Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Choolika; Gatha: 97-109 ; Kaldravyastikay Vyakhyan; Nav padarth poorvak moksh marg prapanch varnan; Jiv Padarth Vyakhyan.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१४१
धर्माधर्माकाशान्यपृथग्भूतानि समानपरिमाणानि
पृथगुपलब्धिविशेषाणि कुर्वन्त्येकत्वमन्यत्वम् ।।९६।।
धर्माधर्मलोकाकाशानामवगाहवशादेकत्वेऽपि वस्तुत्वेनान्यत्वमत्रोक्त म्
धर्माधर्मलोकाकाशानि हि समानपरिमाणत्वात्सहावस्थानमात्रेणैवैकत्वभाञ्जि वस्तुतस्तु

व्यवहारेण गतिस्थित्यवगाहहेतुत्वरूपेण निश्चयेन विभक्त प्रदेशत्वरूपेण विशेषेण पृथगुपलभ्य- मानेनान्यत्वभाञ्ज्येव भवन्तीति ।।९६।।

इति आकाशद्रव्यास्तिकायव्याख्यानं समाप्तम्

अन्वयार्थः[ धर्माधर्माकाशानि ] धर्म, अधर्म अने आकाश (लोकाकाश) [ समान- परिमाणानि ] समान परिमाणवाळां [ अपृथग्भूतानि ] अपृथग्भूत होवाथी तेम ज [ पृथगुप- लब्धिविशेषाणि ] पृथक्-उपलब्ध (भिन्नभिन्न) विशेषवाळां होवाथी [ एकत्वम् अन्यत्वम् ] एकत्व तेम ज अन्यत्वने [ कुर्वन्ति ] करे छे.

टीकाःअहीं, धर्म, अधर्म अने लोकाकाशनुं अवगाहनी अपेक्षाए एकत्व होवा छतां वस्तुपणे अन्यत्व कहेवामां आव्युं छे.

धर्म, अधर्म अने लोकाकाश समान परिमाणवाळां होवाने लीधे साथे रहेलां होवामात्रथी ज (मात्र एकक्षेत्रावगाहनी अपेक्षाए ज) एकत्ववाळां छे; वस्तुतः तो, () व्यवहारे गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व अने अवगाहहेतुत्वरूप (पृथक्-उपलब्ध विशेष वडे) तथा () निश्चये विभक्तप्रदेशत्वरूप पृथक्-उपलब्ध विशेष वडे, तेओ अन्यत्ववाळां ज छे.

भावार्थःधर्म, अधर्म अने लोकाकाशनुं एकत्व तो केवळ एकक्षेत्रावगाहनी अपेक्षाए ज कही शकाय छे; वस्तुपणे तो तेमने अन्यत्व ज छे, कारण के () तेमनां लक्षणो गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व अने अवगाहहेतुत्वरूप भिन्नभिन्न छे तथा () तेमना प्रदेशो पण भिन्नभिन्न छे. ९६.

आ रीते आकाशद्रव्यास्तिकायनुं व्याख्यान समाप्त थयुं. १. विभक्त=भिन्न. [धर्म, अधर्म अने आकाशने भिन्नप्रदेशपणुं छे.] २. विशेष=खासियत; विशिष्टता; विशेषता. [व्यवहारे तथा निश्चये धर्म, अधर्म अने आकाशना विशेष

पृथक् उपलब्ध छे अर्थात् भिन्नभिन्न जोवामां आवे छे.]

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१४

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अथ चूलिका
आगासकालजीवा धम्माधम्मा य मुत्तिपरिहीणा
मुत्तं पोग्गलदव्वं जीवो खलु चेदणो तेसु ।।९७।।
आकाशकालजीवा धर्माधर्मौ च मूर्तिपरिहीनाः
मूर्तं पुद्गलद्रव्यं जीवः खलु चेतनस्तेषु ।।९७।।
अत्र द्रव्याणां मूर्तामूर्तत्वं चेतनाचेतनत्वं चोक्त म्
स्पर्शरसगन्धवर्णसद्भावस्वभावं मूर्तं, स्पर्शरसगन्धवर्णाभावस्वभावममूर्तम् चैतन्य-

सद्भावस्वभावं चेतनं, चैतन्याभावस्वभावमचेतनम् तत्रामूर्तमाकाशं, अमूर्तः कालः, अमूर्तः स्वरूपेण जीवः पररूपावेशान्मूर्तोऽपि, अमूर्तो धर्मः, अमूर्तोऽधर्मः, मूर्तः

हवे चूलिका छे.
आत्मा अने आकाश, धर्म, अधर्म, काळ अमूर्त छे,
छे मूर्त पुद्गलद्रव्य; तेमां जीव छे चेतन खरे. ९७.

अन्वयार्थः[ आकाशकालजीवाः ] आकाश, काळ, जीव, [ धर्माधर्मौ च ] धर्म अने अधर्म [ मूर्तिपरिहीनाः ] अमूर्त छे, [ पुद्गलद्रव्यं मूर्तं ] पुद्गलद्रव्य मूर्त छे. [ तेषु ] तेमां [ जीवः ] जीव [ खलु ] खरेखर [ चेतनः ] चेतन छे.

टीकाःअहीं द्रव्योनुं मूर्तामूर्तपणुं (मूर्तपणुं अथवा अमूर्तपणुं) अने चेतना- चेतनपणुं (चेतनपणुं अथवा अचेतनपणुं) कहेवामां आव्युं छे.

स्पर्श-रस-गंध-वर्णनो सद्भाव जेनो स्वभाव छे ते मूर्त छे; स्पर्श-रस-गंध-वर्णनो अभाव जेनो स्वभाव छे ते अमूर्त छे. चैतन्यनो सद्भाव जेनो स्वभाव छे ते चेतन छे; चैतन्यनो अभाव जेनो स्वभाव छे ते अचेतन छे. त्यां, आकाश अमूर्त छे, काळ अमूर्त छे, जीव स्वरूपे अमूर्त छे, पररूपमां प्रवेश द्वारा (मूर्त द्रव्यना संयोगनी अपेक्षाए) १. चूलिका=शास्त्रमां नहि कहेवाई गयेलानुं व्याख्यान करवुं अथवा कहेवाई गयेलानुं विशेष व्याख्यान

करवुं अथवा बन्नेनुं यथायोग्य व्याख्यान करवुं ते. २. जीव निश्चये अमूर्त-अखंड-एकप्रतिभासमय होवाथी अमूर्त छे, रागादिरहित सहजानंद जेनो एक

स्वभाव छे एवा आत्मतत्त्वनी भावनारहित जीव वडे उपार्जित जे मूर्त कर्म तेना संसर्ग द्वारा
व्यवहारे मूर्त पण छे.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१४३

पुद्गल एवैक इति अचेतनमाकाशं, अचेतनः कालः, अचेतनो धर्मः, अचेतनोऽधर्मः, अचेतनः पुद्गलः, चेतनो जीव एवैक इति ।।९७।।

जीवा पोग्गलकाया सह सक्किरिया हवंति ण य सेसा
पोग्गलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणा दु ।।९८।।
जीवाः पुद्गलकायाः सह सक्रिया भवन्ति न च शेषाः
पुद्गलकरणा जीवाः स्कन्धाः खलु कालकरणास्तु ।।९८।।
अत्र सक्रियनिष्क्रियत्वमुक्त म्
प्रदेशान्तरप्राप्तिहेतुः परिस्पन्दनरूपपर्यायः क्रिया तत्र सक्रिया बहिरङ्गसाधनेन

सहभूताः जीवाः, सक्रिया बहिरङ्गसाधनेन सहभूताः पुद्गलाः निष्क्रियमाकाशं, निष्क्रियो धर्मः, निष्क्रियोऽधर्मः, निष्क्रियः कालः जीवानां सक्रियत्वस्य बहिरङ्गसाधनं मूर्त पण छे, धर्म अमूर्त छे, अधर्म अमूर्त छे; पुद्गल ज एक मूर्त छे. आकाश अचेतन छे, काळ अचेतन छे, धर्म अचेतन छे, अधर्म अचेतन छे, पुद्गल अचेतन छे; जीव ज एक चेतन छे. ९७.

जीव-पुद्गलो सहभूत छे सक्रिय, निष्क्रिय शेष छे;
छे काळ पुद्गलने करण, पुद्गल करण छे जीवने. ९८.

अन्वयार्थः[ सह जीवाः पुद्गलकायाः ] बाह्य करण सहित रहेला जीवो अने पुद्गलो [ सक्रियाः भवन्ति ] सक्रिय छे, [ न च शेषाः ] बाकीनां द्रव्यो सक्रिय नथी (निष्क्रिय छे); [ जीवाः ] जीवो [ पुद्गलकरणाः ] पुद्गलकरणवाळा (जेमने सक्रियपणामां पुद्गल बहिरंग साधन होय एवा) छे [ स्कन्धाः खलु कालकरणाः तु ] अने स्कंधो अर्थात पुद्गलो तो काळकरणवाळा (जेमने सक्रियपणामां काळ बहिरंग साधन होय एवा) छे.

टीकाःअहीं (द्रव्योनुं) सक्रिय-निष्क्रियपणुं कहेवामां आव्युं छे.

प्रदेशांतरप्राप्तिनो हेतु (अन्य प्रदेशनी प्राप्तिनुं कारण) एवो जे परिस्पंदरूप पर्याय, ते क्रिया छे. त्यां, बहिरंग साधन साथे रहेला जीवो सक्रिय छे; बहिरंग साधन साथे रहेला पुद्गलो सक्रिय छे. आकाश निष्क्रिय छे; धर्म निष्क्रिय छे; अधर्म निष्क्रिय छे; काळ निष्क्रिय छे.


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१४

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

कर्मनोकर्मोपचयरूपाः पुद्गला इति ते पुद्गलकरणाः तदभावान्निःक्रियत्वं सिद्धानाम् पुद्गलानां सक्रियत्वस्य बहिरङ्गसाधनं परिणामनिर्वर्तकः काल इति ते कालकरणाः न च कर्मादीनामिव कालस्याभावः ततो न सिद्धानामिव निष्क्रियत्वं पुद्गलानामिति ।।९८।।

जे खलु इंदियगेज्झा विसया जीवेहिं होंति ते मुत्ता
सेसं हवदि अमुत्तं चित्तं उभयं समादियदि ।।९९।।
ये खलु इन्द्रियग्राह्या विषया जीवैर्भवन्ति ते मूर्ताः
शेषं भवत्यमूर्तं चित्तमुभयं समाददाति ।।९९।।
मूर्तामूर्तलक्षणाख्यानमेतत

जीवोने सक्रियपणानुं बहिरंग साधन कर्म-नोकर्मना संचयरूप पुद्गलो छे; तेथी जीवो पुद्गलकरणवाळा छे. तेना अभावने लीधे (पुद्गलकरणना अभावने लीधे) सिद्धोने निष्क्रियपणुं छे (अर्थात् सिद्धोने कर्म-नोकर्मना संचयरूप पुद्गलोनो अभाव होवाथी तेओ निष्क्रिय छे.) पुद्गलोने सक्रियपणानुं बहिरंग साधन *परिणामनिष्पादक काळ छे; तेथी पुद्गलो काळकरणवाळा छे.

कर्मादिकनी माफक (अर्थात् जेम कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलोनो अभाव थाय छे तेम) काळनो अभाव होतो नथी; तेथी सिद्धोनी माफक (अर्थात् जेम सिद्धोने निष्क्रियपणुं होय छे तेम) पुद्गलोने निष्क्रियपणुं होतुं नथी. ९८.

छे जीवने जे विषय इन्द्रियग्राह्य, ते सौ मूर्त छे;
बाकी बधुंय अमूर्त छे; मन जाणतुं ते उभयने. ९९.

अन्वयार्थः[ ये खलु ] जे पदार्थो [ जीवैः इन्द्रियग्राह्याः विषयाः ] जीवोना इन्द्रियग्राह्य विषयो छे [ ते मूर्ताः भवन्ति ] तेओ मूर्त छे अने [ शेषं ] बाकीनो पदार्थसमूह [ अमूर्तं भवति ] अमूर्त छे. [ चित्तम् ] चित्त [ उभयं ] ते बंनेने [ समाददाति ] ग्रहण करे छे (जाणे छे).

टीकाःआ, मूर्त अने अमूर्तनां लक्षणनुं कथन छे. *परिणामनिष्पादक=परिणामनो निपजावनारो; परिणाम नीपजवामां जे निमित्तभूत (बहिरंग

साधनभूत) छे एवो.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१४५

इह हि जीवैः स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुर्भिरिन्द्रियैस्तद्विषयभूताः स्पर्शरसगन्धवर्णस्वभावा अर्था गृह्यन्ते श्रोत्रेन्द्रियेण तु त एव तद्विषयहेतुभूतशब्दाकारपरिणता गृह्यन्ते ते कदाचित्स्थूलस्कन्धत्वमापन्नाः कदाचित्सूक्ष्मत्वमापन्नाः कदाचित्परमाणुत्वमापन्नाः इन्द्रिय- ग्रहणयोग्यतासद्भावाद् गृह्यमाणा अगृह्यमाणा वा मूर्ता इत्युच्यन्ते शेषमितरत् समस्तमप्यर्थ- जातं स्पर्शरसगन्धवर्णाभावस्वभावमिन्द्रियग्रहणयोग्यताया अभावादमूर्तमित्युच्यते चित्तग्रहण- योग्यतासद्भावभाग्भवति तदुभयमपि; चित्तं ह्यनियतविषयमप्राप्यकारि मतिश्रुतज्ञानसाधनीभूतं मूर्तममूर्तं च समाददातीति ।।९९।।इति चूलिका समाप्ता

आ लोकमां जीवो वडे स्पर्शनेंद्रिय, रसनेंद्रिय, घ्राणेंद्रिय अने चक्षुरिंद्रिय द्वारा तेमना (ते इन्द्रियोना) विषयभूत, स्पर्श-रस-गंध-वर्णस्वभाववाळा पदार्थो (स्पर्श, रस, गंध अने वर्ण जेमनो स्वभाव छे एवा पदार्थो) ग्रहाय छे (जणाय छे); अने श्रोत्रेंद्रिय द्वारा ते ज पदार्थो तेना (श्रोत्रेंद्रियना) विषयहेतुभूत शब्दाकारे परिणम्या थका ग्रहाय छे. तेओ (ते पदार्थो), कदाचित् स्थूलस्कंधपणाने पामता थका, कदाचित् सूक्ष्मत्वने (सूक्ष्मस्कंधपणाने) पामता थका अने कदाचित् परमाणुपणाने पामता थका इन्द्रियो द्वारा ग्रहाता होय के न ग्रहाता होय, इन्द्रियो वडे ग्रहावानी योग्यतानो (सदा) सद्भाव होवाथी ‘मूर्त’ कहेवाय छे.

स्पर्श-रस-गंध-वर्णनो अभाव जेनो स्वभाव छे एवो बाकीनो अन्य समस्त पदार्थसमूह इंद्रियो वडे ग्रहावानी योग्यताना अभावने लीधे ‘अमूर्त’ कहेवाय छे.

ते बंने (पूर्वोक्त बंने प्रकारना पदार्थो) चित्त वडे ग्रहावानी योग्यताना सद्भाववाळा छे; चित्तके जे अनियत विषयवाळुं, अप्राप्यकारी अने मतिश्रुतज्ञानना साधनभूत (मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानमां निमित्तभूत) छे तेमूर्त तेम ज अमूर्तने ग्रहण करे छे (जाणे छे). ९९.

आ रीते चूलिका समाप्त थई. १. ते स्पर्श-रस-गंध-वर्णस्वभाववाळा पदार्थोने (अर्थात् पुद्गलोने) श्रोत्रेंद्रियना विषय थवामां हेतुभूत

शब्दाकारपरिणाम छे, तेथी ते पदार्थो (पुद्गलो) शब्दाकारे परिणम्या थका श्रोत्रेद्रिंय द्वारा ग्रहाय छे. २. अनियत=अनिश्चित. [जेम पांच इन्द्रियोमांनी प्रत्येक इन्द्रियनो विषय नियत छे तेम मननो विषय

नियत नथी, अनियत छे.] ३. अप्राप्यकारी=ज्ञेय विषयोने स्पर्श्या विना कार्य करनारजाणनार. [मन अने चक्षु अप्राप्यकारी

छे, चक्षु सिवायनी चार इन्द्रियो प्राप्यकारी छे.] पं. १९


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१४

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अथ कालद्रव्यव्याख्यानम्
कालो परिणामभवो परिणामो दव्वकालसंभूदो
दोण्हं एस सहावो कालो खणभंगुरो णियदो ।।१००।।
कालः परिणामभवः परिणामो द्रव्यकालसम्भूतः
द्वयोरेष स्वभावः कालः क्षणभङ्गुरो नियतः ।।१००।।
व्यवहारकालस्य निश्चयकालस्य च स्वरूपाख्यानमेतत
तत्र क्रमानुपाती समयाख्यः पर्यायो व्यवहारकालः, तदाधारभूतं द्रव्यं निश्चयकालः तत्र

व्यवहारकालो निश्चयकालपर्यायरूपोपि जीवपुद्गलानां परिणामेनावच्छिद्यमानत्वात्तत्परिणामभव इत्युपगीयते, जीवपुद्गलानां परिणामस्तु बहिरङ्गनिमित्तभूतद्रव्यकालसद्भावे सति सम्भूतत्वार्द्दरव्य- कालसम्भूत इत्यभिधीयते तत्रेदं तात्पर्यंव्यवहारकालो जीवपुद्गलपरिणामेन निश्चीयते,

हवे काळद्रव्यनुं व्याख्यान छे.
परिणामभव छे काळ, काळपदार्थभव परिणाम छे;

आ छे स्वभावो उभयना; क्षणभंगी ने ध्रुव काळ छे. १००.

अन्वयार्थः[ कालः परिणामभवः ] काळ परिणामथी उत्पन्न थाय छे (अर्थात व्यवहारकाळ जीव-पुद्गलोना परिणामथी मपाय छे); [ परिणामः द्रव्यकालसम्भूतः ] परिणाम द्रव्यकाळथी उत्पन्न थाय छे.[ द्वयोः एषः स्वभावः ] आ, बंनेनो स्वभाव छे. [ कालः क्षणभङ्गुरः नियतः ] काळ क्षणभंगुर तेम ज नित्य छे.

टीकाःआ, व्यवहारकाळ तथा निश्चयकाळना स्वरूपनुं कथन छे.

त्यां, ‘समय’ नामनो जे क्रमिक पर्याय ते व्यवहारकाळ छे; तेना आधारभूत द्रव्य ते निश्चयकाळ छे.

त्यां, व्यवहारकाळ निश्चयकाळना पर्यायरूप होवा छतां जीव-पुद्गलोना परिणामथी मपातोजणातो होवाने लीधे ‘जीव-पुद्गलोना परिणामथी उत्पन्न थतो’ कहेवाय छे; अने जीव-पुद्गलोना परिणाम बहिरंग-निमित्तभूत द्रव्यकाळना सद्भावमां उत्पन्न थता होवाने लीधे ‘द्रव्यकाळथी उत्पन्न थता’ कहेवाय छे. त्यां, तात्पर्य ए छे केव्यवहारकाळ जीव- पुद्गलोना परिणाम वडे नक्की थाय छे; अने निश्चयकाळ जीव-पुद्गलोना परिणामनी


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१४७

निश्चयकालस्तु तत्परिणामान्यथानुपपत्त्येति तत्र क्षणभङ्गी व्यवहारकालः सूक्ष्मपर्यायस्य तावन्मात्रत्वात्, नित्यो निश्चयकालः स्वगुणपर्यायाधारद्रव्यत्वेन सर्वर्दैवाविनश्वरत्वादिति ।।१००।।

कालो त्ति य ववदेसो सब्भावपरूवगो हवदि णिच्चो
उप्पण्णप्पद्धंसी अवरो दीहंतरट्ठाई ।।१०१।।
काल इति च व्यपदेशः सद्भावप्ररूपको भवति नित्यः
उत्पन्नप्रध्वंस्यपरो दीर्घान्तरस्थायी ।।१०१।।
नित्यक्षणिकत्वेन कालविभागख्यापनमेतत
यो हि द्रव्यविशेषः ‘अयं कालः, अयं कालः’ इति सदा व्यपदिश्यते स खलु स्वस्य

सद्भावमावेदयन् भवति नित्यः यस्तु पुनरुत्पन्नमात्र एव प्रध्वंस्यते स खलु तस्यैव अन्यथा अनुपपत्ति वडे (अर्थात् जीव-पुद्गलोना परिणाम बीजी रीते नहि बनी शकता होवाथी) नक्की थाय छे.

त्यां, व्यवहारकाळ *क्षणभंगी छे, कारण के सूक्ष्म पर्याय एवडो ज मात्र (क्षणमात्र जेवडो ज, समयमात्र जेवडो ज) छे; निश्चयकाळ नित्य छे, कारण के ते पोताना गुण-पर्यायोना आधारभूत द्रव्यपणे सदाय अविनाशी छे. १००.

छे ‘काळ’ संज्ञा सत्प्ररूपक तेथी काळ सुनित्य छे;
उत्पन्नध्वंसी अन्य जे ते दीर्घस्थायी पण ठरे. १०१.

अन्वयार्थः[ कालः इति च व्यपदेशः ] काळ’ एवो व्यपदेश [ सद्भावप्ररूपकः ] सद्भावनो प्ररूपक छे तेथी [ नित्यः भवति ] काळ (निश्चयकाळ) नित्य छे. [ उत्पन्नध्वंसी अपरः ] उत्पन्नध्वंसी एवो जे बीजो काळ (अर्थात् उत्पन्न थतां वेंत ज नष्ट थनारो जे व्यवहारकाळ) ते [ दीर्घान्तरस्थायी ] (क्षणिक होवा छतां प्रवाहअपेक्षाए) दीर्घ स्थितिनो पण (कहेवाय) छे.

टीकाःकाळना ‘नित्य’ अने ‘क्षणिक’ एवा बे विभागनुं आ कथन छे.

आ काळ छे, आ काळ छे’ एम करीने जे द्रव्यविशेषनो सदा व्यपदेश (निर्देश, कथन) करवामां आवे छे, ते (द्रव्यविशेष अर्थात् निश्चयकाळरूप खास द्रव्य) खरेखर पोताना सद्भावने जाहेर करतुं थकुं नित्य छे; अने जे उत्पन्न थतां वेंत ज नष्ट थाय *क्षणभंगी=क्षणे क्षणे नाश पामनारो; प्रतिसमय जेनो ध्वंस थाय छे एवो; क्षणभंगुर; क्षणिक.


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पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

द्रव्यविशेषस्य समयाख्यः पर्याय इति स तूत्सङ्गितक्षणभङ्गोऽप्युपदर्शितस्वसन्तानो नयबलाद्दीर्घान्तरस्थाय्युपगीयमानो न दुष्यति; ततो न खल्वावलिकापल्योपमसागरोपमादि- व्यवहारो विप्रतिषिध्यते तदत्र निश्चयकालो नित्यः द्रव्यरूपत्वात्, व्यवहारकालः क्षणिकः पर्यायरूपत्वादिति ।।१०१।।

एदे कालागासा धम्माधम्मा य पोग्गला जीवा
लब्भंति दव्वसण्णं कालस्स दु णत्थि कायत्तं ।।१०२।।
एते कालाकाशे धर्माधर्मौ च पुद्गला जीवाः
लभन्ते द्रव्यसञ्ज्ञां कालस्य तु नास्ति कायत्वम् ।।१०२।।
कालस्य द्रव्यास्तिकायत्वविधिप्रतिषेधविधानमेतत
यथा खलु जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशानि सकलद्रव्यलक्षणसद्भावार्द्दरव्यव्यपदेश भाञ्जि

छे, ते (व्यवहारकाळ) खरेखर ते ज द्रव्यविशेषनो ‘समय’ नामनो पर्याय छे. ते क्षणभंगी होवा छतां पण पोतानी संततिने (प्रवाहने) दर्शावतो होवाने लीधे तेने नयना बळथी लांबा वखत सुधी टकनारो’ कहेवामां दोष नथी; तेथी आवलिका, पल्योपम, सागरोपम इत्यादि व्यवहारनो निषेध करवामां आवतो नथी.

ए रीते अहीं एम कह्युं केनिश्चयकाळ द्रव्यरूप होवाथी नित्य छे, व्यवहारकाळ पर्यायरूप होवाथी क्षणिक छे. १०१.

आ जीव, पुद्गल, काळ, धर्म, अधर्म तेम ज नभ विषे
छे ‘द्रव्यसंज्ञा सर्वने, कायत्व छे नहि काळने. १०२.

अन्वयार्थः[ एते ][ कालाकाशे ] काळ, आकाश, [ धर्माधर्मौ ] धर्म, अधर्म, [ पुद्गलाः ] पुद्गलो [ च ] अने [ जीवाः ] जीवो (बधां) [ द्रव्यसञ्ज्ञां लभन्ते ] ‘द्रव्य’संज्ञाने पामे छे; [ कालस्य तु ] परंतु काळने [ कायत्वम् ] कायपणुं [ न अस्ति ] नथी.

टीकाःआ, काळने द्रव्यपणाना विधाननुं अने अस्तिकायपणाना निषेधनुं कथन छे (अर्थात् काळने द्रव्यपणुं छे पण अस्तिकायपणुं नथी एम अहीं कह्युं छे).

जेम खरेखर जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म अने आकाशने द्रव्यनां सघळां लक्षणोनो सद्भाव होवाथी तेओ ‘द्रव्यसंज्ञाने पामे छे, तेम काळ पण (तेने द्रव्यना सघळां लक्षणोनो


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१४९

भवन्ति, तथा कालोऽपि इत्येवं षड्द्रव्याणि किन्तु यथा जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशानां द्वयादिप्रदेशलक्षणत्वमस्ति अस्तिकायत्वं, न तथा लोकाकाशप्रदेशसंख्यानामपि कालाणूनामेक- प्रदेशत्वादस्त्यस्तिकायत्वम् अत एव च पञ्चास्तिकायप्रकरणे न हीह मुख्यत्वेनोपन्यस्तः कालः जीवपुद्गलपरिणामावच्छिद्यमानपर्यायत्वेन तत्परिणामान्यथानुपपत्त्यानुमीयमानद्रव्यत्वेना- त्रैवान्तर्भावितः ।।१०२।।

इति कालद्रव्यव्याख्यानं समाप्तम्
एवं पवयणसारं पंचत्थियसंगहं वियाणित्ता
जो मुयदि रागदोसे सो गाहदि दुक्खपरिमोक्खं ।।१०३।।

सद्भाव होवाथी) ‘द्रव्यसंज्ञाने पामे छे. ए प्रमाणे छ द्रव्यो छे. परंतु जेम जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म अने आकाशने द्वि-आदि प्रदेशो जेनुं लक्षण छे एवुं अस्तिकायपणुं छे, तेम काळाणुओनेजोके तेमनी संख्या लोकाकाशना प्रदेशो जेटली (असंख्य) छे तोपण एकप्रदेशीपणाने लीधे अस्तिकायपणुं नथी. अने आम होवाथी ज (अर्थात् काळ अस्तिकाय नहि होवाथी ज) अहीं पंचास्तिकायना प्रकरणमां मुख्यपणे काळनुं कथन करवामां आव्युं नथी; (परंतु) जीव-पुद्गलोना परिणाम द्वारा जे जणाय छेमपाय छे एवा तेना पर्याय होवाथी तथा जीव-पुद्गलोना परिणामनी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा जेनुं अनुमान थाय छे एवुं ते द्रव्य होवाथी तेने अहीं अंतर्भूत करवामां आव्यो छे. १०२.

आ रीते काळद्रव्यनुं व्याख्यान समाप्त थयुं.
ए रीत प्रवचनसाररूप ‘पंचास्तिसंग्रह’ जाणीने
जे जीव छोडे रागद्वेष, लहे सकळदुखमोक्षने. १०३.
१. द्वि-आदि=बे अथवा वधारे; बेथी मांडीने अनंत पर्यंत.
२. अंतर्भूत करवुं=अंदर समावी लेवुं; समाविष्ट करवुं; समावेश करवो. [आ ‘पंचास्तिकायसंग्रह नामना
शास्त्रमां काळनुं मुख्यपणे वर्णन नथी, पांच अस्तिकायोनुं मुख्यपणे वर्णन छे. त्यां जीवास्तिकाय
अने पुद्गलास्तिकायना परिणामोनुं वर्णन करतां, ते परिणामो द्वारा जेना परिणामो जणाय छे
मपाय छे ते पदार्थने (काळने) तथा ते परिणामोनी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा जेनुं अनुमान
थाय छे ते पदार्थने (काळने) गौणपणे वर्णववो उचित छे एम गणीने अहीं पंचास्तिकायप्रकरणनी
अंदर गौणपणे काळना वर्णननो समावेश करवामां आव्यो छे.]

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१५०

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
एवं प्रवचनसारं पञ्चास्तिकायसंग्रहं विज्ञाय
यो मुञ्चति रागद्वेषौ स गाहते दुःखपरिमोक्षम् ।।१०३।।
तदवबोधफलपुरस्सरः पञ्चास्तिकायव्याख्योपसंहारोऽयम्
न खलु कालकलितपञ्चास्तिकायेभ्योऽन्यत् किमपि सकलेनापि प्रवचनेन प्रतिपाद्यते

ततः प्रवचनसार एवायं पञ्चास्तिकायसंग्रहः यो हि नामामुं समस्तवस्तुतत्त्वा- भिधायिनमर्थतोऽर्थितयावबुध्यात्रैव जीवास्तिकायान्तर्गतमात्मानं स्वरूपेणात्यन्तविशुद्ध- चैतन्यस्वभावं निश्चित्य परस्परकार्यकारणीभूतानादिरागद्वेषपरिणामकर्मबन्धसन्तति-

अन्वयार्थः[ एवम् ] ए प्रमाणे [ प्रवचनसारं ] प्रवचनना सारभूत [ पञ्चास्ति- कायसंग्रहं ] ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ने [ विज्ञाय ] जाणीने [ यः ] जे [ रागद्वेषौ ] रागद्वेषने [ मुञ्चति ] छोडे छे, [ सः ] ते [ दुःखपरिमोक्षम् गाहते ] दुःखथी परिमुक्त थाय छे.

टीकाःअहीं पंचास्तिकायना अवबोधनुं फळ कहीने पंचास्तिकायना व्याख्याननो उपसंहार करवामां आव्यो छे.

खरेखर सघळुंय (द्वादशांगरूपे विस्तीर्ण) प्रवचन काळ सहित पंचास्तिकायथी अन्य कांई पण प्रतिपादित करतुं नथी; तेथी प्रवचननो सार ज आ ‘पंचास्तिकाय- संग्रह’ छे. जे पुरुष खरेखर समस्तवस्तुतत्त्वना कहेनारा आ ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ने अर्थतः अर्थीपणे जाणीने, एमां ज कहेला जीवास्तिकायने विषे अंतर्गत रहेला पोताने (निज आत्माने) स्वरूपे अत्यंत विशुद्ध चैतन्यस्वभाववाळो निश्चित करीने, परस्पर कार्यकारणभूत एवा अनादि रागद्वेषपरिणाम अने कर्मबंधनी परंपराथी १. अर्थतः=अर्थ प्रमाणे; वाच्यने अनुलक्षीने; वाच्यसापेक्ष; वास्तविक रीते. २. अर्थीपणे=गरजुपणे; याचकपणे; सेवकपणे; कांईक प्राप्त करवाना प्रयोजनथी (अर्थात् हितप्राप्तिना

हेतुथी). ३. जीवास्तिकायनी अंदर पोते (निज आत्मा) समाई जाय छे, तेथी जेवुं जीवास्तिकायनुं स्वरूप

वर्णववामां आव्युं छे तेवुं ज पोतानुं स्वरूप छे अर्थात् पोते पण स्वरूपथी अत्यंत विशुद्ध
चैतन्यस्वभाववाळो छे.

४. रागद्वेषपरिणाम अने कर्मबंध अनादि काळथी एकबीजाने कार्यकारणरूप छे.


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१५१

समारोपितस्वरूपविकारं तदात्वेऽनुभूयमानमवलोक्य तत्कालोन्मीलितविवेकज्योतिः कर्मबन्ध- सन्ततिप्रवर्तिकां रागद्वेषपरिणतिमत्यस्यति, स खलु जीर्यमाणस्नेहो जघन्यस्नेहगुणाभिमुख- परमाणुवद्भाविबन्धपराङ्मुखः पूर्वबन्धात्प्रच्यवमानः शिखितप्तोदकदौस्थ्यानुकारिणो दुःखस्य परिमोक्षं विगाहत इति ।।१०३।।

मुणिऊण एतदट्ठं तदणुगमणुज्जदो णिहदमोहो
पसमियरागद्दोसो हवदि हदपरापरो जीवो ।।१०४।।

जेनामां स्वरूपविकार आरोपायेलो छे एवो पोताने (निज आत्माने) ते काळे अनुभवातो अवलोकीने, ते काळे विवेकज्योति प्रगट होवाथी (अर्थात् अत्यंत विशुद्ध चैतन्यस्वभावनुं अने विकारनुं भेदज्ञान ते काळे ज प्रगट वर्ततुं होवाथी) कर्मबंधनी परंपराने प्रवर्तावनारी रागद्वेषपरिणतिने छोडे छे, ते पुरुष, खरेखर जेने स्नेह जीर्ण थतो जाय छे एवो, जघन्य स्नेहगुणनी संमुख वर्तता परमाणुनी माफक भावी बंधथी पराङ्मुख वर्ततो थको, पूर्व बंधथी छूटतो थको, अग्नितप्त जळनी दुःस्थिति समान जे दुःख तेनाथी परिमुक्त थाय छे. १०३.

आ अर्थ जाणी, अनुगमन-उद्यम करी, हणी मोहने,
प्रशमावी रागद्वेष, जीव उत्तर-पूरव विरहित बने. १०४.
१. स्वरूपविकार=स्वरूपनो विकार. [स्वरूप बे प्रकारे छेः () द्रव्यार्थिक नयना विषयभूत स्वरूप,
अने () पर्यायार्थिक नयना विषयभूत स्वरूप. जीवमां जे विकार थाय छे ते पर्यायार्थिक नयना
विषयभूत स्वरूपने विषे थाय छे, द्रव्यार्थिक नयना विषयभूत स्वरूपने विषे नहि; ते (द्रव्यार्थिक
नयना विषयभूत) स्वरूप तो सदाय अत्यंत विशुद्ध चैतन्यात्मक छे.]

२. आरोपायेलो=(नवो अर्थात् औपाधिकरूपे) करायेलो. [स्फटिकमणिमां औपाधिकरूपे थती रंगित

दशानी माफक जीवमां औपाधिकरूपे विकारपर्याय थतो कदाचित् अनुभवाय छे.] ३. स्नेह=रागादिरूप चीकाश ४. स्नेह=स्पर्शगुणना पर्यायरूप चीकाश. [जेम जघन्य चीकाशनी संमुख वर्ततो परमाणु भावी बंधथी

पराङ्मुख छे, तेम जेने रागादि जीर्ण थता जाय छे एवो पुरुष भावी बंधथी पराङ्मुख छे.] ५. दुःस्थिति=अशांत स्थिति (अर्थात् तळे-उपर थवुं ते, खदखद थवुं ते); अस्थिरता; खराबकफोडी

स्थिति. [जेम अग्नितप्त जळ खदखद थाय छे, तळेउपर थया करे छे, तेम दुःख आकुळतामय
छे.]

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१५पंचास्तिकायसंग्रह

ज्ञात्वैतदर्थं तदनुगमनोद्यतो निहतमोहः
प्रशमितरागद्वेषो भवति हतपरापरो जीवः ।।१०४।।
दुःखविमोक्षकरणक्रमाख्यानमेतत
एतस्य शास्त्रस्यार्थभूतं शुद्धचैतन्यस्वभावमात्मानं कश्चिज्जीवस्तावज्जानीते ततस्त-

मेवानुगन्तुमुद्यमते ततोऽस्य क्षीयते द्रष्टिमोहः ततः स्वरूपपरिचयादुन्मज्जति ज्ञानज्योतिः ततो रागद्वेषौ प्रशाम्यतः ततः उत्तरः पूर्वश्च बन्धो विनश्यति ततः पूनर्बन्धहेतुत्वाभावात स्वरूपस्थो नित्यं प्रतपतीति ।।१०४।।

इति समयव्याख्यायामन्तर्नीतषड्द्रव्यपञ्चास्तिकायवर्णनः प्रथमः श्रुतस्कन्धः समाप्तः ।।।।

अन्वयार्थः[ जीवः ] जीव [ एतद् अर्थं ज्ञात्वा ] आ अर्थने जाणीने ( शास्त्रना अर्थभूत शुद्धात्माने जाणीने), [ तदनुगमनोद्यतः ] तेने अनुसरवानो उद्यम करतो थको [ निहतमोहः ] हतमोह थईने (जेने दर्शनमोहनो क्षय थयो होय एवो थईने), [ प्रशमितरागद्वेषः ] रागद्वेषने प्रशमित (निवृत्त) करीने, [ हतपरापरः भवति ] उत्तर अने पूर्व बंधनो जेने नाश थयो छे एवो थाय छे.

टीकाःआ, दुःखथी विमुक्त थवाना क्रमनुं कथन छे.

प्रथम, कोई जीव आ शास्त्रना अर्थभूत शुद्धचैतन्यस्वभाववाळा (निज) आत्माने जाणे छे; तेथी (पछी) तेने ज अनुसरवानो उद्यम करे छे; तेथी तेने द्रष्टिमोहनो क्षय थाय छे; तेथी स्वरूपना परिचयने लीधे ज्ञानज्योति प्रगट थाय छे; तेथी रागद्वेष प्रशमी जाय छे (निवृत्त) थाय छे; तेथी उत्तर अने पूर्व (पछीनो अने पहेलांनो) बंध विनाश पामे छे; तेथी फरीने बंध थवाना हेतुपणानो अभाव होवाथी स्वरूपस्थपणे सदा प्रतपे छेप्रतापवंत वर्ते छे (अर्थात् ते जीव सदाय स्वरूपस्थित रही परमानंदज्ञानादिरूपे परिणमे छे). १०४.

आ रीते (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री पंचास्तिकायसंग्रह शास्त्रनी श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित) समयव्याख्या नामनी टीकामां षड्द्रव्यपंचास्तिकायवर्णन नामनो प्रथम श्रुतस्कंध समाप्त थयो.


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१५३
नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
द्रव्यस्वरूपप्रतिपादनेन
शुद्धं बुधानामिह तत्त्वमुक्त म्
पदार्थभङ्गेन कृतावतारं
प्रकीर्त्यते सम्प्रति वर्त्म तस्य
।।।।
अभिवंदिऊण सिरसा अपुणब्भवकारणं महावीरं
तेसिं पयत्थभंगं मग्गं मोक्खस्स वोच्छामि ।।१०५।।

[प्रथम, श्री अमृतचंद्राचार्यदेव पहेला श्रुतस्कंधने विषे शुं कहेवामां आव्युं अने बीजा श्रुतस्कंधने विषे शुं कहेवामां आवशे ते श्लोक द्वारा अति संक्षेपमां दर्शावे छे]

[श्लोकार्थ] अहीं (आ शास्त्रमां प्रथम श्रुतस्कंधने विषे) द्रव्यस्वरूपना प्रतिपादन वडे बुध पुरुषोने (समजु जीवोने) शुद्ध तत्त्व (शुद्धात्मतत्त्व) उपदेशवामां आव्युं. हवे पदार्थभेद वडे उपोद्घात करीने (नव पदार्थरूप भेद वडे प्रारंभ करीने) तेनो मार्ग (शुद्धात्मतत्त्वनो मार्ग अर्थात् तेना मोक्षनो मार्ग) वर्णववामां आवे छे. []

[हवे आ बीजा श्रुतस्कंधने विषे श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवविरचित गाथासूत्र शरू करवामां आवे छे]

शिरसा नमी अपुनर्जनमना हेतु श्री महावीरने,
भाखुं पदार्थविकल्प तेम ज मोक्ष केरा मार्गने. १०५.
पं. २०

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१५

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अभिवन्द्य शिरसा अपुनर्भवकारणं महावीरम्
तेषां पदार्थभङ्गं मार्गं मोक्षस्य वक्ष्यामि ।।१०५।।
आप्तस्तुतिपुरस्सरा प्रतिज्ञेयम्
अमुना हि प्रवर्तमानमहाधर्मतीर्थस्य मूलकर्तृत्वेनापुनर्भवकारणस्य भगवतः

परमभट्टारकमहादेवाधिदेवश्रीवर्द्धमानस्वामिनः सिद्धिनिबन्धनभूतां भावस्तुतिमासूत्र्य, कालकलितपञ्चास्तिकायानां पदार्थविकल्पो मोक्षस्य मार्गश्च वक्त व्यत्वेन प्रतिज्ञात इति ।।१०५।।

सम्मत्तणाणजुत्तं चारित्तं रागदोसपरिहीणं
मोक्खस्स हवदि मग्गो भव्वाणं लद्धबुद्धीणं ।।१०६।।

अन्वयार्थ[ अपुनर्भवकारणं ] अपुनर्भवना कारण [ महावीरम् ] श्री महावीरने [ शिरसा अभिवन्द्य ] शिरसा वंदन करीने, [ तेषां पदार्थभङ्गं ] तेमनो पदार्थभेद (काळ सहित पंचास्तिकायनो नव पदार्थरूप भेद) तथा [ मोक्षस्य मार्गं ] मोक्षनो मार्ग [ वक्ष्यामि ] कहीश.

टीकाआ, आप्तनी स्तुतिपूर्वक प्रतिज्ञा छे.

प्रवर्तमान महाधर्मतीर्थना मूळ कर्ता तरीके जेओ *अपुनर्भवना कारण छे एवा भगवान, परम भट्टारक, महादेवाधिदेव श्री वर्धमानस्वामीनी, सिद्धत्वना निमित्तभूत भावस्तुति करीने, काळ सहित पंचास्तिकायनो पदार्थभेद (अर्थात् छ द्रव्योनो नव पदार्थरूप भेद) तथा मोक्षनो मार्ग कहेवानी आ गाथासूत्रमां प्रतिज्ञा करवामां आवी छे. १०५.

सम्यक्त्वज्ञान समेत चारित रागद्वेषविहीन जे,
ते होय छे निर्वाणमारग लब्धबुद्धि भव्यने. १०६.
*अपुनर्भव=मोक्ष. [परम पूज्य भगवान श्री वर्धमानस्वामी, हालमां प्रवर्ततुं जे रत्नत्रयात्मक
महाधर्मतीर्थ तेना मूळ प्रतिपादक होवाथी, मोक्षसुखरूपी सुधारसना पिपासु भव्योने मोक्षना
निमित्तभूत छे.
]

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
१५५
सम्यक्त्वज्ञानयुक्तं चारित्रं रागद्वेषपरिहीणम्
मोक्षस्य भवति मार्गो भव्यानां लब्धबुद्धीनाम् ।।१०६।।
मोक्षमार्गस्यैव तावत्सूचनेयम्
सम्यक्त्वज्ञानयुक्त मेव नासम्यक्त्वज्ञानयुक्तं , चारित्रमेव नाचारित्रं, रागद्वेषपरिहीणमेव न

रागद्वेषापरिहीणम्, मोक्षस्यैव न भावतो बंधस्य, मार्ग एव नामार्गः, भव्यानामेव नाभव्यानां, लब्धबुद्धीनामेव नालब्धबुद्धीनां, क्षीणकषायत्वे भवत्येव न कषायसहितत्वे भवतीत्यष्टधा नियमोऽत्र द्रष्टव्यः ।।१०६।।

अन्वयार्थ[ सम्यक्त्वज्ञानयुक्तं ] सम्यक्त्व अने ज्ञानथी संयुक्त एवुं [ चारित्रं ] चारित्र[ रागद्वेषपरिहीणम् ] के जे रागद्वेषथी रहित होय ते, [ लब्धबुद्धीनाम् ] लब्धबुद्धि [ भव्यानां ] भव्यजीवोने [ मोक्षस्य मार्गः ] मोक्षनो मार्ग [ भवति ] होय छे.

टीकाप्रथम, मोक्षमार्गनी ज आ सूचना छे.

सम्यक्त्व अने ज्ञानथी युक्त जनहि के असम्यक्त्व अने अज्ञानथी युक्त, चारित्र जनहि के अचारित्र, रागद्वेष रहित होय एवुं ज (चारित्र)नहि के रागद्वेष सहित होय एवुं, मोक्षनो जभावतः नहि के बंधनो, मार्ग जनहि के अमार्ग, भव्योने जनहि के अभव्योने, लब्धबुद्धिओने जनहि के अलब्ध- बुद्धिओने, क्षीणकषायपणामां ज होय छेनहि के कषायसहितपणामां होय छे. आम आठ प्रकारे नियम अहीं देखवो (अर्थात् आ गाथामां उपरोक्त आठ प्रकारे नियम कह्यो छे एम समजवुं). १०६. १. भावतः=भाव अनुसार; आशय अनुसार. (‘मोक्षनो’ कहेतां ज ‘बंधनो नहि’ एवो भाव अर्थात

आशय स्पष्ट समजाय छे.) २. लब्धबुद्धि=जेमणे बुद्धि प्राप्त करी होय एवा. ३. क्षीणकषायपणामां ज=क्षीणकषायपणुं होतां ज; क्षीणकषायपणुं होय त्यारे ज. [सम्यक्त्वज्ञानयुक्त

चारित्रके जे रागद्वेषरहित होय ते, लब्धबुद्धि भव्यजीवोने, क्षीणकषायपणुं होतां ज, मोक्षनो
मार्ग होय छे.]

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१५

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं तेसिमधिगमो णाणं
चारित्तं समभावो विसएसु विरूढमग्गाणं ।।१०७।।
सम्यक्त्वं श्रद्धानं भावानां तेषामधिगमो ज्ञानम्
चारित्रं समभावो विषयेषु विरूढमार्गाणाम् ।।१०७।।
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां सूचनेयम्
भावाः खलु कालकलितपञ्चास्तिकायविकल्परूपा नव पदार्थाः तेषां मिथ्या-

दर्शनोदयापादिताश्रद्धानाभावस्वभावं भावान्तरं श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं, शुद्धचैतन्यरूपात्म-

‘भावो’ तणी श्रद्धा सुदर्शन, बोध तेनो ज्ञान छे,
वधु रूढ मार्ग थतां विषयमां साम्य ते चारित्र छे. १०७.

अन्वयार्थ[ भावानां ] भावोनुं (नव पदार्थोनुं) [ श्रद्धानं ] श्रद्धान [ सम्यक्त्वं ] ते सम्यक्त्व छे; [ तेषाम् अधिगमः ] तेमनो अवबोध [ ज्ञानम् ] ते ज्ञान छे; [ विरूढमार्गाणाम् ] (निज तत्त्वमां) जेमनो मार्ग विशेष रूढ थयो छे तेमने [ विषयेषु ] विषयो प्रत्ये वर्ततो [ समभावः ] समभाव [ चारित्रम् ] ते चारित्र छे.

टीकाआ, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी सूचना छे.

काळ सहित पंचास्तिकायना भेदरूप नव पदार्थो ते खरेखर ‘भावो’ छे. ते ‘भावो’नुं मिथ्यादर्शनना उदयथी प्राप्त थतुं जे अश्रद्धान तेना अभावस्वभाववाळो जे भावांतरश्रद्धान (अर्थात् नव पदार्थोनुं श्रद्धान), ते सम्यग्दर्शन छेके जे (सम्यग्दर्शन) शुद्धचैतन्यरूप आत्मतत्त्वना विनिश्चयनुं बीज छे. नौकागमनना १. भावांतर=भावविशेष; खास भाव; बीजो भाव; जुदो भाव. [नव पदार्थोना अश्रद्धाननो अभाव

जेनो स्वभाव छे एवो भावांतर (नव पदार्थोना श्रद्धानरूप भाव) ते सम्यग्दर्शन छे.] २. विनिश्चय=निश्चय; द्रढ निश्चय. ३. जेवी रीते नावमां बेठेला कोई मनुष्यने नावनी गतिना संस्कारवश, पदार्थो विपरीत स्वरूपे समजाय

छे (अर्थात् पोते गतिमां होवा छतां स्थिर होय एम समजाय छे अने वृक्ष, पर्वत वगेरे स्थिर
होवा छतां गतिमां होय एम समजाय छे), तेवी रीते जीवने मिथ्यादर्शनना उदयवश नव पदार्थो
विपरीत स्वरूपे समजाय छे.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
१५७

तत्त्वविनिश्चयबीजम् तेषामेव मिथ्यादर्शनोदयान्नौयानसंस्कारादि स्वरूपविपर्ययेणा- ध्यवसीयमानानां तन्निवृत्तौ समञ्जसाध्यवसायः सम्यग्ज्ञानं, मनाग्ज्ञानचेतना- प्रधानात्मतत्त्वोपलम्भबीजम् सम्यग्दर्शनज्ञानसन्निधानादमार्गेभ्यः समग्रेभ्यः परिच्युत्य स्वतत्त्वे विशेषेण रूढमार्गाणां सतामिन्द्रियानिन्द्रियविषयभूतेष्वर्थेषु रागद्वेषपूर्वक- विकाराभावान्निर्विकारावबोधस्वभावः समभावश्चारित्रं, तदात्वायतिरमणीयमनणीयसो- ऽपुनर्भवसौख्यस्यैकबीजम् इत्येष त्रिलक्षणो मोक्षमार्गः पुरस्तान्निश्चयव्यवहाराभ्यां व्याख्यास्यते इह तु सम्यग्दर्शनज्ञानयोर्विषयभूतानां नवपदार्थानामुपोद्घातहेतुत्वेन सूचित इति ।।१०७।। संस्कारनी माफक मिथ्यादर्शनना उदयने लीधे जेओ स्वरूपविपर्ययपूर्वक अध्यवसित थाय छे (अर्थात् विपरीत स्वरूपे समजाय छेभासे छे) एवा ते ‘भावो’नो ज (नव पदार्थोनो ज), मिथ्यादर्शनना उदयनी निवृत्ति होतां, जे सम्यक् अध्यवसाय (सत्य समजण, यथार्थ अवभास, साचो अवबोध) थवो, ते सम्यग्ज्ञान छेके जे (सम्यग्ज्ञान) कांईक अंशे ज्ञानचेतनाप्रधान आत्मतत्त्वनी उपलब्धिनुं (अनुभूतिनुं) बीज छे. सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानना सद्भावने लीधे समस्त अमार्गोथी छूटीने जेओ स्वतत्त्वमां विशेषपणे रूढ मार्गवाळा थया छे तेमने इन्द्रिय अने मनना विषयभूत पदार्थो प्रत्ये रागद्वेषपूर्वक विकारना अभावने लीधे जे निर्विकारज्ञान- स्वभाववाळो समभाव होय छे, ते चारित्र छेके जे (चारित्र) ते काळे अने आगामी काळे रमणीय छे अने अपुनर्भवना (मोक्षना) महा सौख्यनुं एक बीज छे.

आवा आ त्रिलक्षण (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक) मोक्षमार्गनुं आगळ निश्चय अने व्यवहारथी व्याख्यान करवामां आवशे. अहीं तो सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानना विषयभूत नव पदार्थोना उपोद्घातना हेतु तरीके तेनुं सूचन करवामां आव्युं छे. १०७. *अहीं ‘संस्कारादि’ ने बदले घणुं करीने ‘संस्कारादिव’ होवुं जोईए एम लागे छे. १. रूढ=रीढो; पाको; परिचयथी द्रढ थयेलो. (सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानने लीधे जेमनो स्वतत्त्वगत

मार्ग विशेष रूढ थयो छे तेमने इन्द्रियमनना विषयो प्रत्ये रागद्वेषना अभावने लीधे वर्ततो निर्विकारज्ञानस्वभावी समभाव ते चारित्र छे). २. उपोद्घात=प्रस्तावना [सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग छे. मोक्षमार्गनां प्रथमनां बे अंग जे

सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान तेमना विषयो नव पदार्थ छे; तेथी हवेनी गाथाओमां नव पदार्थनुं

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१५

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
जीवाजीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं
संवरणं णिज्जरणं बंधो मोक्खो य ते अट्ठा ।।१०८।।
जीवाजीवौ भावो पुण्यं पापं चास्रवस्तयोः
संवरणं निर्जरणं बन्धो मोक्षश्च ते अर्थाः ।।१०८।।
पदार्थानां नामस्वरूपाभिधानमेतत
जीवः, अजीवः, पुण्यं, पापं, आस्रवः, संवरः, निर्जरा, बन्धः, मोक्ष इति

नवपदार्थानां नामानि तत्र चैतन्यलक्षणो जीवास्तिक एवेह जीवः चैतन्याभाव- लक्षणोऽजीवः स पञ्चधा पूर्वोक्त एवपुद्गलास्तिकः, धर्मास्तिकः, अधर्मास्तिकः, आकाशास्तिकः, कालद्रव्यञ्चेति इमौ हि जीवाजीवौ पृथग्भूतास्तित्वनिर्वृत्तत्वेन

बे भावजीव अजीव, तद्गत पुण्य तेम ज पाप ने
आसरव, संवर, निर्जरा, वळी बंध, मोक्षपदार्थ छे. १०८.

अन्वयार्थ[ जीवाजीवौ भावौ ] जीव अने अजीवबे भावो (अर्थात् मूळ पदार्थो) तथा [ तयोः ] ते बेनां [ पुण्यं ] पुण्य, [ पापं च ] पाप, [ आस्रवः ] आस्रव, [ संवरणं निर्जरणं बन्धः ] संवर, निर्जरा, बंध [ च ] ने [ मोक्षः ] मोक्ष[ ते अर्थाः ] (नव) पदार्थो छे.

टीकाआ, पदार्थोनां नाम अने स्वरूपनुं कथन छे.

जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्षए प्रमाणे नव पदार्थोनां नाम छे.

तेमां, चैतन्य जेनुं लक्षण छे एवो जीवास्तिक ज (जीवास्तिकाय ज) अहीं जीव छे. चैतन्यनो अभाव जेनुं लक्षण छे ते अजीव छे; ते (अजीव) पांच प्रकारे पूर्वे कहेल ज छेपुद्गलास्तिक, धर्मास्तिक, अधर्मास्तिक, आकाशास्तिक अने काळद्रव्य. आ जीव अने अजीव (बंने) पृथक् अस्तित्व वडे निष्पन्न होवाथी भिन्न जेमना स्वभाव छे एवा (बे) मूळ पदार्थो छे.

व्याख्यान करवामां आवे छे. मोक्षमार्गनुं विस्तृत व्याख्यान आगळ उपर करवामां आवशे. अहीं
तो नव पदार्थना व्याख्याननी प्रस्तावनाना हेतु तरीके तेनुं मात्र सूचन करवामां आव्युं छे.
]

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
१५९

भिन्नस्वभावभूतौ मूलपदार्थौ जीवपुद्गलसंयोगपरिणामनिर्वृत्ताः सप्तान्ये पदार्थाः शुभपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामः पुद्गलानाञ्च पुण्यम् अशुभ- परिणामो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामः पुद्गलानाञ्च पापम् मोहरागद्वेष- परिणामो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानाञ्चास्रवः मोहरागद्वेषपरिणामनिरोधो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामनिरोधो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानाञ्च संवरः कर्मवीर्यशातनसमर्थो बहिरङ्गान्तरङ्गतपोभिर्बृंहितशुद्धोप- योगो जीवस्य, तदनुभावनीरसीभूतानामेकदेशसंक्षयः समुपात्तकर्मपुद्गलानाञ्च निर्जरा मोहरागद्वेषस्निग्धपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्तेन कर्मत्वपरिणतानां जीवेन सहान्योन्य- सम्मूर्च्छनं पुद्गलानाञ्च बन्धः अत्यन्तशुद्धात्मोपलम्भो जीवस्य, जीवेन सहात्यन्तविश्लेषः

जीव अने पुद्गलना संयोगपरिणामथी नीपजता सात बीजा पदार्थो छे. (तेमनुं संक्षिप्त स्वरूप नीचे प्रमाणे छे) जीवना शुभ परिणाम (ते पुण्य छे) तेम ज ते (शुभ परिणाम) जेनुं निमित्त छे एवा पुद्गलोना कर्मपरिणाम (शुभकर्मरूप परिणाम) ते पुण्य छे. जीवना अशुभ परिणाम (ते पाप छे) तेम ज ते (अशुभ परिणाम) जेनुं निमित्त छे एवा पुद्गलोना कर्मपरिणाम (अशुभकर्मरूप परिणाम) ते पाप छे. जीवना मोहरागद्वेषरूप परिणाम (ते आस्रव छे) तेम ज ते (मोहरागद्वेषरूप परिणाम) जेनुं निमित्त छे एवा जे योग द्वारा प्रवेशतां पुद्गलोना कर्मपरिणाम ते आस्रव छे. जीवना मोहरागद्वेषरूप परिणामनो निरोध (ते संवर छे) तेम ज ते (मोहरागद्वेषरूप परिणामनो निरोध) जेनुं निमित्त छे एवो जे योग द्वारा प्रवेशतां पुद्गलोना कर्मपरिणामनो निरोध ते संवर छे. कर्मना वीर्यनुं (कर्मनी शक्तिनुं) शातन करवामां समर्थ एवो जे बहिरंग अने अंतरंग (बार प्रकारनां) तपो वडे वृद्धि पामेलो जीवनो शुद्धोपयोग (ते निर्जरा छे) तेम ज तेना प्रभावथी (वृद्धि पामेला शुद्धोपयोगना निमित्तथी) नीरस थयेलां एवां उपार्जित कर्मपुद्गलोनो एकदेश संक्षय ते निर्जरा छे. जीवना, मोहरागद्वेष वडे स्निग्ध परिणाम (ते बंध छे) तेम ज तेना (स्निग्ध परिणामना) निमित्तथी कर्मपणे परिणत पुद्गलोनुं जीवनी साथे अन्योन्य अवगाहन (विशिष्ट शक्ति सहित एकक्षेत्रावगाहसंबंध) ते बंध छे. जीवनी अत्यंत शुद्ध आत्मोपलब्धि (ते मोक्ष छे) तेम ज कर्मपुद्गलोनो जीवथी अत्यंत १. शातन करवुं=पातळुं करवुं; हीन करवुं; क्षीण करवुं; नष्ट करवुं. २. संक्षय=सम्यक् प्रकारे क्षय


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पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

कर्मपुद्गलानां च मोक्ष इति ।।१०८।।

अथ जीवपदार्थव्याख्यानं प्रपञ्चयति
जीवा संसारत्था णिव्वादा चेदणप्पगा दुविहा
उवओगलक्खणा वि य देहादेहप्पवीचारा ।।१०९।।
जीवाः संसारस्था निर्वृत्ताः चेतनात्मका द्विविधाः
उपयोगलक्षणा अपि च देहादेहप्रवीचाराः ।।१०९।।
जीवस्वरूपोद्देशोऽयम्
जीवाः हि द्विविधाः, संसारस्था अशुद्धा, निर्वृत्ताः शुद्धाश्च ते खलूभयेऽपि

चेतनास्वभावाः, चेतनापरिणामलक्षणेनोपयोगेन लक्षणीयाः तत्र संसारस्था देहप्रवीचाराः, निर्वृत्ता अदेहप्रवीचारा इति ।।१०९।। विश्लेष (वियोग) ते मोक्ष छे. १०८.

हवे जीवपदार्थनुं व्याख्यान विस्तारथी करवामां आवे छे.
जीवो द्विविधसंसारी, सिद्धो; चेतनात्मक उभय छे;
उपयोगलक्षण उभय; एक सदेह, एक अदेह छे. १०९.

अन्वयार्थ[ जीवाः द्विविधाः ] जीवो बे प्रकारना छेः [ संसारस्थाः निर्वृत्ताः ] संसारी अने सिद्ध. [ चेतनात्मकाः ] तेओ चेतनात्मक (चेतनास्वभाववाळा) [ अपि च ] तेम [ उपयोगलक्षणाः ] उपयोगलक्षणवाळा छे. [ देहादेहप्रवीचाराः ] संसारी जीवो देहमां वर्तनारा अर्थात् देहसहित छे अने सिद्ध जीवो देहमां नहि वर्तनारा अर्थात् देहरहित छे.

टीकाआ, जीवना स्वरूपनुं कथन छे.

जीवो बे प्रकारना छेः () संसारी अर्थात् अशुद्ध, अने () सिद्ध अर्थात शुद्ध. ते बंनेय खरेखर चेतनास्वभाववाळा छे अने *चेतनापरिणामस्वरूप उपयोग वडे लक्षित थवायोग्य (ओळखावायोग्य) छे. तेमां, संसारी जीवो देहमां वर्तनारा अर्थात देहसहित छे अने सिद्ध जीवो देहमां नहि वर्तनारा अर्थात् देहरहित छे. १०९. *चेतनानो परिणाम ते उपयोग. आ उपयोग जीवरूपी लक्ष्यनुं लक्षण छे.