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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
पुद्गलपरिणामा बन्धवशाज्जीवानुसंश्रिताः, अवान्तरजातिभेदाद्बहुका अपि स्पर्शनेन्द्रिया- वरणक्षयोपशमभाजां जीवानां बहिरङ्गस्पर्शनेन्द्रियनिर्वृत्तिभूताः कर्मफलचेतनाप्रधान-
अन्वयार्थः — [ पृथिवी ] पृथ्वीकाय, [ उदकम् ] अप्काय, [ अग्निः ] अग्निकाय, [ वायुः ] वायुकाय [ च ] अने [ वनस्पतिः ] वनस्पतिकाय — [ कायाः ] ए कायो [ जीवसंश्रिताः ] जीवसहित छे. [ बहुकाः अपि ते ] (अवांतर जातिओनी अपेक्षाए) तेमनी घणी संख्या होवा छतां तेओ बधीये [ तेषाम् ] तेमां रहेला जीवोने [ खलु ] खरेखर [ मोहबहुलं ] पुष्कळ मोहथी संयुक्त [ स्पर्शं ददति ] स्पर्श आपे छे (अर्थात् स्पर्शज्ञानमां निमित्त थाय छे).
टीकाः — आ, (संसारी जीवोना भेदोमांथी) पृथ्वीकायिक वगेरे पांच भेदोनुं कथन छे.
१पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजःकाय, वायुकाय अने वनस्पतिकाय — एवा आ पुद्गल- परिणामो बंधवशात् (बंधने लीधे) जीवसहित छे. २अवांतर जातिरूप भेदो पाडतां तेओ घणा होवा छतां ते बधाय (पुद्गलपरिणामो), स्पर्शनेंद्रियावरणना क्षयोपशमवाळा जीवोने बहिरंग स्पर्शनेंद्रियनी रचनाभूत वर्तता थका, कर्मफळचेतनाप्रधानपणाने लीधे १. काय=शरीर. (पृथ्वीकाय वगेरे कायो पुद्गलपरिणामो छे; तेमनो जीव साथे बंध होवाने लीधे तेओ
जीवसहित होय छे.) २. अवांतर जाति=पेटा-जाति. (पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजःकाय अने वायुकाय — ए चारमांना दरेकना
सात लाख पेटा-जातिरूप भेदो छे; वनस्पतिकायना दस लाख भेदो छे.) पं. २१
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त्वान्मोहबहुलमेव स्पर्शोपलम्भं सम्पादयन्तीति ।।११०।।
अन्वयार्थः — [ तेषु ] तेमां, [ त्रयः ] त्रण (पृथ्वीकायिक, अप्कायिक ने वनस्पति- कायिक) जीवो [ स्थावरतनुयोगाः ] स्थावर शरीरना संयोगवाळा छे [ च ] तथा [ अनिलानलकायिकाः ] वायुकायिक ने अग्निकायिक जीवो [ त्रसाः ] २त्रस छे; [ मनःपरिणामविरहिताः ] ते बधा मनपरिणामरहित [ एकेन्द्रियाः जीवाः ] एकेंद्रिय जीवो [ ज्ञेयाः ] जाणवा. १११.
१. स्पर्शोपलब्धि=स्पर्शनी उपलब्धि; स्पर्शनुं ज्ञान; स्पर्शनो अनुभव. [पृथ्वीकायिक वगेरे जीवोने
स्पर्शनेंद्रियनी रचनारूप होय छे, तेथी ते ते कायो ते ते जीवोने स्पर्शनी उपलब्धिमां निमित्तभूत थाय छे. ते जीवोने थती ते स्पर्शोपलब्धि प्रबळ मोह सहित ज होय छे, कारण के ते जीवो कर्मफळचेतनाप्रधान होय छे.] २. वायुकायिक अने अग्निकायिक जीवोने चलनक्रिया देखीने व्यवहारथी त्रस कहेवामां आवे छे; निश्चयथी
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
नोइन्द्रियावरणोदये च सत्येकेन्द्रिया अमनसो भवन्तीति ।।११२।।
अन्वयार्थः — [ एते ] आ [ पृथिवीकायिकाद्याः ] पृथ्वीकायिक वगेरे [ पञ्चविधाः ] पांच प्रकारना [ जीवनिकायाः ] जीवनिकायोने [ मनःपरिणामविरहिताः ] मनपरिणामरहित [ एकेन्द्रियाः जीवाः ] एकेंद्रिय जीवो [ भणिताः ] (सर्वज्ञे) कह्या छे.
पृथ्वीकायिक वगेरे जीवो, स्पर्शनेंद्रियना ( – भावस्पर्शनेंद्रियना) आवरणना क्षयोपशमने लीधे तथा बाकीनी इन्द्रियोना ( – चार भावेंद्रियोना) आवरणनो उदय तेम ज मनना ( – भावमनना) आवरणनो उदय होवाथी, मनरहित एकेंद्रिय छे. ११२.
अन्वयार्थः — [ अण्डेषु प्रवर्धमानाः ] इंडांमां वृद्धि पामतां प्राणीओ, [ गर्भस्थाः ] गर्भमां रहेलां प्राणीओ [ च ] अने [ मूर्च्छां गताः मानुषाः ] मूर्छा पामेला मनुष्यो, [ याद्रशाः ] जेवां (बुद्धिपूर्वक व्यापार विनानां) छे, [ ताद्रशाः ] तेवा [ एकेन्द्रियाः जीवाः ] एकेंद्रिय जीवो [ ज्ञेयाः ] जाणवा.
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अण्डान्तर्लीनानां, गर्भस्थानां, मूर्च्छितानां च बुद्धिपूर्वकव्यापारादर्शनेऽपि येन प्रकारेण जीवत्वं निश्चीयते, तेन प्रकारेणैकेन्द्रियाणामपि, उभयेषामपि बुद्धिपूर्वकव्यापारा- दर्शनस्य समानत्वादिति ।।११३।।
इंडांनी अंदर रहेलां, गर्भमां रहेलां अने मूर्छा पामेलां (प्राणीओ)ना जीवत्वनो, तेमने बुद्धिपूर्वक व्यापार नहि जोवामां आवतो होवा छतां, जे प्रकारे निश्चय कराय छे, ते प्रकारे एकेन्द्रियोना जीवत्वनो पण निश्चय कराय छे; कारण के बंनेमां बुद्धिपूर्वक व्यापारनुं *अदर्शन समान छे.
भावार्थः — जेम गर्भस्थादि प्राणीओमां, ईहापूर्वक व्यवहारनो अभाव होवा छतां, जीवत्व छे ज, तेम एकेन्द्रियोमां पण, ईहापूर्वक व्यवहारनो अभाव होवा छतां, जीवत्व छे ज एम आगम, अनुमान इत्यादिथी नक्की करी शकाय छे.
अहीं एम तात्पर्य ग्रहवुं के — जीव परमार्थे स्वाधीन अनंत ज्ञान अने सौख्य सहित होवा छतां अज्ञान वडे पराधीन इन्द्रियसुखमां आसक्त थईने जे कर्म बांधे छे तेना निमित्ते पोताने एकेन्द्रिय अने दुःखी करे छे. ११३.
— जे जाणता रसस्पर्शने, ते जीव द्वींद्रिय जाणवा. ११४.
अन्वयार्थः — [ शम्बूकमातृवाहाः ] शंबूक, मातृवाह, [ शङ्खाः ] शंख, [ शुक्तयः ] छीप [ च ] अने [ अपादकाः कृमयः ] पग वगरना कृमि — [ ये ] के जेओ [ रसं स्पर्शं ] रस अने स्पर्शने [ जानन्ति ] जाणे छे [ ते ] तेओ — [ द्वीन्द्रियाः जीवाः ] द्वीन्द्रिय जीवो छे.
टीकाः — आ, द्वीन्द्रिय जीवोना प्रकारनी सूचना छे. *अदर्शन=नहि जोवामां आववुं ते
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
एते स्पर्शनरसनेन्द्रियावरणक्षयोपशमात् शेषेन्द्रियावरणोदये नोइन्द्रियावरणोदये च सति स्पर्शरसयोः परिच्छेत्तारो द्वीन्द्रिया अमनसो भवन्तीति ।।११४।।
सति स्पर्शरसगन्धानां परिच्छेत्तारस्त्रीन्द्रिया अमनसो भवन्तीति ।।११५।।
स्पर्शनेन्द्रिय अने रसनेन्द्रियना ( – ए बे भावेन्द्रियोना) आवरणना क्षयोपशमने लीधे तथा बाकीनी इन्द्रियोना ( – त्रण भावेन्द्रियोना) आवरणनो उदय तेम ज मनना ( – भावमनना) आवरणनो उदय होवाथी स्पर्श अने रसने जाणनारा आ (शंबूक वगेरे) जीवो मनरहित द्वीन्द्रिय जीवो छे. ११४.
अन्वयार्थः — [ यूकाकुम्भीमत्कुणपिपीलिकाः ] जू, कुंभी, माकड, कीडी अने [ वृश्चिकादयः ] वींछी वगेरे [ कीटाः ] जंतुओ [ रसं स्पर्शं गंधं ] रस, स्पर्श अने गंधने [ जानन्ति ] जाणे छे; [ त्रीन्द्रियाः जीवाः ] ते त्रीन्द्रिय जीवो छे.
स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय अने घ्राणेन्द्रियना आवरणना क्षयोपशमने लीधे तथा बाकीनी इन्द्रियोना आवरणनो उदय तेम ज मनना आवरणनो उदय होवाथी स्पर्श, रस अने गंधने जाणनारा आ (जू वगेरे) जीवो मनरहित त्रीन्द्रिय जीवो छे. ११५.
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वरणोदये च सति स्पर्शरसगन्धवर्णानां परिच्छेत्तारश्चतुरिन्द्रिया अमनसो भवन्तीति ।।११६।।
अन्वयार्थः — [ पुनः ] वळी [ंउद्दंशमशकमक्षिकामधुकरीभ्रमराः ] डांस, मच्छर, माखी, मधमाखी, भमरा अने [ पतङ्गाद्याः ते ] पतंगियां वगेरे जीवो [ रूपं ] रूप, [ रसं ] रस, [ गन्धं ] गंध [ च ] अने [ स्पर्शं ] स्पर्शने [ विजानन्ति ] जाणे छे. (ते चतुरिंद्रिय जीवो छे.)
स्पर्शनेंद्रिय, रसनेंद्रिय, घ्राणेंद्रिय अने चक्षुरिंद्रियना आवरणना क्षयोपशमने लीधे तथा श्रोत्रेंद्रियना आवरणनो उदय तेम ज मनना आवरणनो उदय होवाथी स्पर्श, रस, गंध अने वर्णने जाणनारा आ (डांस वगेरे) जीवो मनरहित चतुरिंद्रिय जीवो छे. ११६.
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दानां परिच्छेत्तारः पञ्चेन्द्रिया अमनस्काः । केचित्तु नोइन्द्रियावरणस्यापि क्षयोपशमात् समनस्काश्च भवन्ति । तत्र देवमनुष्यनारकाः समनस्का एव, तिर्यञ्च उभयजातीया इति ।।११७।।
अन्वयार्थः — [ वर्णरसस्पर्शगन्धशब्दज्ञाः ] वर्ण, रस, स्पर्श, गंध अने शब्दने जाणनारां [ सुरनरनारकतिर्यञ्चः ] देव-मनुष्य-नारक-तिर्यंच — [ जलचरस्थलचरखचराः ] जेओ जळचर, स्थळ-चर के खेचर होय छे तेओ — [ बलिनः पञ्चेन्द्रियाः जीवाः ] बळवान पंचेन्द्रिय जीवो छे.
स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय अने श्रोत्रेन्द्रियना आवरणना क्षयोपशमने लीधे, मनना आवरणनो उदय होतां, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण अने शब्दने जाणनारा जीवो मनरहित पंचेंद्रिय जीवो छे; केटलाक (पंचेंद्रिय जीवो) तो, तेमने मनना आवरणनो पण क्षयोपशम होवाथी, मनसहित (पंचेंद्रिय जीवो) होय छे.
तेमां, देवो, मनुष्यो अने नारको मनसहित ज होय छे; तिर्यंचो बंने जातिनां (अर्थात् मनरहित तेम ज मनसहित) होय छे. ११७.
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निकायभेदाच्चतुर्धा । मनुष्यगतिनाम्नो मनुष्यायुषश्च उदयान्मनुष्याः । ते कर्मभोगभूमिज- भेदात् द्वेधा । तिर्यग्गतिनाम्नस्तिर्यगायुषश्च उदयात्तिर्यञ्चः । ते पृथिवीशम्बूकयूकोद्दंश- जलचरोरगपक्षिपरिसर्पचतुष्पदादिभेदादनेकधा । नरकगतिनाम्नो नरकायुषश्च उदयान्नारकाः । ते रत्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमोमहातमःप्रभाभूमिजभेदात्सप्तधा । तत्र देवमनुष्यनारकाः भूमिजाः ] मनुष्यो कर्मभूमिज अने भोगभूमिज एम बे प्रकारना छे, [ तिर्यञ्चः बहुप्रकाराः ] तिर्यंचो घणा प्रकारनां छे [ पुनः ] अने [ नारकाः पृथिवीभेदगताः ] नारकोना भेद तेमनी पृथ्वीओना भेद जेटला छे.
टीकाः — आ, इन्द्रियोना भेदनी अपेक्षाए कहेवामां आवेला जीवोनो चतुर्गतिसंबंध दर्शावतां उपसंहार छे (अर्थात् अहीं एकेंद्रिय – द्वींद्रियादिरूप जीवभेदोनो चार गति साथे संबंध दर्शावीने ते जीवभेदोनो उपसंहार करवामां आव्यो छे).
देवगतिनाम अने देवायुना उदयथी (अर्थात् देवगतिनामकर्म अने देवायुकर्मना उदयना निमित्तथी) देवो होय छे; तेओ भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिक एवा १निकायभेदोने लीधे चार प्रकारना छे. मनुष्यगतिनाम अने मनुष्यायुना उदयथी मनुष्यो होय छे; तेओ कर्मभूमिज अने भोगभूमिज एवा भेदोने लीधे बे प्रकारना छे. तिर्यंचगतिनाम अने तिर्यंचायुना उदयथी तिर्यंचो होय छे; तेओ पृथ्वी, शंबूक, जू, डांस, जळचर, उरग, पक्षी, परिसर्प, चतुष्पाद (चोपगां) इत्यादि भेदोने लीधे अनेक प्रकारनां छे. नरकगतिनाम अने नरकायुना उदयथी नारको होय छे; तेओ २रत्नप्रभाभूमिज, शर्कराप्रभाभूमिज, वालुकाप्रभाभूमिज, पंकप्रभाभूमिज, धूमप्रभाभूमिज, तमःप्रभाभूमिज अने महातमःप्रभाभूमिज एवा भेदोने लीधे सात प्रकारना छे.
तेमां, देवो, मनुष्यो अने नारको पंचेन्द्रिय ज होय छे. तिर्यंचो तो केटलांक पंचेन्द्रिय १. निकाय=समूह २. रत्नप्रभाभूमिज=रत्नप्रभा नामनी भूमिमां ( – प्रथम नरकमां) उत्पन्न थयेल
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
पञ्चेन्द्रिया एव । तिर्यञ्चस्तु केचित्पञ्चेन्द्रियाः, केचिदेक-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिया अपीति ।।११८।।
तेषां गत्यन्तरस्यायुरन्तरस्य च कषायानुरञ्जिता योगप्रवृत्तिर्लेश्या भवति बीजं, होय छे अने केटलांक एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय अने चतुरिन्द्रिय पण होय छे.
भावार्थः — अहीं एम तात्पर्य ग्रहवुं के चार गतिथी विलक्षण, स्वात्मोपलब्धि जेनुं लक्षण छे एवी जे सिद्धगति तेनी भावनाथी रहित जीवो अथवा सिद्धसद्रश निजशुद्धात्मानी भावनाथी रहित जीवो जे चतुर्गतिनामकर्म उपार्जित करे छे तेना उदयवश तेओ देवादि गतिओमां ऊपजे छे. ११८.
अन्वयार्थः — [ पूर्वनिबद्धे ] पूर्वबद्ध [ गतिनाम्नि आयुषि च ] गतिनामकर्म अने आयुषकर्म [ क्षीणे ] क्षीण थतां [ ते अपि ] जीवो [ स्वलेश्यावशात् ] पोतानी लेश्याने वश [ खलु ] खरेखर [ अन्यां गतिम् आयुष्कं च ] अन्य गति अने आयुष [ प्राप्नुवन्ति ] प्राप्त करे छे.
टीकाः — अहीं, गतिनामकर्म अने आयुषकर्मना उदयथी निष्पन्न थतां होवाथी देवत्वादि अनात्मस्वभावभूत छे (अर्थात् देवपणुं, मनुष्यपणुं, तिर्यंचपणुं अने नारकपणुं आत्मानो स्वभाव नथी) एम दर्शाववामां आव्युं छे.
जीवोने, जेनुं फळ शरू थयुं होय छे एवुं अमुक गतिनामकर्म अने अमुक आयुषकर्म क्रमे क्षय पामे छे. आम होवा छतां तेमने *कषाय-अनुरंजित योगप्रवृत्तिरूप लेश्या अन्य गति अने अन्य आयुषनुं बीज थाय छे (अर्थात् लेश्या अन्य *कषाय-अनुरंजित=कषायरंजित; कषायथी रंगायेल. (कषायथी अनुरंजित योगप्रवृत्ति ते लेश्या छे.) पं. २२
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ततस्तदुचितमेव गत्यन्तरमायुरन्तरञ्च ते प्राप्नुवन्ति । एवं क्षीणाक्षीणाभ्यामपि पुनः पुनर्नवी- भूताभ्यां गतिनामायुःकर्मभ्यामनात्मस्वभावभूताभ्यामपि चिरमनुगम्यमानाः संसरन्त्यात्मानम- चेतयमाना जीवा इति ।।११९।।
गतिनामकर्म अने अन्य आयुषकर्मनुं कारण थाय छे), तेथी तेने उचित ज अन्य गति अने अन्य आयुष तेओ प्राप्त करे छे. आ रीते *क्षीण-अक्षीणपणाने प्राप्त छतां फरीफरीने नवीन उत्पन्न थतां एवां गतिनामकर्म अने आयुषकर्म (प्रवाहरूपे) — जोके तेओ अनात्मस्वभावभूत छे तोपण — चिरकाळ (जीवोनी) साथे साथे रहेतां होवाथी, आत्माने नहि चेतनारा जीवो संसरण करे छे (अर्थात् आत्माने नहि अनुभवनारा जीवो संसारमां परिभ्रमण करे छे).
भावार्थः — जीवोने देवत्वादिनी प्राप्तिमां पौद्गलिक कर्म निमित्तभूत छे तेथी देवत्वादि जीवनो स्वभाव नथी.
[वळी, देव मरीने देव ज थया करे अने मनुष्य मरीने मनुष्य ज थया करे — ए मान्यतानो पण अहीं निषेध थयो. जीवोने पोतानी लेश्याने योग्य ज गतिनाम- कर्म अने आयुषकर्म बंधाय छे अने तेथी तेने योग्य ज अन्य गति-आयुष प्राप्त थाय छे.] ११९.
अन्वयार्थः — [ एते जीवनिकायाः ] आ (पूर्वोक्त) जीवनिकायो [ देहप्रवीचार- माश्रिताः ] देहमां वर्तनारा अर्थात् देहसहित [ भणिताः ] कहेवामां आव्या छे; [ देहविहीनाः सिद्धाः ] देहरहित एवा सिद्धो छे. [ संसारिणः ] संसारीओ [ भव्याः अभव्याः *पहेलांनां कर्म क्षीण थाय छे अने पछीनां अक्षीणपणे वर्ते छे.
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
जीवाः । तत्र देहप्रवीचारत्वादेकप्रकारत्वेऽपि संसारिणो द्विप्रकाराः भव्या अभव्याश्च । ते शुद्धस्वरूपोपलम्भशक्ति सद्भावासद्भावाभ्यां पाच्यापाच्यमुद्गवदभिधीयन्त इति ।१२०।।
जेमना प्रकारो (पूर्वे) कहेवामां आव्या एवा आ सर्व संसारीओ देहमां वर्तनारा (अर्थात् देहसहित) छे; देहमां नहि वर्तनारा (अर्थात् देहरहित) एवा सिद्धभगवंतो छे — के जेओ शुद्ध जीवो छे. त्यां, देहमां वर्तवानी अपेक्षाए संसारी जीवोनो एक प्रकार होवा छतां तेओ भव्य अने अभव्य एम बे प्रकारना छे. ‘१पाच्य’ अने ‘२अपाच्य’ मगनी माफक, जेमनामां शुद्ध स्वरूपनी ३उपलब्धिनी शक्तिनो सद्भाव छे तेमने ‘भव्य’ अने जेमनामां शुद्ध स्वरूपनी उपलब्धिनी शक्तिनो असद्भाव छे तेमने ‘अभव्य’ कहेवामां आवे छे. १२०.
अन्वयार्थः — [ न हि इंद्रियाणि जीवाः ] (व्यवहारथी कहेवामां आवता एकेन्द्रियादि तथा पृथ्वीकायिकादि ‘जीवो’मां) इन्द्रियो जीव नथी अने [ षट्प्रकाराः प्रज्ञप्ताः कायाः पुनः ] छ प्रकारनी शास्त्रोक्त कायो पण जीव नथी; [ तेषु ] तेमनामां [ यद् ज्ञानं १. पाच्य=पाकवायोग्य; रंधावायोग्य; चडी जवायोग्य; कोरडु न होय एवा. २. अपाच्य=नहि पाकवायोग्य; रंधावानी — चडी जवानी योग्यता रहित; कोरडु. ३. उपलब्धि=प्राप्ति; अनुभव.
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व्यवहारनयेन जीवप्राधान्याज्जीवा इति प्रज्ञाप्यन्ते । निश्चयनयेन तेषु स्पर्शनादीन्द्रियाणि पृथिव्यादयश्च कायाः जीवलक्षणभूतचैतन्यस्वभावाभावान्न जीवा भवन्तीति । तेष्वेव यत्स्वपरपरिच्छित्तिरूपेण प्रकाशमानं ज्ञानं तदेव गुणगुणिनोः कथञ्चिदभेदाज्जीवत्वेन प्ररूप्यत इति ।।१२१।।
टीकाः — आ, व्यवहारजीवत्वना एकांतनी *प्रतिपत्तिनुं खंडन छे (अर्थात् जेने मात्र व्यवहारनयथी जीव कहेवामां आवे छे तेनो खरेखर जीव तरीके स्वीकार करवो उचित नथी एम अहीं समजाव्युं छे).
जे आ एकेन्द्रिय वगेरे तथा पृथ्वीकायिक वगेरे, ‘जीवो’ कहेवामां आवे छे ते, अनादि जीव-पुद्गलनो परस्पर अवगाह देखीने व्यवहारनयथी जीवना प्राधान्य द्वारा ( – जीवने मुख्यता अर्पीने) ‘जीवो’ कहेवामां आवे छे. निश्चयनयथी तेमनामां स्पर्शनादि इन्द्रियो तथा पृथ्वी-आदि कायो, जीवना लक्षणभूत चैतन्यस्वभावना अभावने लीधे, जीव नथी; तेमनामां ज जे स्वपरनी ज्ञप्तिरूपे प्रकाशतुं ज्ञान छे ते ज, गुण-गुणीना कथंचित् अभेदने लीधे, जीवपणे प्ररूपवामां आवे छे. १२१.
अन्वयार्थः — [ जीवः ] जीव [ सर्वम् जानाति पश्यति ] बधुं जाणे छे अने देखे छे, [ सौख्यम् इच्छति ] सुखने इच्छे छे, [ दुःखात् बिभेति ] दुःखथी डरे छे, [ हितम् अहितम् *प्रतिपत्ति=स्वीकार; मान्यता.
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
पुद्गलो, यथाकाशादि । सुखाभिलाषक्रियायाः दुःखोद्वेगक्रियायाः स्वसम्वेदितहिताहित- निर्वर्तनक्रियायाश्च चैतन्यविवर्तरूपसङ्कल्पप्रभवत्वात्स एव कर्ता, नान्यः । शुभाशुभ- कर्मफलभूताया इष्टानिष्टविषयोपभोगक्रियायाश्च सुखदुःखस्वरूपस्वपरिणामक्रियाया इव स एव कर्ता, नान्यः । एतेनासाधारणकार्यानुमेयत्वं पुद्गलव्यतिरिक्त स्यात्मनो द्योतितमिति ।।१२२।। करोति ] हित-अहितने (शुभ-अशुभ भावोने) करे छे [ वा ] अने [ तयोः फलं भुंक्ते ] तेमना फळने भोगवे छे.
टीकाः — आ, अन्यथी असाधारण एवां जीवकार्योनुं कथन छे (अर्थात् अन्य द्रव्योथी असाधारण एवां जे जीवनां कार्यो ते अहीं दर्शाव्यां छे).
चैतन्यस्वभावपणाने लीधे, कर्तृस्थित (कर्तामां रहेली) क्रियानो — ज्ञप्ति तथा द्रशिनो — जीव ज कर्ता छे; तेना संबंधमां रहेलुं पुद्गल तेनुं कर्ता नथी, जेम आकाशादि नथी तेम. (चैतन्यस्वभावने लीधे जाणवानी अने देखवानी क्रियानो जीव ज कर्ता छे; ज्यां जीव छे त्यां चार अरूपी अचेतन द्रव्यो पण छे तोपण तेओ जेम जाणवानी अने देखवानी क्रियानां कर्ता नथी तेम जीवनी साथे संबंधमां रहेलां कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलो पण ते क्रियानां कर्ता नथी.) चैतन्यना विवर्तरूप (-पलटारूप) संकल्पनी उत्पत्ति (जीवमां) थती होवाने लीधे, सुखनी अभिलाषारूप क्रियानो, दुःखना उद्वेगरूप क्रियानो तथा स्वसंवेदित हित-अहितनी निष्पत्तिरूप क्रियानो ( – पोताथी चेतवामां आवता शुभ- अशुभ भावोने रचवारूप क्रियानो) जीव ज कर्ता छे; अन्य नहि. शुभाशुभ कर्मना फळभूत *इष्टानिष्टविषयोपभोगक्रियानो, सुख-दुःखस्वरूप स्वपरिणामक्रियानी माफक, जीव ज कर्ता छे; अन्य नहि.
आथी एम समजाव्युं के (उपरोक्त) असाधारण कार्यो द्वारा पुद्गलथी भिन्न एवो आत्मा अनुमेय ( – अनुमान करी शकावायोग्य) छे.
भावार्थः — शरीर, इन्द्रिय, मन, कर्म वगेरे पुद्गलो के अन्य कोई अचेतन द्रव्यो कदापि जाणतां नथी, देखतां नथी, सुखने इच्छतां नथी, दुःखथी डरतां नथी, *इष्टानिष्ट विषयो जेमां निमित्तभूत होय छे एवा सुखदुःखपरिणामोना उपभोगरूप क्रियाने जीव करतो होवाथी तेने इष्टानिष्ट विषयोना उपभोगरूप क्रियानो कर्ता कहेवामां आवे छे.
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हित-अहितमां प्रवर्ततां नथी के तेमनां फळने भोगवतां नथी; माटे जे जाणे छे अने देखे छे, सुखनी इच्छा करे छे, दुःखना भयनी लागणी करे छे, शुभ-अशुभ भावोमां प्रवर्ते छे अने तेमनां फळने भोगवे छे, ते, अचेतन पदार्थोनी साथे रह्यो होवा छतां सर्व अचेतन पदार्थोनी क्रियाओथी तद्दन विशिष्ट प्रकारनी क्रियाओने करनारो, एक विशिष्ट पदार्थ छे. आम जीव नामनो चैतन्यस्वभावी पदार्थविशेष — के जेने ज्ञानीओ स्वयं स्पष्ट अनुभवे छे ते — तेनी असाधारण क्रियाओ द्वारा अनुमेय पण छे. १२२.
अन्वयार्थः — [ एवम् ] ए रीते [ अन्यैः अपि बहुकैः पर्यायैः ] बीजा पण बहु पर्यायो वडे [ जीवम् अभिगम्य ] जीवने जाणीने [ ज्ञानान्तरितैः लिङ्गैः ] ज्ञानथी अन्य एवां (जड) लिंगो वडे [ अजीवम् अभिगच्छतु ] अजीवने जाणो.
टीकाः — आ, जीव-व्याख्यानना उपसंहारनी अने अजीव-व्याख्यानना प्रारंभनी सूचना छे.
ए रीते आ निर्देश प्रमाणे (अर्थात् उपर संक्षेपमां समजाव्या प्रमाणे), (१) व्यवहारनयथी १कर्मग्रंथप्रतिपादित जीवस्थान – गुणस्थान – मार्गणास्थान इत्यादि १. कर्मग्रंथप्रतिपादित=गोम्मटसारादि कर्मपद्धतिना ग्रंथोमां प्ररूपवामां — निरूपवामां आवेलां
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
विचित्रविकल्परूपैः, निश्चयनयेन मोहरागद्वेषपरिणतिसम्पादितविश्वरूपत्वात्कदाचिदशुद्धैः कदाचित्तदभावाच्छुद्धैश्चैतन्यविवर्तग्रन्थिरूपैर्बहुभिः पर्यायैः जीवमधिगच्छेत् । अधिगम्य चैवम- चैतन्यस्वभावत्वात् ज्ञानादर्थान्तरभूतैरितः प्रपञ्च्यमानैर्लिङ्गैर्जीवसम्बद्धमसम्बद्धं वा स्वतो भेद- बुद्धिप्रसिद्धयर्थमजीवमधिगच्छेदिति ।।१२३।।
परिणमननी — ग्रंथिओ छे; निश्चयनयथी तेमना वडे जीवने जाणो.] ४. ज्ञानथी अर्थांतरभूत=ज्ञानथी अन्यवस्तुभूत; ज्ञानथी अन्य अर्थात् जड. [अजीवनो स्वभाव अचैतन्य
होवाने लीधे ज्ञानथी अन्य एवां जड चिह्नो वडे ते जणाय छे.] ५. जीव साथे संबद्ध के जीव साथे असंबद्ध एवा अजीवने जाणवानुं प्रयोजन ए छे के समस्त अजीव
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तेषामचेतनत्वसामान्यत्वात् । अचेतनत्वसामान्यञ्चाकाशादीनामेव, जीवस्यैव चेतनत्व- सामान्यादिति ।।१२४।।
अन्वयार्थः — [ आकाशकालपुद्गलधर्माधर्मेषु ] आकाश, काळ, पुद्गल, धर्म अने अधर्ममां [ जीवगुणाः न सन्ति ] जीवना गुणो नथी; (कारण के) [ तेषाम् अचेतनत्वं भणितम् ] तेमने अचेतनपणुं कह्युं छे, [ जीवस्य चेतनता ] जीवने चेतनता कही छे.
आकाश, काळ, पुद्गल, धर्म अने अधर्ममां चैतन्यविशेषोरूप जीवगुणो विद्यमान नथी; कारण के ते आकाशादिने अचेतनत्वसामान्य छे. अने अचेतनत्वसामान्य आकाशादिने ज छे, केमके जीवने ज चेतनत्वसामान्य छे. १२४.
अन्वयार्थः — [ सुखदुःखज्ञानं वा ] सुखदुःखनुं ज्ञान, [ हितपरिकर्म ] हितनो उद्यम [ च ] अने [ अहितभीरुत्वम् ] अहितनो भय — [ यस्य नित्यं न विद्यते ] ए जेने सदाय होतां नथी, [ तम् ] तेने [ श्रमणाः ] श्रमणो [ अजीवम् ब्रुवन्ति ] अजीव कहे छे.
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
सुखदुःखज्ञानस्य हितपरिकर्मणोऽहितभीरुत्वस्य चेति चैतन्यविशेषाणां नित्यमनुप- लब्धेरविद्यमानचैतन्यसामान्या एवाकाशादयोऽजीवा इति ।।१२५।।
आकाशादिने सुखदुःखनुं ज्ञान, *हितनो उद्यम अने अहितनो भय — ए चैतन्यविशेषोनी सदा अनुपलब्धि छे (अर्थात् ए चैतन्यविशेषो आकाशादिने कोई काळे जोवामां आवता नथी), तेथी (एम नक्की थाय छे के) आकाशादि अजीवोने चैतन्यसामान्य विद्यमान नथी ज.
भावार्थः — जेने चेतनत्वसामान्य होय तेने चेतनत्वविशेषो होवा ज जोईए. जेने चेतनत्वविशेषो न होय तेने चेतनत्वसामान्य पण न ज होय. हवे, आकाशादि पांच द्रव्योने सुखदुःखनुं संचेतन, हित अर्थे प्रयत्न अने अहितनी भीति — ए चेतनत्वविशेषो कदीये जोवामां आवता नथी; तेथी नक्की थाय छे के आकाशादिने चेतनत्वसामान्य पण नथी, अर्थात् अचेतनत्वसामान्य ज छे. १२५.
*हित अने अहित विषे आचार्यवर श्री जयसेनाचार्यदेवकृत तात्पर्यवृत्ति नामनी टीकामां नीचे प्रमाणे विवरण छेः —
समजे छे अने सर्प, विष, कंटक वगेरेने अहित समजे छे. सम्यग्ज्ञानी जीवो अक्षय अनंत सुखने तथा तेना कारणभूत निश्चयरत्नत्रयपरिणत परमात्मद्रव्यने हित समजे छे अने आकुळताना उत्पादक एवा दुःखने तथा तेना कारणभूत मिथ्यात्वरागादिपरिणत आत्मद्रव्यने अहित समजे छे. पं. २३
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परिणतत्वाच्च इन्द्रियग्रहणयोग्यं, तत्पुद्गलद्रव्यम् । यत्पुनरस्पर्शरसगन्धवर्णगुणत्वादशब्दत्वाद- निर्दिष्टसंस्थानत्वादव्यक्त त्वादिपर्यायैः परिणतत्वाच्च नेन्द्रियग्रहणयोग्यं, तच्चेतनागुणत्वात्
अन्वयार्थः — [ संस्थानानि ] (समचतुरस्रादि) संस्थानो, [ संघाताः ] (औदारिकादि शरीर संबंधी) संघातो, [ वर्णरसस्पर्शगन्धशब्दाः च ] वर्ण, रस, स्पर्श, गंध अने शब्द — [ बहवः गुणाः पर्यायाः च ] एम जे बहु गुणो अने पर्यायो छे, [ पुद्गलद्रव्यप्रभवाः भवन्ति ] ते पुद्गलद्रव्यनिष्पन्न छे.
[ अरसम् अरूपम् अगन्धम् ] जे अरस, अरूप तथा अगंध छे, [ अव्यक्तम् ] अव्यक्त छे, [ अशब्दम् ] अशब्द छे, [ अनिर्दिष्टसंस्थानम् ] अनिर्दिष्टसंस्थान छे (अर्थात् जेनुं कोई संस्थान कह्युं नथी एवो छे), [ चेतनागुणम् ] चेतनागुणवाळो छे अने [ अलिङ्गग्रहणम् ] इंद्रियो वडे अग्राह्य छे, [ जीवं जानीहि ] ते जीव जाणो.
टीकाः — जीव-पुद्गलना संयोगमां पण, तेमना भेदना कारणभूत स्वरूपनुं आ कथन छे (अर्थात् जीव अने पुद्गलना संयोगमां पण, जे वडे तेमनो भेद जाणी शकाय छे एवा तेमना भिन्नभिन्न स्वरूपनुं आ कथन छे).
शरीर अने १शरीरीना संयोगमां, (१) जे खरेखर स्पर्श-रस-गंध-वर्णगुणवाळुं होवाने लीधे, सशब्द होवाने लीधे तथा संस्थान-संघातादि पर्यायोरूपे परिणत होवाने लीधे इन्द्रियग्रहणयोग्य छे, ते पुद्गलद्रव्य छे; अने (२) जे स्पर्श-रस-गंध-वर्णगुण विनानुं होवाने लीधे, अशब्द होवाने लीधे, अनिर्दिष्टसंस्थान होवाने लीधे तथा २अव्यक्तत्वादि १. शरीरी = देही; शरीरवाळो (अर्थात् आत्मा). २. अव्यक्तत्वादि = अव्यक्तत्व वगेरे; अप्रकटत्व वगेरे.
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
रूपिभ्योऽरूपिभ्यश्चाजीवेभ्यो विशिष्टं जीवद्रव्यम् । एवमिह जीवाजीवयोर्वास्तवो भेदः सम्यग्ज्ञानिनां मार्गप्रसिद्धयर्थं प्रतिपादित इति ।।१२६ – १२७।।
उक्तौ मूलपदार्थौ । अथ संयोगपरिणामनिर्वृत्तेतरसप्तपदार्थानामुपोद्घातार्थं जीवपुद्गल- कर्मचक्रमनुवर्ण्यते —
पर्यायोरूपे परिणत होवाने लीधे इन्द्रियग्रहणयोग्य नथी, ते, चेतनागुणमयपणाने लीधे रूपी तेम ज अरूपी अजीवोथी *विशिष्ट (भिन्न) एवुं जीवद्रव्य छे.
आ रीते अहीं जीव अने अजीवनो वास्तविक भेद सम्यग्ज्ञानीओना मार्गनी प्रसिद्धि अर्थे प्रतिपादित करवामां आव्यो.
[भावार्थः — अनादि मिथ्यावासनाने लीधे जीवोने पोते कोण छे तेनुं वास्तविक ज्ञान नथी अने पोताने शरीरादिरूप माने छे. तेमने जीवद्रव्य अने अजीवद्रव्यनो वास्तविक भेद दर्शावी मुक्तिनो मार्ग प्राप्त कराववा अर्थे अहीं जड पुद्गलद्रव्यनां अने चेतन जीवद्रव्यनां वीतरागसर्वज्ञकथित लक्षणो कहेवामां आव्यां. जे जीव ते लक्षणो जाणी, पोताने एक स्वतःसिद्ध स्वतंत्र द्रव्य तरीके ओळखी, भेदविज्ञानी अनुभवी थाय छे, ते निजात्मद्रव्यमां लीन थई मोक्षमार्गने साधी शाश्वत निराकुळ सुखनो भोक्ता थाय छे.
अन्य सात पदार्थोना उपोद्घात अर्थे जीवकर्म अने पुद्गलकर्मनुं चक्र वर्णववामां आवे छे.
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गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते । तेहिं दु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा ।।१२९।। जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि । इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा ।।१३०।।
अन्वयार्थः — [ यः ] जे [ खलु ] खरेखर [ संसारस्थः जीवः ] संसारस्थित जीव छे [ ततः तु परिणामः भवति ] तेनाथी परिणाम थाय छे (अर्थात् तेने स्निग्ध परिणाम थाय छे), [ परिणामात् कर्म ] परिणामथी कर्म अने [ कर्मणः ] कर्मथी [ गतिषु गतिः भवति ] गतिओमां गमन थाय छे.
[ ़गतिम् अधिगतस्य देहः ] गतिप्राप्तने देह थाय छे, [ देहात् इन्द्रियाणि जायन्ते ] देहथी इन्द्रियो थाय छे, [ तैः तु विषयग्रहणं ] इन्द्रियोथी विषयग्रहण अने [ ततः रागः वा द्वेषः वा ] विषयग्रहणथी राग अथवा द्वेष थाय छे.
[ एवं भावः ] ए प्रमाणे भाव, [ संसारचक्रवाले ] संसारचक्रमां [ जीवस्य ] जीवने [ अनादिनिधनः सनिधनः वा ] अनादि-अनंत अथवा अनादि-सांत [ जायते ] थया करे छे — [ इति जिनवरैः भणितः ] एम जिनवरोए कह्युं छे.