द्रव्यकर्मणां निमित्तमात्रत्वेनौदयिकादिभावकर्तृत्वमत्रोक्त म् ।
न खलु कर्मणा विना जीवस्योदयोपशमौ क्षयक्षयोपशमावपि विद्येते; ततः क्षायिक- क्षायोपशमिकश्चौदयिकौपशमिकश्च भावः कर्मकृतोऽनुमन्तव्यः । पारिणामिकस्त्वनादिनिधनो निरुपाधिः स्वाभाविक एव । क्षायिकस्तु स्वभावव्यक्ति रूपत्वादनन्तोऽपि कर्मणः क्षयेणोत्पद्य- मानत्वात्सादिरिति कर्मकृत एवोक्त : । औपशमिकस्तु कर्मणामुपशमे समुत्पद्यमानत्वादनुपशमे समुच्छिद्यमानत्वात् कर्मकृत एवेति ।
अथवा उदयोपशमक्षयक्षयोपशमलक्षणाश्चतस्रो द्रव्यकर्मणामेवावस्थाः, न पुनः परि- णामलक्षणैकावस्थस्य जीवस्य; तत उदयादिसञ्जातानामात्मनो भावानां निमित्तमात्रभूत-
टीकाः — अहीं, (औदयिकादि भावोनां) निमित्तमात्र तरीके द्रव्यकर्मोने औदयिकादि भावोनुं कर्तापणुं कह्युं छे.
(एक रीते व्याख्या करतां — ) कर्म विना जीवने उदय – उपशम तेम ज क्षय – क्षयोपशम होता नथी (अर्थात् द्रव्यकर्म विना जीवने औदयिकादि चार भावो होता नथी); तेथी क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक के औपशमिक भाव कर्मकृत संमत करवो. पारिणामिक भाव तो अनादि-अनंत, *निरुपाधि, स्वाभाविक ज छे. (औदयिक अने क्षायोपशमिक भावो कर्म विना होता नथी अने तेथी कर्मकृत कही शकाय — ए वात तो स्पष्ट समजाय एवी छे; क्षायिक अने औपशमिक भावोनी बाबतमां नीचे प्रमाणे स्पष्टता करवामां आवे छेः) क्षायिक भाव, जोके स्वभावनी व्यक्तिरूप ( – प्रगटतारूप) होवाथी अनंत ( – अंत विनानो) छे तोपण, कर्मना क्षय वडे उत्पन्न थतो होवाने लीधे सादि छे तेथी कर्मकृत ज कहेवामां आव्यो छे. औपशमिक भाव कर्मना उपशमे उत्पन्न थतो होवाथी अने अनुपशमे नष्ट थतो होवाथी कर्मकृत ज छे. (आम औदयिकादि चार भावो कर्मकृत संमत करवा.)
अथवा (बीजी रीते व्याख्या करतां) — उदय, उपशम, क्षय अने क्षयोपशमस्वरूप चार (अवस्थाओ) द्रव्यकर्मनी ज अवस्थाओ छे, परिणामस्वरूप एक अवस्थावाळा जीवनी नहि (अर्थात् उदय वगेरे अवस्थाओ द्रव्यकर्मनी ज छे, ‘परिणाम’ जेनुं स्वरूप छे एवी एक अवस्थाए अवस्थित जीवनी — पारिणामिक भावरूपे रहेला जीवनी — ते चार अवस्थाओ नथी); तेथी उदयादिक वडे उत्पन्न थता
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*निरुपाधि = उपाधि विनानो; औपाधिक न होय एवो. (जीवनो पारिणामिक भाव सर्व कर्मोपाधिथी
निरपेक्ष होवाने लीधे निरुपाधि छे.)