात्मक शब्द द्विविध छेअक्षरात्मक अने अनक्षरात्मक. संस्कृतप्राकृतादिभाषारूप ते अक्षरात्मक
छे अने द्वींद्रियादिक जीवोना शब्दरूप तथा (केवळीभगवानना) दिव्य ध्वनिरूप ते अनक्षरात्मक
छे. अभाषात्मक शब्द पण द्विविध छेप्रायोगिक अने वैश्रसिक. वीणा, ढोल, झांझ, वांसळी वगेरेथी
उत्पन्न थतो ते प्रायोगिक छे अने मेघादिथी उत्पन्न थतो ते वैश्रसिक छे.
कोई पण प्रकारनो शब्द हो परंतु सर्व शब्दनुं उपादानकारण लोकमां सर्वत्र भरेली शब्दयोग्य

वर्गणाओ ज छे; ते वर्गणाओ ज स्वयमेव शब्दपणे परिणमे छे, जीभ-ढोल-मेघ वगेरे मात्र निमित्तभूत छे. पं. १६


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१२

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

नियतमुत्पाद्यत्वात् स्कन्धप्रभवत्वमिति ।।७९।।

णिच्चो णाणवगासो ण सावगासो पदेसदो भेत्ता
खंघाणं पि य कत्ता पविहत्ता कालसंखाणं ।।८०।।
नित्यो नानवकाशो न सावकाशः प्रदेशतो भेत्ता
स्कन्धानामपि च कर्ता प्रविभक्ता कालसंख्यायाः ।।८०।।
परमाणोरेकप्रदेशत्वख्यापनमेतत
परमाणुः स खल्वेकेन प्रदेशेन रूपादिगुणसामान्यभाजा सर्वदैवाविनश्वरत्वा-

न्नित्यः एकेन प्रदेशेन तदविभक्त वृत्तीनां स्पर्शादिगुणानामवकाशदानान्नानवकाशः परिणमे छे; ए रीते शब्द नियतपणे (अवश्य) उत्पाद्य छे; तेथी ते स्कंधजन्य छे. ७९.

नहि अनवकाश, न सावकाश प्रदेशथी, अणु शाश्वतो,
भेत्ता रचयिता स्कंधनो, प्रविभागी संख्या-काळनो. ८०.

अन्वयार्थ[ प्रदेशतः ] प्रदेश द्वारा [ नित्यः ] परमाणु नित्य छे, [ न अनवकाशः ] अनवकाश नथी, [ न सावकाशः ] सावकाश नथी, [ स्कन्धानाम् भेत्ता ] स्कंधोनो तोडनार [ अपि च कर्ता ] तेम ज करनार छे तथा [ कालसंख्यायाः प्रविभक्ता ] काळ ने संख्यानो विभागनार छे (अर्थात् काळनो भाग पाडे छे अने संख्यानुं माप करे छे).

टीकाआ, परमाणुना एकप्रदेशीपणानुं कथन छे.

जे परमाणु छे, ते खरेखर एक प्रदेश वडेके जे रूपादिगुणसामान्यवाळो छे तेना वडेसदाय अविनाशी होवाथी नित्य छे; ते खरेखर एक प्रदेश वडे तेनाथी (प्रदेशथी) अभिन्न अस्तित्ववाळा स्पर्शादिगुणोने अवकाश देतो होवाने लीधे १. उत्पाद्य = उत्पन्न करावा योग्य; जेनी उत्पत्तिमां अन्य कोई निमित्त होय छे एवो. २. स्कंधजन्य = स्कंधो वडे उत्पन्न थाय एवो; जेनी उत्पत्तिमां स्कंधो निमित्त होय छे एवो. [

आखा
लोकमां सर्वत्र व्यापेली अनंतपरमाणुमयी शब्दयोग्य वर्गणाओ स्वयमेव शब्दरूपे परिणमती होवा
छतां पवन-गळुं-ताळवुं-जीभ-होठ, घंट-मोगरी वगेरे महास्कंधोनुं अथडावुं ते बहिरंगकारणसामग्री
छे अर्थात
् शब्दरूप परिणमनमां ते महास्कंधो निमित्तभूत छे तेथी ते अपेक्षाए (निमित्त-
अपेक्षाए) शब्दने व्यवहारथी स्कंधजन्य कहेवामां आवे छे.]

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१२३

एकेन प्रदेशेन द्वयादिप्रदेशाभावादात्मादिनात्ममध्येनात्मान्तेन न सावकाशः एकेन प्रदेशेन स्कन्धानां भेदनिमित्तत्वात् स्कन्धानां भेत्ता एकेन प्रदेशेन स्कन्धसङ्घात- निमित्तत्वात्स्कन्धानां कर्ता एकेन प्रदेशेनैकाकाशप्रदेशातिवर्तितद्गतिपरिणामापन्नेन समयलक्षणकालविभागकरणात् कालस्य प्रविभक्ता एकेन प्रदेशेन तत्सूत्रितद्वयादि- भेदपूर्विकायाः स्कंधेषु द्रव्यसंख्यायाः, एकेन प्रदेशेन तदवच्छिन्नैकाकाशप्रदेश- अनवकाश नथी; ते खरेखर एक प्रदेश वडे (तेनामां) द्वि-आदि प्रदेशोनो अभाव होवाथी, पोते ज आदि, पोते ज मध्य अने पोते ज अंत होवाने लीधे (अर्थात् निरंश होवाने लीधे), सावकाश नथी; ते खरेखर एक प्रदेश वडे स्कंधोना भेदनुं निमित्त होवाथी (अर्थात् स्कंधना वीखरावानुंतूटवानुं निमित्त होवाथी) स्कंधोनो तोडनार छे; ते खरेखर एक प्रदेश वडे स्कंधना संघातनुं निमित्त होवाथी (अर्थात् स्कंधना मळवानुं रचावानुं निमित्त होवाथी) स्कंधोनो करनार छे; ते खरेखर एक प्रदेश वडेके जे एक आकाशप्रदेशने अतिक्रमनारा (ओळंगनारा) तेना गतिपरिणामने पामे छे तेना वडे ‘समय’ नामनो काळनो विभाग करतो होवाथी काळनो विभागनार छे; ते खरेखर एक प्रदेश वडे संख्यानो पण विभागनार छे, कारण के () ते एक प्रदेश वडे तेनाथी रचाता बे वगेरे भेदोथी मांडीने (त्रण अणु, चार अणु, असंख्य अणु इत्यादि) द्रव्यसंख्याना विभाग स्कंधोने विषे करे छे, () ते एक प्रदेश वडे तेना जेटली मर्यादावाळा एक ‘आकाशप्रदेश’थी मांडीने (बे आकाशप्रदेश, त्रण आकाशप्रदेश, असंख्य आकाशप्रदेश इत्यादि) क्षेत्रसंख्याना विभाग करे छे, () ते एक प्रदेश वडे, एक १. विभागनार = विभाग करनार; मापनार. [स्कंधोने विषे द्रव्यसंख्यानुं माप (अर्थात् तेओ केटला

अणुओनापरमाणुओना बनेला छे एवुं माप) करवामां अणुओनीपरमाणुओनी अपेक्षा आवे
छे, एटले के तेवुं माप परमाणु द्वारा थाय छे. क्षेत्रना मापनो एकम ‘आकाशप्रदेश’ छे अने
आकाशप्रदेशनी व्याख्यामां परमाणुनी अपेक्षा आवे छे; तेथी क्षेत्रनुं माप पण परमाणु द्वारा थाय
छे. काळना मापनो एकम ‘समय’ छे अने समयनी व्याख्यामां परमाणुनी अपेक्षा आवे छे; तेथी
काळनुं माप पण परमाणु द्वारा थाय छे. ज्ञानभावना (
-ज्ञानपर्यायना) मापनो एकम ‘परमाणुमां
परिणमता जघन्य वर्णादिभावने जाणे तेटलुं ज्ञान’ छे अने तेमां परमाणुनी अपेक्षा आवे छे;
तेथी भावनुं (
-ज्ञानभावनुं) माप पण परमाणु द्वारा थाय छे. आ प्रमाणे परमाणु द्रव्य, क्षेत्र,

काळ ने भाव मापवामां गज समान छे]. २. एक परमाणुप्रदेश जेवडा आकाशना भागने (-क्षेत्रने) ‘आकाशप्रदेश’ कहेवामां आवे छे. आ

‘आकाशप्रदेश’ ते क्षेत्रनो ‘एकम’ छे. [गणतरी माटे, कोई वस्तुना जेटला परिमाणने ‘एक माप’
स्वीकारवामां आवे, तेटला परिमाणने ते वस्तुनो ‘एकम’ कहेवामां आवे छे.]

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१२

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

पूर्विकायाः क्षेत्रसंख्यायाः, एकेन प्रदेशेनैकाकाशप्रदेशातिवर्तितद्गतिपरिणामावच्छिन्न- समयपूर्विकायाः कालसंख्यायाः, एकेन प्रदेशेन तद्विवर्तिजघन्यवर्णादिभावावबोधपूर्विकाया भावसंख्यायाः प्रविभागकरणात् प्रविभक्ता संख्याया अपीति ।।८०।।

एयरसवण्णगंधं दोफासं सद्दकारणमसद्दं
खंधंतरिदं दव्वं परमाणुं तं वियाणाहि ।।८१।।
एकरसवर्णगन्धं द्विस्पर्शं शब्दकारणमशब्दम्
स्कन्धान्तरितं द्रव्यं परमाणुं तं विजानीहि ।।८१।।
परमाणुद्रव्ये गुणपर्यायवृत्तिप्ररूपणमेतत
सर्वत्रापि परमाणौ रसवर्णगन्धस्पर्शाः सहभुवो गुणाः ते च क्रमप्रवृत्तैस्तत्र स्व-

पर्यायैर्वर्तन्ते तथाहिपञ्चानां रसपर्यायाणामन्यतमेनैकेनैक दा रसो वर्तते पञ्चानां वर्ण- आकाशप्रदेशने अतिक्रमनारा तेना गतिपरिणामना जेटली मर्यादावाळा ‘समय’थी मांडीने (बे समय, त्रण समय, असंख्य समय इत्यादि) काळसंख्याना विभाग करे छे, अने () ते एक प्रदेश वडे तेनामां विवर्तन पामता (पलटाता, परिणमता) जघन्य वर्णादिभावने जाणनारा ज्ञानथी मांडीने भावसंख्याना विभाग करे छे. ८०.

एक ज वरण-रस-गंध ने बे स्पर्शयुत परमाणु छे,
ते शब्दहेतु, अशब्द छे, ने स्कंधमां पण द्रव्य छे. ८१.

अन्वयार्थ[ तं परमाणुं ] ते परमाणु [ एकरसवर्णगन्धं ] एक रसवाळो, एक वर्णवाळो, एक गंधवाळो तथा [ द्विस्पर्शं ] बे स्पर्शवाळो छे, [ शब्दकारणम् ] शब्दनुं कारण छे, [ अशब्दम् ] अशब्द छे अने [ स्कन्धान्तरितं ] स्कंधनी अंदर होय तोपण [ द्रव्यं ] (परिपूर्ण स्वतंत्र) द्रव्य छे एम [ विजानीहि ] जाणो.

टीकाआ, परमाणुद्रव्यमां गुण-पर्याय वर्तवानुं (गुण अने पर्याय होवानुं) कथन छे.

सर्वत्र परमाणुमां रस-वर्ण-गंध-स्पर्श सहभावी गुणो होय छे; अने ते गुणो तेमां क्रमवर्ती निज पर्यायो सहित वर्ते छे. ते आ प्रमाणेपांच रसपर्यायोमांथी एक वखते १. परमाणुने एक आकाशप्रदेशेथी बीजा अनंतर आकाशप्रदेशे (मंदगतिथी) जतां जे वखत लागे

तेने ‘समय’ कहेवामां आवे छे.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१२५

पर्यायाणामन्यतमेनैकेनैकदा वर्णो वर्तते उभयोर्गन्धपर्याययोरन्यतरेणैकेनैकदा गन्धो वर्तते चतुर्णां शीतस्निग्धशीतरूक्षोष्णस्निग्धोष्णरूक्षरूपाणां स्पर्शपर्यायद्वन्द्वानामन्यतमेनैकेनैकदा स्पर्शो वर्तते एवमयमुक्त गुणवृत्तिः परमाणुः शब्दस्कंधपरिणतिशक्ति स्वभावात् शब्दकारणम् एकप्रदेशत्वेन शब्दपर्यायपरिणतिवृत्त्यभावादशब्दः स्निग्धरूक्षत्वप्रत्ययबन्धवशादनेकपरमाण्वेक- त्वपरिणतिरूपस्कन्धान्तरितोऽपि स्वभावमपरित्यजन्नुपात्तसंख्यत्वादेक एव द्रव्यमिति ।।८१।।

उवभोज्जमिंदिएहिं य इंदियकाया मणो य कम्माणि
जं हवदि मुत्तमण्णं तं सव्वं पोग्गलं जाणे ।।८२।।
उपभोग्यमिन्द्रियैश्चेन्द्रियकाया मनश्च कर्माणि
यद्भवति मूर्तमन्यत् तत्सर्वं पुद्गलं जानीयात।।८२।।

कोई एक (रसपर्याय) सहित रस वर्ते छे; पांच वर्णपर्यायोमांथी एक वखते कोई एक (वर्णपर्याय) सहित वर्ण वर्ते छे; बे गंधपर्यायोमांथी एक वखते कोई एक (गंधपर्याय) सहित गंध वर्ते छे; शीत-स्निग्ध, शीत-रूक्ष, उष्ण-स्निग्ध ने उष्ण-रूक्ष ए चार स्पर्शपर्यायोनां जोडकांमांथी एक वखते कोई एक जोडका सहित स्पर्श वर्ते छे. आ प्रमाणे जेमां गुणोनुं वर्तवुं (अस्तित्व) कहेवामां आव्युं एवो आ परमाणु शब्दस्कंधरूपे परिणमवानी शक्तिरूप स्वभाववाळो होवाथी शब्दनुं कारण छे; एकप्रदेशी होवाने लीधे शब्दपर्यायरूप परिणति नहि वर्तती होवाथी अशब्द छे; अने स्निग्ध-रूक्षत्वना कारणे बंध थवाने लीधे अनेक परमाणुओनी एकत्वपरिणतिरूप स्कंधनी अंदर रह्यो होय तोपण स्वभावने नहि छोडतो थको, संख्याने प्राप्त होवाथी (अर्थात् परिपूर्ण एक तरीके जुदो गणतरीमां आवतो होवाथी) एकलो ज द्रव्य छे. ८१.

इन्द्रिय वडे उपभोग्य, इन्द्रिय, काय, मन ने कर्म जे,
वळी अन्य जे कंई मूर्त ते सघळुंय पुद्गल जाणजे. ८२.

अन्वयार्थ[ इन्द्रियैः उपभोग्यम् च ] इन्द्रियो वडे उपभोग्य विषयो, [ इन्द्रियकायाः ] इन्द्रियो, शरीरो, [ मनः ] मन, [ कर्माणि ] कर्मो [ च ] अने [ अन्यत् यत् ] १. स्निग्ध-रूक्षत्व = चीकाश अने लूखाश २. अहीं एम बताव्युं छे के स्कंधने विषे पण प्रत्येक परमाणु स्वयं परिपूर्ण छे, स्वतंत्र छे, परनी

सहाय विनानो छे, पोताथी ज पोताना गुणपर्यायमां स्थित छे.

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१२

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
सकलपुद्गलविकल्पोपसंहारोऽयम्
इन्द्रियविषयाः स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दाश्च, द्रव्येन्द्रियाणि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः-

श्रोत्राणि, कायाः औदारिकवैक्रियकाहारकतैजसकार्मणानि, द्रव्यमनः, द्रव्यकर्माणि, नोकर्माणि, विचित्रपर्यायोत्पत्तिहेतवोऽनन्ताः अनन्ताणुवर्गणाः, अनन्ता असंख्येयाणुवर्गणाः, अनन्ताः संख्येयाणुवर्गणाः द्वयणुकस्क न्धपर्यंताः, परमाणवश्च, यदन्यदपि मूर्तं तत्सर्वं पुद्गलविकल्पत्वेनोपसंहर्तव्यमिति ।।८२।।

इति पुद्गलद्रव्यास्तिकायव्याख्यानं समाप्तम्

बीजुं जे कांई [ मूर्त्तं भवति ] मूर्त होय [ तत् सर्वं ] ते सघळुं [ पुद्गलं जानीयात् ] पुद्गल जाणो.

टीकाआ, सर्व पुद्गलभेदोनो उपसंहार छे.

स्पर्श, रस, गंध, वर्ण ने शब्दरूप (पांच) इन्द्रियविषयो, स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु ने श्रोत्ररूप (पांच) द्रव्येंद्रियो, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस ने कार्मणरूप (पांच) कायो, द्रव्यमन, द्रव्यकर्मो, नोकर्मो, विचित्र पर्यायोनी उत्पत्तिना हेतुभूत (अर्थात अनेक प्रकारना पर्यायो ऊपजवाना कारणभूत) *अनंत अनंताणुक वर्गणाओ, अनंत असंख्याताणुक वर्गणाओ अने द्वि-अणुक स्कंध सुधीनी अनंत संख्याताणुक वर्गणाओ तथा परमाणुओ, तेम ज बीजुं पण जे कांई मूर्त होय ते सघळुं पुद्गलना भेद तरीके संकेलवुं.

भावार्थवीतराग अतींद्रिय सुखना स्वादथी रहित जीवोने उपभोग्य पंचेंद्रियविषयो, अतींद्रिय आत्मस्वरूपथी विपरीत पांच इन्द्रियो, अशरीर आत्मपदार्थथी प्रतिपक्षभूत पांच शरीरो, मनोगत-विकल्पजाळरहित शुद्धजीवास्तिकायथी विपरीत मन, कर्मरहित आत्मद्रव्यथी प्रतिकूळ आठ कर्मो अने अमूर्त आत्मस्वभावथी प्रतिपक्षभूत बीजुं पण जे कांई मूर्त होय ते बधुं पुद्गल जाणो. ८२.

आ रीते पुद्गलद्रव्यास्तिकायनुं व्याख्यान समाप्त थयुं. * लोकमां अनंत परमाणुनी बनेली वर्गणाओ अनंत छे, असंख्यात परमाणुनी बनेली वर्गणाओ

पण अनंत छे अने (द्वि-अणुक स्कंध, त्रि-अणुक स्कंध इत्यादि) संख्यात परमाणुनी बनेली वर्गणाओ
पण अनंत छे. (अविभागी परमाणुओ पण अनंत छे.)

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१२७
अथ धर्माधर्मद्रव्यास्तिकायव्याख्यानम्
धम्मत्थिकायमरसं अवण्णगंधं असद्दमप्फासं
लोगागाढं पुट्ठं पिहुलमसंखादियपदेसं ।।८३।।
धर्मास्तिकायोऽरसोऽवर्णगन्धोऽशब्दोऽस्पर्शः
लोकावगाढः स्पृष्टः पृथुलोऽसंख्यातप्रदेशः ।।८३।।
धर्मस्वरूपाख्यानमेतत
धर्मो हि स्पर्शरसगन्धवर्णानामत्यन्ताभावादमूर्तस्वभावः तत एव चाशब्दः

सकललोकाकाशाभिव्याप्यावस्थितत्वाल्लोकावगाढः अयुतसिद्धप्रदेशत्वात् स्पृष्टः स्वभावादेव सर्वतो विस्तृतत्वात्पृथुलः निश्चयनयेनैकप्रदेशोऽपि व्यवहारनयेनासंख्यातप्रदेश इति ।।८३।।

हवे धर्मद्रव्यास्तिकाय अने अधर्मद्रव्यास्तिकायनुं व्याख्यान छे.
धर्मास्तिकाय अवर्णगंध, अशब्दरस, अस्पर्श छे;
लोकावगाही, अखंड छे, विस्तृत, असंख्यप्रदेश छे. ८३.

अन्वयार्थ[ धर्मास्तिकायः ] धर्मास्तिकाय [ अस्पर्शः ] अस्पर्श, [ अरसः ] अरस, [ अवर्णगन्धः ] अगंध, अवर्ण अने [ अशब्दः ] अशब्द छे; [ लोकावगाढः ] लोकव्यापक छे; [ स्पृष्टः ] अखंड, [ पृथुलः ] विशाळ अने [ असंख्यातप्रदेशः ] असंख्यातप्रदेशी छे.

टीकाआ, धर्मना (धर्मास्तिकायना) स्वरूपनुं कथन छे.

स्पर्श, रस, गंध अने वर्णनो अत्यंत अभाव होवाथी धर्म (धर्मास्तिकाय) खरेखर अमूर्तस्वभाववाळो छे; अने तेथी ज अशब्द छे; समस्त लोकाकाशमां व्यापीने रहेलो होवाथी लोकव्यापक छे; अयुतसिद्ध प्रदेशवाळो होवाथी अखंड छे; स्वभावथी ज सर्वतः विस्तृत होवाथी विशाळ छे; निश्चयनये एकप्रदेशी होवा छतां व्यवहारनये असंख्यातप्रदेशी छे. ८३. १. युतसिद्ध = जोडायेल; संयोगसिद्ध. [धर्मास्तिकायने विषे जुदा जुदा प्रदेशोनो संयोग थयेलो छे एम

नथी, तेथी तेमां वच्चे व्यवधानअंतरअवकाश नथी; माटे धर्मास्तिकाय अखंड छे.] २. एकप्रदेशी = अविभाज्य-एकक्षेत्रवाळो. (निश्चयनये धर्मास्तिकाय अविभाज्य-एकपदार्थ होवाथी

अविभाज्य-एकक्षेत्रवाळो छे.)

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१२

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अगुरुगलघुगेहिं सया तेहिं अणंतेहिं परिणदं णिच्चं
गदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं सयमकज्जं ।।८४।।
अगुरुकलघुकैः सदा तैः अनन्तैः परिणतः नित्यः
गतिक्रियायुक्तानां कारणभूतः स्वयमकार्यः ।।८४।।
धर्मस्यैवावशिष्टस्वरूपाख्यानमेतत
अपि च धर्मः अगुरुलघुभिर्गुणैरगुरुलघुत्वाभिधानस्य स्वरूपप्रतिष्ठत्वनिबन्धन-

स्य स्वभावस्याविभागपरिच्छेदैः प्रतिसमयसम्भवत्षट्स्थानपतितवृद्धिहानिभिरनन्तैः सदा परिणतत्वादुत्पादव्ययवत्त्वेऽपि स्वरूपादप्रच्यवनान्नित्यः गतिक्रियापरिणतानामुदासीनाविना-

जे अगुरुलघुक अनंत ते-रूप सर्वदा ए परिणमे,
छे नित्य, आप अकार्य छे, गतिपरिणमितने हेतु छे. ८४.

अन्वयार्थ[ अनन्तैः तैः अगुरुक लघुकैः ] ते (धर्मास्तिकाय) अनंत एवा जे अगुरुलघु (गुणो, अंशो) ते-रूपे [ सदा परिणतः ] सदा परिणमे छे, [ नित्यः ] नित्य छे, [ गतिक्रियायुक्तानां ] गतिक्रियायुक्तने [ कारणभूतः ] कारणभूत (निमित्तरूप) छे अने [ स्वयम् अकार्यः ] पोते अकार्य छे.

टीकाआ, धर्मना ज बाकीना स्वरूपनुं कथन छे.

वळी धर्म (धर्मास्तिकाय) अगुरुलघु गुणोरूपे एटले के अगुरुलघुत्व नामनो जे स्वरूपप्रतिष्ठत्वना कारणभूत स्वभाव तेना अविभाग परिच्छेदोरूपेके जेओ प्रतिसमय थती षट्स्थानपतित वृद्धिहानिवाळा अनंत छे तेमना रूपेसदा परिणमतो होवाथी उत्पादव्ययवाळो छे, तोपण स्वरूपथी च्युत नहि थतो होवाथी नित्य छे; गतिक्रियापरिणतने (गतिक्रियारूपे परिणमतां जीव-पुद्गलोने) उदासीन १. गुण = अंश; अविभाग परिच्छेद. [सर्व द्रव्योनी माफक धर्मास्तिकायमां अगुरुलघुत्व नामनो स्वभाव

छे. ते स्वभाव धर्मास्तिकायने स्वरूपप्रतिष्ठत्वना (अर्थात् स्वरूपमां रहेवाना) कारणभूत छे. तेना
अविभाग परिच्छेदोने अहीं अगुरुलघु गुणो (-अंशो) कह्या छे.]

२. षट्स्थानपतित वृद्धिहानि = छ स्थानमां समावेश पामती वृद्धिहानि; षट्गुण वृद्धिहानि.

[अगुरुलघुत्वस्वभावना अनंत अंशोमां स्वभावथी ज समये समये षट्गुण वृद्धिहानि थया करे छे.] ३. जेम सिद्धभगवान, उदासीन होवा छतां, सिद्धगुणोना अनुरागरूपे परिणमता भव्य जीवोने

सिद्धगतिना सहकारी कारणभूत छे, तेम धर्म पण, उदासीन होवा छतां, पोतपोताना भावोथी
ज गतिरूपे परिणमतां जीव-पुद्गलोने गतिनुं सहकारी कारण छे.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१२९

भूतसहायमात्रत्वात्कारणभूतः स्वास्तित्वमात्रनिर्वृत्तत्वात् स्वयमकार्य इति ।।८४।।

उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहकरं हवदि लोए
तह जीवपोग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाणाहि ।।८५।।
उदकं यथा मत्स्यानां गमनानुग्रहकरं भवति लोके
तथा जीवपुद्गलानां धर्मद्रव्यं विजानीहि ।।८५।।
धर्मस्य गतिहेतुत्वे द्रष्टान्तोऽयम्
यथोदकं स्वयमगच्छदगमयच्च स्वयमेव गच्छतां मत्स्यानामुदासीनाविनाभूत-

सहायकारणमात्रत्वेन गमनमनुगृह्णाति, तथा धर्मोऽपि स्वयमगच्छन् अगमयंश्च स्वयमेव *अविनाभावी सहायमात्र होवाथी (गतिक्रियापरिणतने) कारणभूत छे; पोताना अस्तित्वमात्रथी निष्पन्न होवाने लीधे पोते अकार्य छे (अर्थात् स्वयंसिद्ध होवाने लीधे कोई अन्यथी उत्पन्न थयो नथी तेथी कोई अन्य कारणना कार्यरूप नथी). ८४.

ज्यम जगतमां जळ मीनने अनुग्रह करे छे गमनमां,
त्यम धर्म पण अनुग्रह करे जीव-पुद्गलोने गमनमां. ८५.

अन्वयार्थ[ यथा ] जेम [ लोके ] जगतमां [ उदकं ] पाणी [ मत्स्यानां ] माछलांओने [ गमनानुग्रहकरं भवति ] गमनमां अनुग्रह करे छे, [ तथा ] तेम [ धर्मद्रव्यं ] धर्मद्रव्य [ जीवपुद्गलानां ] जीव-पुद्गलोने गमनमां अनुग्रह करे छे (निमित्तभूत होय छे) एम [ विजानीहि ] जाणो.

टीकाआ, धर्मना गतिहेतुत्व विषे द्रष्टांत छे.

जेम पाणी पोते गमन नहि करतुं थकुं अने (परने) गमन नहि करावतुं थकुं, स्वयमेव गमन करतां माछलांओने उदासीन अविनाभावी सहायरूप कारणमात्र तरीके *जो कोई एक, कोई बीजा विना न होय, तो पहेलाने बीजानुं अविनाभावी कहेवामां आवे छे. अहीं धर्मद्रव्यने ‘गतिक्रियापरिणतनुं अविनाभावी सहायमात्र’ कह्युं छे तेनो अर्थ ए छे के

गतिक्रियापरिणत जीव-पुद्गलो न होय त्यां धर्मद्रव्य तेमने सहायमात्ररूप पण नथी; जीव-पुद्गलो
स्वयं गतिक्रियारूपे परिणमतां होय तो ज धर्मद्रव्य तेमने उदासीन सहायमात्ररूप (निमित्तमात्ररूप)

छे, अन्यथा नहि. पं. १७


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१३०

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

गच्छतां जीवपुद्गलानामुदासीनाविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन गमनमनुगृह्णाति इति ।।८५।।

जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दव्वमधमक्खं
ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव ।।८६।।
यथा भवति धर्मद्रव्यं तथा तज्जानीहि द्रव्यमधर्माख्यम्
स्थितिक्रियायुक्तानां कारणभूतं तु पृथिवीव ।।८६।।
अधर्मस्वरूपाख्यानमेतत
यथा धर्मः प्रज्ञापितस्तथाधर्मोऽपि प्रज्ञापनीयः अयं तु विशेषः

गतिक्रियायुक्तानामुदकवत्कारणभूतः, एषः पुनः स्थितिक्रियायुक्तानां पृथिवीवत्कारणभूतः गमनमां अनुग्रह करे छे, तेम धर्म (धर्मास्तिकाय) पण पोते गमन नहि करतो थको अने (परने) गमन नहि करावतो थको, स्वयमेव गमन करतां जीव-पुद्गलोने उदासीन अविनाभावी सहायरूप कारणमात्र तरीके गमनमां *अनुग्रह करे छे. ८५.

ज्यम धर्मनामक द्रव्य तेम अधर्मनामक द्रव्य छे;
पण द्रव्य आ छे पृथ्वी माफक हेतु थितिपरिणमितने. ८६.

अन्वयार्थ[ यथा ] जेम [ धर्मद्रव्यं भवति ] धर्मद्रव्य छे [ तथा ] तेम [ अधर्माख्यम् द्रव्यम् ] अधर्म नामनुं द्रव्य पण [ जानीहि ] जाणो; [ तत् तु ] परंतु ते (गतिक्रिया- युक्तने कारणभूत होवाने बदले) [ स्थितिक्रियायुक्तानाम् ] स्थितिक्रियायुक्तने [ पृथिवी इव ] पृथ्वीनी माफक [ कारणभूतम् ] कारणभूत छे (अर्थात् स्थितिक्रियापरिणत जीव-पुद्गलोने निमित्तभूत छे).

टीकाआ, अधर्मना स्वरूपनुं कथन छे.

जेम धर्मनुं प्रज्ञापन करवामां आव्युं, तेम अधर्मनुं पण प्रज्ञापन करवायोग्य छे. परंतु आ (नीचे प्रमाणे) तफावत छेः पेलो (धर्मास्तिकाय) गतिक्रियायुक्तने पाणीनी माफक कारणभूत छे अने आ (अधर्मास्तिकाय) स्थितिक्रियायुक्तने पृथ्वीनी माफक कारणभूत छे. जेम पृथ्वी पोते पहेलेथी ज स्थितिरूपे (स्थिर) वर्तती थकी अने परने *गमनमां अनुग्रह करवो एटले गमनमां उदासीन अविनाभावी सहायरूप (निमित्तरूप) कारण-

मात्र होवुं.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१३१

यथा पृथिवी स्वयं पूर्वमेव तिष्ठन्ती परमस्थापयन्ती च स्वयमेव तिष्ठतामश्वादीनामुदासीना- विनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन स्थितिमनुगृह्णाति, तथाऽधर्मोऽपि स्वयं पूर्वमेव तिष्ठन् परमस्थापयंश्च स्वयमेव तिष्ठतां जीवपुद्गलानामुदासीनाविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन स्थिति- मनुगृह्णातीति ।।८६।।

जादो अलोगलोगो जेसिं सब्भावदो य गमणठिदी
दो वि य मया विभत्ता अविभत्ता लोयमेत्ता य ।।८७।।
जातमलोकलोकं ययोः सद्भावतश्च गमनस्थिती
द्वावपि च मतौ विभक्तावविभक्तौ लोकमात्रौ च ।।८७।।
धर्माधर्मसद्भावे हेतूपन्यासोऽयम्
धर्माधर्मौ विद्येते लोकालोकविभागान्यथानुपपत्तेः जीवादिसर्वपदार्थानामेकत्र

स्थिति (स्थिरता) नहि करावती थकी, स्वयमेव स्थितिरूपे परिणमता अश्वादिकने उदासीन अविनाभावी सहायरूप कारणमात्र तरीके स्थितिमां अनुग्रह करे छे, तेम अधर्म (अधर्मास्तिकाय) पण पोते पहेलेथी ज स्थितिरूपे वर्ततो थको अने परने स्थिति नहि करावतो थको, स्वयमेव स्थितिरूपे परिणमतां जीव-पुद्गलोने उदासीन अविनाभावी सहायरूप कारणमात्र तरीके स्थितिमां अनुग्रह करे छे. ८६.

धर्माधरम होवाथी लोक-अलोक ने स्थितिगति बने;
ते उभय भिन्न-अभिन्न छे ने सकळलोकप्रमाण छे. ८७.

अन्वयार्थः[ गमनस्थिती ] (जीव-पुद्गलनी) गति-स्थिति [ च ] तथा [ अलोक- लोकं ] अलोक ने लोकनो विभाग, [ ययोः सद्भावतः ] ते बे द्रव्योना सद्भावथी [ जातम् ] थाय छे. [ च ] वळी [ द्वौ अपि ] ते बंने [ विभक्तौ ] विभक्त, [ अविभक्तौ ] अविभक्त [ च ] अने [ लोकमात्रौ ] लोकप्रमाण [ मतौ ] कहेवामां आव्यां छे.

टीकाःआ, धर्म अने अधर्मना सद्भावनी सिद्धि माटे हेतु दर्शाववामां आव्यो छे.

धर्म अने अधर्म विद्यमान छे, कारण के लोक अने अलोकनो विभाग अन्यथा बनी शके नहि. जीवादि सर्व पदार्थोना एकत्र-अस्तित्वरूप लोक छे; शुद्ध एक आकाशना


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१३

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

वृत्तिरूपो लोकः शुद्धैकाकाशवृत्तिरूपोऽलोकः तत्र जीवपुद्गलौ स्वरसत एव गतितत्पूर्वस्थितिपरिणामापन्नौ तयोर्यदि गतिपरिणामं तत्पूर्वस्थितिपरिणामं वा स्वय- मनुभवतोर्बहिरङ्गहेतू धर्माधर्मौ न भवेताम्, तदा तयोर्निरर्गलगतिस्थितिपरिणामत्वादलोकेऽपि वृत्तिः केन वार्येत ततो न लोकालोकविभागः सिध्येत धर्माधर्मयोस्तु जीव- पुद्गलयोर्गतितत्पूर्वस्थित्योर्बहिरङ्गहेतुत्वेन सद्भावेऽभ्युपगम्यमाने लोकालोकविभागो जायत इति किञ्च धर्माधर्मौ द्वावपि परस्परं पृथग्भूतास्तित्वनिर्वृत्तत्वाद्विभक्तौ एक- क्षेत्रावगाढत्वादविभक्तौ निष्क्रियत्वेन सकललोकवर्तिनोर्जीवपुद्गलयोर्गतिस्थित्युपग्रहकरणा- ल्लोकमात्राविति ।।८७।।

ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स
हवदि गदिस्स य पसरो जीवाणं पोग्गलाणं च ।।८८।।

अस्तित्वरूप अलोक छे. त्यां, जीव अने पुद्गल स्वरसथी ज (स्वभावथी ज) गतिपरिणामने तथा गतिपूर्वक स्थितिपरिणामने प्राप्त होय छे. जो गतिपरिणाम अथवा गतिपूर्वक स्थितिपरिणामने स्वयं अनुभवतां एवां ते जीव-पुद्गलने बहिरंग हेतुओ धर्म अने अधर्म न होय, तो जीव-पुद्गलने *निरर्गळ गतिपरिणाम अने स्थितिपरिणाम थवाथी अलोकमां पण तेमनुं (जीव-पुद्गलनुं) होवुं कोनाथी वारी शकाय? (कोईथी न ज वारी शकाय.) तेथी लोक अने अलोकनो विभाग सिद्ध न थाय. परंतु जो जीव- पुद्गलनी गतिना अने गतिपूर्वक स्थितिना बहिरंग हेतुओ तरीके धर्म अने अधर्मनो सद्भाव स्वीकारवामां आवे तो लोक अने अलोकनो विभाग (सिद्ध) थाय छे. (माटे धर्म अने अधर्म विद्यमान छे.) वळी (तेमना विषे विशेष हकीकत ए छे के), धर्म अने अधर्म बंने परस्पर पृथग्भूत अस्तित्वथी निष्पन्न होवाथी विभक्त (भिन्न) छे; एकक्षेत्रावगाही होवाथी अविभक्त (अभिन्न) छे; समस्त लोकमां वर्तनारां जीव- पुद्गलने गतिस्थितिमां निष्क्रियपणे अनुग्रह करता होवाथी (निमित्तरूप थता होवाथी) लोकप्रमाण छे. ८७.

धर्मास्ति गमन करे नहीं, न करावतो परद्रव्यने;
जीव-पुद्गलोना गतिप्रसार तणो उदासीन हेतु छे. ८८.

*निरर्गळ=निरंकुश; अमर्याद.


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१३३
न च गच्छति धर्मास्तिको गमनं न करोत्यन्यद्रव्यस्य
भवति गतेः सः प्रसरो जीवानां पुद्गलानां च ।।८८।।
धर्माधर्मयोर्गतिस्थितिहेतुत्वेऽप्यत्यन्तौदासीन्याख्यापनमेतत
यथा हि गतिपरिणतः प्रभञ्जनो वैजयन्तीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्ता-

ऽवलोक्यते, न तथा धर्मः स खलु निष्क्रियत्वात् न कदाचिदपि गतिपरिणाममेवा- पद्यते कुतोऽस्य सहकारित्वेन परेषां गतिपरिणामस्य हेतुकर्तृत्वम् किन्तु सलिल-

अन्वयार्थः[ धर्मास्तिकः ] धर्मास्तिकाय [ न गच्छति ] गमन करतो नथी [ च ] अने [ अन्यद्रव्यस्य ] अन्य द्रव्यने [ गमनं न करोति ] गमन करावतो नथी; [ सः ] ते, [ जीवानां पुद्गलानां च ] जीवो तथा पुद्गलोने (गतिपरिणाममां आश्रयमात्ररूप होवाथी) [ गतेः प्रसरः ] गतिनो उदासीन प्रसारनार (अर्थात् गतिप्रसारमां उदासीन निमित्तभूत) [ भवति ] छे.

टीकाःधर्म अने अधर्म गति अने स्थितिना हेतुओ होवा छतां तेओ अत्यंत उदासीन छे एम अहीं कथन छे.

जेवी रीते गतिपरिणत पवन धजाओना गतिपरिणामनो हेतुकर्ता जोवामां आवे छे, तेवी रीते धर्म (जीव-पुद्गलोना गतिपरिणामनो हेतुकर्ता) नथी. ते (धर्म) खरेखर निष्क्रिय होवाथी क्यारेय गतिपरिणामने ज पामतो नथी; तो पछी तेने (परना) *सहकारी तरीके परना गतिपरिणामनुं हेतुकर्तापणुं क्यांथी होय? (न ज होय.) परंतु जेवी रीते *सहकारी = साथे कार्य करनार अर्थात् साथे गति करनार. [धजानी साथे पवन पण गति करतो

होवाथी अहीं पवनने (धजाना) सहकारी तरीके हेतुकर्ता कह्यो छे; अने जीव-पुद्गलोनी साथे
धर्मास्तिकाय गमन नहि करतां (अर्थात् सहकारी नहि बनतां), मात्र तेमने (गतिमां) आश्रयरूप
कारण बनतो होवाथी धर्मास्तिकायने उदासीन निमित्त कह्यो छे. पवनने हेतुकर्ता कह्यो तेनो एवो
अर्थ कदी न समजवो के पवन धजाओना गतिपरिणामने करावतो हशे. उदासीन निमित्त हो
के हेतुकर्ता हो
बंने परमां अकिंचित्कर छे. तेमनामां मात्र उपर कह्यो तेटलो ज तफावत छे.
हवे पछीनी गाथानी टीकामां आचार्यदेव पोते ज कहेशे के ‘खरेखर समस्त गतिस्थितिमान पदार्थो
पोताना परिणामोथी ज निश्चये गतिस्थिति करे छे’. माटे धजा, सवार इत्यादि बधांय, पोताना
परिणामोथी ज गतिस्थिति करे छे, तेमां धर्म तेम ज पवन, तथा अधर्म तेम ज अश्व अविशेषपणे
अकिंचित्कर छे एम निर्णय करवो.
]

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१३

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

मिव मत्स्यानां जीवपुद्गलानामाश्रयकारणमात्रत्वेनोदासीन एवासौ गतेः प्रसरो भवति अपि च यथा गतिपूर्वस्थितिपरिणतस्तुरङ्गोऽश्ववारस्य स्थितिपरिणामस्य हेतुकर्तावलोक्यते, न तथाऽधर्मः स खलु निष्क्रियत्वात् न कदाचिदपि गतिपूर्व- स्थितिपरिणाममेवापद्यते कुतोऽस्य सहस्थायित्वेन परेषां गतिपूर्वस्थितिपरिणामस्य हेतुकर्तृत्वम् किन्तु पृथिवीवत्तुरङ्गस्य जीवपुद्गलानामाश्रयकारणमात्रत्वेनोदासीन एवासौ गतिपूर्वस्थितेः प्रसरो भवतीति ।।८८।।

विज्जदि जेसिं गमणं ठाणं पुण तेसिमेव संभवदि
ते सगपरिणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुव्वंति ।।८९।।

पाणी माछलांओने (गतिपरिणाममां) मात्र आश्रयरूप कारण तरीके गतिनुं उदासीन ज प्रसारनार छे, तेवी रीते धर्म जीव-पुद्गलोने (गतिपरिणाममां) मात्र आश्रयरूप कारण तरीके गतिनो उदासीन ज प्रसारनार (अर्थात् गतिप्रसारनुं उदासीन ज निमित्त) छे.

वळी (अधर्मास्तिकाय विषे पण एम छे के)जेवी रीते गतिपूर्वक-स्थितिपरिणत अश्व सवारना (गतिपूर्वक) स्थितिपरिणामनो हेतुकर्ता जोवामां आवे छे, तेवी रीते अधर्म (जीव-पुद्गलोना गतिपूर्वक स्थितिपरिणामनो हेतुकर्ता) नथी. ते (अधर्म) खरेखर निष्क्रिय होवाथी क्यारेय गतिपूर्वक स्थितिपरिणामने ज पामतो नथी; तो पछी तेने (परना) *सहस्थायी तरीके परना गतिपूर्वक स्थितिपरिणामनुं हेतुकर्तापणुं क्यांथी होय? (न ज होय.) परंतु जेवी रीते पृथ्वी अश्वने (गतिपूर्वक स्थितिपरिणाममां) मात्र आश्रयरूप कारण तरीके गतिपूर्वक स्थितिनी उदासीन ज प्रसारनार छे, तेवी रीते अधर्म जीव-पुद्गलोने (गतिपूर्वक स्थितिपरिणाममां) मात्र आश्रयरूप कारण तरीके गतिपूर्वक स्थितिनो उदासीन ज प्रसारनार (अर्थात् गतिपूर्वक-स्थितिप्रसारनुं उदासीन ज निमित्त) छे. ८८.

रे! जेमने गति होय छे, तेओ ज वळी स्थिर थाय छे;
ते सर्व निज परिणामथी ज करे गतिस्थितिभावने. ८९.
*सहस्थायी=साथे स्थिति (स्थिरता) करनार. [अश्व सवारनी साथे स्थिति करे छे, तेथी अहीं अश्वने
सवारना सहस्थायी तरीके सवारना स्थितिपरिणामनो हेतुकर्ता कह्यो छे. अधर्मास्तिकाय तो गतिपूर्वक
स्थितिने पामनारां जीव-पुद्गलोनी साथे स्थिति करतो नथी, पहेलेथी ज स्थित छे; आ रीते ते
सहस्थायी नहि होवाथी जीव-पुद्गलोना गतिपूर्वक स्थितिपरिणामनो हेतुकर्ता नथी.
]

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१३५
विद्यते येषां गमनं स्थानं पुनस्तेषामेव सम्भवति
ते स्वकपरिणामैस्तु गमनं स्थानं च कुर्वन्ति ।।८९।।
धर्माधर्मयोरौदासीन्ये हेतूपन्यासोऽयम्
धर्मः किल न जीवपुद्गलानां कदाचिद्गतिहेतुत्वमभ्यस्यति, न कदाचित्स्थिति-

हेतुत्वमधर्मः तौ हि परेषां गतिस्थित्योर्यदि मुख्यहेतू स्यातां तदा येषां गतिस्तेषां गतिरेव, न स्थितिः, येषां स्थितिस्तेषां स्थितिरेव, न गतिः तत एकेषामपि गतिस्थितिदर्शनादनुमीयते न तौ तयोर्मुख्यहेतू कि न्तु व्यवहारनयव्यवस्थापितौ उदासीनौ कथमेवं गतिस्थितिमतां पदार्थानां गतिस्थिती भवत इति चेत्, सर्वे

अन्वयार्थः[ येषां गमनं विद्यते ] (धर्म-अधर्म गति-स्थितिना मुख्य हेतुओ नथी, कारण के) जेमने गति होय छे [ तेषाम् एव पुनः स्थानं सम्भवति ] तेमने ज वळी स्थिति थाय छे (अने जेमने स्थिति होय छे तेमने ज वळी गति थाय छे). [ ते तु ] तेओ (गतिस्थितिमान पदार्थो) तो [ स्वकपरिणामैः ] पोताना परिणामोथी [ गमनं स्थानं च ] गति अने स्थिति [ कुर्वन्ति ] करे छे.

टीकाःआ, धर्म अने अधर्मना उदासीनपणानी बाबतमां हेतु कहेवामां आव्यो छे.

खरेखर (निश्चयथी) धर्म जीव-पुद्गलोने कदी गतिहेतु थतो नथी, अधर्म कदी स्थितिहेतु थतो नथी; कारण के तेओ परने गतिस्थितिना जो मुख्य हेतु (निश्चयहेतु) थाय, तो जेमने गति होय तेमने गति ज रहेवी जोईए, स्थिति न थवी जोईए, अने जेमने स्थिति होय तेमने स्थिति ज रहेवी जोईए, गति न थवी जोईए. परंतु एकने ज (तेना ते ज पदार्थने) गति अने स्थिति थती जोवामां आवे छे; तेथी अनुमान थई शके छे के तेओ (धर्म-अधर्म) गति-स्थितिना मुख्य हेतु नथी, परंतु व्यवहारनयस्थापित (व्यवहारनय वडे स्थापवामांकहेवामां आवेला) उदासीन हेतु छे.

प्रश्नःए प्रमाणे होय तो गतिस्थितिमान पदार्थोने गतिस्थिति कई रीते थाय छे?


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१३

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

हि गतिस्थितिमन्तः पदार्थाः स्वपरिणामैरेव निश्चयेन गतिस्थिती कुर्वन्तीति ।।८९।।

इति धर्माधर्मद्रव्यास्तिकायव्याख्यानं समाप्तम्
अथ आकाशद्रव्यास्तिकायव्याख्यानम्
सव्वेसिं जीवाणं सेसाणं तह य पोग्गलाणं च
जं देदि विवरमखिलं तं लोगे हवदि आगासं ।।९०।।
सर्वेषां जीवानां शेषाणां तथैव पुद्गलानां च
यद्ददाति विवरमखिलं तल्लोके भवत्याकाशम् ।।९०।।
आकाशस्वरूपाख्यानमेतत
षड्द्रव्यात्मके लोके सर्वेषां शेषद्रव्याणां यत्समस्तावकाशनिमित्तं विशुद्धक्षेत्ररूपं

उत्तरःखरेखर समस्त गतिस्थितिमान पदार्थो पोताना परिणामोथी ज निश्चये गतिस्थिति करे छे. ८९.

आ रीते धर्मद्रव्यास्तिकाय अने अधर्मद्रव्यास्तिकायनुं व्याख्यान समाप्त थयुं.
हवे आकाशद्रव्यास्तिकायनुं व्याख्यान छे.
जे लोकमां जीव-पुद्गलोने, शेष द्रव्य समस्तने
अवकाश दे छे पूर्ण, ते आकाशनामक द्रव्य छे. ९०.

अन्वयार्थः[ लोके ] लोकमां [ जीवानाम् ] जीवोने [ च ] अने [ पुद्गलानाम् ] पुद्गलोने [ तथा एव ] तेम ज [ सर्वेषाम् शेषाणाम् ] बधां बाकीनां द्रव्योने [ यद् ] जे [ अखिलं विवरं ] संपूर्ण अवकाश [ ददाति ] आपे छे, [ तद् ] ते [ आकाशम् भवति ] आकाश छे.

टीकाःआ, आकाशना स्वरूपनुं कथन छे.

षट्द्रव्यात्मक लोकमां *बधां बाकीनां द्रव्योने जे पूरेपूरा अवकाशनुं निमित्त छे, *निश्चयनये नित्यनिरंजन-ज्ञानमय परमानंद जेमनुं एक लक्षण छे एवा अनंतानंत जीवो, तेमनाथी अनंतगुणां पुद्गलो, असंख्य काळाणुओ अने असंख्यप्रदेशी धर्म तथा अधर्मए बधांय द्रव्यो

विशिष्ट अवगाहगुण वडे लोकाकाशमांजोके ते लोकाकाश मात्र असंख्यप्रदेशी ज छे तोपण
अवकाश मेळवे छे.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१३७

तदाकाशमिति ।।९०।।

जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदो णण्णा
तत्तो अणण्णमण्णं आयासं अंतवदिरित्तं ।।९१।।
जीवाः पुद्गलकायाः धर्माधर्मौ च लोकतोऽनन्ये
ततोऽनन्यदन्यदाकाशमन्तव्यतिरिक्त म् ।।९१।।
लोकाद्बहिराकाशसूचनेयम्
जीवादीनि शेषद्रव्याण्यवधृतपरिमाणत्वाल्लोकादनन्यान्येव आकाशं त्वनन्तत्वाल्लोका-

दनन्यदन्यच्चेति ।।९१।।

आगासं अवगासं गमणट्ठिदिकारणेहिं देदि जदि
उड्ढंगदिप्पधाणा सिद्धा चिट्ठंति किध तत्थ ।।९२।।

ते आकाश छेके जे (आकाश) विशुद्धक्षेत्ररूप छे. ९०.

जीव-पुद्गलादिक शेष द्रव्य अनन्य जाणो लोकथी;
नभ अंतशून्य अनन्य तेम ज अन्य छे ए लोकथी. ९१.

अन्वयार्थः[ जीवाः पुद्गलकायाः धर्माधर्मौ च ] जीवो, पुद्गलकायो, धर्म अने अधर्म (तेम ज काळ) [ लोकतः अनन्ये ] लोकथी अनन्य छे; [ अन्तव्यतिरिक्तम् आकाशम् ] अंत रहित एवुं आकाश [ ततः ] तेनाथी (लोकथी) [ अनन्यत् अन्यत् ] अनन्य तेम ज अन्य छे.

टीकाःआ, लोकनी बहार (पण) आकाश होवानी सूचना छे.

जीव वगेरे बाकीनां द्रव्यो (आकाश सिवायनां द्रव्यो) मर्यादित परिमाणवाळां होवाने लीधे लोकथी *अनन्य ज छे; आकाश तो अनंत होवाने लीधे लोकथी अनन्य तेम ज अन्य छे. ९१.

अवकाशदायक आभ गति-थितिहेतुता पण जो धरे,
तो ऊर्ध्वगतिपरधान सिद्धो केम तेमां स्थिति लहे? ९२.
*अहीं जोके सामान्यपणे पदार्थोनुं लोकथी अनन्यपणुं कह्युं छे तोपण निश्चयथी अमूर्तपणुं,
केवळज्ञानपणुं, सहजपरमानंदपणुं, नित्यनिरंजनपणुं इत्यादि लक्षणो वडे जीवोनुं इतर द्रव्योथी
अन्यपणुं छे अने पोतपोतानां लक्षणो वडे इतर द्रव्योनुं जीवोथी भिन्नपणुं छे एम समजवुं.
पं. १८

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१३

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
आकाशमवकाशं गमनस्थितिकारणाभ्यां ददाति यदि
ऊर्ध्वंगतिप्रधानाः सिद्धाः तिष्ठन्ति कथं तत्र ।।९२।।
आकाशस्यावकाशैकहेतोर्गतिस्थितिहेतुत्वशङ्कायां दोषोपन्यासोऽयम्
यदि खल्वाकाशमवगाहिनामवगाहहेतुरिव गतिस्थितिमतां गतिस्थितिहेतुरपि स्यात्,

तदा सर्वोत्कृष्टस्वाभाविकोर्ध्वगतिपरिणता भगवंतः सिद्धा बहिरङ्गान्तरङ्गसाधनसामग््रयां सत्यामपि कुतस्तत्राकाशे तिष्ठन्ति इति ।।९२।।

जम्हा उवरिट्ठाणं सिद्धाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं
तम्हा गमणट्ठाणं आयासे जाण णत्थि त्ति ।।९३।।
यस्मादुपरिस्थानं सिद्धानां जिनवरैः प्रज्ञप्तम्
तस्माद्गमनस्थानमाकाशे जानीहि नास्तीति ।।९३।।

अन्वयार्थः[ यदि आकाशम् ] जो आकाश [ गमनस्थितिकारणाभ्याम् ] गति- स्थितिनां कारण सहित [ अवकाशं ददाति ] अवकाश आपतुं होय (अर्थात् जो आकाश अवकाशहेतु पण होय अने गति-स्थितिहेतु पण होय) तो [ ऊर्ध्वंगतिप्रधानाः सिद्धाः ] ऊर्ध्वगतिप्रधान सिद्धो [ तत्र ] तेमां (आकाशमां) [ कथम् ] केम [ तिष्ठन्ति ] स्थिर होय? (आगळ गमन केम न करे?)

टीकाःजे केवळ अवकाशनो ज हेतु छे एवुं जे आकाश तेने विषे गतिस्थिति- हेतुत्व (पण) होवानी शंका करवामां आवे तो दोष आवे छे तेनुं आ कथन छे.

जो आकाश, जेम ते *अवगाहवाळाओने अवगाहहेतु छे तेम, गतिस्थिति- वाळाओने गति-स्थितिहेतु पण होय, तो सर्वोत्कृष्ट स्वाभाविक ऊर्ध्वगतिए परिणत सिद्धभगवंतो, बहिरंग-अंतरंग साधनरूप सामग्री होवा छतां पण, केम (कया कारणे) तेमांआकाशमांस्थिर होय? ९२.

भाखी जिनोए लोकना अग्रे स्थिति सिद्धो तणी,
ते कारणे जाणोगतिस्थिति आभमां होती नथी. ९३.

अन्वयार्थः[ यस्मात् ] जेथी [ जिनवरैः ] जिनवरोए [ सिद्धानाम् ] सिद्धोनी *अवगाह=लीन थवुं ते; मज्जित थवुं ते; अवकाश पामवो ते.


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१३९
स्थितिपक्षोपन्यासोऽयम्
यतो गत्वा भगवन्तः सिद्धाः लोकोपर्यवतिष्ठन्ते, ततो गतिस्थितिहेतुत्वमाकाशे

नास्तीति निश्चेतव्यम् लोकालोकावच्छेदकौ धर्माधर्मावेव गतिस्थितिहेतू मन्तव्याविति ।।९३।।

जदि हवदि गमणहेदू आगासं ठाणकारणं तेसिं
पसजदि अलोगहाणी लोगस्स य अंतपरिवुड्ढी ।।९४।।
यदि भवति गमनहेतुराकाशं स्थानकारणं तेषाम्
प्रसजत्यलोकहानिर्लोकस्य चान्तपरिवृद्धिः ।।९४।।
आकाशस्य गतिस्थितिहेतुत्वाभावे हेतूपन्यासोऽयम्
नाकाशं गतिस्थितिहेतुः लोकालोकसीमव्यवस्थायास्तथोपपत्तेः यदि गति-

[ उपरिस्थानं ] लोकना उपर स्थिति [ प्रज्ञप्तम् ] कही छे, [ तस्मात् ] तेथी [ गमनस्थानम् आकाशे न अस्ति ] गति-स्थिति आकाशमां होती नथी (अर्थात् गतिस्थितिहेतुत्व आकाशने विषे नथी) [ इति जानीहि ] एम जाणो.

टीकाः(गतिपक्ष संबंधी कथन कर्या पछी) आ, स्थितिपक्ष संबंधी कथन छे.

जेथी सिद्धभगवंतो गमन करीने लोकना उपर स्थिर थाय छे (अर्थात् लोकना उपर गतिपूर्वक स्थिति करे छे), तेथी गतिस्थितिहेतुत्व आकाशने विषे नथी एम निश्चय करवो; लोक अने अलोकनो विभाग करनारा धर्म तथा अधर्मने ज गति तथा स्थितिना हेतु मानवा. ९३.

नभ होय जो गतिहेतु ने स्थितिहेतु पुद्गल-जीवने,
तो हानि थाय अलोकनी, लोकान्त पामे वृद्धिने. ९४.

अन्वयार्थः[ यदि ] जो [ आकाशं ] आकाश [ तेषाम् ] जीव-पुद्गलोने [ गमन- हेतुः ] गतिहेतु अने [ स्थानकारणं ] स्थितिहेतु [ भवति ] होय तो [ अलोकहानिः ] अलोकनी हानिनो [ च ] अने [ लोकस्य अन्तपरिवृद्धिः ] लोकना अंतनी वृद्धिनो [ प्रसजति ] प्रसंग आवे.

टीकाःअहीं, आकाशने गतिस्थितिहेतुत्वनो अभाव होवा विषे हेतु रजू करवामां आव्यो छे.

आकाश गति-स्थितिनो हेतु नथी, कारण के लोक अने अलोकनी सीमानी व्यवस्था

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१४०

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

स्थित्योराकाशमेव निमित्तमिष्येत्, तदा तस्य सर्वत्र सद्भावाज्जीवपुद्गलानां गतिस्थित्यो- र्निःसीमत्वात्प्रतिक्षणमलोको हीयते, पूर्वं पूर्वं व्यवस्थाप्यमानश्चान्तो लोकस्योत्तरोत्तरपरिवृद्धया विघटते ततो न तत्र तद्धेतुरिति ।।९४।।

तम्हा धम्माधम्मा गमणट्ठिदिकारणाणि णागासं
इदि जिणवरेहिं भणिदं लोगसहावं सुणंताणं ।।९५।।
तस्माद्धर्माधर्मौ गमनस्थितिकारणे नाकाशम्
इति जिनवरैः भणितं लोकस्वभावं शृण्वताम् ।।९५।।
आकाशस्य गतिस्थितिहेतुत्वनिरासव्याख्योपसंहारोऽयम्
धर्माधर्मावेव गतिस्थितिकारणे नाकाशमिति ।।९५।।
धम्माधम्मागासा अपुधब्भूदा समाणपरिमाणा
पुधगुवलद्धिविसेसा करेंति एगत्तमण्णत्तं ।।९६।।

ए रीते ज बनी शके छे. जो आकाशने ज गति-स्थितिनुं निमित्त मानवामां आवे, तो आकाशनो सद्भाव सर्वत्र होवाने लीधे जीव-पुद्गलोनी गतिस्थितिनी कोई सीमा नहि रहेवाथी प्रतिक्षण अलोकनी हानि थाय अने पहेलां पहेलां व्यवस्थापित थयेलो लोकनो अंत उत्तरोत्तर वृद्धिने पामवाथी लोकनो अंत ज तूटी पडे (अर्थात् पहेलां पहेलां निश्चित थयेलो लोकनो अंत पछी पछी आगळ वधतो जवाथी लोकनो अंत ज बनी शके नहि). माटे आकाशने विषे गति-स्थितिनो हेतु नथी. ९४.

तेथी गतिस्थितिहेतुओ धर्माधरम छे, नभ नहीं;
भाख्युं जिनोए आम लोकस्वभावना श्रोता प्रति. ९५.

अन्वयार्थः[ तस्मात् ] तेथी [ गमनस्थितिकारणे ] गति अने स्थितिनां कारण [ धर्माधर्मौ ] धर्म अने अधर्म छे, [ न आकाशम् ] आकाश नहि. [ इति ] आम [ लोकस्वभावं शृण्वताम् ] लोकस्वभावना श्रोताओ प्रत्ये [ जिनवरैः भणितम् ] जिनवरोए कह्युं छे.

टीकाःआ, आकाशने गतिस्थितिहेतुत्व होवाना खंडन संबंधी कथननो उपसंहार छे.
धर्म अने अधर्म ज गति अने स्थितिनां कारण छे, आकाश नहि. ९५.
धर्माधरम-नभने समानप्रमाणयुत अपृथक्त्वथी,
वळी भिन्नभिन्न विशेषथी, एकत्व ने अन्यत्व छे. ९६.