Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Punya-Pap Padarth Vyakhyan; Gatha: 131-145 ; Aashrav Padarth Vyakhyan; Samvar Padarth Vyakhyan; Nirjara Padarth Vyakhyan.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
१८१

परिणामात्पुनः पुद्गलपरिणामात्मकं कर्म कर्मणो नारकादिगतिषु गतिः गत्यधि- गमनाद्देहः देहादिन्द्रियाणि इन्द्रियेभ्यो विषयग्रहणम् विषयग्रहणाद्रागद्वेषौ रागद्वेषाभ्यां पुनः स्निग्धः परिणामः परिणामात्पुनः पुद्गलपरिणामात्मकं कर्म कर्मणः पुनर्नारकादिगतिषु गतिः गत्यधिगमनात्पुनर्देहः देहात्पुनरिन्द्रियाणि इन्द्रियेभ्यः पुनर्विषयग्रहणम् विषयग्रहणात्पुना रागद्वेषौ रागद्वेषाभ्यां पुनरपि स्निग्धः परिणामः एवमिदमन्योन्यकार्यकारणभूतजीवपुद्गलपरिणामात्मकं कर्मजालं संसारचक्रे जीवस्यानाद्यनिधनं अनादिसनिधनं वा चक्रवत्परिवर्तते तदत्र पुद्गलपरिणामनिमित्तो जीवपरिणामो जीव- परिणामनिमित्तः पुद्गलपरिणामश्च वक्ष्यमाणपदार्थबीजत्वेन संप्रधारणीय इति ।।१२८१३०।।

टीकाःआ लोकमां संसारी जीवथी अनादि बंधनरूप उपाधिना वशे स्निग्ध परिणाम थाय छे, परिणामथी पुद्गलपरिणामात्मक कर्म, कर्मथी नरकादि गतिओमां गमन, गतिनी प्राप्तिथी देह, देहथी इन्द्रियो, इन्द्रियोथी विषयग्रहण, विषयग्रहणथी रागद्वेष, रागद्वेषथी पाछा स्निग्ध परिणाम, परिणामथी पाछुं पुद्गलपरिणामात्मक कर्म, कर्मथी पाछुं नरकादि गतिओमां गमन, गतिनी प्राप्तिथी पाछो देह, देहथी पाछी इन्द्रियो, इन्द्रियोथी पाछुं विषयग्रहण, विषयग्रहणथी पाछा रागद्वेष, रागद्वेषथी वळी पाछा स्निग्ध परिणाम. ए प्रमाणे आ अन्योन्य *कार्यकारणभूत जीवपरिणामात्मक अने पुद्गलपरिणामात्मक कर्मजाळ संसारचक्रमां जीवने अनादि-अनंतपणे अथवा अनादि- सांतपणे चक्रनी माफक फरीफरीने थया करे छे.

आ रीते अहीं (एम कह्युं के), पुद्गलपरिणाम जेनुं निमित्त छे एवा जीवपरिणाम अने जीवपरिणाम जेनुं निमित्त छे एवा पुद्गलपरिणाम हवे पछी कहेवामां आवनारा (पुण्यादि सात) पदार्थोना बीज तरीके अवधारवा.

भावार्थःजीव अने पुद्गलने परस्पर निमित्त-नैमित्तिकपणे परिणाम थाय छे. ते परिणामने लीधे पुण्यादि पदार्थो उत्पन्न थाय छे, जेमनुं वर्णन हवेनी गाथाओमां करवामां आवशे.

प्रश्नःपुण्यादि सात पदार्थोनुं प्रयोजन जीव अने अजीव ए बेथी ज पूरुं थई जाय छे, कारण के तेओ जीव अने अजीवना ज पर्यायो छे. तो पछी ते सात *कार्य एटले नैमित्तिक, अने कारण एटले निमित्त. [जीवपरिणामात्मक कर्म अने पुद्गल-परिणामात्मक

कर्म परस्पर कार्यकारणभूत अर्थात् नैमित्तिक-निमित्तभूत छे. ते कर्मो कोई जीवने अनादि-अनंत
अने कोई जीवने अनादि-सांत होय छे.]

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१८

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

अथ पुण्यपापपदार्थव्याख्यानम् पदार्थो शा माटे कहेवामां आवे छे?

उत्तरःभव्योने हेय तत्त्व अने उपादेय तत्त्व (अर्थात् हेय तत्त्व अने उपादेय तत्त्वनुं स्वरूप तथा तेमनां कारणो) दर्शाववा अर्थे तेमनुं कथन छे. दुःख ते हेय तत्त्व छे, तेनुं कारण संसार छे, संसारनुं कारण आस्रव अने बंध बे छे (अथवा विस्तारथी कहीए तो पुण्य, पाप, आस्रव अने बंध चार छे) अने तेमनुं कारण मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्र छे. सुख ते उपादेय तत्त्व छे, तेनुं कारण मोक्ष छे, मोक्षनुं कारण संवर अने निर्जरा छे अने तेमनुं कारण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र छे. आ प्रयोजनभूत वात भव्य जीवोने प्रगटपणे दर्शाववा अर्थे पुण्यादि *सात पदार्थोनुं कथन छे. १२८१३०.

हवे पुण्यपापपदार्थोनुं व्याख्यान छे. *अज्ञानी अने ज्ञानी जीव पुण्यादि सात पदार्थोमांथी कया कया पदार्थोना कर्ता छे ते संबंधी आचार्यवर श्री जयसेनाचार्यदेवकृत तात्पर्यवृत्ति नामनी टीकामां नीचे प्रमाणे वर्णन छेः

अज्ञानी जीव निर्विकार स्वसंवेदनना अभावने लीधे पापपदार्थनो तथा आस्रव-बंधपदार्थोनो
कर्ता थाय छे; कदाचित् मंद मिथ्यात्वना उदयथी, देखेलासांभळेलाअनुभवेला भोगोनी
आकांक्षारूप निदानबंध वडे, भविष्यकाळमां पापनो अनुबंध करनारा पुण्यपदार्थनो पण कर्ता थाय
छे. जे ज्ञानी जीव छे ते, निर्विकार-आत्मतत्त्वविषयक रुचि, तद्दविषयक ज्ञप्ति अने तद्दविषयक
निश्चळ अनुभूतिरूप अभेदरत्नत्रयपरिणाम वडे, संवर-निर्जरा-मोक्षपदार्थोनो कर्ता थाय छे; अने
ज्यारे पूर्वोक्त निश्चयरत्नत्रयमां स्थिर रही शकतो नथी त्यारे निर्दोषपरमात्मस्वरूप अर्हंत-
सिद्धोनी तथा तेनुं (
निर्दोष परमात्मानुं) आराधन करनारा आचार्य-उपाध्याय-साधुओनी निर्भर
असाधारण भक्तिरूप एवुं जे संसारविच्छेदना कारणभूत, परंपराए मुक्तिकारणभूत, तीर्थंकरप्रकृति
वगेरे पुण्यनो अनुबंध करनारुं विशिष्ट पुण्य तेने अनीहितवृत्तिए निदानरहित परिणामथी करे
छे. आ रीते अज्ञानी जीव पापादि चार पदार्थोनो कर्ता छे अने ज्ञानी संवरादि त्रण पदार्थोनो
कर्ता छे.
[अहीं ज्ञानीना विशिष्ट पुण्यने संसारविच्छेदना कारणभूत कह्युं त्यां एम समजवुं के
खरेखर तो सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र ज संसारविच्छेदना कारणभूत छे, परंतु ज्यारे ते
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र अपूर्णदशामां होय छे त्यारे तेनी साथे अनिच्छितवृत्तिए वर्तता विशिष्ट
पुण्यमां संसारविच्छेदना कारणपणानो आरोप करवामां आवे छे. ते आरोप पण वास्तविक
कारणनी
सम्यग्दर्शनादिनीहयातीमां ज थई शके.]

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
१८३
मोहो रागो दोसो चित्तपसादो य जस्स भावम्मि
विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो ।।१३१।।
मोहो रागो द्वेषश्चित्तप्रसादः वा यस्य भावे
विद्यते तस्य शुभो वा अशुभो वा भवति परिणामः ।।१३१।।
पुण्यपापयोग्यभावस्वभावाख्यापनमेतत
इह हि दर्शनमोहनीयविपाककलुषपरिणामता मोहः विचित्रचारित्रमोहनीयविपाक-

प्रत्यये प्रीत्यप्रीती रागद्वेषौ तस्यैव मन्दोदये विशुद्धपरिणामता चित्तप्रसादपरिणामः एवमिमे यस्य भावे भवन्ति, तस्यावश्यं भवति शुभोऽशुभो वा परिणामः तत्र यत्र प्रशस्तरागश्चित्तप्रसादश्च तत्र शुभः परिणामः, यत्र तु मोहद्वेषावप्रशस्तरागश्च तत्राऽशुभ इति ।।१३१।।

छे राग, द्वेष, विमोह, चित्तप्रसादपरिणति जेहने,
ते जीवने शुभ वा अशुभ परिणामनो सद्भाव छे. १३१.

अन्वयार्थः[ यस्य भावे ] जेना भावमां [ मोहः ] मोह, [ रागः ] राग, [ द्वेषः ] द्वेष [ वा ] अथवा [ चित्तप्रसादः ] चित्तप्रसन्नता [ विद्यते ] छे, [ तस्य ] तेने [ शुभः वा अशुभः वा ] शुभ अथवा अशुभ [ परिणामः ] परिणाम [ भवति ] छे.

टीकाःआ, पुण्य-पापने योग्य भावना स्वभावनुं (-स्वरूपनुं) कथन छे.

अहीं, दर्शनमोहनीयना विपाकथी जे कलुषित परिणाम ते मोह छे; विचित्र (अनेक प्रकारना) चारित्रमोहनीयनो विपाक जेनो आश्रय (निमित्त) छे एवी प्रीति- अप्रीति ते राग-द्वेष छे; तेना ज (चारित्रमोहनीयना ज) मंद उदये थता जे विशुद्ध परिणाम ते *चित्तप्रसादपरिणाम (मननी प्रसन्नतारूप परिणाम) छे. ए रीते आ (मोह, राग, द्वेष अथवा चित्तप्रसाद) जेना भावमां छे, तेने अवश्य शुभ अथवा अशुभ परिणाम छे. तेमां, ज्यां प्रशस्त राग तथा चित्तप्रसाद छे त्यां शुभ परिणाम छे अने ज्यां मोह, द्वेष तथा अप्रशस्त राग छे त्यां अशुभ परिणाम छे. १३१. * प्रसाद = प्रसन्नता; विशुद्धता; उज्ज्वळता.


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१८

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं ति हवदि जीवस्स
दोण्हं पोग्गलमेत्तो भावो कम्मत्तणं पत्तो ।।१३२।।
शुभपरिणामः पुण्यमशुभः पापमिति भवति जीवस्य
द्वयोः पुद्गलमात्रो भावः कर्मत्वं प्राप्तः ।।१३२।।
पुण्यपापस्वरूपाख्यानमेतत
जीवस्य कर्तुः निश्चयकर्मतामापन्नः शुभपरिणामो द्रव्यपुण्यस्य निमित्तमात्रत्वेन

कारणीभूतत्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्वं भवति भावपुण्यम् एवं जीवस्य कर्तुर्निश्चयकर्मता- मापन्नोऽशुभपरिणामो द्रव्यपापस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणीभूतत्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्वं

शुभ भाव जीवना पुण्य छे ने अशुभ भावो पाप छे;
तेना निमित्ते पौद्गलिक परिणाम कर्मपणुं लहे. १३२.

अन्वयार्थः[ जीवस्य ] जीवना [ शुभपरिणामः ] शुभ परिणाम [ पुण्यम् ] पुण्य छे अने [ अशुभः ] अशुभ परिणाम [ पापम् इति भवति ] पाप छे; [ द्वयोः ] ते बंने द्वारा [ पुद्गलमात्रः भावः ] पुद्गलमात्र भाव [ कर्मत्वं प्राप्तः ] कर्मपणाने पामे छे (अर्थात जीवना पुण्य-पापभावना निमित्ते शाता-अशातावेदनीयादि पुद्गलमात्र परिणाम व्यवहारथी जीवनुं कर्म कहेवाय छे).

टीकाःआ, पुण्य-पापना स्वरूपनुं कथन छे.

जीवरूप कर्ताना *निश्चयकर्मभूत शुभपरिणाम द्रव्यपुण्यने निमित्तमात्रपणे कारणभूत छे तेथी ‘द्रव्यपुण्यास्रव’ना प्रसंगने अनुसरीने (अनुलक्षीने) ते शुभपरिणाम ‘भावपुण्य’ छे. (शातावेदनीयादि द्रव्यपुण्यास्रवनो जे प्रसंग बने छे तेमां जीवना शुभपरिणाम निमित्तकारण छे माटे ‘द्रव्यपुण्यास्रव’प्रसंगनी पाछळ पाछळ तेना निमित्तभूत शुभपरिणामने पण ‘भावपुण्य’ एवुं नाम छे.) एवी रीते जीवरूप कर्ताना निश्चयकर्मभूत अशुभपरिणाम द्रव्यपापने निमित्तमात्रपणे कारणभूत छे तेथी ‘द्रव्यपापास्रव’ना प्रसंगने अनुसरीने (अनुलक्षीने) ते अशुभपरिणाम ‘भावपाप’ छे. *जीव कर्ता छे अने शुभपरिणाम तेनुं (अशुद्धनिश्चनये) निश्चयकर्म छे.


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
१८५

भावपापम् पुद्गलस्य कर्तुर्निश्चयकर्मतामापन्नो विशिष्टप्रकृतित्वपरिणामो जीवशुभ- परिणामनिमित्तो द्रव्यपुण्यम् पुद्गलस्य कर्तुर्निश्चयकर्मतामापन्नो विशिष्टप्रकृतित्वपरिणामो जीवाशुभपरिणामनिमित्तो द्रव्यपापम् एवं व्यवहारनिश्चयाभ्यामात्मनो मूर्तममूर्तञ्च कर्म प्रज्ञापितमिति ।।१३२।।

जम्हा कम्मस्स फलं विसयं फासेहिं भुंजदे णियदं
जीवेण सुहं दुक्खं तम्हा कम्माणि मुत्ताणि ।।१३३।।
यस्मात्कर्मणः फलं विषयः स्पर्शैर्भुज्यते नियतम्
जीवेन सुखं दुःखं तस्मात्कर्माणि मूर्तानि ।।१३३।।

पुद्गलरूप कर्ताना *निश्चयकर्मभूत विशिष्टप्रकृतिरूप परिणाम (शातावेदनीयादि खास प्रकृतिरूप परिणाम)के जेमां जीवना शुभपरिणाम निमित्त छे तेद्रव्यपुण्य छे. पुद्गलरूप कर्ताना निश्चयकर्मभूत विशिष्टप्रकृतिरूप परिणाम (अशातावेदनीयादि खास प्रकृतिरूप परिणाम)के जेमां जीवना अशुभपरिणाम निमित्त छे तेद्रव्यपाप छे.

आ प्रमाणे व्यवहार तथा निश्चय वडे आत्माने मूर्त तथा अमूर्त कर्म दर्शाववामां आव्युं.

भावार्थःनिश्चयथी जीवना अमूर्त शुभाशुभपरिणामरूप भावपुण्यपाप जीवनुं कर्म छे. शुभाशुभपरिणाम द्रव्यपुण्यपापनुं निमित्तकारण होवाने लीधे मूर्त एवां ते पुद्गलपरिणामरूप (शाता-अशातावेदनीयादि) द्रव्यपुण्यपाप व्यवहारथी जीवनुं कर्म कहेवाय छे. १३२.

छे कर्मनुं फळ विषय, तेने नियमथी अक्षो वडे
जीव भोगवे दुःखे-सुखे, तेथी करम ते मूर्त छे. १३३.

अन्वयार्थः[ यस्मात् ] कारण के [ कर्मणः फलं ] कर्मनुं फळ [ विषयः ] जे (मूर्त) विषय ते [ नियतम् ] नियमथी [ स्पर्शैः ] (मूर्त एवी) स्पर्शनादिइन्द्रियो द्वारा [ जीवेन ] जीव *पुद्गल कर्ता छे अने विशिष्टप्रकृतिरूप परिणाम तेनुं निश्चयकर्म छे (अर्थात् निश्चयथी पुद्गल

कर्ता छे अने शातावेदनीयादि खास प्रकृतिरूप परिणाम तेनुं कर्म छे). पं. २४


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१८

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
मूर्तकर्मसमर्थनमेतत
यतो हि कर्मणां फलभूतः सुखदुःखहेतुविषयो मूर्तो मूर्तैरिन्द्रियैर्जीवेन नियतं

भुज्यते, ततः कर्मणां मूर्तत्वमनुमीयते तथाहिमूर्तं कर्म, मूर्तसम्बम्धेनानुभूयमानमूर्त- फलत्वादाखुविषवदिति ।।१३३।।

मुत्तो फासदि मुत्तं मुत्तो मुत्तेण बंधमणुहवदि
जीवो मुत्तिविरहिदो गाहदि ते तेहिं उग्गहदि ।।१३४।।
मूर्तः स्पृशति मूर्तं मूर्तो मूर्तेन बन्धमनुभवति
जीवो मूर्तिविरहितो गाहति तानि तैरवगाह्यते ।।१३४।।
वडे [ सुखं दुःखं ] सुखे अथवा दुःखे [ भुज्यते ] भोगवाय छे, [ तस्मात् ] तेथी [ कर्माणि ]
कर्मो [ मूर्तानि ] मूर्त छे.
टीकाःआ, मूर्त कर्मनुं समर्थन छे.

कर्मनुं फळ जे सुखदुःखना हेतुभूत मूर्त विषय ते नियमथी मूर्त इन्द्रियो द्वारा जीव वडे भोगवाय छे, तेथी कर्मना मूर्तपणानुं अनुमान थई शके छे. ते आ प्रमाणेःजेम मूषकविष मूर्त छे तेम कर्म मूर्त छे, कारण के (मूषकविषना फळनी माफक) मूर्तना संबंध द्वारा अनुभवातुं एवुं मूर्त तेनुं फळ छे. [उंदरना झेरनुं फळ (शरीरमां सोजा थवा, ताव आववो वगेरे) मूर्त छे अने मूर्त शरीरना संबंध द्वारा अनुभवायभोगवाय छे, तेथी अनुमान थई शके छे के उंदरनुं झेर मूर्त छे; तेवी रीते कर्मनुं फळ (विषयो) मूर्त छे अने मूर्त इन्द्रियोना संबंध द्वारा अनुभवायभोगवाय छे, तेथी अनुमान थई शके छे के कर्म मूर्त छे.] १३३.

मूरत मूरत स्पर्शे अने मूरत मूरत बंधन लहे;
आत्मा अमूरत ने करम अन्योन्य अवगाहन लहे. १३४.

अन्वयार्थः[ मूर्तः मूर्तं स्पृशति ] मूर्त मूर्तने स्पर्शे छे, [ मूर्तः मूर्तेन ] मूर्त मूर्तनी साथे [ बन्धम् अनुभवति ] बंध पामे छे; [ मूर्तिविरहितः जीवः ] मूर्तत्वरहित जीव [ तानि गाहति ] मूर्तकर्मोने अवगाहे छे अने [ तैः अवगाह्यते ] मूर्तकर्मो जीवने अवगाहे छे (अर्थात बंने एकबीजामां अवगाह पामे छे).


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
१८७
मूर्तकर्मणोरमूर्तजीवमूर्तकर्मणोश्च बन्धप्रकारसूचनेयम्
इह हि संसारिणि जीवेऽनादिसन्तानेन प्रवृत्तमास्ते मूर्तकर्म तत्स्पर्शादिमत्त्वादागामि

मूर्तकर्म स्पृशति, ततस्तन्मूर्तं तेन सह स्नेहगुणवशाद्बन्धमनुभवति एष मूर्तयोः कर्मणोर्बन्धप्रकारः अथ निश्चयनयेनामूर्तो जीवोऽनादिमूर्तकर्मनिमित्तरागादिपरिणामस्निग्धः सन् विशिष्टतया मूर्तानि कर्माण्यवगाहते, तत्परिणामनिमित्तलब्धात्मपरिणामैः मूर्तकर्मभिरपि विशिष्टतयाऽवगाह्यते च अयं त्वन्योन्यावगाहात्मको जीवमूर्तकर्मणोर्बन्धप्रकारः एवममूर्तस्यापि जीवस्य मूर्तेन पुण्यपापकर्मणा कथञ्चिद्बन्धो न विरुध्यते ।।१३४।।

इति पुण्यपापपदार्थव्याख्यानम्
अथ आस्रवपदार्थव्याख्यानम्

टीकाःआ, मूर्तकर्मनो मूर्तकर्मनी साथे जे बंधप्रकार तथा अमूर्त जीवनो मूर्तकर्मनी साथे जे बंधप्रकार तेनी सूचना छे.

अहीं (आ लोकमां), संसारी जीवने विषे अनादि संततिथी (प्रवाहथी) प्रवर्ततुं थकुं मूर्तकर्म विद्यमान छे. ते, स्पर्शादिवाळुं होवाने लीधे, आगामी मूर्तकर्मने स्पर्शे छे; तेथी मूर्त एवुं ते तेनी साथे, स्निग्धत्वगुणना वशे (पोताना स्निग्धरूक्षत्वपर्यायने लीधे), बंधने पामे छे. आ, मूर्तकर्मनो मूर्तकर्मनी साथे बंधप्रकार छे.

वळी (अमूर्त जीवनो मूर्तकर्मोनी साथे बंधप्रकार आ प्रमाणे छे के), निश्चयनयथी जे अमूर्त छे एवो जीव, अनादि मूर्तकर्म जेनुं निमित्त छे एवा रागादिपरिणाम वडे स्निग्ध वर्ततो थको, मूर्तकर्मोने विशिष्टपणे अवगाहे छे (अर्थात् एकबीजाने परिणाममां निमित्तमात्र थाय एवा संबंधविशेष सहित मूर्तकर्मोना क्षेत्रमां व्यापे छे) अने ते रागादिपरिणामना निमित्ते जेओ पोताना (ज्ञानावरणीयादि) परिणामने पामे छे एवां मूर्तकर्मो पण जीवने विशिष्टपणे अवगाहे छे (अर्थात् जीवना प्रदेशो साथे विशिष्टतापूर्वक एकक्षेत्रावगाहने पामे छे). आ, जीव अने मूर्तकर्मनो अन्योन्य-अवगाहस्वरूप बंधप्रकार छे. आ रीते अमूर्त एवा जीवनो पण मूर्त पुण्यपापकर्मनी साथे कथंचित् (कोई प्रकारे) बंध विरोध पामतो नथी. १३४.

आ रीते पुण्य-पापपदार्थनुं व्याख्यान समाप्त थयुं.
हवे आस्रवपदार्थनुं व्याख्यान छे.

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१८

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदो य परिणामो
चित्तम्हि णत्थि कलुसं पुण्णं जीवस्स आसवदि ।।१३५।।
रागो यस्य प्रशस्तोऽनुकम्पासंश्रितश्च परिणामः
चित्ते नास्ति कालुष्यं पुण्यं जीवस्यास्रवति ।।१३५।।
पुण्यास्रवस्वरूपाख्यानमेतत
प्रशस्तरागोऽनुकम्पापरिणतिः चित्तस्याकलुषत्वञ्चेति त्रयः शुभा भावाः

द्रव्यपुण्यास्रवस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणभूतत्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्वं भावपुण्यास्रवः तन्निमित्तः शुभकर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यपुण्यास्रव इति ।।१३५।।

छे रागभाव प्रशस्त, अनुकंपासहित परिणाम छे,
मनमां नहीं कालुष्य छे, त्यां पुण्य-आस्रव होय छे. १३५.

अन्वयार्थः[ यस्य ] जे जीवने [ प्रशस्तः रागः ] प्रशस्त राग छे, [ अनुकम्पासंश्रितः परिणामः ] अनुकंपायुक्त परिणाम छे [ च ] अने [ चित्ते कालुष्यं न अस्ति ] चित्तमां कलुषतानो अभाव छे, [ जीवस्य ] ते जीवने [ पुण्यं आस्रवति ] पुण्य आस्रवे छे.

टीकाःआ, पुण्यास्रवना स्वरूपनुं कथन छे.

प्रशस्त राग, अनुकंपापरिणति अने चित्तनी अकलुषताए त्रण शुभ भावो द्रव्यपुण्यास्रवने निमित्तमात्रपणे कारणभूत छे तेथी ‘द्रव्यपुण्यास्रव’ना प्रसंगने *अनुसरीने (अनुलक्षीने) ते शुभ भावो भावपुण्यास्रव छे अने ते (शुभ भावो) जेनुं निमित्त छे एवा जे योगद्वारा प्रवेशतां पुद्गलोना शुभकर्मपरिणाम (शुभकर्मरूप परिणाम) ते द्रव्यपुण्यास्रव छे. १३५. *शातावेदनीयादि पुद्गलपरिणामरूप द्रव्यपुण्यास्रवनो जे प्रसंग बने छे तेमां जीवना प्रशस्त-रागादि शुभ भावो निमित्तकारण छे माटे ‘द्रव्यपुण्यास्रव’प्रसंगनी पाछळ पाछळ तेना निमित्तभूत शुभ भावोने पण ‘भावपुण्यास्रव’ एवुं नाम छे.


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
१८९
अरहंतसिद्धसाहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा
अणुगमणं पि गुरूणं पसत्थरागो त्ति वुच्चंति ।।१३६।।
अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्ति र्धर्मे या च खलु चेष्टा
अनुगमनमपि गुरूणां प्रशस्तराग इति ब्रुवन्ति ।।१३६।।
प्रशस्तरागस्वरूपाख्यानमेतत
अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्ति :, धर्मे व्यवहारचारित्रानुष्ठाने वासनाप्रधाना चेष्टा,
अर्हंत-साधु-सिद्ध प्रत्ये भक्ति, चेष्टा धर्ममां,
गुरुओ तणुं अनुगमनए परिणाम राग प्रशस्तना. १३६.

अन्वयार्थः[ अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्तिः ] अर्हंत-सिद्ध-साधुओ प्रत्ये भक्ति, [ धर्मे या च खलु चेष्टा ] धर्ममां खरेखर चेष्टा [ अनुगमनम् अपि गुरूणाम् ] अने गुरुओनुं अनुगमन, [ प्रशस्तरागः इति ब्रुवन्ति ] ते ‘प्रशस्त राग’ कहेवाय छे.

टीकाःआ, प्रशस्त रागना स्वरूपनुं कथन छे.
अर्हंत - सिद्ध - साधुओ प्रत्ये भक्ति, धर्ममांव्यवहारचारित्रना

१. अर्हंत-सिद्ध-साधुओमां अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधु पांचेय समाई जाय छे [कारण के ‘साधुओ’मां आचार्य, उपाध्याय अने साधु त्रण समाय छे].

[निर्दोष परमात्माथी प्रतिपक्षभूत एवां आर्त-रौद्रध्यानो वडे उपार्जित जे ज्ञानावरणीयादि प्रकृतिओ तेमनो, रागादिविकल्परहित धर्म-शुकलध्यानो वडे विनाश करीने, जेओ क्षुधादि अढार दोष रहित अने केवळज्ञानादि अनंत चतुष्टय सहित थया, तेओ अर्हंतो कहेवाय छे.

लौकिक अंजनसिद्ध वगेरेथी विलक्षण एवा जेओ ज्ञानावरणीयादि-अष्टकर्मना अभावथी सम्यक्त्वादि-अष्टगुणात्मक छे अने लोकाग्रे वसे छे, तेओ सिद्धो छे.

विशुद्ध ज्ञानदर्शन जेनो स्वभाव छे एवा आत्मतत्त्वनी निश्चयरुचि, तेवी ज ज्ञप्ति, तेवी ज निश्चळ-अनुभूति, परद्रव्यनी इच्छाना परिहारपूर्वक ते ज आत्मद्रव्यमां प्रतपन अर्थात् तपश्चरण अने स्वशक्तिने गोपव्या विना तेवुं ज अनुष्ठानआवा निश्चयपंचाचारने तथा तेना साधक व्यवहार- पंचाचारनेके जेनी विधि आचारादिशास्त्रोमां कही छे तेनेएटले के उभय आचारने जेओ पोते आचरे छे अने बीजाओने अचरावे छे, तेओ आचार्यो छे.

पांच अस्तिकायोमां शुद्धजीवास्तिकायने, छ द्रव्योमां शुद्धजीवद्रव्यने, सात तत्त्वोमां शुद्धजीवतत्त्वने

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१९०

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

गुरूणामाचार्यादीनां रसिकत्वेनानुगमनम्एषः प्रशस्तो रागः प्रशस्तविषयत्वात अयं हि स्थूललक्ष्यतया केवलभक्ति प्रधानस्याज्ञानिनो भवति उपरितनभूमिकायामलब्धा- स्पदस्यास्थानरागनिषेधार्थं तीव्ररागज्वरविनोदार्थं वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवतीति ।।१३६।।

तिसिदं व भुक्खिदं वा दुहिदं दट्ठूण जो दु दुहिदमणो
पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकंपा ।।१३७।।
तृषितं बुभुक्षितं वा दुःखितं द्रष्ट्वा यस्तु दुःखितमनाः
प्रतिपद्यते तं कृपया तस्यैषा भवत्यनुकम्पा ।।१३७।।
अनुष्ठानमांभावनाप्रधान चेष्टा अने गुरुओनुंआचार्यादिनुंरसिकपणे
अनुगमन, ते ‘प्रशस्त राग’ छे कारण के तेनो विषय प्रशस्त छे.

आ (प्रशस्त राग) खरेखर, जे स्थूल-लक्ष्यवाळो होवाथी केवळ भक्तिप्रधान छे एवा अज्ञानीने होय छे; उपरनी भूमिकामां (उपरनां गुणस्थानोमां) स्थिति प्राप्त न करी होय त्यारे, अस्थाननो राग अटकाववा अर्थे अथवा तीव्र रागज्वर हठाववा अर्थे, कदाचित् ज्ञानीने पण होय छे. १३६.

दुःखित, तृषित वा क्षुधित देखी दुःख पामी मन विषे
करुणाथी वर्ते जेह, अनुकंपा सहित ते जीव छे. १३७.

अन्वयार्थः[ तृषितं ] तृषातुर, [ बुभुक्षितं ]क्षुधातुर [ वा ] अथवा [ दुःखितं ] दुःखीने [ द्रष्ट्वा ] देखी [ यः तु ] जे जीव [ दुःखितमनाः ] मनमां दुःख पामतो थको [ तं

अने नव पदार्थोमां शुद्धजीवपदार्थने जेओ निश्चयनये उपादेय कहे छे तेम ज भेदाभेदरत्नत्रयस्वरूप
मोक्षमार्गने प्ररूपे छे अने पोते भावे (
अनुभवे) छे, तेओ उपाध्यायो छे.

निश्चय-चतुर्विध-आराधना वडे जेओ शुद्ध आत्मस्वरूपने साधे छे, तेओ साधुओ छे.] १. अनुष्ठान = आचरण; आचरवुं ते; अमलमां मूकवुं ते. २. भावनाप्रधान चेष्टा = भावप्रधान प्रवृत्ति; शुभभावप्रधान व्यापार. ३. अनुगमन = अनुसरण; आज्ञांकितपणुं; अनुकूळ वर्तवुं ते. [

गुरुओ प्रत्ये रसिकपणे (उल्लासथी,

होंशथी) आज्ञांकित वर्तवुं ते प्रशस्त राग छे.] ४. अज्ञानीनुं लक्ष्य (ध्येय) स्थूळ होय छे तेथी तेने केवळ भक्तिनुं ज प्रधानपणुं होय छे. ५. अस्थाननो = अयोग्य स्थाननो, अयोग्य विषय प्रत्येनो; अयोग्य पदार्थोने अवलंबनारो.


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
१९१
अनुकम्पास्वरूपाख्यानमेतत
कञ्चिदुदन्यादिदुःखप्लुतमवलोक्य करुणया तत्प्रतिचिकीर्षाकुलितचित्तत्वमज्ञानिनो-

ऽनुकम्पा ज्ञानिनस्त्वधस्तनभूमिकासु विहरमाणस्य जन्मार्णवनिमग्नजगदवलोकनान्मनाग्मनः- खेद इति ।।१३७।।

कोधो व जदा माणो माया लोभो व चित्तमासेज्ज
जीवस्स कुणदि खोहं कलुसो त्ति य तं बुधा बेंति ।।१३८।।
क्रोधो वा यदा मानो माया लोभो वा चित्तमासाद्य
जीवस्य करोति क्षोभं कालुष्यमिति च तं बुधा ब्रुवन्ति ।।१३८।।
कृपया प्रतिपद्यते ] तेना प्रत्ये करुणाथी वर्ते छे, [ तस्य एषा अनुकम्पा भवति ] तेनो ए भाव
अनुकंपा छे.
टीकाःआ, अनुकंपाना स्वरूपनुं कथन छे.

कोई तृषादिदुःखथी पीडित प्राणीने देखी करुणाने लीधे तेनो प्रतिकार (उपाय) करवानी इच्छाथी चित्तमां आकुळता थवी ते अज्ञानीनी अनुकंपा छे. ज्ञानीनी अनुकंपा तो, नीचली भूमिकाओमां विहरतां (पोते नीचेनां गुणस्थानोमां वर्ततो होय त्यारे), जन्मार्णवमां निमग्न जगतना अवलोकनथी (अर्थात् संसारसागरमां डूबेला जगतने देखवाथी) मनमां जरा खेद थवो ते छे.* १३७.

मद-क्रोध अथवा लोभ-माया चित्त-आश्रय पामीने
जीवने करे जे क्षोभ, तेने कलुषता ज्ञानी कहे. १३८.

अन्वयार्थः[ यदा ] ज्यारे [ क्रोधः वा ] क्रोध, [ मानः ] मान, [ माया ] माया [ वा ] अथवा [ लोभः ] लोभ [ चित्तम् आसाद्य ] चित्तनो आश्रय पामीने [ जीवस्य ] जीवने *आ गाथानी आचार्यवर श्री जयसेनाचार्यदेवकृत टीकामां आ प्रमाणे विवरण छेःतीव्र तृषा, तीव्र

क्षुधा, तीव्र रोग वगेरेथी पीडित प्राणीने देखी अज्ञानी जीव ‘कोई पण प्रकारे हुं आनो प्रतिकार करुं’
एम व्याकुळ थईने अनुकंपा करे छे; ज्ञानी तो स्वात्मभावनाने नहि प्राप्त करतो थको (
अर्थात
निजात्माना अनुभवनी उपलब्धि न थती होय त्यारे), संक्लेशना परित्याग वडे (अशुभ भावने
छोडीने) यथासंभव प्रतिकार करे छे तथा तेने दुःखी देखीने विशेष संवेग अने वैराग्यनी भावना करेउंछे.

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१९

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
चित्तकलुषत्वस्वरूपाख्यानमेतत
क्रोधमानमायालोभानां तीव्रोदये चित्तस्य क्षोभः कालुष्यम् तेषामेव मन्दोदये

तस्य प्रसादोऽकालुष्यम् तत् कादाचित्कविशिष्टकषायक्षयोपशमे सत्यज्ञानिनो भवति कषायोदयानुवृत्तेरसमग्रव्यावर्तितोपयोगस्यावान्तरभूमिकासु कदाचित् ज्ञानिनोऽपि भवतीति ।।१३८।।

चरिया पमादबहुला कालुस्सं लोलदा य विसएसु
परपरिदावपवादो पावस्स य आसवं कुणदि ।।१३९।।
चर्या प्रमादबहुला कालुष्यं लोलता च विषयेषु
परपरितापापवादः पापस्य चास्रवं करोति ।।१३९।।

[ क्षोभं करोति ] क्षोभ करे छे, त्यारे [ तं ] तेने [ बुधाः ] ज्ञानीओ [ कालुष्यम् इति च ब्रुवन्ति ] ‘कलुषता’ कहे छे.

टीकाःआ, चित्तनी कलुषताना स्वरूपनुं कथन छे.

क्रोध, मान, माया अने लोभना तीव्र उदये चित्तनो क्षोभ ते कलुषता छे. तेमना ज (क्रोधादिना ज) मंद उदये चित्तनी प्रसन्नता ते अकलुषता छे. ते अकलुषता, कदाचित् कषायनो विशिष्ट (खास प्रकारनो) क्षयोपशम होतां, अज्ञानीने होय छे; कषायना उदयने अनुसरती परिणतिमांथी उपयोगने *असमग्रपणे पाछो वाळ्यो होय त्यारे (अर्थात् कषायना उदयने अनुसरता परिणमनमांथी उपयोगने पूरो पाछो वाळ्यो न होय त्यारे), मध्यम भूमिकाओमां (मध्यम गुणस्थानोमां), कदाचित् ज्ञानीने पण होय छे. १३८.

चर्या प्रमादभरी, कलुषता, लुब्धता विषयो विषे,
परिताप ने अपवाद परना, पाप-आस्रवने करे. १३९.

अन्वयार्थः[ प्रमादबहुला चर्या ] बहु प्रमादवाळी चर्या, [ कालुष्यं ] कलुषता, [ विषयेषु च लोलता ] विषयो प्रत्ये लोलुपता, [ परपरितापापवादः ] परने परिताप करवो तथा परना अपवाद बोलवा[ पापस्य च आस्रवं करोति ] पापनो आस्रव करे छे. *असमग्रपणे = अपूर्णपणे; अधूरापणे; अंशे.


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
१९३
पापास्रवस्वरूपाख्यानमेतत
प्रमादबहुलचर्यापरिणतिः, कालुष्यपरिणतिः, विषयलौल्यपरिणतिः, परपरिताप-

परिणतिः, परापवादपरिणतिश्चेति पञ्चाशुभा भावा द्रव्यपापास्रवस्य निमित्तमात्रत्वेन कारण- भूतत्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्वं भावपापास्रवः तन्निमित्तोऽशुभकर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यपापास्रव इति ।।१३९।।

सण्णाओ य तिलेस्सा इंदियवसदा य अट्टरुद्दाणि
णाणं च दुप्पउत्तं मोहो पावप्पदा होंति ।।१४०।।
संज्ञाश्च त्रिलेश्या इन्द्रियवशता चार्तरौद्रे
ज्ञानं च दुःप्रयुक्तं मोहः पापप्रदा भवन्ति ।।१४०।।
टीकाःआ, पापास्रवना स्वरूपनुं कथन छे.

बहु प्रमादवाळी चर्यारूप परिणति (बहु प्रमादथी भरेला आचरणरूप परिणति), कलुषतारूप परिणति, विषयलोलुपतारूप परिणति, परपरितापरूप परिणति (परने दुःख देवारूप परिणति) अने परना अपवादरूप परिणतिए पांच अशुभ भावो द्रव्यपापास्रवने निमित्तमात्रपणे कारणभूत छे तेथी ‘द्रव्यपापास्रव’ना प्रसंगने *अनुसरीने (अनुलक्षीने) ते अशुभ भावो भावपापास्रव छे अने ते (अशुभ भावो) जेनुं निमित्त छे एवा जे योगद्वारा प्रवेशतां पुद्गलोना अशुभकर्मपरिणाम (अशुभकर्मरूप परिणाम) ते द्रव्यपापास्रव छे. १३९.

संज्ञा, त्रिलेश्या, इन्द्रिवशता, आर्तरौद्र ध्यान बे,
वळी मोह ने दुर्युक्त ज्ञान प्रदान पाप तणुं करे. १४०.

अन्वयार्थः[ संज्ञाः च ] (चारेय) संज्ञाओ, [ त्रिलेश्याः ] त्रण लेश्या, [ इन्द्रियवशता च ] इन्द्रियवशता, [ आर्तरौद्रे ] आर्त-रौद्रध्यान, [ दुःप्रयुक्तं ज्ञानं ] दुःप्रयुक्त ज्ञान (दुष्टपणे अशुभ कार्यमां जोडायेलुं ज्ञान) [ च ] अने [ मोहः ] मोह *अशातावेदनीयादि पुद्गलपरिणामरूप द्रव्यपापास्रवनो जे प्रसंग बने छे तेमां जीवना अशुभ भावो निमित्तकारण छे माटे ‘द्रव्यपापास्रव’प्रसंगनी पाछळ पाछळ तेना निमित्तभूत अशुभ भावोने पण ‘भावपापास्रव’ एवुं नाम छे. पं. २५


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१९

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
पापास्रवभूतभावप्रपञ्चाख्यानमेतत
तीव्रमोहविपाकप्रभवा आहारभयमैथुनपरिग्रहसञ्ज्ञाः, तीव्रकषायोदयानुरञ्जितयोग-

प्रवृत्तिरूपाः कृष्णनीलकापोतलेश्यास्तिस्रः, रागद्वेषोदयप्रकर्षादिन्द्रियाधीनत्वम्, राग- द्वेषोद्रेकात्प्रियसंयोगाप्रियवियोगवेदनामोक्षणनिदानाकाञ्क्षणरूपमार्तम्, कषायक्रूराशयत्वाद्धिंसा- ऽसत्यस्तेयविषयसंरक्षणानन्दरूपं रौद्रम्, नैष्कर्म्यं तु शुभकर्मणश्चान्यत्र दुष्टतया प्रयुक्तं ज्ञानम्, सामान्येन दर्शनचारित्रमोहनीयोदयोपजनिताविवेकरूपो मोहः,एषः भावपापास्रव-प्रपञ्चो द्रव्यपापास्रवप्रपञ्चप्रदो भवतीति ।।१४०।।

इति आस्रवपदार्थव्याख्यानं समाप्तम्

अथ संवरपदार्थव्याख्यानम् [ पापप्रदाः भवन्ति ] ए भावो पापप्रद छे.

टीकाःआ, पापास्रवभूत भावोना विस्तारनुं कथन छे.

तीव्र मोहना विपाकथी उत्पन्न थती आहार-भय-मैथुन-परिग्रहसंज्ञाओ; तीव्र कषायना उदयथी अनुरंजित योगप्रवृत्तिरूप कृष्ण-नील-कापोत नामनी त्रण लेश्या; रागद्वेषना उदयना प्रकर्षने लीधे वर्ततुं इन्द्रियाधीनपणुं; रागद्वेषना उद्रेकने लीधे प्रियना संयोगने, अप्रियना वियोगने, वेदनामांथी छुटकाराने तथा निदानने इच्छवारूप आर्तध्यान; कषाय वडे क्रूर एवा परिणामने लीधे थतुं हिंसानंद, असत्यानंद, स्तेयानंद अने विषयसंरक्षणानंदरूप रौद्रध्यान; वगरप्रयोजने (नकामुं) शुभ कर्मथी अन्यत्र (अशुभ कार्यमां) दुष्टपणे जोडायेलुं ज्ञान; अने सामान्यपणे दर्शनचारित्रमोहनीयना उदयथी उत्पन्न अविवेकरूप मोह;आ, भावपापास्रवनो विस्तार द्रव्यपापास्रवना विस्तारने देनारो छे (अर्थात् उपरोक्त भावपापास्रवरूप अनेकविध भावो तेवा तेवा अनेकविध द्रव्यपापास्रवमां निमित्तभूत छे). १४०.

आ रीते आस्रवपदार्थनुं व्याख्यान समाप्त थयुं.
हवे संवरपदार्थनुं व्याख्यान छे.

१. अनुरंजित = रंगायेल. [कषायना उदयथी अनुरंजित योगप्रवृत्ति ते लेश्या छे. त्यां, कृष्णादि त्रण

लेश्याओ तीव्र कषायना उदयथी अनुरंजित योगप्रवृत्तिरूप छे.] २. प्रकर्ष = उत्कर्ष; उग्रता ३. उद्रेक = पुष्कळता; वधारो. ४. क्रूर = निर्दय; कठोर; उग्र.


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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
१९५
इंदियकसायसण्णा णिग्गहिदा जेहिं सुट्ठु मग्गम्हि
जावत्तावत्तेसिं पिहिदं पावासवच्छिद्दं ।।१४१।।
इन्द्रियकषायसंज्ञा निगृहीता यैः सुष्ठु मार्गे
यावत्तावत्तेषां पिहितं पापास्रवछिद्रम् ।।१४१।।
अनन्तरत्वात्पापस्यैव संवराख्यानमेतत
मार्गो हि संवरस्तन्निमित्तमिन्द्रियाणि कषायाः संज्ञाश्च यावतांशेन यावन्तं वा

कालं निगृह्यन्ते तावतांशेन तावन्तं वा कालं पापास्रवद्वारं पिधीयते इन्द्रियकषाय- संज्ञाः भावपापास्रवो द्रव्यपापास्रवहेतुः पूर्वमुक्त : इह तन्निरोधो भावपापसंवरो द्रव्यपाप- संवरहेतुरवधारणीय इति ।।१४१।।

मार्गे रही संज्ञा-कषायो-इन्द्रिनो निग्रह करे,
पापासरवनुं छिद्र तेने तेटलुं रूंधाय छे. १४१.

अन्वयार्थः[ यैः ] जेओ [ सुष्ठु मार्गे ] सारी रीते मार्गमां रहीने [ इन्द्रियकषायसंज्ञाः ] इन्द्रियो, कषायो अने संज्ञाओनो [ यावत् निगृहीताः ] जेटलो निग्रह करे छे, [ तावत् ] तेटलुं [ पापास्रवछिद्रम् ] पापास्रवनुं छिद्र [ तेषाम् ] तेमने [ पिहितम् ] बंध थाय छे.

टीकाःपापनी अनंतर होवाथी, पापना ज संवरनुं आ कथन छे (अर्थात पापना कथन पछी तुरत ज होवाथी, अहीं पापना ज संवरनुं कथन करवामां आव्युं छे).

मार्ग खरेखर संवर छे; तेना निमित्ते (तेना अर्थे) इन्द्रियो, कषायो अने संज्ञाओनो जेटला अंशे अथवा जेटलो काळ निग्रह करवामां आवे छे, तेटला अंशे अथवा तेटलो काळ पापास्रवद्वार बंध थाय छे.

इन्द्रियो, कषायो अने संज्ञाओभावपापास्रवद्रव्यपापास्रवनो हेतु (निमित्त) पूर्वे (१४० मी गाथामां) कह्यो हतो; अहीं (आ गाथामां) तेमनो निरोध (इन्द्रियो, कषायो अने संज्ञाओनो निरोध)भावपापसंवरद्रव्यपापसंवरनो हेतु अवधारवो (समजवो). १४१.


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१९

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्वदव्वेसु
णासवदि सुहं असुहं समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स ।।१४२।।
यस्य न विद्यते रागो द्वेषो मोहो वा सर्वद्रव्येषु
नास्रवति शुभमशुभं समसुखदुःखस्य भिक्षोः ।।१४२।।
सामान्यसंवरस्वरूपाख्यानमेतत
यस्य रागरूपो द्वेषरूपो मोहरूपो वा समग्रपरद्रव्येषु न हि विद्यते भावः तस्य

निर्विकारचैतन्यत्वात्समसुखदुःखस्य भिक्षोः शुभमशुभञ्च कर्म नास्रवति, किन्तु संव्रियत एव तदत्र मोहरागद्वेषपरिणामनिरोधो भावसंवरः तन्निमित्तः शुभाशुभकर्मपरिणामनिरोधो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यसंवर इति ।।१४२।।

सौ द्रव्यमां नहि राग-द्वेष-विमोह वर्ते जेहने,
शुभ-अशुभ कर्म न आस्रवे समदुःखसुख ते भिक्षुने. १४२.

अन्वयार्थः[ यस्य ] जेने [ सर्वद्रव्येषु ] सर्व द्रव्यो प्रत्ये [ रागः ] राग, [ द्वेषः ] द्वेष [ वा ] के [ मोहः ] मोह [ न विद्यते ] नथी, [ समसुखदुःखस्य भिक्षोः ] ते समसुखदुःख भिक्षुने (सुखदुःख प्रत्ये समभाववाळा मुनिने) [ शुभम् अशुभं ] शुभ अने अशुभ कर्म [ न आस्रवति ] आस्रवतुं नथी.

टीकाःआ, सामान्यपणे संवरना स्वरूपनुं कथन छे.

जेने समग्र परद्रव्यो प्रत्ये रागरूप, द्वेषरूप के मोहरूप भाव नथी, ते भिक्षुने के जे निर्विकारचैतन्यपणाने लीधे *समसुखदुःख छे तेनेशुभ अने अशुभ कर्मनो आस्रव थतो नथी, परंतु संवर ज थाय छे. तेथी अहीं (एम समजवुं के) मोह- रागद्वेषपरिणामनो निरोध ते भावसंवर छे, अने ते (मोहरागद्वेषरूप परिणामनो निरोध) जेनुं निमित्त छे एवो जे योगद्वारा प्रवेशतां पुद्गलोना शुभाशुभकर्मपरिणामनो (शुभाशुभकर्मरूप परिणामनो) निरोध ते द्रव्यसंवर छे. १४२. *समसुखदुःख = सुखदुःख जेने समान छे एवा; इष्टानिष्ट संयोगोमां जेने हर्षशोकादि विषम परिणाम थता नथी एवा. [जेने रागद्वेषमोह नथी, ते मुनि निर्विकारचैतन्यमय छे अर्थात् तेनुं चैतन्य

पर्याये पण विकाररहित छे तेथी ते समसुखदुःख छे.]

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
१९७
जस्स जदा खलु पुण्णं जोगे पावं च णत्थि विरदस्स
संवरणं तस्स तदा सुहासुहकदस्स कम्मस्स ।।१४३।।
यस्य यदा खलु पुण्यं योगे पापं च नास्ति विरतस्य
संवरणं तस्य तदा शुभाशुभकृतस्य कर्मणः ।।१४३।।
विशेषेण संवरस्वरूपाख्यानमेतत
यस्य योगिनो विरतस्य सर्वतो निवृत्तस्य योगे वाङ्मनःकायकर्मणि शुभपरिणामरूपं

पुण्यमशुभपरिणामरूपं पापञ्च यदा न भवति तस्य तदा शुभाशुभभावकृतस्य द्रव्यकर्मणः संवरः स्वकारणाभावात्प्रसिद्धयति तदत्र शुभाशुभपरिणामनिरोधो भावपुण्यपापसंवरो द्रव्यपुण्यपापसंवरस्य हेतुः प्रधानोऽवधारणीय इति ।।१४३।।

इति संवरपदार्थव्याख्यानं समाप्तम्
ज्यारे न योगे पुण्य तेम ज पाप वर्ते विरतने,
त्यारे शुभाशुभकृत करमनो थाय संवर तेहने. १४३.

अन्वयार्थः[ यस्य ] जेने (जे मुनिने), [ विरतस्य ] विरत वर्ततां थकां, [ योगे ] योगमां [ पुण्यं पापं च ] पुण्य अने पाप [ यदा ] ज्यारे [ खलु ] खरेखर [ न अस्ति ] होतां नथी, [ तदा ] त्यारे [ तस्य ] तेने [ शुभाशुभकृतस्य कर्मणः ] शुभाशुभभावकृत कर्मनो [ संवरणम् ] संवर थाय छे.

टीकाःआ, विशेषपणे संवरना स्वरूपनुं कथन छे.

जे योगीने, विरत अर्थात् सर्वतः निवृत्त वर्ततां थकां, योगमांवचन, मन अने कायसंबंधी क्रियामांशुभपरिणामरूप पुण्य अने अशुभपरिणामरूप पाप ज्यारे होतां नथी, त्यारे तेने शुभाशुभभावकृत द्रव्यकर्मनो (शुभाशुभभाव जेनुं निमित्त होय छे एवा द्रव्यकर्मनो), स्वकारणना अभावने लीधे, संवर थाय छे. तेथी अहीं (आ गाथामां) शुभाशुभ परिणामनो निरोधभावपुण्यपापसंवरद्रव्यपुण्यपापसंवरनो *प्रधान हेतु अवधारवो (समजवो). १४३.

आ रीते संवरपदार्थनुं व्याख्यान समाप्त थयुं. *प्रधान हेतु = मुख्य निमित्त. [द्रव्यसंवरमां ‘मुख्य निमित्त’ जीवना शुभाशुभ परिणामनो निरोध छे,


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१९

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अथ निर्जरापदार्थव्याख्यानम्
संवरजोगेहिं जुदो तवेहिं जो चिट्ठदे बहुविहेहिं
कम्माणं णिज्जरणं बहुगाणं कुणदि सो णियदं ।।१४४।।
संवरयोगाभ्यां युक्त स्तपोभिर्यश्चेष्टते बहुविधैः
कर्मणां निर्जरणं बहुकानां करोति स नियतम् ।।१४४।।
निर्जरास्वरूपाख्यानमेतत
शुभाशुभपरिणामनिरोधः संवरः, शुद्धोपयोगो योगः ताभ्यां युक्त स्तपो-

भिरनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्त शय्यासनकायक्लेशादिभेदाद्बहिरङ्गैः प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानभेदादन्तरङ्गैश्च बहुविधैर्यश्चेष्टते स खलु

हवे निर्जरापदार्थनुं व्याख्यान छे.
जे योग-संवरयुक्त जीव बहुविध तपो सह परिणमे,
तेने नियमथी निर्जरा बहु कर्म केरी थाय छे. १४४.

अन्वयार्थः[ संवरयोगाभ्याम् युक्तः ] संवर अने योगथी (शुद्धोपयोगथी) युक्त एवो [ यः ] जे जीव [ बहुविधैः तपोभिः चेष्टते ] बहुविध तपो सहित प्रवर्ते छे, [ सः ] ते [ नियतम् ] नियमथी [ बहुकानां कर्मणां ] घणां कर्मोनी [ निर्जरणं करोति ] निर्जरा करे छे.

टीकाःआ, निर्जराना स्वरूपनुं कथन छे.

संवर एटले शुभाशुभ परिणामनो निरोध, अने योग एटले शुद्धोपयोग; तेमनाथी (संवर अने योगथी) युक्त एवो जे (पुरुष), अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन अने कायक्लेशादि भेदोवाळां बहिरंग तपो सहित तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग अने ध्यान एवा भेदोवाळां अंतरंग तपो सहितएम बहुविध तपो सहित प्रवर्ते छे, ते (पुरुष) खरेखर घणां कर्मोनी निर्जरा

योगनो निरोध नहि. (अहीं ए ख्यालमां राखवायोग्य छे के द्रव्यसंवरनुं उपादानकारणनिश्चय-
कारण तो पुद्गल पोते ज छे.)]

१. जे जीवने सहजशुद्धस्वरूपना प्रतपनरूप निश्चय-तप होय ते जीवना, हठ विना वर्तता अनशनादि-

संबंधी भावोने तप कहेवामां आवे छे. तेमां वर्ततो शुद्धिरूप अंश ते निश्चय-तप छे अने शुभपणारूप

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
१९९

बहूनां कर्मणां निर्जरणं करोति तदत्र कर्मवीर्यशातनसमर्थो बहिरङ्गान्तरङ्गतपोभिर्बृंहितः शुद्धोपयोगो भावनिर्जरा, तदनुभावनीरसीभूतानामेकदेशसंक्षयः समुपात्तकर्मपुद्गलानां द्रव्यनिर्जरेति ।।१४४।।

जो संवरेण जुत्तो अप्पट्ठपसाधगो हि अप्पाणं
मुणिऊण झादि णियदं णाणं सो संधुणोदि कम्मरयं ।।१४५।।
यः संवरेण युक्त : आत्मार्थप्रसाधको ह्यात्मानम्
ज्ञात्वा ध्यायति नियतं ज्ञानं स संधुनोति कर्मरजः ।।१४५।।

करे छे. तेथी अहीं (आ गाथामां एम कह्युं के), कर्मना वीर्यनुं (कर्मनी शक्तिनुं) शातन करवामां समर्थ एवो जे बहिरंग अने अंतरंग तपो वडे वृद्धि पामेलो शुद्धोपयोग ते भावनिर्जरा छे अने तेना प्रभावथी (वृद्धि पामेला शुद्धोपयोगना निमित्तथी) नीरस थयेलां एवां उपार्जित कर्मपुद्गलोनो एकदेश संक्षय ते द्रव्यनिर्जरा छे. १४४.

संवर सहित, आत्मप्रयोजननो प्रसाधक आत्मने
जाणी, सुनिश्चळ ज्ञान ध्यावे, ते करमरज निर्जरे. १४५.
अन्वयार्थः[ संवरेण युक्तः ] संवरथी युक्त एवो [ यः ] जे जीव,
अंशने व्यवहार-तप कहेवामां आवे छे. (मिथ्याद्रष्टिने निश्चय-तप नथी तेथी तेना अनशनादि-

संबंधी शुभ भावोने व्यवहार-तपो पण कहेवाता नथी; कारण के ज्यां वास्तविक तपनो सद्भाव ज नथी, त्यां ते शुभ भावोमां आरोप कोनो करवो?) १. शातन करवुं = पातळुं करवुं; हीन करवुं; क्षीण करवुं; नष्ट करवुं. २. वृद्धि पामेलो = वधेलो; उग्र थयेलो. [संवर अने शुद्धोपयोगवाळा जीवने ज्यारे उग्र शुद्धोपयोग थाय

छे त्यारे घणां कर्मोनी निर्जरा थाय छे. शुद्धोपयोगनी उग्रता करवानी विधि शुद्धात्मद्रव्यना आलंबननी
उग्रता करवी ते ज छे. एम करनारने, सहजदशाए हठ विना जे अनशनादिसंबंधी भावो वर्ते तेमां
(
शुभपणारूप अंशनी साथे) उग्र-शुद्धिरूप अंश होय छे, जेथी घणां कर्मोनी निर्जरा थाय छे.
(मिथ्याद्रष्टिने तो शुद्धात्मद्रव्य भास्युं ज नथी, तेथी तेने संवर नथी, शुद्धोपयोग नथी, शुद्धोपयोगनी
वृद्धिनी तो वात ज क्यां रही? तेथी तेने, सहज दशा विनानाहठपूर्वकअनशनादिसंबंधी
शुभभावो कदाचित् भले होय तोपण, मोक्षना हेतुभूत निर्जरा बिलकुल होती नथी.]

३. संक्षय = सम्यक् प्रकारे क्षय.


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२००

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
मुख्यनिर्जराकारणोपन्यासोऽयम्
यो हि संवरेण शुभाशुभपरिणामपरमनिरोधेन युक्त : परिज्ञातवस्तुस्वरूपः पर-

प्रयोजनेभ्यो व्यावृत्तबुद्धिः केवलं स्वप्रयोजनसाधनोद्यतमनाः आत्मानं स्वोपलम्भेनोपलभ्य गुणगुणिनोर्वस्तुत्वेनाभेदात्तदेव ज्ञानं स्वं स्वेनाविचलितमनास्सञ्चेतयते स खलु नितान्तनिस्स्नेहः प्रहीणस्नेहाभ्यङ्गपरिष्वङ्गशुद्धस्फ टिकस्तम्भवत् पूर्वोपात्तं कर्मरजः संधुनोति [ आत्मार्थप्रसाधकः हि ] खरेखर आत्मार्थनो प्रसाधक (स्वप्रयोजननो प्रकृष्ट साधक) वर्ततो थको, [ आत्मानम् ज्ञात्वा ] आत्माने जाणीने (अनुभवीने) [ ज्ञानं नियतं ध्यायति ] ज्ञानने निश्चळपणे ध्यावे छे, [ सः ] ते [ कर्मरजः ] कर्मरजने [ संधुनोति ] खेरवी नाखे छे.

टीकाःआ, निर्जराना मुख्य कारणनुं कथन छे.

संवरथी अर्थात् शुभाशुभ परिणामना परम निरोधथी युक्त एवो जे जीव, वस्तुस्वरूपने (हेय-उपादेय तत्त्वने) बराबर जाणतो थको परप्रयोजनोथी जेनी बुद्धि व्यावृत्त थई छे अने केवळ स्वप्रयोजन साधवामां जेनुं मन उद्यत थयुं छे एवो वर्ततो थको, आत्माने स्वोपलब्धिथी उपलब्ध करीने (पोताने स्वानुभव वडे अनुभवीने), गुण-गुणीनो वस्तुपणे अभेद होवाथी ते ज ज्ञाननेस्वनेस्व वडे अविचळपरिणतिवाळो थईने संचेते छे, ते जीव खरेखर अत्यंत निःस्नेह वर्ततो थको जेने स्नेहना लेपनो संग प्रक्षीण थयो छे एवा शुद्ध स्फटिकना स्तंभनी माफक पूर्वोपार्जित कर्मरजने खेरवी नाखे छे. १. व्यावृत्त थवुं = निवर्तवुं; निवृत्त थवुं; पाछा वळवुं. २. मन = मति; बुद्धि; भाव; परिणाम. ३. उद्यत थवुं = तत्पर थवुं; लागवुं; उद्यमवंत थवुं; वळवुं; ढळवुं. ४. गुणी अने गुणमां वस्तु-अपेक्षाए अभेद छे तेथी आत्मा कहो के ज्ञान कहोबन्ने एक ज

छे. उपर जेने ‘आत्मा’शब्दथी कह्यो हतो तेने ज अहीं ‘ज्ञान’शब्दथी कहेल छे. ते ज्ञानमां
निजात्मामांनिजात्मा वडे निश्चळ परिणति करीने तेनुं संचेतनसंवेदनअनुभवन करवुं ते
ध्यान छे.

५. निःस्नेह = स्नेह रहित; मोहरागद्वेष रहित. ६. स्नेह = तेल; चीकणो पदार्थ; स्निग्धता; चीकाश.