Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 34.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
६३
शरीरेऽवतिष्ठमानः स्वप्रदेशोपसंहारेण तद्वयाप्नोत्यणुशरीरमिति ।।३३।।
सव्वत्थ अत्थि जीवो ण य एक्को एक्ककाय एक्कट्ठो
अज्झवसाणविसिट्ठो चिट्ठदि मलिणो रजमलेहिं ।।३४।।
सर्वत्रास्ति जीवो न चैक एककाये ऐक्यस्थः
अध्यवसानविशिष्टश्चेष्टते मलिनो रजोमलैः ।।३४।।

अत्र जीवस्य देहाद्देहांतरेऽस्तित्वं, देहात्पृथग्भूतत्वं, देहांतरसञ्चरणकारणं चोपन्यस्तम् पाम्यो थको स्वप्रदेशोना संकोच वडे ते नाना शरीरमां व्यापे छे.

भावार्थत्रण लोक अने त्रण काळनां समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायोने एक समये प्रकाशवामां समर्थ एवा विशुद्ध-दर्शनज्ञानस्वभाववाळा चैतन्यचमत्कारमात्र शुद्धजीवास्तिकायथी विलक्षण मिथ्यात्वरागादि विकल्पो वडे उपार्जित जे शरीरनामकर्म तेनाथी जनित (अर्थात् ते शरीरनामकर्मनो उदय जेमां निमित्त छे एवा) संकोच- विस्तारना आधीनपणे जीव सर्वोत्कृष्ट अवगाहे परिणमतो थको सहस्रयोजनप्रमाण महामच्छना शरीरमां व्यापे छे, जघन्य अवगाहे परिणमतो थको उत्सेध घनांगुलना असंख्यमा भाग जेवडा लब्ध्यपर्याप्त सूक्ष्मनिगोदना शरीरमां व्यापे छे अने मध्यम अवगाहे परिणमतो थको मध्यम शरीरोमां व्यापे छे. ३३.

तन तन धरे जीव, तन महीं ऐक्यस्थ पण नहि एक छे,
जीव विविध अध्यवसाययुत, रजमळमलिन थईने भमे. ३४.

अन्वयार्थ[ जीवः ] जीव [ सर्वत्र ] सर्वत्र (क्रमवर्ती सर्व शरीरोमां) [ अस्ति ] छे [ च ] अने [ एककाये ] कोई एक शरीरमां [ ऐक्यस्थः ] (क्षीरनीरवत) एकपणे रह्यो होवा छतां [ न एकः ] तेनी साथे एक नथी; [ अध्यवसानविशिष्टः ] अध्यवसाय- विशिष्ट वर्ततो थको [ रजोमलैः मलिनः ] रजमळ (कर्ममळ) वडे मलिन होवाथी [ चेष्टते ] ते भमे छे.

टीकाअहीं जीवनुं देहथी देहांतरमां (एक शरीरथी अन्य शरीरमां) अस्तित्व, देहथी पृथक्पणुं अने देहांतरमां गमननुं कारण कहेल छे.